Tuesday, August 31, 2021

ठेंगड़ी जी : पर्यावरण पर उनकी सोच

ठेंगड़ी जी और  पर्यावरण: 
1.  भूमिका: अपने समय के अनुरूप बहुत अधिक सजग थे: वे पर्यावरण के बारे में अत्यधिक चिंतित थे, एक दार्शनिक की तरह केवल अनुभव नहीं बल्कि अनुभूति के आधार पर वे आगामी दुर्दशा देख रहे थे। चंडीगढ़ में अधिवक्ता परिषद के कार्यक्रम में उस समय 1995 में Environment Protection पर विस्तार से बोला जो आज पुस्तिका के रूप में विद्यमान हैं। B. इसके अतिरिक्त एक लेख 9 पृष्ठ का अलग से है जिसमें लगभग सभी बातें आयी है और उसी में से 10 उक्तियां हिंदी व अंग्रेजी में नीचे दी गयी हैं। यह लेख उनके द्वारा लिखे गए एक पेपर पर आधारित है जिसे 1992 में देश के बुद्धिजीवियों में बांटा गया था।  C. उन्होंने जो पांच संगठन खड़े किए उनमें से एक पर्यावरण मंच भी खड़ा किया है। D. हर साल भारतीय प्रतीक के नाते उन्होंने अमृतादेवी बलिदान दिवस को 28 अगस्त को मनाने की परंपरा डाली है।
उन्होंने जो बातें कहीं हैं वे मेरे हिसाब से पांच हैं। 

पहला कि यह  मानना पड़ेगा कि यह मानवनिर्मित त्रासदी हैं न कि दैवनिर्मित। इसका ज्यादा प्रभाव पश्चिम में औद्योगिक युग के साथ प्रारंभ  हुआ। लगभग पूरा विश्व आब इस बात को मानता है। 
दूसरा कि इसको मनुष्य को ही रोकना है। इसके लिये सरकार को अच्छे और मजबूत नियम बनाने चाहिए और पूरे जोरशोर से उनको अमल में भी लाना चहिये। वास्तव में आज दोनों बातों में कमियां हैं। उनकी पुस्तक Environmental Protection इसी बात पर आधारित है।
तीसरी बात है कि मूलतः विकास और प्रकृति का विरोध नहीं है, दोनों सम्भव है। बात बिगड़ती इस बात से है कि हम दोहन नहीं शोषण कर रहे हैं। प्रकृति रूपी गाय का दोहन  milking नहीं बल्कि शोषण एक्सप्लॉइटशन कर रहे हैं। भारत हज़ारों साल दुनियां का  अग्रणी देश रहा परन्तु प्रकृति के साथ सहजीवन simbiosis रहा। मनुष्य अपने कक प्रकृति का हिस्सा मानता रहा। इसी सोच को बदलने की जरूरत है। द्वैत पश्चिम की अवधारणा है, अद्वैत भारतीय सोच है। 
 चौथी  बात है कि चाहे जितने भी कानून बना लीजिए, जब तक समाज इसके महत्व को नहीं समझता, इसे मन से अंगीकार नहीं करता है, तब तक बहुत अधिक सफलता की संभावना  नहीं है। अतः प्रबल जनजागरण की जरूरत है।

 अंतिम और पांचवी  बात है कि इसके लिए प्रेरणा कहाँ से मिले और प्रतिमान (  model)किसे बनाया जाए। तो उनका कहना है कि भारत ही इसका प्रत्यक्ष मॉडल युगों-युगों से रहा है, और आगे भी रहेगा। इसी को आगामी प्रारूप के नाते विश्व के आगे भी रखना होगा। 

