Tuesday, June 23, 2020

Was statue of Patel built in China


Statue of Unity.
Statue of Unity. (PMO India/Twitter)
Politics

Was The Statue Of Unity Really Made In China? Here Are The Facts

Only 9 per cent of the total value of the project was sourced from China and that too only after all domestic options were found unable to deliver.

India is now home to the world’s tallest statue, a tribute to one of its tallest leaders. But was the statue even made in India? If critics of the project are to be believed, it was shipped out of China in 2018. And it doesn’t end here. To some, it is also unclear whether the structure was built by Indian or Chinese workers.

These questions were raised for the first time in 2015, when work on the project began. And despite engineering major Larsen & Toubro (L&T), the firm executing the project, clarifying on multiple occasions, Congress President Rahul Gandhi claimed last month that the statue was being built in China.

“Narendra Modi Ji is making Sardar Patel's statue in Gujarat. It will be world's tallest statue but it will be 'Made In China', like our shoes and shirts,” said Gandhi, who some suggest is trying to bluff his way into power.

The same questions have come up on the day when the statue was unveiled by Prime Minister Narendra Modi. So, let’s revise the facts:

One, the Statue of Unity is a three-layered structure. The innermost layer has two 127-metre-high towers made of reinforced cement concrete. A steel mesh forms the second layer of the structure. The third and the outermost layer is in form of bronze cladding, which carry intricate details Patel’s cloths, posture and facial expressions. It is this layer of the statue which was built in China.

In a survey before the construction of the statue started, the builders found that none of the 15 major bronze foundries in India were capable of building these cladding. It was after this finding that L&T launched a global tender to select a partner to build the cladding. The search ended at the World's largest foundry — the China-based Jiangxi Toqine Metal Crafts Corporation. The firm was tasked with the production of around 7,000 bronze plates and panels of various sizes.

According to L&T, this work made up only 9 per cent of the total value of the project. "The entire statue itself is being built in India at the site and only the bronze cladding in the form of bronze plates is being sourced from China, which constitutes a negligible amount of less than 9 per cent of the total value of project," it said in 2015.

Moreover, the Chinese were not roped in before exploring Indian options. The incapability of Indian foundries in casting such huge cladding speaks more about the work of previous governments than that of Narendra Modi, who had been in power for a little over one year when the construction began.

Also, India, unlike China and and other communist countries in general (North Korea's 'biggest' export - giant statues), India has not built such massive statues in the past. Therefore, the lack of industrial capacity should not be surprising.

Some have also pointed to Modi’s call of collecting scrap iron for the statue from across the country to represent the unified India that Patel worked for. However, it would be naive to believe that a statue, the construction of which involved the use of 210,000 cubic metres of cement concrete, 18,500 tonnes of reinforced steel, 6,500 tonnes of structural steel, 1,700 tonnes of bronze, could be built using material collected from farmers across the country. But Modi did act on his own call and on the death anniversary of Patel in 2013, he flagged off 1,000 trucks to travel to seven lakh villages to collect soil and scrap iron. Around 135 metric tonnes of iron was collected by these trucks in various forms by 2016.

Two, out of 4,076 labours working at the site of the statue in two shifts, only 200 were from China. These labours, “who have been working in batches for two-three months each since September 2017”, were part of a team of around thousand men who worked on the cladding of the statue. This works to be around 5 per cent of the total workforce involved in erecting the Statue Unity.

So, if over 90 per cent of the statue was built in India and more than 95 per cent of the workforce was Indian, suggesting that the statue was built and shipped out of China would be exaggerating a tad too much. At the same time, there is no doubt that the Statue of Unity has a Chinese touch.

Monday, June 22, 2020

चीन के बारे में 5 आम पूछे जाने वाले प्रश्न FAQs

आज कोरोना काल में पूरे विश्व में चीन के खिलाफ लोगों का गुस्सा ज्वार पर है। पूरी दुनिया में केवल लोग ही नहीं बल्कि वहां की सरकारें भी चीन के खिलाफ कार्रवाई कर रही हैं। 1Q. चीन के सामान का बहिष्कार उसमें पहला कदम है लेकिन यह भी सत्य है कि आत्मनिर्भरता के लिए प्रयास इसलिए भी किये रहे हैं कि हमारी निर्भरता चीन समेत अन्य देशों पर अत्यधिक बढ़ चुकी है। आज समाज में देश को आत्मनिर्भर बनाने की आकांक्षाओं के साथ ही साथ कुछ शंकाएं और प्रश्न भी विद्यमान हैं। स्वदेशी जागरण मंच जो लंबे समय से चीन के सामान के बहिष्कार का आह्वान करता रहा है के कार्यकर्ताओं का यह भी दायित्व है कि इन शंकाओं और प्रश्नों का भली-भांति निदान दें ताकि सर्व समाज चीन के खिलाफ इस लड़ाई में एकजुट होकर पूरी तन्मयता के साथ जुट जाए। 
प्रश्न 1 
चीन का सामान पहले से ही हमारे दैनंदिन आवश्यकताओं और खरीद में शामिल हो चुका है। मोबाइल फोन, इलेक्ट्रॉनिक्स और बिजली के उपकरणों, बच्चों के खिलौनों, दवाओं के लिए कच्चे माल एपीआई समेत ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं। तो क्या हम उसका पूरी तरह से चीन का बहिष्कार कर भी पाएंगे? यह सही है कि पिछले लगभग 19 सालों (2001 के बाद) से हमारा आयात चीन से बढ़ता जा रहा है। जहां 2001 में चीन से हमारा आयात मात्र .....अरब डॉलर था, 2017-18 में वह 68.16  अरब डालर तक पहुंच चुका था। कई देशों की चीन पर निर्भरता तो इतनी बढ़ गई थी कि उनके उद्योग ही नष्ट गए। लेकिन यह भी सत्य है कि हमारे उद्योग चाहे काफी हद तक प्रभावित हुए लेकिन मुश्किलों और असमान प्रतिस्पर्धा के बावजूद हमारे छोटे और बड़े उद्योग डटे रहे। केमिकल, स्टील और अन्य धातु उद्योग, साइकिल, वस्त्र उद्योग, ग्लास उद्योग इत्यादि ऐसे कई उदाहरण हैं।कुछ साल पहले तक सरकारी नीति की भी बेरुखी रही, जिसके चलते चीन से आयात बढ़ता रहा।लेकिन 2017-18 के बाद परिस्थिति थोड़ी बदली है और चीन से आयात घटने शुरू हुए हैं, और देश के उद्योगों को पुनर्जीवन भी मिलना शुरू हुआ है। ग़ौरतलब है कि चीन से हमारा आयात 2017 18 में जो 63 अरब डॉलर था, 2018-19 में 53.6 अरब डॉलर और 2019-20 में 48.6 अरब डॉलर तक पहुंच गया। ऐसा चीन से असमान प्रतिस्पर्धा को रोकने हेतु एंटी डंपिंग ड्यूटी लगाने, मानकों को स्थापित करने और आयात शुल्क में वृद्धि करने आदि के कारण संभव हुआ।

प्रश्न 2
चीन से आने वाले आयातों को सरकार क्यों नहीं रोकती? यदि सरकार ही चीन के सामान पर रोक लगा दे, तो बाजार में चीनी सामान बिकेगा ही नहीं?

डब्ल्यूटीओ जैसी अंतरराष्ट्रीय व्यापार संधियों के कारण किसी भी देश में आने वाले आयातों को पूरी तरह से प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता। सरकार चाहे तो उस पर कुछ अंकुश जरूर लगा सकती है लेकिन यह भी सही है कि सरकारें तो अंतरराष्ट्रीय व्यापार संधियों से बंधी हुई होती हैं, लेकिन जनता तो नहीं। ऐसे में यदि किसी देश के सामान का इस्तेमाल देश हित में नहीं; जैसे कि चीन, तो उसका बहिष्कार कर उनके आयातों को रोका जा सकता है। यह भी सही है कि जनता द्वारा बहिष्कार के कारण सरकारों पर भी दबाव बनता है कि वह इस प्रकार के आयातों पर अंकुश लगाएं। सरकार घटिया सामानों पर मानक लगाकर, सस्ते दामों पर माल की डंपिंग होने पर एंटी डंपिंग ड्यूटी लगाकर और सामान्य तौर पर आयात शुल्क बढ़ाकर विदेशों से आयातों पर अंकुश लगा सकती है।
प्रश्न 3
यदि हम चाहें कि चीन के सामान का बहिष्कार करें तो यह पहचान कैसे हो कि कौन सा सामान भारतीय है और कौन सा चाइनीस? 

चीन यह समझते हुए कि भारत में चीनी सामान का बहिष्कार हो रहा है इसलिए वो कई बार सामानों को छद्म नामों से भेजता है। जैसे पहले वे ‘मेड इन चाइना’ के नाम से भेजते थे; अब वे मेड इन ‘पीआरसी’ के नाम से भेजते हैं चीन से सीधे आने वाले सामानों पर 690-699 से प्रारंभ होने वाला बार कोड लगा होता है जिससे उनकी पहचान हो सकती है। इसके साथ ही साथ हम भारत में बनने वाले चीनी ब्रांडो के बारे में Swadeshionline.in और joinswadeshi.com की वेबसाइट से जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। चीन के बहिष्कार का एक आयाम चीन की सोशल मीडिया और ई-कॉमर्स एप्स का बहिष्कार भी है। बड़ी संख्या में लोग चीनी एप्स को अपने मोबाइल फोन से हटाकर चीन को सीधे संदेश दे रहे हैं टिक-टॉक जैसी एप्स को प्रतिबंधित करने हेतु स्वदेशी जागरण मंच लंबे समय से आंदोलन कर रहा है।

प्रश्न4
कुछ लोगों का यह भी कहना है कि कोरोना काल में पीपीपी किट्स, टेस्टिंग किट्स और स्वास्थ्य संबंधी उपकरणों की जरूरत और उसकी उत्पादन क्षमता देश में न होने के कारण चीन से इन वस्तुओं के आयात बढ़ गए हैं। वास्तव में कोरोना ने चीन पर निर्भरता घटाने की बजाय बढ़ा तो नहीं दी है?

यह सही है कि प्रारंभ में ऐसा लगा कि डॉक्टरों की रक्षा हेतु पीपीई पर्याप्त टेस्टिंग के लिए टेस्ट किट्स और जीवन रक्षण हेतु वेंटिलेटर हमें चीन से ही लाने पड़ेंगे। कुछ हद तक चीन को ऑर्डर भी दिए गए। लेकिन बाद में ध्यान में आया कि चीन ने जो पीपीई  किट्स भेजे वे घटिया और अनुपयोगी थे। जो टेस्ट  किट्स भेजे वे नकली निकले। वेंटीलेटर्स के संबंध में तो पहली बार सरकार के ध्यान में आया कि देश में पर्याप्त वेंटीलेटर्स बनते हैं, लेकिन अफसरशाही के तौर-तरीकों के चलते हम वेंटीलेटर विदेशों से आयात करते रहे, जबकि भारतीय कंपनियां वेंटीलेटर बना कर विदेशों में निर्यात कर रही थी। इन सब घटनाक्रमों के बीच सभी उपकरण पीपीई किट्स, टेस्टिंग किट्स का भारत में पर्याप्त उत्पादन शुरू हो गया और भारत ने दो ही माह में 50000 वेंटिलेटर बना दिए यानि हम कह सकते हैं कि चीन पर हमारी निर्भरता इन वस्तुओं के लिए लगभग समाप्त हो चुकी है। शेष उत्पादों जैसे एपीआई (एक्टिव फार्मास्यूटिकल इनग्रेडिएंट्स), इलेक्ट्रॉनिक्स के सामान आदि के लिए प्रयास शुरू हो चुके हैं। शीघ्र ही हम चीन से इन वस्तुओं के आयात से मुक्ति की घोषणा कर पाएंगे।
प्रश्न 5
चीन के कुल निर्यात 2498 अरब डॉलर(2019 में) के हैं, जबकि भारत में उनके निर्यात मात्र 68.16 अरब डॉलर ही हैं, यानि मात्र 2.7 प्रतिशत। ऐसे में हम बहिष्कार से चीन को कोई सजा कैसे दे पाएंगे?  

यह सही है कि पूरे विश्व की यह आकांक्षा है कि दुनिया को महामारी में धकेलने और विशेष तौर पर दुनिया को इस महामारी से अनभिज्ञ रखने के लिए चीन को सजा मिलनी ही चाहिए। भारत में भी यह स्वभाविक आकांक्षा बार-बार दोहराई जा रही है। लेकिन चीन को सजा देने से कहीं ज्यादा यह भी जरूरी है कि हम अपने ध्वस्त हुए उद्योगों को पुनर्जीवित करें। मैन्युफैक्चरिंग उत्पाद जो अभी जीडीपी का मात्र 15% ही हैं, में वृद्धि करें। अपने देश में रोजगार बढ़े। इसलिए चीन के बहिष्कार के पीछे चीन को सजा देने से ज्यादा अपनी आर्थिक स्थिति को मजबूत करना है। चीन को सजा देना उसका मुख्य उद्देश्य नहीं है। स्वदेशी जागरण मंच ने जब चीन के बहिष्कार का आवाहन दिया था तो भी चीन के आतंकवादियों को समर्थन देने, सीमा विवादों से भारत को परेशान करना भी एक बड़ा कारण था, लेकिन अपने उद्योगों का संरक्षण और संवर्धन उस का मुख्य उद्देश्य था। 

जहां तक चीन को सजा मिलने का प्रश्न है, उसके कुकृत्य और पूरे विश्व में उसके खिलाफ गुस्से के कारण उसे सजा मिलने ही वाली है। जो लोग कहते हैं कि हमारे आयात उनके निर्यातों के मात्र 2.7 प्रतिशत ही हैं, वे शायद भूल जाते हैं कि चीन से 
हमारा व्यापार घाटा (2019 
में) 50 अरब डॉलर का है जो उनके व्यापार अतिरेक (430 अरब डॉलर) का 11.6 प्रतिशत है। यही नहीं  2019 में अमेरिका का चीन के साथ व्यापार घाटा 360 अरब डॉलर का रहा जो चीन के कुल व्यापार अतिरेक 430 अरब डॉलर के 85 प्रतिशत के बराबर है। समझ सकते हैं कि भारत और अमेरिका ही नहीं कई अन्य देशों में जनाक्रोश के चलते चीन दुनिया के गुस्से से अप्रभावित नहीं रहेगा और दुनिया की फैक्ट्री कहलाने वाले चीन को भारी आर्थिक नुकसान उठाना  पड़ेगा।

Saturday, June 20, 2020

चीन का 23 देशों से सीमा विवाद


भारत ही नहीं 23 देशों की जमीन पर हक जता रहा चीन, ड्रैगन का 43% हिस्सा अवैध कब्जा

Sudhir Jha | हिन्दुस्तान टीम,नई दिल्ली, 20 Jun 2020 04:04 PM


चीन ने जिस तरह अक्साई चिन को हड़पा और अब पूर्वी लद्दाख में गलवान घाटी पर अपना कब्जा जमाने की नापाक कोशिश कर रहा है वह उसके लिए नया नहीं है। केवल भारत ही नहीं वह करीब दो दर्जन देशों की जमीनों पर कब्जा करना चाहता है। चीन की सीमा भले ही 14 देशों से लगती हो, लेकिन वह कम से 23 देशों की जमीन या समुद्री सीमाओं पर दावा जताता है। ला ट्रोबे यूनिवर्सिटी की एशिया सुरक्षा रिपोर्ट ने यह खुलासा किया है।  

चीन अब तक दूसरे देशों की 41 लाख वर्ग किलोमीटर भूमि कब्जे में ले चुका है यह मौजूदा चीन का 43% हिस्सा है। यानी ड्रैगन ने अपनी विस्तारवादी नीति से पिछले 6-7 दशकों में अपने साइज को लगभग दोगुना कर लिया है और उसका लालच अभी खत्म नहीं हुआ है।

चीन ने 1949 में कम्युनिस्ट शासन की स्थापना के बाद से जमीन हथियाने की नीति शुरू कर दी थी। राष्ट्रपति शी जिनपिंग के 2013 में सत्ता में आने के बाद से चीन भारत से लगी सीमा पर मोर्चेबंदी तेज की। लेकिन उसे पहली बार इतनी कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। आइए उसके कुछ अवैध कब्जों पर नजर डालें। 


1.ईस्ट तुर्किस्तान
16.55 लाख वर्ग किमी का भूभाग। 1934 में पहले हमले के बाद 1949 तक चीन ने ईस्ट तुर्किस्तान पर कब्जा कर लिया। 45% आबादी वाले उइघुर मुस्लिमों के इस इलाके पर चीन जुल्म ढा रहा है। 

2. तिब्बत
12.3 लाख वर्ग किमी वाले इस सुंदर प्राकृतिक देश पर चीन ने 07अक्टूबर 1950 को कब्जा कर लिया। 80% बौद्ध आबादी वाले तिब्बत पर हमला कर उसने अपनी सीमा का विस्तार भारत तक कर लिया। इसके अलावा उसे यहां अपार खनिज, सिंधु, ब्रह्मपुत्र,मीकांग जैसी नदियों का स्रोत मिल गया। 

3. इनर मंगोलिया
11.83 लाख वर्ग किमी  भूभाग वाले इन मंगोलिया पर चीन ने अक्टूबर 1945 में हमला कर दिया और जमा लिया। 13 फीसदी आबादी वाले मंगोलों की आजादी की मांग को बुरी तरह कुचला डाला। यहां दुनिया का 25 फीसदी कोयला भंडार है। यहां की आबादी 3 करोड़ है।  

4. ताइवान
35 हजार वर्ग किमी वाले समुद्रों से चारों ओर से घिरे ताइवान पर लंबे समय से चीन की नजर है। 1949 में कम्युनिस्टों की जीत के बाद राष्ट्रवादियों ने ताइवान में शरण ली। चीन अपना हिस्सा मानता है, लेकिन ताइवान डटकर उसके सामने खड़ा है। ताइवान को अमेरिकी समर्थन प्राप्त है और इसलिए चीन चाहकर भी उस पर हमला नहीं कर पा रहा है। 

5. हांगकांग
चीन ने 1997 में हांगकांग पर जबरन कब्जा कर लिया। इन दिनों वह  राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लागू कर हांगकांग पर शिकंजा कसने की फिराक में है। 50.5 फीसदी चीन का विदेशी निवेश और व्यापार हांगकांग के जरिये ही आता है।

6. मकाउ
450 वर्ष के शासन के बाद 1999 में पुर्तगालियों ने चीन को मकाउ सौंप दिया। 

7. भारत
चीन ने भारत के 38 हजार वर्ग किमी पर कब्जा कर रखा है। 14,380 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र अक्साई चिन का इसमें शामिल है। 5180 वर्ग किमी इलाका पीओके का पाक ने चीन को दिया।

8. पूर्वी चीन सागर
जापान से जद्दोजहद। 81 हजार वर्ग किमी के आठ द्वीपों पर चीन की नजर है। 2013 में चीन के वायु सीमा जोन बनाने से विवाद बढ़ गया था।

9. रूस से भी सीमा विवाद
रूस से 52 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर चीन का विवाद। 1969 में चीन की हमले की कोशिश, रूस से मुंह की खाई।

10. दक्षिण चीन सागर
इस क्षेत्र में 7 देशों से हड़पने की कोशिशताइवान, ब्रूनेई, इंडोनेशिया, मलेशिया, फिलीपींस, वियतनाम, सिंगापुर से तनाव है। 35.5 लाख वर्ग किलोमीटर में फैले दक्षिणी चीन सागर 90% क्षेत्र पर दावा करता है। चीन ने पारसले, स्पार्टले द्वीपों पर कब्जा जमाकर सैन्य अड्डे बनाए। यहां से 33% यानी 3.37 लाख करोड़ का सालाना वैश्विक कारोबार  77 अरब डॉलर का तेल, 266 लाख करोड़ क्यूबिक फीट गैस भंडार है।


चीन की मुश्किल
चीन ने माना है कि आर्थिक गलियारा संकट में है। 40 फीसदी परियोजनाओं पर बुरा प्रभाव पड़ा है। 20 फीसदी प्रोजेक्ट बंद होने की कगार पर  हैं। 3.7 लाख करोड़ के गलियारे से 100 देश जुड़े थे।

भारत-चीन विवाद क्या है?

