Saturday, October 27, 2012

नए भारत का निर्माण लेखक संदीप वासलेकर

देश बदलने का इरादा है तो यह पुस्तक सिर्फ आपके लिए है
नए भारत का निर्माण
लेखक संदीप वासलेकर

Sandeep
Published on Saturday, 06 October 2012 17:15




नई दिल्ली। अभी देश में रॉबर्ट वाड्रा की अकूत संपत्ति को लेकर बवाल मचा हुआ है। उन्हें देश के किसी भी हवाई अड्डे से बिना जांच गुजरने की इजाजत मिली हुई है। यह सब केवल इसलिए है कि वो यूपीए व कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के दामाद, प्रियंका के पति व राहुल गांधी के जीजा हैं और इस परिवार को राजनीति का पहला परिवार माना जाता है। इसलिए यहां से जुड़े हर व्यक्ति को स्वत: सारी सुविधाएं, तामझाम, सुरक्षा, विशेष सहूलियत मिल जाती है। वास्तव में यह देश व्यक्ति पूजक देश है, जिसमें एक साधारण अभिनेत्री खुशबू के प्रशंसक उसका मंदिर बनवा देते हैं, सचिन को क्रिकेट के भगवान का दर्जा दे दिया जाता है, शाहरुख खान बादशाह घोषित हो जाते हैं और गांधी-नेहरू परिवार पर आज भी आंख मूंद कर विश्वास किया जाता है।



इस देश के राजनीतिज्ञों व शासक वर्ग की तो बात ही मत पूछिए, हर नेता-मंत्री व उनके परिवार से जुड़े सदस्यों को विशेष सुविधाएं हासिल है जबकि कई विकसित विदेशों में वहां के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को भी ऐसी सुविधाएं हासिल नहीं होतीं। हमारी इस मानसिकता पर संदीप वासलेकर की पुस्तक 'नए भारत का निर्माण' बार-बार चोट करती है। संदीप वासलेकर इस पुस्तक में एक जगह लिखते हैं, ''हमारा मजदूर रेलवे के दूसरे दरजे के डिब्बे में किसी तरह लटक कर यात्रा करता है तो हांगकांग-मलेशिया के मजदूरों को आरामदायक बस सेवा उपलब्ध हो गई है। इसके विपरीत जब स्वीडन के उद्योगपति और तुर्की के मंत्री रेलवे के दूसरे दरजे में यात्रा करते हैं तो भरत के राजनेता और उद्योगपति कारों का काफिला लेकर चलते हैं।''

मैं संदीप वासलेकर को नहीं जानता था। सच कहूं तो नाम भी नहीं सुना था, लेकिन मेरे मित्र व प्रभात प्रकाशन के निदेशक पीयूष जी ने एक ई मेल भेजा जिसमें संदीप वासलेकर की पुस्तक 'नए भारत का निर्माण' के लोकार्पण पर मुझे आमंत्रित किया गया था। पुस्तक का लोकार्पण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ मोहनराव भागवत करने वाले थे। मोहन भागवत जी को पहली बार देखने और सुनने का अवसर मिल रहा था इसलिए वहां चला गया। जब हॉल के अंदर पहुंचा तो संदीप वासलेकर बोल रहे थे, टूटी-फूटी हिंदी में। पहले तो मैं यह समझ ही नहीं पाया कि ये कौन बोल रहे हैं, लेकिन मंच पर उनके नाम की पट्टी के आगे किसी व्यक्ति को बैठा न पाकर समझ गया कि वही पुस्तक के लेखक संदीप वासलेकर हैं।

संदीप ने एक सच्ची कहानी सुनाई, कोरिया के पूर्व राष्ट्रपति रोहमून के बारे में, जो अपने कार्यकाल की समाप्ति के बाद अपने गांव लौट गए थे और वहीं रहते थे। एक दिन उन्हें पता चला कि उनकी पत्नी ने उनके कार्यकाल में उनके नाम का इस्तेमाल करते हुए एक बड़े औद्योगिक समूह को कोई फायदा पहुंचाया था। रोहमून इतने ईमानदार थे कि इस सूचना ने उन्हें व्यथित कर दिया और इसका प्रायश्चित करने के लिए उन्होंने पहाड़ी से छलांग लगाकर आत्महत्या कर लिया।

