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आत्मनिर्भर भारत: हमारा नोट
NAXALISM SOME ARTICLES
According to the BBC, more than 6,000 people have died during the rebels' 20-year fight between 1990 and 2010. Al Jazeera put the death toll at more than 10,000 between 1980 and 2011.
4. Februari, 2020 The Home Ministry on Monday said the Naxal violence has reduced considerably in the country and the menace is prevalent now in just 46 districtsम
रायपुर/बीजापुर. छत्तीसगढ़ के सुकमा और बीजापुर सीमा पर स्थित टेकलगुड़ा गांव के पास नक्सलियों के साथ हुई मुठभेड़ में 20 जवानों की शहादत होने की खबर है.
नया 'ऑपरेशन हिड़मा' - आख़िर क्या हुआ था?
कई अफ़सर जो जानते हैं कि यह हमला किस कारण हुआ, उनका कहना है कि उनके पास पहले से यह जानकारी थी कि शीर्ष माओवादी नेता माड़वी हिड़मा जोन्नागुडा गांव के नज़दीक़ जंगलों में अपने साथियों के साथ है.
2 अप्रैल की रात सुकमा और बीजापुर ज़िले से आठ पुलिस टीम वहां के लिए निकलीं. आठों टीमों में तक़रीबन 2000 पुलिस कर्मी थे. हालांकि, जब उस बताई हुई जगह पर वे पहुंचे तो वहां उन्हें माओवादी नहीं मिले. इसके कारण सभी टीमें वापस कैंप लौटने लगीं.
विभिन्न टीमों के 400 पुलिसकर्मी जब वापस लौट रहे थे तब वे जोन्नागुडा के क़रीब अपनी अगली कार्रवाई पर चर्चा करने के लिए रुके. उसी समय माओवादियों ने एक टीले की ऊंचाई से उन पर गोलियां बरसाना शुरू कर दिया.
बीबीसी से बात करते हुए एक अफ़सर ने बताया, "माओवादियों ने हमारे सुरक्षाबलों के ख़िलाफ़ स्थानीय रॉकेट लॉन्चर्स से हमला किया. अधिकतर उसी में घायल हुए हैं. इसके बाद माओवादियों ने हमारे गंभीर जवानों पर गोलियां बरसाना जारी रखा. माओवादियों ने बुलेट प्रूफ़ जैकेट पहनी हुई थीं. हमारे जवानों ने भी हमला जारी रखा. दोनों तरफ़ भारी क्षति हुई है."
पुलिस अफ़सर ने कहा कि एक तरह से कहा जा सकता है कि पुलिस के जवान माओवादियों के फैलाए जाल में फंस गए.
हालांकि, उन अफ़सर का कहना था कि इसे 'इंटेलिजेंस फ़ेलियर' नहीं कहा जा सकता.
उन्होंने कहा, "हम वहां पर हिड़मा पर हमला करने के लक्ष्य से गए थे क्योंकि हमारे पास जानकारी थी. लेकिन लौटते में सुरक्षाबल कम सतर्क थे, इस वजह से यह नुक़सान हुआ."
एक स्थानीय पत्रकार का कहना है, "हिड़मा का गांव पवर्ती घटनास्थल के बेहद क़रीब है. यह पूरा इलाक़ा उनका जाना-पहचाना है. इससे भी बढ़कर उनके पास स्थानीय समर्थन है. इस वजह से पुलिस पर हमला करने की उनकी साफ़ योजना थी क्योंकि वे सुरक्षाबलों की आवाजाही पर क़रीबी नज़र रखे हुए थे."
'आंध्रा मॉडल..'
अविभाजित आंध्र प्रदेश एक समय माओवादी आंदोलन का केंद्र रहा है लेकिन तब के मुक़ाबले आज यह कमज़ोर हुआ है.
ख़ासतौर से तेलंगाना में आंदोलन का नेतृत्व करने वाले इसके मुख्य नेता मुठभेड़ों में मारे गए हैं. आंध्र प्रदेश पुलिस की 'ग्रेहाउंड्स फ़ॉर्सेज़' ने माओवादी आंदोलन को कमज़ोर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. इस तरीक़े को 'आंध्रा मॉडल' कहा जाता है.
ग्रेहाउंड्स एक राज्य का पुलिस बल है और कथित तौर पर इसने राज्य की सीमाओं को पार करके ओडिशा और छत्तीसगढ़ में कार्रवाइयां की हैं.
विभिन्न राज्यों के विशेष सुरक्षाबल हैदराबाद में ग्रेहाउंड्स सेंटर में ट्रेनिंग लेते हैं.
