Thursday, May 24, 2012

swadeshi blog: नेक्सावर के लिये अनिवार्य लाइसेन्स स्वागत योग्य

swadeshi blog: नेक्सावर के लिये अनिवार्य लाइसेन्स स्वागत योग्य: नेक्सावर के लिये अनिवार्य लाइसेन्स स्वागत योग्य ``बहु-राश्ट्रीय कम्पनियों के एकाधिकार के विरूद्ध पेटेण्ट के मामले में आम जनता की पहली जीत´´ ...

नेक्सावर के लिये अनिवार्य लाइसेन्स स्वागत योग्य

नेक्सावर के लिये अनिवार्य लाइसेन्स स्वागत योग्य ``बहु-राश्ट्रीय कम्पनियों के एकाधिकार के विरूद्ध पेटेण्ट के मामले में आम जनता की पहली जीत´´ जर्मनी की बेयर ए.जी. कम्पनी, अपने पेटेण्ट के आधार पर जिस केन्सर-रोधी दवा ``नेक्सावर´´, को 2,80,000 रूपये मे बेचती थी, उसे मात्र 8,800 रूपये ( 3 प्रतिशत या 1/33 कीमत) में बेचने का प्रस्ताव करने पर, भारतीय दवा कम्पनी नाटको को भारतीय पेटेण्ट कार्यालय द्वारा अनिवार्य लाइसेन्स की स्वीकृति एक प्रशंसनीय व ऐतिहासिक कदम है। यहाँ हम यह भी बताते चलें कि जिस महोदय श्री कुरियन ने यह शाबासी वाला काम किया हे , उन्होंने ने इस एतिहासिक काम करने के कुछ दिन बाद ही इस जिम्मेवारी से इस्तीफ़ा दे दिया हालाँकि उनका आधा कार्यकाल बाकी था. ये भी एक रहस्य ही है पेटेण्ट नियन्त्रक पी.एच.कुरियन का यह साहसिक कदम, जहाँ 1995 से बाद के दवा मॉलिक्यूल्स पर उत्पाद पेटेण्ट का प्रावधान करने के बाद का पहला ऐसा कदम है जो आगे चल करके देश में, और विदेशों में भी, विशेश कर विकासशील देशों में, बहुराश्ट्रीय कम्पनियों के विरूद्ध मानवता की जीत की पहल कहा जायेगा। इससे पेटेण्ट के एकाधिकार के कारण मंहगी बेची जा रही अन्य भी अनेक दवाओं के विरूद्ध अनिवार्य लाइसेन्स देने का मार्ग प्रशस्त होगा। आज बीसों ऐसी आयातित दवाएँ हैं जो अमरिकी `` खाद्य व औशध प्रशासन´´ की परिभाशानुसार भी देश के बाजार में एकाधिकारी दवा की श्रेणी मे आती है, जिनके निर्माण हेतु भारतीय कम्पनियों को अनिवार्य लाइसेन्स के लिए आवेदन करने हेतु आगे आना चाहिये। उदाहरणत: रोश कम्पनी का 50 मिलि. का केन्सर-रोधी दवा हरसेप्टीन रू. 1,35,000 का आता है। मर्क का इबीZटक्स 87,920 रूपये का, फाइजर का मेक्यूजेन 45,300 रू. का आता है। इसी प्रकार पेटेण्ट के नाम से लिये एकाधिकार के कारण केन्सर, मधुमेह, हृदय रोग, यकृत व गुर्दो की जानलेवा बीमारियों की दवाओं की लागत से कई सौ प्रतिशत उच्च कीमत लेने के अनेक उदाहरण हैं। नेक्सावर को ही जहाँ भारतीय कम्पनी नाटको अपना लाभ व अनुसन्धान लागत आदि सब जोड़ कर जहाँ 8800 रूपये में सुलभ करायेगी वहीं बेयर ए.जी. अभी तक इसे नाटको की तुलना में 3300 प्रतिशत उच्च दामों में बेच रही थी। वस्तुत: बेयर द्वारा नेक्सावर का पेटेण्ट लेने के बाद भी उसे देश में यथोचित रूप में उपलब्ध न कराना व देश में यकृत व गुर्दे के केन्सर से मरने वाले रोगियों की बड़ी संख्या को देखते हुये पेटेण्ट आफिस ने यह निर्णय लिया है। भारतीय दवा कम्पनी नाटको की भी यह पहल सराहनीय है। आज आवश्यकता इस बात की है कि ऐसी ही जो अनेक अन्य दवायें जिनके अत्यन्त ऊँचे एकाधिकारी दाम लेकर, बहुराश्ट्रीय कम्पनियों द्वारा मरणासé रोगियों की विवशता पर जों लाभार्जन रू. 