इसे सुनकर अपने देश के वर्तमान हालात पर अनायास ही मेरे विचार अटक गए। कोरिया में कोई किसान आत्महत्या नहीं करता, बल्कि पत्नी द्वारा किसी को फायदा पहुंचाने की सूचना मात्र से वहां का पूर्व राष्ट्रपति आत्महत्या कर लेता है। हमारे यहां आर्थिक तंगी की वजह से दो लाख से अधिक किसान आत्महत्या कर चुके हैं और हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री पर देश में हुए अब तक के सबसे बड़े घोटाले (कोल-ब्लॉक आवंटन) का सीधा आरोप है, लेकिन उन्हें देखिए 'मेरी खामोशी ने कितनों की आबरू रख ली'- जैसे जुमले गढ़ कर वह एक के बाद एक हुए घोटालों का बड़ी सफाई से बचाव करते चले जा रहे हैं।

मेरी उत्सुकता संदीप की पुस्तक में बढ़ गई। बाद में पीयूष जी ने उपहार स्वरूप यह पुस्तक मुझे दी। और सच कहूं, लगातार दो दिनों तक अपना सारा काम बंद कर मैं यह पुस्तक ही पढ़ता रहा। पुस्तक बढ़ने के दौरान कई बार रह-रह कर अपने अंदर उमड़ते दर्द से मेरा सामना हुआ। आज अमेरिका में गरीब और निम्नवर्गीय व्यक्तियों का भोजन पिज्जा-बर्गर है और यहां...? यह नवधनाढ्यों और संभ्रांतों की विलासिता का प्रतीक है। हमारा देश वास्तव में आजादी के 66 साल बाद भी समस्या की ओर पीठ फेर कर खड़ा है और हमारा शासक वर्ग व संपन्न तबका, आमजन को लूट कर अपनी सुविधाएं जुटाने और अमीरी का प्रदर्शन करने में मशगुल है।

पुस्तक लोकार्पण के समय मोहन भागवत जी ने बार-बार संदीप से पूछा था कि आपका कहीं से कभी भी आरएसएस से संबंध तो नहीं रहा है न?...हर बार उन्हें प्रति उत्तर में 'न' ही सुनने को मिला। इस पर मोहन भागवत जी ने कहा कि इस देश की उन्नति व विकास का जो लक्ष्य आरएसएस का है, वही लक्ष्य संदीप जैसे लाखों लोगों का भी है, जिसके लिए सभी अपने-अपने स्तर से प्रयासरत हैं। धाराएं अलग-अलग हैं लेकिन मंजिल सभी की एक ही है, देश का भला।

वास्तव में देश के बारे में सोचने वाले हर व्यक्ति को आज आरएसएस से जोड़ कर देखने या कहिए बदनाम करने का चलन कांग्रेस, मीडिया, और नव आंदोलनकारियों में बढ़ा है, शायद इसीलिए मोहन भागवत संदीप से पूछ रहे थे कि आपका आरएसएस से तो संबंध नहीं रहा है न!

संदीप के बारे में आप सभी को बता दूं कि संयुक्त राष्ट्र संघ से लेकर, यूरोपीय संसद, ब्रिटिश हाउस ऑफ लॉर्ड्स जैसे अंतरराष्ट्रीय मंच उनके विचारों का न केवल सम्मान करते हैं, बल्कि उनके 'ब्लू पीस' अवधारणा को आगे बढ़ाने पर जोर दे रहे हैं, जिसमें पानी को दो राष्ट्रों के बीच शांति दूत के रूप में इस्तेमाल करने का विचार प्रस्तुत किया गया है।

संदीप 'स्टैटेजिक फोरसाइट ग्रुप' के अध्यक्ष हैं, जो भारत सहित विभिन्न राष्ट्र व उनकी सरकारों को भविष्य की चुनौतियों के बारे में सलाह देते हैं। 50 से अधिक देशों की यात्रा और उनके राजनेताओं व सरकार के प्रतिनिधियों से सीधे संपर्क रखने वाले संदीप ने पुस्तक लेखन के लिए अंग्रेजी की जगह अपनी मातृभाषा मराठी को वरीयता दी। आज प्रभात प्रकाशन की वजह से यह पुस्तक हिंदी भाषियों के लिए भी उपलब्ध है। महज 125 रुपए की यह पुस्तक उन्नत भारत का स्वप्न देखने वाले हर व्यक्ति को अवश्य पढ़ना चाहिए। इस पुस्तक से पता चलता है कि 40 वर्ष पूर्व जो देश हमसे भी पिछड़े थे, भूख और दरिद्रता से जूझ रहे थे, वो आज भारत से मीलों आगे निकल चुके हैं।

