Wednesday, December 30, 2020

सैर का महत्व बताती जानकारियां

*अपने पैरों को मजबूत रखें*
बुढ़ापे में हमारे पैर हमेशा मजबूत रहने चाहिए। उम्र बढ़ने पर हमें बाल गिरने या खाल लटकने की चिन्ता नहीं करनी चाहिए। अमेरिका की पत्रिका ‘प्रिवेंशन’ द्वारा अधिक उम्र की पहचान में मजबूत पैरों को सबसे महत्वपूर्ण और अनिवार्य संकेतों में सबसे ऊपर स्थान दिया गया है। यदि आप दो सप्ताह तक अपने पैरों को नहीं हिलाते, तो आपके पैरों की शक्ति 10 वर्ष कम हो जाएगी।

डेनमार्क के कोपेनहेगन विश्वविद्यालय द्वारा किये गये एक अध्ययन से पता चला है कि बूढे और जवान सभी में दो सप्ताह तक निष्क्रिय रहने पर पैरों की माँसपेशियाँ एक तिहाई तक कमजोर हो जाती हैं, जो उम्र में 20-30 वर्ष की कमी के बराबर है। जब हमारे पैरों की माँसपेशियाँ कमजोर होती हैं, तो उनको वापस प्राप्त करने में बहुत समय लगता है, भले ही हम बाद में व्यायाम आदि करते रहें। इसलिए नियमित व्यायाम जैसे टहलना बहुत महत्वपूर्ण है।

हमारे शरीर का सारा वजन पैरों पर आता है। हमारे पैर खम्भों की तरह होते हैं, जो मानव शरीर का सारा बोझ उठाते हैं। रोचक बात यह है कि एक व्यक्ति की हड्डियों का 50 प्रतिशत और माँसपेशियों का भी 50 प्रतिशत भाग केवल दो पैरों में होता है। जोड़ों और हड्डियों में सबसे बड़े और मजबूत भी पैरों में होते हैं। 

मजबूत हड्डियाँ, मजबूत माँसपेशियाँ और लचीले जोड़ एक ‘लौह त्रिकोण’ बनाते हैं, जिन पर शरीर का सबसे महत्वपूर्ण बोझ पड़ता है। 70 प्रतिशत मानव गतिविधि और ऊर्जा का क्षय दोनों पैरों द्वारा ही किया जाता है। 

*क्या आप जानते हैं?*

जब कोई व्यक्ति जवान होता है, तो उसकी जाँघों में इतनी शक्ति होती है कि वे एक छोटी कार को भी उठा सकती हैं। पैर शरीर के संचालन का केन्द्र होता हैं। मानव शरीर की 50 प्रतिशत नाड़ियाँ और 50 प्रतिशत रक्तकोष पैरों में होते हैं और 50 प्रतिशत रक्त उनमें होकर बहता है। यह शरीर को जोड़ने वाला सबसे बड़ा संचार नेटवर्क है। 

यदि पैर स्वस्थ हैं, तो ही रक्त का प्रवाह भली प्रकार से होता है, इसलिए जिन लोगों के पैरों की माँसपेशियाँ मजबूत होती हैं, उनका हृदय निश्चित रूप से मजबूत होता है।

उम्र का बढ़ना पैरों से ऊपर की ओर चलता है। जब मनुष्य की उम्र बढ़ती है तो मस्तिष्क और पैरों के बीच निर्देशों के संचार की गति और शुद्धता जवानी की तुलना में कम हो जाती है। इसके अतिरिक्त तथाकथित हड्डी की खाद कैल्शियम की मात्रा समय के साथ कम हो जाती है, जिससे उम्र बढ़ने पर व्यक्ति में हड्डी का फ्रैक्चर होने का खतरा बढ़़ जाता है। 

अधिक उम्र के लोगों में फ्रैक्चरों से अनेक समस्यायें सरलता से पैदा हो जाती हैं, विशेष रूप से घातक बीमारियाँ जैसे मस्तिष्क में थक्का जमना। क्या आप जानते हैं कि अधिक उम्र के 15 प्रतिशत रोगी जाँघ की हड्डी टूटने के एक वर्ष के अन्दर मर जाते हैं? 

पैरों का व्यायाम करने में कभी देरी नहीं होती, 60 वर्ष की उम्र के बाद भी आप इसे प्रारम्भ कर सकते हैं। हालांकि समय के साथ हमारे पैरों की उम्र भी बढ़ती है, लेकिन पैरों का व्यायाम जीवन भर करते रहना चाहिए। केवल अपने पैरों को मजबूत करके ही हम अपनी उम्र अधिक तेजी से बढ़ने से रोक सकते हैं।

इसलिए कृपया प्रतिदिन कम से कम 30-40 मिनट चलिए ताकि आपके पैरों का पर्याप्त व्यायाम हो जाये और आपके पैरों की माँसपेशियाँ स्वस्थ रहें।

Wednesday, December 23, 2020

Democracy in Old India

I have received this message from whatsapp and it seems very I teesri g how more tha. Thousand years ago there was a written constitution in the remotest village of Tamilnadu. Let's have a.look at  the article:

We have heard of the Magna Carta which is kept in the Salisbury Cathedral, and recognise it as the first written “Constitution”. Now read this.

While performing Bhumi Puja for our new Parliament Building, our PM mentioned about Uthiramerur. Many of my friends phone me and asked what is that so important to mention.  Here are details .  Uthiramerur  ( Tamil Nadu) model of democracy
Uthiramerur is situated in Kancheepuram district, about 90 km from Chennai. It has a 1,250-year history. There are three important temples. The three temples have a large number of inscriptions, notably those from the reigns of Raja Raja Chola (985-1014 A.D.), his son Rajendra Chola, and the Vijayanagar emperor Krishnadeva Raya. The three temples have a large number of inscriptions, notably those from the reigns of Raja Raja Chola (985-1014 A.D.), his son Rajendra Chola, and the Vijayanagar emperor Krishnadeva Raya. During the period of  Parantaka Chola [907-955 A.D.]  The village administration was honed into a perfect system through elections. In fact, inscriptions on temple walls in several parts of Tamil Nadu refer to village assemblies. “But it is at Uthiramerur on the walls of the village assembly (mandapa) itself that we have the earliest inscriptions with complete information about how the elected village assembly functioned,”  says  R. Sivanandam, epigraphist at the Tamil Nadu Department of Archaeology.
It testifies to the historical fact that nearly 1,100 years ago, a village had an elaborate and highly refined electoral system and even a written constitution prescribing the mode if elections. The details of this system of elective village democracy are inscribed on the walls of the village assembly (grama sabha mandapa), a rectangular structure made of granite slabs “It is an outstanding document in the history of India. It is a veritable written constitution of the village assembly that functioned 1,000 years ago,”  says Dr. Nagaswamy famous archeologist. The inscription, gives astonishing details about the constitution of wards, the qualification of candidates standing for elections, the disqualification norms, the mode of election, the constitution of committees with elected members, the functions of those committees, the power to remove the wrongdoer, etc…”. The villagers even had the right to recall the elected representatives if they failed in their duty.
What were the salient features? The village was divided into 30 wards, with one representative elected for each. Those who want to contest must be above 35 years of age and below 70. Only those who owned land that attracted tax could contest elections.  Such owners should possess a house built on a legally owned site (not on public poromboke). A person serving in any of the committees could not contest again for the next three terms, each term lasting a year. Elected members who accepted bribes, misappropriated others' property, committed incest, or acted against the public interest suffered disqualification. The entire village, including infants, had to be present at the village assembly mandapa when elections were held. Only the sick and those who had gone on a pilgrimage were exempt.
I first came to know about these not from our history books,  not from my teachers in school and college but from a book of Paramacharya that contains his teachings. In fact,  T.N Sheshan former election commissioner was a bit dejected when he was appointed as Chief Election commissioner.  Met Paramacharya. Paramacharya, who was 97 when a visibly disappointed Seshan came to meet Him, immediately sensed the cause of his disappointment and counseled him to treat the transfer as an opportunity granted by God to serve the Indian public. He had suggested that Seshan visit the Uthiramerur temple and read through the details of electoral regulations prevalent in India about 1000 years ago, including qualifications of candidates that can contest elections.
In the words of Sree. Seshan, ‘The credit for Electoral reforms must go to Kanchi Mahaswami, but for who this would not have been possible. At 97, He had such clarity and described minute details of the electoral rules embossed on the northern walls of the Uthiramerur temple.  And mentioned to me that even implementing a tenth of these reforms, would be a great service to India”. The rest is history. In the words of columnist TJS George, “Seshan showed what one man could do to ensure that democracy did not become a hydra-headed monster. In time Seshan retired. And the monster was set free.”
: I doubt how many of the politicians in TN will know this. It was wonderful that our PM had shared this on national stage so that everyone across the country will know the richness of our culture. The Vishnu temple in Uthiramerur is very unique since the same was built by Viswa Karma and it's the first Ashtanga vimana to be constructed. The vimana in Ashtalakshmi temple in Besant nagar, Chennai was designed and built copying this vimana only. Certainly a place to visit to know and understand our richness.

Friday, December 18, 2020

आत्मनिर्भर भारत: हमारा नोट

13 दिसंबर 2020 को राष्ट्रीय सम्मेलन में वितरित नोट

आत्मनिर्भर भारत
वैश्वीकरण के पिछले तीन दशकों के दौरान, घरेलू उद्योग की सुरक्षा को एक अपराध की तरह माना जाने लगा था। यह कहा जा रहा था कि मुक्त व्यापार सभी आर्थिक समस्याओं का रामबाण इलाज है। तर्क यह था कि मुक्त व्यापार में बाधा हमारे उद्योगों को अक्षम बना देगी, क्योंकि प्रतिस्पर्धा नहीं होने से दक्षता में बाधा होगी जिससे अर्थव्यवस्था प्रतिस्पर्धी नहीं रहेगी। कोरोना अवधि में भारत और दुनिया के नीति निर्माताओं की सोच में एक बड़ा बदलाव आया है। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा है कि इस कोरोना संकट में देश ने जो सबसे बड़ा सबक सीखा है वह यह है कि हमें आत्मनिर्भर बनना होगा। प्रधान मंत्री की वोकल फ़ॉर लोकल यानि “स्थानीय के लिए मुखर" (स्वदेशी) का आह्वाहन अब लोगों का आह्वाहन  बन गया है। हमारे देश को 'आत्मनिर्भर' बनाने के लिए, हमें अपेक्षित प्रयास करने होंगे।
इसके लिए, जनप्रतिनिधि, टेक्नोक्रेट, उद्योग और व्यापार के प्रतिनिधि, सामाजिक कार्यकर्ता; सभी को मिलकर प्रयास करने होंगे। हम जानते हैं कि भारत विविधताओं का देश रहा है।  हमारे देश के हर प्रांत, हर जिले और यहां तक कि हर गांव की अपनी खासियत है। हम जानते हैं कि प्रत्येक जिला एक या अधिक प्रकार के कौशल, कृषि उत्पादों या एक या अधिक औद्योगिक समूहों के लिए जाना जाता है। आमतौर पर, एक ही जिले में एक से अधिक प्रकार की विशेषताएं मौजूद होती हैं। वर्षों से प्रोत्साहन और प्रेरणा के अभाव में, जिले अपने उद्योगों, कौशल और कृषि उपज के संबंध में अपनी विशिष्ट पहचान खोते जा रहे हैं। हमारे देश का प्रत्येक जिला विभिन्न प्रकार के उत्कृष्ट कृषि उत्पादों का उत्पादन करता है, लेकिन मूल्य प्रोत्साहन, प्रचार, भंडारण और विपणन की उचित प्रणाली की कमी के कारण, इनमें से कई उत्पाद विलुप्त होने के खतरे का सामना कर रहे हैं। कभी-कभी इन उत्पादों के कुशल उत्पादन में घरेलू क्षमताएं होने के बावजूद, देश को इनका आयात करना पड़ता है। दूसरी ओर, जहां तक विनिर्माण का संबंध है, देश के विभिन्न जिले आधुनिक और पारंपरिक उद्योगों के लिए जाने जाते हैं। लुधियाना जैसे स्थान हैं जो ऊनी हौज़री और साइकिल उद्योग के लिए प्रसिद्ध हैं,  सूती हौज़री के लिए तिरुपुर, जूता और लोह फोर्जिंग के लिए आगरा, ग़लीचों के लिए बदोही, साड़ियों के लिए बनारस और कांजीवरम और कई अन्य स्थान विश्व प्रसिद्ध हैं। चीनी डंपिंग और सरकार की उपेक्षा, लालफीताशाही, इंस्पेक्टर राज, वित्त की कमी, नई तकनीक की पहुंच में कमी आदि कुछ ऐसे कारण रहे  हैं जिनकी वजह से इन औद्योगिक संकुलों में गिरावट आई है।
अतीत में, वैश्वीकरण के प्रति जुनून और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रभुत्व के कारण, इन उद्योगों में महत्वपूर्ण गिरावट देखी गई। आज, जब हम आत्मनिर्भरता (आत्मनिर्भर भारत) के बारे में बात कर रहे हैं, तो उनकी विशेषज्ञता के अनुसार स्थानीय उत्पादों को संरक्षित करने और बढ़ाने के लिए प्रयास किए जाने की आवश्यकता है।
केंद्र और राज्य सरकारों के प्रयासों के साथ-साथ स्थानीय उद्योगों के विकास और संवर्धन के लिए, अगर जनप्रतिनिधि, उद्योग और व्यापार जगत के नेता, सामाजिक कार्यकर्ता आदि प्रयास करते हैं, तो इन उद्यमों को स्वाभाविक रूप से एक नया जीवन मिलेगा।
महामारी से सबक सीख कर , अगर देश अपने विनिर्माण क्षेत्र को बढ़ावा देता है, जो चीन से अनुचित प्रतिस्पर्धा और विकृत नीतिगत ढांचे के कारण प्रभावित हो गया था, तो इससे देश में रोजगार और आय में वृद्धि भी होगी और लोगों का जीवन स्तर भी सुधरेगा।

आत्मनिर्भरता नहीं आएगी रातोंरात 

कुछ लोगों का मानना है कि वैश्वीकरण के इस युग में, हम दुनिया के बाकी हिस्सों के साथ इतने अधिक जुड़े हुए हैं, कि आत्मनिर्भर बनने के हमारे प्रयास प्रतिगामी और आत्मघाती साबित हो सकते हैं। ऐसे लोग इस बात को नहीं समझते हैं कि आत्मनिर्भरता का संकल्प चीन या कहीं और से आयात को पूरी तरह से रोकना नहीं है, बल्कि धीरे-धीरे चीन पर निर्भरता को कम करना है। चीनी सामानों की डंपिंग के प्रति अतीत में सरकारों की उदासीनता के कारण हमारे उद्योग नष्ट हो गए। हमें अपने उद्योग का पुनर्निर्माण करना होगा और हमें विकल्प खोजने के लिए खुद को तैयार करना होगा। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि चीन से अधिकांश आयात वे हैं जो देश में उत्पादित किए जा सकते हैं। इनमें स्टील, रसायन, मशीनरी, वाहन, उर्वरक, कीटनाशक आदि शामिल हैं। कई आयात हैं, जिन्हें उच्च तकनीक की आवश्यकता भी नहीं है। इस तरह के शून्य प्रौद्योगिकी उत्पादों को आसानी से कम समय में देश में उत्पादित किया जा सकता है। ऐसे में चीन से होने वाले बहुत से आयातों को रोका जा सकता है।