1986 में बने ग्रेहाउंड्स को माओवादियों के ख़िलाफ़ बहुत कम नुक़सान उठाना पड़ा है.
तेलंगाना के एक वरिष्ठ पुलिस अफ़सर जोन्नागुडा की घटना पर कहते हैं, "हर जगह, हर बार ख़ुफ़िया जानकारी ही महत्वपूर्ण होती है. जब कोई ख़ुफ़िया जानकारी हमें मिलती है तो हम उसका विभिन्न स्तरों पर विश्लेषण करते हैं."
वो कहते हैं कि ग्रेहाउंड्स की तरह बाक़ी राज्यों के पुलिस बल इसलिए सफल नहीं हो पाए हैं क्योंकि उनमें उतना समन्वय नहीं है.
"हमारे पास पहले से जानकारी थी कि हिड़मा और उसके साथी इस इलाक़े में हमला करने की योजना बना रहे हैं. हमने छत्तीसगढ़ पुलिस को संभावित हमले की जानकारी भी दे दी थी."
हाल के दिनों में माओवादी हमले काफ़ी बढ़े हैं. इस सवाल पर वो पुलिस अफ़सर कहते हैं, "यह उनके TCOC की वजह से है."
क्या है TCOC?
TCOC (टैक्टिकल काउंटर ऑफ़ेंसिव कैंपेन) माओ त्से तुंग की लिखी किताब 'ऑन गुरिल्ला वॉरफ़ेर' का महत्वपूर्ण भाग है.
वो लिखते हैं, "जब दुश्मन मज़बूत हो और आप कमज़ोर तो अपने सभी बलों को इकट्ठा करके दुश्मन की छोटी सैन्य इकाइयों पर आश्चर्यजनक हमले करो और जीत हासिल करो."
माओ अपनी 'ऑन गुरिल्ला वॉरफ़ेर' में इस रणनीति का समर्थन करते हैं.
वो पुलिस अफ़सर भी यही कहते हैं, "जैसे हम उन पर बढ़त बना रहे होते हैं और अपने कैंप बना रहे होते हैं तो माओवादी भी अपनी बढ़त बनाते हैं."
घटनास्थल के नज़दीक तारेम, पेगाडुपल्ली, सरकेगुडा, बासागुडा में चार कैंप/स्टेशन हैं. यह सभी जोन्नागुडा में घटनास्थल से 4-5 किलोमीटर की दूरी पर हैं.
कुछ अफ़सरों का मानना था कि आने वाले दिनों में सरकार और अधिक कैंप स्थापित करने पर विचार कर रही है जिसके बाद माओवादियों ने इस योजना में बाधा डालने के लिए हमला किया.
यही बात गृह मंत्री अमित शाह और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के बयानों से पता चलती है. दोनों ने बताया था कि सुरक्षाबल माओवादियों के मज़बूत इलाक़ों में कैंप बनाकर अपनी पैठ बढ़ा रहे हैं और उन पर हमले कर रहे हैं.
उन्होंने साफ़ कहा कि उनकी पीछे हटने की योजना नहीं है और वे हमले बढ़ाएंगे ताकि चीज़ें हमेशा के लिए सामान्य हो जाएं.
माओवादियों के मज़बूत गढ़ कौन से हैं और क्या है उनकी ताक़त?
इन सवालों के जवाब जानने के लिए बीबीसी ने माओवादियों से सहानुभूति रखने वालों और इस आंदोलन पर शोध करने वाले शिक्षाविदों से बात की.
अप्रैल 2006 में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने घोषणा की थी कि 'नक्सलवाद आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा ख़तरा है.' उस समय देश के कई राज्यों में माओवादी आंदोलन की किसी न किसी तरह की मौजूदगी थी.
माओवादियों का दावा था कि वे 14 राज्यों में अपना विस्तार कर चुके हैं. 2007 में हुई सीपीआई (माओवादी) पार्टी की सातवीं कांग्रेस के दौरान दंडकारण्य और बिहार-झारखंड को मुक्त क्षेत्र बनाने का फ़ैसला लिया गया.
इसके साथ ही यह फ़ैसला लिया गया कि कर्नाटक-केरल-तमिलनाडु के सीमाई क्षेत्रों और आंध्र-ओडिशा के सीमाई क्षेत्रों में गुरिल्ला युद्ध को तेज़ किया जाएगा. उन्होंने यह भी फ़ैसला किया कि अविभाजित आंध्र प्रदेश में आंदोलन को दोबारा पैदा किया जाएगा जहां पर यह ख़त्म हो चुका था.