सुपर 30 के संस्थापक आनंद कुमार के शब्द हैं, '' आज इस देश के युवाओं को सही मार्गदर्शन के लिए इस पुस्तक की बेहद आवश्यकता है। वह न केवल इसे पढ़ें, बल्कि अपने मित्रों को भी उपहार स्वरूप इसे दें ताकि कड़ी से कड़ी जुड़ती चली जाए और देश के लिए कुछ कर सकने का जज्बा वृहत आकार ले सके।''

इस पुस्तक का सारांश संदीप के ही शब्दों में कहूं तो यह है,'' हमारे शासक और संपन्न लोग शराबी पतियों जैसा व्यवहार करते हैं। जैसे बेकार और नशाखोर पति अपनी पत्नी को मजदूरी करने भेजता है और उसकी कमाई पर ऐश करता है। ठीक उसी प्रकार हमारे देश के शासक और संपन्न लोग सामान्यजनों का शोषण कर स्वयं मलाई खाते हैं।''




संदीप वस्लेकर

*सर्वसमावेशक विकास की अवधारणा* को अमल में लाकर भारतीय नागरिकों की उन्नति करना हमारे देश के समक्ष आज की सबसे बड़ी चुनौती है. उच्च वर्ग से लेकर सर्वाधिक पिछड़े व्यक्ति तक सबको एक साथ एक दिशा में आगे बढ़ने की आवश्यकता है. उसी को गांधीजी के शब्दों में ” *अन्त्योदय* ” कहा जाएगा. यह विचार सबसे पहले उन्होंने ही प्रतिपादित किया था. उसका महत्व वे जानते थे. भारत के अंतिम नागरिक के आंसू पोंछे जाएँगे , तभी हमारा देश सच्चे अर्थों में स्वतंत्र कहलाएगा, यह उन्होंने ही कहा था. महात्मा गांधी के इस दूरदर्शी सोच को वास्तविक रूप में समझकर आत्मसात करने एवं भविष्य की चुनौतियों के बारे में देश एवं विदेश की सरकार को सलाह देने का उत्कृष्ट एवं प्रशंसनीय कार्य किया है- *संदीप वासलेकर* ने, जो ” *स्ट्रेटेजिक फोरसाईट ग्रुप* ” के अध्यक्ष भी हैं. अभी हाल ही में इनके द्वारा रचित पुस्तक ” *नए भारत का निर्माण* ” प्रभात प्रकाशन से प्रकाशित हुई है. यह पुस्तक डेढ़ साल पहले सर्वप्रथम मराठी में प्रकाशित हुई थी . आठ संस्करणों , उर्दू अनुवाद और दृष्टिबाधितों के लिए ऑडियो संस्करण के साथ यह बेस्टसेलर बनी हुई है. अनगिनत लोगों के जीवन को यह पहले ही बदल चुकी है. भारत में भ्रष्टाचार , आतंकवाद , पर्यावरण -क्षति जैसी चुनौतियों से निपटने की क्या उम्मीद है? हम ऐसा राष्ट्र किस प्रकार बना सकते हैं, जो आम आदमी का जीवन स्तर सुधार सके ? ऐसा राष्ट्र किस प्रकार बनाया जा सकता है, जहाँ आतंकवादी और अपराधी अपनी करतूतो को अंजाम देने के बारे में सोच भी न सकें? ऐसा राष्ट्र किस प्रकार बनाया जा सकता है ,जो विश्व में जल्द ही संभावित चतुर्थ औद्योगिक क्रांति में प्रमुख भूमिका निभा सके? सबसे महत्वपूर्ण यह है कि इन 7 -8 बर्षों में किस प्रकार आर्थिक , सामाजिक, सांस्कृतिक और पर्यवार्नीय परिवर्तन ला सकते हैं? लाखों भारतीय लोगों के मन में उठाने वाले कई कठिन प्रश्नों के उत्तर इस पुस्तक में है. इन्हें लेखक कि 50 से अधिक देशों के राजनेताओं , सामाजिक परिवर्तकों, व्यवसायियो और आतंकवादियों से हुई बातचीत के आधार पर तैयार किया गया है. इस पुस्तक में समस्याओं के समाधान तथा भारत के युवा नागरिकों के लिए