Monday, April 23, 2012

पंजाब की खेती में रासायनिक प्रयोगों के दुष्प्रभावो से सबक

पंजाब की खेती में रासायनिक प्रयोगों के दुष्प्रभावो से सबक by Kashmiri Lal on Monday, 23 April 2012 at 20:56 · पंजाब की खेती एक बार फिर सुर्ख़ियों में हे, परन्तु गलत कारणों से. रासायनिक खेती के दुष-प्रभावों के खिलाफ मानव-अधिकार आयोग ने काफी कुछ कहा हे, अभी हाल में ही. पहले भी योजना आयोग ने तिपनी की थी की पंजाब जिस प्रकार से भू-जल का अनाप-शनाप दोहन कर रहा हे, वो देश के लिए एक गलत मॉडल हे. वहां के मुख्य मंत्री भी टिपण्णी भी मजेदार थी, की ये मॉडल इसी केंद्र सरकार की नीतियों की ही देन हे जिसे तब हरित क्रांति या ग्रीन क्रांति कही गयी थी और अब उसे एवर-ग्रीन कहने लगे हे. ध्यान रहे की हे शब्दावली यानी केवल ग्रीन नहीं एवेर्ग्रीन भी श्री स्वामी नाथन की उपज हे जिसे हरित क्रांति का जनक कहा जाता हे. खैर, प्रकृति से खिलवाड़ या उसका बेलगाम दोहन इंसान के लिए कितना भारी पड़ सकता है, पंजाब की खेती उसका एक बड़ा उदाहरण है। पंजाब ने एक समय हरित क्रांति में अग्रणी भूमिका निभाई। लेकिन इसका दूसरा पहलू यह भी रहा है कि खेती में रासायनिक खादों और कीटनाशकों की खपत बढ़ती गई। यही नहीं, फिर ऐसे कीटनाशक भी इस्तेमाल होने लगे जो ज्यादा घातक थे। पंजाब में यह सबसे अधिक हुआ है और इसके भयावह नुकसान हुए हैं। इन कीटनाशकों के संपर्क और फसलों में आए उनके असर से कैंसर सहित अनेक गंभीर बीमारियां पनपी हैं। हालत यह हो गई कि पंजाब के मालवा क्षेत्र से राजस्थान की ओर जाने वाली एक ट्रेन को इसलिए ‘कैंसर ट्रेन’ के नाम से जाना जाने लगा था, क्योंकि सस्ते इलाज के लिए हर रोज इस बीमारी के शिकार लगभग सौ लोग बीकानेर जाते थे। गनीमत है कि इससे संबंधित खबरों में जब यह तथ्य सामने आने लगा कि कीटनाशकों के बेलगाम इस्तेमाल के कारण ही पंजाब के मालवा क्षेत्र में यह स्थिति बनी है, तो राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इस पर स्वत: संज्ञान लेकर राज्य सरकार को जरूरी कार्रवाई करने के निर्देश दिए। नतीजतन पंजाब सरकार ने सेहत के लिए बेहद खतरनाक साबित हो रहे कीटनाशकों के उपयोग, उत्पादन और आयात पर पाबंदी लगा दी है। गौरतलब है कि पिछले कुछ सालों से पंजाब के बठिंडा, फरीदकोट, मोगा, मुक्तसर, फिरोजपुर, संगरूर और मानसा जिलों में बड़ी तादाद में गरीब किसान कैंसर के शिकार हो रहे हैं। सत्तर के दशक में पंजाब में जिस हरित क्रांति की शुरुआत हुई थी, उसकी बहुप्रचारित कामयाबी की कीमत अब बहुत सारे लोगों को चुकानी पड़ रही है। उस दौरान ज्यादा पैदावार देने वाली फसलों की किस्में तैयार करने के लिए रासायनिक खादों और कीटनाशकों का बेलगाम इस्तेमाल होने लगा। किसानों को शायद यह अंदाजा न रहा हो कि इसका नतीजा क्या होने वाला है। लेकिन क्या सरकार और उसकी प्रयोगशालाओं में बैठे विशेषज्ञ भी इस हकीकत से अनजान थे कि ये कीटनाशक तात्कालिक रूप से भले फायदेमंद साबित हों, लेकिन आखिरकार मनुष्य की सेहत के लिए कितने खतरनाक साबित हो सकते हैं? विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र, चंडीगढ़ स्थित पीजीआई और पंजाब विश्वविद्यालय सहित खुद सरकार की ओर से कराए गए अध्ययनों में ये तथ्य उजागर हो चुके हैं कि कीटनाशकों के व्यापक इस्तेमाल के कारण कैंसर का फैलाव खतरनाक स्तर तक पहुंच चुका है। लेकिन विचित्र है कि चेतावनी देने वाले ऐसे तमाम अध्ययनों को सरकार ने सिरे से खारिज कर दिया और स्थिति नियंत्रण में होने की बात कही। देर से सही, राज्य सरकार ने इस मसले पर एक सकारात्मक फैसला किया है तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए। कीटनाशकों की बाबत किसानों को जागरूक करने के साथ-साथ कैंसर के इलाज को गरीबों के लिए सुलभ बनाने की दिशा में कदम उठाना राज्य सरकार की जिम्मेदारी है। यह ध्यान रखने की बात है कि कीटनाशक या रासायनिक खाद छिड़कने के जोखिम भरे काम में लगे ज्यादातर लोग दूसरे राज्यों से आए मजदूर होते हैं और उन्हें स्वास्थ्य बीमा या सामाजिक सुरक्षा की किसी और योजना का लाभ नहीं मिल पाता है। पंजाब के अनुभव से सबक लेते हुए देश के दूसरे हिस्सों में भी कीटनाशकों के इस्तेमाल को नियंत्रितकरने और खेती के ऐसे तौर-तरीकों को बढ़ावा देने की पहल होनी चाहिए जो सेहत और पर्यावरण के अनुकूल हों.सुना हे की असम प्रदेश की सरकार ने भी जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए काफी उपक्रम शुरू किये हे. और सुना तो ये हे की मोनसेंटो कंपनी में अपने कर्मचारियों के लिए वहां की केन्टीन में भी जैविक उत्पाद ही प्रयुक्त होते हे. लेकिन थोडा दर लगता हे की मोनसेंटो और कारगिल जैसी कंपनिया भारत जैसे देश में ये जैविक कृषि के प्रयोग होने देंगे औ ये तथाकथिक प्रगतिशील कृषि वैज्ञानिक इसे चलने देंगे?

