Sunday, August 23, 2020
ओ घोड़े समर भवानी के
Saturday, August 22, 2020
इज़राइल की विशेषताएं
इजरायल के रोचक तथ्य आपको कर देंगे हैरान
इज़राइल की हैरानीजनक जनसंख्या
इस्राइल दुनिया का एकमात्र यहूदी देश है जिसकी कुल आबादी है 85 लाख। यानी भारत के बेंगलूरु में जितने लोग रहते हैं उतने पूरे इस्राइल में। फिलिस्तीन से टूटकर ही इजरायल बना था। 19वीं सदी तक फिलिस्तीन में 87% मुस्लिम, 10% इसाई और 3% यहूदी लोग थे. 1900 में यहूदियों ने अलग राज्य की मांग छेड़ी थी।
फिलिस्तीन विवाद
फिलिस्तीन पर ब्रिटेन शासन के दौरान अंग्रेजों ने फूट करो राज करो नीति के तहत यहूदियों के लिए अलग देश की मांग का समर्थन किया।1948 में फिलिस्तीन के बंटवारे के साथ इजरायल का जन्म हुआ लेकिन इस्राइल और फिलिस्तीन का विवाद आज तक खत्म नहीं हुआ है।
भारत कनैक्शन
इस्राइल दुनिया का 100वां सबसे छोटा देश है। अमरीका के कैलिफोर्निया में इस्राइल जैसे 19 देश एक साथ समा सकते हैं। इस्राइल में इस समय करीब 74 प्रतिशत आबादी यहूदियों की है। गैर यहूदियों में ज्यादातर अरब मूल के लोग हैं। भारत में यहूदी आबादी करीब 6 हजार है। ज्यादातर यहूदी महाराष्ट्र, बंगाल, उत्तर पूर्व के राज्यों में होते हैं।
नागरिकता का अनोेखा नियम
दुनिया में यही एक ऐसा देश है जहां बच्चे के जन्म लेते ही इस्राइल की नागरिकता मिल जाती है। भले बच्चे का जन्म किसी भी देश में क्यों न हुआ हो। दूसरी छूट ये है कि यहूदी चाहे जिस भी देश में हों वो जब चाहें इस्राइल में आकर बस सकते हैं। इसे ऐसे समझिए कि अगर किसी यहूदी बच्चे ने भारत में जन्म लिया हो तो जन्म लेते ही वो इस्राइल का भी नागरिक मान जाता है।
संविधान भी एेसा
इस्राइल है तो दुनिया का लोकतांत्रिक देश लेकिन वहां ब्रिटेन औऱ न्यूजीलैंड की तरह लिखित संविधान नहीं हैं। परम्परा, सुविधा के हिसाब से नियम बनते और बदलते हैं।
भाषा के अलग नियम
इस्राइल की भाषा हिब्रू है जो बाइबल की भाषा मानी जाती है। कहा जाता है कि हिब्रू ही अकेली भाषा है जिसका पुनर्जन्म हुआ है। हिब्रू और अरबी इजरायल की सरकारी भाषा है। हिब्रू को ऊर्दू की तरह दाहिने से बाएं लिखा जाता है। इस्राइल की बोली में मराठी का भी अंश माना जाता है।
सेना में महिलाएं
दुनिया में इस्राइल को शक्तिशाली सैन्य देश के तौर पर माना जाता है। इस्राइल में महिलाओं के लिए सेना में काम करना अनिवार्य है। 85 लाख आबादी वाले देश में करीब 30 लाख सैनिक हैं। जितने मर्द सेना में काम करते हैं उतनी ही महिलाएं भी। 30 लाख की सेना में करीब 15-15 लाख मर्द और महिला सैनिक हैं।
बच्चों की आर्मी ट्रेनिंग
15 साल की उम्र से इस्राइल में बच्चों की आर्मी ट्रेनिंग शुरू हो जाती है। हाई स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद अनिवार्य रूप से मिलिट्री सर्विस जॉइन करनी पड़ती है। लड़कों को 3 साल और लड़कियों को 2 साल सेना में काम करना जरूरी होता है।कहा जाता है कि इस्राइल के घर-घर में घातक हथियार होते हैं।परिवार के हर सदस्य को हथियार चलाना आता है। महिलाएं कैसा भी पहनावा पहने लेकिन हथियार साथ लेकर चलती हैं।