लद्दाख प्रान्त की गलवान घाटी में क्या हो रहा है ?  - डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

पिछले कुछ दिनों से लद्दाख की गलवान घाटी में भारत और चीन की सेना आमने सामने है । 15 जून को दोनों सेनाओं की आपस में भिड़न्त भी हो गई थी जिसमें भारत के बीस सैनिक शहीद हो गए थे, जिनमें वहाँ के कमांडिंग आफिसर संतोष बाबू भी थे । ऐसा कहा जा रहा है कि चीनी सेना की इससे कहीं ज़्यादा क्षति हुई है । इस घटना को 1962 में हुए भारत चीन युद्ध की निरंतरता में ही समझना चाहिए । इस विवाद की पृष्ठभूमि को जानना बहुत जरुरी है । 1914 में भारत और तिब्बत के बीच शिमला में एक संधि हुई थी । इस संधि में दोनों देशों ने आपसी सहमति से अपनी सीमा रेखा निर्धारित की थी । उस समय भारत ब्रिटिश सरकार के अधीन था और तिब्बत स्वतंत्र देश था । भारत की ब्रिटिश सरकार  की ओर से इस शिमला वार्ता में हेनरी मैकमहोन शामिल थे । इसलिए भारत-तिब्बत सीमा रेखा को ही मैकमहोन लाईन कहा जाने लगा । दरअसल शिमला में यह वार्ता त्रिपक्षीय थी । इसमें चीन भी शामिल था । क्योंकि मंशा यह थी कि तिब्बत और चीन की सीमा रेखा भी निर्धारित हो सके ताकि चीन और तिब्बत का तनाव भी समाप्त हो सके । चीन को मांचू शासकों की ग़ुलामी  से आज़ाद हुए अभी दो साल ही हुए थे । यह अलग बात है कि नए हान शासकों ने मंचूरिया के मांचुओं से आज़ाद होने के बाद मंचूरिया पर भी क़ब्ज़ा कर लिया था । नए चीनी शासकों की ओर से शिमला वार्ता में ईवान चेन को भेजा गया । इवान चेन तो तिब्बत - चीन की सीमा रेखा पर सहमत हो गए थे लेकिन जब उन्होंने यह सहमति रेटिफिकेशन के लिए चीन सरकार को भेजी तो उसने इसे अस्वीकार कर दिया । चीन के निकल जाने से शिमला की त्रिपक्षीय वार्ता द्विपक्षीय रह गई और भारत- तिब्बत में सीमा रेखा को लेकर समझौता हो गया जिसे उस समय की तिब्बत सरकार ने स्वीकार कर लिया । 
                      1947 में अंग्रेज हिन्दुस्तान से रुखसत हो गए और उधर चीन के भीतर कम्युनिस्टों ने माओ के नेतृत्व में वहाँ  की च्यांग काई शेक की सरकार के ख़िलाफ़ गृहयुद्ध छेड़ रखा था । 1949 में इस गृहयुद्ध में चीन के बहुत बड़े भूभाग पर कम्युनिस्टों का कब्जा हो गया । च्यांग काई सरकार का शासन केवल ताईवान में सीमित हो गया । माओ ने अपने कब्जे वाले हिस्से का नाम पीपुल्ज रिपब्लिक आफ चायना रखा । लेकिन माओ के चीन ने 1950 में तिब्बत पर आक्रमण कर दिया । तिब्बत ने भारत सरकार से सहायता की प्रार्थना की लेकिन भारत ने सहायता नहीं की । नेहरु को लगता था कि चीन से दोस्ती करना भारत के हित में होगा । लेकिन सरदार पटेल ऐसा नहीं मानते थे । उनको लगता था चीन , तिब्बत पर क़ब्ज़ा करने के बाद भारत पर आँख गढ़ा देगा । परन्तु नेहरु अपने आपको अन्तर्राष्ट्रीय मामलों का विशेषज्ञ मानते थे । अन्तत: वही हुआ जिसका सरदार पटेल को ख़तरा था । तिब्बत पर क़ब्ज़े के बाद भारत-तिब्बत सीमा भारत-चीन सेना बन गई थी । लेकिन अब पटेल मौजूद नहीं थे । चीन ने भारत-तिब्बत के बीच 3488 किलोमीटर की सीमा रेखा मैकमहोन लाईन को मानने से इन्कार कर दिया और अरुणाचल प्रदेश व लद्दाख के बहुत से हिस्से पर अपना दावा ठोकना शुरु कर दिया । अब नेहरु भला चीन की यह माँग कैसे स्वीकार कर सकते थे ? देश का दुर्भाग्य था कि नेहरु 1947 से लेकर 1962 तक देश व सेना को ीन के ख़िलाफ़ तैयार करने की बजाए , हिन्दी चीनी भाई भाई के भ्रम जाल में फँसाते रहे । चीन ने 1962 में उन क्षेत्रों क़ब्ज़ा करने के लिए , जिन्हें वह अपना बता रहा था , भारत पर हमला कर दिया । उस इतिहास को दोहराने की जरुरत नहीं है । चीन लद्दाख व अरुणाचल प्रदेश में काफ़ी भीतर तक घुस आया था । उसने स्वयं ही युद्ध विराम की घोषणा कर दी । इतना ही नहीं , वह जीते हुए क्षेत्र खाली कर पीछे भी हट गया । यह सब दुनिया की वाहवाही बटोरने के लिए था । यदि वह भारतीय क्षेत्रों सौ किलोमीटर अन्दर घुसा तो अस्सी किलोमीटर पीछे हट गया और बीस किलोमीटर पर क़ब्ज़ा जमाए रखा । इस प्रकार उसने  पूरी भारत तिब्बत सीमा के स्थान पर एक नई सीमा रेखा बना दी जिसे आजकल लाईन आफ एक्चुअल कंट्रोल या वास्तविक नियंत्रण रेखा कहा जाता है । चीन का कहना है कि अब भारत चीन अपनी सीमा का निर्धारण आपसी बातचीत से करेंगे ।बात चीत कैसे होगी विवाद के मामले में उसे कैसे सुलझाया जाएगा , इसको लेकर दोनों पक्षों कई समझौते हो चुके हैं । उन्हीं में से एक समझौता है कि दोनों पक्षों में कोई भी गोली नहीं चलाएगा । लेकिन चीन ने 1962 के बाद अपना सारा ध्यान भारतीय  सीमा के साथ तिब्बत में सैनिक दृष्टि से अपनी आधार भूत संरचना को मज़बूत करने में लगा दिया ।क्योंकि वह निश्चिंत था कि सीमा पर भारत की ओर से फ़िलहाल कोई ख़तरा नहीं है । सीमा पर इस प्रकार की शान्ति के बीच चीन ने अपनी सामरिक स्थिति काफ़ी मज़बूत कर ली । बीच बीच में वह एलएसी को भेदकर भारतीय सीमा में घुस आता था । बातचीत के बाद कभी पीछे हट जाता था और कभी वहाँ बैठ जाता था । लेकिन हम इसी से प्रसन्न थे कि सीमा पर एक भी गोली नहीं चली और मामला शान्ति से निपट जाता है । बाक़ी यहाँ तक चीन द्वारा भारतीय भूमि पर क़ब्ज़ा करते रहने की बात थी , उसके बारे में नेहरु बता ही गए थे कि वहाँ घास का तिनका तक नहीं उगता । 
              लेकिन अब गालवान घाटी में भारत सरकार ने उस ज़मीन की रक्षा करने का निर्णय भी ले लिया है , जिस पर घास का तिनका तक नहीं उगता ।इसलिए 1967 की नाथुला घटना के बाद चीन के लिए भी यह नया अनुभव है और भारत में उन लोगों के लिए भी जो बार बार चिल्ला रहे हैं कि गलवान में क्या हो रहा है ? लेकिन भारत की सेना अच्छी तरह जानती है कि गलवान में क्या हो रहा है और भारत के लोग भी अच्छी तरह जानते हैं कि गलवान में क्या हो रहा है । अब तक तो चीन भी समझ गया है कि गलवान में क्या हो रहा है । अलबत्ता कांग्रेस की इतालवी लाबी और कम्युनिस्टों को यह सब समझने में समय जरुर लगेगा ।

Thursday, June 18, 2020

सुशांत राजपूत के बहाने कहा चेतन भगत ने

सभी प्रोफेशनल्स को चार बार पढना चाहिए चेतन भगत का यह लेख. मामला सिर्फ बाॅलीवुड का नहीं है, हर इंडस्ट्री के अंदरूनी हालात एक जैसे ही हैं. सारे अंडे एक ही टोकरी में नहीं रखने की बेहतरीन सलाह.

मगरमच्छों के साथ बॉलीवुड के तालाब में रहने के तरीके
चेतन भगत
एक सफल और युवा फिल्म सितारे सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया है। सोशल मीडिया, टीवी चैनल, वाट्सएप विभिन्न अनुमानों भरे पड़े हैं। तथ्य यह है कि हम नहीं जानते क्या हुआ। ऐसी स्थिति में किसी पर आरोप लगाना या अनुमान लगाना समझदारी नहीं है। हालांकि, इस घटना से बॉलीवुड की संस्कृति पर और मानसिक सेहत पर इसके असर को लेकर बहस शुरू हो गई है। यह समस्या न सिर्फ बॉलीवुड में, बल्कि किसी भी अति-प्रतिस्पर्धी इंडस्ट्री में आ सकती है। मुझे इस शानदार लेकिन दोषपूर्ष इंडस्ट्री में 10 साल से ज्यादा का अनुभव है। यहां मैं कुछ टिप्स दे रहा हूं कि अति-प्रतिस्पर्धी यानी होड़भरे माहौल का सामना कैसे करें: 
1. बॉलीवुड में कोई सीईओ नहीं है और हर कोई यहां बने रहने के लिए संघर्ष कर रहा है। कई लोगों को लगता है कि कोई बॉलीवुड कंपनी है और इसमें काम करना यूनीलिवर में काम करने जैसा है। ऐसा नहीं है। यहां सिर्फ कुछ शक्तिशाली लोग हैं, जिनका कुछ समय के लिए बोलबाला रहता है। यह पूंजी और हुनर को साथ लाकर फिल्म प्रोजेक्ट तैयार करने की उनकी क्षमता से आता है। पिछली उपल्ब्धियां ये प्रभाव बनाती हैं। लेकिन प्रभाव अस्थिर है। हिट इसे बढ़ा देता और फ्लॉप से यह गायब हो सकता है। बने रहने के लिए जीतते रहना जरूरी है। 
2. यह मूलत: असुरक्षित पेशा है। सितारे खो जाते हैं, निर्देशकों का जादू खत्म हो जाता है, अच्छी सूरत हमेशा नहीं रहती, दर्शकों की पसंद अस्थिर है, बहुत से लोग आपकी जगह लेना चाहते हैं। 
3. असुरक्षा कम करने के लिए लोग गुट या कैंप बनाते हैं। अभिनेता, निर्देशक और निर्माता साथ आकर सुनिश्चित करते हैं कि उन्हें भविष्य में काम मिलता रहे। तथाकथित ‘पार्टियां’ कैंप के मिलने का बहाना होती हैं। वहां भी असुरक्षा की भावना है। बस वहां थोड़ा सुरक्षित महसूस होता है। यह ऐसा है, जैसे केंचुए गुच्छा बनाकर खुद को मजबूत दिखाते हैं। लोगों ने कैंप में रहकर या बाहर भी अच्छा काम किया है। यह उनकी अपनी मर्जी रही है। 
4. आप सफल हैं (हिट देते हैं), तो इंडस्ट्री इतना प्यार व खुशामद करेगी जिसकी आप कल्पना नहीं कर सकते। असफल (फ्लॉप देते हैं) हैं, तो आप अछूत हो जाएंगे। 
5. सफलता का नशा इतना ज्यादा होता है कि लोग इसकी तुलना ड्रग्स से करते हैं। हालांकि फ्लॉप और अकेलेपन का दर्द भी इतना ही ज्यादा होता है। 
6. सफलता-असफलता के ये उतार-चढ़ाव मानसिक सेहत पर बुरा असर डालते हैं। हुनर (अभिनय/लेखन/निर्देशन) के अलावा आपको बहुत सारी मानसिक ताकत की भी जरूरत है। सिक्स-पैक बॉडी के साथ सिक्स-पैक मन भी हो। अगर आप पहले ही बीमार हैं या कोई मानसिक समस्या रह चुकी है तो यह खतरनाक कॉकटेल बन सकता है।
7. एक व्यक्ति के रूप में यह इसपर निर्भर करता है कि आप खुद को कैसे देखते हैं। अगर खुदपर भरोसा है, तो आपको पार्टी में न्योतों या कुछ लोगों के लगातार कॉल्स की जरूरत नहीं है। यह भी अहसास होना चाहिए कि जीवन अन्यायपूर्ण है, लेकिन यह कभी आपके लिए अन्यायपूर्ण रूप से अच्छा हो सकता है, तो बुरा भी। बॉलीवुड के साथ भी ऐसा ही है। व्यक्ति को खुद में और अपने सफर में ही खुश रहना होता है, फिर वह कितना की शानदार या साधारण हो। 
8. आप मानसिक रूप से कितने ही मजबूत क्यों न हों, अगर बॉलीवुड के तालाब (इसपर आगे बात करूंगा) में पूरी तरह उतरते हैं तो आप जोखिम में हैं। यह काम में डूबे गैर-बॉलीवुड लोगों पर भी लागू होता है, जो अति-प्रतिस्पर्धी इंडस्ट्रीज में काम करते हैं। जीवन में विविधता लाना सीखें। आपको अपना काम पसंद होगा, लेकिन यह सुनिश्चित करें कि आपके जीवन में सिर्फ काम ही न हो। स्वास्थ्य, परिवार, शौक, पुराने दोस्त, इन सबमें शायद ग्लैमर और बॉलीवुड की खूबसूरती कम हो, हालांकि वे आपको सुकून और जिंदगी में खुशी दे सकते हैं। 
9. बॉलीवुड में कैसे रहा जाए, इसे लेकर मुझे सबसे अच्छी सलाह एआर रहमान से मिली थी, जिनसे मुझे मिलने का सौभाग्य मिला था। मैंने उनसे कहा कि बॉलीवुड मुझे डरा रहा है, तो उन्होंने कहा, ‘बॉलीवुड सुंदर तालाब जैसा है। हालांकि इसमें मगरमच्छ हैं। इसलिए एक कोने में खड़े होकर नहाना ठीक है। इसमें पूरी तरह तैरो मत। हमेशा एक पैर अंदर, एक बाहर रखो।’
मैंने फिल्म इंडस्ट्री में रहने के लिए उस्ताद की सलाह को मंत्र की तरह माना। यह आसान नहीं है। बॉलीवुड की चमक तेज लग सकती है और उसके सामने सबकुछ तुच्छ। मानसिक सेहत के कारणों से ही मैंने तय किया कि मैं सभी अंडे एक ही टोकरी में नहीं रखूंगा, चाहे टोकरी सबसे चमकदार हो। मैं दूसरे काम भी करता हूं (इसलिए आप यह कॉलम पढ़ रहे हैं) और मैं मगरमच्छों का शुक्रगुजार हूं कि वे मुझ तक नहीं पहुंचे। मैं होड़ वाले पेशों में काम कर रहे बाकी सभी को भी प्रोत्साहित करूंगा कि वे इसके कारण होने वाली मानसिक समस्याओं के प्रति जागरूक रहें। उनपर ध्यान दें और अपनी जीवन में विविधता लाएं। कोई भी ग्लैमरस पार्टी या नौकरी में सफलता आपकी अंदरुनी खुशी से बढ़कर नहीं है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

