Saturday, July 31, 2021

ठेंगड़ी उवाच

दत्तोपंत जी कहते थे
A. स्वजाम क्यों: 7
2. विकास का मॉडल : 1
3. विदेशी पूंजी: 4
4. उच्च तकनीक कब; 2
5. विविध 

              
               अतः सावधान!!  सावधान!!!
।।।।।।

      6.          स्वदेशी के लिए जरूरी 

स्वदेशी एक बहुआयामी विषय है, यह बहुत विस्तृत विषय है।इस कार्य में सिर्फ प्रचार माध्यमों के सहारे सफल नहीं हुआ जा सकता है। इसके लिए प्रत्येक स्तर पर सघन कार्य करने की आवश्यकता है। 
      दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि यदि देश में कोई सन्देश देना है तो आरम्भ स्वयं से किया जाए, यही अपनी परंपरा है। अर्थात हम स्वदेशी का आरम्भ अपने से करें, यह सबकी जिम्मेवारी है।
(पृ.51, पैरा 1, सर्वसमावेशी स्वदेशी) स्वदेशी बनाम बहुराष्ट्रीय शिकंजा, 1994, पुणे मंच की राष्ट्रीय परिषद बैठक)
           3.       हम संस्था नहीं, जन-आंदोलन हैं
स्वदेशी के अभियान में सहभागी होना यह सभी देशभक्तों का अधिकार एवं कर्तव्य है। अपनी-अपनी व्यक्तिगत या समूहगत अस्मिता को कायम रखते हुए सभी इसमें सहभागी हो सकें, ऐसी रचना का हमें विकास करना होगा। इस दृष्टि से पहली आवश्यकता यह है कि हममें से प्रयेक कार्यकर्ता के मन में यह भाव दृढ़ होना चाहिए कि 'स्वदेशी जागरण मंच' यह संस्था नहीं है, जन-आंदोलन है। ….यह जन-आंदोलन ग्राम-ग्राम तक कैसे फैलाया जा सकता है, इसकी योजना बनानी है।
(पृ.28, पैरा 1 अंतिम पंक्तियां, सर्वसमावेशी स्वदेशी) स्वदेशी जागरण मंच का समारम्भ, 21 नवम्बर, 1992, मुम्बई की मंच की राष्ट्रीय बैठक)
12.   राजनीतिक दलों की स्वदेशी कार्य में सहभागिता? 
कई बार पूछा जाता है कि राजनीतिक दलों का इसमें (स्वदेशी कार्य) में क्या सहयोग रहेगा? मेरे विचार से चूंकि यह मामला राष्ट्रीय महत्व का है इस लिए सभी राजनीतिक दलों के सभी देशभक्त व्यक्तियों का आह्वान करते हैं कि वे इस कार्य में शामिल हों।
(पृ.51, पैरा 3, सर्वसमावेशी स्वदेशी) स्वदेशी बनाम बहुराष्ट्रीय शिकंजा, 1994, पुणे मंच की राष्ट्रीय परिषद बैठक)

    
             13.  पढ़े-लिखों को भी समझाना क्यों?
आज को लोग सुशिक्षित हैं, उन्हें शिक्षा देने की आवश्यकता बहुत ज्यादा है। जो अल्पशिक्षित या अशिक्षित हैं उन्हें राष्ट्रीयता, संस्कृति और धर्म के परिपेक्ष्य में शिक्षित करने की आवश्यकता कम है। चूंकि इस समाज के शिक्षित लोग धरातल से कटकर 'लौहकवच' में रहते हैं, कुछ लोग आभिजात्य कॉलोनियों में रहते हैं, उनका सम्पर्क जनसाधारण से नहीं होता है। 
ये लोग पश्चिमी संस्कृति में पले-बढ़े हैं। ऐसे लोगों को सुशिक्षित करना बहुत कठिन है; लेकिन यह कार्य करना होगा।

(पृ.52, पैरा 1, सर्वसमावेशी स्वदेशी) स्वदेशी बनाम बहुराष्ट्रीय शिकंजा, 1994, पुणे मंच की राष्ट्रीय परिषद बैठक)

14.    क्या स्वदेशी दुनियां से अलग-थलग होना है?
      कुछ लोग कहते थे स्वदेशी इस आइसोलिज़्म (isolism) है। हम लोग कहते थे आइसोलिज़्म नहीं, वास्तविक जो विश्वकुटुम्ब निर्माण करना है -- 'न्यू इंटरनेशनल आर्डर' यह निर्माण करने का यही रास्ता है। ..हर देश स्वदेशी स्पिरिट का अवलम्बन करे। इसके द्वारा स्टेट फ्रीलांस बने, स्वावलम्बी बने। ऐसे स्वावलम्बी देशों का परस्पर सहयोग हो, जागतिक कल्याण के लिए... वही वसुधैव कुटुम्बकम् है।
(पृ 58, पैर 2 अंतिम पंक्तियां, सर्वसमावेशी स्वदेशी। आर्थिक स्वतंत्रता का संग्राम, 1997 हैदराबाद मंच की राष्ट्रीय सभा)    
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18.      स्वदेशी वैचारिक आंदोलन है

स्वदेशी जागरण मंच , यह एक वैचारिक आंदोलन है, और हमारा ऐसा आग्रह नहीं है कि स्वदेशी के लिए काम करने वाले और विदेशी पूंजी के खिलाफ काम करने वाले सभी लोग, हमारे ही छाते के, हमारे ही अम्ब्रेला के नीचे आने चाहिए। हम सAमझते हैं कि यह जो विदेशी पूंजी है और विदेशी सरकारें हैं, इनकी जो सांठगांठ है, इसका विरोध करना बहुत कठिन है...जैसे गुरिल्ला वॉर प्रेक्टिस चलते हैं, वैसे ही, यह जो आर्थिक युद्ध है, इस युद्ध में अलग-अलग शक्तियाँ, अपने-अपने स्थान पर, इसी तरह यह छापामार लड़ाई चलाएं। लेकिन सब लोगों ने एक विचार और एक ध्येय रहना चाहिए।

(सर्वसमावेशी स्वदेशी, पृ 76, विजय सुनिश्चित, वाराणसी में मंच के तृतीय सम्मेलन में बोलते हुए)

4. धर्माधिष्ठित मनोरचना क्या है?
पश्चिम के लोग केवल भौतिकवादी हैं, हमारे यहां भौतिकता का अभाव नहीं है, लेकिन भौतिक और अभौतिक, समुत्कर्ष व निःश्रेयस, दोनों को एक माना गया है। इसका कारण हमारे यहां की धर्माधिष्ठित मनोरचना है।
(पृ. 39, पैरा 2, सर्वसमावेशी स्वदेशी) स्वदेशी क्यों? बहुराष्ट्रीय शिकंजा, 1992 मुम्बई 22 नवंबर,  मंच की सार्वजनिक सभा में)
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विदेशी पूंजी क्यों? 
          5. ॥
          विदेशी पूंजी का विरोध क्यों?