हाँ, एक बात और भी ध्यान आयी है और वो है कि कैसे उन्होंने इसके नुकसान भी बताए हैं, प्रदूषण के। अलग-अलग वर्गों पर इसका प्रभाव भी बताया है। इस प्रकार शुरुआत की भूमिका इसी में निहित है।  उन्होंने  वनवासियों पर इसके प्रभाव की चर्चा की, पशुपक्षियों पर प्रभाव की भी चर्चा भी की। आज बहुत ही मुखर रूप से इस त्रासदी की चर्चा साल दर साल हो रही है। विश्व में ट्यो इसकी बातचीत स्टॉकहोम में 1972 के अधिवेशन से हुई जिस दिन यानी 5 जून को पर्यावरण दिवस के नाते मनाया जाता है।
पहला तथ्य की . यह मानवनिर्मित त्रासदी है। इंडस्ट्रियल रेवोलुशन के साथ भी इसका सम्बन्ध है:   
पहला कि यह  मानना पड़ेगा कि यह मानवनिर्मित त्रासदी हैं न कि दैवनिर्मित। इसका ज्यादा प्रभाव पश्चिम में औद्योगिक युग के साथ प्रारंभ  हुआ। लगभग पूरा विश्व आब इस बात को मानता है। उनका मानना है कि यद्यपि 1904 में WH हडसन ने एक उपन्यास मात्र  GREEN MANSIONS लिखा था पर वह कोई शोध ग्रन्थ नहीं था, मात्र उपन्यास ही था। वैसे 1973 में एक शूमाखर द्वारा लिखित पुस्तक स्माल इस ब्यूटीफुल ने काफी बड़ा तहलका मचाया था और उसने भी भारतीय या बुद्ध का रास्ता अपनाने की ताकीद की थी। उस समय का उद्घोष था, बिग इस बेटर। शूमाखर ने सिद्ध किया कि नहीं स्माल इस ब्यूटीफुल है। (Small Is Beautiful: A Study of Economics As If People Mattered is a collection of essays published in 1973 by German-born British economist E. F. Schumacher. The title "Small Is Beautiful" came from a principle espoused by Schumacher's teacher Leopold Kohr[1] (1909–1994) advancing small, appropriate technologies, policies, and against big is better) 
इसी दौरान एक दूसरी पुस्तक रेचल कार्सन की  भी बड़ी लोकप्रिय हुई --  Silent Spring. (Silent Spring is an environmental science book by Rachel Carson.[1] The book was published on September 27, 1962, documenting the adverse environmental effects caused by the indiscriminate use of pesticides. Carson accused the chemical industry of spreading disinformation, and public officials of accepting the industry's marketing claims unquestioningly)
A.   Western Philosophy - Source of Pollution: 
उनकी पहली उक्ति बड़ी महत्वपूर्ण है कि कैसे पश्चमी विचारधारा में मनुष्य और प्रकृति को आपस में भिड़ा दिया है। वे रेने डेकार्ट का उल्लेख करते हैं जिसको पश्चिमी दर्शन के पुरोधा माना जाता है। (रेने देकार्त (1596 से 1650) जो कि दार्शनिक होने के साथ साथ एक सुप्रसिद्घ गणितज्ञ थे, वे दर्शन को विज्ञान में परिवर्तित करना चाहते थे। आधुनिक पाश्चात्य दर्शन का जनक के रुप में इन्हें जाना जाता है, साथ ही साथ इन्होंने ज्ञान के लिए बुद्धि को सर्वोत्तम राह बताया, क्योंकि इसमें ज्ञान सार्वभौमिक व अनिवार्य होता है,
"The modern Cartesian Reductionist philosophy has pitted man against views nature as if man himself is not part of nature. It permits ruthless destruction of Nature in the service of the ever-growing appetites of man. The result is serious depletion of natural resources, grave disturbance of the eco-system and a level of pollution that is increasingly endangering all life-forms.
पश्चिमी दर्शन की देन है प्रदूषण:
"कार्टेज़ियन न्यूनीकरण के आधुनिक सिद्धान्त ने मनुष्य को  प्रकृति का दुश्मन बना दिया है, मानो मनुष्य स्वयं प्रकृति का अंश न हो। मानव के निरंतर बढ़ने  वाले लालच को शांत करने के लिये प्रकृति का बेरहमी से विनाश करने की अनुमति इसमें दी गयी है। फलस्वरूप प्राकृतिक साधनों में गम्भीररूप से कमी आकर पर्यावरण प्रणाली  का सन्तुलन बिगड़ रहा है और प्रदूषण का स्तर समूची जीवसृष्टि को खतरे में डाल रहा है। (तीसरा विकल्प, पर्यावरण, पृष्ठ 137).
उनका मानना है और आज दुनियां भी मां रही है कि विकसित देश ही ज्यादा प्रदूषण की जननी है। एक उक्ति उनकी है: 
B. Developed Nations Produce Pollution:
The pollution per inhabitant in the upper fifth of the world is about fifty times more than in the other four-fifths, and full industrial development of underdeveloped countries might raise the world pollution rate to a level at which it might wipe off the major part of the world's population. 
  विकसित देशों की देन है प्रदूषण:
  विश्व की जनसंख्या के 1/5भाग का प्रदूषण अन्य 4/5 भाग से 50 गुना अधिक है, और अविकसित देशों में यदिऔद्योगिक विकास पूर्णरूप से हुआ तो विश्वप्रदूषण का स्तर इतना बढ़ जाएगा कि दुनिया का अधिकांश हिस्सा नष्ट ही हो जाएगा।
 (तीसरा विकल्प, पर्यावरण, पृष्ठ 138)
उनका यह भी विश्लेषण बड़ा वैज्ञानिक था कि ऑक्सीजन की ज्यादा जरूरत भी औद्योगिक देशों को है जो इसको समाप्त कर रहे हैं।
C. Ruthless Industrialisation Causes Pollution: 

