प्रस्तावना (5300शब्द)
क्या आपने एक आत्मविकास संबंधी एक प्रसिद्ध पुस्तक "अति प्रभावशाली लोगों की सात आदते" पढ़ी है, या इसके बारे में कुछ सुना है? शायद जरूर सुना होगा। मेरा मत है कि आत्मविकास की पुस्तक श्रृंखला में इसका अपना महत्वपूर्ण स्थान है। स्टीफेन कौवे इसके लेखक है और राष्ट्रऋषि दत्तोपंत ठेंगड़ी जी ने अपने एक भाषण में इस पुस्तक का उल्लेख बड़े सकारात्मक ढंग से किया है।you can't change your future, but you can change your habits, and surely your habits will change your future.”आप अपना भविष्य नहीं बदल सकते, लेकिन आप अपनी आदतों को बदल सकते हैं, और निश्चित रूप से आपकी आदतें आपके भविष्य को बदल देंगी।"
खैर, ऐसा विचार हुआ कि इस पुस्तक का एक विस्तृत सा "सारांश" लिखा जाए। ताकि जिन्होंने नहीं पढ़ी, वे इस पुस्तक की जरूरी बाते जान सके और जिन्होंने कभी पढ़ी है, वो सहज ढंग से इसे दोहरा सके।
हमने दो बातें हर अध्याय में डाली हैं।पहली बात तो ये है कि हर आदत को समझाने के लिए एक उदाहरण दिया है ताकि आसानी से बात समझ आ सके।
दूसरी बात ये है कि हर अध्याय के सारांश में कुछ अभ्यास भी दिए हैं, जिनका पालन ही वास्तव में जीवन मे कुछ परिणाम देता है। आइये पहले पुस्तक की भूमिका समझें।
भूमिका:
अत्यंत प्रभावशाली लोगों की 7आदतें
एक बात तो पक्की है कि हम सभी अपनी जिंदगी में सफल होना चाहते हैं। असफल तो कोई नहीं होना चाहता। परन्तु सिर्फ चाहने से सब कुछ नहीं हित इस लिए सब सफलता चाहने के बावजूद सफल नहीं होते। सफलता के लिए जरूरी है कि हम एक ऐसा रास्ता तलाशे जो हमारी इस सफलता की यात्रा में मदद कर सके। यह पुस्तक वही रास्ता बताने का प्रयास करती है। लेखक कहता है कि जिन व्यक्तियों ने अत्यंत प्रभावशाली जीवन जिया है उनके रंग,रूप, आर्थिक, और सामाजिक परिस्थितियों आदि में बड़ी विभिन्नता होगी पर जिन आदतों के कारण वे प्रभावशाली बने हैं, उनमे से कुछ आदतें लगभग उनकी एक समान हैं। और ऐसी ही सात आदतों के जिक्र लेखक इस पुस्तक में करता है।
पुस्तक की शुरुआत ऐसे व्यक्तियों के विवरण से होती है जिन्होंने वैसे तो बाहर की दुनियां में सफलता की एक उच्च डिग्री हासिल की है, परंतु अभी भी खुद के साथ संघर्ष कर रहे हैं । और उन्हें अपनी अंदर ही अन्दर व्यक्तिगत प्रभावशीलता की कमी खलती है। वे अन्य लोगों के साथ स्वस्थ संबंधों को पैदा करने के लिए जरूरत महसूस करते है। पुस्तक समझने के लिए जरूरी है कि हम लेखक की दो मूलभूत बातों को स्वीकारे:
1. पहली यह कि लेखक स्टीफेन कोवे का पूरा दृढ़ मत है कि दुनिया पूरी तरह से वैसी दिखाई देती है जैसी की हमारीअपनी धारणाए है, यानी "जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि।" जैसी नज़र है वैसा नज़ारा दिखता है।अतः किसी परिस्थिति को बदलने के लिए हमको अपने आप को बदलना होगा, क। अपने आप को बदलने के लिए हमे अपने विचारों को, अवधाराणाओं को, आदतों को बदलने में सक्षम होना चाहिए।
2. ऐसा होना जरूरी न कि सिर्फ दिखना: दूसरा, कौवे ने गत 200 से अधिक "व्यक्तिगत विकास" के साहित्य का अध्ययन करने के बाद एक बहुत महत्वपूर्ण परिवर्तन की पहचान की है। वह यह कि पहले समय में सफलता की नींव चारित्रिक गुणों यानि कैरेक्टर एथिकस पर टिकाई जाती थी (ईमानदारी, विनम्रता, निष्ठा, संयम, साहस, न्याय, धैर्य, उद्योग, सादगी, नम्रता और स्वर्ण नियम जैसी बातें)। लेकिन 1920 के दशक के आसपास एक नया ही सोच का तरीका शुरू हुआ। अब सफलता को व्यक्तित्व की छवि, पर्सनालिटी एथिक से जोड़ते हैं। ( अर्थात सफलता उसके बाहरी व्यक्तित्व, सार्वजनिक छवि, "(public image) नजरिए और व्यवहार पर टिकी है) ।