विकसित देशों में जिस तरह पूंजी-निवेश होता है, वैसा ही पूंजी-निवेश हमारे देश में हो तो हमें कोई आपत्ति नहीं होगी। दो देशों के बीच आपसी बातचीत के समय भी राष्ट्रीय-हितों को ध्यान में रखा जाता है, किंतु हमारे यहां तो समझौता करने वालों ने एकदम आत्मसमर्पण कर दिया है।

(पृ.52, पैरा 1, सर्वसमावेशी स्वदेशी) स्वदेशी बनाम बहुराष्ट्रीय शिकंजा, 1994, पुणे मंच की राष्ट्रीय परिषद बैठक)
 ... 

    2.     विदेशी पूंजी से सावधान
विदेशी पूंजी के हाथ बहुत लंबे हैं। लोगों को गुमराह करने की उनकी क्षमता असीम है। झूठे प्रचार की कला के विशेषज्ञ बहुत बड़ी संख्या में उनकी सेवायों में हैं।.. सामान्यजन ऐसे दुष्प्रचार का शिकार आसानी से बनते हैं, क्योंकि उसके पीछे विदेशियों के हाथ है, ऐसा अस्पष्ट सन्देह भी उनके सरल मन में निर्माण नहीं होता।.... (राष्ट्रऋषि दत्तोपंत ठेंगड़ी)
(पृ.23, पैरा 3, सर्वसमावेशी स्वदेशी) स्वदेशी जागरण मंच का समारम्भ, 21 नवम्बर, 1992, मुम्बई की मंच की राष्ट्रीय बैठक)
  8.              क्या विदेशी निवेश बिना विकास संभव है?
अब एक प्रश्न खड़ा होता है कि क्या विदेशी निवेश के बिना हम आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो सकते हैं? इसका उत्तर भी सकारात्मक है। यदि लोगों में देशभक्ति की भावना जागृत की जाती, जिसके कारण हम घरेलू बचत बढ़ाते, उपभोग को नियंत्रित रखते तो हमारे ही अंदर पूंजी बनाने की ताकत बहुत ज्यादा आ जाती।

               9.      विदेशी निवेश कब?
इंग्लैंड, फ्रांस, अमरीका, जर्मनी, इटली जैसे विकसित देश भी विदेशी निवेश का स्वागत करते हैं। लेकिन इस संदर्भ में यह समझना होगा कि विकसित देशों में जो निवेश होता है और हमारे देश में जो निवेश होता है, या तृतीय विश्व के सभी देशों में होता है, उसमें क्या अंतर हैं। विकसित देशों में जो निवेश होता है, वह उनकी शर्तों पर होता है। वे अपने राष्ट्रहित का पूरा ध्यान रखते हैं।
(पृ.43 पैरा 1, सर्वसमावेशी स्वदेशी)
  
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7. तकनीक पर किसका नियंत्रण हो?
कंप्यूटर तकनीक के जनक सुप्रसिद्ध डॉ वीनर (Wiener)  भी कहते हैं कि विज्ञान और तकनीक की अनियंत्रित प्रगति होगी तो मनुष्य को लाभ ही हयोग, इसकी गारंटी है? उन्होंने कहा कि तकनीक पर नियंत्रण रखने वाली संस्था होनी चाहिए, जो वैज्ञानिकों व तकनीक के जानकारों की न हो, बल्कि सांस्कृतिक प्रवृति के मानवजाति का कल्याण चाहने वाले लोग हैं उनकी नियंत्रित संस्थाएं होनी चाहिए।
(पृ.46 पैरा 1, सर्वसमावेशी स्वदेशी)
(आइंस्टाइन व ऑपेन्ह्यमेर रोने लगे अणुबम निर्माण के बाद)

  
              10. उच्च तकनीक कब स्वीकार करना
तकनीक के बारे मे भ्रम है कि हर एक नई तकनीक मानवता के लिए उपयोगी है। लेकिन ऐसा है नहीं। नई तकनीक अकेले  नही आती, बल्कि पाश्चात्य संभ्यताएँ भी आती हैं। ...दूसरी बात उनकी सब तकनीक लोगों को बेरोजगार करने वाली हैं। कुछ क्षेत्र विशेषकर देशकी सुरक्षा के लिए उच्च तकनीक की आवश्यकता है, लेकिन वहां वे उच्च तकनीक लाना नहीं चाहते हैं। 
(पृ.44 पैरा 1, सर्वसमावेशी स्वदेशी)
।।।।

          11.   वस्तु के निर्माता, क्रेता व विक्रेता से सम्पर्क क्यो?

अब तक हम लोगों ने जन-जागरण के माध्यम से स्वदेशी वस्तुओं के बारे में लोगों को बताने का कार्य किया है।... अब थोक वस्तुओं के विक्रेता और क्रेता दोनों से सम्पर्क करके उन्हें स्वदेशी वस्तुएँ बेचने और खरीदने के लिए सहमत करना।           

साथ ही अब उद्योगपतियों पर जोर डालना होगा कि वे अपनी वस्तुओं की उत्पादन-लागत वस्तु पर लिखकर दें।..कई संस्थाएं भी इस कार्य में सहयोग करना चाहती है, धीरे-धीरे इन संस्थाओं का सहयोग लिया जा सकता है।
......
           
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15.     नई तकनीक की मृगमरीचिका
वे लोग कहते हैं कि अप-टू-डेट (अधुनातन) तकनीक ला रहे हैं। लेकिन कोई भी सरकारी नेता यह बताए कि 45 साल में हमने  कौनसी अप-टू-डेट (अधुनातन) तकनीक ली है। विदेशों में ऐसी परिस्थिति है कि तकनीक पर प्रयोग चलते रहते हैं। हित यह है कि एक वस्तु के निर्माण करने के लिए आज जो तकनीक है वह 5-6 महीने में 'आउटडेटेड (प्रयोग से बाहर) हो जाती है। नई तकनीक का निर्माण होता है। लेकिन पुरानी तकनीक जो उनके गोदाम में पड़ी है, ऐसी पुरानी तकनीक हमारे देश पर लाद देते हैं!