खतरनाक दुश्मन
अगर किसी ने इस्राइल को दुश्मन बना लिया है तो मान लीजिए कि इस्राइल बिना बदला लिए छोड़ेगा। इस्राइल का मूल मंत्र है अगर किसी ने हमारे देश के एक नागरिक को भी मार दिया तो हम उस देश में घुसकर उसके एक हजार नागरिकों को मार डालेंगे। ऑपरेशन ब्लैक सेप्टेंबर के बाद इजरायल ने ये करके दिखाया।
भारत से सम्बन्ध 100 साल पुराना
संक्षेप: इजराइल की वीरता के हम मुरीद हैं, परन्तु इसरायली भारत की वीरता के कायल भी हैं, कृतज्ञ भी क्योंकि 100 साल पहले उनके प्रमुख स्थान हाइफा को तुर्की की सेना से मुक्त कराने का काम भारतीय सैनिकों ने बड़ी बहादुरी से किया। आज़ादी के 70 साल बाद उन 900 भारतीयों की समाधि पर पुष्प चढ़ाने, जिनकी देखभाल इजराइल बड़ी शिद्दत से करताहै, कोई भारतीय प्रधान मंत्री पहली बार गया है। उसदिन 23 मई 1918 था, और 1919 से ही 2000 साल के बाद निर्वासित यहूदी अपने शहर लौटने लगे। अपने स्वतंत्र देश की मांग बेशक 30 साल बाद 14 मई 1948 में पूरी हुई।
हमास के राकेट हवा में उड़ा दिये 14,15 मई 2021,
3. यहूदी योद्धा कौम नहीं थी। वह व्यापारी कौम थी। येरुसलम और मदीना के यहूदी व्यापार ही तो करते थे। बल्कि उनकी इसी खासियत की वजह से उन्हें भगोड़ा और डरपोक भी कहा जाता था।
व्यापारी वैसे भी लड़ाई झगड़े से दूर रहता है। हां, जो सीधे युद्ध तो नहीं करते वो साजिश करते हैं। ये गुण यहूदियों में भी मिलता है। लेकिन आज वो एक निडर योद्धा हैं। आपने कभी सोचा कि एक व्यापारी कौम को योद्धा किसने बना दिया जिसकी बहादुरी की प्रशंसा हो रही है?
इस्लाम ने। यहूदियों में ये जो बहादुरी और निडरता दिखाई दे रही है ये इस्लाम की प्रतिक्रिया में पैदा हुई है। अपने अनुभव से उन्होंने सीखा कि बिना युद्ध के आप इस्लाम से नहीं जीत सकते। आप कितना भी बचने का प्रयास करें इस्लाम अंतत: आपको युद्धक्षेत्र में खींच ही लेता है।
इसलिए यहूदियों ने अपने आप को युद्ध में निपुण किया। वो सब तरीके सीखे जिससे वो सम्मान से जिन्दा रह सकते हैं। इस तरह एक व्यापारी कौम एक बहादुर कौम बन गयी।
Wednesday, August 19, 2020
जंगल के खतरे रुचिर शर्मा
Thursday, August 13, 2020
Silent dangers, Ruchir Sharma
The rhythms of the jungle are far removed from those of New York, where I live, but this old African tale is quite relevant to a world reshaped by the global crisis of 2008. The crisis turned the world on its head, disrupting trade and money flows, unleashing political revolts, slowing the global economy, and making it more difficult to discern which nations would thrive and which would fail in such a transformed landscape. Pessimism came to rule the global community, making it hard for observers to see new rustlings of life, but they are there if one knows how to listen and where to look.
