महाभारत के मूल श्लोक एक लाख 11 हज़ार हैं। भगवतगीता उसका 158वां हिस्सा है।
गीता में किसने कितने श्लोक कहे है?
उ.- श्रीकृष्ण जी ने- पौने छह सौ से एक कम 574+ अन्य 126=700
अर्जुन ने- 85 अर्थात एक के बदले 7, अर्थात हर सात मिनट बाद कोई प्रश्न नहीं पूछेगा तो भगवान भी नहीं बोल पाता हमारी क्या औकात है।
संजय ने- 40. (हर 18 मिनिट बाद मंच संचालक नहीं बोलेगा यो कार्यक्रम का गूढार्थ समझ नहीं आयेगा, पर इससे ज्यादा बोलेगा तो भी ठीक नहीं है। देखिए अंतिम समारोप भगवान ने नहीं किया ,इसी मंचसंचालक ने किया यत्र योगेश्वरः कृष्णो, औऱ अपना निष्कर्ष निकाल दिया। युद्ध होने से पहले ही कि जीतेगा तो कृष्ण ही।
धृतराष्ट्र ने- 1 =कुल (126) लेकिन धृतराष्ट्र एक ही बार और पहला श्लोक बोला और उसमें भी हालचाल जानने के लिए पहले कुंती पुत्रो का नहीं स्वार्थ में अंधा होकर अपने पुत्रों का पूछा,मामका पाण्डेश्चैव... ऐसे स्वार्थी को दुबारा नहीं बुलवाया। गीता के श्लोक भी समझाते ही, उसकी संख्या भी समझाती है।
गीता कितनी देर में सुनाई?
उ.- लगभग 45 मिनट में सुनाई 45 जन्मों में भी समझ आ जाए तो बड़ी बात है।।
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भाग एक 5 ...श्लोक में भूमिका: धर्मक्षेत्रे,एक धृतराष्ट्र ,, 2,3 अर्जुन, दृष्टेवमं स्वजनं 4-5 संजय,एवमुक्त्वार्जुनः, तम तथा
2. द्वितीय भाग 8 A व B ..दो कृष्ण: एक कुतस्तव, दो..कलेबयम मा, बी अशोच्यानन्वशोचस्त्वं, , चार: हतो वा प्राप्यसि
B एक . देहिनोऽस्मिन्यथा दो वंसासी जीर्णानि, तीन नैनम छिदन्ति, व चार: जातस्य ही ध्रुवो
3. तीसरा भाग 3 श्लोक (जिनका ठेंगड़ी जी जिक्र करते है ऐसे दो) एक अर्जुन कार्पण्यदोषो, संजय एवमुक्त्वा, एक संलग्न 18 का इति ते ज्ञानम् ।
4. भाग चार दो रूस बाले में ध्यायतो विषयां व क्रोधात भवति।
5. पंचम भाग, महाभारत सीरियल: (3) यदा, परित्रां, यत्र योगेश्वर
6. भाग षष्टम पांच श्लोक
मुक्तसंगों नह्मवादी
कर्मण्येवाधिकारस्ते
यद्यत अचरति
श्रद्धावान लभते
सर्वधर्मान्परित्यज्य
7. सप्तम भाग: 2. Oppenhiemer
दिवि सूर्य सहस्रस्य
कालोअस्मि
।।।।।।।
Mahtvअभी कुछ दिन पहले सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश एआर दवे ने एक सम्बोधन में कहा, यदि वे तानाशाह होते तो बच्चों के लिए पहली कक्षा से गीता का पढ़ना-पढ़ानाअनिवार्य कर दे।
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प्रथम भाग में 5:
1.धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय।। 1 ।।
कुरुक्षेत्र की धर्म भूमि पे जब nb4x7
मिले पांडवों से मेरे लाल सब
लड़ाई का दिल में जमाए ख्याल
तो संजय बता उनका सब हाल-चाल।।
2.दृष्टेवमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्॥२८॥सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति।
अर्जुन दिल को अर्जुन के रंजो मलाल
कहा रहमो-ओ रिक्क्त से होकर निढाल
महाराज ये क्या है दरपेश आज,
की लड़ने को है ख़वेश से ख़वेश आज।
3.वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते॥२९॥
अर्जुन बोले- हे कृष्ण! यहाँ मैं युद्ध के अभिलाषी स्वजनों को ही देखता हूँ। मेरे अंग शिथिल हुए हो रहे हैं और मुख सूख रहा है और मेरे शरीर में मेरा शरीर काँप रहा है और रोएं खड़े हो रहे हैं॥28-29॥
बदन में नहीं मेरे ताब-ओ तवाँ,
दहन खुश्क है, सूखती हैं जबां