रूपरेखा उपलब्ध कराई गई है. यह आश्वस्त करती है कि अगर हम नई दिशा कि तलाश करें , तो भारत का भविष्य उससे भी बेहतर हो सकता है, जितना कि हम सोचते हैं. आपको जानकर सुखद लगेगा कि संदीप वासलेकर *नई नीति अवधारणाएँ तैयार करने के लिए* जाने जाते हैं, जिन पर संयुक्त राष्ट्र , भारतीय संसद , यूरोपीय संसद , ब्रिटिश हॉउस ऑफ लॉर्ड्स , हॉउस ऑफ कॉमंस , विश्व आर्थिक मंच और अन्य अंतर्राष्ट्रीय संगठनों में विचार किया जा चुका है. उन्होंने ” ब्लू पीस ” नाम कि अवधारणा तैयार की, जिससे जल को राष्ट्रों के बीच शांति के साधनों के रूप में इस्तेमाल किया जाता है. वे ‘विवाद का मूल्य’ प्रणाली के अग्रदूत हैं, जिससे किसी भी विवाद के मूल्यों को करीब 100 मानदंडों पर मापा जा सकता है. संदीप वासलेकर ने कई पुस्तकें और शोधपत्र लिखें हैं. उन्होंने करीब पचास देशों की यात्राएं की हैं. 1500 से अधिक समाचार-पत्रों , टेलीविजन चैनलों और वेबसाईटों ने उनके साक्षात्कार लिए हैं और उनके बारे में लिखा है. उन्होंने इंग्लैण्ड की ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से दर्शनशास्त्र, राजनीति शास्त्र और अर्थशास्त्र की पढ़ाई की है. हाल ही में उन्हें पुणे की सिम्बोसिस इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी में भारतीय राष्ट्रपति के हाथों मानद डी.लिट. उपाधि प्रदान की गई. *उनके बहुआयामी अनुभवों को समाहित कर स्वतंत्र पत्रकार एवं आर.टी.आई एक्टिविस्ट गोपाल प्रसाद द्वारा प्रस्तुत आलेख के प्रमुख अंश….* *स्वीडन* निवासी आज अत्याधुनिक जीवन जी रहे हैं . उन्हें कोई भी श्रम अथवा भागदौड़ नहीं करनी पड़ती. शिक्षा तथा चिकित्सा सेवा सरकार उपलब्ध कराती है. इसके लिए उन्हें कोई व्यय नहीं करना पड़ता . सफाई कर्मचारी से लेकर वरिष्ठ अधिकारीयों तक सबको अच्छा वेतन मिलता है. किसानों को बड़े पैमाने पर सब्सिडी दी जाती है . अल्पसंख्यक लोग विशेष रूप से सुखी हैं दुनियां के अनेक देशो से लोग स्वीडन में जाकर बसते हैं वहां दंगे हिंसाचार अथवा हड़ताले नहीं होती . सभी लोग स्वप्रेरणा से अनुशासित हैं. कभी कोई गाडी आगे निकालने के लिए दूसरी गाड़ियों का जाम नहीं लगवाता , न ही कोई सिग्नल तोड़ता है. कोई भी न तो सड़क पर थूकता है, न ही कचरा करता है. स्वीडिश लोग मितभाषी हैं. पड़ोसियों से दोस्ती नहीं करते , मगर संकट के समय किसी की भी मदद के लिए सदैव तत्पर रहते हैं. स्वीडन ने अपने विकास की व्याख्या सामजिक , सांस्कृतिक , राजनीतिक और आर्थिक उत्कर्ष के रूप में की है. यह देखकर स्वाभाविक रूप से मन में यह विचार आता है की इतनी कम कालावधि में सर्वसमावेशक तथा सर्वांगीण विकास करना के लिए कैसे संभव हो सका, अर्थात इसका श्री यदि किसी को दिया जा सकता है तो वह विकास की रह दिखानेवाले नेतृत्व को तथा उसपर चलनेवाली सम्पूर्ण जनता को . वास्तविकता यह है की जार्जटाउन अथवा स्टॉकहोम की भंति भारतीय शहरों का भी कायाकल्प