आत्मनिर्भरता असंभव नहीं है
हालांकि, यह सच है कि आत्मनिर्भरता का लक्ष्य आसान नहीं है और इसमें कई बाधाएँ हैं, लेकिन हम यह नहीं कह सकते कि यह असंभव है। कई आलोचक दो कारणों से आत्म निर्भरता के विचार को अस्वीकार करने का प्रयास करते हैं: पहले वे अन्य देशों, विशेष रूप से चीन पर भारी निर्भरता के कारण इस दृष्टिकोण को अव्यावहारिक बताते हैं; और तर्क देते हैं कि इस तरह की नीति से चीनी वस्तुओं और चीन से आने वाले कच्चे माल पर निर्भर उद्योगों पर प्रतिकूल प्रभाव के कारण लागत में वृद्धि हो सकती है, क्योंकि अब हमें महंगे विकल्पों का विकल्प चुनना होगा।
दूसरा, वे तर्क देते हैं कि आत्मनिर्भरता के लिए इस तरह का दृष्टिकोण देश को नेहरूवादी संरक्षणवाद के दिनों की ओर पीछे धकेल देगा जिसका अर्थ होगा उच्च लागत और अकुशल उद्योग। इससे विकास बाधित होगा। वे अपने तर्कों के साथ निष्कर्ष निकालते हैं कि इन परिस्थितियों में अर्थव्यवस्था पर चोट किए बिना आत्मनिर्भरता असंभव है। हालांकि, वे नहीं समझ पा रहे क़ि देश में उत्पादन को प्रोत्साहित करके हम जो आत्मनिर्भरता प्राप्त करेंगे वह संरक्षणवाद नहीं है। यह निश्चित रूप से सच है कि, हमारे उद्योगों का कायाकल्प करने के लिए या नए उद्योगों को फलने-फूलने के लिए, विदेशों से आने वाले सामानों पर आयात शुल्क को थोड़ा बढ़ाना होगा। एंटी-डंपिंग शुल्क लगा कर हम  डंपिंग को हतोत्साहित करने में सफल हो सकते हैं और कुछ मामलों में  सेफ़्गार्ड शुल्कों की भी आवश्यकता हो सकती है; घटिया विदेशी वस्तुओं को रोकने के लिए मानकों की भी आवश्यकता होती है और अन्य गैर-टैरिफ बाधाओं के साथ-साथ रेसिप्रॉसिटी क्लॉज लगाए जाने की भी आवश्यकता हो सकती है। जो लोग इन उपायों को संरक्षणवादी कहते हैं, उन्हें यह समझना चाहिए कि अमेरिका 6500 से अधिक ग़ैर टैरिफ बैरियर लगाता है, चीन 3500 से अधिक ऐसे बैरियर लगाता है, जबकि भारत लगभग 350 ग़ैर टैरिफ बैरियर ही लगाता है।
यह समझना होगा कि 1991 की नई आर्थिक नीति से पहले संरक्षणवाद, विशेष रूप से नेहरूवादी युग के दौरान, अकुशल औद्योगीकरण का कारण बना, क्योंकि उस अवधि के दौरान, भारत में अत्यंत उच्च आयात शुल्क (100 प्रतिशत से 600 प्रतिशत) लगाए जा रहे थे, जिन्हें वास्तव में दक्षता के लिए बाधा कहा जा सकता  है। डब्ल्यूटीओ के अस्तित्व में आने के बाद उच्च आयात शुल्क का युग पहले ही समाप्त हो चुका है। भारत डब्ल्यूटीओ के नियमों से बंधा है। लेकिन विश्व व्यापार संगठन में भी प्रावधान और लचीलापन हैं, जिसके माध्यम से हम अपने उद्योगों को बढ़ावा दे सकते हैं और उन्हें असमान प्रतिस्पर्धा से बचा सकते हैं। पिछले तीन दशकों के बेलगाम भूमंडलीकरण और मुक्त व्यापार के प्रति हमारे नीति निर्माताओं के जुनून के कारण हमने विश्व व्यापार संगठन की बाध्य दरों से भी बहुत कम आयात शुल्क तय कर दिया है। जबकि, डब्ल्यूटीओ के नियम भारत को औसतन आयात शुल्क 40 प्रतिशत तक रखने की अनुमति देते हैं, हमारा औसतन  आयात शुल्क लगभग 10 प्रतिशत ही है। इन प्रावधानों के तहत, भारत सरकार ने इलेक्ट्रॉनिक्स, मोबाइल फोन, उपभोक्ता वस्तुओं आदि सहित कुछ वस्तुओं पर आयात शुल्क 10 प्रतिशत से बढ़ाकर 20 प्रतिशत कर दिया और इससे आयात को कम करने में काफी मदद मिली। 2017-18 और 2019-20 के बीच पिछले दो वर्षों में, चीन के साथ भारत का व्यापार घाटा 63.2 बिलियन डॉलर से घटकर 48.6 बिलियन डॉलर हो गया है। डंपिंग रोधी शुल्कों  के अलावा, हम गैर-टैरिफ बाधाओं को भी लागू कर सकते हैं और मानकों को लागू करके भारतीय उद्योगों को प्रोत्साहित कर सकते हैं। 1991 के पूर्व के संरक्षणवाद के साथ इसकी बराबरी नहीं की जा सकती। लगभग सभी देश अपने उद्योगों की सुरक्षा और संवर्धन के लिए टैरिफ और गैर-टैरिफ बाधाओं को लागू करते हैं, तो भारत ऐसा क्यों नहीं कर सकता । जब अन्य देश 'व्यापार युद्ध' के नाम पर आयात शुल्क बढ़ा रहे हैं, भारत का एकतरफा मुक्त व्यापार आत्मघाती साबित होगा। इसलिए, आलोचकों को यह समझना होगा कि सस्ते चीनी आयात के कारण उद्योगों की लगातार गिरावट देश के हित में नहीं थी। क्यों लगातार बढ़ता व्यापार घाटा आलोचकों को विचलित नहीं करता, समझ से परे है। समय की आवश्यकता है कि मुख्य रूप से हमारे उद्योगों को प्रोत्साहन के साथ, आयात को रोकने के प्रयास किए जायें,  और उसके बाद, अंतर्राष्ट्रीय मानकों के उत्पाद बनाकर, हम न केवल देश की आवश्यकताओं को पूरा कर सकते हैं, बल्कि विदेशों में भी निर्यात कर सकते हैं। यह समझना होगा कि हर देश अपने उद्योगों की रक्षा कर रहा है, विश्व व्यापार संगठन के प्रावधानों और ढांचे के तहत अपनाए गए उपायों को हम संरक्षणवाद नहीं कह सकते। वास्तव में, देश द्वारा आत्मनिर्भरता का यह प्रयास देश में आय और रोजगार बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।

घरेलू प्रयास
प्रधानमंत्री ने अपने स्वतंत्रता दिवस के भाषण में कहा है कि आत्मनिर्भरता एक शब्द नहीं है, यह एक संकल्प है। उस राष्ट्रीय संकल्प को पूरा करने के लिए सभी स्तरों पर प्रयास करने होंगे। प्रधान मंत्री ने कहा है कि देश अब कच्चे माल के निर्यातक और तैयार माल के आयातक नहीं रह सकता। भारत को दुनिया के लिए उत्पादन करने में सक्षम बनाने के लिए, हमें सभी प्रयास करने की आवश्यकता है। आयातों से असमान प्रतिस्पर्धा को रोकने हेतु टैरिफ बढ़ाने, एंटी डंपिंग और काउंटरवेलिंग शुल्कों, गैर टैरिफ उपायों के माध्यम से; हमें घरेलू उद्योग के विकास के लिए एक वातावरण बनाने के प्रयास करने की आवश्यकता है। हम समझते हैं कि आजादी के बाद नियमों के जंजाल, नौकरशाही, लालफीताशाही, इंस्पेक्टर राज, आर्थिक गतिविधियों के संचालन की समाजवादी मानसिकता और हमारे उद्यमियों के गला घोंटने से हमारे आर्थिक और औद्योगिक विकास बुरी तरह प्रभावित हुआ है। नई आर्थिक नीति के बाद की अवधि में, हालांकि निजी उद्यम को प्रोत्साहन देने के लिए बयानबाजी नियमों, लालफीताशाही को कम करने की थी, लेकिन सरकार की नीति केवल आयातों के उदारीकरण पर केंद्रित रही, जिससे एफडीआई के नाम पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों को सुविधा प्रदान करने के लिए घरेलू कानूनों में संशोधन हुआ। मुक्त व्यापार और आयात उदारीकरण (विशेष रूप से चीन से) के लिए जुनून ने हमारे उद्योगों को कुशल बनाने के बजाय, उन्हें नष्ट कर दिया। एफडीआई ने नई तकनीक के हस्तांतरण में भी मदद नहीं की। बल्कि रॉयल्टी और तकनीकी शुल्क के माध्यम से विदेशी मुद्रा के बहिर्गमन में कई गुना वृद्धि हुई।
देश ने देखा है कि कैसे हमारे छोटे उद्योग और यहां तक कि  सामान्य लोग  भी सामने आए और जब फेस मास्क और पीपीई किट की कमी थी तो उन्होंने उसका उत्पादन बढ़ाया। ग़ौरतलब है कि चीन हमारी लाचारी से मुनाफा लेने  की कोशिश कर रहा था। इसी तरह कई प्रयोगशालाएँ कोरोना परीक्षण सुविधाओं की कमी की समस्या को दूर करने के लिए आगे आईं और आज हमारे पास न केवल  कोविड के परीक्षण की पर्याप्त सुविधा है, परीक्षण की लागत में भी भारी कमी आई है।

जब देश और दुनिया में वेंटिलेटर की कमी देखी जा रही थी, एक कंपनी स्कैनरे टेक्नोलॉजीज, मैसूर,जो पहले से ही एक महीने में 5000 वेंटिलेटर का उत्पादन और निर्यात कर रही थी, ने देश की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अन्य कंपनियों की मदद करने का भारी कार्य लिया। इस कम्पनी द्वारा उदारतापूर्वक अपने डिजाइन को अन्य कम्पनिओं के साथ साझा करते हुए मात्र दो महीने की छोटी अवधि में देश में 60,000 वेंटिलेटरों का उत्पादन करना संभव बना दिया; और अब देश भारी मात्रा में वेंटिलेटर निर्यात भी कर रहा है और दुनिया की मांग को पूरा कर रहा है। हमारे किसानों की मेहनत से देशवासियों में विश्वास पैदा होता है कि हम कभी भी खाद्य पदार्थों की कमी का सामना नहीं करेंगे। कोरोना अवधि के दौरान, हमने देखा कि कैसे, कई नियोक्ताओं ने लॉकडाउन के बावजूद अपने श्रमिकों को भुगतान जारी रखा। हमें यह समझने की जरूरत है; वैश्वीकरण के प्रति अंधे जुनून के कारण हमें बहुत नुकसान हुआ है। वैश्विकरण ने घरेलू उत्पादन और रोजगार को प्रभावित किया है और इससे अन्य देशों, विशेष रूप से चीन पर अत्यधिक निर्भरता पैदा हुई है। अब देशी उत्पादन बढ़ाने के घरेलू प्रयासों को प्रोत्साहन देने का समय आ गया है। ये प्रयास मुखर भी  होते जा रहे हैं। दवा उद्योग के  लिए कच्चे माल,  ऐक्टिव फ़ार्मसूटिकल इंग्रीडीयंट्स (एपीआई) के उत्पादन में वृद्धि के लिए, 12 हजार करोड़ रुपये से अधिक के उत्पादन से जुड़े प्रोत्साहन (पीएलआई) पैकेज दिया गया है। इलेक्ट्रॉनिक्स और मोबाइल फोन उत्पादन को प्रोत्साहन देने के लिए 42 हजार करोड़ रुपये से अधिक का पीएलआई पैकेज दिया गया है। देश ने देखा है कि कैसे हमारे उद्योगों (बड़े और छोटे दोनों) ने पीपीई किट, एन 95 मास्क, वेंटिलेटर और कई अन्य उपकरणों का उत्पादन करके कोरोना चुनौती का जवाब दिया। हमने दुनिया को हाइड्रो क्लोरोकुइन (एच सी क्यू) टैबलेट की आपूर्ति की। फार्मा उद्योग को पहले से ही कोरोना वैक्सीन का उत्पादन करने के लिए तैयार किया गया  है। 
इन परिस्थितियों में, सरकार का बजटीय सहयोग भी महत्वपूर्ण है लेकिन पर्याप्त नहीं है। हमें नौकरशाही, नियामक निकायों, सरकार की मशीनरी, न्यायपालिका और मीडिया की मानसिकता को बदलने की जरूरत है। हमें समाजवादी व्यवस्था को बढ़ावा देने के लिए बनाए गए नियमों और कानूनों से छुटकारा पाने की भी आवश्यकता है।
हमें अपने युवा उद्यमियों (स्टार्ट अप) को स्वतंत्र रूप से अपने नए विचारों को नई तकनीक लाने और सम्पत्ति उत्पन्न करने के लिए काम करने वालों को प्रोत्साहन देने की आवश्यकता है। मोदी सरकार के स्टार्ट अप्स, स्टैंड अप योजनाओं को अगले स्तर पर ले जाने की जरूरत है। भारतीय युवा उद्यमियों को प्रोत्साहित करके 'मेक इन इंडिया' का सपना साकार करना होगा। हम जानते हैं कि भारत पहले, दूसरे और तीसरे औद्योगिक क्रांतियों के अवसर गँवा चुका है। यह चौथी औद्योगिक क्रांति का समय है, जो डिजिटल क्रांति है। भारतीय अर्थव्यवस्था के विशाल आकार और बाजार के विशाल अवसरों को देखते हुए, वैश्विक दिग्गज अपने पक्ष में संभावनाओं का फायदा उठाने की कोशिश कर रहे हैं। बहुत से लोग सोचते हैं कि हम डिजिटल उपनिवेशवाद के खतरे से भी गुजर रहे हैं। इस अवसर को इस्तेमाल करने और हमारे देश को डिजिटल रूप में भी आत्मनिर्भर बनाने की आवश्यकता है। कोरोना, हालांकि एक महामारी, एक खतरा और एक चुनौती के रूप में आया था; हमारे देश ने उसी को एक अवसर में बदलने का संकल्प लिया है। आइए सभी मिलकर उसी की ओर काम करें और अपने देश को विदेशी आर्थिक प्रभुत्व, बेरोजगारी, गरीबी, अभाव और बेरोजगारी के कलंक से बाहर निकालें।

NAXALISM SOME ARTICLES

From Pashupati to Tirupati: A Red Corridor
Jairam Ramesh
1. Some 70 districts in five States
2. Naxals destructive and apathy of tri als by successive government.
3. Five policies. 
14 OCTOBER 2011 02:10 
UPDATED: 11 AUGUST 2016 15:42 IST

    Some reflections on the Maoist issue. 