लगी है मुझे कपकपी थरथरी,
मेरे रोंगटे भी खड़े हैं सभी।
संजय उवाच -
4.एवमुक्त्वार्जुनः सङ्ख्ये रथोपस्थ उपाविशत्।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः॥४७॥संजय बोले - इस प्रकार कहकर, रणभूमि में शोक से उद्विग्न मन वाले अर्जुन, बाण सहित धनुष को त्याग कर रथ के पिछले भाग में बैठ गए॥47॥
यह कहते हुए हाल-ए-दिल नागहां, दिये फेंक अर्जुन ने तीरों-ओ कमां
न रथ में खड़ा रह सका वो हजीन, जो दिल उसका बैठा तो बैठा वहीं।
5.संजय उवाच
-तं तथा कृपयाविष्टमश्रु पूर्णाकुलेक्षणम्।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः॥१॥
संजय बोले- तब करुणा-ग्रस्त और आँसुओं से पूर्ण, व्याकुल दृष्टि वाले, शोकयुक्त अर्जुन से भगवान मधुसूदन ने यह वचन कहा॥1॥Sanjay says - Then, the destroyer of Madhu, Sri Krishna said to compassionate and sorrowful Arjun, who was anxious with tears in his eyes-॥1॥
दूसरा भाग 5
श्रीभगवानुवाच -
1.कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यम् कीर्तिकरमर्जुन॥२॥
श्रीभगवान बोले- हे अर्जुन! तुम्हें इस असमय में यह शोक किस प्रकार हो रहा है? क्योंकि न यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है, न स्वर्ग देने वाला है और न यश देने वाला ही है॥2॥Lord Krishna says - O Arjun! How can you get sad at this inappropriate time? This sadness is not observed in nobles, it also does not lead to either heaven or glory.
2.क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप॥३॥हे पृथा-पुत्र! कायरता को मत प्राप्त हो, यह तुम्हें शोभा नहीं देती है। हे शत्रु-तापन! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्याग कर(युद्ध के लिए) खड़े हो जाओ॥
क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप॥३॥हे पृथा-पुत्र! कायरता को मत प्राप्त हो, यह तुम्हें शोभा नहीं देती है। हे शत्रु-तापन! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्याग कर(युद्ध के लिए) खड़े हो जाओ॥3॥
3.अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः॥११॥
तू बातों के आकिल, न हो दिल मलूल,
न कर उनका ग़म जिनका ग़म है फज़ूल,
सताएं न दाना को रंजो-अलम, मरे का न सोग और न जीते का ग़म
4. हतो वा प्राप्यसि स्वर्गम्, जित्वा वा भोक्ष्यसे महिम्।
तस्मात् उत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चय:॥
(द्वितीय अध्याय, श्लोक 37)
5.देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्ति र्धीरस्तत्र न मुह्यति॥१३॥
करे रूह जैसे तगेययुर बगैर, लड़कपन, जवानी, बुढ़ापे की सैर, उसी तरह कालिब बदलती है रूह, अगर दिल है मज़बूत चिंता नहीं।
6. वंसासी जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही ।।२२।।
जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रोंको त्यागकर दूसरे नये वस्त्रोंको ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरोंको त्यागकर दूसरे नये शरीरोंको
vāsāṁsi—garments; jīrṇāni—old and worn out; yathā—as it is; vihāya—giving up; navāni—new garments; gṛhṇāti—does accept; naraḥ—a man; aparāṇi—other; tathā—in the same way; śarīrāṇi—bodies; vihāya—giving up; jīrṇāni—old and useless; anyāni—different; saṁyāti—verily accepts; navāni—new sets; dehī—the embodied.