सहज संभव है. फिर भी ऐसा नहीं हो रहा तो क्यों? असफलता के लिए स्पष्टीकरण देने में हमारे नेता निपुण हैं. शत्रु राष्ट्रों के उपद्रव एवं भौगोलिक परिस्थितियों के कारण विकास संभव नहीं हो सका, ऐसे स्पष्टीकरण राजनीतिज्ञों द्वारा दिए जाते हैं . मगर ये स्पष्टीकरण कितने आधारहीन हैं यह हमें दुनियां के अन्य देशों के उदाहरण देखकर पता चलता है. दुर्गम क्षेत्र में स्थित गांवों का विकास होना चाहिए . उन्हें मुख्य प्रवाह में लाया जाना चाहिए . सर्वसामान्य जनता का जीवन स्तर यूरोपियन लोगों के समकक्ष लाया जाना चाहिए. रेसीप अर्दोगान ने पहले अत्याधुनिक तकनीक से शोध कार्य किया . उन्हें पता चला की सामान्य जनता के लिए न्याय तथा विकास इन दो चीजों का महत्त्व सर्वाधिक है. इसलिए उन्होंने पार्टी का नाम न्याय तथा विकास पार्टी रखा . तुर्किस्तान के एसियाई क्षेत्र में अनातोलिया सर्वाधिक पिछड़ा प्रदेश है. वहां के छोटे उद्योगपति , व्यापारी , विद्यार्थी सबका आत्मविश्वास तथा आर्थिक आय बढे इस उद्देश्य से उन्होंने समाज के कमजोर वर्गों के लिए लाभकारी उदारीकरण किया . तुलनात्मक दृष्टि से कहें तो , अपने यहाँ विदेशी मुद्रा , आयात-निर्यात और बड़े उद्योग मुक्त अर्थनीति के केंद्र हैं. मगर भारतीय किसान मात्र कृषि उपज मंदी संबंधी कानूनों , सहकारी कृषि की झोलबन्दी तथा निवेश के अभाव के कारण गरीब बना हुआ है . अर्दोगान ने तुर्की के किसानों तथा छोटे उद्योगपतियों के लिए हानिकारक प्रतिबन्ध हटा दिए . उनके विकास के लिए आर्थिक निवेश किया . ग्रामीण स्त्रियों के लिए पारंपरिक वेश में शहरी शिक्षा प्राप्त करना संभव बनाया . सीरिया , आर्मेनिया, ग्रीस आदि सभी शत्रु देशों के साथ समझौते कर वैमनस्य ख़त्म किया और रक्षा पर होनेवाले व्यय की बची राशि ग्रामीण विकास पर खर्च की. देश का एक नई दिशा में सफर शुरू हुआ , उन्हें दिशा मिल गई और विकास के इस नए सुर में सभी नागरिकों ने भी अपना सुर मिलाया . उपजाऊ भूमि का आभाव , पानी का अकाल , अरब देशों से बैर होने से इंधन की भी कमी , ऐसी प्रतिकूल परिस्थिति में भी इजराइल ने कृषि और औद्योगिक क्षेत्रों में विकास कर पिछले 60 बर्षों में अधिकांस नागरिकों को विकास की मूलधारा में समाविष्ट कर लिया है. कहावत है की कभी भारत में घरों पर सोने के कवेलू हुआ करते थे . यहाँ की संपत्ति , उपजाऊ जमीन और अनुकूल वातावरण सारी दुनिया के लिए ईर्ष्या का कारण थे. यही कारण है की विदेशी आक्रमणकारियों ने इसे बार- बार लूटा. मगर यह इतिहास है. स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भौगोलिक स्थिति अनुकूल होने , पर्याप्त संसाधन होते हुए और किसी भी प्रकार के मानव संसाधनों की कमी न होने के बाबजूद विकास के क्षेत्र में दुनिया के अनेक देशों से हम आज भी बहुत पीछे हैं, इसका क्या कारण है? स्वतंत्रता प्राप्ति के समय एक नवजात शिशु के सामान रहे इस देश की आयु आज 65 बर्ष से अधिक