Tuesday, June 16, 2020

स्वदेशी-स्वावलम्बन की ओर भारत

पुस्तक स्वदेशी-स्वावलम्बन की ओर भारत

प्रस्तावना

स्वदेशी की भावना ही देश के आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक समुत्कर्ष का आधार व राष्ट्र भक्ति की साकार अभिव्यक्ति कही जा सकती है। आर्थिक प्रगति दृष्टि से देश में बिकने वाली वस्तुएँ व सेवाएँ पूरी तरह से देश में ही उत्पादित होने पर ही देश में रोजगार का सृजन, देशवासियों को नियमित आय की प्राप्ति और सरकार के लिए राजस्व वृद्धि सम्भव है। इसलिए, देश के आर्थिक स्वावलम्बन और समावेशी आर्थिक विकास के साथ-साथ नागारिकों के लिए अच्छा जीवन स्तर सुनिश्चित करना स्वदेशी अर्थात समाज में आर्थिक राष्ट्रनिष्ठा या आर्थिक देशप्रेम से ही संभव है। वैसे स्वदेशी की भावना मात्र वस्तुओं व सेवाओं तक ही परिमित नहीं होकर भाषा, वेशभूषा, भोजन, भैषज्य, जीवन शैली, पारिवारिक संस्कार व आचार-विचार आदि सभी में परिलक्षित होनी अनिवार्य है। विदेशों से आयातित वस्तुओं को क्रय करते चले जाने से देश में बेरोजगारी, उद्यम बन्दी, विदेशी व्यापार में घाटे, रूपये की विनियम दर में गिरावट जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। दूसरी ओर देश में कार्यरत विदेशी कंपनियों की वस्तुओं व सेवाओं को क्रय करते चले जाने से भी देश के उत्पादक उद्योग, व्यापार व वाणिज्य विदेशी कंपनियों के स्वामित्व में जाते है और उनके लाभ देश के बाहर जाते हैं। विदेशी कंपनियों द्वारा उनके उत्पादन में प्रयुक्त अधिकांश हिस्से पुर्जे बाहर से लाये जाने से देश को भारी आर्थिक क्षति व रोजगार हानि भी सहनी पड़ती है। आज जिस गति से देश धीरे-धीरे विदेशी कंपनियों की एसेम्बली लाइन्स के देश में बदलता जा रहा है, वह अत्यन्त चिंताजनक है।

आज भारत में विश्व की 17.7 प्रतिशत जनसंख्या निवास करती है और इतनी ही अर्थात विश्व की 18.4 प्रतिशत जनसंख्या चीन में भी है। युवा जनसंख्या की दृष्टि से तो भारत में विश्व के सर्वाधिक 20 प्रतिशत युवा हैं। लेकिन अधिकांश भारतीय उपभोक्ताओं अर्थात जनता द्वारा स्वदेशी या मेड बाई इण्डिया उत्पादों के स्थान पर विदेशी उत्पादों व ब्राण्डों के क्रय करते चले जाने से महानुमाप उत्पादन अर्थात वर्ल्ड मैनूफैक्चरिंग में भारत का अंश मात्र 3 प्रतिशत और चीन का अंश 28 प्रतिशत है। उच्च आर्थिक राष्ट्रनिष्ठा अर्थात स्वदेशी के प्रति प्रबल लगाव के कारण ही विश्व की मात्र 1.6 प्रतिशत जनसंख्या युक्त जापान का वैश्विक उत्पादन में निरन्तर लगभग 10 प्रतिशत अंश रहा है। जापान में उच्च आर्थिक राष्ट्रनिष्ठा अर्थात देश व स्वदेशी के प्रति प्रेमवश 96 प्रतिशत स्वदेशी या मेड बाई जापान कारें ही बिकती है। दूसरी ओर हमारे देश में केवल 13 प्रतिशत (टाटा व महिन्द्रा की) स्वदेशी कारें बिकती हैं और 87 प्रतिशत कारें विदेशी बिकती हैं। भारत के वर्ल्ड मैन्यूफैक्चरिंग में मात्र 3 प्रतिशत अंश की तुलना में चीन का अंश 28 प्रतिशत होने से चीन का सकल घरेलू उत्पाद व प्रति व्यक्ति आया भारत की पांच गुनी है। सिंगापुर, जिसकी तुलना में भारत का क्षेत्रफल 5200 गुना व जनसंख्या 234 गुनी है। लेकिन, सिंगापुर के उच्च प्रौद्योगिकी सम्पन्न निर्यात (हाई टेक्नोलॉजी एक्सपोट्स) भारत की तुलना में साढ़े सात गुने है व चीन के हाई टेक्नोलॉजी निर्यात हमारे 30 गुने हैं। वर्ल्ड मैन्यूफैक्चरिंग में भारत का अंश मात्र 3 प्रतिशत होने के बाद भी आज हमारे देश में अधिकांश अर्थात तीन चौथाई से भी अधिक उत्पादन तंत्र पर विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का स्वामित्व व नियंत्रण है। चीनी, अमेरिकी, यूरोपीय, जापानी व कोरियाई आदि विदेशी कम्पनियाँ ‘मेक इन इण्डिया’ की आड़ मे अपने अधिकांश हिस्से पुर्जे या अर्द्ध निर्मित सामग्री देश के बाहर से ला कर अपने उत्पादों को जोड़ने मात्र का काम अपनी एसेम्बली लाइन्स में कर उस पर ‘मेक इन इण्डिया’ लिख देती हैं। अतएव हमें भारत के आर्थिक व तकनीकी स्वावलम्बन के लिए हमें ‘मेड बाई भारत’ उत्पाद व ब्राण्डों को ही क्रय में प्राथमिकता देनी होगी। 


चीनी, अमेरिकी, यूरोपीय, जापानी व कोरियाई कंपनियों द्वारा मेक इन इण्डिया के नाम पर आयातित साज सामानों को जोड़कर अपने उत्पाद एसेम्बल कर उन पर ‘मेड इन इण्डिया’ लिख दिया जाता है। वे भी विदेशी उत्पाद ही कहलाएगे जो भारतीय निर्माताओं द्वारा उत्पादित ‘मेड बाई भारत’ उत्पाद व ब्राण्ड हैं, वे ही स्वदेशी कहताते हैं। हीरो की बाइक या स्कूटर या बजाज टीवीएस मेड बाई भारत है। होण्डा के स्कूटर, बाइक व कारों पर चाहें मेड इन इण्डिया लिख हो वे विदेशी ही कहलाएंगे। फिलिप्स के बल्ब, ट्यूब लाईट व प्रेस आदि पर मेड इन इण्डिया लिखा होने पर भी वे विदेशी ही कहलाएंगे। फिलिप्स हालेण्ड की कम्पनी है। बजाज, सूर्या, अजन्ता हेवल आदि के स्वदेशी व मेड बाई भारत उत्पाद हैं। ‘मेड बाई भारत’ उत्पादों व ब्राण्डों को अपना कर उत्पादन में जितनी अधिक भागीदारी ही स्वदेशी वस्तुओं व ब्राण्डों की बढ़ायेंगे उतना ही अधिक से अधिक घरेलू उत्पादन बढ़ाते हुऐ रोजगार का सृजन कर हम, देश के सकल घरेलू उत्पाद राजस्व, लोगो की आय व मांग में भी उसी अनुपात में वृद्धि कर सकेंगे। ऐसी उत्पादन वृद्धि से ही सरकार के राजस्व की आय में वृद्धि होगी, व्यापार घाटे पर नियन्त्रण हो सकेगा और उससे रूपया भी सुदृढ़ होगा और इसके परिणामस्वरूप देश में उन्नत प्रौद्योगिकी का विकास हो सकेगा। देश के बाजारों में आज चीनी वस्तुओं की भरमार से, जहाँ देश के बहुतांश उद्योगों के बन्द होने से हमें बेरोजगारी व बैंकों का नॉन परफार्मिग एसेट्स का सामना करना पड़ रहा है। देश का विदेश व्यापार घाटा भी असहनीय हो रहा है।

आज देश के हम 135 करोड़ लोग हैं। देश में 6 लाख से अधिक गाँव हैं, विश्व का सर्वाधिक पशुधन है, विश्व में सर्वाधिक कृषि योग्य भूमि भारत के पास है। देश में 400 से अधिक विविध प्रकार के संगठित लधु उद्योग संकल ;ैप् बसनेजमतेद्ध व 3000 से अधिक असंगठित सूक्ष्म उद्योगों के संकुल है। इसी क्रम में देश में 6 करोड़ 70 लाख सूक्ष्म, लघु व मध्यम आकार के उद्यम हैं, जिसमें 12 करोड़ से अधिक लोग नियोजित हैं और इन लघु उद्योगों के द्वारा 6000 से अधिक प्रकार के उत्पाद या वस्तुओं का उत्पादन व करोबार किया जाता है। इनमें से एक करोड़ 24 लाख ग्रामीण उद्यम है।

ऐसे में हम 135 करोड़ लोग स्वदेशी अर्थात ‘मेड बाई भारत’ या भारतीयों अर्थात भारतीय उद्यमों द्वारा उत्पादित वस्तुएँ व ब्राण्ड की क्रय करेंगे तो देश में उत्पादन, निवेश, रोजगार, प्रौद्योगिकी विकास, आय वृद्धि, मांग वृद्धि, पुनः निवेश व उत्पादन वृद्धि का विकास चक्र गतिमान होगा। यदि विदेशी ब्राण्ड अपनायेंगे तो इसका लाभ उन देशों को जायेगा। इससे समावेशी विकास के लिए विकेन्द्रित नियोजन व ग्राम विकास पर बल देना होगा।

अतएवं विकास के लिए विदेशी उत्पाद व सेवाएँ अर्थात ‘मेड बाई भारत’ या ‘मेड बाई इण्डिया’ वस्तुओं व सेवाओं के प्रवर्तन व अपनाने के अतिरिक्त कोई अन्य मार्ग नहीं है। देश के लिये आवश्यक है कि हम अपनी खरीददारी में रोजगार प्रधान स्थानीय उद्योगों व लघु उद्योगों की वस्तुओं को प्राथमिकता प्रदान करें विकेन्द्रित उत्पादन से ही समावेशी विकास सम्भव है। लघु उद्योगों के उत्पाद व ब्राण्ड उपलब्ध नहीं होने पर ही रोजगार विस्थापक बड़े उद्योगों के उत्पाद खरीदें। स्वदेशी उत्पादों की तुलना में विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के एवं विदेशों से आयातित उत्पादों का पूर्ण बहिष्कार करें। यदि विदेशी कम्पनियों के उत्पाद देश में नहीं बिकेंगे तो वे कुछ माह भी यहाँ नहीं टिक पायेंगी। स्वदेशी भाव जागरण से ही देश में स्वदेशी एक सशक्त मुद्दा बनेगा। स्वदेशी जागरण मंच 1991 से देश में वैश्वीकरण की शुरूआत के समय से ही यह आवाहन करता रहा है एवं इस मुद्दे पर जन जागरण करता रहा है। हमस ब स्वदेशी जागरण मंच का ही अंग है। आइये हम सब स्वदेशी भाव जागरण स्वावलम्बी राष्ट्र बनायें। हम भी देश की आर्थिक समप्रभुता के लिए आर्थिक राष्ट्रनिष्ठा व्यक्त करते हुए विदेशी वस्तुओं को त्यागकर मेड बाई इण्डिया को बढ़ावा दें। ऐसा करके ही हम स्वयं व हमारी भावी पीढ़ी को आसन्न आर्थिक अराजकता के बचा पायेंगे। आइये हम सब स्वदेशी जागरण मंच के मेड बाई इण्डिया अभियान को सफल बनायें। स्वदेशी वस्तु, सेवाएँ, भाषा, वेशभूषा, भोजन, पारिवारिक मूल्य, सामाजिक समरसता की परम्परा, हमारी सांस्कृतिक विरासत हमारा वाङमय, हमारी जैव विविधता, कुषि, पशुधन, पारम्परिक कलाएँ आदि प्रत्येक स्वदेशी आयाम को प्राणपण से बल देवें।

वर्तमान कोरोना संकट और लॉकडाऊन से उपजी चुनौतियों के चलते देश के सम्मुख स्वदेशी व स्वावलम्बन का ही एकमेव एवं श्रेष्ठतम विकल्प सुलभ है। इसी क्रम में स्वदेशी जागरण मंच द्वारा देश भर में ‘‘स्वदेशी व स्वावलम्बन अभियान’’ प्रारंभ किया गया है। इसी के अंतर्गत कार्यकर्त्ताओं के प्रबोधन हेतु अभियान के अखिल भारतीय समन्वयक एवं स्वदेशी जागरण मंच के विचार विभाग प्रमुख श्री सतीश कुमार जी द्वारा लिखित प्रस्तुत पुस्तक सभी कार्यकर्त्ताओं के लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगी। यह अभियान भारत को आर्थिक सामर्थ्य की दृष्टि से विश्व की अग्रपंक्ति में स्थापित करेगा। समर्थ, समृद्ध व स्वावलंबी भारत की विश्व-मंगल का आधार बनेगा।

प्रो. भगवती प्रकाष षर्मा
आर्थिक विचारक एवं लेखक
कुलपति, गौतम बुद्ध विष्वविद्यालय, ग्रेटर नोएडा
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स्वावलंबन व स्वदेशी ही है, भारत के विकास की राह

“हमें एक भारतीय विकास मॉडल, जो भारतीय अर्थ-चिंतन व जीवन मूल्यों के ऊपर आधारित हो, विकसित करना चाहिए“, यह बात गत 26 अप्रैल 2020 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ मोहन भागवत ने नागपुर से अपने उद्बोधन में कही, तो संपूर्ण देश ही नहीं विश्व भर में फैले हुए भारतीयों को लगा कि उनके मन की बात किसी ने कही है। कोरोना की बीमारी से उद्धवस्त पड़ी दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाओं के बीच भारत भी अपनी लड़ाई लड़ रहा है। इस समय जो अर्थव्यवस्था की भारी तबाही हुई है और रोजगार तेजी से घटे हैं। उसको पुनः पटरी पर कैसे लाना, कैसे लाखों ही नहीं करोड़ों लोगों के रोजगार व परिवारों की अर्थव्यवस्था को ठीक करना आदि आज मूल प्रश्न हैं।

कुल मिलाकर देश की अर्थव्यवस्था को उभारना, इस पर जो मार्गदर्शन सरसंघचालक जी का हुआ, वह वास्तव में स्वदेशी की मूलभावना के अनुरूप ही है। इतना ही नहीं इससे एक दिन पूर्व ही स्वदेशी जागरण मंच ने 25 अप्रैल को सारे देश में स्वदेशी संकल्प दिवस मनाया था। जब स्वदेशी जागरण मंच के संस्थापक राष्ट्रऋषि दत्तोपंत ठेंगड़ी व हिंदवी स्वराज्य संस्थापक शिवाजी महाराज को स्मरण करते हुए देशभर में स्वदेशी अपनाने का संकल्प लिया गया।

इस स्वदेशी विचार प्रक्रिया का तेजी से सारे देश में प्रसार हो ही रहा था कि गत 12 मई को राष्ट्र के नाम संबोधन में भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने अपने 30 मिनट के भाषण में जो विषय रखा, वह तो मानो इस देश का मंत्र ही बन गया। आत्मनिर्भरता! आत्मनिर्भरता! आत्मनिर्भरता! उन्होंने आह्वान किया ’‘बी वोकल फार लोकल’’। अर्थात् स्थानीय खरीदो स्थानीय बनाओ! देश की अर्थव्यवस्था और रोजगार को मजबूत बनाओ! जैसे ही उन्होंने यह घोषणा की तभी, देश और दुनिया भर में स्वदेशी, आत्मनिर्भरता तथा वोकल फॉर लोकल के उद्घोष मीडिया में छा गए। और केवल सोशल मीडिया पर ही नहीं मुख्यधारा मीडिया चाहे वह समाचार पत्र हो, या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया सब तरफ स्वदेशी-स्वदेशी, इसकी चर्चा होने लग गई।

उस समय पर दिया गया 20 लाख करोड़ का पैकेज तो अर्थव्यवस्था को उबारने का विराट प्रयास था ही। किंतु स्वदेशी का मंत्र इस देश को गहरे से छू गया। वास्तव में इस देश के सामान्य व्यक्ति के मन में यह कहीं गहरा बैठा हुआ है कि इस देश को 1947 के पश्चात जिस विकास के मॉडल पर चलना था वह नहीं चला। कभी हम साम्यवादी अर्थव्यवस्था के रूसी मॉडल की कॉपी करते रहे, तो कभी अमेरिकी पूंजीवाद की।

किंतु 1991 में स्वदेशी जागरण मंच की स्थापना करते हुए दत्तोपंत ठेंगड़ी जी ने कहा था “न साम्यवाद, न पूंजीवाद, हमें चाहिए राष्ट्रवाद“। जनसामान्य के मन में बैठे हुए इस विचार को जैसे ही मुखर स्वर मिला तो अंदर में बैठा हुआ स्वदेश प्रेम एकदम उठ खड़ा हुआ। संपूर्ण देश में स्वतः ही स्वदेशी व आत्मनिर्भरता का, स्वावलंबन का एक जनआंदोलन उठ खड़ा हुआ।

सारे देश के कार्यकर्ताओं ने यह आग्रह किया कि इसको एक संगठित और मूर्तरूप देना चाहिए और इसलिए स्वदेशी जागरण मंच ने यह निर्णय किया कि हम एक स्वदेशी स्वावलंबन अभियान प्रारंभ करते हैं। उसमें हम इन विषयों को उठाएँगे। सारे देश में स्वदेशी के समग्र विचार को समझने की गहन उत्कंठा दिख रही है। स्वदेशी का अर्थ क्या है? स्वावलंबन, आत्मनिर्भरता का वास्तविक अर्थ क्या है? यह कहीं अतिरेकी-अंतर्मुखी सोच तो नहीं?