(पृ. 45, पैरा 1, सर्वसमावेशी स्वदेशी) स्वदेशी क्यों? बहुराष्ट्रीय शिकंजा, 1992 मुम्बई 22 नवंबर,  मंच की सार्वजनिक सभा में)

16.        विरोध किसका लुटेरों का न कि उसके  सामान्य देशवासी का
हम अमरीका के सख्त खिलाफ हैं, ऐसा कहते हैं, लेकिन इसके कारण मिसअंडरस्टैंडिंग नहीं होनी चाहिए। हम सर्वसाधारण अमरीकन के खिलाफ नहीं हैं। वो बेचारा इतना ही इन्नोसेंट है, जितने हम हैं।...अमरीका हो या गोर देशों में सरकारों व विदेशी पूंजी, इनकी जो सांठगांठ है, इसके खिलाफ हम बात कर रहे हैं।
(पृ 61, पैरा 1 अंतिम पंक्तियां, सर्वसमावेशी स्वदेशी। आर्थिक स्वतंत्रता का संग्राम, 1997 हैदराबाद मंच की राष्ट्रीय सभा)
17.     हरामखोर देश कौन हैं?
कभी-कभी हमारे भाषण में हरामखोर शब्द आता है, लोग कहते हैं साहब ये अनपर्लियामेंट्री है,  मैंने कहा ये ठीक है। लेकिन इनका योग्य वर्णन करना हो तो इससे कम गंदा शब्द शब्दकोश में नहीं। इसलिए इन शब्दों का प्रयोग कर रहा हूँ। यह वास्तव में दुष्ट लोग हैं, हरामखोर हैं, दुनिया को खाकर हम मजे में कैसे रह सकते हैं, हमारा कंजुमारिज़्म कैसे चल सकता है, यह सोचने वाले हैं। 
(पृ 66, पैरा 1 अंतिम पंक्तियां, सर्वसमावेशी स्वदेशी। आर्थिक स्वतंत्रता का संग्राम, 1997 हैदराबाद मंच की राष्ट्रीय सभा)

18.      स्वदेशी वैचारिक आंदोलन है

स्वदेशी जागरण मंच , यह एक वैचारिक आंदोलन है, और हमारा ऐसा आग्रह नहीं है कि स्वदेशी के लिए काम करने वाले और विदेशी पूंजी के खिलाफ काम करने वाले सभी लोग, हमारे ही छाते के, हमारे ही अम्ब्रेला के नीचे आने चाहिए। हम सAमझते हैं कि यह जो विदेशी पूंजी है और विदेशी सरकारें हैं, इनकी जो सांठगांठ है, इसका विरोध करना बहुत कठिन है...जैसे गुरिल्ला वॉर प्रेक्टिस चलते हैं, वैसे ही, यह जो आर्थिक युद्ध है, इस युद्ध में अलग-अलग शक्तियाँ, अपने-अपने स्थान पर, इसी तरह यह छापामार लड़ाई चलाएं। लेकिन सब लोगों ने एक विचार और एक ध्येय रहना चाहिए।

(सर्वसमावेशी स्वदेशी, पृ 76, विजय सुनिश्चित, वाराणसी में मंच के तृतीय सम्मेलन में बोलते हुए)

1.    विकास का स्वदेशी मॉडल कैसा हो?
हम लोग तो 'डे-टू-डे' एक्टिविटी' में लगे हुए हैं। हम ऐसे थोड़े से लोग इस बौद्धिक काम के लिए उपयुक्त हो सकते हैं, ...इसलिए हर स्तर पर ऐसा मॉडल तैयार करने के लिए जो बुद्धिमानी चाहिए, ऐसी बुद्धिमानी रखने वाले लोगों की खोज करना, जिसको कहा गया है 'हंट फ़ॉर द टैलेंट'। यह आवश्यक है, वह अभी से करना आवश्यक है।
                -- राष्ट्रऋषि दत्तोपंत ठेंगड़ी
(पृ. 135, पैरा 1, सर्वसमावेशी स्वदेशी) विकास का मॉडल, 9,10 जनवरी 2004 को  कड़ी,गुजरात, मंच की राष्ट्रीय अधिवेशन ) जीवन का अंतिम वर्ष) 
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Saturday, July 24, 2021