है. उदार अर्थव्यवस्था स्वीकार किए भी हमें बीस बर्ष हो चुके हैं . हमारे गणित क्यों गलत हो रहे हैं? क्यों जनता को योग्य दिशा देने में हमारे राजनीतिज्ञ असफल हुए हैं? क्या शासकीय व्यवस्थाओं की त्रुटियाँ , कमियां , निष्क्रियता, जनता के दबाब का अभाव इसके लिए जिम्मेदार है? इस सबके बारे में आत्मचिंतन करने पर एक बात तीव्रता से महसूस होती है – वह यह की हमें किस दिशा में आगे बढ़ाना है, यह अभी भी स्पष्ट नहीं है. परतंत्रता के दिनों में असंभव प्रतीत होनेवाला स्वतंत्रता का एकमात्र ध्येय सभी भारतीय नागरिकों के समक्ष था. इस ध्येय की प्राप्ति के लिए सारा देश एक दिल से , एकजुटता से , एक दिशा में आगे बढ़ रहा था. उस संघर्ष में हमें स्वतंत्रता की प्राप्ति हुई. उसके बाद अपने देश के विकास का स्वप्न प्रत्येक की आँखों में था. उसके लिए दिशा निर्धारित करने का प्रयत्न भी हुआ . पंडित नेहरु ने बाँधों, इस्पात संयंत्रों तथा उच्च अभियांत्रिकी शिक्षा संस्थानों के निर्माण पर जोर दिया . इंदिरा गांधी ने छोटे – छोटे गाँव तक बैंकों का जाल फैलाया. हरित क्रांति का मार्ग दिखाया. राजीव गांधी ने कंप्यूटर और यातायात के क्षेत्र में क्रांति की. देश आधुनिकता की दिशा में तेजी से आगे बाधा. नरसिंहराव के कार्यकाल में मुक्त अर्थव्यवस्था लागू की गई. जीवनावश्यक वस्तुओं का अभाव कम हुआ . अटल बिहारी वाजपेयी ने ग्राम सड़क योजना के माध्यम से गांवों को आपस में जोड़ा. शहरों को मंडियों से जोड़ा. डा. मनमोहन सिंह ने भी रोजगार योजना , किसानों की कर्ज माफी , ग्रामीण विकास की योजनाएं बनाई. प्रत्येक प्रधानमंत्री के कार्यकाल में प्रयत्न किए जाने पर भी 6 दशकों के बाद भी देश में गिनती के लोग संपन्न हैं. बाकी सारे विपन्न. ऐसी परिस्थिति क्यों है? इस सीधे और सरल प्रश्न का उत्तर खोजना हमारे लिए टेढ़ी खीर साबित हो रहा है. हमें उसी का उत्तर खोजना होगा. हम बहुत विकसित हो गए हैं आधुनिक हो गए हैं , ऐसा हम समझते हैं. यह केवल विशिष्ट वर्ग की जीवनशैली के कारण. मुट्ठी भर धनिकों का संपत्ति प्रदर्शन , उनकी बड़ाई , उपभोगवाद , ऐश आराम के कारण अपना देश बहुत विकसित हो रहा है, ऐसा कृत्रिम चित्र खड़ा हो रहा है. दिल्ली, मुम्बई , पुणे , नागपुर, इंदौर, बेंगलुरु में दिखने का प्रयत्न किया जाता है. बाजार – हाट का बदला स्वरुप , चमचमाते मॉल्स के रूप में दिखाई देता है. विदेशी ब्रांड्स का प्रदर्शन करते फैशन , पति-पत्नी – बच्चों के लिए अलग-अलग गाड़ियाँ, विदेशों में शिक्षा प्राप्ति के लिए बच्चों को भेजने की होड़ , डिस्को-डंडिया और लाखों रुपयों की दही हंडिया लगाकर आधुनिक पद्धति से माने जानेवाले त्यौहार , अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा और दर्जा बनाए रखने के लिए करनी पद रही कसरत, उसके लिए सिर पर चढ़ाता कर्जा का बोझ , आर्थिक श्रोत जुटाने के लिए , विनियोग और झटपट धन कमाने के लिए शेयर मार्केट जैसे विकल्प या शॉर्टकट्स , बाद में आयकर अधिकारियों से लेकर बैंक प्रबंधकों तक को पटाने के लिए की जानेवाली भागदौड़ और उसके कारण होनेवाले भ्रष्ट व्यव्हार , यह सब विशाल महासागर से भटक रही दिशाहीन नौका की तरह है. विकास का सम्बन्ध विचारों से तथा सकारात्मक कृति से है, केवल संपत्ति से नहीं, यह हम भूल जाते हैं.