इन दिनों, लोगों की शीघ्र सुधार, क्विक फिक्स, (शॉर्टकट्स) की सोच बन रही है। वे एक सफल व्यक्ति, टीम, या संगठन को देखते हैं और पूछते हैं कि "आप इसे कैसे चलाते हो? मुझे अपनी तकनीक सिखा दीजिये! कुछ गुर सिखा दीजिये कामयाबी के"। समय और प्रयास को बचाने के लिए हम किसी न किसी शॉर्टकट के पीछे पड़े हैं, लेकिन बड़े-बड़े वांछित परिणामों को हासिल करने की उम्मीद करते हैं। बस हथेली पर सरसों उगाना चाहते हैं। बस बैंड-एड्स band aids लगा कर केे काम चलाना चाहते हैै, टांके नहीं लगाना चाहते है। हम भूलते है कि इससे तो अल्पकालिक समाधान निकलेगा, स्थाई कभी नहीं। भूल जाते हैं कि रोम एक दिन में नहीं बनता। बदलाव लाने के लिए अपनी आदतें बदलनी होगी, और यह लम्बी प्रक्रिया के परिणामस्वरूप ही सम्भव होता है। यह दूसरी बात पक्की गांठ बांधने की है।
अतः हम समझे कि " हमारा समस्या की ओर देखने का ढंग ही हमारी समस्या है।" The way we see the problem is the problem. इसे बदलने के लिए अपने आप को मौलिक रूप से बदल कीजिये। सिर्फ सतह स्तर पर ही नहीं बल्कि हमारे नजरिए का और व्यवहार में परिवर्तन - यह अपेक्षित है।असली परिवर्तन को प्राप्त करने के हमें खुद में क्रांतिकारी बदलावों से गुजरने की अनुमति देनी चाहिए। सफ़ल लोगों की ये सात आदतें वही क्रांतिकारी परिवर्तन है जो हमें अपने भीतर, घटने देने हैं, धीरे धीरे पनपाने हैं।
क्या हैं वे सात आदते:
★ आदतें 1, 2, और 3 अपने आप पर नियंत्रण संबंधी हैं। ये आदते निर्भरता से आत्मनिर्भरता की ओर, from dependence to independence की ओर ले जाती है। ये तीन आदते है प्रोएक्टिविटी, अंतिम लक्ष्य याद रखना और प्राथमिकता को तय करना हैं।
तीन अगली आदतें 4, 5, और 6 द्वारा हम टीम वर्क के विकास पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं, (विन-विन, पहले समझना फिर समझना, तालमेल कायम Win Win, First Understand, then understood and synergy) सहयोग और संचार कौशल द्वारा आगे बढ़ना है। हमारी सफलता की यात्रा पर 'निर्भरता से आत्मनिर्भरता' तक एक से तीन आदतें हमे लेकर आई थी। अब आत्मनिर्भरता से अन्योन्याश्रित (एक दूसरे पर निर्भर)के लिये इन 4,5,6 आदतों द्वारा हम अग्रेसर हो रहे हैं। Journey from independence to inter-dependence। खैर,। आख़रीआदत क्रमांक 7 सतत विकास और सुधार पर केंद्रित है, Sharpening the Saw, यानि आरी को धार लगाना, और अन्य सभी 6 आदतों पर ये लागू होता है।
आदत क्रमांक 1.
प्रोएक्टिव बने: प्रोएक्टिव का कोई अच्छा हिंदी शब्द नहीं मिला। मात्र सक्रिय होने से कहीं ज्यादा का भाव इस शब्द में है, पूर्व तैयार होने का भाव निहित है। और यह सब शेष 6 आदतों का आधार भी है।
त्वरित सारांश:
हम स्वयं अपने मालिक हैं। अपने जीवन जीने के लिए हम खुद के द्वारा लिखी स्क्रिप्ट को चुनें। इस आत्म-जागरूकता का प्रयोग करें कि स्वयं सक्रिय होना और अपने निर्णयों के लिए खुद जिम्मेदारी लेने की सोच विकसित करना। यह पहली आदत बताई गयी है श्री कोवे द्वारा। अर्थात हमारा रिमोट कंट्रोल हमारे हाथ मे रहे, दूसरे लोगों या परिस्थितियों के हाथ नहीं।
स्वामी विवेकानंद ने भी कहा था, "We are responsible for whatever we are."
एक उदाहरण:
कोवे इसे समझाने के लिए निम्न उदाहरण देते हैं:
एक रेस्तरां में एक महिला के ऊपर एक कॉकरोच आकार बैठ जाता है. वो एकदम डर जाती है, पैनिकी होकर चिल्लाने लगती है. और उछल-उछलकर अपने दोनों हाथों से उसे दूर फेंक देने की कोशिश करती है.
इतने में हाथ लगने से वो कॉकरोच एक दूसरी महिला पर गिर जाता है. और वो भी हड़बड़ाहट में उस पहली वाली महिला की तरह व्यवहार करने लगती है. इतने पास में खड़ा वेटर उनकी मदद करने जाता है .. इधर-उधर फेंकने में अब कॉकरोच वेटर पर आकर बैठ जाता है. परन्तु वेटर चिल्लाने और पैनिकी होने की बजाये सीधा खड़ा रहता है .. कॉकरोच के अपने शर्ट पर चलने को अच्छे से देखता, समझता है । जब उसे पूरा विश्वास हो जाता है तब वो फ़ौरन उसे अपनी उंगली से पकड़ लेता है, और रेस्टोरेंट के बाहर फेंक देता है.
इस घटना को हम Proactive और Reactive के भाव से तुलना कर सकते हैं.
यहाँ वेटर एक PROACTIVE इंसान था जिसने उन महिलाओं की तरह हालात पर ताबड़तोड़ प्रतिक्रिया करने की बजाए सोचकर कोई हल निकाला और उसके मुताबिक निर्णय एवम व्यवहार किया.