1. We are facing not just a destructive ideology but also the wages of our own insensitivity and neglect.
The media imagery of a “liberated” Red corridor extending from Andhra Pradesh, cutting across the heart of India, all the way to Nepal is the most vivid representation of the threat that Maoists pose to our country. The Prime Minister describes the Maoists as India's most serious internal security challenge and the Home Minister rates it as a “problem graver than terrorism.”

In search of an effective response, official committees have, from time to time, studied the phenomenon of Naxalism/Maoist violence. In the early 1980s, Prime Minister Indira Gandhi sent a team headed by the Member-Secretary, Planning Commission, to conduct field studies in the Naxal-affected areas of Bihar and Andhra Pradesh, and recommend solutions to both the Centre and the States. The report's author is, incidentally, the Prime Minister. The recommendations were many but the thrust was that urgent and long-festering socio-economic concerns of the weaker sections of society must be addressed meaningfully if Naxal influence is to be countered.

Three years ago, the Planning Commission published a report by its 17-member expert group on development challenges in extremist-affected areas. It included Debu Bandopadhyay, S.R. Sankaran, K. Balagopal, B.D. Sharma, K.B. Saxena, Ram Dayal Munda, Dileep Singh Bhuria and Sukhadeo Thorat, basically all the people one would want for this exercise. The group produced an extraordinarily detailed report. It provided the historical, political, social and economic contexts to the issue, reviewed government efforts to deal with the problem and recommended policy and programme changes to vastly and visibly reduce, if not totally eradicate, the effects of Left-wing extremism (LWE).

My own engagement with the issue has grown — from an intellectual interest as a student of India's political dynamics to a more direct involvement since becoming a Member of Parliament from Andhra Pradesh. Put together, it has become clear to me that Naxals are exploiting tribals and that tribals themselves want peace, not war.

Two-track approach
What we need is a two-track approach — one that deals with the Naxal leadership, which wishes to overthrow the Indian state and the other, focussing on the concerns of the people the Naxals claim to serve. There is a clear need to recognise tribal populations as victims — first, of State apathy and discrimination and then, of the Naxal agenda. My firm belief is that a complete revamp of administration and governance in tribal areas, particularly in central and eastern India, is the pressing need of the hour. Andhra Pradesh attempted to do this through its Integrated Tribal Development Agency model but much more needs to be done. We must come to grips with the sad reality that affirmative action programmes like reservation have had a marginal impact on the welfare of the central and eastern Indian tribal communities.

In devising our approach, we must recognise the unique characteristics that define the 60 districts, across seven States, identified by the Union government as affected by LWE. When you look at these districts — 15 in Orissa, 14 in Jharkhand, 10 in Chhattisgarh, eight in Madhya Pradesh, seven in Bihar, two each in Maharashtra and Andhra Pradesh and one each in West Bengal and Uttar Pradesh — on a map of India, five characteristics stand out, each calling for a policy response. First, an overwhelming majority of these districts have a substantial population of tribal communities. Second, an overwhelming majority of the districts have a significant area under good quality forest cover. Third, a large number of these districts are rich in minerals like coal, bauxite and iron ore. Fourth, in a number of States, these districts are remote from the seat of power and have large administrative units. Fifth, a large number of districts are located in tri-junction areas of different States.

In some cases, the administrative response is being taken but the real challenge comes next. How do you transform administration in tribal areas so as to give people a sense of participation and involvement but, more fundamentally, to preserve and protect their dignity? How do you address their continued victimisation, first by the State and now by the Naxals? Empowering tribals, who are essentially victims, by giving them access to basics, by giving them what is theirs by right and by securing their livelihoods, is to my mind, an absolute undiluted must.

An important step has been the Central government's administrative innovation providing untied funds to a troika comprising the Collector/District Magistrate, the Superintendent of Police and the District Forest Officer in these districts. The idea is that the triumvirate, representing the face of the Indian state, is better placed to identify critical developmental works that can be completed quickly so that the people begin to see the government in a new light. In 2010-11, Rs.25 crore was released to each district and in 2011-12 another Rs.30 crore will be released. This initiative has spurred unprecedented development activity and should continue on an expanded scale. The challenge now will be to give elected representatives and local elected institutions a role in the selection and execution of works without sacrificing the flexibility and speed of execution.

Rural roads plan
The rural roads programme or the Pradhan Mantri Gram Sadak Yojana (PMGSY) is the single-most important rural development intervention that can significantly transform the ground level situation in these districts. The Naxals realise this, and so they first target roads. This is explains why the PMGSY is severely lagging in the LWE-affected districts.

To counter this, a level of security cover by paramilitary agencies like the Central Reserve Police Force (CRPF) is essential to expedite PMGSY works. I also accord high priority to interventions to ensure speedy settlement of land-related disputes. In many places, the ability of Naxal cadres to resolve land disputes in favour of tribals and mete out what appears “instant justice” has given them a foothold and acceptance among the people at large.

PARA MILITARY: 
The might of the Indian state is in Naxal-affected areas — 71 battalions of central paramilitary forces, nearly 71,000 personnel have been deployed. They have a vital role in backing the State police and in developmental activities. But paramilitary and police action cannot and should not be the driving force; that has necessarily to be development and addressing the daily concerns of people, who have every reason to feel alienated. Massive reform of the police and forest administration at the cutting edge is the need of the hour. A more humane land acquisition policy with focus on effective rehabilitation and resettlement is urgently needed. It was sociologist Walter Fernandes who estimated that over 30 million people in central and eastern India have been displaced over the past five decades due to development projects. Rehabilitation and Resettlement (R&R) for large numbers of people has yet to be completed. Worse, there are large numbers of tribals who have been subjected to repeated displacements.

It is not the Naxals who have created the ground conditions ripe for the acceptance of their ideology — it is the singular failure of successive governments in both States concerned and at the Centre to protect the dignity and the Constitutional rights of the poor and the disadvantaged that has created a fertile breeding ground for violence and given the Naxals the space to speak the language of social welfare, which, in reality, is a cloak to build their guerrilla bases and recruit, most tragically, women and children.

Where do we go from here? Let us not underestimate the seriousness of the threat. I, for one, do not believe that a “developmentalist” strategy alone will do. Nor do I believe that a strategy based on the primacy of paramilitary and police action will yield long-term results. The two must go hand in hand deriving strength from each other. We are combating not just a destructive ideology but are also confronted with the wages of our own insensitivity and neglect. We need to rise above partisan political considerations and set aside old Centre versus State arguments and work concertedly to restore people's faith in the administration to be fair and just, to be prompt and caring, to be prepared to redress the injustices of the past, and to be both responsible and responsive in future. Only then will the tide of Naxalism be stemmed.

( This is an edited version of the Sardar Patel Memorial Lecture organised by Prasar Bharati, New Delhi, on October 11. Jairam Ramesh is Union Minister for Rural Development, and Drinking Water and Sanitation.)
3. 

2019 में MHA द्वारा जारी 90 की सूची
Ministry of Home Affairs

Naxal affected Districts

Posted On: 05 FEB 2019 5:26PM by PIB Delhi

90 districts in 11 States are considered as affected by Left Wing Extremism (LWE). The State-wise list is given below:

List of 90 districts of LWE affected States



Name of Districts

1. Andhra Pradesh, 6. East Godavari, Guntur,  Srikakulam,  Visakhapatnam,  Vizianagaram,  West Godavari

2. Bihar, 16, Arwal, Aurangabad,  Banka,  East Champaran,  Gaya, Jamui,  Jehanabad,  Kaimur,  Lakhisarai, Munger, Muzaffarpur,  Nalanda, Nawada,  Rohtas,  Vaishali,  West Champaran

3.Chhattisgarh, 14.Balod,  Balrampur,  Bastar, Bijapur,  Dantewada,  Dhamtari,  Gariyaband,  Kanker,  Kondagaon,  Mahasamund,  Narayanpur, Rajnandgaon,  Sukma, Kabirdham

4.Jharkhand, 19.Bokaro, Chatra, Dhanbad, Dumka, East Singhbhum, Garhwa, Giridih, Gumla, Hazaribagh, Khunti, Koderma, Latehar, Lohardaga, Palamu,  Ramgarh, Ranchi, Simdega, Saraikela-Kharaswan, West Singhbhum

5.Kerala, 3. Malappuram, Palakkad, Wayanad

6.Madhya Pradesh, 2. Balaghat, Mandla

7.Maharashtra, 3.Chandrapur, Gadchiroli, Gondia

8.Odisha, 15.Angul, Bargarh,  Bolangir, Boudh,  Deogarh, Kalahandi, Kandhamal,  Koraput, Malkangiri, Nabrangpur, Nayagarh,  Nuapada, Rayagada,  Sambhalpur, Sundargarh

9.Telangana, 8. Adilabad, Bhadradri-Kothagudem, Jayashankar-Bhupalpally, Khammam, Komaram-Bheem, Mancherial, Peddapalle, Warangal Rural

10.Uttar Pradesh
3Chandauli, Mirzapur and Sonebhadra

11.West Bengal
1Jhargram

                 Tot(Release ID: 1562724)

The Odisha gap

The Red Corridor is almost contiguous from India's border with Nepal to the absolute northernmost fringes of Tamil Nadu. There is, however, a significant gap consisting of coastal and some central areas in Odisha state, where Naxalite activity is low and indices of literacy and economic diversification are higher.[31][32][33] However, the non-coastal districts of Odisha which fall in the Red Corridor have significantly lower indicators, and literacy throughout the region is well below the nati
2. Wiki

According to the BBC, more than 6,000 people have died during the rebels' 20-year fight between 1990 and 2010. Al Jazeera put the death toll at more than 10,000 between 1980 and 2011.

4. Februari, 2020 The Home Ministry on Monday said the Naxal violence has reduced considerably in the country and the menace is prevalent now in just 46 districtsम

रायपुर/बीजापुर. छत्तीसगढ़ के सुकमा और बीजापुर सीमा पर स्थित टेकलगुड़ा गांव के पास नक्सलियों के साथ हुई मुठभेड़ में 20 जवानों की शहादत होने की खबर है.  

नया 'ऑपरेशन हिड़मा' - आख़िर क्या हुआ था?

कई अफ़सर जो जानते हैं कि यह हमला किस कारण हुआ, उनका कहना है कि उनके पास पहले से यह जानकारी थी कि शीर्ष माओवादी नेता माड़वी हिड़मा जोन्नागुडा गांव के नज़दीक़ जंगलों में अपने साथियों के साथ है.

2 अप्रैल की रात सुकमा और बीजापुर ज़िले से आठ पुलिस टीम वहां के लिए निकलीं. आठों टीमों में तक़रीबन 2000 पुलिस कर्मी थे. हालांकि, जब उस बताई हुई जगह पर वे पहुंचे तो वहां उन्हें माओवादी नहीं मिले. इसके कारण सभी टीमें वापस कैंप लौटने लगीं.

विभिन्न टीमों के 400 पुलिसकर्मी जब वापस लौट रहे थे तब वे जोन्नागुडा के क़रीब अपनी अगली कार्रवाई पर चर्चा करने के लिए रुके. उसी समय माओवादियों ने एक टीले की ऊंचाई से उन पर गोलियां बरसाना शुरू कर दिया.

बीबीसी से बात करते हुए एक अफ़सर ने बताया, "माओवादियों ने हमारे सुरक्षाबलों के ख़िलाफ़ स्थानीय रॉकेट लॉन्चर्स से हमला किया. अधिकतर उसी में घायल हुए हैं. इसके बाद माओवादियों ने हमारे गंभीर जवानों पर गोलियां बरसाना जारी रखा. माओवादियों ने बुलेट प्रूफ़ जैकेट पहनी हुई थीं. हमारे जवानों ने भी हमला जारी रखा. दोनों तरफ़ भारी क्षति हुई है."

पुलिस अफ़सर ने कहा कि एक तरह से कहा जा सकता है कि पुलिस के जवान माओवादियों के फैलाए जाल में फंस गए.

हालांकि, उन अफ़सर का कहना था कि इसे 'इंटेलिजेंस फ़ेलियर' नहीं कहा जा सकता.

उन्होंने कहा, "हम वहां पर हिड़मा पर हमला करने के लक्ष्य से गए थे क्योंकि हमारे पास जानकारी थी. लेकिन लौटते में सुरक्षाबल कम सतर्क थे, इस वजह से यह नुक़सान हुआ."

एक स्थानीय पत्रकार का कहना है, "हिड़मा का गांव पवर्ती घटनास्थल के बेहद क़रीब है. यह पूरा इलाक़ा उनका जाना-पहचाना है. इससे भी बढ़कर उनके पास स्थानीय समर्थन है. इस वजह से पुलिस पर हमला करने की उनकी साफ़ योजना थी क्योंकि वे सुरक्षाबलों की आवाजाही पर क़रीबी नज़र रखे हुए थे."

'आंध्रा मॉडल..'

अविभाजित आंध्र प्रदेश एक समय माओवादी आंदोलन का केंद्र रहा है लेकिन तब के मुक़ाबले आज यह कमज़ोर हुआ है.

ख़ासतौर से तेलंगाना में आंदोलन का नेतृत्व करने वाले इसके मुख्य नेता मुठभेड़ों में मारे गए हैं. आंध्र प्रदेश पुलिस की 'ग्रेहाउंड्स फ़ॉर्सेज़' ने माओवादी आंदोलन को कमज़ोर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. इस तरीक़े को 'आंध्रा मॉडल' कहा जाता है.

ग्रेहाउंड्स एक राज्य का पुलिस बल है और कथित तौर पर इसने राज्य की सीमाओं को पार करके ओडिशा और छत्तीसगढ़ में कार्रवाइयां की हैं.

विभिन्न राज्यों के विशेष सुरक्षाबल हैदराबाद में ग्रेहाउंड्स सेंटर में ट्रेनिंग लेते हैं.

1986 में बने ग्रेहाउंड्स को माओवादियों के ख़िलाफ़ बहुत कम नुक़सान उठाना पड़ा है.