हालांकि, इसके बाद राज्यों और केंद्र सरकार ने बस्तर में सलवाजुडूम अभियान और पूरे देश में ऑपरेशन समाधान और ऑपरेशन प्रहार के बाद ऑपरेशन ग्रीन हंट शुरू करने का अभियान छेड़ा.
ये सभी बहु-स्तरीय हमले थे. इसका परिणाम यह हुआ कि माओवादियों ने अपनी मज़बूत जगहों को खो दिया. साथ ही उनकी संख्या में कमी आई. कुछ नेताओं और कैडर ने आत्मसमर्पण कर दिया. नई भर्तियों में कमी आई और साथ ही शहरी और छात्र वर्गों की भर्तियां बिलकुल ख़त्म ही हो गईं. परिणामस्वरूप अब कोई नया नेतृत्व नहीं रह गया था.
मारे गए माओवादीबस्तर में काफ़ी समय से पत्रकारिता करने वाले एक शख़्स का कहना है, "बस्तर में माओवादियों के दो मज़बूत गढ़ रहे हैं. एक अबूझमाड़ है जो 4,000 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है. कहा जाता है कि इस जगह का सरकार आज तक सर्वे नहीं कर पाई है. जब मैं सरकार कहता हूं तो मेरा अर्थ वर्तमान सरकार से है. यहां तक कहा जाता है कि ब्रिटिश लोग भी इस इलाक़े में नहीं आए थे. यह क्षेत्र बेहद घना है और बहुत कम आबादी वाला है."
दूसरा मज़बूत गढ़ चिंतलनार है. यह इलाक़ा भी अबूझमाड़ जैसा ही है. हालांकि, इसमें घने जंगल नहीं हैं और न ही ऊंची पहाड़ियां हैं लेकिन इसमें जनसंख्या काफ़ी घनी है. बीते 15 सालों में सुरक्षाबलों ने यहां पर भारी नुक़सान झेला है.
चाहे 2010 में ताड़मेटला में 76 सीआरपीएफ़ जवानों का मारा जाना हो या 2020 में लॉकडाउन से दो दिन पहले मिंसा में 17 सुरक्षाबलों की मौत हो, यह सभी गांव इसी क्षेत्र में हैं. दूसरी ओर इसी क्षेत्र का सरकेगुड़ा गांव है जहां पर 2012 में सुरक्षाबलों के एक विवादित 'एनकाउंटर' में 17 लोगों की मौत हुई थी, इनमें 6 नाबालिग भी थे.
मानवाधिकार संगठनों का कई सालों से आरोप है कि ये सभी 17 लोग गांव के लोग थे जो एक स्थानीय त्योहार पर चर्चा के लिए इकट्ठा हुए थे.
जस्टिस अग्रवाल की अध्यक्षता में बनाए गए न्यायिक आयोग की रिपोर्ट को राज्य की विधानसभा में भी पेश किया गया था. इस रिपोर्ट में कहा गया था, "ऐसे कोई संतोषजनक सबूत नहीं हैं जो बताएं कि मारे गए लोग माओवादी थे."
माओवादी आंदोलन में शामिल रहीं एक महिला का कहना है, "बीते दो सालों में अबूझमाड़ इलाक़े (नारायणपुर ज़िला) में पुलिस ने नए कैंप बनाए हैं. इसी कारण इस इलाक़े में हमले हो रहे हैं. इसी तरह दक्षिणी बस्तर में हो रहा है. दक्षिणी बस्तर में हमलों की संख्या काफ़ी बढ़ी भी है."
उनका कहना था कि हम देख सकते हैं कि यह एक संघर्ष है जिसमें पुलिस माओवादियों के गढ़ में पहुंच बनाना चाह रही है और माओवादी गुरिल्ला अपनी पकड़ मज़बूत रखना चाहते हैं.
"सरकार खदानों पर अपना क़ब्ज़ा स्थापित करने की कोशिश कर रही है. सरकार कोशिश कर रही है कि वे खदान कंपनियों को इन्हें सौंप सके, वहीं आदिवासी माओवादियों के नेतृत्व में विरोध कर रहे हैं."
बातचीत का क्या हुआ?
सीपीआई (माओवादी) की दंडकारण्य स्पेशल ज़ोनल कमिटी कुछ सप्ताह पहले घोषणा कर चुकी है कि अगर सरकार उनकी शर्तों को मानने को राज़ी है तो वे बातचीत के लिए तैयार हैं. लेकिन छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने कहा था कि माओवादियों से तभी बातचीत हो सकती है जब वे पहले अपने हथियार डाल दें और सशस्त्र संघर्ष बंद कर दें.