जो चीज़ अन्य सभी जानवरों से मनुष्य के रूप में हमें अलग करती है वह ये है कि हम अपने चरित्र की जांच स्वयं करने में सक्षम है। हमारे में खुद को और अपने स्थितियों को देखने परखने व निर्णय लेने की क्षमता है। हमारे मेंअपने प्रभाव को नियंत्रित करने की क्षमता है। सीधे शब्दों में: प्रभावी होना है तो प्रोएक्टिव होना पड़ेगा।
प्रोएक्टिव का उल्टा शब्द रिएक्टिव है। ऐसे रिएक्टिव लोग हर चीज़ में एक निष्क्रिय रुख लेते हैं। उनका मानना होता है कि दुनिया में उन पर सबकुछ घटित हो रहा है। रिएक्टिव लोगों के तकिया कलाम ऐसे ऐसे वाक्य होते है" मैं क्या कर सकता हूँ? कुछ भी तो नहीं ।" " मेरे बस में क्या है, सब कुछ तो दूसरे तय करते है।" उन्हें हमेशा लगता है समस्या कहीं "वहाँ" है - लेकिन यह सोच ही उनकी सबसे बड़ी समस्या है। Reactivity ही उनकी आत्मपतन की भविष्यवाणी की पूरी इबारत लिख देती है। ऐसे प्रतिक्रियाशील लोग प्रायः प्रताड़ित जैसे रहते है और परिस्थितयों को अपने नियंत्रण से बाहर महसूस करते हैं।
इसके उल्ट, प्रोएक्टिव लोग हमेशा जिम्मेदारी पहचानते हैं। अंग्रेजी शब्द responsible उनपर खरा उतरता है, यानी वे response के able. Response-ability यानी उनके रिस्पांस करने की ability होती है। किसी भी परिस्थिति में कैसे रिस्पांस करना है, उनमे ऐसी क्षमता होती है।
★हम कैसे प्रोएक्टिव बने, उसका एक तरीका ये भी है। दो शब्द है जिनका हमें अच्छे से जानना जरूरी है, प्रभाव का दायरा और चिंता का दायरा। Circle of Concern (things we care about but can’t control) and our Circle of Influence (things we care about and can impact):जिस क्षेत्र में हम कुछ कर सकते हैं वह प्रभाव का दायरा, और जिस-जिस की बात की हमें चिंता होती है, वह एरिया ऑफ concern. चिंता का दायरा कितना भी बढ़ाया जा सकता है, परंतु प्रोएक्टिव व्यक्ति उसी क्षेत्र में अधिकतम सक्रिय होता है जोकि उसके प्रभाव के क्षेत्र वे होता है। अनावश्यक उन चीजों को सोच सोच कर पागल नहीं होता जो उसके प्रभाव क्षेत्र में नहीं है।
सारांश ये कि हमें उन्ही चीज़ों पर एकाग्र करना चाहिए जो कि जहां हम कुछ कर सकते हैं।
बिल्कुल इसके उलट रिएक्टिव लोग उन बातों पर ज्यादा सोच सोच कर पतले होते रहते हैं जो उनके हाथ व बूते से बाहर होती हैं। फिर बाह्य कारकों को दोष देने का काम शुरू कर देते हैं। इससे नकारात्मक ऊर्जा निकलती है और कोसने के चक्कर मे उनका प्रभाव का सर्कल और सिकुड़ जाता है। प्रोएक्टिव व्यक्ति का प्रभाव का दायरा कदम-दर- कदम अपने आप बढ़ता जाता है।
अभ्यास क्रमांक एक:
क्यों न हम स्वयं को चुनोति देवें अपने भाषा प्रयोग को:
"उसने मुझे इतना गुस्सा दिला दिया है।" प्रोएक्टिव = " उसके सामने मैं अपनी खुद की भावनाओं को नियंत्रित करता हूँ"
प्रयोग 2: जो जो रिएक्टिव काम हमनेपकड़े हुए हैं, उसकी जगह पर प्रोएक्टिव काम पकड़ना, यानी अपने एरिया ऑफ इन्फ्लुएंस वाले कामों पर एकाग्र होने की सूची बनाना।
क्योंकि शेष 6 आदतों का आधार ये प्रथम आदत है, अतः इस बुनियाद को मजबूत बनाना चाहिए।
आदत 2
अंत का शुरु से ही ध्यान रखना: keep the end in mind.
त्वरित सारांश : श्री कोवे का कहना है कि हम अपनी कल्पना का उपयोग करके तय कर सकते हैं कि जीवन में क्या बनना चाहते। साथ ही हम अपने विवेक का उपयोग करके तय कर सकते हैं कि उस सपने को विकसित करने हेतु किन मूल्यों को जीवन में लाना जरूरी है।
एक उदाहरण:
हम कुछ लोगों को एक अर्थी उठाये शमशान घाट जाते हुए देखते हैं, और सुनते है कि लोग उस मृत व्यक्ति के बारे में अच्छा बुरा बोल रहे हैं। कल्पना करें कि ये हमारी ही अर्थी है, तो हम लोगोंसे अपने बारे में क्या सुनना चाहेंगे? बस हम जो भी अपने बारे में सुनना चाहते है, उसके अनुसार आज से ही बनना शुरू कर दें। यहीं गंतव्य को शुरू से ध्यान करना है।
1. हम में से अधिकांश को अपने आप को व्यस्त करना आसान लगता है। हम कड़ी मेहनत करते जीत हासिल करने - प्रोन्नति, उच्च आय, और अधिक मान्यता तो प्राप्त करते हैं। लेकिन हम अक्सर इन जीत के पीछे, इस व्यस्तता के पीछे यह मूल्यांकन करने पर ध्यान केंद्रित नहीं करते कि क्या वास्तव में हमारे लिए ये चीज़े कुछ मायने भी रखती हैं या नहीं?