तेलंगाना के एक वरिष्ठ पुलिस अफ़सर जोन्नागुडा की घटना पर कहते हैं, "हर जगह, हर बार ख़ुफ़िया जानकारी ही महत्वपूर्ण होती है. जब कोई ख़ुफ़िया जानकारी हमें मिलती है तो हम उसका विभिन्न स्तरों पर विश्लेषण करते हैं."

वो कहते हैं कि ग्रेहाउंड्स की तरह बाक़ी राज्यों के पुलिस बल इसलिए सफल नहीं हो पाए हैं क्योंकि उनमें उतना समन्वय नहीं है.

"हमारे पास पहले से जानकारी थी कि हिड़मा और उसके साथी इस इलाक़े में हमला करने की योजना बना रहे हैं. हमने छत्तीसगढ़ पुलिस को संभावित हमले की जानकारी भी दे दी थी."

हाल के दिनों में माओवादी हमले काफ़ी बढ़े हैं. इस सवाल पर वो पुलिस अफ़सर कहते हैं, "यह उनके TCOC की वजह से है."

क्या है TCOC?

TCOC (टैक्टिकल काउंटर ऑफ़ेंसिव कैंपेन) माओ त्से तुंग की लिखी किताब 'ऑन गुरिल्ला वॉरफ़ेर' का महत्वपूर्ण भाग है.

वो लिखते हैं, "जब दुश्मन मज़बूत हो और आप कमज़ोर तो अपने सभी बलों को इकट्ठा करके दुश्मन की छोटी सैन्य इकाइयों पर आश्चर्यजनक हमले करो और जीत हासिल करो."

माओ अपनी 'ऑन गुरिल्ला वॉरफ़ेर' में इस रणनीति का समर्थन करते हैं.

वो पुलिस अफ़सर भी यही कहते हैं, "जैसे हम उन पर बढ़त बना रहे होते हैं और अपने कैंप बना रहे होते हैं तो माओवादी भी अपनी बढ़त बनाते हैं."

घटनास्थल के नज़दीक तारेम, पेगाडुपल्ली, सरकेगुडा, बासागुडा में चार कैंप/स्टेशन हैं. यह सभी जोन्नागुडा में घटनास्थल से 4-5 किलोमीटर की दूरी पर हैं.

कुछ अफ़सरों का मानना था कि आने वाले दिनों में सरकार और अधिक कैंप स्थापित करने पर विचार कर रही है जिसके बाद माओवादियों ने इस योजना में बाधा डालने के लिए हमला किया.

यही बात गृह मंत्री अमित शाह और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के बयानों से पता चलती है. दोनों ने बताया था कि सुरक्षाबल माओवादियों के मज़बूत इलाक़ों में कैंप बनाकर अपनी पैठ बढ़ा रहे हैं और उन पर हमले कर रहे हैं.

उन्होंने साफ़ कहा कि उनकी पीछे हटने की योजना नहीं है और वे हमले बढ़ाएंगे ताकि चीज़ें हमेशा के लिए सामान्य हो जाएं.

माओवादियों के मज़बूत गढ़ कौन से हैं और क्या है उनकी ताक़त?

इन सवालों के जवाब जानने के लिए बीबीसी ने माओवादियों से सहानुभूति रखने वालों और इस आंदोलन पर शोध करने वाले शिक्षाविदों से बात की.

अप्रैल 2006 में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने घोषणा की थी कि 'नक्सलवाद आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा ख़तरा है.' उस समय देश के कई राज्यों में माओवादी आंदोलन की किसी न किसी तरह की मौजूदगी थी.

माओवादियों का दावा था कि वे 14 राज्यों में अपना विस्तार कर चुके हैं. 2007 में हुई सीपीआई (माओवादी) पार्टी की सातवीं कांग्रेस के दौरान दंडकारण्य और बिहार-झारखंड को मुक्त क्षेत्र बनाने का फ़ैसला लिया गया.

इसके साथ ही यह फ़ैसला लिया गया कि कर्नाटक-केरल-तमिलनाडु के सीमाई क्षेत्रों और आंध्र-ओडिशा के सीमाई क्षेत्रों में गुरिल्ला युद्ध को तेज़ किया जाएगा. उन्होंने यह भी फ़ैसला किया कि अविभाजित आंध्र प्रदेश में आंदोलन को दोबारा पैदा किया जाएगा जहां पर यह ख़त्म हो चुका था.

हालांकि, इसके बाद राज्यों और केंद्र सरकार ने बस्तर में सलवाजुडूम अभियान और पूरे देश में ऑपरेशन समाधान और ऑपरेशन प्रहार के बाद ऑपरेशन ग्रीन हंट शुरू करने का अभियान छेड़ा.

ये सभी बहु-स्तरीय हमले थे. इसका परिणाम यह हुआ कि माओवादियों ने अपनी मज़बूत जगहों को खो दिया. साथ ही उनकी संख्या में कमी आई. कुछ नेताओं और कैडर ने आत्मसमर्पण कर दिया. नई भर्तियों में कमी आई और साथ ही शहरी और छात्र वर्गों की भर्तियां बिलकुल ख़त्म ही हो गईं. परिणामस्वरूप अब कोई नया नेतृत्व नहीं रह गया था.

मारे गए माओवादी

बस्तर में काफ़ी समय से पत्रकारिता करने वाले एक शख़्स का कहना है, "बस्तर में माओवादियों के दो मज़बूत गढ़ रहे हैं. एक अबूझमाड़ है जो 4,000 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है. कहा जाता है कि इस जगह का सरकार आज तक सर्वे नहीं कर पाई है. जब मैं सरकार कहता हूं तो मेरा अर्थ वर्तमान सरकार से है. यहां तक कहा जाता है कि ब्रिटिश लोग भी इस इलाक़े में नहीं आए थे. यह क्षेत्र बेहद घना है और बहुत कम आबादी वाला है."

दूसरा मज़बूत गढ़ चिंतलनार है. यह इलाक़ा भी अबूझमाड़ जैसा ही है. हालांकि, इसमें घने जंगल नहीं हैं और न ही ऊंची पहाड़ियां हैं लेकिन इसमें जनसंख्या काफ़ी घनी है. बीते 15 सालों में सुरक्षाबलों ने यहां पर भारी नुक़सान झेला है.

चाहे 2010 में ताड़मेटला में 76 सीआरपीएफ़ जवानों का मारा जाना हो या 2020 में लॉकडाउन से दो दिन पहले मिंसा में 17 सुरक्षाबलों की मौत हो, यह सभी गांव इसी क्षेत्र में हैं. दूसरी ओर इसी क्षेत्र का सरकेगुड़ा गांव है जहां पर 2012 में सुरक्षाबलों के एक विवादित 'एनकाउंटर' में 17 लोगों की मौत हुई थी, इनमें 6 नाबालिग भी थे.

मानवाधिकार संगठनों का कई सालों से आरोप है कि ये सभी 17 लोग गांव के लोग थे जो एक स्थानीय त्योहार पर चर्चा के लिए इकट्ठा हुए थे.

जस्टिस अग्रवाल की अध्यक्षता में बनाए गए न्यायिक आयोग की रिपोर्ट को राज्य की विधानसभा में भी पेश किया गया था. इस रिपोर्ट में कहा गया था, "ऐसे कोई संतोषजनक सबूत नहीं हैं जो बताएं कि मारे गए लोग माओवादी थे."

माओवादी आंदोलन में शामिल रहीं एक महिला का कहना है, "बीते दो सालों में अबूझमाड़ इलाक़े (नारायणपुर ज़िला) में पुलिस ने नए कैंप बनाए हैं. इसी कारण इस इलाक़े में हमले हो रहे हैं. इसी तरह दक्षिणी बस्तर में हो रहा है. दक्षिणी बस्तर में हमलों की संख्या काफ़ी बढ़ी भी है."

उनका कहना था कि हम देख सकते हैं कि यह एक संघर्ष है जिसमें पुलिस माओवादियों के गढ़ में पहुंच बनाना चाह रही है और माओवादी गुरिल्ला अपनी पकड़ मज़बूत रखना चाहते हैं.

"सरकार खदानों पर अपना क़ब्ज़ा स्थापित करने की कोशिश कर रही है. सरकार कोशिश कर रही है कि वे खदान कंपनियों को इन्हें सौंप सके, वहीं आदिवासी माओवादियों के नेतृत्व में विरोध कर रहे हैं."

बातचीत का क्या हुआ?

सीपीआई (माओवादी) की दंडकारण्य स्पेशल ज़ोनल कमिटी कुछ सप्ताह पहले घोषणा कर चुकी है कि अगर सरकार उनकी शर्तों को मानने को राज़ी है तो वे बातचीत के लिए तैयार हैं. लेकिन छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने कहा था कि माओवादियों से तभी बातचीत हो सकती है जब वे पहले अपने हथियार डाल दें और सशस्त्र संघर्ष बंद कर दें.

दोनों ओर ऐसे बहुत से लोग हैं जो बातचीत को ज़रूरी और ग़ैर-ज़रूरी मानते हैं. माओवादी पार्टी के नेता कई मौक़ों पर यह बता चुके हैं कि अविभाजित आंध्र प्रदेश में वाईएस राजशेखर रेड्डी के कार्यकाल में शांति वार्ता के कारण उन्हें लाभ की जगह अधिक नुक़सान हुआ था.

सरकार में मौजूद लोगों का मानना है कि उस पार्टी से बातचीत करके कुछ हासिल नहीं हो सकता है जिसका लक्ष्य राज्य की सत्ता को सशस्त्र संघर्ष से हासिल करना चाहती है.

इन सबके बावजूद अलग-अलग स्तरों पर शांति वार्ताएं जारी हैं. सिविल सोसाइटी के नागरिक, बुद्धिजीवी, कुछ ग़ैर सरकारी संगठन कई तरीक़ों से शांति वार्ता की कोशिशें करते रहे हैं.

दुनिया के इतिहास के सबक़

90 के दशक के बाद दुनिया बहुत तेज़ी से बदली है. इतिहास में जाएं तो चीन में माओवादी आंदोलन के बाद 1. पेरू,

 फ़िलीपींस,

 नेपाल और

 तुर्की में ऐसे आंदोलन उभरे. आज के समय में इन देशों में कोई मज़बूत आंदोलन नहीं है.

5. श्रीलंका के तमिलों के साथ-साथ 6. आइरिश और 7. कुर्द लोगों के संघर्ष भी या तो पूरी तरह समाप्त हो चुके हैं या सिर्फ़ वे कहने भर के लिए हैं.

1992 में पेरू में 'शाइनिंग पाथ' के नेता गोंज़ालो की गिरफ़्तारी के बाद माओवादी आंदोलन धीरे-धीरे समाप्त होने लगा. इसी के साथ ही फ़िलीपींस में बिना किसी प्रगति के माओवादी आंदोलन बना हुआ है.

तुर्की में सरकारी दमन के कारण माओवादी आंदोलन को भारी नुक़सान झेलना पड़ा. यहां तक कि मैक्सिको के ज़ैपातिस्ता आंदोलन ने दुनियाभर के बहुत से युवाओं को अपनी ओर आकर्षित किया था लेकिन उसने भी अपने संघर्ष के तरीक़ों को बदल दिया.

गृह मंत्री के अनुसार, माओवादियों के सफ़ाए से ही यह अंतिम लड़ाई जीती जाएगी. आख़िर यह कैसे संभव है? इस सवाल पर एक मानवाधिकार कार्यकर्ता कहते हैं, "शायद माओवादी आंदोलन पूरी तरह से समाप्त हो पाना संभव नहीं है. समाज में जब तक अन्याय और असमानता जारी रहेगी तब तक यह आंदोलन किसी ओर तरीक़े से या अलग स्तर पर जारी रहेगा. यह मानना एक ग़लती होगी कि पुलिस कार्रवाई से इस आंदोलन से निपटना काफ़ी है क्योंकि इसके लिए आंदोलन की सामाजिक-आर्थिक जड़ों के साथ जुड़ना भी ज़रूरी है."

इस कहानी में ऊपर जिन तेलंगाना के एक पुलिस अफ़सर का ज़िक्र हुआ है, उनका कहना है कि इस आंदोलन से निपटने के लिए यह ज़रूरी है कि इसके पीछे के सामाजिक-आर्थिक कारणों को भी देखा जाए.

वो कहते हैं, "माओवाद प्रभावित इलाक़ों के युवाओं को स्किल ट्रेनिंग देकर उन्हें रोज़गार देना संभव है. सिर्फ़ यही नहीं. यह उनको कट्टर बनने से भी रोकने में मदद करेगा."