In the world of global finance, people often think of themselves as big cats, but in Africa, the difference between the cats and the rest quickly dissolves. Each year on the Mara-Serengeti plains of Kenya and Tanzania, more than a million wildebeest walk a nearly two-thousand-mile loop that they have traced and retraced for generations. Moving behind the rains and accompanied by zebra and gazelle, the ungainly wildebeest are shadowed by the lion, the leopard, and the cheetah.
The contest looks stacked, but lions are relatively slow and short-winded and catch their prey on less than one attempt in five. Cheetahs are faster, but because they are smaller and often hunt alone, they are forced to concede many kills to scavengers working in packs. Less than one cheetah in ten lives longer than a year. Lions do only a bit better. The circle of life and death turns as brutally for the predator as for the prey, a fact that might give pause to the would-be lions of the global economy.
I've lived in fear for my own survival since I entered this jungle. I started out in investing as a 20-something kid in the mid-1990s, when the United States was booming and emerging nations were still seen as wild and exotic. Financial crises swept from Mexico to Thailand and Russia, triggering painful recessions and reshuffling the ranks of rising economies and world leaders. The collateral damage in global markets wiped out many big investors, including a good number of my mentors, colleagues, and friends.
Wall Street is often criticized for "herd behavior," but even in the real jungle, life is more complicated than that stereotype. The wildebeest's circular migration has been mocked with the old proverb "the grass is always greener on the other side", but the herd shows a certain swarm intelligence. It is right about where the grass will be greener. It follows the rains, north into Kenya in the spring, back south into Tanzania during the fall.
The critical dangers appear twice a year at "the crossing" of the Mara River, which the herd must ford while traveling both north and south. Normally, to avoid predators, the herd heeds an ancient warning system - the shrieks of baboons, the calls of jungle babblers. But this system fails at the Mara, where the wildebeest mass by the tens of thousands, with danger in plain sight: floating crocodiles, rain-swollen waters, lions in ambush on the far side.
Heads down, the wildebeest appear to be talking all at once, their bellows like so many Wall Street analysts on a conference call. The herd waits for one member to go. If this animal takes a step and retreats, fear paralyzes the multitude; but memories are short. Within minutes, another will try, and if it plunges in, the mass follows - many into waiting jaws.
People working in global markets can get sucked into a culture that is programmed, like the wildebeest, to remain in constant motion. Daily research reports urge them to chase the next Big Thing or to run from the next Big Correction, an impulse that has only grown since the global financial crisis. Last year, the first quarter chatter was all about the surging Chinese stock market, the second quarter was all about how Greece was going to take down the global economy, the third was all about the collapse of the Chinese stock market. The alarmists are sometimes right, sometimes wrong, but always they move forward, forgetting what they were saying the day before, and why.
Big cats are programmed to survive by conserving energy, not wasting it in constant motion. Lions are known to sleep 18 to 20 hours a day. They avoid fighting over the kill, or panicking in a storm. During the violent afternoon rains that sweep the Masai Mara, I've watched the wild animals stop and stand stock still - predators within striking distance of their prey - until the deluge ends. They seem to understand instinctively that cloudbursts are one beat in the normal rhythm of their days.
Many accomplished survivalists inhabit the jungle, and not all are big cats. The best defenses belong to the hulking vegetarians, the elephants and the rhinos. Even a lion pride will rarely take on a seven-ton elephant with six-foot tusks. The best spies may be the wildebeest, with their network of baboons and birds. The best hunters may be the hyenas, who despite their reputation as thieving scavengers are among the most successful large predators. Unlike the cats, a hyena has endurance, and moving in packs of up to sixty, it can run down virtually any animal, and fears none.