आदत 2 से पता चलता है कि, हम जो भी करते हैं, उसे एक स्पष्ट लक्ष्य के साथ शुरू करना चाहिए। एक स्पष्ट गंतव्य के साथ शुरू करो।
"यह अविश्वसनीय रूप से आसान है कि हम किसी न किसी गतिविधि के जाल में जकड़े जाएं। परिश्रम पूर्वक सीढ़ी पर सीढ़ी चढ़ना तो सरल हो सकता है परंतु अंत मे ये पता लगना कितना कष्टकारक होगा कि हम किसी गलत दीवार पर पहुंच गए है। "-स्टीफन कोवे
कोवे इस बात पर जोर देता है हमारी आत्म-जागरूकता हमें इस प्रकार कि शक्ति प्रदान कर सकती है कि डिफ़ॉल्ट रूप से हम जीवन न जीये, बल्कि सबकुछ सुविचारित हो। Not by default, but by design. हमारे अपने जीवन का आकार व मानक दूसरों की प्राथमिकताओं के आधार पर या उनकी अंधी नकल पर न टिका न हो।
दिमाग में अन्तिम चित्र शुरू से होना एक कारोबार के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। जो भी साधन उपलब्ध है, उसका अधिकतम उपयोग कर परिणाम लाना जिसका काम है उसे एक प्रबंधक कहते है। लेकिन अपने संगठन की दिशा व दशा ठीक रहे, ये देखना जिसका काम है, उसे नेता कहते है। पहला काम नेता का जरूरी है, प्रबंधन बाद में शुरू होगा।
अच्छा नेतृत्व यदि जरूरी समझता है तो अपने संगठन की या व्यापारिक संस्थान का दुबारा स्क्रिप्ट भी लिखता है, अपने जीवन मूल्यों के आधार पर। अपना केंद्रे जीवन के प्रमुख स्वाभाविक सिद्धान्तों पर आधारित करना ही सबसे श्रेष्ठ है।
अभ्यास 1
उपर्युक्त जो शमशान में अपनी अर्थी लेजाने के उदाहरण को दुबारा सोचिए। वहां कौन कौन है, उनके मुंह से आप क्या क्या सुनना चाहते? आपने कैसा जीवन जिया? कैसे आपकी प्राथमिकताएं बदलेगी यदि कुल 30 दिन ही हमारे पास जीने को बचे है? एकबार उन प्रथमिक्तायों के आधार पर जीना शुरू करें। (यह बहुत ही जबरदस्त प्रयोग है, जरा गंभीरता से इसे लेवें)
2. अपने जीवन की अलग-अलग भूमिकाओं को देखे, व्यावसायिक, व्यक्तिगत, सामुदायिक, संगठनात्मक, और फिर उस भूमिका के तीन से पांच लक्ष्य लिख कर रखें, Mission Statements. उन्हें बार-बार पढ़े, विचारे।
3. आपको सबसे ज्यादा किस चीज से डर लगता है, बीमारी से, सार्वजनिक भाषण से, आपके लिखे लेख पर औरों की खराब प्रतिक्रिया से? जिसभी ऐसी परिस्थिति से आप भयभीत होते हैं, उसके खराब से खराब दृश्य को लिखें, और फिर हम उसको कैसे संभालेंगे, इसके बिंदु लिखने शुरू करें। सब चिंताएं दूर हो जाएंगी।
तीसरी आदत
(प्राथमिकता ध्यान रखे, अर्थात ज्यादा महत्वपूर्ण बात को पहले करें)
त्वरित सारांश: अपने आप को प्रभावी रूप से प्रबंधित करने के लिए सबसे वही काम करना होगा जो सबसे महत्वपूर्ण है। अपने जीवन मे एक अनुशासन लाना होगा कि प्राथमिकता उसे ही दें जो सबसे महत्वपूर्ण है, न कि उसपर जुट जाएं जो तत्काल करने का (urgent) है।
ध्यान रहे कि आदत 2 में, हम अपने जीवन-मूल्यों को निर्धारित करने के महत्व पर चर्चा की। आदत 3 उन लक्ष्यों वास्तव प्राप्त करने के लिए दिन,-प्रति-दिन, और पल-पल के आधार पर हमारी प्राथमिकताओं पर क्रियान्वित कैसे हो इस बारे में है।
"चुनौती 'समय का प्रबंधन' करने की नहीं है, बल्कि अपने 'आप को' करने की है "-स्टीफन कोवे ।
एक श्री कोवे को श्रद्धांजलि देने वाले एक स्तम्भकार ने कहा है कि अगर कोई पूछे कि मानलो इस पुस्तक को पढ़ने के बाद भी इस पुस्तक का सब कुछ भूल जाये तो एक बात क्या हो सकती है जिस से बाकी की कमी महसूस न हो। भले ही इस स्तंभकार ने अपने जीवन में पांच बार इस पुस्तक को पढ़ा था तो भी काफी सारी बाते भूल गया था। तो उसका कहना है कि चार quadrants (चार खानों ) वाला प्रयोग अगर याद रहा तो बाकी भूलने से ज्यादा नुक्सान नहीं होगा। यह प्रयोग पुस्तक में "first thing first" नामक अध्याय में उल्लिखित है।
ऐसा करने में दो tools हमारी बहुत मदद करते हैं:
1) जो जो काम करने है उनकी सूचि बनाना। to do list.
2) Time Management Matrix
आओ जरा समझें:
To Do List एक ऐसी सूची है जिसमे आपको क्या क्या काम करने हैं वो लिख लिए जाते हैं. ये बहुत हद तक वैसी ही सूची है जो बाज़ार से सामान लाने के लिए तैयार की जाती है। जब आपके पास बहुत सारे काम हों तो ये बेहद कारगर साबित होती है. इसमें कोई काम छूटने का डर नहीं रहता.
एक उदाहरण:
एक पत्रकार की सूची देखें।
समाचार पत्र के लिए एक नयी पोस्ट तैयार करना .
Grocery का सामान लाना.
किसी दोस्त से मिलना
मोबाइल Bill जमा करना
किसी को Birthday या Marriage Anniversary की बधाई देना.