यह स्वावलंबन, आत्मविश्वासपूर्वक, संपूर्ण दुनिया में अपना दृष्टिकोण देने का विश्वास प्रकट करने वाला विचार है! हमें सरल भाषा में स्वदेशी, स्वावलंबन, भारतीय विकास मॉडल आदि विषयों को विस्तार से बताना चाहिए। वास्तव में यह इस संपूर्ण विषयों को जन सामान्य की भाषा में रखना चाहिए। ऐसा एक विषय आया तो यह तय हुआ कि इसकी एक छोटी पुस्तिका बनाकर संपूर्ण देश के सामने रखी जाए, उसी संदर्भ में यह वर्तमान प्रस्तुति आपके हाथों में है।

आशा है देश को, स्वदेशी प्रेमी लोगों को, स्वदेशी, आत्मनिर्भरता, स्वावलंबन का विचार समझने में यह सहायक सिद्ध होगी!

बदलता वैश्विक-आर्थिक परिदृश्य

वैष्विक परिदृश्य में परिवर्तन, दिसंबर के अंतिम दिनों में चीन के वुहान शहर से कोरोना महामारी के समाचार आने से शुरू हुआ। शुरू में तो बहुत कुछ वहां से समाचार नहीं आए, लेकिन जनवरी आते-आते तक दुनिया को पता चल गया कि एक बड़ी महामारी वहां शुरू हो गई है। चीन ने वहां पर लॉकडाउन शुरू किए, उसके कारण से दुनिया की फैक्ट्री बना हुआ चीन, जिसका विश्व मैन्युफैक्चरिंग में 28 प्रतिशत तक की हिस्सेदारी है, वह तेजी से फैक्ट्रियां बंद करने लगा, रोजगार घटने लगे। वहां की अर्थव्यवस्था में ऐतिहासिक रूप से गिरावट आनी शुरू हो गई। संपूर्ण दुनिया में उसके कारण से चिंता होने लगी क्योंकि अमेरिका के बाद चीन ही दुनिया की अर्थव्यवस्था के साथ पूरी तरह से जुड़ा हुआ है।

किंतु अगर विगत चार-पांच वर्षों में भी विश्व की आर्थिक स्थिति पर नजर डालें तो सभी तरफ सुस्ती व मंदी का ही माहौल छाया हुआ था। अत्यधिक वैश्वीकरण की जो शुरुआत अमेरिका और बाद में चीन ने की उसके कारण से यह मंदी आनी ही थी। वास्तव में विकास के इस मॉडल में हर 15-20 साल बाद मंदी आती ही है। 2008 में भी जो वैश्विक मंदी आई थी, तब उसकी शुरुआत अमेरिका से ही हुई थी। देखा जाए तो चीन में कोरोना से पहले भी अमेरिका की विकास दर 2 प्रतिशत से नीचे आ चुकी थी। यही नहीं यूरोप के अधिकांश देश भी 1 प्रतिशत से लेकर 3 प्रतिशत (विकास दर) के बीच में ही अर्थव्यवस्था के साथ चल रहे हैं। यहां तक कि विश्व की तीसरी बड़ी इकोनॉमी, जापान भी 1.6 प्रतिशत की ही जीडीपी निकाल पा रहा है। यूरोप और अमेरिका में वृद्ध जनसंख्या के अधिक होने के बावजूद भी बेरोज़गारी बढ़ी हुई है। पर्यावरण विनाष तो इस विकास के मॉडल का स्वभाविक परिणाम है ही। अत्यधिक टेक्नोलॉजी का प्रयोग भी बेरोज़गारी का एक कारण है। ड्राइवरलेस कार से लेकर रोबोटिक्स के आने के कारण दुनिया भर में बेरोजगारी फैल रही है। जब 2016 में डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव का पद जीते तो वह इसी आश्वासन पर जीते थे कि वह अमेरिका की अर्थव्यवस्था को ठीक करेंगे, बेरोजगारी को दूर करेंगे। उन्होंने आते ही चीन के खिलाफ व्यापार युद्ध की घोषणा कर दी, अमेरिका प्रणीत टी.पी.पी. (ट्रांसपेसिफिक पार्टनरशिप) संधि से स्वयं को बाहर कर लिया। पेरिस में हुए जलवायु के ऊपर ऐतिहासिक समझौते ब्व्च्-21 से बाहर होने की स्वयं अमेरिका ने घोषणा कर दी। यूनाइटेड नेशन को उन्होंने मोटी तोंद वाले बाबूओं के समय व्यतीत करने का स्थान बताया। डब्ल्यू.टी.ओ. को भी निष्प्रभावी करके, अपने हिसाब से टैरिफ लगाने शुरू किए। भारत के भ्1ठ विजा को कड़ा करना शुरू कर दिया। मेक्सिको के आगे दीवार खड़ी करने की प्रक्रिया शुरू कर दी। यानि वैश्वीकरण ध्वस्त होता प्रतीत हो रहा था, स्वयं उसका प्रणेता अमेरिका डोमेस्टिक इकॉनमी की तरफ जा रहा था। उधर यूरोप में इंग्लैंड की जनता ने एक जनमत आदेश देकर यूरोपीय संघ से अपने आपको बाहर कर लिया,  ब्रेक्जिट नाम से जाना जाता है। यह भी एक घोषणा थी कि अब वैश्वीकरण विफल हुआ है। उसके कारण से इंग्लैंड के दो प्रधानमत्रियों कैमरून और थेरेसा मे को भी इस्तीफा देना पड़ा। तीसरे प्रधानमंत्री जॉनसन इस समय पर किसी तरीके से इंग्लैंड को यूरोपीय संघ से बाहर करने में सफल हुए। एल.पी.जी. अर्थात् लिबरलाइजेशन, प्राइवेटाइजेशन, ग्लोबलाइजेशन का सिद्धांत भी ध्वस्त हुआ है।

उधर लगभग इसी पूंजीवादी शोषणकारी मॉडल का अनुसरण करते हुए चीन ने अपने आपको दुनिया की फैक्ट्री बनाया और 14 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बन गया। किंतु उसी सोच के कारण श्रीलंका, मालदीव एवं अनेक आसियान देशों को उसने अपने ऋण जाल में फंसा लिया। पाकिस्तान तो उसकी कॉलोनी ही बन गया है। अपनी लेबर फोर्स को खपाने के लिए और अपनी अर्थव्यवस्था में मंदी ना हो इसलिए उसने बेल्ट रोड इनीशिएटिव जैसी विश्व व्यापी योजनाएं शुरू कर दी। भारत भी 1991 के पश्चात से कुछ-कुछ, धीरे-धीरे उसी विकास के मॉडल पर चलने लगा। 2014 में जब श्री नरेंद्र मोदी जी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार आई तब यद्यपि जीडीपी ग्रोथ (7.5 प्रतिशत) की दर बहुत अच्छी निकल रही थी, पर तब भी सब तरफ यह चर्चा थी कि यह जॉब्लेस ग्रोथ है। भारत जैसे युवा- शक्ति के देश को इस विकास के मॉडल की आवश्यकता ही नहीं थी, जो भी हो कुल मिलाकर भारत 4.5 प्रतिशत की विकास की अर्थव्यवस्था के साथ फिर भी दूसरी बड़ी अर्थव्यवस्था तो बना ही हुआ था।

अभी कोरोना की इस बीमारी के पश्चात सिंगापुर यूनिवर्सिटी की जो शोध सामने आयी, उसमें उन्होंने चार चीजों को इस महामारी और वर्तमान वैश्विक स्थिति के लिए उत्तरदायी माना। पहला- ग्लोबलाइजेशन (भूमंडलीकरण), दूसरा- ओवर पॉपुलेशन (अधिक आबादी), तीसरा- हाइपर कनेक्टिविटी (उच्च संपर्क) और चौथा- एक्सट्रीम सेंट्रलाइजेशन (अतिरेकी केंद्रीकरण)। संयोग से देखिए कि यह लगभग वही शोध है जो 1991 में स्वदेशी जागरण मंच के संस्थापक दत्तोपंत ठेंगड़ी सारे भारत और विश्व को समझा रहे थे और कह रहे थे कि ग्लोबलाइजेशन से भारत का भला नहीं होगा और 1991 से 1995 में जब भारत ने डब्ल्यूटीओ पर हस्ताक्षर किए, उस समय तक वे लगातार इस विषय का प्रतिपादन करते रहे। आज 30 साल बाद वही बात संपूर्ण दुनिया महसूस कर रही है।

 कोरोना वैश्विक महामारीः जान व जहान दोनों संकट में

इस समय सारी दुनिया कोरोना महामारी से त्रस्त है। चीन के वुहान शहर से शुरू हुई यह बीमारी केवल दो मास में ही सारी दुनिया में फैल गई और अब विश्व के लगभग 200 देशों में 75 लाख से अधिक लोग इससे बीमार हो चुके हैं। चार लाख से अधिक लोगों की मृत्यु हो चुकी है। इस महामारी ने सारे संसार को हिलाकर रख दिया है। सुपर पावर कहा जाने वाला अमेरिका, जहां का मेडिकल इंफ्रास्ट्रक्चर बहुत उत्तम माना जाता था, अस्त-पस्त हो गया है। भयानक तबाही मची है। चारों तरफ बीमार और लाशों के दृश्य टेलीविजन चैनलों पर दिखाए जा रहे हैं। यूरोप के विकसित देश भी घुटनों के बल आ गए हैं। इंग्लैंड के प्रधानमंत्री जॉनसन खुद कोरोना पॉजिटिव होकर 15 दिन हस्पताल लगाकर वापस आए हैं। इटली के प्रधानमंत्री को टेलीविजन के ऊपर ही रोते हुए सारी दुनिया ने देखा है। दुनिया का कोई ऐसा देश नहीं बचा जिसको इस बीमारी ने अंदर तक झकझोरा ना हो। इसका सम्भावित इलाज लॉकडाउन है, लेकिन लॉकडाउन ने अर्थव्यवस्था ही ध्वस्त कर दी। लगातार ढ़ाई महीने तक लॉकडाउन के बंद ने प्रायः सब प्रमुख देशों की अर्थव्यवस्थाओं को और रोजगार को शून्य पर ला खड़ा किया है।

दुनिया के इतिहास में कभी ऐसी महामारी नहीं देखी जिसने न केवल लोगों की जान ली हो बल्कि अर्थव्यवस्था को भी ध्वस्त और पूरी तरह से धराशायी कर दिया हो। करोड़ों नौकरियां खत्म हो गई हैं, बहुतों के काम-धंधे तथा रोजगार समाप्त हो गये, लोग अपने-अपने घरों में दुबके बैठे हैं। भारत यद्यपि कोरोना की लड़ाई को सबसे सफल तरीके से लड़ रहा है तो भी भारत की अर्थव्यवस्था और रोजगार में काफी गिरावट आई है। आई.एम.एफ. द्वारा अप्रैल के अंत में घोषित अनुमान के अनुसार दुनिया की 20 बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से केवल दो अर्थव्यवस्थाएं, भारत 1.9 प्रतिशत तथा चीन 1.2 प्रतिशत वृद्धि दर के साथ मंदी में जाने से बच रही हैं। अर्थात बाकी सारी बड़ी अर्थव्यवस्थायें चाहे अमेरिका हो या यूरोप हो अथवा जापान, सभी एक बड़ी मंदी की ओर अग्रसर हैं।

कोरोना महामारी से निपटने के लिए अमेरिका ने दो ट्रिलियन डॉलर के राहत पैकेज की घोषणा की है। इसी तरह सब देशों को मजबूरी वश अपने-अपने खजाने खोलने पड़े। कोरोना दुनिया के इतिहास की पहली ऐसी बीमारी आई है जिसने जान और जहान दोनों को संकट में डाल दिया है। सारा विश्व इस समय इन दोनों मोर्चों पर ही संघर्षरत है। अपने लोगों को मौत से बचाने व अपनी अर्थव्यवस्था और रोजगार को बचाने के रास्ते निकालने हैं, क्योंकि अभी ईश्वर ने इस दुनिया को पूर्णतया समाप्त करने का निर्णय नहीं लिया है। कविवर रविंद्रनाथ टैगोर के शब्दों में कहें तो ‘‘प्रत्येक पैदा होता बच्चा परमात्मा का यह संदेश लेकर आता है कि उसका अभी इस दुनिया से विश्वास समाप्त नहीं हुआ है।’’ आवश्यकता है हमें अपनी अर्थव्यवस्थाओं और रोजगार को पुनः खड़े करने की। केवल कोरोना ही नहीं, बल्कि विकास के जिस मॉडल के चलते इस प्रकार की बीमारियां फैलती हैं, पर्यावरण का नाश होता है, उसके वैकल्पिक मॉडल की तलाश करनी है जो कि भारत में आकर ही पूरी होगी।

भारत की कोरोना पर सफल लड़ाई, किंतु गंभीर आर्थिक चुनौती

इस वैश्विक महामारी से भारत अपनी पूरी ताकत से एकजुट होकर लड़ रहा है। भारत की यह सुखद स्थिति है कि इस विषम परिस्थिति के समय पर भारत में एक योग्य व सक्षम नेतृत्व वाली सरकार है, और साथ-साथ एक धर्मपरायण, सेवा भाव समाज है। भारत, जिसकी आबादी 135 करोड़ से अधिक है, एक विकासशील देश है जिसके पास किसी प्रकार का बड़ा चिकित्सा ढ़ांचा (मेडिकल इंफ्रास्ट्रक्चर) नहीं है, विशेषकर यूरोप, अमेरिका, जापान या चीन के मुकाबले में भारत में मेडिकल सुविधाएँ बहुत ही कम है। यहां तक कि भारत के पास ना तो एन.-95 मास्क थे और ना ही पर्याप्त मात्रा में वेंटिलेटर। न तो भारत के पास अपने टेस्टिंग किट थे और न ही चिकित्सकों के लिए अतिआवश्यक समझे जाने वाली पी.पी.ई. किट। किंतु फिर भी इस लड़ाई को इस तरीके से लड़ा गया कि इस समय तक भारत में 2,80,000 ही कोरोना मरीज हुए, जो कि दुनिया की सब देशों की आबादी के प्रतिशत के हिसाब से सबसे कम है। समय पर लगाये गये लॉकडाउन के कारण पर्याप्त समय मिलने से आवश्यक टेस्टिंग किट, पी.पी.ई. किट व अन्य चीजों की तैयारी संभव हो सकी। आज भी ठीक होने वालों की दर 48 प्रतिशत है और मृत्यु दर 3.2 प्रतिशत। यह दुनिया के प्रमुख देशों की मृत्यु दर में सबसे कम और ठीक होने वालों की प्रतिशत दर भी काफी अच्छी है।

भारत न केवल एक बड़ा देश है, बल्कि यहां लोकतंत्र है, जिसमें विविध पार्टियों की सरकारें हैं, उनके आपसी वैचारिक और व्यावहारिक मतभेद भी रहते हैं, किंतु इस सब के बावजूद भी भारत सरकार के नेतृत्व में समूचे देश ने एक बहुत अच्छे टीमवर्क का प्रदर्शन किया है। सामान्य जनता से लेकर राज्य सरकारों तक को साथ लेते हुए देश ने एक सफल और लंबी लड़ाई लड़ी है। सारा भारत एकजुट होकर कोरोना से लड़ रहा है। किंतु चार-चार लॉकडाउन होने से अर्थव्यवस्था तो गर्त में जानी ही थी।

मोटे अनुमान के अनुसार भारत की कुल लेबर फोर्स 49 करोड़ है, जिसमें से 13 करोड़ लोगों का रोजगार खत्म हुआ है या न्यूनतम स्तर पर आ गया है, यह अनुमान लगाये जा रहे हैं। बेरोजगारी बढ़कर 14 प्रतिशत तक हो गई है, बजट घाटा भी 6 प्रतिशत पार कर चुका है, सारे देश से लाखों मजदूर अपने-अपने गांव को वापस लौटे हैं। रिवर्स माइग्रेशन (मजदूरों का अपने घरों के लिए पलायन) का इतना बड़ा दृश्य 1947 के बाद संभवतः अभी हुआ है। दुनिया भर से भी लाखों लोग जो भारत में लगातार कमाई भेजते थे, अब वापस भारत आ गए हैं। अकेले खाड़ी देशों से ही दो लाख से अधिक लोगों को केरल से लेकर जम्मू तक वापस आना पड़ा है। दुनिया में सर्वाधिक प्रवासी भारतीय होने के कारण से 80 अरब डालर प्रतिवर्ष का पैसा (रेमिटेंसेस) आता था, उसका भी बहुत बड़ी मात्रा में नुकसान हुआ है। सब फैक्ट्रियां, कंस्ट्रक्शन, व्यापार तथा दुकान आदि बंद पड़े हैं, इसके कारण से सरकार को भी रेवेन्यू आना न्यूनतम हो गया है।

भारत के 175 साल के रेलवे इतिहास में सभी रेल कभी बंद नहीं हुई। मेट्रो बंद, बस बंद, सब कुछ बंद।

यह ठीक है कि समाज की आंतरिक शक्ति व कुशल नेतृत्व के कारण से कहीं भूखे मरने की नौबत तो नहीं आई, पर यह भी सच है कि सामान्य मजदूर, किसान, दिहाड़ीदार व्यक्ति से लेकर उद्योगपति तक, सबकी आर्थिक हालत पतली हुई पड़ी है। दिल्ली के एक मित्र ने बताया कि उसे डेढ़ सौ मजदूरों को केवल 2000 रूपये देकर ही विदा करना पड़ा। जब जनधन खातों में 500 रूपये डाले गए तो अगले दिन बैंको के सामने लंबी-लंबी कतारें पैसा निकलवाने के लिए लग गई, जो इस बात का प्रतीक है कि लोगों की आर्थिक मजबूरी कितनी हो गई है। पूर्वी उत्तर प्रदेश के बलिया में अपने कार्यकर्ता ने बताया कि 2200 रूपये में सारा महीना गुजारा करने वाले हजारों मजदूर इस समय पर अपने गांव में लौटे हैं। यह ठीक है कि अच्छे नियोक्ताओं ने बहुत से लोगों को नौकरी से नहीं निकाला, किंतु यह भी सच है कि शिवरात्रि का पेट एकादशी कैसे भरें, इसलिए जिन व्यापारियों और फैक्ट्रीवालों की खुद की ही कमर टूटी पड़ी थी वह मजदूरों का वेतन कैसे देते? इसलिए लाखों लोगों को बिना वेतन ही घर लौटना पड़ा है। हिमाचल के बद्दी में रहने वाले एक मित्र ने अपनी फैक्ट्री में काम करने वाले 14 कर्मचारियों को घोषित रूप से बिना एक रुपया काटे पूरा वेतन 3 महीने तक दिया है। इसके अलावा भी उन्होंने सैकड़ों लोगों की खाने-पीने और आने-जाने की व्यवस्थाएं की हैं। ऐसे उदाहरण एक-आध नहीं, बल्कि देश भर में सैकड़ों हैं, किंतु भारत जैसी विशाल आबादी में ये सब पर्याप्त नहीं, और इसलिए यह भी सच है कि संपूर्ण देश में इस समय पर बेरोजगारी व गरीबी का आलम है।

विष्व में भारत की विश्वसनीयता का उभार!