Those who survive the storms that buffet the global economy tend to absorb a few laws of the jungle. Do not expend energy on daily or quarterly blips in the numbers. Adapt to a changing landscape rather than let ego obstruct a strategic retreat. Understand that booms, busts and protests are part of the normal rhythm of life. Focus on big trends, and watch for the crossings. Build a system to spot important signs of change, even when everyone around you is just going with the current flow.
In a world reshaped by the crisis of 2008, the most important signs of national vulnerability to the global slowdown include rising debt, declining population growth, and heavy exposure to the decline in global trade. Every economy is exposed to some degree. Today, even China is slowing sharply after the much hyped up boom as it is particularly hit by a fall in its working age population and too much debt.
But even at a time when growth is slowing everywhere, some nations will still flourish, relative to their peers. The place to look for the next winners is always among the least hyped countries, and India finds itself sitting in a neighborhood of recent laggards that could be potential winners. In recent decades, few countries have fallen farther off the global media radar than those in South Asia. Pakistan, Bangladesh, and Sri Lanka have been making international news, respectively, for issues like terror, sweatshops, and prosecuting war crimes. These storylines obscure the economic reality, which is that South Asia is quietly rising relative to the rest of the world.
Leaders in the region are pushing at least incremental reform, debt is under control, and working-age population growth is strong. Unlike most emerging regions, South Asia is a region of commodity importers, so low prices for oil and other commodities help it. Stable commodity prices are now keeping inflation rates in check even as economic growth accelerates - the ideal combination. In 2015, South Asia had the highest concentration of accelerating economies in the world.
India is by far the largest regional economy, but it is as much a continent as a country, with 29 states that are as varied and often much more populous than the states of Europe. Today much of the real economic action is in the hands of Chief Ministers from states such as Haryana and Andhra Pradesh, who are traveling from New York to Beijing pitching for investments. With India's small neighbors picking up momentum, the South Asian economies are growing at an average pace close to 6 percent, which is very good, even for low-income countries, in this tough new era. Better yet, they are not - or at least not yet - attracting media hype as the "South Asian Tigers," since hype often signals the end of a boom.
There is no one model for survival in this era. Every country is struggling to find its economic niche. There is also no next king of the jungle with the potential to be as big as China, but there are many smaller candidates, with a particularly strong concentration in South Asia. The only way to spot them is by listening patiently for the telltale signs of major turns for the better or worse, even those that don't make a sound
चीन में एनिमल फार्मिंग एवं 4 पेस्ट्स
गौरैया को मारने का अंजाम ढाई करोड़ चीनियों ने अपनी जान देकर चुकाया
गौरैया की कम होती आबादी के लिए जिम्मेदार तो इंसान ही है. जिसके घर को इंसानों ने उजाड़ दिया, वो भला नाराज क्यों ना हो और दूर क्यों न जाए? गौरैया पर इंसानों के जुल्म की दास्तां चीन का एक अभियान भी बयां करता है. आज गौरैया दिवस (sparrow day) के दिन तो हर कोई गौरैया के लिए पानी रखने की बातें करता नजर आ जाएगा, लेकिन आज से 60 साल चीन के हुक्मरानों के कहने पर गौरैया को ढूंढ़-ढूंढ़ के मारा गया था.
चीन में शुरू हुआ था गौरैया मारने का अभियान
बात 1958 की है, जब माओ जेडोंग ने एक अभियान शुरू किया था, जिसे Four Pests Campaign का नाम दिया था. इस अभियान के तहत चार पेस्ट को मारने का फैसला किया गया था. पहला था मच्छर, दूसरा मक्खी, तीसरा चूहा और चौथी थी हमारी प्यारी मासूम गौरैया. सोच कर भी अजीब लगता है कि आखिर उस मासूम गौरैया से इंसानों को ऐसा क्या डर था, जिसके चलते उसे मारने का अभियान चलाने की नौबत आ गई. मानते हैं कि मच्छरों ने मलेरिया फैलाया, मक्खियों ने हैजा और चूहों ने प्लेग, तो इन सबका सफाया तो इंसानों के हित में था, लेकिन गौरैया का क्या दोष था?