किसी बुक के कुछ pages पढना.
Office का कोई जरूरी काम करना
श्रीमती के लिए शौपिंग करना .
एक बार लिस्ट तैयार हो जाने के बाद मुझे पता होता है कि आज मुझे क्या क्या करना है. अब at the end of the day मेरा satisfaction level उतना अधिक होगा जितना अधिक काम मैं complete कर पाऊंगा. इसमें एक ज़रूरी चीज ये भी है कि सिर्फ पूरे हुए कामों कि संख्या नहीं बढानी है बल्कि ये भी ध्यान देना है कि जरूरी, ज्यादा महत्वपूर्ण कोई काम रह ना जाएं. और यहीं पर Time Management Matrix का प्रयोग करना होता जाए।
टाइम मैनेजमेंट मैट्रिक्स कुछ इस तरह दिखती
Time Management Matrix
यहाँ चार खाने quadrants बनाते हैं:
First Quadrant : Urgent and Important ( अत्यंत आवश्यक और महत्त्वपूर्ण )
ऐसे काम को तुरंत करना होता है .
Second Quadrant :Important Not Urgent (महत्त्वपूर्ण पर अत्यंत आवश्यक नहीं)
ऐसे काम को करना जरूरी है पर आप इसके लिए समय निश्चित करके इस पूरा कर सकते हैं.
Third Quadrant : Urgent Not Important ( अत्यंत आवश्यक पर महत्त्वपूर्ण नहीं)
ऐसे काम को आप किसी दूसरों को करने को दे सकते हैं. Delegate करना।
Fourth Quadrant : Not Important Not Urgent ( ना महत्त्वपूर्ण ना अत्यंत आवश्यक)
ऐसे काम को आप फिलहाल टाल सकते हैं.
अब जो To Do List बनायीं है उसमे लिखे कामों को इन चार quadrants में डालना होता है.
जैसा कि quadrants के नाम हैं उसी हिसाब से संभव काम इन चारों में से किसी एक quadrant में fit होंगे .
कौन सा काम किस quadrant में जायेगा ये व्यक्ति और उस समय कि परिस्थिति के हिसाब से अलग अलग करेगा । उदाहरण के लिए आम दिनों में श्रीमती को शॉपिंग करना पति के लिए Not Important Not Urgent होता है पर जब वो नाराज़ होती हैं, या उसका जन्मदिन होता है तो ये Urgent and Important हो जाता है. ..ज्यादातर पतियों के साथ यही होता है ।
अब एक सादे पन्ने पर एक बड़ा सा Square बना लेते हैं, और उन्हें चार quadrants में divide कर लेते है और अपने To Do List के सारे काम इनमे फिट कर लेते हैं।
उपर्युक्त उदाहरण के हिसाब से मैट्रिक्स या खाँचा इस प्रकार बनेगा।
First Quadrant ( Urgent and Important ) में :
Office का कोई जरूरी काम करना
किसी को Birthday या Marriage Anniversary की बधाई देना.
Second Quadrant (Important Not Urgent) में:
अखबार के लिए एक नयी पोस्ट तैयार करना .
क्योंकि वह डायबिटिक है सो नियमित सैर या व्यायाम करना।
Third Quadrant (Urgent Not Important ) में :
मोबाइल Bill जमा करना ( जब last date करीब हो)
Fourth Quadrant (Not Important Not Urgent)
किसी दोस्त से मिलना
किसी बुक के कुछ pages पढना.
श्रीमती के लिए shopping करना .
फेसबुक देखना, व्हाट्सअप के इधरउधर के मैसेज पढ़ना।
एक बार जब ये activity पूरी हो जाती है तो मेरा mind बिलकुल clear रहता है कि कौन सा काम पहले करना है , और उसी हिसाब से मैं अपने काम निबटाने लगता हूँ .इस पन्ने को मैं उस दिन अपने साथ ही रखता हूँ …और जैसे ही कोई काम पूरा होता है उसे pen से काट देता हूँ , ये करने में सच में बहुत मज़ा आता है …किसी बड़े काम का पूरा होना एक छोटी सी लड़ाई जीतने जैसी ख़ुशी देता है.
इस प्रक्रिया को अपनाने से prioritized काम पहले हो जाते हैं और दिन के अंत में अगर कुछ काम बच भी जाते हैं तो भी important काम पूरा हो जाने के कारण एक satisfaction मिलता है और लगता है कि चलो आज का दिन अच्छा गया .
इन दोनों टूल्स को उपयोग करना काफी आसान है .अगर कोई इन टूल्स को अच्छे ढंग कर रहा है तो उसके first quadrant में कम से कम काम आने चाहियें ... इस वाक्य को जरा गौर से पढ़ें। यानि कोई भी काम URGENT और IMPORTANT दोनों बनने से पहले ही ख़तम हो जाना चाहिए । इसे प्रयोग करके आपकी उत्पादकता निश्चित रूप से बेहतर होगी।
ऐके साधे सब सधे, सब साधे सब जाये।
लेखक का मानना है कि यह हमें परेटो सिद्धांत को लागू करने में मदद करता है ।परेटो सिद्धांत क्या है: अपने परिणाम के 80% अपने समय के 20% से आते हैं ।
अभ्यास आदत 3:
1. ऐसी बातों की सूची बनाना जो जीवन मे महत्वपूर्ण है पर उसके लिए हम कुछ नहीं कर रहे, यथा शुगर बढ़ रहा है, वजन बहुत बढ़ है पर सैर के लिए समय नहीं निकाल रहे, रिश्ते टूट रहें है पर मिलने का समय नहीं निकाल रहे।
2. अपने खुद के समय प्रबंधन मैट्रिक्स को प्राथमिकता देने शुरू करने के लिए बनाएँ।
3. अपनी खुद की मैट्रिक्स बनाने के बाद, अनुमान लगाए की कितना समय आप वृत्त का चतुर्थ भाग में खर्च करते हैं। फिर 3 दिनों में आपके समय लिखें। देखें कि आपका अनुमान कितना सही था?