बदलता है इन्सां लिबासे कुहन -नया जामा करता है ,फिर जैब तन .
उसी तरह कालिब बदलती है रूह -नए भेस में फिर निकलती है रूह .
VERSE 23
7.नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥
nainam chindanti sastrani
nainam dahati pavakah
na cainam kledayanty apo
na sosayati marutah
SYNONYMS
na—never; enam—unto this soul; chindanti—can cut into pieces; śastrāṇi —all weapons; na—never; enam—unto this soul; dahati—burns; pāvakaḥ—fire; na—never; ca—also; enam—unto this soul; kledayanti—moistens; āpaḥ —water; na—never; śoṣayati—dries; mārutaḥ—wind.
TRANSLATION
The soul can never be cut into pieces by any weapon, nor can he be burned by fire, nor moistened by water, nor withered by the wind.
the wind
8.जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च ।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ॥27/2 अध्याय
Transliteration
jātasya hi dhruvo mṛtyurdhruvaṁ janma mṛtasya ca,
tasmādaparihārye'rthe na tvaṁ śocitumarhasi.
Padaccheda
जातस्य हि ध्रुवः मृत्युः ध्रुवम् जन्म मृतस्य च ।
तस्मात् अपरिहार्ये अर्थे न त्वम् शोचितुम् अर्हसि ॥
Sri Aurobindo’s Interpretation
For certain is death for the born, and certain is birth for the dead; therefore what is inevitable ought not to be a cause of thy sorrow.
जो पैदा हो मौत उसको आये जरूर,
मरे तो जन्म फिर वो पाए जरूर,
जो यह अमर लाज़िम है और नागज़ीर,
तो फिर किस लिए तु है गम का असीर।
भाग तीसरा तीन श्लोक ठेंगड़ी जी बताते थे
1.कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः
पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्॥७॥शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ॥ ... कार्पण्य-दोष-उपहत-स्वभावः धर्म- सम्मूढ-चेताः त्वाम् (अहं) पृच्छामि। ... शिष्यः ते अहम् शाधि माम् त्वाम् प्रपन्नम् ॥
कायरता रूप दोष से पराजित स्वभाव वाला और धर्म के विषय में मोहित चित्त, मैं आपसे पूछता हूँ कि जो मेरे लिए निश्चित और कल्याणकारक साधन हो, वह बताइए। मैं आपका शिष्य हूँ और आपकी शरण में हूँ, अतः मुझे शिक्षा दीजिये॥7।।
संजय उवाच -
2.एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप।
न योत्स्य इतिगोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह॥९॥
(परन्तप) हे राजन्! (गुडाकेशः) निद्राको जीतनेवाले अर्जुन (हृषीकेशम्) अन्तर्यामी श्रीकृष्ण महाराजके प्रति (एवम्) इस प्रकार (उक्त्वा) कहकर फिर (गोविन्दम्) श्रीगोविन्द भगवान्से (न, योत्स्ये) युद्ध नहीं करूँगा (इति) यह (ह) स्पष्ट (उक्त्वा) कहकर (तूष्णीम्) चुप (बभूव) हो गये।
........
3. इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु।।18.63
इति ते ज्ञानम् आख्यातम् गुह्यात् गुह्यतरं मया ।
विमृश्य एतत् अशेषेण यथा इच्छसि तथा कुरु।।
इति गुह्यात् गुह्यतरं ज्ञानम् मया ते आख्यातम्, एतत् अशेषेण विमृश्य, यथा इच्छसि तथा कुरु।
॥
So have I expounded to thee a knowledge more secret than that which is hidden; having reflected on it fully, do as thou wouldest.