The oxygen requirement of the technosphere of industrial society is at least fifteen times that of a normal bio-sphere. Similarly, if the  developing countries come to the level of developed countries, some of the key metals and minerals would be exhausted well within the next hundred years.
अंधाधुंध औद्योगिकीकरण का परिणाम  है प्रदूषण
औद्योगिक समाज के तकनीकी वातावरण (technosphere) को सामान्य जैव पर्यावरण की अपेक्षा कम से कम 15 गुना अधिक प्राणवायु की आवश्यकता होती है। उसी प्रकार यदि विकसनशील देश विकसित देशों के स्तर को छू लेंगे तो कुछ आधारभूत धातुएं और खनिज द्रव्य आगामी सो वर्षों में समाप्त  हो जाएंगे। (तीसरा विकल्प, पर्यावरण, पृष्ठ 138)
वे निसंकोच रूप से योजनाकारों तथा शासकों को वर्तमान त्रासदी के लिए जिम्मेवार मानते हैं: 
D.  Main Culprits of Pollution?
Our planners and rulers are guilty of deliberately neglecting ecological considerations to favour the financiers.पहला उपाय सामान्यतः बताया जाता है कि हमे इसके संरक्षण हेतु कानून काफी कमजोर हैं, अपर्याप्त हैं, प्लानर्स की क्रिमिनल कमी है, इस और बहुत ध्यान देना चाहिए।
महत्वपूर्ण बिंदु यह भी है कि गांव व देहात पर्यावरण के राडार से गायब हैं: 
E. It is generally acknowledged that industrialization has polluted all natural resources - land, water and air - and raped the Nature instead of milking it.  But even this renewed interest is confined to urban areas and the industrial sector. The impact of pollution on rural as well as forest or river or hill areas has not -yet been appreciated properly. 
F. Main Culprits of Pollution?
Our planners and rulers are guilty of deliberately neglecting ecological considerations to favour the financiers.
प्रदूषण का बड़ा जिम्मेवार कौन? 
हमारे निर्माता व शासक जानबूझकर पर्यावरण की उपेक्षा करने का अपराध कर रहे हैं। (तीसरा विकल्प, पर्यावरण, पृष्ठ 144 प्रथम पैरा)
9. Mere Show of Social Forestry: Under the pressure of environmentalists, some programmes of social forestry are taken up. In the first place, these programmes are too inadequate considering the pressing need for afforestation. Secondly, they are more in the nature of window-dressing, a fashionable activity. The participants in the programmes are not earnest about their implementation.
वनकीकरणकहीं दिखावा तो नहीं?पर्यावरणविदों द्वारा दबाव डाल जाने पर सामाजिक वनविज्ञान के ये कार्यक्रम अत्यल्प हैं। दूसरी बात कि ये केवल दिखावटी हैं, केवल औपचारिकता निभाने वाले। इन कार्यक्रमों में भाग लेने वालों के मन मे  उसके कार्यन्वयन के विषय में गंभीरता नहीं है।(तीसरा विकल्प, पर्यावरण, पृष्ठ 144 दूसरा पैरा)

तीसरी बात है कि मूलतः विकास और प्रकृति का विरोध नहीं है, दोनों सम्भव है। बात बिगड़ती इस बात से है कि हम दोहन नहीं शोषण कर रहे हैं। प्रकृति रूपी गाय का दोहन  milking नहीं बल्कि शोषण एक्सप्लॉइटशन कर रहे हैं। भारत हज़ारों साल दुनियां का  अग्रणी देश रहा परन्तु प्रकृति के साथ सहजीवन simbiosis रहा। मनुष्य अपने कक प्रकृति का हिस्सा मानता रहा। इसी सोच को बदलने की जरूरत है। द्वैत पश्चिम की अवधारणा है, अद्वैत भारतीय सोच है। अंग्रेजी शब्द सिम्बईओसिस symbiosis या सहजीवन शब्द बड़े मार्के का है। 
 जो प्रकृतिवादी एल्टन (Elton, सन् १९३५) के प्राक्कथन से स्पष्ट हो जाता है। इनके अनुसार, जन्तु को मारकर खानेवाले और परजीवी में वही भेद है जो मूलधन और ब्याज पर निर्वाह करनेवालों में, अथवा चोर और धमकाकर रुपया ऐंठनेवाले (blackmailer) में हैं।

चौथी,  इससे भी बड़ी और सबसे ज्यादा जरूरत समाज कर जागरण की है।  सिर्फ कानूनों से काम नहीं चलेगा, जनजागरण अति आवश्यक है। 
हैं। 
5. भारतीय दृष्टिकोण में दम हैं। भारत में जब अत्यधिक व्यापार होता था तो भी हमारे यहां पर्यावरण की समय नहीं थी। उनके भाषण की शुरुआत भी इन्दिरा गांधी जी के भाषण के उल्लेख से होती है जिसमे भारतीय वेद परम्परा व पर्यावरण का उल्लेख है। उनके भाषण की समाप्ति भी उसी बात से होती है कि हमें प्राचीन दर्शन की ओर लौटना चाहिए जिसमें प्रकृति का वंदन है।।                                                                    a.    Ved and Ecology
1. Shrimati Indira Gandhi gave a pleasant surprise to the world environmentalist meet at Stockholm (1972) when she told them that her country had been ecology-conscious right from the early Vedic period. That has not been the case with the West. (The day was 5th June, came to be known as universal Environment Day. )
प्राचीन साहित्य में पर्यावरण:
सन 1972 में स्टॉकहोम में वैश्विक पर्यावरणविदों की जो सभा सम्पन्न हुई, उसमें श्रीमती इंदिरा गांधी ने यह कहकर सबको सुखद आश्चर्य में डाल दिया कि उनका देश प्राचीन काल से ही पर्यावरण पर ध्यान देता रहा है। पश्चिमी देशों में ऐसा नहीं है। 
(तीसरा विकल्प, पर्यावरण, पृष्ठ 137)

B. RETURN to Our Roots: Similarly, we have to get back to our philosophy and to view the earth, the air, the water, the flora and the fauna as sacred. We have to develop a technology that will be nature-protective and not nature-destructive. The whole world is going to need such a philosophy and matching technology in the twenty-first century.. 