Sunday, April 1, 2012

बढ़ रही हे बिना पारिवारिक जीवन के अकेले रहने की प्रवृति - टाइम मैगजीन का खुलासा





बढ़ रही हे बिना पारिवारिक जीवन के अकेले रहने की प्रवृति - टाइम मैगजीन का खुलासा
by Kashmiri Lal on Sunday, 1 April 2012 at 20:28 ·

हम काफी समाये से श्री गुरुमूर्ति जी जैसे कई लोगो के लेखो और भाषणों में पढ़ते रहते थे की बाहरी मुल्को में परिवार टूटते जा रहे हे. और ये भी की बिना मन बाप के बच्चों और ऐसे मन बाप जिनकी चिंता बच्चे नहीं करते बहुत बढ़ती जा रही हे. इस बात की पुश्टी प्रसिद्ध पत्रिका टाइम ने की हे एक खोजी लेख द्वारा. टाइम’ पत्रिका के ताजा अंक (12 मार्च 2012) में ऐसी दस बातों का ब्योरा दिया गया है जो ‘आपकी जिंदगी को बदल रही हैं।’इनमें पहली है- अकेले जीना। परिवार-परंपरा के बाहर ऐसा एकाकी जीवन, जिसमें किसी संतति का स्थान नहीं होता। अमेरिका समेत विभिन्न विकसित देशों के आंकड़ों के जरिए इसमें बताया गया है कि किस प्रकार दिन-प्रतिदिन ऐसे सभी आगे बढ़े हुए देशों के लोगों में बिना किसी परिवार के अकेले रहने की प्रवृत्ति जोर पकड़ती जा रही है। अमेरिका में 1950 में अकेले रहने वाले लोगों की संख्या जहां सिर्फ चालीस लाख, यानी वहां की आबादी का नौ प्रतिशत थी, वह 2011 की जनगणना के मुताबिक बढ़ कर तीन करोड़ तीस लाख, यानी अट्ठाईस फीसद हो चुकी है। इसमें दिए गए तथ्यों से पता चलता है कि ऐसे एकाकी लोगों की सबसे बड़ी तादाद स्वीडन में, सैंतालीस प्रतिशत है। ब्रिटेन में चौंतीस, जापान में इकतीस, इटली में उनतीस, कनाडा में सत्ताईस, रूस में पच्चीस, दक्षिण अफ्रीका में चौबीस और केन्या, ब्राजील और भारत जैसे विकासशील देशों में क्रमश: पंद्रह, दस और तीन प्रतिशत है।