सुनने की कला: पांच बिंदु

5 ways to listen better (My): 
विश्व प्रसिद्ध पुस्तक 'अति महत्वपूर्ण व्यक्तियों की सात आदते' के लेखक स्टीफन कोवे कहते हैं कि किसी को समझाने से पहले खुद उसे समझना या उसे सुनना  बहुत जरूरी होता है। "पहले समझो फिर समझाओ" । इसलिए जब मैंने टेड टॉक पर जूलियस ट्रेझर की  7 मिनट की स्पीच सुनें तो मुझे लगा यह इसका सारांश लिखना और बार-बार दोहराना बहुत जरूरी है। इसके कुछ तथ्य बहुत ही आवश्यक है।
एक बात शुरू में ही समझ लेनी चाहिए।  पिछले 200 सालों में अत्यधिक मशीनीकरण और इंडस्ट्रीलाइजेशन के कारण से मनुष्य ने आसपास की आवाजों को सुनने की बजाय उनसे बचना शुरू किया है। और सुनने की कला धीरे-धीरे विलुप्त होती जा रही है। इस लिए सुनने की कला पर जोर देना जरूरी है।
दूसरा यह कि बातचीत में 60 परसेंट समय हम ज्यादातर सुनने में लगाते हैं। हमें स्कूल व कॉलेज  में लिखना और पढ़ना तो सिखाया जाता है और उस पर जोर भी रहता है परंतु हमारा सुनने और बोलने की कला का अभ्यास कम कराया जाता है।  यह सुनना हमें शारीरिक रूप से, मानसिक रूप से, बौद्धिक रूप से और व्यावहारिक रूप से प्रभावित करता है।इसलिए टेड टॉक पर यह स्पीच अत्यंत महत्वपूर्ण है, कैसा लगा और दो-तीन जगह से निकालकर मैंने इसकी यह संक्षिप्त रूप बनाया है। 
 उसने पांच रास्ते बताए हैं किस प्रकार अपने सुनने की कला को हम पढ़ा सकते हैं।
 1. पहला है शांति यानी ध्यान का अभ्यास करना। इसे हम ध्यान या मेडिटेशन भी कह सकते हैं।
2.  दूसरा है मिक्सर यानी अलग अलग दुनिया सुनने का अभ्यास करना। जैसे संगीतकार यकायक आते समय तबला हारमोनियम सब प्रकार के म्यूजिक अभी हिसाब मन में रखता है और उनकी अलग-अलग चैनल्स को भी देखता है उसी प्रकार से हमको भी अलग-अलग आवासों को तबला ढोलक मृदंग हारमोनियम आदि अलग अलग से सुनने का अभ्यास होना चाहिए।
3. तीसरा  सेवरिंग सेवरिंग अर्थात जो भी सांसारिक या आसपास शोर है उनको अच्छी तरह रस लेकर समझना। यानी पास में  अगर कोई मिक्सी जल रही है तो उसकी आवाज को भी रस लेकर के 1,2,3, 1,2,3 के हिसाब से सुनना। समझना कि यह भी एक 3 ताल की तरह ताल है। संगीतकार कहेगा कि ये दादरा ताल है। धा धिंना ना, धा तिन्न ना । लग जा गले फिर ये हंसी रात हो न, शायद इस जमीं पे मुलाकात हो न हो।
4. और चौथा है पोजिशनिंग हम अपना मानसिक रवैया तय करें कि हमने कैसे सुनना है। अपने मन के फ़िल्टर को भी समझे जो क्षेत्र, कल्चर, पढ़ाई आदि के कारण हमारी आंखों पर रंगीन चश्मा चढ़ा रहता है। चोर की बात को हम सोच समझ कर सकते हैं परंतु अपने बच्चे की बात उसकी शिकायतों को एंपैथी, समानुभूति के स्तर पर सुनते हैं ।
5 .  पांचवा वह संस्कृत का शब्द बोलता है RASA . यह 4 शब्दों से बना है। 
A. R आर से रिसीविंग यानी आने वाले का अभिवादन करना। उसके महत्व को समझना।
ब.  A से अप्रिशिएट बना है यानी वह भी बीच में हां, बिल्कुल, बहुत अच्छा  आदि शब्दों से प्रोत्साहित करते रहना।
C.  तीसरा एस यानी समरी और जाने के जो वो बोलता है उसके मुख्य बिंदु सोचते रहना चाहिए . 
D.  चौथा आ यानी आस्क यानी प्रश्न पूछना। और कुछ नहीं तो इतना भी कह सकते हैं कि कुछ बात तो समझ में आई है थोड़ा और विस्तार से बताइए पूर्णिया अगर हम कोई अच्छा पसंद करते हैं तो उससे भी हम अच्छी तरह से समझ सकते हैं।
यह इस प्रकार ये चार तथा RASA के चार बिंदु कुल 8 बिंदु भी हम कह सकते हैं। जो आज के प्रसिद्ध लेखक साउंड एक्सपर्ट ने कहे हैं। अचानक मेरा ध्यान किसी ने संस्कृत के एक सुभाषित पर दिलाया जिसमें बुद्धि के आठ गुण बताए: शुश्रूषा श्रवणं चैव ग्रहणं धारणं तथा ।
उहापोहोर्थ विज्ञानं तत्वज्ञानं च धीगुणा: ॥


श्रवण करने की इच्छा, प्रात्यक्ष में श्रवण करना, ग्रहण करना, स्मरण में रखना, तर्र्र्कवितर्क, सिद्धान्त निश्चय, अर्थज्ञान तथा तत्वज्ञान ये बुद्धी के आठ अंग है. 

Willing to listen, to actually listen, to understand what we listen, to be able to remember what we have listened, to be able to deduce some conclusions and put forth arguments, to be able to formalise and conclusively put forth the thought, knowledge of the around and Philosophy - these are the eight facets of 'buddhi'.
Julian Treasure, the well known TED speaker talks about 5 ways to listen better in this brilliant video from TEDGlobal 2011. He warns us about losing our listening since we have so many distractions around us which kills conscious listening. Conscious listening, he says, leads to understanding.

The video brings forth many interesting ideas about listening which you should watch for yourself. Here are the five exercises he suggests to improve listening:

1. Silence: Silence of 3 minutes a day helps to reset our ears to quiet so that we can listen well.

2. The Mixer: Even in a noisy environment, try to listen to as many individual channels as you can hear and differentiate.

3. Savouring:  (enjoy in or rekening) This is about enjoying the most mundane sounds. For instance, the tumble dryer of a washing machine. We can enjoy any sound as long as we listen.

4. Listening positions: This is the most important one. Moving your listening position to what’s appropriate –  active/passive or critical/sympathetic. This helps become conscious of barriers/filters to listening and play around with them. 

Adjust your listening positions.

Treasure says this exercise is by far the most effective.

In the same way you imagined your mind as a sound mixer, practice jumping among each of the sound channels around you. If you're listening to a song, try listening only to the drums before listening only to the bass line, for example.

Similarly, practice jumping among different perspectives. Try listening to a speech from a critical perspective, rapidly processing the validity of statements and their meaning, and then try listening from an empathetic perspective, focusing more on the emotion of the words and how the speaker is delivering them.


5. RASA: It’s a Sanskrit word for juice or essence and the acronym stands for Receive, Appreciate, Summary, Ask. It summarises the process of active listening.
Important Points: 
1. And what Julian argues is that listening is the most undervalued sense we have. But our ability to listen, to really listen, it's slipping away. 
1. listening is the most generous gift you can give to another human being. And many people have never had that experience.We are losing our listening. We spend roughly 60 percent of our communication time listening, but we're not very good at it. We retain just 25 percent of what we hear. 
2.  over the last 200 years, (since perhaps industrial revolution) we are suppressing sound because of the...Noise. I mean, there's just so much noise pollution now. And we've just got into the habit of suppressing our sense of hearing. So a big part of my mission in life is to get people listening consciously.
3. Julian's idea is that sound affects your life in a bunch of ways you never even think about. But the flipside of that idea is that becoming aware of sound and really listening, it can actually make our lives a little better. For instance, a couple years ago, the city of Lancaster, in California, was trying to figure out how to keep petty criminals from doing things like stealing purses and harassing shoppers on the main drag. And city officials tried all kinds of crime-prevention techniques, but no luck. So they called Julian, and he installed...
Hundreds of all-weather, Bose loudspeakers in the main street called the Boulevards. Those speakers played this soundscape for five hours a day. And according to the sheriff of Lancaster, Calif., is that crime fell 15 percent after that soundscape...
3. BIRD CHIRPING EFFECTS: Just because we've evolved to it over 250,000 years, it's the sound of security because when the birds are singing, generally things are OK.
 If they suddenly stop, you need to be worrying.
4. In Europe, where Julian does most of his work something like 8 million people are having their sleep seriously disturbed by traffic noise at night.