भाग चार दो
1. ध्यायतो विषयान्पुंस: सङ्गस्तेषूपजायते |
सङ्गात्सञ्जायते काम: कामात्क्रोधोऽभिजायते || 62||२//
dhyāyato viṣhayān puṁsaḥ saṅgas teṣhūpajāyate
saṅgāt sañjāyate kāmaḥ kāmāt krodho ’bhijāyate,
dhyāyataḥ—contemplating; viṣhayān—sense objects; puṁsaḥ—of a person; saṅgaḥ—attachment; teṣhu—to them (sense objects); upajāyate—arises; saṅgāt—from attachment; sañjāyate—develops; kāmaḥ—desire; kāmāt—from desire; krodhaḥ—anger; abhijāyate—arises
ध्यायत : विषयां पुंस: संग : तेषु उपजायते ।
संगात सज्जायते काम :काम : कामात क्रोध : अभिजायते ॥
गीता 2.62
2. क्रोधात भवति सम्मोह :
सम्मोहात स्मृति विभ्रम :
स्मृति - भ्रंशात बुद्धि - नाश :
बुद्धि - नाशात प्रणश्यति ॥
गीता 2.63
2.63 Anger induces delusion; delusion, loss of memory; through loss of memory, reason is shattered; and loss of reason leads to destruction.
भाग पांच, 3
महाभारत सीरियल के दो एवं अन्तिमन श्लोक जो अधिकांश लोग जानते हैं
16. यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥४-७॥
2. परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥४-८॥
3. यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।18.78।
। --,यत्र यस्मिन् पक्षे योगेश्वरः सर्वयोगानाम् ईश्वरः? तत्प्रभवत्वात् सर्वयोगबीजस्य? कृष्णः? यत्र पार्थः यस्मिन् पक्षे धनुर्धरः गाण्डीवधन्वा? तत्र श्रीः तस्मिन् पाण्डवानां पक्षे श्रीः विजयः? तत्रैव भूतिः श्रियो विशेषः विस्तारः भूतिः? ध्रुवा अव्यभिचारिणी नीतिः नयः? इत्येवं मतिः मम
This verse is called the Ekasloki Gita? i.e.? Bhagavad Gita in one verse. Repetition of even this one verse bestows the benefits of reading the whole of the scripture.Wherever is Krishna, the Lord of Yoga; wherever is Arjuna, the wielder of the bow; there are prosperity, victory, happiness and firm policy; such is my conviction.
तत्र श्री, विजयो, विभूति तथा अचल (ध्रुवो नीति) नीति चार बातें कह दी। यह था निष्पक्ष एग्जिट पोल एनालिसिस।
बहुत कहनेसे क्या, समस्त योग और उनके बीज उन्हींसे उत्पन्न हुए हैं? अतः भगवान् योगेश्वर हैं। जिस पक्षमें ( वे ) सब योगोंके ईश्वर श्रीकृष्ण हैं तथा जिस पक्षमें गाण्डीव धनुर्धारी पृथापुत्र अर्जुन है? उस पाण्डवोंके पक्षमें ही श्री? उसीमें विजय? उसीमें विभूति ( विलक्षण शक्ति, अर्थात् लक्ष्मीका विशेष विस्तार और वहीं अचल नीति है -- ऐसा मेरा मत है।
(सात सौ एक श्लोकों वाली श्रीमद्भगवद्गीता का यह अन्तिम श्लोक है। अधिकांश व्याख्याकारों ने इस श्लोक पर पर्याप्त विचार नहीं किया है और इसकी उपयुक्त व्याख्या भी नहीं की है। प्रथम दृष्टि में इसका शाब्दिक अर्थ किसी भी बुद्धिमान पुरुष को प्राय निष्प्राण और शुष्क प्रतीत होगा। आखिर इस श्लोक में संजय केवल अपने विश्वास और व्यक्तिगत मत को ही तो प्रदर्शित कर रहा है? )
कर्म सिद्धान्त
भाग 6 में श्रेष्ठ कार्यकर्त 4 श्लोक
1. मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित: |
सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते || 26||
mukta-saṅgo ‘nahaṁ-vādī dhṛity-utsāha-samanvitaḥ
siddhy-asiddhyor nirvikāraḥ kartā sāttvika uchyate
2,.- कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥
(द्वितीय अध्याय, श्लोक 47)
अर्थ: कर्म पर ही तुम्हारा अधिकार है, कर्म के फलों में कभी नहीं... इसलिए कर्म को फल के लिए मत करो। कर्तव्य-कर्म करने में ही तेरा अधिकार है फलों में कभी नहीं। अतः तू कर्मफल का हेतु भी मत बन और तेरी अकर्मण्यता में भी आसक्ति न हो।
21.