नोएडा की गौतम बुद्ध यूनिवर्सिटी के कुलपति और स्वदेशी जागरण मंच के केंद्रीय अधिकारी प्रो. भगवती प्रकाश शर्मा ने कहा ॅवतसक ूपसस दमअमत इम जीम ेंउमए चवेज बवतवदं (कोरोना के बाद की अर्थव्यवस्था पहली जैसी नहीं रहेगी) और यह वास्तविकता भी है। जैसा कि पहले भी उल्लेख किया गया है कि कोरोना से पहले भी विश्व वैश्वीकरण, अंधाधुंध औद्योगिक विकास तथा पर्यावरण विनाश के कारण परेशान था। सारी दुनिया इसके कारण से अब घरेलू तत्वों पर बल दे रही है। कोरोना के बाद ना केवल अर्थव्यवस्था का स्वरूप अंतर्मुखी होगा, बल्कि यह प्रवृत्ति सब देशों की मजबूरी भी बन जाएगी। कोरोना के कारण अमेरिका ने अपने लोगों को नौकरियां देने के लिए विश्व से आने वाले प्रवासियों के लिए अपने द्वार बंद कर दिए हैं। एच-1बी वीजा, जिसके अंतर्गत बड़ी संख्या में भारतीय जाते थे, उस पर भी पिछले कुछ समय में अमेरिका ने प्रतिबंध बढ़ा दिए हैं। उधर चीन के प्रति तो संपूर्ण दुनिया में रोष है, क्योंकि पिछले कुछ वर्षों में ही सार्स, मार्स फ्लू और अब कोरोना आदि महामारियां चीन से ही शुरू हुई।

यह बात अब सर्वविदित है कि चीन की विवादित भूमिका के कारण चीन का बना माल दुनिया के लोग पसंद नहीं कर रहे। यही नहीं, अमेरिका, यूरोपियन तथा अन्य देशों की कंपनियां वहां से निकलने को प्रयासरत हैं। एक अध्ययन के अनुसार लगभग 13,000 कंपनियां वहां से निकलकर भारत या कहीं अन्यत्र देश जाने की इच्छुक हैं। भारत की विश्वसनीयता इन दिनों में बहुत उच्च स्तर पर पहुंच गई है। जहाँ एक ओर, भारतीय संस्कृति और भारतीय नेतृत्व ने इस वैश्विक महामारी का सफलतापूर्वक सामना करते हुए परिपक्वता का परिचय दिया है, वहीं दूसरी ओर कोरोना की आवश्यक दवाएं 123 देशों में पहुंचाने के कारण दुनिया भर में भारत के प्रति आस्था और विश्वास भी बढ़ा है। यही नहीं भारत विश्व में एक स्थापित मजबूत लोकतंत्र भी है।

यह भी सच है कि ‘पोस्ट कोरोना’ दुनिया के वैश्विक अर्थ-तंत्र में अभी और उथल- पुथल होगी। विश्व व्यापार संगठन का प्रभाव भी न्यूनतम होने वाला है। चीन अब पहले की तरह दुनिया की फैक्ट्री नहीं रहेगा और वहां से निकलने वाली कंपनियां भारत व आसियान देशों की तरफ आ सकती हैं। जापान ने अपनी कंपनियों को चीन से निकालने के लिए 2.2 बिलियन डालर के पैकेज की घोषणा की है। सब तरफ नौकरियां छूटने से, अर्थतंत्र में कमी होने से, मंदी होने से, मांग और भी रसातल में जाएगी। जिससे दुनिया भर के देशों में मंदी और गहरा जाएगी। इससे निकलने के लिए विश्व की सभी अर्थव्यवस्थायें अपने-अपने स्वदेशी मार्ग खोजेंगी। चीन, विकसित व गोरे देशों की अति भोगवादी व लालची मनोवृति और उनकी वासनाओं की पूर्ति के लिए दुनिया के विकासशील देशों का शोषण करने वाली, पर्यावरण का विनाश करने वाली, इन देशों का धन-दौलत लूटने वाली, बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अब कोई देश पसंद नहीं करेगा।

25 लाख से अधिक मरीज व 1,00,000 से अधिक मौतों ने अमेरिकी समाज को अपने चिंतन को बदलने के लिए विवश कर दिया है। उन्हें अब पैसे की निरर्थकता तथा पर्यावरण हृस से अपने विनाश का एहसास हो रहा है। मानव जीवन के मूल्यों का महत्त्व उनके ध्यान में आने लगा है। यही स्थिति यूरोप व अन्य विकसित अर्थव्यवस्थाओं की भी हैं। विश्व को मात्र एक बाजार समझने वाले देश आज भारत के ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ विचार को समझने के इच्छुक हुए हैं। व्हाइट हाउस में शांति मंत्र का उच्चारण हो रहा है। जो बात गांधी जी, दीनदयाल जी, ठेंगड़ी जी वर्षों पूर्व कहते थे वे आज मान्य हो रही हैं। संतुलित विकास, स्वार्थ नहीं सहयोग, रोजगार भक्षी नहीं-रोजगार की वृद्धि करने वाली टेक्नोलॉजी, पर्यावरण संरक्षण आदि की समझ अब दुनिया में तेजी से बढ़ने लगी है। स्वदेशी का महान विचार-एकात्म मानव दर्शन का विचार केवल भारत के लिए नहीं संपूर्ण मानवता के भविष्य के लिए है, यह भी सबको ध्यान में आने लगा है। यह चिंतन कितने दिन चलता है, यह देखना होगा। ‘सरबत दा भला’, ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’, तथा ‘कृण्वंतो विश्वमार्यम्’ जैसे भारतीय मूल्य अब दुनिया में स्वीकार्य होने लगे हैं। भारत को अपनी इस विश्वसनीयता का उपयोग ना केवल भारतीयों के लिए करना है बल्कि शेष विश्व के मार्गदर्शन करने की नैतिक जिम्मेवारी भी इसके कारण से भारत पर ही है।

विफल हुआ वैष्वीकरण, विकल्प है स्वदेशी

प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात (1914 -1919) एक तरफ अमेरिका का उभरना शुरू हुआ, जो कि पूंजीवादी व्यवस्था का प्रतीक था। तो 1917 में हुई वोल्शेविक क्रांति के बाद रूस में तानाशाही साम्यवादी सरकार सत्ता में आ गई। दोनों विचारधाराएं अपनी-अपनी परिभाषा से वैश्वीकरण की पोषक थी। द्वितीय विश्व युद्ध (1939-1945) के बाद दुनिया में यह दो बड़ी ताकतें पूरी तरह से उभर आई। पूंजीवादी अमेरिका और साम्यवादी रूस, संपूर्ण दुनिया को अपने-अपने वैचारिक और अर्थतंत्र में समाहित करने की इच्छा पाले थे। परिणामस्वरूप यू.एन.ओ., वर्ल्ड बैंक, आई.एम.एफ. आदि वैश्विक संस्थाओं और गठजोड़ों का निर्माण उस समय पर हुआ। कथित वैश्वीकरण के प्रवक्ता अब स्वयं ही किसी अन्य विकल्प की तलाष में है और विष्व के अन्य देषों को दिषा दिखाने में स्वभाविक रूप से असमर्थ है। इन विचारधाराओं के कारण ना केवल वर्तमान की महामंदी आई है, बल्कि इन्होंने मानवता व प्रकृति का महाविनाश भी किया है।

रूस में सोवियत क्रांति के शुरू होने (1917) से लेकर 1970 के कालखंड तक, ही कोई 1.75 करोड़ लोगों की हत्याएं हो गई, तो दूसरी तरफ अमेरिका तथा यूरोप की कंपनियों और आर्थिक तंत्रों ने दुनिया भर से पैसा खींचने, लूटने और पर्यावरण विनाश करने की प्रक्रिया जारी रखी। 1950 में चीन का उभार हुआ तो वहां भी माओ-त्से तुंग के नेतृत्व में हुए सत्ता प्राप्ति के संघर्ष में लाखों लोग मारे गए। यही नहीं बाद में चीन ने पचास के दशक में तिब्बत से लेकर 1988 के तिना-मिन चौक नरसंहार की घटना तक, अपने ही देश के लाखों नागरिकों को मार डाला। किंतु अब कोरोना के बाद अमेरिकी पूंजीवाद, परास्त साम्यवाद और चीन का आर्थिक दृष्टिकोण, यह तीनों ही अब एक अन्य विकल्प की तलाश में हैं।

इसी विकल्प को दत्तोपंत ठेंगड़ी जी ने 20 वर्ष पूर्व भारत में प्रस्तुत किया। यह तीसरा विकल्प है हिंदुत्व का, भारत का, स्वदेशी का विचार! स्वावलंबन, आत्मनिर्भरता का विचार! प्रति, प्रेम, मानवता का विचार! शोषण का नहीं सम्यक दोहन का विचार! एकात्म मानव दर्शन का विचार!

स्वदेषी, स्वावलंबन का आधार आत्मविश्वास, आत्मगौरव

दत्तोपंत ठेंगड़ी जी ने स्वदेशी जागरण मंच की स्थापना करते हुए कहा था..... स्वदेशी का अर्थ क्या है? क्या केवल वस्तुओं की खरीद-फरोख्त का नाम स्वदेशी है? नहीं! “स्वदेशी का प्रयोग केवल वस्तुओं या सेवाओं तक सीमित नहीं, बल्कि स्वदेशी तो देश प्रेम की साक्षात अभिव्यक्ति है। स्वदेशी तो प्रकृति को मान्य करने का विचार है। स्वदेशी शोषणमुक्त, आर्थिक रूप से संपन्न होने का विचार है। स्वदेशी एक व्यापक विचार है।“

स्वदेशी हर एक व्यक्ति को आत्मविश्वासी बनाकर स्वाभिमान के साथ अपना जीवनयापन करने का विचार है। वह व्यक्ति को स्वरोजगार, अपना विकास, अपने गांव का विकास, स्वयं होकर करने का विचार है। स्वदेशी का विचार हर एक व्यक्ति में एक निश्चय प्रदान करता है। उसमें ‘मैं नहीं, बल्कि ‘हम’ का विचार स्थापित करता है।

स्वावलंबन यानि स्वयं का अवलंबन कर आत्मनिर्भर हो, मैं जीवन को अपने व अपने अड़ोस-पड़ोस के लोगों के लिए भी सुखपूर्वक बना सकता हूं, यह स्वदेशी का विचार है। स्वदेशी का विचार, यानि मुझे कंपनियों या सरकारों के रहमोंकरम पर रहने की जरूरत नहीं। मैं ना केवल अपना बल्कि दूसरों का भी रोजगार व अर्थतंत्र पुष्ट कर सकता हूं, यह विचार स्वदेशी है। स्वदेशी विचार कहता है “डोंट बी जॉब सीकर, बी जॉब प्रोवाइडर।“ मैं नौकरी ढूंढने वाला नहीं, नौकरियां देने वाला बनूं।

स्वदेशी कहता है ‘उद्यमी बनो! स्वरोजगारी बनो!’ गांधी जी कहा करते थे “कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता। छोटी-बड़ी होती है, करने वाले की मानसिकता।“ कुछ ऐसा ही एक बार प्रधानमंत्री मोदी जी ने कहा “अगर एक पकोड़े बेचने वाला शाम को 200 रूपये की कमाई करके घर पर ले जाता है, तो इसमें अच्छा ही है।“ कुछ विरोधियों ने उनको अन्यथा कहा। पर स्वाभिमान से, अपने पैरों पर खड़े होने को ही तो उद्यमी कहते हैं। वह पकोड़े वाला हो या फिर कार-ट्रक बनाने वाला कोई उद्योगपति।

आपने बिट्टू टिक्की वाले का उदाहरण सुना होगा, कि कैसे एक अयोध्या के किसान परिवार का लड़का सतीराम यादव 1992 में दिल्ली आकर एक टिक्की-गोलगप्पे की रेहड़ी लगाता है। फिर अपने आत्मविश्वास, अपने परिश्रम, अपनी ईमानदारी और सूझबूझ के आधार पर वह धीरे-धीरे अपना काम बढ़ाता है। आज बिट्टू टिक्की वाले (ठज्ॅ) उत्तर भारत का एक बड़ा ब्रांड बन गया है। यही भाव है आत्मनिर्भरता का, यही भाव है स्वावलंबन का, यही है स्वदेशी मंत्र।

इसी तरह कोयंबटूर के रहने वाले वाइकिंग बनियान के मालिक जिनका टर्न ओवर लगभग 2000 करोड़ रुपए का है, अपनी दादी के प्रोत्साहन व घरेलू मदद से ही (3 बार विफल होकर भी) आज एक बड़े उद्योगपति हैं। उनकी कंपनी ने ढाई हजार लोगों को रोजगार दिया हुआ है। स्वावलंबन या आत्मनिर्भरता का मूल है आत्मविश्वास। यह अपने आपको अलग-थलग करना नहीं, बल्कि आत्मविश्वास के आधार पर दूसरों को भी सुखी व संपन्न बनाने का विचार है। व्यक्ति का अपने व अपने परिवार पर, गांववासियों का अपने गांव की सामूहिक ताकत पर विश्वास ही स्वदेशी विचार है। मध्य प्रदेश का गांव मोहहद इसका उदाहरण है, कि कैसे उस गांव के व्यक्तियों ने आपस में सूझबूझ, सहयोग, उद्यमिता और बुद्धिमता के आधार पर एक सुंदर विकसित व आत्मनिर्भर गांव का निर्माण किया है। वहां आपसी झगड़े ना के बराबर है और अगर होते भी हैं तो वे आपस में ही बातचीत से सुलझा लेते हैं। ऐसे अनेक गांव ‘ग्राम विकास’ गतिविधि द्वारा विकसित हुए है।

स्वदेशी आंदोलनः अति प्राचीन पर नित नूतन भी है

इसी स्वदेशी भाव के जागरण को ही कभी आजादी से पूर्व पंजाब में संत रामसिंह कूका ने कूक लगाते हुए लोगों में प्रचारित किया। कभी इसी स्वदेशी भाव को ही बंकिमचंद्र चटर्जी ने 1892 में अपने प्रसिद्ध उपन्यास ‘आनंदमठ’ में वंदेमातरम गीत के रूप में उभारा। कभी इसी स्वदेशी के विचार को ही लाल-बाल-पाल की तिकड़ी ने संपूर्ण भारत में स्वदेशी स्वराज का मंत्र बना दिया। जिससे 1906 से 1911 के बंग-भंग आंदोलन को आवश्यक बल मिला। यही स्वदेशी का ही विचार था जिसे गांधी जी ने चरखे के माध्यम से जन-जन में अंग्रेजों के प्रति, अंग्रेजों की शोषणकारी वृत्ति के प्रति सचेत किया। उन्हें कष्ट सहन करके भी अंग्रेजों के विरुद्ध खड़ा कर दिया और अंततः स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त हुआ। वही स्वदेशी की भावना आज भी प्रासंगिक है।

स्वदेशी, स्वावलंबन के क्रियात्मक रूप - कुछ प्रकल्प

स्वदेशी का भाव यदि स्पष्ट हो तो कैसे एक सामान्य किसान भी अच्छी कमाई व रोजगार कमाता है, इसका एक उदाहरण देखिए। हरियाणा में कुरूक्षेत्र के नजदीक मेहरा ग्राम में राजकुमार आर्य रहते हैं। यद्यपि उनको भी सभी ने कहा कि खेती तो घाटे का सौदा है (जो भारत में सामान्य धारणा भी है) किंतु उन्होंने निश्चय किया कि न केवल खेती से, बल्कि यूरिया अथवा कीटनाशक दवाइयों वाली नहीं, बल्कि गौ-आधारित प्राकृतिक खेती से ही मैं अपनी फसल उगाऊंगा, और ऐसा उन्होंने किया भी। केवल 11-12 एकड़ जमीन में ही उन्होंने खेती शुरू की। देसी गाय व उसके गोबर, मूत्र आदि से ही खाद व कीटनाशक का निर्माण किया और धीरे-धीरे उनकी फसल के दाम अच्छे मिलने लगे। आज उनकी खेती क्योंकि पूर्णतया 100 प्रतिशत प्राकृतिक रहती है, इसलिए वह गेहूं का 5000 रू. प्रति क्विंटल तक का भी मूल्य ले लेते हैं। प्राकृतिक खेती से न केवल किसान की आय बढ़ती है, बल्कि कीटनाशक व यूरिया आदि का उपयोग न होने से जनस्वास्थ्य का भी बहुत लाभ रहता है।

इसी तरह तेलंगाना के हैदराबाद के निकट नागरत्नम नायडू हैं, स्वदेशी जागरण मंच के कार्यकर्ता हैं, उनके पास उनके पूर्वजों की 13 एकड़ पथरीली जमीन थी, किंतु स्वदेशी व सात्विक विचार होने के कारण से उन्होंने उस पथरीली जमीन को ही धीरे-धीरे ठीक करना शुरू किया। गाय, गोबर व गो-मूत्र की सहायता ली और आज उनकी वही 13 एकड़ भूमि बहुत अच्छी फसलें देती है। अच्छा मूल्य भी फसल का मिलता है। अनेक प्रकार के पुरस्कार भी उन्हें प्राप्त हुए हैं। यहां तक कि तेलंगाना सरकार की एक कैबिनेट बैठक भी उनके खेत पर हो चुकी है। कृषि मेले में मिलने वाले पुरस्कार से लेकर राष्ट्रपति तक के पुरस्कार उन्हें मिले हैं।

स्वावलंबन का ही एक अन्य उदाहरण है- लिज्जत पापड ़उद्योग। 1964-65 में मुंबई के निकट कुछ गृहिणियों द्वारा शुरू किया गया पापड़ बनाने का कार्य धीरे-धीरे विस्तार लेने लगा। उन महिलाओं की ईमानदारी, गुणवत्ता के प्रति समर्पण, परिश्रम और सबसे ऊपर आपस में सहकार ने उस कार्य को आज एक 400 करोड़ रुपए के उद्योग में बदल दिया है। यह उद्योग 42,000 महिलाओं के जीवनयापन का स्त्रोत है। ये महिलाएं किसी कंपनी या सरकार की नौकरी नहीं करती, बल्कि वे स्व-रोजगारी हैं, स्वाभिमानी हैं और आत्मनिर्भर हैं।

भारत के कुछ बड़े सफल स्वदेशी प्रकल्प!