आदत क्रमांक 4,5,6,7 की भूमिका:
हमने पहले ही भूमिका रखी कि ऊपर की तीन आदतें व्यक्तिगत हैं। हम अकेले भी इन्हें कर सकते है, किसी की अनुमति की ही जरूरत नहीं, परंतु एक खास बात और है। इन तीनों को हमें ही करना पड़ेगा , कोई हमारे लिए नहीं कर सकता। परंतु अगली तीन आदते यानी जीत-जीत, पहले समझे पबिर समझाएं, व तालमेल, ये आपसी संबंधों पर आधारित हैं। हम आपस मे कैसे मिलकर काम करते हैं, इसके बारे में है। वास्तव में अकेले तो सिर्फ अपनी तैयारी ही व्यक्ति करता है, वास्तविक जीवन मे तो हरदम किसी न किसी से पाला पड़ता है। अतः ये तीन आदते समझने की हैं।
आप भी जीते, हम भी जीतें: आदत क्रमांक 4:
आमतौर पर हमारी मानसिकता ही कुछ ऐसी बनी है कि हमें लगता है, कि हमारे जीतने के लिए किसी और का हारना जरूरी है या फिर उसे मिल गया तो मुझे नहीं मिलेगा… जिसे दुर्लभता की मानसिकता (SCRACITY MENTALITY) कहते हैं। हमें ये मानसिकता दिमाग से निकालकर ऐसा सोचना चाहिए कि हर इंसान के लिए बहुत कुछ यहां पर है जो कि प्रचुरता की सोच (ABUNDANCE MENTALITY )होती है. बच्चों के साथ खेलते हुए उनकी खुशी के लिए बड़े का हार जाना और छोटे का जीतना भी अच्छी बात हो सकती है।फुटबाल के खेल में तो ये हो सकता है कि एक जीतेगा तो दूसरा हारेगा, परंतु आपसी संबंधों में ये ठीक नहीं है। वास्तव में तो विन-विन की सोच इस बात का परिणाम है कि हम जिंदगी को परस्पर सहयोग का अखाड़ा समझते है न कि आपसी प्रतिद्वंदिता का। जो भी व्यक्ति या संस्था दोनों पक्षों के लिए लाभकारी हल ढूंढता है उसमें तीन गुण पाए जाते है : प्रमाणिकता, परिपक्वता और प्रचुरता की मानसिकता होने के। इसके लिए दूसरे की संवेदना (empathy) का पता होना जरूरी है।
अतः अब से किसी भी परिस्थिति में कोई भी सौदा करते वक्त एक WIN-WIN Situation करने की ही कोशिश करें जिससे सबका फायदा हो।
उदाहरण: नीग्रो बच्चों का उदाहरण दिया जाता है कि पादरी ने कहा कि सभी दौड़िये, जो प्रथम आएगा उसे मिठाई का डिब्बा इनाम मिलेगा। 1,2,3 बोलने पर सभी एक दूसरे का हाथ पकड़ कर इकठ्ठे गन्तव्य पर आते हैं और मिलकर मिठाई बांटते हैं। इस प्रकार बच्चों ने win-Kwin का आदर्श सिखा दिया।
अभ्यास क्रमांक 1.
हमारा किसी से संवाद होना है तो हमें सिर्फ ये नहीं सोचना की मैंने क्या कहना है। बल्कि ये भी सोचना है कि दूसरा व्यक्ति क्या चाहता है। हमें साथ साथ ये भी सोचना कि हम उसकी कैसे सहायता कर सकते है कि वह अपनी जरूरतें पूरा कर सकते हैं। ऐसे 10 बिंदु लिख कर जाएं।
2. अपने साथ जुड़े तीन लोगों से अपने रिश्तों के बारे में सोचें। उनके साथ हमारे सम्बन्धों में संतुलन है या नही? क्या हम उनको देते ज्यादा हैं या लेते ज्यादा हैं। उनको लाभ ज्यादा देना चाहते हैं या उसका फायदा ज्यादा उठाना चाहते हैं। कैसे हम उन्हें अधिक दे सकें, ऎसे 5,5 बिंदु लिखने चाहिए। आदत, पहले अच्छे से समझे, फिर सुझाए
HABIT 5. SEEK FIRST TO UNDERSTAND THEN TO BE UNDERSTOOD
1. अच्छे लोगों की एक बड़ी आदत होती है कि वे किसी को भी सुझाव देने, या समाधान सुझाने से पहले पूरी संवेदना से दूसरे व्यक्ति की मानसिकता समझते है। प्रायः तो हम निदान से पहले ही समाधान सुझाते है।किसी ने कहा है '"हम समझते कम और समझाते ज्यादा है, इस लिए सुलझते कम और उलझते ज्यादा"। अतः ये 5वीं आदत हमे सिखाती है कि सुनने की कला भी सीखनी चाहिए। 2. स्टीफेन कोवे कहता है कि हमे सालो-साल पढ़ना और बोलना सिखाया जाता है, परंतु सुनना कब और कहां सिखाया जाता है? इस सुनने की कला या आदत को भी डालना चहिये। प्रायः लोग उत्तर देने के लिए सुनते हैं, भावना समझने के लिए नहीं।
3. कोवे एक अद्भुत आंकड़ा देता है। वो कहता है कि हमारा संवाद 10 % मात्र शब्दों से होता है, 30% उन ध्वनियों द्वारा और 60% हमारी शरीर की भाषा द्वारा, body language से होता है। अतः सब चीजों पर ध्यान देने की जरूरत होती है।
उदाहरण: एक दिन आप एक आंखों वाले डॉक्टर के पास जाते हैं. और बताते हैं कि आपको दो दिन से बराबर दिख नही रहा है! ये सुनकर डॉक्टर साहब अपना पहना हुआ चश्मा निकालकर आपको दे देता है और बोलता है लो इसे प्रयोग करके देखो..ये मेरे लिए काफी सालों से अच्छे से काम कर रहा है. आप वो चश्मा पहनते हो और वो और भी खराब दिखने लगता है.