दोनों ओर ऐसे बहुत से लोग हैं जो बातचीत को ज़रूरी और ग़ैर-ज़रूरी मानते हैं. माओवादी पार्टी के नेता कई मौक़ों पर यह बता चुके हैं कि अविभाजित आंध्र प्रदेश में वाईएस राजशेखर रेड्डी के कार्यकाल में शांति वार्ता के कारण उन्हें लाभ की जगह अधिक नुक़सान हुआ था.
सरकार में मौजूद लोगों का मानना है कि उस पार्टी से बातचीत करके कुछ हासिल नहीं हो सकता है जिसका लक्ष्य राज्य की सत्ता को सशस्त्र संघर्ष से हासिल करना चाहती है.
इन सबके बावजूद अलग-अलग स्तरों पर शांति वार्ताएं जारी हैं. सिविल सोसाइटी के नागरिक, बुद्धिजीवी, कुछ ग़ैर सरकारी संगठन कई तरीक़ों से शांति वार्ता की कोशिशें करते रहे हैं.
दुनिया के इतिहास के सबक़
90 के दशक के बाद दुनिया बहुत तेज़ी से बदली है. इतिहास में जाएं तो चीन में माओवादी आंदोलन के बाद 1. पेरू,
फ़िलीपींस,
नेपाल और
तुर्की में ऐसे आंदोलन उभरे. आज के समय में इन देशों में कोई मज़बूत आंदोलन नहीं है.
5. श्रीलंका के तमिलों के साथ-साथ 6. आइरिश और 7. कुर्द लोगों के संघर्ष भी या तो पूरी तरह समाप्त हो चुके हैं या सिर्फ़ वे कहने भर के लिए हैं.
1992 में पेरू में 'शाइनिंग पाथ' के नेता गोंज़ालो की गिरफ़्तारी के बाद माओवादी आंदोलन धीरे-धीरे समाप्त होने लगा. इसी के साथ ही फ़िलीपींस में बिना किसी प्रगति के माओवादी आंदोलन बना हुआ है.
तुर्की में सरकारी दमन के कारण माओवादी आंदोलन को भारी नुक़सान झेलना पड़ा. यहां तक कि मैक्सिको के ज़ैपातिस्ता आंदोलन ने दुनियाभर के बहुत से युवाओं को अपनी ओर आकर्षित किया था लेकिन उसने भी अपने संघर्ष के तरीक़ों को बदल दिया.
गृह मंत्री के अनुसार, माओवादियों के सफ़ाए से ही यह अंतिम लड़ाई जीती जाएगी. आख़िर यह कैसे संभव है? इस सवाल पर एक मानवाधिकार कार्यकर्ता कहते हैं, "शायद माओवादी आंदोलन पूरी तरह से समाप्त हो पाना संभव नहीं है. समाज में जब तक अन्याय और असमानता जारी रहेगी तब तक यह आंदोलन किसी ओर तरीक़े से या अलग स्तर पर जारी रहेगा. यह मानना एक ग़लती होगी कि पुलिस कार्रवाई से इस आंदोलन से निपटना काफ़ी है क्योंकि इसके लिए आंदोलन की सामाजिक-आर्थिक जड़ों के साथ जुड़ना भी ज़रूरी है."
इस कहानी में ऊपर जिन तेलंगाना के एक पुलिस अफ़सर का ज़िक्र हुआ है, उनका कहना है कि इस आंदोलन से निपटने के लिए यह ज़रूरी है कि इसके पीछे के सामाजिक-आर्थिक कारणों को भी देखा जाए.
वो कहते हैं, "माओवाद प्रभावित इलाक़ों के युवाओं को स्किल ट्रेनिंग देकर उन्हें रोज़गार देना संभव है. सिर्फ़ यही नहीं. यह उनको कट्टर बनने से भी रोकने में मदद करेगा."
माओवादी सुरक्षाबलों पर हमलों से शायद एक रणनीतिक विजय ज़रूर पा लें लेकिन भारत जैसे विशाल देश में कुछ छोटे इलाक़ों में सीमित पहुंच होने के कारण वे कैसे सिर्फ़ सैन्य कार्रवाइयों से आंदोलन बरक़रार रख पाएंगे?
source: bbc.com/hindi
Friday, December 4, 2020
निर्यात बढ़ाने पर कुछ अच्छे लेख
Wednesday, December 2, 2020
विजयदशमी 2020 पर सरसंघचालक जी
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ 25-Oct-2020 |