स्वदेशी का भाव, देशभक्ति का भाव, आत्मविश्वास का भाव जब क्रियान्वित होता है, तो अमूल जैसे संस्थान खड़े होते ही हैं। 1946 में गुजरात के खेड़ा गांव में कोई 100 किसानों ने 250 लीटर दूध एकत्र कर मुंबई की पोलसर कंपनी को भेजना शुरू किया। उनका मार्गदर्शन सरदार वल्लभ भाई पटेल, त्रिभुवन पटेल व करसन भाई ने किया। शुरुआती कठिनाइयों के पश्चात उन्होंने आपस में सहकार के आधार पर एक सोसाइटी बनाकर कार्य करने का निर्णय लिया। सहकार, परिश्रम, ईमानदारी के आधार पर बढ़ना शुरू किया। धीरे-धीरे अन्य किसान भी जुड़ने शुरू हुए और बाद में वर्गिस कूरियन, जिन्हें भारत का मिल्कमैन कहा गया, वह उस ग्रुप के डायरेक्टर बने। उन्होंने उन किसानों के दूध को ठीक से प्रोसेस करने की प्रक्रिया शुरू करवा दी। आज अमूल एक बड़ा संस्थान बन गया है जिसमें कुल 36 लाख किसान जुड़े हुए हैं। कोई विस्थापन नहीं, कोई शोषण नहीं, बल्कि सबको अपनी हिम्मत और क्षमता के अनुसार विकसित होने का अवसर है। आज अमूल दुनिया के 80 देशों में अपने उत्पाद भेजता है, 40,000 करोड रुपए की टर्नओवर वाली कंपनी बन गया है अमूल। किंतु उसके घटक कौन हैं? गुजरात व देश के सामान्य किसान! न कि सुदूर यूरोप, अमेरिका में बैठे हुए कोई शेयर होल्डर।

इसरोः ‘हां हम कर सकते हैं’, इस वाक्य का प्रतीक है, अपना इसरो। 2012 में अमरीका के राष्ट्रपति चुनाव में बराक ओबामा दूसरी बार चुनाव लड़ रहे थे। उस चुनाव में कैलिफोर्निया की एक चुनावी सभा के सामने अपना मुख्य भाषण करते हुए उन्होंने एक वाक्य दोहराया “यस वी कैन“ इस वाक्य ने वहां की विशेषकर अश्वेत जनता के मन में, एक आत्मविश्वास व स्वाभिमान भर दिया और अमेरिका को पहला अश्वेत राष्ट्रपति मिला। इसरो भी भारत की स्वदेशी कथा का विस्तार है। हां! मैं कर सकता हूं, हम कर सकते हैं! यह इस विचार का प्रतीक है। प्रो. सतीश धवन से लेकर वर्तमान के किरण कुमार तक के हमारे वैज्ञानिकों ने दिखा दिया कि हम चांद व मंगल पर भी अपने यान भेज सकते हैं। दुनिया में सबसे सस्ते और सबसे गुणवत्ता वाले उपग्रह अंतरिक्ष में सफलतापूर्वक पहुंचा सकते हैं। एक साथ 104 उपग्रह भेजकर विश्व में कीर्तिमान स्थापित कर सकते हैं। टेक्नोलॉजी अविष्कार में विश्वास, पूर्ण गुणवत्ता व आत्मविश्वास सहित तालमेल (टीमवर्क), जैसे गुणों की वजह से ऐसे सफल संस्थान खड़े हुए हैं।

योगः भारत ने सारी दुनिया को योग देकर उपकृत किया है। 21 जून को सारा संसार योग दिवस के रूप में मनाता है। योगाभ्यास का यह श्रेष्ठ विचार भारत के मनीषियों ने दिया, जो न केवल शरीर को निरोग बनाता है बल्कि मन को शांति व स्थिरता देता है। जब इसे भारत ने वैश्विक स्तर पर मनाने का प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र संघ (यूनाइटेड नेशन) के सम्मुख प्रस्तुत किया तो न केवल उसको निर्विरोध मान्यता मिली, बल्कि वह सबसे कम समय में पारित होने वाला प्रस्ताव भी बना। योग न केवल मानवता को स्वस्थ और प्रसन्न कर रहा है बल्कि इसके कारण से लाखों लोगों को रोजगार भी मिल रहा है। योग व उससे जुड़ी हुई मार्केट का साइज अब दुनिया में 120 अरब डालर तक पहुंच गया है। यद्यपि इसमें भी 40 अरब डॉलर तक की मार्केट अमेरिका के ही पास है। चाहे जो भी हो लेकिन यह भी सच है कि योग के कारण से अर्थ-चक्र भी घूमता है और इसके कारण से लाखों लोगों को रोजगार भारत में ही मिला हुआ है।

इसी कड़ी में पतंजलि योग संस्थान भी है जो योग प्राणायाम के अलावा आयुर्वेदिक औषधियों का भी एक बड़ा केंद्र के नाते विकसित हो गया है। फिर खादी ग्रामोद्योग को कौन नहीं जानता, 1956 में खादी ग्रामोद्योग को सरकार ने स्थापित किया और धीरे-धीरे करके सारे देश में यह एक स्थाई और विकसित तंत्र बन गया। आज लगभग बीस लाख लोग इसमें जुड़े हुए हैं, इससे ही रोजगार पाते हैं। इसका कुल टर्नओवर 88,800 करोड़ रुपए का है। दुनिया भर में खादी का एक्सपोर्ट भी हो ही रहा है।

आर्थिक दिषा परिवर्तन का ऐतिहासिक समय

चहे व्यक्ति हो, देश हो या दुनिया, सबके जीवन-इतिहास में कुछ न कुछ निर्णायक परिवर्तन के पल आते ही हैं। दुनिया में देखें, तो 1917 की रूस में हुई वॉलशेविक क्रांति तथा 1914 से 1919 तक का प्रथम विश्व युद्ध यह निर्णायक परिवर्तन का पहला चरण था। दूसरा चरण 1939 से 1945 तक का द्वितीय विश्व युद्ध और यू.एन.ओ., आई.एम.एफ., वर्ल्ड बैंक के उदय का समय (1944 से 1949) और तीसरा चरण है- 1990-95 का समय,  यानि गैट वार्ताओं और विश्व व्यापार संगठन के प्रारंभ का समय।

भारत के इतिहास के हिसाब से देखेंगे तो 1947 में स्वतंत्रता के पश्चात नेहरू जी के सामने यह एक बड़ा प्रश्न था कि देश को कौन से आर्थिक मॉडल पर लेकर आगे जाना है? उन्होंने रूस का वामपंथी मॉडल ही अपनाने का निर्णय किया। हालाँकि यह समाजवादी मॉडल, जिसे महालनोबिस मॉडल भी कहा जाता है, भारत की प्रकृति के अनुरूप नहीं था किंतु फिर भी इसे लाया गया। महालनोबिस जो एक वामपंथी झुकाव वाले अर्थशास्त्री थे, व रूस का गहन अध्ययन करके आए थे, उनके विचार के आधार पर ही पंचवर्षीय योजनाएं इत्यादि चलाई गई।

इस मॉडल की विशेषता यह थी कि हर एक चीज पर, यानि उत्पादन केन्द्रों से लेकर वितरण के केन्द्रों तक पूरी तरह सरकार का ही नियंत्रण था। जिसे ‘कोटा परमिट राज’ भी कहते हैं। छोटे ट्रांजिस्टर से लेकर कार, बस आदि सबके लिए लाइसेंस लेना पड़ता था। बड़े-बड़े बांध, बड़ी-बड़ी बिजली परियोजनाएं, बड़े-बड़े शहरों का निर्माण इसकी विशेषता थी। लेकिन इस मॉडल में कृषि और गांव की अवहेलना की गयी थी। विडम्बना ही थी कि कार्ल मार्क्स मजदूर क्रांति की बात तो करते थे परंतु किसान को बुजुरवा (इवनतहमवपेपम) मानते थे।

इस अत्यधिक सरकार-नियंत्रित व संचालित विकास मॉडल के कारण से देश के विकास की गति अवरुद्ध होती चली गई। इसका मूल कारण था कि नेहरू जी को भारत का अध्ययन तो था ही नहीं, बल्कि उसमें श्रद्धा भी नहीं थी। गांधी जी के अर्थ चिंतन को वह अव्यावहारिक मानते थे। अपने एक पत्र में उन्होंने स्पष्ट यह बता भी दिया था। भारत की आवश्यकता क्या है? भारत की प्रकृति क्या है? भारत के संसाधन क्या है? इसका अध्ययन किए बिना, एक बाहरी आर्थिक मॉडल पर देश लगभग 40 साल चलता रहा। विकास का पहिया थम सा गया और हालात ऐसे हो गये कि अथाह प्राकृतिक संसाधन व जनसंख्या बल होते हुए भी 1990-91 में भारत की आर्थिक स्थिति जर्जर हो गई। तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर सरकार को देश का 46.91 टन सोना, बैंक ऑफ इंग्लैंड व बैंक ऑफ जापान के माध्यम से गिरवी रखना पड़ा। वहां से मिले डॉलर व आर्थिक सहायता से उस समय का अर्थ-चक्र चल सका। भारत को अपनी आर्थिक नीतियों में अमूलचूल परिवर्तन करने की आवश्यकता थी।

परिवर्तन 2ः वैश्वीकरण का अनुचित मार्ग!

1991 में श्री नरसिंह राव भारत के प्रधानमंत्री बने और मनमोहन सिंह जी ने वित्तमंत्री का कार्यभार सम्भाला। जो समस्या 1950-51 में नेहरू जी के साथ थी वहीं 1990-91 में मनमोहन सिंह के साथ भी थी। मनमोहन सिंह को भी भारत की आर्थिक प्रकृति और भारतीय अर्थ चिंतन की न तो जानकारी थी, न ही आस्था। उन्होंने देश को ‘मार्केट इकोनामी’ या यूं कहें कि पूंजीवादी मॉडल जिसका सर्वोच्च प्रणेता यूरोप और अमेरिका था, उस रास्ते पर ले जाने का तरीका अपनाया।

एल.पी.जी. (स्पइमतंसप्रंजपवदए च्तपअंजपेंजपवद ंदक ळसवइंसप्रंजपवद) तो मानो उस समय का मंत्र ही बन गया। संपूर्ण भारत में उसको परम उद्धार का मंत्र माना गया। उस समय राष्ट्रऋषि दत्तोपंत ठेंगड़ी (स्वदेशी जागरण मंच के संस्थापक) ने इस विकास मॉडल की निरर्थकता और भविष्य में आने वाली कठिनाइयों के बारे में सचेत किया था। तभी उन्होंने उद्घोष किया था “न पूंजीवाद, न साम्यवाद, हमें चाहिए राष्ट्रवाद।“

इस नए विकास मॉडल के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों के रास्ते खोल दिए गए। सरकारी नियंत्रण धीरे-धीरे करके खत्म कर दिए गए। आवश्यक लघु उद्योग के उत्पादों को आरक्षित सूची से बाहर कर दिया गया। हर चीज में निजीकरण की प्रक्रिया प्रारम्भ हो गयी और निजीकरण के नाम पर विदेशी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अनुमति दी जाने लगी। तेल, साबुन से लेकर हवाई जहाज तक बनाने के लाइसेंस विदेशी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को मिलने लग गए।

इस विकास के मॉडल से भारत के विकास दर में एक बार गति तो अवश्य आई, किंतु यह पर्यावरण-भक्षी, अत्यधिक उत्पादन और अत्यधिक उपभोग के विचारों पर आधारित है। इस मॉडल पर निर्भरता के कारण 2008 आते-आते तक अमेरिका, यूरोप तथा विश्व भर में एक बड़ी आर्थिक मंदी आ गई। जिस मॉडल की निरर्थकता को ठेंगड़ी जी ने 1990-91 में ही स्पष्ट कर दिया था, वह दुनिया के सामने आ गई। और यदि कोई बाकी कसर रह गई थी तो वह इस कोरोना ने आकर पूर्ण कर दी।

आज, सारी दुनिया को विकास के इस मॉडल की निरर्थकता समझ में आ गई है। सारी दुनिया की अर्थव्यवस्था में पुनः मंदी आ गई है।

कठिनाई को अवसर में बदलो

भारत ने इस कठिन परिस्थिति को अवसर में बदलने की एक निर्णायक पहल की है, भारत ने भारतीय विकास मॉडल की तरफ कदम बढ़ाए हैं। स्वदेशी ही भारतीय विकास मॉडल है और इसका अपनाया जाना, यह समय की आवश्यकता है। पिछले 20-22 वर्षों से भारत अलग-अलग क्षेत्रों में भारतीय चिंतन को स्थापित कर ही रहा है। अब आर्थिक क्षेत्र में भी भारतीय चिंतन यानि विकास के भारतीय मॉडल को लाने का समय आया है। 26 अप्रैल 2020 को नागपुर से दिए अपने उद्बोधन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन जी भागवत ने इस नए आर्थिक विकास मॉडल का आह्वान किया। संपूर्ण भारत को यह लगने लगा है कि अब स्वदेशी विचार यानि विकास के भारतीय मॉडल को उचित रूप में लागू करने का समय आ गया है। आज सारा भारत धीरे-धीरे स्वदेशी विचार से जुड़ रहा है।

स्वदेशी के इसी विचार को ही प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने पहले ग्राम सरपंचों के सम्मेलन में, तथा 12 मई को अपने उद्बोधन में ‘आत्मनिर्भर भारत अभियान’ कहकर संबोधित किया और उन्होंने “स्थानीय खरीदो-भारत में ही बनाओ“ के इस स्वदेशी मंत्र को देश का मंत्र बना दिया और यह समय के अनुसार आवश्यक भी है।

इस समय स्थानीय उत्पाद और स्वदेशी निर्माण का न केवल उचित समय आ गया है, बल्कि उस विचार को व्यावहारिक रूप देने की इच्छाशक्ति भी सरकार में दिख रही है। स्वदेशी के प्रति समाज की बढती चेतना और प्रबल सहयोग भारत में होने वाले इस ऐतिहासिक आर्थिक परिवर्तन का गवाह बनेगा। आने वाले समय में निश्चित रूप से भारत, भारतीय चिंतन के आधार पर न केवल आर्थिक क्षेत्र में; बल्कि समाज जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी, वर्तमान की आधुनिक परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए तथा नए विचारों को अपने अंदर समाहित करते हुए एक नए विकास के प्रतिमान को खड़ा करने में निश्चित रूप से सफल होगा।

भारतीय विकास प्रतिमान के कुछ प्रमुख सूत्र

यह प्रतिमान स्थानीय आवश्यकताओं, स्थानीय संसाधनों और स्थानीय योजनाओं पर बल देता है। यह प्रतिमान भारत जैसे विशाल देश को विकेंद्रित अर्थव्यवस्था का विचार देता है। जिसकी सबसे निचली इकाई ग्राम है। इसलिए आत्मनिर्भर ग्राम से आत्मनिर्भर भारत की विकास यात्रा शुरू होगी और यह ग्राम समूह, जनपद (जिला) व राज्य से होती हुई केंद्र तक जाएगी। अर्थशास्त्रियों ने पूंजीवाद के (ज्तपबासमकवूद मिमिबज) सिद्धांत को असफल मान लिया है जिसमें ऊपर से नीचे विकास की धारा आने की बात कही जाती थी। भारतीय अर्थ-चिंतन ऊपर से नीचे नहीं, बल्कि नीचे से ऊपर जाता है। जैसे एक पेड ़का, पहले बीज उगता है, फिर अंकुरित होता है, फिर पौधा बनता है फिर पेड़ और अंततोगत्वा एक विशाल वट वृक्ष बन जाता है। यह स्वाभाविक (प्राकृतिक) विकास की प्रक्रिया है। मनुष्य हो, जीव जंतु हो अथवा प्रकृति, विकास की यही प्राकृतिक और वास्तविक पद्धति है। पश्चिमी चिंतन में इसके उलट विचार हुआ, इसलिए पश्चिमी मॉडल में बहुत सी कठिनाइयां आईं। लेकिन भारत में हजारों वर्षों तक इसी प्राकृतिक विकास की प्रक्रिया, पर आधारित, स्वदेशी विकास मॉडल अपनाया गया। जिसके कारण हजारों वर्षों के भारत के इतिहास में कभी आर्थिक मंदी नहीं आई और न ही कभी पर्यावरण विनाश हुआ।