‘टाइम’ में आधुनिक दुनिया की इस नई सच्चाई को दुनिया के चरम आणवीकरण (अल्टीमेट एटमाइजेशन) का संकेत कहा गया है। पहले आधुनिक जीवन को एकल परिवार से जोड़ा जाता था, अब इसका मतलब क्रमश: अकेला आदमी होता जा रहा है। इस उभरती हुई नई सच्चाई को समाजशास्त्रियों का एक हिस्सा समाज के ‘स्वास्थ्य और खुशियों’ के लिए हानिकारक मानता है और इसकी व्याख्या कुछ इस प्रकार करता है कि ‘यह इस बात का संकेत है कि हम कितने अकेले और असंलग्न हो गए हैं।’ इसके विपरीत दूसरी व्याख्याएं यह कहती हैं कि इस बात के कोई प्रमाण नहीं हैं कि अकेले रहना अमेरिकी आदमी को अधिक अकेला बना रहा है। खुद ‘टाइम’ पत्रिका के लेखक एरिक क्लिनेनबर्ग का मानना है कि ‘आखिरकार अकेले रहने से एक उद्देश्य की पूर्ति होती है। यह पवित्र आधुनिक मूल्यों- व्यक्ति स्वातंत्र्य, आत्म-नियंत्रण, और आत्मानुभव को अपनाने में हमारे लिए मददगार होता है जो किशोरावस्था से लेकर अंतिम दिनों तक हमारा साथ देते हैं। अकेले रहना हमें इस बात की अनुमति देता है कि हम अपनी शर्तों पर अपनी मर्जी का जीवन जिएं, जब मन आए काम करें।’

दूसरी बात बहुत ही खतरनाक हे की ये प्रवृति इस बात की द्योतक हे की आदमी ज्यादा स्व-केन्द्रित और व्यक्तिवादी होता जा रहा हे. उसको एहसास हो रहा हे की लम्बे सम्बन्ध समझोता चाहते हे, मायने की त्याग चाहते हे. इसलिए वो लम्बे, गहरे और अन्तरंग सम्बन्ध बनाने के लिए जो कीमत चुकानी पड़ती हे उसको छोड़ कर आसन रिश्ते ढूंढने लगा हे, और उसका कहना हे, (फेसबुक पर लिखते हुए बड़ी शर्म आ रही हे की) आदमी फेसबुक के "मित्र" बनाने लग गए हे. हा हा हा .....

अगर ऊपर का पर पढेंगे तो एक आंकड़ा था की अभी ये प्रवृति भारत में सिर्फ तीन प्रतिशत ही हे जो अमरीका में अठाईस प्रतिशत, ब्रिटेन में चोंतीस और स्वीडन में सेंतालिस प्रतिशत हे. परन्तु जिस ढंग से यहाँ भी विदेशी अप-संस्कृति का प्रतिशत बढ़ रहा हे, मायने की LPG बढ़ रही हे उसी अनुपात में ये बिना परिवार के रहने की प्रवृति भी बढ़ेगे, ऐसा मानना चाहिए. मैंने यहाँ LPG गैस का जिक्र नहीं LIBRELISATION PRIVATISATION तथा GLOBALISATION - उदारीकरण, निजीकरण, भूमंदालिकरण आदि के लिए किया हे जिसके मॉडल के नाते अमरीका और यूरोप को देखा जाता हे. अभी जितने भे पारिवारिक सीरिअल टीवी दिखा रहा हे उनमें से अधिकांश लिव इन रेलाशन को महिमामंडित करने वाले हे. एक चुटकला सुना था, पहले लोग विवाह करते हुए सोचते थे की आपनी जाती में ही हो, फिर कहने लगे की जाती बिरादरी की बात छोडो अपने इलाके में हो, फिर बोले की इसको भी छोडो, लड़की अच्छी होनी चाहिए और अब बोलते हे की वो भी कोई बात नहीं लड़के का लडकी से ही होना चाहिए. समलिंगी शादियों को जिस प्रकार से कोर्ट से मान्यता मिलनी शुरू हुई हे, ये चिंता बढ़ती जाती हे. में नीचे कुछ लिनक्स दे रहे हूँ जहाँ से आप स्वयं टाइम पत्रिका का लेख पढ़ सकें.



10 Ideas

Eric Klinenberg's article in your "10 Ideas That Are Changing Your Life" package says people who live alone combat loneliness by becoming more socially active ["Living Alone Is the New Norm," March 12]. It's not that people nowadays want to be on their own; the real issue is that they are increasingly self-centered and individualistic. Meaningful and lasting relationships require compromise. So instead of paying this price for long-term and intimate relationships, people choose what is easy and does not require any real commitment, happy just to have Facebook "friends."

René de Groot,

Olonzac,...



Read more: http://www.time.com/time/magazine/article/0,9171,2109803,00.html#ixzz1qmweMG18

The extraordinary rise of solitary living is the biggest social change that we've neglected to identify, let alone examine.

Consider that in 1950, a mere 4 million Americans lived alone, and they made up only 9% of households. Back then, going solo was most common in the open, sprawling Western states--Alaska, Montana and Nevada--that attracted migrant workingmen, and it was usually a short-lived stage on the road to a more conventional domestic life.

Not anymore. According to 2011 census data, people who live alone--nearly 33 million Americans--make up 28% of all U.S. households, which means they are now tied with childless...







KANYA POOJAN KA EK CHITR
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