अब ऐसा होने के बाद कितने चांसेस है कि आप वापिस उस आंखों वाले डॉक्टर के पास कभी जायेंगे… शायद ही कभी! लेकिन वास्तव में हम सब भी उस चश्मे वाले डॉक्टर की तरह ही हैं, जब हम लोगों से बात करते हैं तो उनके प्रोब्लम को को अच्छे से समझने से पहले ही उन्हें सोल्यूशन देना या शुरू कर देते हैं.
5. हम ये आसानी से बोल देते हैं कि कोई हमारी भावनाओं को नहीं समझता पर खुद भी कभी सामने वाली की फीलिंग्स नहीं समझते …सोचते भी हैं कि इस बात को कि सामने वाले ने क्या कहा और वो ऐसा कैसे कह सकता है जबकि मुख्य प्रश्न ये होना चाहिए कि उसने ऐसा क्यों कहा? और उसकी फीलिंग्स क्या थी ये बोलते हुए .. जब हम किसी से बात करें तो उनकी बात बस अपना उत्तर देने की उद्देश्य से न सुने बल्कि उन्हें समझने की कोशिश करें. और सबसे महत्वपूर्ण तब फील होने दें कि आप सचमुच समझते हैं उनकी फीलिंग्स को?
6. यहां तक उसे "समझने" की बात है, उसे "समझाना" तो और भी कठिन हो जाता है। कोवे कहता है कि उसे समझने के लिए सिर्फ उसपर ध्यान देना जरूरी है समझाने के लिए अपने अंदर साहस चाहिए। कैसे? जब बड़े स्पष्ट ढंग से हम उसे समझाते हैं और उसी आधार पर समझाते हैं जिस आधार पर उसे समझाते हैं जो उसकी समस्या है, तो हमारी विश्वसनीयता भी बढ़ जाती।
अभ्यास 1: जब हम दो व्यक्तियों को वार्तालाप करते देखें तो कान बंद करके देखे की उनकी भाव भंगिमा कैसी है, जो मात्र शब्दों से अतिरिक्त संवाद है। उसे लिख ले और अपनी बात में जोड़े।
अभ्यास 2: अगली बार जब कोई विषय प्रतिपादन करें तो श्रोताओं का दृष्टिकोण विस्तार से उन्हें ही बताएं। उनकी समस्याएं क्या-क्या हैं और में उसका क्या समाधान बताने जा रहा हूँ। इस प्रक्रिया से देखें उनका ध्यान कैसे बढ जाता है।
दूसरा चुटकले का उदाहरण:
6. SYNERGY तालमेल:
1. जब हम दूसरे व्यक्ति के विचार अच्छे से समझते हैँ, उसके अलग मत का सम्मान करते हैं, तो हमारे लिए एक अवसर है कि बेहतर तालमेल से नई नई सम्भावनाए तलाश सकते हैं। पहले की पांच आदते इस छटी तालमेल (synergy) की आदत के लिए कुशलता प्राप्त करवाती है।
2 सिनर्जी: जब एक और एक तीन या उससे भी अधिक होता है, जब कुल योग उन संख्याओं के जोड़ से कहीं अधिक है जिनको की जोड़ा गया है। गणित में तो ये सम्भव नहीं, परंतु समाज जीवन में ये सम्भव है। हमारे यहां इस बात को समझाने के लिए कहते है - एक और एक ग्यारह होते हैं।
3.उदाहरण के लिये अगर आप दो प्लांट को साथ में लगाते हो तो उनकी जड़ साथ में मिलकर मिटटी की गुणवत्ता बढाती है. जिससे दोनों प्लांट को ग्रोथ बेहतर होती है उन दो प्लांट की तुलना में जो कि अलग-अलग जगह पर लगाए गए हो। इसी तरह एक आदमी या एक महिला हद से हद 90-100 साल जी सकते है परंतु आपसी संबंधों से ऐसी संताने आगे से आगे पैदा कर सकती हैं जो शताब्दियों तक रहती हैं। उसी प्रकार मिट्टी, बीज व पानी अलग अलग एक दो किलो वजन की होंगी परंतु अच्छे से जुड़ जाएं तो हज़ारो टन अनाज ऊगा सकते हैं। उन्हें अपने अस्तित्व का कोई खतरा महसूस नहीं करते और नया जीवन पैदा करते हैं।
4. Example- दो आदमी एक पेड़ से सेब तोड़ने की कोशिश कर रहे थे पर काफी कोशिश करने के बाद भी दोनों उस तक पहुँच नहीं पा रहे थे क्योंकि सेब थोड़े ऊपर थे फिर दोनों ने सोचकर तय किया कि एक आदमी दूसरे के कंधे पर चढ़कर सारे सेब तोड़ लेगा और उन्होंने सारे सेब तोड़ लिए, फिर बांट लिये।
5 किसी कार्य को जब एक टीम बना कर करते हैं तो वह ज्यादा ही बेहतर होता हैं. सरल शब्दों में समझे तो – “दो दिमाग एक दिमाग से बेहतर सोच सकते हैं”. जीवन में बहुत से ऐसे कार्य होते हैं जहाँ पर दो या दो से अधिक लोग ही उसे बेहतर तरीके से कर सकते हैं तो उनमे तालमेल रखना बहुत जरूरी होता हैं.