केवल धनप्राप्ति से जीवन का ध्येय प्राप्त हो गया ऐसा मानना जीवन के बारे में अतिशय संकुचित करने जैसा है. अपने यहाँ सॉफ्टवेयर ,बायोटेक कुछ मात्रा में सौर शक्ति जैसे आधुनिक क्षेत्रों में कुछ युवकों ने शैक्षणिक संस्थाएं खड़ी की. , इसके पीछे उनका उद्देश्य हम स्वयं और दूसरों के लिए कुछ अच्छा कार्य करना था. ऐसे सकारात्मक कार्य से उन्हें समाधान मिला , आनंद मिला. सेवा क्षेत्र में बाबा आमटे , अन्ना हजारे , पांडुरंग शास्त्री आठवले, अभय बंग तो उद्योग क्षेत्र में नंदन निलेकणी , किरण मजुमदार जैसे अनेक उदाहरण याद आते हैं. मगर 115 करोड़ के भारतबर्ष में ऐसे व्यक्ति बिरले ही हैं. अधिकांश लोगों को धन संचय बढ़ाने में ही समाधान मिलता है, मगर उन्हें संतुष्टि कभी भी नहीं मिलती. संपत्ति और महत्वाकांक्षाओं की मर्यादाएं नहीं होती .हम इसके बजाय उसके पीछे अंधे होकर दौड़ते रहते हैं तथा अपनी दिशा भूल जाते हैं. जब समाज के बहुसंख्य लोग सकारात्मक विचार करना छोड़कर संपत्ति और लालसाओं के पीछे दौड़ने लगते हैं, तब उनके हाथ तो कुछ आता नहीं समाज भी दिशाहीन हो जाता है. वैश्वीकरण की प्रक्रिया में अपना स्थान और सहभाग जांचने के उद्देश्य से ” स्ट्रेटेजिक फोरसाईट ग्रुप ” के अध्ययनकर्ताओं ने ‘भारत का भविष्य ‘बिषय पर 2002 में प्रतिवेदन बनाना प्राम्भ किया . उनके द्वारा किए गए अध्ययन के अनुसार 2001 में लगभग 10 करोड़ लोग रोटी , कपड़ा, मकान की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करने में सक्षम थे. उनमें कुछ दुपहिया वहां रखने , कभी -कभार छुट्टियाँ मनाने के लिए बाहर जाने जैसी थोड़ी बहुत मौज – मस्ती करने में भी सक्षम थे. दूसरे वर्ग के 80 करोड़ लोग अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करने में भी सक्षम नहीं थे. पिछले दशक में हमें कुछ तक गरीबी हटाने में सफलता मिली है. मगर जनसँख्या में वृद्धि के कारण गरीबों की संख्या में कमी नहीं आ सकी है. यही स्थिति आज भी बनी हुई है. यह जानकारी वर्तमान अध्ययन के आंकड़ों से स्पष्ट होती है. आज सन 2010में भारत की जनसँख्या 115 करोड़ है. इसमें से 35 करोड़ लोग उच्च अथवा मध्यमवर्गीय हैं. 80 करोड़ लोग दरिद्रता का जीवन जी रहे है.