अर्थ: यदि तुम (अर्जुन) युद्ध में वीरगति को प्राप्त होते हो तो तुम्हें स्वर्ग मिलेगा और यदि विजयी होते हो तो धरती का सुख पा जाओगे... इसलिए उठो, हे कौन्तेय (अर्जुन), और निश्चय करके युद्ध करो।
3. यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्त।।3.21।।
यद्यत् आचरति श्रेष्ठः तत्तदेव इतरः जनः
स यत् प्रमाणं कुरुते लोकः तत् अनुवर्तते
यद्यत् कर्म आचरति करोति श्रेष्ठः प्रधानः तत्तदेव कर्म आचरति इतरः अन्यः जनः तदनुगतः। किञ्च सः श्रेष्ठः यत् प्रमाणं कुरुते लौकिकं वैदिकं वा लोकः तत् अनुवर्तते तदेव प्रमाणीकरोति इत्यर्थः।।यदि अत्र ते लोकसंग्रहकर्तव्यतायां विप्रतिपत्तिः तर्हि मां किं न पश्यसि
अ।र्थ: श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण यानी जो-जो काम करते हैं, दूसरे मनुष्य (आम इंसान) भी वैसा ही आचरण, वैसा ही काम करते हैं। श्रेष्ठ पुरुष जो प्रमाण या उदाहरण प्रस्तुत करते हैं, समस्त मानव-समुदाय उसी का अनुसरण करने लग जाते हैं।3.21 यद्यत् whatsoever, आचरति does, श्रेष्ठः the best, तत्तत् that, एव only, इतरः the other, जनः people, सः he (that great man), यत् what, प्रमाणम् standard (authority, demonstration), कुरुते does, लोकः the world (people), तत् that, अनुवर्तते
4. श्रद्धावान्ल्लभते ज्ञानं तत्पर: संयतेन्द्रिय:।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥(4/ 39)
श्रद्धावान् लभते ज्ञानम तत्परः संयतेन्द्रियः
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिम् अचिरेण अधिगच्छति।śhraddhā-vān—a faithful person; labhate—achieves; jñānam—divine knowledge; tat-paraḥ—devoted (to that); sanyata—controlled; indriyaḥ—senses; jñānam—transcendental knowledge; labdhvā—having achieved; parām—supreme; śhāntim—peace; achireṇa—without delay; adhigachchhati—attainsअर्थ: श्रद्धा रखने वाले मनुष्य, अपनी इन्द्रियों पर संयम रखने वाले मनुष्य, साधन पारायण हो अपनी तत्परता से ज्ञान प्राप्त करते हैं, फिर ज्ञान मिल जाने पर जल्द ही परम-शान्ति को प्राप्त होते हैं।
सभी धर्मों को त्याग कर...