5.  I'm shocked every day. I see people standing on the cheap station as this screech is happening at a 110, 120 decibels, and they're just standing there.
 And once you get to work - well, researchers have actually tested people in these noisy, open-plan office environment.  And they found that productivity dropped by two-thirds...Sixty-six percent drop in productivity in open-plan office types...
The bosses, of course, are all in hermetically sealed offices, so they're not even aware that this a problem.
But there's a lot of research now showing that noise, and the lack of quiet working space, is one of the biggest issues for all office workers.
 It creates stress hormones, increases your risk of heart attack. It increases your risk of stroke. And there's a whole range of other issues - sexual dysfunction, bowel dysfunction, depression, psychological disorders - which are associated with living in noisy situations day in and day out.

6.  listening takes brainpower. There are studies that show that the human brain can only understand 1.6 conversations at a time, which is enough for one person, and a little bit of your inner monologue. That's the amount of auditory bandwidth we have. And if you're in an office where you can overhear one person talking right next to you, they're taking up one of your 1.6. We don't have any earlids. And unless you put headphones on, that person's conversation is inevitably going to be decoded in your brain because we're programmed to decode conversation.
7.  Men tend to listen in, what I call, a reductive way, which is to say for a point, for a solution. You know, we like to have a problem and solve it. Bang. Thank you very much. On to the next thing.
 Women tend, on the other hand, to listen in more of an expansive way. It's not about a point. It's not about a solution. It's just about going with the flow and being with the person, and listening and enjoying the journey with them. So you get this mismatch where she comes home and says: I've had a terrible day, darling. It's been absolutely awful. This happened, that happened. And he says: Have a bath, you'll be fine. So I think the two listenings are quite different. And when we become conscious of our filters, then we can start to play with them and change our listening position. And that is a very, very powerful thing to do.
8. Sound affects us physiologically, psychologically, cognitively, and behaviorally all the time. The sound around us is affecting us even though we’re not conscious of it.”
9.  I started talking about listening because it occurred to me that the noise around us is not all just made by organizations. Organizations aren’t things, they are composed of people and it’s all of us not listening, which is the issue with the noise that’s being made, the lack of design sound around us. The fact that most of the sound around us is just accidental. It’s like the exhaust gas of what’s going on. Speaking and listening affect one another. If you want to be heard, then you better learn to listen as well. It’s very difficult to be a powerful and inspiring speaker if you aren’t good at listening, if you want to understand the people you’re talking to.
10. Seek first to understand then to be understood,” or something like that?

There is and there’s also the age-old quote which comes from originally a Greek philosopher, which is about the fact we’ve got two ears and one mouth. That’s the correct waiting. Listening is such a forgotten skill, it’s so important for our outcomes in life. Never has the world needed listening as it does right now. You have to look around you, at the politics of hatred and polarization to see the degree to which we’re not listening to each other. 

Anybody who cares about inspiring people, forming a team, getting people to work with you, getting your point across, make a difference in the world, listening is a great access to all of those things. The better you listen, the better you can speak, communicate, and get your point across. 
10. There’s not a vertebrate on this planet that doesn’t have ears. There are plenty that don’t have eyes, but hearing is our primary warning sense because you can hear in a sphere. I can hear behind me. I’m not very good at seeing behind me – I don’t know about you. So, if a twig snaps behind you in a forest, you will spin around. It’s a reflex. 
11. 
that’s not far off. 93% of our time is spent indoors. We only spend 7% of our time outdoors, and of the other 93%, 6 is in the car and 87 is in buildings. So, it’s really important. How we design buildings has a massive influence on how we live our lives and what we get out of our lives. And there’s a great deal of unconsciousness. Now, I was talking about architects. In the US they train for five years, roughly. Ask them how much time they spent on sound. It can be, if you’re very lucky, a couple of months. Maybe they selected to do a course on acoustics, but in most cases out of five years you’ll get the answer that it’s a day or maybe a week. In five years. 