गौरैया के माथे मढ़ा गया ये दोष
मासूम कही जाने वाली गौरैया को माओ जेडोंग ने ये कहकर मारने का फरमान सुना दिया था कि वह लोगों के अनाज खा जाती है. कहा गया कि गौरैया किसानों की मेहनत बेकार कर देती है और सारा अनाज खा जाती है. मच्छर, मक्खी और चूहे तो नुकसान करने के आदि हैं, इसलिए वह खुद को छुपाने में भी माहिर निकले, लेकिन गौरैया जैसी मासूम चिड़िया तो इंसानों के सबसे नजदीक रहती थी, वह चाहकर भी खुद को छुपा न सकी. नजीता ये हुआ कि इंसानों ने भी बड़ी निर्ममता से उसे ढूंढ़-ढूंढ़ कर मारा.
उड़ते-उड़ते थक जाती और जमीन पर आ गिरती गौरैया
चीन में उस समय के तथाकथिक क्रांतिकारियों ने जनता के बीच में इस अभियान को एक आंदोलन की तरह फैला दिया. लोग भी बर्तन, टिन, ड्रम बजा-बजाकर चिड़ियों को उड़ाते. लोगों की कोशिश यही रहती कि गौरैया किसी भी हालत में बैठने न पाए और उड़ती रहे. बस फिर क्या था, अपने नन्हें परों को आखिर वो गौरैया कब तक चलाती. ऐसे में उड़ते-उड़ते वह इतनी थक जाती कि आसमान से सीधे जमीन पर गिर कर मर जाती. कोई गौरैया बच न जाए, ये पक्का करने के लिए उनके घोंसले ढूंढ़-ढूंढ़ कर उजाड़ दिए गए, जिनमें अंडे थे उन्हें फोड़ दिया गया और अगर किसी घोंसले में चिड़िया के बच्चे मिले तो उन्हें भी इंसानों की क्रूरता का शिकार होना पड़ा.
इनाम से नवाजा जाता था 'हत्यारों' को
जो शख्स जितनी अधिक गौरैया का कत्ल करता, उसे उतना ही बड़ा इनाम भी मिलता. स्कूल-कॉलेज में होने वाले आयोजनों में गौरैया का कत्ल करने वालों को मेडल मिलते. जो जितनी अधिक गौरैया मारता, उसे उतनी ही अधिक तालियों से नवाजा जाता. जाहिर सी बात है, लोगों में इस अभियान को इस तरह से फैलाया गया था कि लोगों को गौरैया का कत्ल करने में कोई हिचकिचाहट नहीं होती थी.
जब दूतावास में भी नहीं बच पाई जान
गौरैया को जल्द ही ये समझ आ गया था कि उनके छुपने के लिए कौन सी जगह सबसे सुरक्षित है. बहुत सारी गौरैया झुंड बनाकर पीकिंग स्थित पोलैंड के दूतावास में जा छुपीं. गौरैया को मारने के लिए दूतावास में घुसने जा रहे लोगों को वहां के अधिकारियों ने बाहर ही रोक दिया. लेकिन इंसान तो इंसान है, खासकर चीन के वो लोग जिनके सिर पर खून सवार हो. पूरे पोलिश दूतावास को चारों तरफ से घेर लिया गया. दो दिन तक लगातर ड्रम पीटे गए. आखिरकार ड्रमों के शोर से गौरैया के झुंड ने दम तोड़ दिया. सफाई कर्मियों के बेलचों से मर चुकी प्यारी गौरैया को दूतावास से बाहर फेंका गया.