2,80,000 मे बिक रही केन्सर-रोधी दवा को रूपये 8800 में बना कर बेचने का अनिवार्य लाइसेन्स : भारतीय पेटेण्ट आफिस का प्रशंसनीय व ऐतिहासिक कदम। ऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋ च्ंहम 2 किया जा रहा है। उन सभी दवाओं के देश मे उत्पादन के लिये सभी समर्थ भारतीय दवा कम्पनियों, को अनिवार्य लाइसेन्स के आवेदन के लिये आगे आना चाहिये। वहीं दूसरी ओर जन स्वास्थ्य के प्रति सजग सामाजिक संगठनो को भी इस दिशा मे जन दबाव बनाने की दिशा में सजग होना चाहिये कि बेयर ए. जी. पेटेण्ट आफिस के इस निर्णय पर सर्वोच्य न्यायालय में वाद प्रस्तुत कर स्थगनादेश न ले ले। एक भिन्न मामले में जहाँ इमेण्टीनिब नामक दवा जो 1995 के पूर्व की होने से उस पर उसकी पेटेण्ट-धारी कम्पनी, नोवार्टिस, जिसका भारत में उत्पाद पेटेण्ट नहीं होने पर भी, जब वह उसे 11,00,000 रू. मे बेच रही थी व 3 भारतीय कम्पनियों द्वारा वही इमेिण्टनिब रूपये 34,000 मे सुलभ करा देने पर, पिछले दशक में चेन्नई उच्च न्यायालय से कई महिनों के लिये, निराधार ही स्थगनादेश ले कर 24,000 रक्त केन्सर के रोगियों की चिकित्सा बाधित कर दी थी। यदि इस मामले में बेयर ए. जी. भी अनिवार्य लाइसेन्स की क्रियािन्वती में अनावश्यक विलम्ब करने के लिये सर्वोच्य न्यायालय मे जाती है तो ``बेयर ए.जी.´´ की सारी दवाओं, कीटनाशको व अन्य उत्पादों का पूर्ण बहिश्कार करने की सामान्य जनता व विशेशकर चिकित्सक समुदाय को आगे आना चाहिये। देश का यह पहला अनिवार्य लाइसेन्स है। इसकी क्रियान्वति में आने वाली हर सम्भावित बाधा को समाप्त करने के लिये देश के सभी वर्गो को अग्र-सोच के साथ सन्नद्ध हो जाना चाहिये। सर्वाधिक चिन्ता का विशय, कुछ वर्गों द्वारा यह सुझाना है कि, विश्व मे अनुसन्धान प्रोत्साहन व पेटेण्ट के मामलों में अनावश्यक विवादों से बचने के लिये नाटको को जर्मन कम्पनी से समझौता करके चलना चाहिये। ऐसे समय मे हर जागरूक नागरिक को नाटको कम्पनी व पेटेण्ट आफिस के साथ खडे़ रहने की आवश्यकता है। विशेशकर जब जर्मन कम्पनी को, उसके पेटेण्ट की रॉयल्टी दिलाने हेतु, नाटको के बिक्री मूल्य की 6 प्रतिशत रािश प्रति त्रैमासिक बिक्री की आय में से न्यायपूर्वक दिलाने का भी निर्णय दिया है। ऐसे में बेयर ए.जी. द्वारा सर्वोच्य न्यायालय में जाना उचित नहीं है। उसके पेटेण्ट की रॉयल्टी उसे दिलायी जा रही है। अतएव अब मामला सर्वोच्य न्यायालय में ले जाकर बेयर कहीं नाटको को और अधिक रॉयल्टी के लिये बाध्य न कर सके, इस हेतु ऐसा वातावरण बनाना परम आवश्यक है। पेटेण्ट नियन्त्रक पी.