माओवादी सुरक्षाबलों पर हमलों से शायद एक रणनीतिक विजय ज़रूर पा लें लेकिन भारत जैसे विशाल देश में कुछ छोटे इलाक़ों में सीमित पहुंच होने के कारण वे कैसे सिर्फ़ सैन्य कार्रवाइयों से आंदोलन बरक़रार रख पाएंगे?

source: bbc.com/hindi

Friday, December 4, 2020

निर्यात बढ़ाने पर कुछ अच्छे लेख


राजनीति: निर्यात के मौके और चुनौतियां
तीन मुख्य बिंदु

*एक कि चीन से पलायन करने वाली कंपनियों को आकर्षित करना, उनके लिए स्थान ढूंढना आदि। सरकार की प्लग एंड प्ले योजना। 
**दूसरे की भारत का दवा उद्योग में नई बात की अमरीका से  बाहर अमरीकी दवा स्टैण्डर्ड पर दवा बनाने वाला हब सर्वधिक हमारे यहां है। 2019-20 में भारत से 21.98 लाख करोड़ रुपए मूल्य की वस्तुओं का निर्यात किया गया था

*** तीसरे कौन से क्षेत्र हैं जहां निर्यात हो सकता है: चूंकि इस समय दुनिया में दवाओं सहित कृषि, प्रसंस्करित खाद्य, परिधान, जेम्स व ज्वैलरी, चमड़ा और इसका सामान, कालीन, इंजीनियरिंग उत्पाद जैसी कई वस्तुओं के निर्यात की अच्छी संभावनाएं हैं, लेकिन जिसमे ज्यादा कमाई है जैसे AI, ऑटोमोटिव, इलेक्ट्रॉनिक आदि उसमे हम पीछे है ।
चौथे की जो चुनौती हमारे आगे हैं उनसे निबटना। सस्ता रेट पर इन्वेस्टमेंट, सरकारी लालफीताशाही, भृष्टाचार, एवं दूसरे देश जैसी सुविधाएं देती हैं, वो सब देना।
....
चीन की अर्थव्यवस्था अभी पूरी तरह से कोरोना संकट से मुक्त नहीं हो पाई है। चीन के उद्योग अपनी पूरी क्षमता से उत्पादन नहीं कर पा रहे हैं। चीन से निर्यात घट गए हैं। ऐसे में भारत निर्यात के नए मौकों को हासिल कर सकता है।

जनसत्ता
May 11, 2020 2:25 AM

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कोविड-19 के बाद विश्व व्यापार में भारी बदलाव की संभावना है।
जयंतीलाल भंडारी
कोरोना महामारी के वैश्विक संकट में दुनिया में भारत एक मददगार देश के रूप में भी उभरा है। भारत ने एक सौ बीस से ज्यादा देशों को दवाइयां निर्यात की हैं। ऐसे में भारत को दुनिया के नए दवा उत्पादक क्षेत्र के रूप में भी देखा जा रहा है। हाल के वक्त में भारत ने दवाइयों और खाद्य पदार्थों सहित कई वस्तुओं का निर्यात कर जरूरतमंद देशों को जिस तरह से बड़ी राहत दी है, उससे भारत के लिए नई निर्यात संभावनाएं भी बनी हैं।

भारत के विनिर्माण क्षेत्र का नया केंद्र बनने और निर्यात बढ़ने की संभावनाओं को लेकर कई रिपोर्टें आई हैं। ब्लूमबर्ग की एक रिपोर्ट के मुताबिक चीन में कार्यरत कई वैश्विक निर्यातक कंपनियां अब अपने विनिर्माण का काम पूरी तरह या आंशिक रूप से दूसरे देशों में स्थानांतरित करने की तैयारी कर रही हैं। ये कंपनियां यूरोपीय देशों, अमेरिका और जापान की हैं और चीन की नीतियों से इनका भारी नुकसान हुआ है। इन कंपनियों को आकर्षित करने के लिए भारत इन्हें बिना किसी परेशानी के जमीन मुहैया कराने पर काम कर रहा है। खासतौर से जापान, अमेरिका, दक्षिण कोरिया और ब्रिटेन की कई कंपनियां भारत को प्राथमिकता दे भी रही हैं। ये चारों देश भारत के शीर्ष दस व्यापारिक भागीदारों में शामिल हैं।

इन देशों की विनिर्माण इकाइयों के चीन से निकल कर भारत आने पर निश्चित रूप से भारत के निर्यात मौकें बढ़ेंगे। कई वैश्विक संगठनों की रिपोर्टों में कहा गया है कि चीन से अमेरिका, ब्रिटेन, जापान, दक्षिण कोरिया और आॅस्ट्रेलिया सहित कई देशों की वैश्विक निर्यातक कई कंपनियां अपना निवेश समेट कर और उत्पादन बंद कर भारत आने की तैयारी कर रही हैं। यह परिदृश्य बता रहा है कि भारत अगर इस अवसर का लाभ उठा लेता है तो वह आने वाले वक्त में निर्यात का बड़ा केंद्र बन सकता है।



मौजूदा वैश्विक परिदृश्य में कारोबारी संभावनाओं का फायदा उठाने के लिए पिछले दिनों भारत सरकार ने कई बैठकें की हैं और रणनीतियों पर चर्चा की है। इन बैठकों में विदेशी कंपनियों को आकर्षित करने के लिए "आओ और काम शुरू करो"  (प्लग एंड प्ले) मॉडल को साकार करने पर सहमति बनी और इसके लिए केंद्र और राज्य सरकारें मिल कर काम करेंगी। प्लग एंड प्ले मॉडल में कंपनियों को सभी इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार मिलती है और उद्योग सीधे उत्पादन शुरू कर सकता है। ऐसे में वैश्विक निर्यात की नई संभावनाओं को साकार करने के लिए सरकार के कुछ विभाग आगे बढ़ते हुए दिखाई भी दे रहे हैं।

केंद्र सरकार के वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय ने निर्यात संवर्द्धन परिषद के साथ बैठक आयोजित की, जिसमें कोरोना संकट खत्म होने के बाद भारत को पूरी दुनिया की आपूर्ति शृंखला का प्रमुख हिस्सा बनाने और भारत को दुनिया का अग्रणी निर्यातक देश बनाने की योजना पर काम शुरू करने का निर्णय लिया गया।

यह बात भी महत्त्वपूर्ण है कि वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय ने निवेशकों को आकर्षित करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी के 'प्लग एंड प्ले' मॉडल को साकार करने के मद्देनजर मॉडिफाइड इंडस्ट्रियल इन्फ्रास्ट्रक्चर अपग्रेडेशन स्कीम (एमआइआइयूएस) में बदलाव करने और औद्योगिक उत्पादन के लिए विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) में गैर-उपयोगी खाली पड़ी जमीन का इस्तेमाल करने के संकेत दिए हैं। सरकार विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) में खाली पड़ी करीब तेईस हजार हेक्टेयर से अधिक जमीन का इस्तेमाल नए उद्योगों के लिए शीघ्रतापूर्वक कर सकती है। सेज में सभी ढांचागत सुविधाएं मसलन बिजली, पानी और सड़क जैसी सुविधाएं मौजूद हैं।
*
चूंकि इस समय दुनिया में दवाओं सहित कृषि, प्रसंस्करित खाद्य, परिधान, जेम्स व ज्वैलरी, चमड़ा और इसका सामान, कालीन, इंजीनियरिंग उत्पाद जैसी कई वस्तुओं के निर्यात की अच्छी संभावनाएं हैं, अतएव ऐसे निर्यात क्षेत्रों के लिए सरकार के रणनीतिक प्रयत्न लाभप्रद होंगे।
 imp. इसमें कोई दो मत नहीं है कि भारतीय दवा उद्योग पूरी दुनिया में अहमियत रखता है। भारत अकेला एक ऐसा देश है जिसके पास यूएसएफडीए (युनाइटेड स्टेट्स फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन) के मानकों के अनुरूप अमेरिका से बाहर सबसे अधिक संख्या में दवा बनाने के प्लांट हैं। ऐसे में पिछले वर्ष 2019-20 में भारत से 21.98 लाख करोड़ रुपए मूल्य की वस्तुओं का निर्यात किया गया था। अब नए परिदृश्य में भारत से अधिक निर्यात बढ़ा कर निर्यात मूल्य को ऊँचाई पर ले जाने की संभावनाएं हैं।

विशेष:खासतौर से विशेष आर्थिक क्षेत्र, नियार्तोन्मुखी इकाइयां (ईओयू) औद्योगिक नगरों और ग्रामीण इलाकों में काम कर रही निर्यात इकाइयों से विशेष उम्मीद हैं। देश में दो सौ अड़तीस सेज के तहत पांच हजार से अधिक इकाइयों में इक्कीस लाख से अधिक लोग काम कर रहे हैं। पिछले वित्त वर्ष 2019-20 में सेज इकाइयों से करीब 7.85 लाख करोड़ रुपए का निर्यात किया गया था। 

चीन की अर्थव्यवस्था अभी पूरी तरह से कोरोना संकट से मुक्त नहीं हो पाई है। चीन के उद्योग अपनी पूरी क्षमता से उत्पादन नहीं कर पा रहे हैं। चीन से निर्यात घट गए हैं। ऐसे में भारत निर्यात के नए मौकों को हासिल कर सकता है। इस साल मार्च की शुरूआत में भारत ने फैसला किया था कि चीन से दवा उत्पादन के लिए आने वाले कच्चे माल का देश में ही उत्पादन शुरू किया जाए। इसके लिए सरकार ने दो हजार करोड़ रुपए खर्च करने की योजना बनाई है।

लेकिन इस समय देश के निर्यातकों को जिन मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है, उन पर भी ध्यान दिया जाना जरूरी हैं। निर्यात संगठनों का कहना है कि वैश्विक निर्यात बाजार में बन रहे अवसरों को हासिल करने के लिए जरूरी है कि सरकार पहले देश के निर्यातकों की मुश्किलों को दूर करे और उन्हें निर्यात बढ़ाने के लिए हरसंभव मदद और रियायतें दे। ऐसे में सरकार को निर्यातकों की मुश्किलों को भी दूर करना है और साथ ही नए निर्यात प्रोत्साहनों के जरिए निर्यातकों को मदद भी देनी है। चार मई के बाद अभी भी देशभर में निर्यात उद्योग से संबंधित कई फैक्ट्रियां बंद हैं। निर्यात इकाइयों के भुगतान रुके हुए हैं।

मजदूर अपने घरों को लौट रहे हैं। फेडरेशन आॅफ इंडियन एक्सपोर्ट आॅगेर्नाइजेशन का कहना है कि निर्यात क्षेत्र की नौकरियां बचाना भी मुश्किल भरा काम हो गया है। स्थिति यह है कि जून तक की अवधि निर्यातकों के लिए महत्वपूर्ण है। यदि जून 2020 तक मुश्किलों से जूझ रही निर्यात विनिर्माण इकाइयां पर्याप्त उत्पादन नहीं कर पाएंगी तो पूरे वर्ष के लिए विदेशी खरीददारों की योजना से बाहर हो जाएंगी। इसलिए सरकार को निर्यात क्षेत्र पर विशेष ध्यान देना होगा और जल्द ही कोई राहत पैकेज जारी करना होगा।

निर्यात बढ़ाने के लिए कई बातों पर ध्यान देने की जरूरत है। देश में निर्यातकों को सस्ती दरों पर और समय पर कर्ज दिलाने की व्यवस्था सुनिश्चित की जानी होगी। पिछले कुछ सालों में निर्यात कर्ज का हिस्सा घटा है। ऐसे में किफायती दरों पर कर्ज सुनिश्चित किया जाना जरूरी है। इसके अलावा अन्य देशों की गैर शुल्कीय बाधाएं, मुद्रा का उतार-चढ़ाव, सीमा शुल्क अधिकारियों से निपटने में मुश्किल और सेवा कर जैसे निर्यात को प्रभावित करने वाले कई मुद्दों से निपटने की रणनीति जरूरी है।

सरकार अगर देश की निर्यातक इकाइयों को प्रतिस्पर्धी देशों की तुलना में अधिक प्रोत्साहन देती है तो निश्चित रूप से भारत की निर्यातक इकाइयाँ दुनिया के बाजार में पैठ बनाने में कामयाब हो सकती हैं। और इसका फायदा देश की अर्थव्यवस्था को मिलेगा।


Wednesday, December 2, 2020

विजयदशमी 2020 पर सरसंघचालक जी

विजयादशमी उत्सव (रविवार दि. 25 अक्तूबर 2020) के अवसर पर प. पू. सरसंघचालक डॉ. मोहन जी भागवत का उद्बोधन
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ   25-Oct-2020
 
प. पू. सरसंघचालक डॉ. श्री मोहन जी भागवत का विजयादशमी उत्सव (रविवार दि. 25 अक्तूबर 2020) के अवसर पर दिया उद्बोधन
आज के इस विजयादशमी उत्सव के प्रसंग पर हम सब देख रहे हैं कि उत्सव संख्या की दृष्टि से कम मात्रा में मनाया जा रहा है। कारण भी हम सबको पता है। कोरोना वायरस के चलते सभी सार्वजनिक क्रियाकलापों पर बंधन है।
 
गत मार्च महीने से देश दुनिया में घटने वाली सभी घटनाओं को कोरोना महामारी के प्रभाव की चर्चा ने मानो ढक दिया है। पिछले विजयादशमी से अब तक बीते समय में चर्चा योग्य घटनाएं कम नहीं हुईं। संसदीय प्रक्रिया का अवलंबन करते हुए अनुच्छेद 370 को अप्रभावी करने का निर्णय तो विजयादशमी के पहले ही हो गया था। दीपावली के पश्चात् 9 नवंबर को श्रीरामजन्मभूमि के मामले में अपना असंदिग्ध निर्णय देकर सर्वोच्च न्यायालय ने इतिहास बनाया। भारतीय जनता ने इस निर्णय को संयम और समझदारी का परिचय देते हुए स्वीकार किया। यह मंदिर निर्माण के आरंभ का भूमिपूजन दिनांक 5 अगस्त को संपन्न हुआ, तब अयोध्या में समारोह स्थल पर हुए कार्यक्रम के तथा देशभर में उस दिन के वातावरण के सात्विक, हर्षोल्लासित परंतु संयमित, पवित्र व स्नेहपूर्ण वातावरण से ध्यान में आया। देश की संसद में नागरिकता अधिनियम संशोधन कानून पूरी प्रक्रिया को लागू करते हुए पारित किया गया। कुछ पड़ोसी देशों से सांप्रदायिक कारणों से प्रताड़ित होकर विस्थापित किए जाने वाले बन्धु, जो भारत में आएंगे, उनको मानवता के हित में शीघ्र नागरिकता प्रदान करने का यह प्रावधान था। उन देशों में साम्प्रदायिक प्रताड़ना का इतिहास है। भारत के इस नागरिकता अधिनियम संशोधन कानून में किसी संप्रदाय विशेष का विरोध नहीं है। भारत में विदेशों से आने वाले अन्य सभी व्यक्तियों को नागरिकता दिलाने के कानूनी प्रावधान, जो पहले से अस्तित्व में थे, यथावत् रखे गए थे। परन्तु कानून का विरोध करना चाहने वाले लोगों ने अपने देश के मुसलमान भाइयों के मन में उनकी संख्या भारत में मर्यादित करने के लिए यह प्रावधान है ऐसा भर दिया। उसको लेकर जो विरोध प्रदर्शन आदि हुए उनमें ऐसे मामलों का लाभ उठाकर हिंसात्मक तथा प्रक्षोभक तरीके से उपद्रव उत्पन्न करने वाले तत्त्व घुस गए। देश का वातावरण तनावपूर्ण बन गया तथा मनों में साम्प्रदायिक सौहार्द पर आँच आने लगी। इससे उबरने के उपाय का विचार पूर्ण होने के पहले ही कोरोना की परिस्थिति आ गई, और माध्यमों की व जनता की चर्चा में से यह सारी बातें लुप्त हो गईं। उपद्रवी तत्त्वों द्वारा इन बातों को उभार कर विद्वेष व हिंसा फैलाने के षड्यंत्र पृष्ठभूमि में चल रहे हैं। परन्तु जनमानस के ध्यान में आए अथवा उन तत्त्वों के पृष्ठपोषण का काम करने वालों को छोड़कर अन्य माध्यमों में उनको प्रसिद्धि मिल सके, यह बात कोरोना की चर्चा के चटखारों में नहीं हो सकी।
सम्पूर्ण विश्व में ही ऐसा परिदृश्य है। परन्तु विश्व के अन्य देशों की तुलना में हमारा भारत संकट की इस परिस्थिति में अधिक अच्छे प्रकार से खड़ा हुआ दिखाई देता है। भारत में इस महामारी की विनाशकता का प्रभाव बाकी देशों से कम दिखाई दे रहा है, इसके कुछ कारण हैं। शासन प्रशासन ने तत्परतापूर्वक इस संकट से समस्त देशवासियों को सावधान किया, सावधानी के उपाय बताए और उपायों का अमल भी अधिकतम तत्परता से हो इसकी व्यवस्था की। माध्यमों ने भी इस महामारी को अपने प्रसारण का लगभग एक मात्र विषय बना लिया। सामान्य जनता में यद्यपि उसके कारण अतिरिक्त भय का वातावरण बना, सावधानी बरतने में, नियम व्यवस्था का पालन करने में अतिरिक्त दक्षता भी समाज ने दिखाई यह लाभ भी हुआ। प्रशासन के कर्मचारी, विभिन्न उपचार पद्धतियों के चिकित्सक तथा सुरक्षा और सफाई सहित सभी काम करने वाले कर्मचारी उच्चतम कर्तव्यबोध के साथ रुग्णों की सेवा में जुटे रहे। स्वयं को कोरोना वायरस की बाधा होने की जोखिम उठाकर उन्होंने दिन-रात अपने घर परिवार से दूर रहकर युद्ध स्तर पर सेवा का काम किया। नागरिकों ने भी अपने समाज बंधुओं की सेवा के लिए स्वयंस्फूर्ति के साथ जो भी समय की आवश्यकता थी, उसको पूरा करने में प्रयासों की कमी नहीं होने दी। समाज में कहीं-कहीं इन कठिन परिस्थितियों में भी अपने स्वार्थ साधन के लिए जनता की कठिनाईयों का लाभ लेने की प्रवृत्ति दिखी। परन्तु बड़ा चित्र तो शासन-प्रशासन व समाज के सहयोग, सहसंवेदना व परस्पर विश्वास का ही रहा। समाज की मातृशक्ति भी स्वप्रेरणा से सक्रिय हुई। महामारी के कारण पीड़ित होकर जो लोग विस्थापित हो गए, जिनको घर में वेतन और रोजगार बंद होने से विपन्नता का और भूख का सामना करना पड़ा, वह भी प्रत्यक्ष उस संकट को झेलते हुए अपने धैर्य और सहनशीलता को बनाकर रखते रहे। अपनी पीड़ा व कठिनाई को किनारे करते हुए दूसरों की सेवा में वे लग गए, ऐसे कई प्रसंग अनुभव में आए। विस्थापितों को घर पहुंचाना, यात्रा पथ पर उनके भोजन विश्राम आदि की व्यवस्था करना, पीड़ित विपन्न लोगों के घर पर भोजन आदि सामग्री पहुँचाना, इन आवश्यक कार्यों में सम्पूर्ण समाज ने महान प्रयास किए। एकजुटता व संवेदनशीलता का परिचय देते हुए जितना बड़ा संकट था, उससे अधिक बड़ा सहायता का उद्यम खड़ा किया। व्यक्ति के जीवन में स्वच्छता, स्वास्थ्य तथा रोगप्रतिरोधक शक्ति बढ़ाने वाली अपनी कुछ परंपरागत आदतें व आयुर्वेद जैसे शास्त्र भी इस समय उपयुक्त सिद्ध हुए।
 