Tuesday, July 20, 2021

Book review: The Resurrected: writer Saugata Mitra,


The Resurrected: writer Sougata Mitra, Olympia Publishers, London
इस सप्ताह यह 297 पृष्ठ की अंग्रेजी पुस्तक बड़ी रुचि से पढ़ी। यह आम आदमी की कहानियां हैं जिन्होंने अपनी मुसीबतों से कैसे न कैसे पार पा लिया, बिल्कुल अपने अंदाज में, अपने प्रकार से। ये धीरूभाई अंबानी, स्टीवजोबस, गरीबी से बादशाहत तक पहुंचने की कहानियां नहीं है, जैसी आम मोटिवेशनल स्पीकर सुनाते हैं। ये मुंशी प्रेमचंद जैसी शैली में सामान्य आदमी के किस्से हैं, पर ये किस्से भी नहीं हैं, क्योंकि ये सच्ची घटनाएं है, सभी पात्र आज भी जीवित हैं। इसी लिए प्रेरित भी करती हैं कि अगर हमारे पर ऐसी मुसीबत आयी तो ये हमारे रोल मॉडल हो सकते हैं। पुस्तक अंग्रेजी में हैं, और अधिकांश पात्र अंग्रेजी भी नहीं जानते होंगे। 
तो भी, इसे  हमारे वरिष्ठ प्रचारक श्री सरोज मित्र ने मुझे दिया और बताया कि उनके भतीजे सौगत मित्र जो कि आजकल मदर डेरी में ह्यूमन रिसोर्स  मैनेजर पद पर है, ने यह लिखी। शुरू में तो मैंने सिर्फ औपचारिकतावश ही किताब देखी, परन्तु पहली कहानी से इसमें पूरी तरह डूब गया और दो दिन में इसे पूरी तरह पढ़ भी डाला। परसों सायंकाल सरोजदा ने बताया कि उसका भतीजा सौगत  यानी इस पुस्तक का लेखक आया हुआ है तो मैंने विस्तार से इस पुस्तक के बारे में चर्चा की।
इसकी प्रस्तावना  लंदन निवासी मार्शल गोल्डस्मिथ ने लिखी है। उसने लिखा है वह  कैलिफोर्निया में रहता है और भारत में किसी न किसी काम से आते-जाते रहते हैं। वह मोटीवेशनल वक्ता है, लीडरशिप और टीम बिल्डिंग जैसे विषयों पर बोलता  है और साथ ही भारत के प्रमुख कंपनियों के सीईओ में सोच परिवर्तन लाने का काम करते हैं । उसने मुक्तकंठ से पुस्तक की प्रशंसा की।
सारांश: इस पुस्तक में 9 कहानियां है और शुरू में पहला भाग या  चैप्टर इंट्रोडक्शन का है, और अंत में Epilogue, ऐसे 11 चैप्टर इस पुस्तक में है । लेखक की कुशलता इसमें है कि वह अपनी भूमिका भी इसी पुस्तक में से सबीना की भीख मांगने की कथा से शुरू करता है और श्रोता एकदम बंध जाता है । क्योंकि लेखक  स्वयं ह्यूमन रिसोर्स में काम करता है इसलिए लोग किस प्रकार से नीचे से ऊपर उठते हैं, अंधकार से रोशनी की ओर जाते हैं,  और निराशा से आशा की ओर जाते हैं -- इसको बड़े ही  मनोवैज्ञानिक ढंग से जानता है । हर कहानी भी क्लाइमेक्स  से शुरू होती है जो कि उसी कहानी का हिस्सा होता है। कल मेरा किस लेखक से मिलना हुआ और इस विषय पर लम्बी बात हुई। उसका कहना है कि इस पुस्तक को लिखने में लगभग 3 साल का समय लग गया। और कहीं कहीं तो एक सब्जेक्ट के साथ उसको 4-4, 5-5 घंटे कई दिन बैठना पड़ाहै।  मैंने जब लेखक से  पूछा कि सबसे अच्छी घटना आपको कौन सी लगी तो उसने सबसे पहले भोपाल त्रासदी की घटना का उल्लेख किया और दूसरे नंबर पर डॉ रवि बागची जो उसके अनुसार आजकल मैक्स हॉस्पिटल में अच्छे पद पर काम कर रहा है, उसकी कथा की ओर इशारा किया। यानी वह वहां पर लोगों को मनोवैज्ञानिक इलाज करता है।
9. आइए अंतिम भाग से कहानी की शुरुआत करें। अंतिम कथा राहुल की है जो के ड्रग एडिक्ट है और बाद में स्वयं भी ठीक हो जाता है औरों को भी ठीक करता है । वह चंडीगढ़ में रहता है पिता का नाम नरेश चंद है और दुकान का नाम जैन पान भंडार सेक्टर 31 सी में है।  आजकल यह 26 वर्षीय युवा थ्रीव्हीलर चलाता है। उसको बचाने में बहुत बड़ी भूमिका करमजीत सिंह नामक एक्टिविस्ट की है जोकि एक SEHAT नामक संस्था से संबंध रखता है और डायरेक्टर डॉ कालरा हैं। एक शब्द बार-बार आता है IDU जिसका अभिप्राय है इंजेक्शन ड्रग यूजर । इसका काम पंजाब के बॉर्डर पर बलटाना नाम के स्थान पर होता है। 
8. उससे पहले यह कहानी मैंने पूरी तरह से नहीं पड़ी है। वैसे यह एक सुनामी की कथा है जो तमिलनाडु के अंदर 26 दिसंबर 2004 में आई थी और उसमें जो लोग पूरी तरह तबाह हो गए । वह कैसे अपना को दोबारा से जीवित या पुनर्वसन की ओर जाते हैं।
3.  उससे पहले भी यह कथा भी भोपाल गैस इसलिए अतः बहुत ध्यान से नहीं पढ़ा । यह अजीजा नाम की महिला की है जो भोपाल गैस त्रासदी का शिकार होती है और अपने आपको बाद में एडजस्ट कर लेती है। 
4.:इससे पहले की कथा उस युवककी है जिसकी बचपन में एक टांग कट जाती है और अपनी आस्था के आधार पर वह आगे अपने जीवन के अंदर अच्छा एथलीट बन  जाता है। उसका नाम विनोद रावत है जो मूलता गढ़वाल डिस्टिक का है लेकिन 1976 में ही एक मुंबई की बस्ती में रहता है और धीरे-धीरे अपने आप को उसी में एडजस्ट कर लेते हैं इसी के बारे में कहना था लेखक का कि वह बार-बार संपर्क करता है कि इस पर आगे क्या है या नहीं कुछ फिल्म आदि बन सकती है कि नहीं। 
5. कहानी नंबर 5 सोमा बागची की है जो नहीं जानती थी कि वह एलजीबीटी है और दिल्ली के दरियागंज में रहती थी, पिता पूरे शराबी थे और और असमय ही उनकी मृत्यु हो गई । मां हिम्मत वाली थी उसको समझाती रही। बचपन से ही वह थोड़ा सेक्स मॉलेस्टेशन का शिकार होती रही और जैसी जैसी उसको पता लगता है क्या कि वह लड़की नहीं लड़का है तो वह फर्स्ट्रेशन का शिकार होती गई और एक बार तो 20 नींद की गोलियां और पिता की रखी शराब पीकर के आत्महत्या का प्रयास करती है। उसी हालत में एक मित्र को फ़ोन पर लड़खड़ाती आवाज में अलविदा कहती है । और वह उसको बचाने के लिए आता है । बादमे इससे भी शादी होती है और जल्दी ही तलाक़ में बदल जाती है।  बाद में m.a. साइकोलॉजी कर लेती है और धीरे-धीरे एमफिल साइकोथेरेपी में करते हुए मनोवैज्ञानिक बन जाती है। क्योंकि वह मानसिक अवसाद की लंबे समय से शिकार रहे इसलिए आने वाले मरीजों की व्यथा भी बहुत अच्छी तरह से समझ जाती थी। इसी बीच उसके मुलाकात  NACHIREN बुद्धिज़्म के लोगों से होती है जो उसे एक मंत्र देते हैं बार-बार दोहराने के लिए जिसे वह कहती है 'नम म्योहो रेंगे क्यो' । यह अंत तक उसकी बहुत सहायता करता है और भारत सौका गाकाई नामक संस्था लोगों को मानसिक अवसाद से बचाने का प्रयास करते हैं.  तीन बार अलग-अलग समय पर अलग-अलग लोगों से इस मंत्र को बोलने  के बारे में उसको सलाह दी जाती है और आखिरकार वह हिम्मत करके अपने आप को लड़के के नाम से रखना शुरू कर दी है। इस बीच उसकी दो तीन बार लव स्टोरी भी चलती रहती हैं सिरे नहीं हो चढ़ पाती। यह बहुत पुरानी कहानी नहीं है लगभग 2011 में वह नीट एग्जाम देती है विमहंस और बाकी जगह पर भी हो सहायता लेने की कोशिश करती है बाद में वह रवि बागचीके नाम से अपने आप को प्रसिद्ध कर लेती है और अपने आप को लड़का बताते हुए औरों का इलाज करती है। बताया जाता है कि अभी वह मैक्स हॉस्पिटल में डॉ रवि के नाम से  मनोवैज्ञानिक पद पर है और साइकोथेरेपी का काम करती है।
4.  इससे पहले की कथा यानी चार नंबर की कथा एक मुस्लिम लड़की जिसका नाम सबीना है उसकी है। वह इधर उत्तर प्रदेश में छोटे से गांव में रहती है इधर मेरठ हापुड़ के पास। 2005 में उसकी शादी होती है और 2009 में उसका एक बच्चा भी होता है. उसे  शक है की उसके ससुर जिन से उसकी बनती नहीं है सोते समय उस पर तेल छिड़ककर आग लगा दी और 80% जलन  हो गया।  वह डीके जैन हॉस्पिटल मेरठ में भर्ती होती है और दुखों का पहाड़ टूट पड़ता है उस समय जो उसके पति ने इसकी बहन के घर से उधार लेकर के चुका दिया । और बाद में उसने भी रास्ता बदल लिया। थकी हारी वह मायके दिल्ली में त्रिलोकपुरी में रहती है और लोक नायक जयप्रकाश हॉस्पिटल में उसका आगे का इलाज चलता है। अचानक कोई महिला उसको 2012 में सुझाव देती  है कि तू भीख मांगना शुरू कर दो और वह भीख मांगना शुरू कर देती है।  यह भीख मांगने का सुझाव भी उसको किसी एक महिला ने हमदर्दी के नाते दिया जो स्वयं भी कभी इस प्रकार के संकटों में उबरने के लिए भीख मांगते हैं। यह चार पांच दिन भीख मांगती है पर इसका मन नहीं मानता। इतने में कोई एक महिला और बस में बैठे बैठे इस को सुझाव देती है कि किसी एनजीओ में काम कर लो और वह अंततः जागोरी नाम की संस्था में जाती है और उसको सहायता भी मिलती है और वे लोग उसको सिलाई  का काम सिखाते हैं लेकिन इससे हो नहीं पाता ।अंततः इसको एक छोटी सी दुकान त्रिलोकपुर में 2014 में दिलवा देते हैं और सुनीता ठाकुर नाम की महिला इस संस्था की देखभाल करती है और वही इसको केस करने के लिए कहती है ताकि पति का 250 गज का टुकड़ा जो सुखडा विलेज वह आगे उसके बेटे अजीज के नाम हो जाए। इसी का नाम ट्रायल बाई फायर एंड  सर्वाइवर स्टोरी। 
3. कथा तीसरी राजन नाम के व्यक्ति की है जो अपराध की दुनिया में छोटी उम्र से ही चला जाता है और बाद में पादरी बनता है। वह तिरुचिरापल्ली तमिलनाडु का रहने वाला है और घर से 8 साल की उम्र में ही भाग जाते हैं और सीधा हावड़ा आता है एक शहर से दूसरे दूसरे से तीसरे पूरा देश घूम जाता है और धीरे-धीरे जयपाल सिंह नाम से  चोरी-डकैती करना शुरू कर देता है। इससे पहले वह नक्सलियों में भी घुसपैठ करता है और वही से उसको ट्रेनिंग वगैरह मिलती है दुर्गापुर मैं वह 1972 में कई ऐसी चोरी डकैती यों को अंजाम देता है और जेल में पकड़ा जाने पर वहां पर कई लोग सुधार के लिए आते हैं। वही उसकी मुलाकात एक पादरी से होती है और वह उनकी  बातों से प्रभावित होकर के धीरे-धीरे ईसाई बनता है.  बाद में 8 साल की जेल में वह पक्का ईसाई बन जाता है उसके जीवन में परिवर्तन आता है और वह एक बदला हुआ इंसान बन के बाद का जीवन दिल्ली और आसपास की जेल में रहने वालों के सुधार के लिए करता है। यहां वह हजरत निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन के बाहर एक अनेजा रेस्टोरेंट में बर्तन धोने का काम भी काम करता है।  लेकिन आजकल वह बहुत सेवा कार्य में लगा हुआ बदला हुआ व्यक्ति है । सप्ताह में एक बार चर्च में जाता है और कई अच्छे काम करता है। 2015 में इसका एक एक्सीडेंट होता है और शरीर का काफी नुकसान होता है लेकिन बच जाता है और अभी भी सेवा में लगा हुआ है। इसके डकैती के दिनों के अनुभव बहुत समझने लायक है कि किस प्रकार सूचना देने वालों को और एकजुट करता है । और वही लोग उसको जानकारियां देते हैं और यह भी इमानदारी से उन सब को कुछ हिस्सा बांट  आता है।  वह रॉबिन हुड की तरह गरीबों की सेवा भी लूट में से करता है।इस कहानी का नाम है अमेजिंग ग्रेस। 