चंदन है इस देश की माटी: साथ-साथ हमें अपने पुराने दर्शन की ओर जाना होगा कि भूमि, वायु, जल, वनस्पति और जीव-जंतु सब पवित्र है। हमे एक ऐसी तकनीक विकसित करनी है जो प्रकृतिपोषक हो, न कि प्रकृति विनाशक। पूरी दुनिया को इकीसवीं सदी में ऐसी चिंतनधारा और इसके अनुरूप तकनीक की आवश्यकता पड़नेवाली है।
(तीसरा विकल्प, पर्यावरण, पृष्ठ 145 अंतिम पैरा)
आज भारत को वैसे भी पर्यावरण के प्रति सचेत होने पड़ेगा क्योंकि भारत के पास जमीन कम है, खिलाने के लिए मानव व जानवर ज्यादा है: 
CU.India has Less Land: More Burden:
 India has 2.45% of the world's landmass, but it has to support 15 % of the world's cattle, 52% of its buffaloes, and 15% of its goats, and humans.
भारत के पास दुनियां की भूसंपदा का 2.45% भाग ही है, परन्तु दुनियां के 15% मवेशियों, जिसमें की 52% भैंसे और 15% बकरियां समाविष्ट हैं, तथा मनुष्यप्राणियों का पालन करना पड़ता है। (तीसरा विकल्प, पर्यावरण, पृष्ठ 143 पर प्रथम)
अंत में वे चेतावनी भी देते हैं कि विकासशील देश की दुहाई देकर लंबे समय तक पर्यावरण संरक्षण को टाला नहीं जा सकता: 
10 . Don't Postpone Environment: It is wrong to presume that being a developing country India can afford to postpone to a distant future the long-awaited introduction of comprehensive environmental planning, and that a periodical patchwork of tentative measures based upon adhocism would enable us to deal with this problem effectively. Even the recent UNEP document sharply criticizes the slipshod manner of dealing with the subject.
 पर्यावरण को टालना घातक: यह सोचना गलत है कि विकसनशील देश होने के कारण, पर्यावरण संबंधी चिरप्रतीक्षित समग्र योजना को सुदूर भविष्यकाल तक भारत ताल सकता है और समय-समय पर कामचलाऊ उपायों के थेगले लगाकर इस समस्या का समाधान हो सकता है। यूएनईपी द्वारा प्रस्तुत ताज़ा रिपोर्ट भी इस लापरवाही की कड़ी आलोचना की गई है। (तीसरा विकल्प, पर्यावरण, पृष्ठ 145 प्रथम पैरा)

Sunday, August 8, 2021

IPR by Dr. DP Aggarwal

Working Paper for Discussion at the Nagpur Congruence of the Think Tank of SJM on basic understanding on the legal and economic implications of IPR,
Opportunities and Challenges



Intellectual Property (IP) refers to the creative power of the human brain and is manifested in different work of Art, literary work, and scientific invention and is ultimately converged into Intellectual Property Rights (IPR) such as Copy Right, Trade Mark, Industrial Design, Patent and various other similar legal rights. In the present Knowledge Era when the global economy is driven by the forces of knowledge and technology, almost 80 per cent of the global wealth is in the form of Intellectual Property or the Intangible assets. The word innovation occupies the maximum space in all important discussion in all meetings and conferences around the world. There is a direct correlation between innovation and intellectual property. Though the invention takes place in a scientific laboratory but the innovation takes place in a factory or in a business environment at market place and many a time the innovator is not an inventor as is known in the case of Steve Jobs the founder and CEO of Apple iPhone who was not a scientist and there are many such examples. However technology and innovation move hand in hand. There cannot be innovation in true sense without continuous invention and therefore today the business survives on the competitiveness of the technology to meet the growing and changing demands of the customers.

The subject of IPR has gained relevance and importance in the past two decades since after signing of the TRIPs Agreement under the overall legal framework of the World Trade Organization (WTO) which came into effect from 01.01.1995. According to the TRIPs Agreement there are seven types of IPR for which each member country of the WTO have to comply with the obligations for protection and enforcement of the intellectual property imbedded in the technology or any other kind of products used or manufactured or dealt in the respective country. The stated purpose and objective is to exploit the full commercial value of the related intellectual property and to prevent the piracy and counterfeiting of the same. However the underlying objective is also to enjoy monopoly and extract maximum profit in the form of royalty or technical fees and thereby to dominate the business and the market at global level. Sometimes it also leads to encroachment upon the economic sovereignty of the other member country of the WTO. Nowadays USA and few other European Countries are also trying to ask for some more rights on IPR which are known as TRIPs Plus as imbibed in Transpacific Partnership (TPP) and the same will be dealt with at later stage of this article/booklet.