 
अपने समाज की एकरसता का, सहज करुणा व शील प्रवृत्ति का, संकट में परस्पर सहयोग के संस्कार का, जिन सब बातों को सोशल कैपिटल ऐसा अंग्रेजी में कहा जाता है, उस अपने सांस्कृतिक संचित सत्त्व का सुखद परिचय इस संकट में हम सभी को मिला। स्वतंत्रता के बाद धैर्य, आत्मविश्वास व सामूहिकता की यह अनुभूति अनेकों ने पहली बार पाई है। समाज के उन सभी सेवाप्रेमी नामित, अनामिक, जीवित या बलिदान हो चुके बंधु भगिनियों का, चिकित्सकों का, कर्मचारियों का, समाज के सभी वर्गों से आने वाले सेवा परायण घटकों को श्रद्धापूर्वक शत शत नमन है। वे सभी धन्य है। सभी बलिदानियों की पवित्र स्मृति में हमारी हार्दिक श्रद्धांजलि है।
 
इस परिस्थिति से उबरने के लिए अब दूसरे प्रकार की सेवाओं की आवश्यकता है। शिक्षा संस्थान फिर से प्रारम्भ करना, शिक्षकों को वेतन देना, अपने पाल्यों को विद्यालय-महाविद्यालयों का शुल्क देते हुए फिर से पढ़ाई के लिए भेजना इस समय समस्या का रूप ले सकता है। कोरोना के कारण जिन विद्यालयों को शुल्क नहीं मिला, उन विद्यालयों के पास वेतन देने के लिए पैसा नहीं है। जिन अभिभावकों के काम बंद हो जाने के कारण बच्चों के विद्यालयों का शुल्क भरने के लिए धन नहीं है, वे लोग समस्या में पड़ गए हैं। इसलिए विद्यालयों का प्रारम्भ, शिक्षकों के वेतन तथा बच्चों की शिक्षा के लिए कुछ सेवा सहायता करनी पड़ेगी। विस्थापन के कारण रोजगार चला गया, नए क्षेत्र में रोजगार पाना है, नया रोजगार पाना है उसका प्रशिक्षण चाहिए, यह समस्या विस्थापितों की है। लौट कर गए हुए सब विस्थापित रोजगार पाते हैं, ऐसा नहीं है। विस्थापित के नाते चले गए बन्धुओं की जगह पर उसी काम को करने वाले दूसरे बन्धु सब जगह नहीं मिले हैं। अतः रोजगार का प्रशिक्षण व रोजगार का सृजन यह काम करना पड़ेगा। इस सारी परिस्थिति के चलते घरों में व समाज में तनाव बढ़ने की परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है। ऐसी स्थिति में अपराध, अवसाद, आत्महत्या आदि कुप्रवृत्तियां ना बढ़ें, इसलिए समुपदेशन की व्यापक आवश्यकता है।
 
संघ के स्वयंसेवक तो मार्च महीने से ही इस संकट के संदर्भ में समाज में आवश्यक सब प्रकार के सेवा की आपूर्ति करने में जुट गए हैं। सेवा के इस नए चरण में भी वे पूरी शक्ति के साथ सक्रिय रहेंगे। समाज के अन्य बन्धु-बांधव भी लम्बे समय सक्रिय रहने की आवश्यकता को समझते हुए अपने अपने प्रयास जारी रखेंगे, यह विश्वास है।
 
कोरोना वायरस के बारे में पर्याप्त जानकारी विश्व के पास नहीं है। यह रूप बदलने वाला विषाणु है। बहुत शीघ्र फैलता है। परन्तु हानि की तीव्रता में कमजोर है, इतना ही हम जानते हैं। इसलिए लम्बे समय तक इसके साथ रहकर इससे बचना और इस बीमारी से तथा उसके आर्थिक एवम् सामाजिक परिणामों से अपने समाज बन्धुओं को बचाने का काम करते रहना पड़ेगा। मन में भय रखने की आवश्यकता नहीं, सजगतापूर्वक सक्रियता की आवश्यकता है। अब सब समाज व्यवहार प्रारम्भ होने पर नियम व अनुशासन का ध्यान रखना, रखवाना, हम सभी का दायित्व बनता है।
 

 
इस महामारी के विरुद्ध संघर्ष में समाज का जो नया रूप उभर कर आया है, उसके और कुछ पहलू हैं। सम्पूर्ण विश्व में ही अंतर्मुख होकर विचार करने का नया क्रम चला है। एक शब्द बार-बार सुनाई देता है, ”न्यू नॉर्मल।“ कोरोना महामारी की परिस्थिति के चलते जीवन लगभग थम सा गया। कई नित्य की क्रियाएं बंद हो गईं। उनको देखते हैं तो ध्यान में आता है कि जो कृत्रिम बातें मनुष्य जीवन में प्रवेश कर गई थीं, वे बंद हो गईं और जो मनुष्य जीवन की शाश्वत आवश्यकताएं हैं, वास्तविक आवश्यकताएं हैं, वे चलती रहीं। कुछ कम मात्रा में चली होंगी, लेकिन चलती रहीं। अनावश्यक और कृत्रिम वृत्ति से जुड़ी हुई बातों के बंद होने से एक हफ्ते में ही हमने हवा में ताजगी का अनुभव किया। झरने, नाले, नदियों का पानी स्वच्छ होकर बहता हुआ देखा। खिड़की के बाहर बाग-बगीचों में पक्षियों की चहक फिर से सुनाई देने लगी। अधिक पैसों के लिए चली अंधी दौड़ में, अधिकाधिक उपभोग प्राप्त करने की दौड़ में हमने अपने आपको जिन बातों से दूर कर लिया था, कोरोना परिस्थिति के प्रतिकार में वही बातें काम की होने के नाते हमने उनको फिर स्वीकार कर लिया और उनके आनंद का नए सिरे से अनुभव लिया। उन बातों की महत्ता हमारे ध्यान में आ गई। नित्य व अनित्य, शाश्वत और तात्कालिक, इस प्रकार का विवेक करना कोरोना की इस परिस्थिति ने विश्व के सभी मानवों को सिखा दिया है। संस्कृति के मूल्यों का महत्त्व फिर से सबके ध्यान में आ गया है और अपनी परम्पराओं में देश-काल-परिस्थिति सुसंगत आचरण का फिर से प्रचलन कैसे होगा इसकी सोच में बहुत सारे कुटुम्ब पड़े हुए दिखाई देते हैं।
 
विश्व के लोग अब फिर से कुटुम्ब व्यवस्था की महत्ता, पर्यावरण के साथ मित्र बन कर जीने का महत्त्व समझने लगे हैं। यह सोच कोरोना की मार की प्रतिक्रिया में तात्कालिक सोच है या शाश्वत रूप में विश्व की मानवता ने अपनी दिशा में थोड़ा परिवर्तन किया है यह बात तो समय बताएगा। परन्तु इस तात्कालिक परिस्थिति के कारण शाश्वत मूल्यों की ओर व्यापक रूप में विश्व मानवता का ध्यान खींचा गया है, यह बात निश्चित है।
 
आज तक बाजारों के आधार पर सम्पूर्ण दुनिया को एक करने का जो विचार प्रभावी व सब की बातों में था, उसके स्थान पर, अपने अपने राष्ट्र को उसकी विशेषताओं सहित स्वस्थ रखते हुए, अंतरराष्ट्रीय जीवन में सकारात्मक सहयोग का विचार प्रभावी होने लगा है। स्वदेशी का महत्त्व फिर से सब लोग बताने लगे हैं। इन शब्दों के अपनी भारतीय दृष्टि से योग्य अर्थ क्या हैं, यह सोच विचार कर हमको इन शाश्वत मूल्यों परम्पराओं की ओर कदम बढ़ाने पड़ेंगे।
 
इस महामारी के संदर्भ में चीन की भूमिका संदिग्ध रही यह तो कहा ही जा सकता है, परंतु भारत की सीमाओं पर जिस प्रकार से अतिक्रमण का प्रयास अपने आर्थिक सामरिक बल के कारण मदांध होकर उसने किया वह तो सम्पूर्ण विश्व के सामने स्पष्ट है। भारत का शासन, प्रशासन, सेना तथा जनता सभी ने इस आक्रमण के सामने अड़ कर खड़े होकर अपने स्वाभिमान, दृढ़ निश्चय व वीरता का उज्ज्वल परिचय दिया, इससे चीन को अनपेक्षित धक्का मिला लगता है। इस परिस्थिति में हमें सजग होकर दृढ़ रहना पड़ेगा। चीन ने अपनी विस्तारवादी मनोवृत्ति का परिचय इसके पहले भी विश्व को समय-समय पर दिया है। आर्थिक क्षेत्र में, सामरिक क्षेत्र में, अपनी अंतर्गत सुरक्षा तथा सीमा सुरक्षा व्यवस्थाओं में, पड़ोसी देशों के साथ तथा अंतरराष्ट्रीय संबंधों में चीन से अधिक बड़ा स्थान प्राप्त करना ही उसकी राक्षसी महत्त्वाकांक्षा के नियंत्रण का एकमात्र उपाय है। इस ओर हमारे शासकों की नीति के कदम बढ़ रहे हैं ऐसा दिखाई देता है। श्रीलंका, बांग्लादेश, ब्रह्मदेश, नेपाल ऐसे हमारे पड़ोसी देश, जो हमारे मित्र भी हैं और बहुत मात्रा में समान प्रकृति के देश हैं, उनके साथ हमें अपने सम्बन्धों को अधिक मित्रतापूर्ण बनाने में अपनी गति तीव्र करनी चाहिए। इस कार्य में बाधा उत्पन्न करने वाले मनमुटाव, मतान्तर, विवाद के मुद्दे आदि को शीघ्रतापूर्वक दूर करने का अधिक प्रयास करना पड़ेगा।
 
हम सभी से मित्रता चाहते हैं। वह हमारा स्वभाव है। परन्तु हमारी सद्भावना को दुर्बलता मानकर अपने बल के प्रदर्शन से कोई भारत को चाहे जैसा नचा ले, झुका ले, यह हो नहीं सकता, इतना तो अब तक ऐसा दुःसाहस करने वालों को समझ में आ जाना चाहिए। हमारी सेना की अटूट देशभक्ति व अदम्य वीरता, हमारे शासनकर्ताओं का स्वाभिमानी रवैया तथा हम सब भारत के लोगों के दुर्दम्य नीति-धैर्य का जो परिचय चीन को पहली बार मिला है, उससे उसके भी ध्यान में यह बात आनी चाहिए। उसके रवैये में सुधार होना चाहिए। परन्तु नहीं हुआ तो जो परिस्थिति आएगी, उसमें हम लोगों की सजगता, तैयारी व दृढ़ता कम नहीं पड़ेगी, यह विश्वास आज राष्ट्र में सर्वत्र दिखता है।
 