एच. कुरियन के इस क्रान्तिकारी निर्णय से उच्च लाभ अर्जित करने वाली एकाधिकारी कम्पनियों में अन्दर तक सिहरन दौड गयी है स्विस कम्पनी `रोश होिल्डंग ए.जी.´ ने तो भारतीय पेटेण्ट नियंत्रक पी.एच. कुरियन के मार्च 9, 2012 के एक ही साहसिक निर्णय पर, घबरा कर उसका जो हरसेिप्टन नामक इंजेक्शन जो वह एक इंजेक्शन 1,35,000 रूपये में बेचती है और मेबथेरा जिसकी इलाज के लिये मासिक मात्रा थोक में वह 2,56,000 मे बेच रही है, उन्हें भिन्न नामों से भारत में कुछ कम कीमत मे बेचने की घोशणा कर दी है। लेकिन यह कीमत जो उसने घोशित नही की है, उसकी तुलना में इन दवाओं के भारत में अनिवार्य लाइसेन्स के अधीन बनने पर अत्यन्त कम होगी। इसलिये अनिवार्य लाइसेन्स के इस अभियान में जन संगठनो को आगे आकर भारतीय कम्पनियों को और भी मंहगी दवाओं के सम्बन्ध में अनिवार्य लाइसेन्स के लिये आवेदन करने को प्रेरित करना चाहिये। यही रीति नीति मंहगे कृशि रसायनों के सम्बन्ध में भी विकसित करना आवश्यक है। जरूरी हे कि इस बात बात की आम लोगो को जानकारी दी जाये. हम जानते हे कि ऐसा ही एक उधाहरण एक MULTINATIONAL कंपनी का हे जो अफ़्रीक के देशो में एड्स कि बहुत ही महँगी दवाई देती हे. एक भारतीय कंपनी के प्रयास से बहुत सस्ती दावा निकली गयी थी, और उस कंपनीने कोर्ट में केस कर दिया था. हज़ारो कि तादात में लोगो सडको पर आ गए उस कंपनी के खिलाफ और जबरदस्त विरोध पर्दर्शन हुआ. खैर जनाक्रोश के कारण उस कंपनी ने कुछ ही समय के बाद अपना दावा वापिस ले लिया. जनमत के आगे सबको झुकना पड़ेगा. इस लिए इस विषय पर बहुत अधिक जागरूकता कि जरूरत हे. ऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋ

Tuesday, May 22, 2012

जी-आठ देशों का केम्प डेविड बैठक का निष्कर्ष : जाना पड़ेगा फिर ग्रोथ की शरण में

जी-आठ देशों का केम्प डेविड बैठक का निष्कर्ष : जाना पड़ेगा फिर ग्रोथ की शरण में जी-आठ देशों का केम्प डेविड बैठक का निष्कर्ष : जाना पड़ेगा फिर ग्रोथ की शरण में ग्रुप-आठ के नाम से जाने वाले दुनिया के आठ अमीर मुल्को क़ि ३८वीं सालाना बैठक अभी इस १८-१९ मई को अमरीका में सम्पन्न हुई हे. अन्य कई विषयों के साथ साथ प्रमुखता से जो विषय वहां पर चर्चा का बना, वो हे आर्थिक समीक्षा. नीचे गढे में गिर रही उनकी अर्थ-व्यवस्थायों का आखिर क्या बनेगा? ये चिंता उनको खाए जा रही थी, लेकिन उनके सुझाव आकाश से गिरे तो खजूर पर अटके वाली बात हे. आयें. देखें किन उनके निष्कर्ष दुनिया को किस प्रकार चोंकाने वाले हे.. " नहीं चाहिए खर्च में कंजूसी! घाटे में कमी! निवेश करो! आर्थिक विकास बढ़ाओ! रोजगार दो! नहीं तो जनता निकोलस सरकोजी जैसा हाल कर देगी।"..