However apart from TRIPs, there are several international conventions which also govern the IPR Rules since long even prior to signing of the TRIPs agreement. Some of the International Conventions are enumerated as below for general understanding of the readers.

PARIS CONVENTION FOR PROTECTION OF INDUSTRIAL PROPERTY:
Paris convention may be defined as one of the first treaties for the protection of Intellectual property Rights. It was signed on March 20, 1883 in Paris basically for the protection of industrial property.

BERNE CONVENTION FOR THE PROTECTION OF LITERARY AND ARTISTIC WORKS, 1886.
Berne Convention for the Protection of Literary and Artistic Works was the first multilateral convention on copyright adopted in 1886.  


WIPO COPYRIGHT TREATY (WCT) OF 1996.
After adoption of the TRIPS Agreement, it was realized that not all problems posed by the growing use of Digital Technology especially the Internet were addressed. In order to fill this gap, the WIPO Diplomatic Conference on Certain Copyright and neighboring Right Questions adopted the WIPO Copyright Treaty in 1996.
There are about 36 such international conventions on different issues of copy Rights, Trade Mark, Industrial Design and on other IPRs.

Different kinds of IPRs:
IPR have been categorized mainly into seven (7) kinds under the TRIPS agreement (Agreement on Trade Related Aspects of Intellectual Property Rights under WTO). All these IPRs are governed by separate statute in India except for Trade Secrete. These are as below:
1) Copyrights, Covering artistic work like, painting, sculpture, Cinematographic films, Computer programs dramatic work etc. It is regulated by the Copyright Act, 1957. This is monitored by Ministry of Human Resource Development, Govt. of India
2) Patents – Covering scientific and technologies inventories. It is regulated by the Patent Act, 1970. This is under Ministry of Commerce, Department of Industrial Policy and promotion (DIPP)
3) Trademarks – Covering Brand goodwill Trade Name etc. It is regulated by the Trade Marks Act, 1999. This is under Ministry of Commerce, Department of Industrial Policy and promotion (DIPP)
4) Geographical Indications – Covering a name or sign used on certain products which corresponds to a specific geographical location or origin such as Darjeeling Tea, Alphanso Mango, Kolhapuri Chappal, Agra Petha and many others. It may be agricultural produce or a natural produce or a manufactured goods of a particular territory. It is regulated by the Geographical Indications Act, 1999. The office for registration is in Chennai but is regulated by DIPP, Ministry of Commerce, Govt. of India.
5) Integrated Circuits and Design Layouts - It covers micro cheap or electronic circuits used in Semi Conductor materials in Computer hardware and other electronic gadgets. It is regulated by the Semi-Conductor Integrated Circuits Layout Designs Act 2000. This is under Ministry of Information Technology, Govt. of India.
6) Industrial Designs - It covers shape, pattern and outer layout of any article which has an aesthetic value. This is under Ministry of Commerce, Department of Industrial Policy and promotion (DIPP)
7) Confidential or Undisclosed Information (Trade secrets) - It is largely covered under the Indian Contract Act so far but the Government is thinking of bringing a specific law to govern trade secrets as many other countries like USA already has a legislation for it.

However there are few other types of IPRs which are yet to be recognized by the TRIPs but for which negotiations are going on at various levels of WTO. These are in respect of Bio-diversity, Traditional knowledge and folklore, plant variety and farmers rights etc. Government of India has already legislated Biological Diversity Act 2002 and Protection of Plant Varieties and Farmers’ Rights Act 2001. Prior approval of National Biodiversity Authority (NBA) is required before making an application for getting any kind of IPR based on any research or information on a biological resource obtained from India. In case of plant varieties it is important to provide an effective system of protection with an aim to encourage the development of new varieties of plants for the agriculture, horticulture and forestry also known as sui generis form of intellectual property rights. The international convention on biodiversity is CBD or the Convention on Biodiversity and the one for the Plant Varity is UPOV or Union for protection of new varieties of plant. 

All the different IPRs as stated above have a limited period of legal right as below:-

The Legal life or duration of Different IPRs

Patent
The term of patent is 20 years from the date of filing of patent application in general. The owner of the patent has a right to prevent others to use the patented technology without is permission. However he may grant a license to use it either on payment of royalty or technical fees or the license fees. Sometimes the technology may become obsolete and the legal life of the patent may become irrelevant and therefore in order to have an effective economic life of the invented technology especially in today’s era of innovation, there is a need for continuous improvement of technology through research and invention.

Copyright
The term of the copyright is generally the life of the authors plus 60 years (Sixty) after his death and it may vary with respect to different copyrighted works

Trademark
A registered trademark is valid for a period of ten years from the date of registration which could be renewed before the expiry of the validity. Non- renewal of a registered trade mark results in the removal of the trade mark from the register of trademarks. The renewal can be done for another period of ten years for any number of times. Thus with continuous renewals the trade mark may have an infinite right which is not so for any other kind of IPR. This is on the logic that the brand or the goodwill keep increasing with the age of the continued credibility of and support of the customers.