गौरैया मारने का अंजाम भुगतना पड़ा भयंकर अकाल से
चीन में एक अभियान के तहत गौरैया का मारने का पाप तो लोगों ने कर दिया था. लेकिन महज दो सालों में ही अप्रैल 1960 आते-आते लोगों को इसका बेहद खौफनाक अंजाम भुगतना पड़ा. दरअसल, गौरैया सिर्फ अनाज नहीं खाती थी, बल्कि उन कीड़ों को भी खा जाती थी, जो अनाज की पैदावार को खराब करने का काम करते थे. गौरैया के मर जाने का नजीता ये हुआ कि धान की पैदावार बढ़ने के बजाए घटने लगी. माओ को समझ आ चुका था कि उनसे भयानक भूल हो गई है. उन्होंने तुरंत ही गौरैया को Four pests से हटने के आदेश जारी कर दिए. और गौरैया की जगह अब खटमल मारने पर जोर देने को कहा. लेकिन तब तक देर हो चुकी थी. टिड्डी और दूसरे कीड़ों की आबादी तेजी से बढ़ी. गौरैया तो पहले ही मारी जा चुकी थीं, जो उनकी आबादी पर लगाम लगाती. कीड़ों को मारने के लिए तरह-तरह की दवाओं का इस्तेमाल किया जाने लगा, लेकिन पैदावार बढ़ने के बजाय घटती ही रही. और आगे चलकर इसने एक अकाल का रूप ले लिया, जिसमें करीब 2.5 करोड़ लोग भूखे मारे गए.
माओ जेडोंग को अपनी भूल समझने में बहुत देर हो गई थी, लेकिन हमें तो यह पता है कि गौरैया हमारी पारिस्थितिकी के लिए कितनी अहम है. गौरैया के ना होने से कितना नुकसान हो सकता है, चीन का अकाल इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है. गौरैया को मारें नहीं, ना ही भगाएं. ये चिड़िया इंसानों के सबसे करीब रहती है और जरा सोच कर देखिए, आखिर एक गौरैया आपका कितना अनाज खा जाएगी. आज के समय में शहरों में गौरैया मुश्किल से ही देखने को मिलती है. तो अपनी छत पर गौरैया के लिए पानी और मुट्ठी भर अनाज रखें, ताकि हमें कभी चीन जैसा अकाल देखने की नौबत न आए. ( यह अंजनी कुमार के ichowk टुडे से लिया है, विकीपीडिया पर भी है, अन्य स्त्रोत भी हैं, लगभग दब में एक सी कहानी है।)
स्वदेशी कथाएं
जहांगीर एलोपैथी व आयुर्वेद
Friday, August 7, 2020
राम राज्य : आत्मनिर्भर भारत
प्रसिद्ध अमेरिकी लेखक टवेन द्वारा :-
बनारस इतिहास से भी पुराना है। परंपराओं से भी पुराना है। किंवदंतियों से भी पुराना है। यदि इन सभी को एकत्रित कर दिया जाय तो उस संग्रह से भी दोगुना प्राचीन है।
Coming of Ram Rajya means the implementation of the Indian Constitution: Subramanian Swamy
As the foundation stone for the Ram Mandir is laid, the question of what a Ram Rajya will imply for the country has constantly been raised. According to BJP MP and Economist Dr Subramanian Swamy, it implies the "implementation of the Indian Constitution, in a nutshell." Speaking during TNIE's e-expressions conducted along with the India Policy Foundation, Swamy said, "This is true because all the concepts of Ram and what he propagated is there in the Directive Principles and the Fundamental Rights and in the advocacy of language in the Constitution."
Swamy was in conversation with TNIE Editorial Director Prabhu Chawla, Prof Kapil Kapoor, Chairman, Indian Institute of Advanced Studies and Dr Kuldeep Ratnoo, Director, India Policy Foundation.
Upon being asked if the people who wrote the Constitution of India were 'Ram Bhakts', Swamy responded vehemently, "Absolutely, Ambedkar was one of the finest. Nehru made him bitter and towards the end of his life he became very harsh. But if you see his seminar papers at Columbia University in 1915 and subsequently in his books, he is perhaps the most articulate spokesman for Hindutva I can think of. I have read every one of those books and that's why I revere him