ग्लोबल नेतृत्व को मिला यह सबसे ताजा ज्ञान सूत्र है, जो बीते सप्ताह कैंप डेविड (अमेरिका) में जुटे आठ अमीर देशों के नेताओं की जुटान से उपजा और अब दुनिया में गूंजने वाला है। फ्रांस के चुनाव में सरकोजी की हार ने चार साल पुराने विश्र्व आर्थिक संकट से निपटने के पूरे समीकरण ही बदल दिए हैं। अंशुमान तिवारी लिखते हे की इस-से सरकारों का ग्लोबल संहार शुरू हो गया है क्योंकि जनता रोजगारों से भी गई और सुविधाओं से भी। वित्तीय कंजूसी की एंग्लो सैक्सन कवायद अटलांटिक के दोनों पार की सियासत पर भारी पड़ रही है। यहाँ ध्यान देने की बात हे की चीन ग्रोथ को दाना डालना शुरू कर चुका है। दुनिया के नेताओं को यह इलहाम हो गया है कि घाटे को कम करने की कोशिश ग्रोथ को खा गई है। यानी कि मुर्गी (ग्रोथ और जनता) तो बेचारी जान से गई और दावतबाजों का हाजमा बिगड़ गया। अगर बजट घाटे न हों तो ग्रोथ की रोटी पर बेफिक्री का घी लग जाता है। लेकिन घी के बिना काम चल सकता है ग्रोथ की, सादी ही सही, रोटी के बिना नहीं। वर्ष 2008 में जब लीमैन डूबा और दुनिया मंदी की तरफ खिसकी, तब से आज तक दुनिया की सरकारें यह तय नहीं कर पाईं कि रोटी बचानी है या पहले इस रोटी के लिए घी जुटाना है। बात बैंकों के डूबने से शुरू हुई थी। जो अपनी गलतियों से डूबे, सरकारों ने उन्हें बचाया अपने बजटों से। बजटों में घाटे पहले से थे, क्योंकि यूरोप और अमेरिकी सरकारें जनता को सुविधाओं से पोस रही थीं। घाटा बढ़ा तो कर्ज बढे़ और कर्ज बढ़ा तो साख गिरी। पूरी दुनिया साख बचाने के लिए घाटे कम करने की जुगत में लग गई,इसलिए यूरोप व अमेरिका की जनता पर खर्च कंजूसी के चाबुक चलने लगे। जनता गुस्साई और उसने सरकारें पलट दीं। तीन साल की इस पूरी हाय-तौबा में कहीं यह बात बिसर गई कि मुश्किलों का खाता आर्थिक सुस्ती ने खोला था, जो वर्ष 2007-2008 में पूरी दुनिया में अनाज और पेट्रोल कीमत बढ़ने से उपजी थी। महंगाई थामने के लिए ब्याज दरें बढ़ीं, महंगे कर्ज की आफत अमेरिकी नकली हाउसिंग बूम पर टूटी। जहां से मुश्किलों का पहिया घूम पड़ा। असली मुसीबत न बैंक थे, न हाउसिंग,न घाटे और न खर्च। मुश्किल तो दरअसल आर्थिक विकास की रफ्तार न बढ़ना है। अगर ग्रोथ है तो मांग होगी, तो उत्पादन होगा। नतीजतन सरकार के पास राजस्व रहेगा। ग्रोथ होगी तो रोजगार होंगे तब जनता भी समर्थन देगी। इसके बाद बजट में घाटे या कर्ज होने पर भी बात संभल सकती हैं, क्योंकि ग्रोथ सबसे बड़ी उम्मीद है जो बाजार में साख को सहारा देती है। आज यूरोप, अमेरिका और एशियाई सरकारों के पास घाटे हैं, बेकारी है, कर्ज है, गिरती मुद्राएं हैं,जनता का विरोध और ढहती साख व बाजार हैं। केवल ग्रोथ नहीं है। आर्थिक विकास की अनिवार्यता का यह बेहद सहज सा सूत्र समझने में दुनिया को चार साल लग गए। यह हकीकत तब गले उतरी जब ग्रोथ बढ़ाने का वादा करने वाले फ्रांसुओ ओलेंड यूरोजोन के संकट निवारण तंत्र के मुखिया निकोलस सरकोजी को पछाड़ फ्रांस की सत्ता पर काबिज हो गए और अमेरिकी राष्ट्रपति को भी मंदी के चलते चुनाव में हार का डर सताने लगा। दुरुस्त आयद कैंप डेविड में नेताओं को जो दिव्य ज्ञान मिला है, उसके कुछ संकेत ब्रसेल्स (यूरोपीय समुदाय के मुख्यालय) ने