राष्ट्र की सुरक्षा व सार्वभौम सम्प्रभुता को मिलने वाली बाहर की चुनौतियाँ ही ऐसी सजगता तथा तैयारी की माँग कर रही हैं ऐसा नहीं, देश में पिछले वर्ष भर में कई बातें समानांतर चलती रहीं, उनके निहितार्थ को समझते हैं तो इस नाजुक परिस्थिति में समाज की सावधानी, समझदारी, समरसता व शासन-प्रशासन की तत्परता का महत्त्व सब के ध्यान में आता है। सत्ता से जो वंचित रहे हैं, ऐसे सत्ता चाहने वाले राजनीतिक दलों के पुनः सत्ता प्राप्ति के प्रयास, यह प्रजातंत्र में चलने वाली एक सामान्य बात है। लेकिन उस प्रक्रिया में भी एक विवेक का पालन अपेक्षित है कि वह राजनीति में चलने वाली आपस की स्पर्धा है, शत्रुओं में चलने वाला युद्ध नहीं। स्पर्धा चले, स्वस्थ चले, परंतु उसके कारण समाज में कटुता, भेद, दूरियों का बढ़ना, आपस में शत्रुता खड़ी होना यह नहीं होना चाहिए। ध्यान रहे, इस स्पर्धा का लाभ लेने वाली, भारत को दुर्बल या खण्डित बनाकर रखना चाहने वाली, भारत का समाज सदा कलहग्रस्त रहे इसलिए उसकी विविधताओं को भेद बता कर, या पहले से चलती आई हुई दुर्भाग्यपूर्ण भेदों की स्थिति को और विकट व संघर्षयुक्त बनाते हुए, आपस में झगड़ा लगाने वाली शक्तियां, विश्व में हैं व उनके हस्तक भारत में भी हैं। उनको अवसर देने वाली कोई बात अपनी ओर से ना हो, यह चिंता सभी को करनी पड़ेगी। समाज में किसी प्रकार से अपराध की अथवा अत्याचार की कोई घटना हो ही नहीं, अत्याचारी व आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों पर पूर्ण नियंत्रण रहे और फिर भी घटनाएं होती हैं तो उसमें दोषी व्यक्ति तुरंत पकड़े जएं और उनको कड़ी से कड़ी सजा हो, यह शासन प्रशासन को समाज का सहयोग लेते हुए सुनिश्चित करना चाहिए। शासन-प्रशासन के किसी निर्णय पर या समाज में घटने वाली अच्छी बुरी घटनाओं पर अपनी प्रतिक्रिया देते समय अथवा अपना विरोध जताते समय, हम लोगों की कृति, राष्ट्रीय एकात्मता का ध्यान व सम्मान रखकर, समाज में विद्यमान सभी पंथ, प्रांत, जाति, भाषा आदि विविधताओं का सम्मान रखते हुए व संविधान कानून की मर्यादा के अंदर ही अभिव्यक्त हो यह आवश्यक है। दुर्भाग्य से अपने देश में इन बातों पर प्रामाणिक निष्ठा न रखने वाले अथवा इन मूल्यों का विरोध करने वाले लोग भी, अपने आप को प्रजातंत्र, संविधान, कानून, पंथनिरपेक्षता आदि मूल्यों के सबसे बड़े रखवाले बताकर, समाज को भ्रमित करने का कार्य करते चले आ रहे हैं। 25 नवम्बर, 1949 के संविधान सभा में दिये अपने भाषण में श्रद्धेय डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने उनके ऐसे तरीकों को "अराजकता का व्याकरण"(Grammer of Anarchy) कहा था। ऐसे छद्मवेषी उपद्रव करने वालों को पहचानना व उनके षड्यंत्रों को नाकाम करना तथा भ्रमवश उनका साथ देने से बचना समाज को सीखना पड़ेगा।
 
ऐसा भ्रम संघ के बारे में निर्माण न हो, इसीलिए संघ कुछ शब्दों का उपयोग क्यों करता है अथवा कुछ प्रचलित शब्दों को किस अर्थ में समझता है यह जानना आवश्यक है। हिन्दुत्व ऐसा ही एक शब्द है, जिसके अर्थ को पूजा से जोड़कर संकुचित किया गया है। संघ की भाषा में उस संकुचित अर्थ में उसका प्रयोग नहीं होता। वह शब्द अपने देश की पहचान को, अध्यात्म आधारित उसकी परंपरा के सनातन सातत्य तथा समस्त मूल्य सम्पदा के साथ अभिव्यक्ति देने वाला शब्द है। इसलिए संघ मानता है कि यह शब्द भारतवर्ष को अपना मानने वाले, उसकी संस्कृति के वैश्विक व सर्वकालिक मूल्यों को आचरण में उतारना चाहने वाले, तथा यशस्वी रूप में ऐसा करके दिखाने वाली उसकी पूर्वज परम्परा का गौरव मन में रखने वाले सभी 130 करोड़ समाज बन्धुओं पर लागू होता है। उस शब्द के विस्मरण से हमको एकात्मता के सूत्र में पिरोकर देश व समाज से बाँधने वाला बंधन ढीला होता है। इसीलिए इस देश व समाज को तोड़ना चाहने वाले, हमें आपस में लड़ाना चाहने वाले, इस शब्द को, जो सबको जोड़ता है, अपने तिरस्कार व टीका टिप्पणी का पहला लक्ष्य बनाते हैं। इससे कम व्याप्ति वाले शब्द जो हमारी अलग-अलग विशिष्ट छोटी पहचानों के नाम हैं तथा हिन्दू इस शब्द के अंतर्गत पूर्णतः सम्मानित व स्वीकार्य है, समाज को तोड़ना चाहने वाले ऐसे लोग उन विविधताओं को अलगाव के रूप में प्रस्तुत करने पर जोर देते हैं। हिन्दू किसी पंथ, सम्प्रदाय का नाम नहीं है, किसी एक प्रांत का अपना उपजाया हुआ शब्द नहीं है, किसी एक जाति की बपौती नहीं है, किसी एक भाषा का पुरस्कार करने वाला शब्द नहीं है। वह इन सब विशिष्ट पहचानों को कायम स्वीकृत व सम्मानित रखते हुए, भारत भक्ति के तथा मनुष्यता की संस्कृति के विशाल प्रांगण में सबको बसाने वाला, सब को जोड़ने वाला शब्द है। इस शब्द पर किसी को आपत्ति हो सकती है। आशय समान है तो अन्य शब्दों के उपयोग पर हमें कोई आपत्ति नहीं है। परन्तु इस देश की एकात्मता के व सुरक्षा के हित में, इस हिन्दू शब्द को आग्रहपूर्वक अपनाकर, उसके स्थानीय तथा वैश्विक, सभी अर्थों को कल्पना में समेटकर संघ चलता है। संघ जब 'हिन्दुस्थान हिन्दू राष्ट्र है' इस बात का उच्चारण करता है तो उसके पीछे कोई राजनीतिक अथवा सत्ता केंद्रित संकल्पना नहीं होती। अपने राष्ट्र का 'स्व' त्व हिंदुत्व है। समस्त राष्ट्र जीवन के सामाजिक, सांस्कृतिक, इसलिए उसके समस्त क्रियाकलापों को दिग्दर्शित करने वाले मूल्यों का व उनकी व्यक्तिगत, पारिवारिक, व्यवसायिक और सामाजिक जीवन में अभिव्यक्ति का, नाम हिन्दू इस शब्द से निर्दिष्ट होता है। उस शब्द की भावना की परिधि में आने व रहने के लिए किसी को अपनी पूजा, प्रान्त, भाषा आदि कोई भी विशेषता छोड़नी नहीं पड़ती। केवल अपना ही वर्चस्व स्थापित करने की इच्छा छोड़नी पड़ती है। स्वयं के मन से अलगाववादी भावना को समाप्त करना पड़ता है। वर्चस्ववादी सपने दिखाकर, कट्टरपंथ के आधार पर, अलगाव को भड़काने वाले स्वार्थी तथा द्वेषी लोगों से बच कर रहना पड़ता है।
 
भारत की विविधता के मूल में स्थित शाश्वत एकता को तोड़ने का घृणित प्रयास इसी प्रकार, हमारे तथाकथित अल्पसंख्यक तथा अनुसूचित जाति जनजाति के लोगों को, झूठे सपने तथा कपोलकल्पित द्वेष की बातें बता कर चल रहा है। ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ ऐसी घोषणाएँ देने वाले लोग इस षड्यंत्रकारी मंडली में शामिल हैं, नेतृत्व भी करते हैं। राजनीतिक स्वार्थ, कट्टरपन व अलगाव की भावना, भारत के प्रति शत्रुता तथा जागतिक वर्चस्व की महत्वाकांक्षा, इनका एक अजीब सम्मिश्रण भारत की राष्ट्रीय एकात्मता के विरुद्ध काम कर रहा है। यह समझकर धैर्य से काम लेना होगा। भड़काने वालों के अधीन ना होते हुए, संविधान व कानून का पालन करते हुए, अहिंसक तरीके से व जोड़ने के ही एकमात्र उद्देश्य से हम सबको कार्यरत रहना पड़ेगा। एक दूसरे के प्रति व्यवहार में हम लोग संयमित, नियम कानून तथा नागरिक अनुशासन के दायरे में, सद्भावनापूर्ण व्यवहार करते हैं तो ही परस्पर विश्वास का वातावरण बनता है। ऐसे वातावरण में ही ठण्डे दिमाग से समन्वय से समस्या का हल निकलता है। इससे विपरीत आचरण परस्पर अविश्वास को बढ़ावा देता है। अविश्वास की दृष्टि में समस्या का हल आंखों से ओझल हो जाता है। समस्या का स्वरूप भी समझना कठिन हो जाता है। केवल प्रतिक्रिया की, विरोध की, भय की भावना में अनियंत्रित हिंसक आचरण को बढ़ावा मिलता है, दूरियाँ और विरोध बढ़ते रहते हैं।
 
परस्पर व्यवहार में, आपस में हम सब संयमित व धैर्यपूर्वक व्यवहार रखकर विश्वास को तथा सौहार्द को बढ़ावा दे सकें, इसलिए सभी को अपनी सबकी एक बड़ी पहचान के सत्य को स्पष्ट स्वीकार करना पड़ेगा। राजनीतिक लाभ-हानि की दृष्टि से विचार करने की प्रवृत्ति को दूर रखना पड़ेगा। भारत से भारतीय अलग होकर जी नहीं सकते। ऐसे सब प्रयोग पूर्ण अयशस्वी हुए हैं, यह दृश्य हमारे आँखों के सामने दिख रहा है। स्वयं के कल्याण की बुद्धि हमको एक भावना में मिल जाने का दिशानिर्देश दे रही है, यह ध्यान में लेना होगा। भारत की भावनिक एकता व भारत में सभी विविधताओं का स्वीकार व सम्मान की भावना के मूल में हिन्दू संस्कृति, हिन्दू परम्परा व हिन्दू समाज की स्वीकार प्रवृत्ति व सहिष्णुता है, यह ध्यान में रखना पड़ेगा।
 
‘हिन्दू’ इस शब्द का उच्चारण संघ के लगभग प्रत्येक वक्तव्य में होते रहता है, फिर भी यहाँ पर फिर एक बार उसकी चर्चा इसलिए की जा रही है कि इससे सम्बन्धित और कुछ शब्द आजकल प्रचलित हो रहे हैं। उदाहरणार्थ स्वदेशी इस शब्द का आजकल बार-बार उच्चारण होता है। इसमें जो स्वत्व है वही हिन्दुत्व है। हमारे राष्ट्र के सनातन स्वभाव का उद्घोष स्वामी विवेकानंद जी ने, अमेरिका की भूमि से एक कुटुम्ब के रूप में सम्पूर्ण विश्व को देखते हुए, सर्वपंथसमन्वय के साथ स्वीकार्यता व सहिष्णुता की घोषणा के रूप में किया था। महाकवि श्री रविंद्रनाथ ठाकुर ने अपने स्वदेशी समाज में भारत के नवोत्थान की कल्पना इसी आधार पर स्पष्ट रूप से रखी थी। श्री अरविंद ने उसी की घोषणा अपने उत्तरपारा के भाषण में की थी। अट्ठारह सौ सत्तावन के पश्चात् हमारे देश के समस्त आत्ममंथन, चिन्तन तथा समाज जीवन के विविध अंगों में प्रत्यक्ष सक्रियता का सम्पूर्ण अनुभव हमारे संविधान की प्रस्तावना में गठित किया गया है। वह इसी हमारी आत्मा की घोषणा करता है। उस हमारी आत्मा या स्व के आधार पर, हमारे देश के बौद्धिक विचार मंथन की दिशा, उसके द्वारा किए जाने वाले सारासार विवेक, कर्तव्याकर्तव्यविवेक के निष्कर्ष निश्चित होने चाहिए। हमारे राष्ट्रीय मानस की आकांक्षाएँ, अपेक्षाएँ व दिशाएँ उसी के प्रकाश में साकार होनी चाहिए। हमारे पुरुषार्थ के भौतिक जगत में किए जाने वाले उद्यम के गंतव्य व प्रत्यक्ष परिणाम उसी के अनुरूप होने चाहिए। तब और तब ही भारत को स्वनिर्भर कहा जाएगा। उत्पादन का स्थान, उत्पादन में लगने वाले हाथ, उत्पादन के विनिमय से मिलने वाले आर्थिक लाभ व उत्पादन के अधिकार अपने देश में रहने चाहिए। परन्तु केवल मात्र इससे वह कार्यपद्धति स्वदेशी की नहीं बनती। विनोबा जी ने स्वदेशी को स्वावलम्बन तथा अहिंसा कहा है। स्वर्गीय दत्तोपंत ठेंगड़ी जी ने कहा कि स्वदेशी केवल सामान व सेवा तक सीमित नहीं। इसका अर्थ राष्ट्रीय आत्मनिर्भरता, राष्ट्रीय सम्प्रभुता तथा बराबरी के आधार पर अंतरराष्ट्रीय सहयोग की स्थिति को प्राप्त करना है। भविष्य में हम स्वावलंबी बन सकें, इसलिये आज बराबरी की स्थिति तथा अपनी शर्तों के आधार पर अंतरराष्ट्रीय व्यापारिक लेनदेन में हम किन्ही कम्पनियों को बुलाते अथवा हमारे लिये अपरिचित तकनीक लाने के लिये कुछ सहूलियत देते हैं तो, इसकी मनाई नहीं है। परन्तु यह सहमति का निर्णय होता है।
 
स्वावलम्बन में स्व का अवलम्बन अभिप्रेत है। हमारी दृष्टि के आधार पर हम अपने गंतव्य तथा पथ को निश्चित करते हैं। दुनिया जिन बातों के पीछे पड़ कर व्यर्थ दौड़ लगा रही है, उसी दौड़ में हम शामिल होकर पहले क्रमांक पर आते हैं तो इसमें पराक्रम और विजय निश्चित है। परन्तु स्व का भान व सहभाग नहीं है। उदाहरणार्थ कृषि नीति का हम निर्धारण करते हैं, तो उस नीति से हमारा किसान अपने बीज स्वयं बनाने के लिए स्वतंत्र होना चाहिए। हमारा किसान अपने को आवश्यक खाद, रोगप्रतिकारक दवाइयाँ व कीटनाशक स्वयं बना सके या अपने गाँव के आस-पास पा सके यह होना चाहिए। अपने उत्पादन का भंडारण व संस्करण करने की कला व सुविधा उसके निकट उपलब्ध होनी चाहिए। हमारा कृषि का अनुभव गहरा व्यापक व सबसे लम्बा है। इसलिये उसमें से कालसुसंगत, अनुभवसिद्ध, परंपरागत ज्ञान तथा आधुनिक कृषि विज्ञान से देश के लिये उपयुक्त व सुपरीक्षित अंश, हमारे किसान को अवगत कराने वाली नीति हो। वैज्ञानिक निरीक्षण तथा प्रयोगों को अपने लाभ की सुविधा के अनुसार परिभाषित करते हुए, नीतियों को प्रभावित करके लाभ कमाने के कार्पोरेट जगत के चंगुल में न फँसते हुए, अथवा बाजार या मध्यस्थों की जकड़न के जाल से अप्रभावित रहकर, अपना उत्पादन बेचने की उसकी स्थिति बननी चाहिए। तब वह नीति भारतीय दृष्टि की यानि स्वदेशी कृषि नीति मानी जाएगी। यह काम आज की प्रचलित कृषि व आर्थिक व्यवस्था में त्वरित हो ना सके यह संभव है, उस स्थिति में कृषि व्यवस्था व अर्थव्यवस्था को इन बातों के लिए अनुकूलता की ओर ले जाने वाली नीति होनी पड़ेगी, तब वह स्वदेशी नीति कहलाएगी।
 