Geographical Indication (GI).
A registered GI provides protection for a period of 10 years from the date of registration which can be continued for an unlimited period by renewing it from time to time. This is similar to trade mark rights but the only major difference is that no individual or firm can be the owner and only the related community in that particular territory can alone hold rights over it.

Industrial design.
The total time of a registered design is 15 years. Initially the right is granted for a period of 10 years, which can be extended by another 5 years and no further renewals are granted.

Integrated Circuit and layout design.
The term of protection provided by a registered layout design is 10 years from the date of filing. There is no provision for renewals.

Difference between IP and IPR:
IP stands for intellectual property. There are various laws governing protection of IP for literary work or invention and once this protection is granted through proper registration of the patent or copyrights, trademark, design etc., IP become IPR or the Intellectual Property Rights which entitles the owner of respective IP to enforce the same against the infringement.

Different Important Aspects of IPR for an effective IP Eco System
In order to have an effective IP Eco System one has to take a holistic view of all different stages of an intellectual property. The very first stage is creation of an intellectual property whether it is a subject matter of copy right or a patent right. The moment an invention takes place one has to look for its protection under the respective IPR law which in this case is the Indian Patent Act 1970. In order to get a valid patent, one has to satisfy the three legal criteria i.e. (i) Novelty, (ii) Inventiveness or non-obviousness and (iii) Industrial Utility or application.

It may be noted that the Indian Patent Authorities refused to grant patent to Novartis of Switzerland for their cancer drug Glivek on the ground of novelty u/s 3d of the Indian patent Act as there was an attempt for evergreening of the patent right. The Honorable Supreme Court of India also upheld the decision of the Controller General of India for such refusal of the patent.

Section 3 of the Indian Patent Act prescribes that certain inventions are not patentable. Section 3(d) is one of such enabling provision whereby frivolous patents in case of pharmaceuticals which lacks increased efficacy for a known substance are not allowed. Similarly patents are not allowed for living plants and animals, seeds, Computer Software, traditional knowledge etc. Further no patent is allowed for an invention relating to atomic energy, falling within sub-section (1) of Section 20 of the Atomic Energy Act, 1962.

The creation of IP or intellectual property depends on the level of awareness in the country on IPR and the amount of money spent on research and development. In India almost 80 per cent of the research takes place at Government laboratories and private sector has a very abhorrent or indifferent view on conducting research for invention of new technology. Almost 80 per cent of the patent applications filed in India are by Multi-National Corporations (MNCs). There is therefore a need for increase in research spending by private sector in order to stay competitive. There is also need for creating awareness about registration of patent for invention especially by the small scale industries. A recent study shows that 90% of the inventions at global levels take place at micro and small enterprises which do not apply for patent due to several legal hurdles and due to lack of knowledge. Therefore in order to have an effective IP eco systems the below mentioned five areas need to be strengthened for the indigenous technology. (i) Creation of IP by encouraging research and development (ii) Protection of IPR, (iii) Enforcement of IPR, (iv) Commercialization of IPR, and last but not the least (v) Awareness of IPR at all levels of the organisation.

Intellectual Property as an Intangible asset
In today’s knowledge based economy intellectual property is considered as an intangible asset. Payments made for acquisition of technology, brands and technical knowhow are recognized as part of the business assets which brings benefits to the business for several years and also adds value to the profit of the business. There is need for proper identification and proper accounting and valuation of IP assets in the organization. Intangible assets are transferrable from one hand to another and are also subject to stamp duty, Vat, service tax, custom duty, income tax on different types of IP related transactions. In the Balance sheet of a company it is shown as a separate item under the head fixed assets just like land, building, plant and machineries and are allowed depreciation under the income tax act. IP as an asset can also be mortgaged and the royalty income or the regular license fees can also be securitized for obtaining loan and other financial facilities from the banks. Nowadays the companies are also subject to several risks for likely infringement for known or unknown use of others IP rights and sometimes are subject to pay damages and compensation and also look for IP insurance to cover the risk arising out of litigations. In view of growing complexities of laws and in order to stay competitive in business there is need to develop IP policy and IP strategy and to have effective IP management. Most of the knowledge based companies have a separate department for managing their IP and most of the research institutions have a technology transfer offices or the TTO which enable commercialization for optimizing and leveraging the IP assets in effective manner. IP today has changed the concept of R&D as a profit center from the early concept of cost center. However one must maintain a tradeoff between the profit maximization and the social welfare and between risk and reward. Development should not be at the cost of society and the environment.

The Contentious Issues on IPR and TRIPS.
The issues concerning Intellectual Property Rights are always sensitive, serious and to a large extent controversial and contentious due to conflict of national interest of each member country in the WTO. When the issue of IPR was first brought in through Uruguay Round and Dunkel Proposal (1986-1993) in the form of Trade Related Aspects of Intellectual Property Rights (TRIPs), the developing countries had expressed their concern about its non-relevance to the international trade which largely deals with movement of goods and services. However, despite résistance from the developing countries the developed countries who were under the pressure from big pharmaceutical Companies, the TRIPs agreement was introduced as a matter of commercial diplomacy. The developing countries had to amend their respective patent laws in order to grant product patent to pharmaceutical industries from 01.01.2005. It may be noted that the WTO primarily deals with three issues namely (i) Movement of Goods, (ii) Movement of Services, and (iii) Trade Related aspects of Intellectual Property Rights (TRIPs).