मई की शुरुआत में दे दिए थे। यूरोपीय समुदाय ने यह सोचना शुरू कर दिया है कि खर्च घटाने की बात छोड़कर निवेश की बात करनी चाहिए। घाटा घटाने के लिए कुछ माह पहले एक बेहद सख्त संधि (स्टेबिलिटी पैक्ट)करने वाला यूरोजोन अब एक निवेश वृद्धि समझौते की तरफ बढ़ना चाहता है। चीन की हालत भी पतली: निर्यात आधारित ग्रोथ में गिरावट देखकर चीन सबसे पहले सतर्क हुआ है। वहां सरकारी निवेश बढ़ाने व कर्ज सस्ता कर विकास की गति तेज करने पर अमल शुरू हो चुका है। चीन सरकार ने हाल में ही पेश अपने बजट में घाटे को जीडीपी के अनुपात में दो फीसद (पिछले साल एक फीसद) पर रखा है, ताकि खर्च बढ़ाया जा सके। कम्युनिस्ट देश ऊर्जा बचाने की तकनीकों के लिए ही अकेले 4.2 अरब डॉलर की सब्सिडी देने जा रहा है। अगले एक साल में वह करीब चार खरब युआन का निवेश करने की तैयारी में है। यह मुख्य रूप से माल परिवहन नेटवर्क (जलमार्ग), पर्यावरण संरक्षण, बिजली और सड़कों में होगा। चीन में ग्रोथ का पहला दौर तटीय इलाकों की निर्यात इकाइयों से आया था, जहां मंदी का असर पड़ा है। इसलिए चीन सरकार अब देश के भीतरी हिस्से में विकास पर निवेश करने की तैयारी में है। और अब बात अमरीका और भारत की : अमेरिका में रोजगारों की दर घटने का नया आंकड़ा ओबामा की राजनीति गणित को बिगाड़ रहा है। अमेरिका में यह मानने वाले कम नहीं हैं कि अपनी सियासत बचाने के लिए राष्ट्रपति ओबामा जल्द ही आर्थिक नीतियों का गियर बदल सकते हैं और निवेश बढ़ाकर ग्रोथ वापसी पर दांव लगा सकते हैं। रही बात भारत की तो यहां सत्ता के शिखर पर गठबंधन का दर्द गाया जा रहा है या फिर सारी मुसीबतों को यूरोपीय संकट के सिर टिका दिया गया है। हमारे रहनुमा इस पर बात ही नहीं कर रहे कि हमारी मुसीबतें भी ग्रोथ से ही दूर होंगी। अतीत के पन्नों से वर्ष 2006-07झांकता है, जब यूरोप व अमेरिका दो-ढाई फीसद की गति से भाग रहे थे। चीन 11.5 फीसद, भारत9, रूस 8, अफ्रीका करीब 6 और पूरी दुनिया करीब 5.2 फीसद की गति से बढ़ रही थी। ऐसा नहीं है कि तब दुनिया में घाटे नहीं थे,कर्ज नहीं थे,लेकिन ग्रोथ चहक रही थी तो यह सब बहुत डरावना नहीं था। आज ग्रोथ नहीं है तो कहीं भी घाटे कम करने का तर्क जनता के गले नहीं उतर रहा है। हर जगह जनता आंदोलित है और सामाजिक तनाव बढ़ रह हैं। वित्तीय अनुशासन के सबसे ताकतवर पैरोकार आइएमएफ को भी कहना पड़ा है कि ग्रोथ गंवाकर कंजूसी और घाटे कम करना बहुत महंगा सौदा है। सरकोजी की राजनीतिक शहादत ने पूरे यूरोप व अमेरिका को फिर ग्रोथ बढ़ाने वाली नीतियों की शरण में जाने पर मजबूर किया है। यूरोपीय सियासत में ताजा फेरबदल ने आर्थिक नीतियों में एक बड़ी करवट की बुनियाद रखी है। क्या भारत में भी आर्थिक बदलाव को केंद्र सरकार की कुर्बानी चाहिए। कई बार कुछ नया बनाने के लिए कुछ खत्म होना भी जरूरी हो जाता है।