अर्थ, कृषि, श्रम, उद्योग तथा शिक्षा नीति में स्व को लाने की इच्छा रख कर कुछ आशा जगाने वाले कदम अवश्य उठाए गए हैं। व्यापक संवाद के आधार पर एक नई शिक्षा नीति घोषित हुई है। उसका संपूर्ण शिक्षा जगत से स्वागत हुआ है, हमने भी उसका स्वागत किया है। Vocal for Local यह स्वदेशी संभावनाओं वाला उत्तम प्रारंभ है। परन्तु इन सब का यशस्वी क्रियान्वयन पूर्ण होने तक बारीकी से ध्यान देना पड़ेगा। इसीलिये स्व या आत्मतत्त्व का विचार इस व्यापक परिप्रेक्ष्य में सबने आत्मसात करना होगा, तभी उचित दिशा में चलकर यह यात्रा यशस्वी होगी।
 
हमारे भारतीय विचार में संघर्ष में से प्रगति के तत्त्व को नहीं माना है। अन्याय निवारण के अंतिम साधन के रूप मे ही संघर्ष मान्य किया गया है। विकास और प्रगति हमारे यहाँ समन्वय के आधार पर सोची गई है। इसलिए प्रत्येक क्षेत्र स्वतंत्र व स्वावलंबी तो बनता है, परन्तु आत्मीयता की भावना के आधार पर, एक ही राष्ट्र पुरुष के अंग के रूप में, परस्पर निर्भरता से चलने वाली व्यवस्था बनाकर, सभी का लाभ सभी का सुख साधता है। यह आत्मीयता व विश्वास की भावना, नीति बनाते समय, सभी सम्बन्धित पक्षों व व्यक्तियों से व्यापक विचार-विनिमय होकर, परस्पर सकारात्मक मंथन से सहमति बनती है, उससे निकलती है। सबके साथ संवाद, उसमें से सहमति, उसका परिणाम सहयोग, इस प्रक्रिया के कारण विश्वास, यह अपने आत्मीय जनों में, समाज में यश, श्रेय आदि प्राप्त करने की प्रक्रिया बताई गई है।
 
समानो मंत्रः समितिः समानी समानं मनः सहचित्तमेषाम् ।
समानं मंत्रमभिमंत्रये वः समानेन वो हविषा जुहोमि।।
 
सौभाग्य से ऐसा विश्वास सभी के मन में, सभी विषयों पर उत्पन्न करने की क्षमता आज के राजनीतिक नेतृत्व के पास होने की आशा व अपेक्षा की जा सकती है। समाज व शासन के बीच प्रशासन का स्तर पर्याप्त संवेदनशील व पारदर्शी होने से यह कार्य और अधिक अच्छी तरह सम्पन्न किया जा सकता है। सहमति के आधार पर किए गए निर्णय बिना परिवर्तन के तत्परता पूर्वक जब लागू होते हुए दिखते हैं, तब यह समन्वय और सहमति का वातावरण और मजबूत होता है। घोषित नीतियों का क्रियान्वयन आखिरी स्तर तक किस प्रकार हो रहा है, उसके बारे में सजगता व नियंत्रण सदा ही आवश्यक रहता है। नीति निर्माण के साथ-साथ उसके क्रियान्वयन में भी तत्परता व पारदर्शिता रहने से नीति में अपेक्षित परिवर्तनों के लाभों को पूर्ण मात्रा में पा सकते हैं।
कोरोना की परिस्थिति में नीतिकारों सहित देश के सभी विचारवान लोगों का ध्यान, अपने देश की आर्थिक दृष्टि में, कृषि, उत्पादन को विकेंद्रित करने वाले छोटे व मध्यम उद्योग, रोजगार सृजन, स्वरोजगार, पर्यावरण मित्रता तथा उत्पादन के सभी क्षेत्रों में शीघ्र स्वनिर्भर होने की आवश्यकता की तरफ आकर्षित किया है। इन क्षेत्रों में कार्यरत हमारे छोटे-बड़े उद्यमी, किसान, आदि सभी इस दिशा में आगे बढ़कर देश के लिए सफलता पाने के लिए उत्सुक हैं। बड़े देशों की प्रचंड आर्थिक शक्तियों से स्पर्धा में शासन को उन्हें सुरक्षा कवच देना होगा। कोरोना की परिस्थिति के चलते छह महीनों के अंतराल के बाद फिर खड़ा होने के लिए सहायता देने के साथ ही वह पहुँच रही है, यह भी सुनिश्चित करना होगा।
 
हमारे राष्ट्र के विकास व प्रगति के बारे में हमें अपनी भाव भूमि को आधार बनाकर, अपनी पृष्ठभूमि में, अपने विकास पथ का आलेखन करना पड़ेगा। उस पथ का गंतव्य हमारे राष्ट्रीय संस्कृति व आकांक्षा के अनुरूप ही होगा। सबको सहमति की प्रक्रिया में सकारात्मक रूप से हम सहभागी करा लें, अचूक, तत्परतापूर्ण और जैसा निश्चय होता है बिलकुल वैसा, योजनाओं का क्रियान्वयन सुनिश्चित करें। आखिरी आदमी तक इस विकास प्रक्रिया के लाभ पहुँचते हैं, मध्यस्थों व दलालों द्वारा लूट बंद होकर जनता जनार्दन सीधा विकास प्रक्रिया में सहभागी व लाभान्वित होते हैं, इसको देखेंगे, तभी हमारे स्वप्न सत्यता में उतर सकते हैं, अन्यथा उनके अधूरे रह जाने का खतरा बना रहता है।
 
उपरोक्त सभी बातों का महत्त्व है। परन्तु राष्ट्रोत्थान की सभी प्रक्रियाओं में समाज का दायित्व गुरुतर व मूलाधार का स्थान रखता है। कोरोना की प्रतिक्रिया के रूप में विश्व में जागृत हुआ 'स्व' के महत्व का, राष्ट्रीयता का, सांस्कृतिक मूल्यों की महत्ता का, पर्यावरण का विचार व उसके प्रति कृति की तत्परता, कोरोना की परिस्थिति ढीली होते होते मंद होकर, फिर से समाज का व्यवहार, इन सब शाश्वत महत्त्व की उपकारक बातों की अवहेलना का न बन जाए। यह तभी सम्भव होगा जब सम्पूर्ण समाज निरंतर अभ्यासपूर्वक इसके आचरण को सातत्यपूर्ण और उत्तरोत्तर आगे बढ़ने वाला बनाएगा। अपने छोटे-छोटे आचरण की बातों में परिवर्तन लाने का क्रम बनाकर, नित्य इन सब विषयों के प्रबोधन के उपक्रम चलाकर, हम अपनी आदत के इस परिवर्तन को कायम रखकर आगे बढ़ा सकते हैं। प्रत्येक कुटुम्ब इसकी इकाई बन सकता है। सप्ताह में एक बार हम अपने कुटुम्ब में सब लोग मिलकर श्रद्धा अनुसार भजन व इच्छा अनुसार आनन्दपूर्वक घर में बनाया भोजन करने के पश्चात्, दो-तीन घण्टों की गपशप के लिए बैठ जाएँ और उसमें इन विषयों की चर्चा करते हुए उसके प्रकाश में, पूरे परिवार में आचरण का छोटा सा संकल्प लेकर, अगले हफ्ते की गपशप तक उसको परिवार के सभी सदस्यों के आचरण में लागू करने का कार्य, सतत कर सकते हैं। चर्चा ही आवश्यक है, क्योंकि विषय या वस्तु नई हो या पुरानी, उसका नयापन या पुरानापन उसकी उपयुक्तता सिद्ध नहीं करता। हर बात की परीक्षा करके ही उसकी उपयुक्तता व आवश्यकता को समझना चाहिए ,ऐसा तरीका हमारे यहाँ बताया गया है -
 
संतः परीक्ष्यान्यतरद् भजन्ते मूढः परप्रत्ययनेय बुद्धिः।
 
परिवार में अनौपचारिक चर्चा में विषय वस्तु के सभी पहलुओं का ज्ञान, सारासारविवेक से उसकी वास्तविक आवश्यकता का ज्ञान तथा उसको अपनाने का अथवा छोड़ने का मन बनता है, तब परिवर्तन समझबूझ कर व स्वेच्छा से स्वीकार होने के कारण शाश्वत हो जाता है।
 
प्रारम्भ में हम अपने घर में रखरखाव, साजसज्जा, अपने कुटुम्ब की गौरव परम्परा, अपने कुटुम्ब के कालसुसंगत रीतिरिवाज, कुलरीति की चर्चा कर सकते हैं। पर्यावरण का विषय सर्वस्वीकृत व सुपरिचित होने से अपने घर में पानी को बचाकर उपयोग, प्लास्टिक का पूर्णतया त्याग व घर के आंगन में, गमलों में हरियाली, फूल, सब्जी बढ़ाने से लेकर वृक्षारोपण के उपक्रम कार्यक्रम तक कृति की चर्चा भी सहज व प्रेरक बन सकती है। हम सभी रोज स्वयं के लिए तथा कुटुम्ब के लिए समय व आवश्यकतानुसार धन का व्यय करते हुए कुछ ना कुछ उपयुक्त कार्य करते हैं। रोज समाज के लिए कितना समय व कितना व्यय लगाते हैं, यह चर्चा के उपरांत कृति के प्रारम्भ का विषय हो सकता है। समाज के सभी जाति भाषा प्रांत वर्गों में हमारे मित्र व्यक्ति व मित्र कुटुम्ब हैं कि नहीं? हमारा तथा उनका सहज आने-जाने का, साथ उठने-बैठने, खाने-पीने का सम्बन्ध है कि नहीं, यह सामाजिक समरसता की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण आत्मचिंतन कुटुम्ब में हो सकता है। इन सभी विषयों में समाज में चलने वाले कार्यक्रम, उपक्रम व प्रयासों में हमारे कुटुम्ब का योगदान हमारी सजगता व आग्रह का विषय हो सकता है। प्रत्यक्ष सेवा के कार्यक्रम उपक्रमों में - जैसे रक्तदान, नेत्रदान आदि - सहभागी होना अथवा समाज का मन इन कार्यों के लिये अनुकूल बनाना, ऐसी बातों में अपना कुटुम्ब योगदान दे सकता है।
 
ऐसे छोटे-छोटे उपक्रमों के द्वारा व्यक्तिगत जीवन में सद्भाव, शुचिता, संयम, अनुशासन सहित मूल्याधारित आचरण का विकास कर सकते हैं। उसके परिणाम स्वरूप हमारा सामूहिक व्यवहार भी नागरिक अनुशासन का पालन करते हुए परस्पर सौहार्द बढ़ाने वाला व्यवहार हो जाता है। प्रबोधन के द्वारा समाज के सामान्य घटकों का मन अपनी अंतर्निहित एकात्मता का आधारस्वर हिन्दुत्व को बना कर चले, तथा देश के लिए पुरुषार्थ में अपने राष्ट्रीय स्वरूप का आत्मभान, सभी समाज घटकों की आत्मीयतावश परस्पर निर्भरता, हमारी सामूहिक शक्ति सब कुछ कर सकती है, यह आत्मविश्वास तथा हमारे मूल्यों के आधार पर विकास यात्रा के गंतव्य की स्पष्ट कल्पना जागृत रहती है तो, निकट भविष्य में ही भारतवर्ष को सम्पूर्ण दुनिया की सुख शांति का युगानुकूल पथ प्रशस्त करते हुए, बन्धुभाव के आधार पर मनुष्य मात्र को वास्तविक स्वतंत्रता व समता प्रदान कर सकने वाला भारतवर्ष इस नाते खड़ा होता हुआ हम देखेंगे।
 
ऐसे व्यक्ति तथा कुटुम्बों के आचरण से सम्पूर्ण देश में बंधुता, पुरुषार्थ तथा न्याय नीतिपूर्ण व्यवहार का वातावरण चतुर्दिक खड़ा करना होगा। यह प्रत्यक्ष में लाने वाला कार्यकर्ताओं का देशव्यापी समूह खड़ा करने के लिए ही 1925 से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कार्य कर रहा है। इस प्रकार की संगठित स्थिति ही समाज की सहज स्वाभाविक स्वस्थ अवस्था है। शतकों की आक्रमणग्रस्तता के अंधकार से मुक्त हुए अपने इस स्वतंत्र राष्ट्र के नवोदय की पूर्व शर्त यह समाज की स्वस्थ संगठित अवस्था है। इसी को खड़ा करने के लिए हमारे महापुरुषों ने प्रयत्न किए। स्वतंत्रता के पश्चात् इस गंतव्य को ध्यान में लेकर ही उसको युगानुकूल भाषा में परिभाषित कर उसके व्यवहार के नियम बताने वाला संविधान हमें मिला है। उसको यशस्वी करने के लिए पूरे समाज में यह स्पष्ट दृष्टि, परस्पर समरसता, एकात्मता की भावना तथा देश हित सर्वोपरि मानकर किया जाने वाला व्यवहार इस संघ कार्य से ही खड़ा होगा। इस पवित्र कार्य में प्रामाणिकता से, निस्वार्थ बुद्धि से व तन-मन-धन पूर्वक देशभर में लक्षावधि स्वयंसेवक लगे हैं। आपको भी उनके सहयोगी कार्यकर्ता बनकर देश के नवोत्थान के इस अभियान के रथ में हाथ लगाने का आवाहन करता हुआ मैं अपने शब्दों को विराम देता हूँ।
 
"प्रश्न बहुत से उत्तर एक, कदम मिलाकर बढ़ें अनेक।
वैभव के उत्तुंग शिखर पर, सभी दिशा से चढ़ें अनेक।।"
 
।। भारत माता की जय।।