2. दूसरी प्रिया लड़की की कथा एक जानी-मानी घटना है, जो ताज होटल पर आतंकी हमले की हुई है ।  इस होटल में एक प्रिया नाम की लड़की जो कि मूलतः ईसाई है, वहां पर काम करती है । जब हमला हुआ था आतंकियों का तो वह एक मेज के नीचे 36 घंटे रहती है । उसका पूरा नाम उसका प्रिया फ्लोरेंस मार्टिस है। इस दुर्घटना का उस पर बहुत लंबे समय तक प्रभाव रहता है और वह ट्रामा की शिकार होती है। यह लड़की उस होटल में काम करती थी। एक  रोशन नाम का व्यक्ति इससे लगातार लैंडलाइन फोन से संपर्क रखता है जो फोन छुपते समय उसने टेबल से उठाकर के नीचे रख दिया था।  और उसके कमरे में आतंकी आए भी सही,  लेकिन इसको देख नहीं पाए। 
1. पहली कथा चंडीगढ़ की है और पूजा ठाकुर नाम की लड़की की है जो एचआईवी पेशेंट है उसका पति ड्राइवर यह सौगात उसको देता है । उसके तीन बच्चों में से भी दो बच्चों को एड्स नामक बीमारी हो जाती है। गांव में तांत्रिक किस प्रकार से इलाज के नाम पर उससे दुराचार करने का प्रयास करता है यह भी इसमें लिखा है। हिमाचल के सिरमौर जिले में उसके जन्म हुआ और पति के साथ वह चंडीगढ़ आ गई। पूजा आजकल एक संस्था के साथ मिलकर काम करती है।  भगवान शिव पर इसकी पूर्ण आस्था है और एक बहन उसकी सोलन में रहती है। पति की मृत्यु के बाद उसका स्वस्थ बच्चा छुपा लिया जाता है और एड्स पीड़ित बच्चा और इसको घर से शाम के समय निकाल देते हैं और बड़ी हिम्मत के साथ यह रात के समय जंगल पार करते हुए अपने मायके पहुंचती है।  वहां भी गरीबी है। कोई उसको सुझाव देता है की तुम  चंडीगढ़ जाओ।  वहां पर  नाको ने ड्रॉप इन सेंटर बनाया है जहां फ्री इलाज भी और खाना-पीना मिलती है यह वहां पर आ जाती है। वहां पर डॉ लेडी डॉक्टर त्रिखा इसकी सहायता करती है। 15 नवंबर 2005 में इसको छोटी-मोटी नौकरी वहां मिल जाती है और और धीरे-धीरे करते हुए वह अपना सुधार भी करती है तथा दूसरों को भी सहारा देती है। एक संस्था 1997 में मूलतः चेन्नई की है और उन्होंने सेंटर पीएलएचआईवी (people living with HIV) नाम से चंडीगढ़ में खोला वहां यह काम करती । आज वह अपने जीवन का उदाहरण देकर अन्य दुःखी HIV रोगियों को साहस बंधाती है। वह लोगप्रिय मोटिवेशनल स्पीकर बन गयी है और एड्स रोगियों की सहायता के लिए बनी कईं समीतियों में इसको लिया गया है। मैंने गूगल पर सर्च किया तो उसकी कहानी मिल गयी थी। 
 