6. सिनर्जी में दूसरे के साथ मतभिन्नता बर्दाश्त ही नही की जाती बल्कि सम्मान दिया जाता है। क्योंकि इस सच्चाई को स्वीकार करना है कि दुनिया में लोग चीजों को अलग अलग ढंग से देखते हैं, अपने अपने ढंग से देखते हैं। यदि दो व्यक्ति एक ही प्रकार से देखते है तो एक का देखना फालतू है। अतः विभिन्नता सम्मानीय है, और तालमेल का आधार है।
अभ्यास 1: ऐसे लोगों की सूचि बनाएं जिनसे हमें चिढ़ होती है। उनकी चिंताएं समझे, इस से या तो उनकी सोच बदलेंगी या हमारी और समन्वित ढंग से काम बढ़ेगा।
अभ्यास 2: कुछ ऐसे लोगों की सूची बनाएं और उनमें से किसी एक को छाँट लीजिये। उसके विचार आपसे कैसे भिन्न हैं? अब एक ऐसी परिस्थिति को लिखिए जिसमे बहुत बढ़िया टीम वर्क है, तालमेल है। ऐसा क्यों हुआ? ऐसी संवाद की मधुरता कैसे प्राप्त हुई? इस परिस्थिति को दुबारा कैसे प्राप्त किया जा सकता
है?
#7 – आरी में धार लगाना (Sharpen the Saw)
दुनिया का सबसे कीमती हथियार आप स्वयं है जिसके द्वारा सफलता मिलनी है, अतः अपनी शक्तियों को हमेशा नएपन से बढ़ाते रहना चाहिए।
उदाहरण : यदि आप को एक पेड़ काटना हैं तो आपको दो चीज़ो की जरूरत होगी. एक धारदार कुल्हाड़ी और आपके हाथो में शक्ति जिससे आप उस पेड़ को काट सके. यदि कुल्हाड़ी की धार तेज न हो तो आप बहुत मेहनत करना पड़ेगा पेड़ काटने के लिए यदि शक्ति कम हैं तो भी आपको बहुत ज्यादा मेहनत करना पड़ेगा. अब कोई व्यक्ति जो बुरी तरह पसीने से लतपथ है बताये की जोर और इस समय इस लिए ज्यादा लकड़ी काटने में लग रहा है क्योंकि आरी की धार खराब है, और आरी इस लिए नहीं तेज़ कर रहा क्योंकि मेरे पास समय की कमी है तो हैम उसपर हंसेगे कि नहीं? हम भी जीवन मे यही करते है, व्यायाम, साधना, ध्यान इस लिए नहीं करते क्योंकि इन चीजों के लिए समय ही कहाँ है?
ठीक इसी तरह शिक्षा कुल्हाड़ी हैं आप अधिक से अधिक ज्ञान अर्जित करके इसे तेज करे. उस ज्ञान को आप सही तरीके से तब प्रयोग कर सकते हैं जब आप शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ होंगे इसलिए स्वस्थ होने भी बहुत जरूरी हैं. पढ़ हमारी समस्याए हैं.
यह सिद्धांत इस बात पर जोर देता है कि अंतिम रूप से सिद्धि जैसी कोई चीज़ नहीं होती, बार-बार अभ्यास चालू रखना पड़ता है।
नीचे दिए गये इन चारो विन्दुओ पर जरूर ध्यान दे.
1. शारीरिक (Physical)- उत्तम भोजन, व्यायाम या योग करना, आराम करना
2.सामजिक/भावनात्मक (Social Emotional) – दूसरो के साथ सामाजिक और अर्थपूर्ण सम्बन्ध बनाना.
3. मानसिक (Mental) – पढाई करना, सीखना-सिखाना,
4.आध्यात्मिक (Spiritual) – ध्यान करना, भक्ति भावना और प्रकृति से प्रेम
दो अभ्यास:
क्रमांक 1: ऐसी गतिविधियों की सूची बनाए जो उपर्युक्त चारों आयामों का नवीनीकरण कर सके। हर आयाम के लिए एक गतिविधि चुने और सप्ताह अंत मे मूल्यांकन करें।
2. प्रति सप्ताह आरी की धार लगाने वाले चार आयामों के काम लिखे, और करने के बाद उनके प्रभाव का मूल्यांकन भी करें।
समारोप:
कुल मिलाकर यह पुस्तक शायद गीता की उस बात की ओर संकेत करती है,
धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायाम्, महाजनो येन गतः सः पन्थाः।।
वास्तव में धर्म का मर्म तो गुहा (गुफा) में छिपा है, यानी बहुत गूढ़ है। ऐसे में समाज में प्रतिष्ठित व्यक्ति जिस मार्ग को अपनाता है वही अनुकरणीय है। इस पुस्तक में सचमुच प्रभावशाली लोगों के उदाहरण सहित जीवन मूल्यों को हमने इस पुस्तक में देखा है।
यद्यपि यह पुस्तक सन 1989 में लिखी गयी थी यानी कि लगभग 30 साल पूर्व छपी थी परन्तु आज भी उतनी ही लोकप्रिय है। लगभग इसकी अढाई करोड़ (25 मिलियन) प्रतियां 40 भाषाओं में बिक चुकी हैं। एक समय पर (1996 मे) फार्च्यून पत्रिका की 100 उच्च कम्पनियों में से 86 इसकी क्लाइंट थी। पर पुस्तक की विशेषता अपने जीवन में इसके उपयोग करने में आती है। इस पुस्तक में हर अध्याय के अंत में हल करने हेतु प्रश्नावली दीे है, उसे प्राथमिकता देना अत्यंत आवश्यक है।