सन 2005 में भारत की जनसँख्या 140 करोड़ होगी . उसमे से 60 करोड़ लोग सुखमय जीवन जीवन जीने में सक्षम होंगे तो 80 करोड़ लोगों का जीवन कष्टमय बना रहेगा. इस प्रकार * 80 *करोड़ लोगों के निर्धन रहते देश की प्रगति असंभव है. आज भले ही उच्च मध्यमवर्गीय लोगों की संख्या 35 करोड़ हो , मगर उनमें से 30 करोड़ लोग अभी भी हासिये पर हैं. माह के अंत में उनके हाथ तंग होते हैं, बच्चों की पढ़ाई पूरी होने के बाद नौकरी के लिए उन्हें दर-दर भटकना पड़ता है, परेशान होना पड़ता है, अपनी परेशानियों को भुलाने के लिए वे सिनेमा देखकर उसके नायक के संघर्ष के साथ खुद की तुलना करते हैं. भारत में लगभग 35 करोड़ मध्यमवर्गीय जनसँख्या बताई जाती है. वास्तव में हमारे यहाँ तीन वर्ग हैं – गाडीवाले, बाईकवाले और बैलगाड़ीवाले . इनमें से केवल 5 करोड़ गाड़ीवाले हैं 30 करोड़ बाईकवाले और शेष 80 करोड़ बैलगाड़ीवाले हैं. हकीकत तो यह है की इनमें से अधिकांश के नसीब में बैलगाड़ी भी नहीं है. पिछले 10 बर्षों में हमारे देश में समृद्धि आई है, ऐसा कहा जाता है , क्योंकि सन 2001 की 2 -3 करोड़ गाडीवालों तथा 15 करोड़ बाईकवालों की संख्या आज दोगुनी हुई है. मगर बैलगाड़ी अर्थव्यवस्था के जंजाल में जकडे 80 करोड़ की स्थिति आज भी वही है. सन 2001 में स्ट्रेटेजिक फोरसाईट ग्रुप ने जब भारतीय अर्थव्यवस्था के सम्बन्ध में अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत किया , तब ग्रामीण क्षेत्र में परिवर्तन के लिए आने क सुझाव दिए थे . पिछले 10 बर्षों में अनेक बड़े उद्योग समूहों ने कृषि के क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है . इनमें से कुछ लोगों ने इमानदारी से किसानों को अच्छा मूल्य मिले इसलिए अनाज के संग्रहण हेतु उच्च स्तर के गोदाम तथा शहरी ग्राहकों के साथ सीधे संपर्क हेतु योजनाएं भी दीं. मगर यह बहुत कम मात्रा में ही हुआ. सामान्य किसान आज भी गरीब ही बना हुआ है. भारत के बीस करोड़ किसानों और कृषि मजदूरों में से मुश्किल से 20 लाख किसानों के पास ट्रैक्टर हैं. कुल 8 -10 करोड़ दुग्ध उत्पादकों में से मुश्किल से 8 हजार के पास दूध निकालने के आधुनिक यंत्र हैं . गांवों में रहनेवाले लोगों के कष्ट देखकर, भारत को आर्थिक महाशक्ति कहनेवाले लोगों को शर्म आनी चाहिए . महाराष्ट्र में पहले मुख्य रूप से ठाणे , रत्नागिरी , रायगढ़ , पुणे और सतारा जिले के लोग नौकरी हेतु शहरों में आ बसते थे. मगर वर्तमान में तथाकथित आर्थिक महाशक्ति के पर्व में लातूर, नांदेड , सोलापुर , परभणी, जालना , बीड़, उस्मानाबाद जिलों से भी शहरों की तरफ आने का क्रम बढ़ने लगा है. इन्हीं जिलों में उग्रवादी संगठनों की जड़ें भी मजबूत हो रही है, अर्थात गाँव के किसान उमड़ रहे हैं, बड़े शहरों की और तो शहर का उच्च वर्ग उमड़ रहा है-वीजा प्राप्त करने के लिए अमेरिका, इंग्लैण्ड या ऑस्ट्रेलिया के दूतावासों की ओर . जो ग्रामीण शहर नहीं जा पाते अथवा शहर के जिस अशिक्षित वर्ग को विदेशी दूतावास घास नहीं डालते ,वे शामिल हो जाते हैं गुंडों की टोली में या फिर उग्रवादी संगठनों में. प्रत्येक व्यक्ति की अपनी अलग दिशा है. ऐसी परिस्थिति में भारत राष्ट्र की दिशा क्या हो? क्या इस दिशा की खोज करना तत्काल जरूरी नहीं है?