समारोप: खैर,  इस प्रकार की कहानियां बहुत से लोगों का जीवन बदल सकती है। आम तौर पर कहानियां उन लोगों की छपती हैं जो आज सेलेब्रिटी हैं। लेकिन जो आज भी सामान्य रूप में जी रहे हैं पर कठिन वक्त में टूटे नहीं, उनकी जीवनियां आम लोगों कक ज्यादा प्रेरणा दे सकती हैं। 
इनको पढ़कर हमारे आसपास भी कईं लोग हैं जो इसी प्रकार मानसिक, शारीरिक त्रासदियों से उबर कर काम कर रहें हजन, ये कहानियां उनके बारे में आदरपूर्वक देखने का नजरिया बदल देती हैं।

Sunday, July 18, 2021

दैनन्दिन जीवन में पर्यावरण

*#दर्दनाक_अंत_की_ओर   (मौत की तैयारी)*
#Hariawalpunjab - #Plasticmuktbharat - #ecobricks

मान लीजिये आज आपने 20 रुपये की पानी की बोतल खरीदी, और पीकर फेंक दिया। तो इस बोतल का 90 फीसदी हिस्सा 27-28 वीं सदी में नष्ट होगा। करीब 450 से 500 साल लगेंगे। यानि जिस बोतल में पानी पिया होगा वह आज भी मौजूद है। हर 60 मिनट में 6 करोड़ बोतल बेची जा रही है, अरबो खरबो का व्यापार है। हिन्द महासागर में करीब 28 पैच (प्लास्टिक पहाड़) का बन चुका है। जानवर मर रहे है, मछलियां, समुद्री जीव मर रहे हैं। अगला नम्बर आपका और मेरा है ।
      फाइव स्टार और अन्य होटल में भारत मे रोज करीब 4 लाख पानी की बोतल का कूड़ा निकलता है। शादी विवाह में अब कुल्हड़ में पानी पीना, तांबे पीतल के जग से पानी पिलाना दकियानूसी माना जा रहा है, बेल, कच्चे आम, पुदीना या लस्सी के शर्बत की जगह पेप्सी कोक की बोतल देना चाहिए नही तो लोग गंवार समझेंगे। विज्ञान के अनुसार सोडा प्यास बुझता नही, बढ़ाता है। फिर भी ठंडा मतलब ठंडा, प्यास लगे तो पेप्सी यह टीवी में दिखाता है। 
        यूरोप के बहुत देशों ने अपने प्रदूषण पर काबू पाया है, अब उनके नल का पानी पीने योग्य हो गया। लेकिन गंगा यमुना सहित सैकड़ों नदियों, लाखो कुँए के देश मे पानी का व्यापार अरबो रुपये का है। लगातार भूजल नीचे जा रहा है, एनसीआर डार्क जोन बन गया है, देश के के महानगर में कूड़े और इससे रिसता कचरा कैंसर पैदा कर रहा है। *तो क्या हुआ? जो होगा देखा जाएगा..*

*सोचना आपको है आने वाली पीढ़ी को क्या देकर जाना चाहते हो ?*

Sunday, July 11, 2021

Myth about walking 10,000 steps a day


The myth about walking 10,000 steps a day
Forget the random number and do as many steps as you can.
Hindustan Times | By Riddhi Doshi
UPDATED ON FEB 04, 2020 
1. All the apps and fitness trackers push you to do 10,000 steps a day, come rain or shine, if you want to be your fittest you — but it turns out the number may have just been a marketing gimmick.


2. The 10k steps trend can be traced back to 1965 Japan. A doctor named Yoshiro Hatano began selling a pedometer known as the manpo-kei (10,000 steps meter). Walk 10,000 steps a day, he said, and you can consider yourself fit.

3. There is no evidence to suggest that 10,000 is any kind of turning point for fitness. If anything, the catchphrase has done quite a lot of harm, since people began to feel that if there was no chance of them hitting 10,000, they needn’t bother to walk about for exercise at all.

4. That is simply not the case, says fitness and health coach Deanne Pandey. . “There is no one-size-fits-all number of steps to aim for.”

5. For a fit 20-year-old, 10,000 steps might be too few and for a 69-year-old with arthritis, it might be too much. The trend ignores heart rate during exercise, and even the intensity of the walking. “

7. Every little bit helps, Pandey emphasises, but the truth is that exercise is exercise and the best form is cardiovascular.

So forget the random number and do as many steps as you can. It’s a start, even if it is not in itself a solution.