The Indian Government has amended its Patent Act, 1970 by deleting section 5 to enable product patent along with process patent for food, medicines and drugs and thereby bringing the Indian Patent law in full compliance with the TRIPS requirement. In order to prevent frivolous inventions from being patented as ever greening and for safeguarding the national interests especially in the area of public health, Section 3(d) was introduced which inter- alia lays down certain restrictions and criteria such as enhancement of the known efficacy for medicines and pharmaceutical substances. In one of such case, the Controller General of India refused to grant patent to Novartis of Switzerland for their cancer drug Glivek on the ground of novelty and the Honorable Supreme Court of India also upheld the decision of the Controller General of India for such refusal of the patent. In another different instance the Controller General of Patent issued a compulsory license to Natco Pharma of India for a cancer drug “Nexavar” which was patented by Bayer Corporation of Germany. Natco is a reputed Indian drug manufacturing company and was denied a license by Bayer corporation and as a result the Controller General of India granted compulsory license to Natco to manufacture Nexavar in pursuance of section 84(1) (a), (b) and (c) of the Indian Patent Act. Today Natco is supplying the drug to cancer patients at a cost of below Rs. 10,000 per month as against the exorbitant cost of approximately Rs. 3,00,000 per month charged by Bayer corporation and this has brought substantial relief to Indian cancer patients.

The above two provisions in the Indian Patent Act regarding Novelty under section 3(d) and for compulsory licensing under section 84 has bought undesired controversies by the big Pharma companies in the developed countries. The USA has published the Special 301 Report for the year 2014 on 30th April, 2014 which classifies India as a “Priority Watch List Country” mainly on the ground of provision of section 3(d) and for issue of compulsory licenses under section 84 of the Indian Patent Act. The Special 301 process is a unilateral measure taken by USA under The Trade Act 1974, to create pressure on countries like India to provide IPR protection beyond TRIPS agreement. It is an extra territorial law of the USA and is not tenable under the overall WTO regime. It is also a matter of fact that no WTO member countries have so far brought any dispute for any alleged violation of the TRIPS agreement by India. In such a situation the extra territorial pressure from USA is undesired and has been objected by the Government of India. 

Meanwhile, the Government of India is in the process of finalizing its National Intellectual Property Rights policy and a draft had been submitted by the task force on the 24th December 2014. A joint working group is also appointed by the Government of India and United States to look into the working of the Intellectual Property laws of the country. 

It is a matter of utmost surprise that in a meeting held by the TRIPS Council in the first week of June 2015 at Geneva, United States and Switzerland had tried to invoke the provisions of ‘Non Violation Complains’ stipulated under article XXIII (1b) and (1c) of GATT 1994 read with Article 64.2 of TRIPS agreement. The said proposal had been strongly opposed by India, Brazil and other 17 countries on the ground that the said Non Violation Complain is neither relevant nor legitimate in case of TRIPS agreement for which a moratorium is in force. The said Non Violation Complain is applicable only in a limited manner to movement of goods and services alone and does not apply to issues relating to Intellectual Property Rights under the TRIPS agreement. The illicit proposal of United States and Switzerland was very much visible at the 10th Ministerial Conference in Nairobi on 15-18 December 2015, which has adopted a working programmed on “Non-Violence Complain” which is likely to be incorporated as part of the Draft 11th Ministerial Conference in 2017. 
We should strongly protest the same with advance preparation and through awareness program.  The National IPR policy should be drafted in overall national interest keeping in view the above contention issues in mind. It may be noted that the Indian Patent Act is in due compliance of Article 27 for grant of Patents and Article 31 for grant of Compulsory License as contained in the TRIPs Agreement of the WTO and by using the flexibilities allowed as per the spirits of Article 30 of the TRIPS. 
There are few other areas where the western countries and especially USA has objection to our IPR regime with regards to Pre-grant opposition rights granted in pursuance of section 25 of our Patent act and the rights granted for use of the clinical data for manufacturing generic drugs which is in full compliance with the provisions of Article 39.3 of the TRIPS and hence there is no violation for data exclusivity under our Patent laws and Govt. of India should not compromise on any of these issues which are of prime importance for the public health and social security. One also need to bear in mind that the limited disclosure of preclinical data by the regulating authorities to the generic companies is very much in compliance with the Bolar exceptions as enshrined in the Hatch-Waxman Act of USA in order to avoid the repetition of the preclinical research and also to produce generic medicine in the market with due approval of the regulating authorities immediately after the expiry of the patent of the innovative drugs which has a large advantage to the poor patients and also to the government which provide free medical facilities to its citizen. 
USA is trying to find a way out for the flexibilities granted under the TRIPS agreement by entering into free trade agreements and regional trade agreements such as the recent transpacific partnership (TPP) between United States and several other Asian countries. USA is afraid that many other countries may adopt India and change their Patent Law in line with section 3d and thereby challenge the hegemony of the Big Pharma companies. The major emphasis of the TPP is on IPR rules than the trade rules although the avowed objectives of any trade agreement are international trade in goods and services and not the IPR alone. However USA itself is now rethinking on agreeing to the terms of TPP as there are adverse views in US congress about free trade and its impact on US trade deficit. Multilateralism in any case needs to prevail upon bilateralism or the plurilateralism or even the unilateralism. The present society cannot afford the unipolar world and India needs to provide effective leadership to the global community for free and fair trade.