स्वदेशी एक समग्र विचार

स्वर्गीय दत्तोपंत ठेंगड़ी जी बार-बार कहा करते थे कि स्वदेशी केवल वस्तुओं की खरीद-फरोख्त अथवा आथिर्क विषयों तक सीमित नहीं है। बल्कि यह एक समग्र विचार है, एक संपूर्ण जीवन शैली है। हजारों वर्षों से जिस विचार के इर्द-गिर्द संपूर्ण जीवन की रचना हमारे यहां हुई, उसे हम स्वदेशी विचार यानि समग्र विचार या आज की भाषा में विकास का भारतीय मॉडल भी कह सकते हैं।

स्वदेशी की अवधारणा में भारतीय सभ्यता, संस्कृति, शिक्षा पद्धति, अपने गौरवशाली अतीत का भान, हमारा परिवार व पर्यावरण की सुरक्षा आदि विषय शामिल रहते हैं। इस समग्र विचार को एक दर्शन का रूप देते हुए वर्षों पूर्व पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी ने इसे ’एकात्म मानवदर्शन’ कहा था। पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी ने यह भी कहा था कि भारतीय अर्थव्यवस्था को अगर ठीक करने के उपाय दो शब्दों में बताने हों तो वे हैं- स्वदेशी व विकेंद्रीकरण। इस स्वदेशी विषय का ही प्रमुख भाग है- पर्यावरण। आज विश्व पर्यावरण विनाश के कारण त्रस्त है। यह कोरोना की बीमारी भी उसी के ही अनेक परिणामों में से एक है। दुनिया में शायद कोरोना से ज्यादा मौतें तो पर्यावरण विनाश के दुष्भावों के कारण होती हैं। स्वदेशी का विचार है- प्रकृति का दोहन करो, शोषण नहीं। पश्चिमी विचार शोषण पर आधारित है, स्वदेशी विचार (भारतीय विचार) दोहन पर आधारित है। जेसै गाय का दूध लेना, यह दोहन है- प्राकृतिक है। उसे काटकर खाना (बीफ) विकृति है - विदेशी विचार है। पेड़ से फल-फूल, टहनियां लकड़ी लेना- प्राकृतिक है, स्वदेशी है। किंतु जंगलों को अपने उपभोग के लिए अंधाधुंध काट लेना, विकृति है- विदेशी विचार है। स्वदेशी भाव में प्रकृति को मां के रूप में विचार किया गया है। इसलिए भारत ने जल से लेकर प्रकृति की अन्यान्य वस्तुओं में भी मां व देवी-देवताओं को देखा है। उदाहरण के तौर पर गंगा को हम मां कहते हैं, गाय को तो ‘माता’ कहते ही है। जिससे भी जीवन की पुष्टि होती है, स्वदेशी ने उसको मां का दर्जा दिया है। इसीलिए तो भारतीय, पीपल में विष्णु से लेकर कौवे तक में काकभुशुण्डि का सात्विक भाव रखते हैं। जबकि पश्चिमी विचार ने असीमित उपभोग को ही लक्ष्य मानकर न केवल अपने देशों में, बल्कि अफ्रीका से लेकर ऑस्ट्रेलिया तक के सब जंगल काट डाले। धरती को संपूर्ण दुनिया में खोद डाला। समुद्रों को निचोड़ रहे हैं। यह जो दक्षिण हिंद महासागर में चीन, आसियान देश व अमेरिका लड़ रहे हैं, या उत्तरी समुद्र में चीन, जापान और अमेरिका लड़ रहे हैं तो वास्तव में ये सब देश समुद्र के अंदर की अथाह प्राकृतिक संपदा को लूटने के विचार से ही संघर्षरत हैं।

धरती के गर्भ से लगातार तेल, कोयला तथा अन्य खनिज निकालकर मनुष्य ने अपने उपभोग के लिए सब प्रकार के उद्यम किए हैं। उसका परिणाम यह हुआ है कि धरती, समुद्र, वायुमंडल और नीचे भूगर्भ में, सब जगह विनाश हो रहा है। आज पृथ्वी के वायुमंडल में स्थित ओजोन की परत, जिसके कारण से सूर्य की अल्ट्रावायलेट किरणें सीधे धरती पर नहीं आती, उसमें बड़े-बड़े छेद हो गए हैं। क्या प्रकृति उसी का प्रतिकार कर रही है, कि पिछले 3 महीनों से (कोरोना के कारण) दुनिया भर की फैक्ट्रियां बंद हुई हैं।

पर्यावरण की इसी समस्या से धरती गर्म हो रही है। समुद्र का जल स्तर बढ़ने के कारण से 50 देशों के लिए खतरा बन रहा है। 4 वर्ष पूर्व फ्रांस के पेरिस में हुई सी.ओ.पी. 21 (पर्यावरण बचाने का सम्मेलन) में 172 देशों के राष्ट्राध्यक्ष आए। पर्यावरण को विनाश से बचाने के लिए उन्होंने ब्व्च्.21 या ’पेरिस समझौता’ नाम का ऐतिहासिक समझौता भी किया। स्वदेशी विचार कहता है कि पर्यावरण का संरक्षण करते हुए विकास करना। पर्यावरण हितैषी विकास ही सतत विकास (ैनेजंपदंइसम क्मअमसवचउमदज) हो सकता है। अत्यधिक ऊर्जा-भक्षी और पर्यावरण विनाशक विकास यह सतत विकास नहीं हो सकता। इसके कारण से रूकावटे तथा समस्याएं तो आयेंगी ही। भारत ने हजारों वर्ष तक सम्यक प्राकृतिक सदपुयोग से इसका ध्यान रखा है।

ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के सीनियर प्रोफेसर एंगस मेडिसन केमब्रीज ने अपनी विस्ततृ रिपोर्ट (मिलेनियम पर्सपेक्टिव इकोनॉमिक हिस्ट्री ऑफ वर्ल्ड) में लिखा कि शून्य-।क् से लेकर 1500 ईसवी तक दुनिया के सकल घरेलू उत्पाद में भारत का अंश लगभग एक तिहाई अथवा 33 प्रतिशत तक था। मध्यकाल में अंग्रेजों, मंगोलों, मुगलों, पुर्तगीज आदि की सब प्रकार की लूट के बावजूद भी भारत का अंश 22 प्रतिशत तक (1720) रहा। परंतु भारत ने पर्यावरण का विनाश किया हो, ऐसा किसी ने नहीं सुना। क्योंकि भारतीय विकास मॉडल, विकास की उस अवधारणा पर अवलंबित है कि यदि सतत विकास करना है तो वह पर्यावरण हितैषी व विकेंद्रित विकास ही होना चाहिए।

भारतीय परिवारः स्वदेशी के प्रमुख विचारों तथा बिंदुंओं में से एक विषय परिवार का है। प्रकृति ने यह परिवार व्यवस्था केवल मनुष्यों में ही विकसित नहीं की है बल्कि सब जीव जंतुओं में भी परिवार भाव प्रबल रहता है। किंतु यहां भी पश्चिमी सोच ने अपने दुष्परिणाम दिखाए हैं। अमेरिका तथा यूरोप में परिवार व्यवस्था बहुत दुर्बल है, परिवार जो सुख, सुरक्षा और विकास का प्रथम केंद्र है, वही कमजोर होने से वहां के समाजों में डिप्रेशन, बीपी, शुगर तथा हाइपरटेंशन इत्यादि व्याधियों की संख्या अत्यधिक बढ़ी हुई है।

अमेरिकी कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष ने एक बार कहा था “वट पुअर सोसायटी वी आर मेकिंग, 12 यीज़र्स बेबीज़ आर प्रडूसिंग बेबीज़; बी.पी., शुगर, एंड हायपर्टेंशन आर नोमर्ल इन आवर सोसायटी नाउ”। आवर कंट्री इज बीकमिंग ओपन ऐयर हॉस्पिटल।

लंदन में 60 प्रतिशत लोगों को रात्रि में 6 घंटे सोने के लिए कुछ न कुछ दवाई लेनी पड़ती है। अकेले टेक्सास शहर में ही 120 हार्ट के अस्पताल हैं। जबकि भारत में हजारों सालों से परिवार व्यवस्था अत्यंत मजबूत होने के कारण से यहां पर न केवल सामाजिक, बल्कि मानसिक व शारीरिक द्वंद बहुत कम रहते हैं। भारत में परिवार का अर्थ केवल पति-पत्नी व बच्चे नहीं है, बल्कि हमारे यहां कुटुंब की अवधारणा है, जिसमें नाना, चाचा, ताया-ताई, मौसा-मौसी, दादा-दादी आदि सब रहते हैं। यद्यपि यहां भी पश्चिमी सभ्यता का असर दिखने के कारण से महानगरीय क्षेत्रों में कुछ कमियां आ रही हैं। फिर भी भारतीय समाज प्रमुख रूप से परिवार व्यवस्था के प्रति बड़ा समर्पित है। इसलिए यहां का समाज शांत, सुखी एवं परस्पर अवलंबी है। हमारी ’गांव एक परिवार’ की अवधारणा अभी भी 50 प्रतिशत से अधिक आबादी का अघोषित विचार है। हमारे परिवारों में बचत की संस्कृति, यह भी एक विशेष गुण है। आज भी भारत के गरीब से गरीब परिवार में कुछ ना कुछ सोना अवश्य मिल जाएगा। भारतीयों के बचत की दर यद्यपि पिछले 15-20 वर्षों में कम हुई है, फिर भी यह दुनिया के विकसित देशों के मुकाबले अभी भी काफी ठीक है। 37 प्रतिशत दर से बचत करने वाला देश आजकल 27 प्रतिशत के आसपास है, जबकि अमेरिका और यूरोप के अधिकांश देश 10-11 प्रतिशत से अधिक बचत नहीं करते। इसी बचत-संस्कृति के कारण ही किसी भी प्रकार की समस्या के समय न केवल परिवार सुरक्षित रहते हैं, बल्कि सामान्य दिनों में भी उनके मन में एक गहरा सुरक्षा बोध रहता है कि उनके पास किसी भी समस्या से निबटने के लिए पर्याप्त पैसा अथवा सोना-चांदी है। स्वदेशी चिंतक गुरूमूर्ति जी ने इस विषय पर विस्तार से अध्ययन करते हुए बताया है कि कैसे एशियाई देशों में और विशेषकर भारत में जो बचत संस्कृति है, उसका प्रभाव हमारे यहां की अर्थव्यवस्था से लेकर परिवारों की खुशहाली तक पड़ता है। जबकि अमेरिका तथा यूरोप में बचत संस्कृति ना होने के कारण से सरकारों के सोशल रेस्पोन्सिबिलिटी बिल बजट का 35 प्रतिशत रहता है। बचत स्वदेशी विचार का एक अंग ही है।

आइए बनाएं नया भारत, स्वदेशी भारत।

कोरोना महामारी के इस समय पर संपूर्ण भारत में एक नए विचार ने या पुराने विचार के नए संस्करण ने सारे देश को रोमांचित किया है। यह स्थानीय खरीदो का विचार, स्वावलंबी ग्राम का विचार, स्वावलंबी भारत का विचार, स्वदेशी का विचार संपूर्ण भारत की जड़ों से जुड़ा होने के कारण, देश के प्रत्येक नागरिक को स्पंदित कर रहा है।

इस प्रक्रिया को ठोस स्वरूप देने के लिए, संपूर्ण समाज के चिंतनशील वर्ग को आगे आना चाहिए। सामान्यजन के द्वारा स्थानीय खरीद की प्रक्रिया से लेकर अर्थशास्त्रियों द्वारा नए चिंतन के आधार पर हर क्षेत्र की आर्थिक, सामाजिक, योजनाओं और चिंतन को योजनाबद्ध किए जाने का समय है। संपूर्ण देश में इस नए परिवर्तन की प्रक्रिया के हम सब साक्षी बने।

स्वामी विवेकानंद ने कहा था “मैं भविष्यदृष्टा नहीं हूं, ना ही भविष्यवाणियों में विश्वास रखता हूं, लेकिन एक बात जो मैं अपने चर्म चक्षुओं से स्पष्ट देख रहा हूं, वह यह है कि भारत माता पुनः विश्वगुरु के सिंहासन पर आरूढ़ होकर पहले से अधिक तेज गति के साथ दुनिया का मार्गदर्शन करने जा रही है।“ लगता है स्वामी विवेकानंद के विचारों के सत्य-सिद्ध होने का समय आ गया है।

जैसे कोरोना की लड़ाई में हमने दुनिया के सामने एक उत्तम उदाहरण प्रस्तुत किया है। ऐसे ही भविष्य के आर्थिक चिंतन में भी, भारत का चिंतन और भारतीय विकास मॉडल, संपूर्ण दुनिया के लिए एक आदर्श उदाहरण बनेगा। जिसका अनुकरण संपूर्ण विश्व करेगा।

जय स्वदेशी - जय भारत ।


स्वदेशी- स्वावलम्बन की और भारत
(महत्वपूर्ण बिन्दु)

1. विश्व में समाजवाद एवं पूंजीवाद पर आधारित अपनाए गए आर्थिक विकास के मॉडल विफल साबित हुए। अतः स्वदेशी जागरण मंच के संस्थापक दत्तोपंत ठेंगड़ी जी का कथन ‘न साम्यवाद, न पूंजीवाद, हमें चाहिए राष्ट्रवाद’ अधिक सार्थक प्रतीत होता दिखता है। सरल शब्दों में स्वदेशी-स्वावलम्बन ही भारतीय विकास का यह मॉडल है। स्वदेशी एक व्यापक विचार हैं। यह मात्र वस्तुओं या सेवाओं के प्रयोग तक सीमित नहीं, बल्कि देश प्रेम, शोषणमुक्त एवं आर्थिक रूप से सम्पन्न होने का विचार है।

2. वैश्विक आर्थिक परिदृश्य जल्दी से बदल रहा है। करोना से पहले भी विश्व आर्थिक मंदी के दौर से गुजर रहा था। विश्व के अधिकतर विकसित देश कम विकास दर तथा बेरोजगारी जैसे गंभीर स्थिति का सामना कर रहे थे। डोनाल्ट ट्रम्प द्वारा चीन के खिलाफ व्यापार युद्ध, टी.पी.टी. एवं ब्व्च्-21 संधिओं से बाहर आना, भ्1ठ वीजा कानून कड़े करना तथा ब्रेक्जिट आदि निर्णय, वैश्विकरण के विफलता की ओर इशारा करते है। भारत में भी 1991 के पश्चात से अपनाई नई नव-उदारवादी नीतियों ने बेरोजगारी समस्या को और गहरा किया।

3. कोरोना की वैश्विक महामारी से लाखों लोगों ने अपनी जान गवाई और करोड़ो लोग अपने रोजगार को खो देंगे। भारत की अर्थव्यवस्था पर भी इसका बुरा असर पड़ रहा है। विश्व में अपनाए जा रहे जिस विकास के मॉडल के कारण ऐसी बिमारियां फैलती हैं तथा पर्यावरण का विनाश होता हैं उसके वैकल्पिक मॉडल के तलाशने की आवश्यकता है, जो भारत का स्वदेशी-स्वावलम्बन का मॉडल है। कोरोना के बाद से सभी देश इस महामारी से निपटने एवं अपनी अर्थव्यवस्थाओं को बचाने में लगे हुए है। ऐसा लगता है कि करोना के बाद अर्थव्यवस्थाओं का स्वरूप अर्न्तमुखी होगा। चीन की स्थिति एवं विश्वनियता कमजोर होगी तथा वहां से कम्पनियां निकलकर भारत एवं आशियान देशों में जा सकती है। अमेरिका भी आज जीवन मानव मूल्यों के महत्व को समझ रहा हैं। विश्व को यह समझ आ रहा है कि स्वदेशी का महान विचार ‘एकात्मक मानव दर्शन का विचार’ केवल भारत के लिए ही नहीं संपूर्ण मानवता के भविष्य के लिए है। विश्व को मात्र एक बाजार समझने वाले देश आज भारत के ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ विचार को समझने के इच्छुक हुए हैं।

4. भारत में स्वावलम्बन के कुछ सफल प्रयोग हैं जैसे- बिट्टू टिक्की वाला, कोयम्बटूर में वाइकिंग बनियान कम्पनी, प्रकृति खेती के प्रयोग, अमूल जैसा बड़ा ब्रांड व इसरो संस्थान आदि।

5. भारत में एल.पी.जी. (स्पइमतंसपेंजपवदए च्तपअंजपेंजपवदए ळसवइंसपेंजपवद) आधारित पूंजीवादी विकास के मॉडल से विकास की दर में गति तो आई है, परन्तु इसके पर्यावरण-भक्षी, अत्यधिक उत्पादन और अत्यधिक उपभोग के विचारों पर आधारित होने के कारण नुकसान अधिक हुआ है। इस मॉडल को बदलने की तथा स्वदेशी-स्वावलम्बन आधारित भारतीय विकास के मॉडल को अपनाने की आवष्यकता है।