हमारी सरकार एक ऐसे व्यक्ति की तरह व्यवहार कर रही है, जो कर्ज के पैसों पर ऐश कर रहा है। इस स्थिति को सीधे-सरल शब्दों में समझने के लिए किसी ऐसे मध्यवर्गीय व्यक्ति की कल्पना करें, जो १क् हजार रुपया महीना कमाता है। उसके घर को मरम्मत की दरकार है। छत टपक रही है, बिजली के तार कटे हैं और प्लम्बिंग के बुरे हाल हैं। वह पहले ही कर्ज के बोझ तले दबा है, जिस कारण उसे हर महीने ब्याज के रूप में तीन हजार रुपए चुकाने पड़ते हैं। लेकिन वह शाहखर्च है और अच्छी जीवनशैली पर एक महीने में 12 हजार रुपए खर्च करता है। साथ ही वह अर्जेट रिपेयर्स पर दो हजार रुपए खर्च करता है, जबकि उसे पूरे घर की मरम्मत कराने के लिए इससे कहीं अधिक रुपयों की जरूरत है। इस तरह उसका एक माह का कुल खर्च 17 हजार रुपए है, जबकि उसकी आमदनी 10 हजार ही है। इस अंतर को पाटने के लिए वह हर महीने सात हजार का कर्ज लेता है, जिससे उसके कुल कर्ज में और बढ़ोतरी होती है और हर महीने उसका ब्याज व्यय भी बढ़ता रहता है। उसके पास बच्चों को पढ़ाने या घर की मरम्मत कराने के पैसे नहीं हैं, लेकिन जब उससे उसके बारे में पूछा जाता है तो वह अपनी विक्रय शक्ति का हवाला देते हुए कहता है कि वह एक ‘उभरती हुई महाशक्ति’ है। आप किसी ऐसे व्यक्ति को क्या कहेंगे? आर्थिक ताकत? या एक गैरजिम्मेदार, लापरवाह और भ्रमित शख्स? ऊपर दिया गया उदाहरण हमारी सरकार की वित्त नीतियों पर पूरी तरह सटीक बैठता है। फर्क इतना ही है कि आमदनी दस हजार रुपए प्रतिमाह के स्थान पर 9.5 लाख करोड़ रुपए प्रति वर्ष है। हमारी सरकार इस साल 5.5 लाख करोड़ रुपयों का कर्ज लेने की तैयारी कर रही है, जबकि उसे अपना कामकाज चलाने के लिए कुल 15 लाख करोड़ रुपए खर्चने होंगे। सार्वजनिक कर्ज बढ़ता जा रहा है और एक कर्ज से दूसरा कर्ज पैदा हो रहा है। वास्तव में दो साल पहले की तुलना में सरकारी कर्ज 37 फीसदी अधिक हो गया है और वह देश के जीडीपी से भी तेजी से बढ़ रहा है। आखिर सरकार कर क्या रही है? वह मतदाताओं को रिझाने के लिए बेतहाशा पैसा खर्च कर रही है और उसकी नीतियों को देखकर लगता नहीं कि अपनी वित्तीय सेहत में उसकी कोई रुचि है। तकनीकी रूप से यह भ्रष्टाचार तो नहीं है, लेकिन वह अपने तात्कालिक राजनीतिक लाभ के लिए देश की आर्थिक स्थिति को खासा नुकसान जरूर पहुंचा रही है। डायवेस्टमेंट, भू विक्रय या उपयुक्त खनन नीतियों के जरिये राजस्व बढ़ाने में भी वह झिझक रही है। अफसोस की बात है कि बहुतेरे भारतीयों की इस सबमें कोई रुचि नहीं। हममें से अधिकांश लोग यही सोचते हैं कि इन सब बातों का हमारे रोजमर्रा के जीवन पर कोई असर नहीं पड़ेगा। वैसे भी सरकार की वित्तीय नीतियां इतनी जटिल और दूरस्थ होती हैं कि हम उनके बारे में चिंतित नहीं होते। लेकिन हकीकत तो यही है कि हालात खतरनाक होते चले जा रहे हैं। ब्याज दरें और कर्ज के व्यय आसमान छूने लगे हैं। आज अनेक निजी व्यवसायी १५ फीसदी सालाना की दर से कम पर कर्ज ले पाने में असमर्थ हैं।