5.; सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:॥(18अध्याय, श्लोक 66)
सर्वधर्मान् सर्वधर्माः तान् परित्यज्य माम्एबकं शरणंव्रज? ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यः मोक्षयिष्यामिमा शुचः ।
अर्थ: (हे अर्जुन) सभी धर्मों को त्याग कर अर्थात हर सर्वधर्मान् = सर्व धर्मो को अर्थात् संपूर्ण कर्मोंके आश्रय को ; परित्यज्य = त्यागकर ; एकम् = केवल एक ; माम् = मुझ सच्चिदानन्दघन वासुदेव परमात्मा की ही ; शरणम् = अनन्य शरणको ; व्रज = प्राप्त हो ; अहम् = मैं ; त्वा = तेरे को ; सर्वपापेभ्य: = संपूर्ण पापों से ; मोक्षयिष्यामि = मुक्त कर दूंगा ; मा शुच: = तूं शोक मत कर को त्याग कर केवल मेरी शरण में आओ, मैं (श्रीकृष्ण) तुम्हें सभी. No
भाग सात ओपेन्ह्यमेर के गयो श्लोक
25. दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता |
यदि भा: सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मन: ॥12॥ 11 अध्याय
(दिवि) आकाशमें (सूर्यसहस्त्रास्य) हजार सूर्योंके (युगपत्) एक साथ (उत्थिता) उदय होनेसे उत्पन्न जो (भाः) प्रकाश (भवेत्) हो (सा) वह भी (तस्य) उस (महात्मनः) परमात्माके (भासः) प्रकाशके (सदृशी) सदृश (यदि) कदाचित् ही (स्यात्) हो।
फ़लक में निकल आएं सूरज हज़ार,
बा यक वक्त मिलकर हों सब नूरबार,
तो धुंधली सी समझों तुम उसकी मिसाल,
महा आत्मा का था इतना ज़लाल।
26. श्री भगवानुवाच
कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो
लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः।
ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे
येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः।।11.32।।
सन्धि विग्रहः
कालः अस्मि लोक-क्षय-कृत् प्रवृद्धः लोकान् समाहर्तुम् इह प्रवृत्तः ।
ऋते अपि त्वाम् न भविष्यन्ति सर्वे ये अवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः ॥ ११-३२॥
11 अध्याय.32
कालः time? अस्मि (I) am? लोकक्षयकृत् worlddestroying? प्रवृद्धः fullgrown? लोकान् the worlds? समाहर्तुम् to destroy? इह here? प्रवृत्तः engaged? ऋते without? अपि also? त्वाम् thee? न not? भविष्यन्ति shall live? सर्वे all? ये these? अवस्थिताः arrayed? प्रत्यनीकेषु in hostile armies योधाः warriors.
On 16th July, 1945, in a desert in Alamogordo in the state of New Mexico, USA. the first atomic explosion in the world took place at 5.45am which changed the world. The Director of the Manhattan Project, which manufactured the atomic bomb, was Dr Julius Robert Oppenheimer, (1904 -1967)one of the top physicists in the world, who is also regarded as “the father of the atomic bomb”
Dr Oppenheimer, apart from being a great scientist, was also a great lover of Sanskrit. He had studied a vast number of Sanskrit books in original, including the Bhagavad Gita (which is part of the Bhishma Parva of the Mahabharata).
When the massive nuclear blast whose blazing light covered most of the sky took place, the following words in Chapter 11 shloka 12 came out spontaneously from Dr Oppenheimer’s lips:
” Divi surya sahastrasya bhaved yugapad utthita
Yadi bhah sadrashi sa syat bhasastasya mahatmanah”
“If the radiance of a thousand suns were to burst at once in the sky, that would be the splendour of the mighty One”.
That shloka is in the Chapter where Lord Krishna reveals his massive divine form to Arjuna.
Much later, in a television interview in 1965, Dr Oppenheimer said: “We knew the world would not be the same. A few people laughed (immediately after the nuclear explosion), a few people cried. Most people were silent. I remembered the line from the Hindu scripture, the Bhagavad Gita. Vishnu is trying to persuade the Prince (Arjuna) that he should do his duty, and to impress him takes on his multi-armed form, an।d says: “Now I am become Death, the Destroyer of Worlds”.