6. संपूर्ण विश्व एवं भारत आज कठिनाई के दौर से गुजर रहा हैं, आज आवश्यकता हैं कठिनाई को अवसर में बदलने की। 26 अप्रैल 2020 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन जी भागवत ने इसकी ओर संकेत किया तथा प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने 12 मई 2020 को स्थानीय खरीदों-भारत में ही बनाओं (वोकल फोर लोकल) का मंत्र दिया।

7. स्वदेशी का यह मॉडल स्थानीय आवश्यकताओं, स्थानीय साधनों तथा स्थानीय योजनाओं पर बल देता है। यह विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था को विचार देता है। यह समग्र विचार एवं सम्पूर्ण जीवन शैली हैं। स्वदेशी का विचार है, प्रकृति का दोहन करो, शोषण नहीं। स्वदेशी का यह विचार, बचत संस्कृति व भारतीय परिवार व्यवस्था को सुदृढ़ करने का भी है। ◆◆◆◆◆◆★★★★★★●●●●●


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Tuesday, June 9, 2020

स्वदेशी कहानियां चोर, भैंस व घंटा

1. मुद्दे भटकाना: चोर व घंटी
2. ग़लत विश्लेषण का नुकसान, एक्सरे में कॉकरोच
3. गौमाता के प्रति अंधा प्यार: आयल पेंटिंग नहीं देसीघी कि देदो।
4.भारतीय चुस्त, तेज दिमाग : हेलीकाप्टर से लटके
5. चीन भगवान ने दे कॉपी पेस्ट, दे कॉपी पेस्ट
6. . पैमाइश करने का क्राइटेरिया, पैमानाअलग होता दादी की कैल्शियम गोली
7. दुनियादारी, कुंवारा,, स्वीट होम शादीशुदा ॐ शांति,
8. दादी मां , पढ़ी गीता,फाइनल एग्जाम की तैयारी
9. ठ से ठठेरा , किताबों के इलावा कहाँ देखा होगा।
10. दांतो के डॉक्टर, ज्यादा मुंह न खुलवा!!
11. बेवकूफ खुद बहुत है बेज्जती करवाने वालेलिखने वाला अच्छा, पढ़ने वाला ढक्कन, sms
12. 
13.  बहुत चालाक होते हैं, जब वो भैंस चुराते हैं तो सबसे पहले वो भैंस के गले से घंटे को खोलते हैं। 
14. Consumerism: महिला दो समस्या, अलमारी में
15. .कुंडली मिलवानी है तो सास और
बहू की मिलाया करो..
16. 
17.जन्मदिवस पर पति को प्यार नहीं गिफ्ट
18.  ऐसा आदमी तो ICU मैं मिलेगा, पंडित ने लड़की को समझाया
19. . बजट सुनके दिमाग पक जाता, पत्नी को कहा यदि अल्लू नहीं पक रहा तो उससे थोड़ी देर बात करो
20. जब झगड़ा करना हो तो बहाने हज़ार: अगर मैं नहीं रखती तो बता कौन चुड़ैल रखती है।
फिर 
एक चोर घंटा बजाते हुए पश्चिम की ओर भागता है 
और 
बाकी चोर भैंस को पूर्व की ओर ले जाते हैं। 
गांव के लोग घंटे की आवाज सुन कर पश्चिम की ओर भागते हैं, और 
आगे जाकर चोर घंटे को फेंक कर भाग जाता है।
चोर भैंस चुरा ले जाते हैं
इसलिए गांव वालों के हाथों में सिर्फ घंटा ही आता है
और 


                       *हमारी भैंस* 
"शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य व्यवस्था, महिला सुरक्षा, परिवहन व्यवस्था, कानून-व्यवस्था, भ्रष्टाचार,पीने योग्य पानी,किसान रक्षा,प्रदूषण रहित हवा जैसे और कई अनगिनत  मुख्य मुद्दे हैं।"

             **भैंस का घंटा** 
जीडीपी, ग्रोथ रेट, सेंसेक्स, निफ्टी, आदि आदि, फॉरेन एक्सचेंज रेसर्वेस,
2. कॉकरोच,,
#पाकिस्तान में एक आदमी के फेफड़ों में जिंदा कॉकरोच मिला,,हॉस्पिटल समेत पूरे परिवार वाले चोंक गए,,हड़कंप मच गया,,डॉ ने कहा कि अगर मरीज को बचाना है तो तुरन्त ऑपरेशन करना पड़ेगा,,डॉ का फोटो ऊपर कोने में दिया गया है,,
मरते क्या न करते,, बंदे को बेहोश किया और फेफड़े खोल दीए पकड़कर,,बन्दा तो #टैं बोल गया,, मने अल्लाह को #प्यारा हो गया,, लेकिन उससे भी बड़ा आश्चर्य ये हुआ कि फेफड़ों में अलग अलग जगह घूमने वाला कॉकरोच मिला नहीं,, चिंता हुई कि आखिर गया कहाँ??
भारत से एक्सपर्ट बुलाए गए,, उन्होंने ध्यान से बन्दे के फेफड़े को उलट-पलटकर देखा,, फिर उससे भी ज्यादा ध्यान से #ऑपरेशन करने वाले डॉक्टरों को देखा,, फिर बारीकी से एक्सरे को देखा,,
एक्सपर्ट ऑपरेशन थियेटर से बाहर आया और बोला--बड़े दुःख के साथ कहना पड़ रहा है खान साब,, #कॉकरोच बन्दे के फेफड़ों में नहीं बल्कि एक्सरे #मशीन में घुसा हुआ है। 
स्टोरी फेक है या फैक्ट कह नहीं सकता परन्तु निष्कर्ष पूर्णतयः अनुभव किया सत्य है। शोध संस्थानों में वामी, कॉर्पोरेट कॉकरोच भरे पड़े हैं, यही वो रिसर्च में छापते हैं।

3. गौमाता के प्रति अंधा प्यार
सेल्समैन: यह 10 हजार रुपये की है oil पेंट से बनी हुई है.
संता: पैसों की चिंता मत करो #देसी गाएँ के _घी में कुछ दिखाओ। 
4. भारतीय चुस्त, तेज दिमाग
10 अंग्रेज, 5 अफ्रीकन,
1 इंडियन हैलीकौप्टर की रस्सी से लटके हुए थे !!!
पायलट:- वज़न ज़्यादा है
1 आदमी को रस्सी छोड़नी पड़ेगी,
इंडियन :- ये कुर्बानी हम देंगे
क्योंकि हम इंडियन है
तो बजाओ तालियां,
सभी अंग्रेज और अफ्रीकन
तालियां बजाने लगे वज़न खुद ही कम हो गया,,,,,,, चाहे
ये मेरा इंडिया!!
5. 
 भगवान ने हर इंसान को अलग
बनाया है लेकिन जब तक चीन
की बारी आई वह थक चुका था
और फिर दे कॉपी पेस्ट,
दे कॉपी पेस्ट, दे कॉपी पेस्ट..
6. पैमाइश करने का क्राइटेरिया, पैमानाअलग होता
*कैल्सीयम की गोली हाथ से नीचे गिर गयी*
 *और उसके 2 टुकड़े हो गए....
*लै...सुसरि नू ई टूट गी....यो करैगी महारी हड्डिया मजबूत ? !!!
7. दुनियादारी का फर्क तब समझ में आया ☺️
जब एक unmarried person के दरवाजे
पर लिखा था ;
""Sweet home""
और
Married person के दरवाजे पर
""ॐ शांति ॐ"
8. संस्कृति खो रहे हैं। पप्पू ने टप्पू को कहा की लगता है हम अपनी संस्कृति को भूलते जा रहे हैं !! वह कैसे ? पप्पू ने कहा की कल मैं एक बारात में गया और देखा कि वहां दूल्हे के फूफा बिना मुंह फुलाए घूम रहा था!!  अब इससे ज्यादा अपनी परंपरा और संस्कृति का नाश क्या हो सकता है। इसी प्रकार जब हम बजट पर कोई खराब टिप्पणी नहीं करते यह आर्थिक नीतियों के बारे में नेगेटिव नहीं बोलते तो बहुत लोगों को लगता है कि हम स्वदेशी जागरण मंच की संस्कृति को, परम्परा को भूल चुके, या नाश कर रहे हैं!!
9. फाइनल एग्जाम की तैयारी:
 दादी को गीता पढ़ते देख पोते ने अपनी मां से पूछा
मां दादी कौन सी परीक्षा की तैयारी कर रही हैं?
मां – बेटा ये फाइनल ईयर की तैयारी कर रही हैं.!!!
9. इस संसार में कुछ ऐसी चीजें भी है जिन्हें हम बचपन से लेकर आज तक
किताबों केअलावा सच में नहीं देख पाए है ।
जैसे “ठ” से ठठेरा. शहर के बच्चों को ठठेरे का क्या पता, किताब लिखने वालों ने नया शोध नहीं किया। अ से अमरूद की बजाए आइस क्रीम
साला…आज तक समझ नहीं आया कि ये था क्या??
10. पप्पू अपनी बीमार दादी को मोहल्ले के डॉक्टर के पास दिखाने ले गया
डॉक्टर – मुंह खोलो दादी, डरिये न, हां, हां, मुंह खोला
दादी – तुम्हारी बीवी रोज शाम को तुम्हारे पड़ोसी से मिलती है.!
बस इससे ज्यादा मेरा मुंह मत खुलवाना!!!
11.संता – बाबा, मैं अपनी गलतियों के बारे में
कैसे जान सकता हूं?
बाबा – वत्स, तुम अपनी बीवी को बस उसकी एक गलती बता दो.!
उसके बाद तो वो तुम्हारी ही नहीं, बल्कि
तुम्हारे परिवार की भी गलतियां गिना देगी !!!

12.
13. बेवकूफ खुद बहुत है बेज्जती करवाने वाले: 

भेजने वाला महान,
पढ़ने वाला गधा।
बंता गुस्से में वापस sms भेजता है:
नहीं, भेजने वाला गधा,
पढ़ने वाला महान!
कभी कभी लगता है कि गधे ही महान होते हैं।
14. आलमारी खोलने पर हर औरतों की
दो मुख्‍य समस्‍याएं होती है
पहनने के लिए कपड़े नहीं है
और रखने के लिए जगह भी नहीं है...consumerism यही है।
15.कुंडली मिलवानी है तो सास और
बहू की मिलाया करो
लड़के का क्‍या है
भगवान की मर्जी समझ कर
एडजस्‍ट कर ही लेता है!
16.सभी राजी: मैं बड़ों की इज्ज़त इसलिए करता हूँ,
क्यूंकि उनकी अच्छाइयां मुझसे ज़्यादा है..
और छोटो से प्यार इसलिए करता हूँ,
क्यूंकि उनके गुनाह मुझसे कम…!!
17. वास्तव में आदमी बस प्यार चाहता है: पत्नी अपने पति के जन्मदिन पर गिफ्ट देती है वह तुम्हें क्या चाहिए गिफ्ट में पति कुछ नहीं बस प्यार से बात किया करो तमीज से बात किया करो और पीटा मत करो यही मेरे लिए बहुत बड़ी बात है और गिफ्ट नहीं चाहिए। पत्नी 2 मिनट सोचने के बाद नहीं मैं तुम्हें गिफ्ट ही दूंगी।
18.  फालतू अपेक्षाएं: लड़की पंडित जी से लड़की मुझको ऐसा पति चाहिए जो कोई ऐब ना करता हो,  गुस्सा ना करता हो, आगे से पलट केजवाब ना दे चाहे मैं कितनी भी कड़वी बात बोलूं और बिल्कुल चुपचाप रहे। पंडित जी बेटी ऐसा व्यक्ति एक ही जगह मिल सकता है। लड़की जल्दी बताइए कहां ??पंडित जी:
आई सी यू में !!

19. बजट सुनके दिमाग पक जाता है.

पति- आज खाने में तुम क्या बना रही हो

पत्नी- आलू की सब्जी बना रही हूंपर मुझे ये समझ नहीं आ रहा है कि आलू अभी तक पक क्यों नहीं रहेपति- तो तुम ऐसा क्यों नहीं करतीपत्नी- क्या करुं

पति- तुम थोड़ी देर आलू से बातें करके देखो।

20. जब झगड़ा करना हो तो बहाने हज़ार

पत्नी- मैं कुछ सालों से करवाचौथ का व्रत नहीं रख रही,फिर भी आप पूरे स्वस्थ हैं.

पति- इसमें क्या है, मैं अपने स्वास्थ्य का खुद ख्याल रखताहूं और नियम से चलता हूं.

पत्नी- साफ-साफ बताओ कौन है वो चुड़ैल जो तुम्हारे लिए करवाचौथ का व्रत रखती है!!



स्वामी विवेकानंद के भाषण जिसने हम तक पहुंचाए -- गुडविन

निष्ठावान गुडविन

स्वामी विवेकानन्द के विश्वप्रसिद्ध भाषण लिखने का श्रेय जोशिया जॉन गुडविन को है। स्वामी जी उसे प्रेम से ‘मेरा निष्ठावान गुडविन’ (My faithful Goodwin) कहते थे। उसका जन्म 20 सितम्बर, 1870 को इंग्लैंड के बैथेस्टोन में हुआ था। उसके पिता श्री जोशिया गुडविन भी एक आशुलिपिक (stenographer) एवं सम्पादक थे। गुडविन ने भी कुछ समय पत्रकारिता की; पर सफलता न मिलने पर वह ऑस्ट्रेलिया होते हुए अमरीका आ गया।

स्वामी जी के 1895 में न्यूयार्क प्रवास के दौरान एक ऐसे आशुलिपिक की आवश्यकता थी, जो उनके भाषण ठीक और तेजी से लिख सके। इसमें कई लोग लगाये गये; पर कसौटी पर केवल गुडविन ही खरा उतरा, जो 99 प्रतिशत शुद्धता के साथ 200 शब्द प्रति मिनट लिखता था। वह इससे पहले कई वरिष्ठ और प्रसिद्ध लोगों के साथ काम कर चुका था। अतः उसे उचित पारिश्रमिक पर नियुक्त कर लिया गया; पर स्वामी जी के भाषण सुनते-सुनते गुडविन का मन बदल गया। उसने पारिश्रमिक लेने से स्पष्ट मना कर दिया और अपनी सेवाएँ निःशुल्क देेने लगा। उसने अपने एक मित्र को लिखा, ‘‘मुझे अब पैसा मिले या नहीं, पर मैं उनके प्रेमजाल में फँस चुका हूँ। मैं पूरी दुनिया घूमा हूँ। अनेक महान लोगों से मिला हूँ; पर स्वामी विवेकानन्द जैसा महापुरुष मुझे कहीं नहीं मिला।’’ 

एक निष्ठावान शिष्य की तरह गुडविन स्वामी जी की निजी आवश्यकताओं का भी ध्यान रखते थे। वे उनके भाषणों को आशुलिपि में लिखकर शेष समय में उन्हें टाइप करते थे। इसके बाद उन्हें देश-विदेश के समाचार पत्रों में भी भेजते थे। स्वामी जी प्रायः हर दिन दो-तीन भाषण देते थे। अतः गुडविन को अन्य किसी काम के लिए समय ही नहीं मिलता था। 1895-96 में स्वामी जी ने कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग और राजयोग पर जो भाषण दिये, उसके आधार पर उनके सबसे महत्वपूर्ण ग्रन्थ बने हैं। स्वामी जी ने स्वयं ही कहा था कि ये ग्रन्थ उनके जाने के बाद उनके कार्यों का आधार बनेंगे। इन दिनों गुडविन छाया के समान उनके साथ रहते थे।

स्वामी जी भाषण देते समय किसी ओर लोक में खो जाते थे। कई बार तो उन्हें स्वयं ही याद नहीं आता था कि उन्होंने व्याख्यान या श्रोताओं के साथ हुए प्रश्नोत्तर में क्या कहा था ? ऐसे में गुडविन उन्हें उनके भाषणों का सार दिखाते थे। स्वामी जी ने उसकी प्रशंसा करते हुए एक बार कहा कि गुडविन ने मेरे लिए बहुत कुछ किया है। उसके बिना मैं कठिनाई में फँस जाता।

अपै्रल 1896 में स्वामी जी के लंदन प्रवास के समय भी गुडविन उनके साथ थे। जनवरी 1897 में वे स्वामी जी के साथ कोलकाता आ गये। गुडविन वहाँ सब मठवासियों की तरह धरती पर सोते तथा दाल-भात खाते थे। वे दार्जिलिंग, अल्मोड़ा, जम्मू तथा लाहौर भी गये। लाहौर में उन्होंने स्वामी जी का अंतिम भाषण लिखा। फिर वे मद्रास आकर रामकृष्ण मिशन के काम में लग गये। उन्होंने ‘ब्रह्मवादिन’ नामक पत्रिका के प्रकाशन में भी सहयोग दिया।

पर मद्रास की गरम जलवायु से उनका स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया। अतः वे ऊटी आ गये। वहीं दो जून, 1898 को केवल 28 वर्ष की अल्पायु में उनका देहांत हो गया। स्वामी जी उस समय अल्मोड़ा में थे। समाचार मिलने पर उनके मुँह से निकला, ‘‘मेरा दाहिना हाथ चला गया।’’ ऊटी में ही स्वामी विवेकानन्द के इस प्रिय शिष्य का स्मारक बनाया गया है।

गुडविन इस लिखित सामग्री को ‘आत्मन’ कहते थे। शार्टहैंड में लिखे ऐसे हजारों पृष्ठ उन्होंने एक छोटे संदूक में रखकर उनकी मां के पास इंग्लैंड भेज दिये गए थे, जिनका अब कुछ भी पता नहीं है। इनमें स्वामी जी के भाषणों के साथ ही उनके कई भाषाओं में लिखे पत्र भी हैं। कहते हैं कि बहुत बड़ा भाषणों का हिस्सा उसी ट्रंक में चला गया!!!