Opportunities and Challenges of IPR
A country may have huge amount of human resource but the same requires proper education and training in the field of science and technology to convert the same into knowledge resource or the intellectual resource. This requires establishment of educational institution, research and development. However, mere research of inventions and technology by itself is not enough as the same needs to be legally protected by complying with due process of registration for its protection and its full exploitation through the process of innovation process management. In this way, we find that there are certain in-built gaps between Human resource and Intellectual resource on the one hand and invention-innovation gap on the other hand. There is a need to fill these gaps in order to generate an optimum economic value of the Intellectual property rights in the present globalized knowledge based economy. It may be pertinent to note that the money spent on Research at global level is about USD 1.4 trillion with about 31.1 % contribution by US alone and another about  24.1 % by Europe with a very meager share of India which in fact is much lower than China.

A broader analysis of the developed nations specially United states and Western Europe reveals that these nations have been successful in meeting the aforesaid gaps and have been able to generate good amount of revenue from copyrights, brands and technologies which are contributing enormously to their national income. In, United States alone, almost USD 5.06 trillion, accounting for about 34.8 % of its GDP in 2010 came from Intellectual property intensive industries and generated 40 million jobs which are 27.7 percent of all jobs in U.S. When we compare this figure with India’s GDP, which is about USD 1.8 trillion, we find a very gloomy picture. India’s national income from all different resources comprising manufacturing, agriculture and service sector put together is less than one third of United States’ income from IPR resources alone. This should be one of the important lesson and also a challenge for a nation like India with a population of 1.3 billion people which is more than four times that of United states population of about 300 million people, but has not been able to look at the primary need of converting its huge Human resource into an Intellectual resource, even though India has declared the present decade as the decade of innovation, which appears to be superficial. 
If India is to become an economic power as per its vision document 2020, it has to increase its R&D activity from the present level of USD 40 billion per year, to at least USD 100 billion annually and should give more emphasis on creativity and innovation in order to increase the total factor productivity in all sphere of its economic activities including agriculture, manufacturing and services. Conversely it may, otherwise remain confined to only marginally successful in its food security through agriculture; generate some marginal employment through its manufacturing and earn some marginal foreign exchange earnings from export of services from semi- skilled outsourcing jobs. It cannot become an economic power with an improved standard of living for its people by sharing adequate portion of global income in proportion to its population in the global economic map. Merchandise exports of IP-intensive industries totaled $775 billion in 2010, accounting for 60.7 percent of total U.S. merchandise exports. The aforesaid statistics wholly manifest that the developed countries especially U.S. is concentrating its focus on IP-intensive industries which come from innovation, technology and creativity.

However, when we look at China, we find that, it has been able to increase its IPR power by filing the highest number of patent applications as on December 2011, as is evident from the following two charts. It is a matter of fact that the mushrooming of IPR filing in China is due to increased number of utility patents. India also need to adopt utility model to increase grassroots innovation in the country.
   

The role of IPR in knowledge based economy
Ideas and technologies are two ingredients of a knowledge-based economy and in the present globalized knowledge based economy; research and innovation are the twin engines of competitiveness, means for economic growth and success.
We may better understand the positive impact of application of IPR in a business model followed by Philips by shifting its manufacturing locations in different countries with low wages through technology transfer. Before 1985, Philips’ business model was based on investments on R&D, the resultant R&D outputs were converted to products that were manufactured, marketed and sold resulting in return on investments. The company increased its patent portfolio from around 877 in the year 1993 to around 3144 in the year 2002 which has been increasing consistently. This has helped the company to increase its turnover as well as net profit tremendously.

IPR Regime and Economic Development 
A nation’s innovation graph is highly affected by the IPR regime it follows. The IPR regime also affects the inflows of FDI, technology transfers and trade that might interrupt on the economic growth. Developed countries do have stronger IPRs regime than the developing countries that in turn affects the relationship between IPR protection and level of development which is basically non-linear which suggests that patent protection tends to reduce the economic strength and further moves beyond the poorest stage into a middle-income stage in which they are more efficient to reproduce new inventions. Therefore, there is no universally imposed minimum standard for patent protection which may contribute to increased growth in countries below a certain threshold level of economic development. However one must bear in mind the national interest at the top priority while implementing the IPR laws. Economic sovereignty should not be compromised.

IP as reliever to sick units: Case study of JLR and Kodak film
It has been observed that many companies which have been facing financial difficulties due to global competition and for other reasons are able to find some relief and despite their net worth and operative results being negative, they have been able to come out of the difficulties by selling out their patents and other intellectual properties. One of such example was seen in the recent past when Ford motor sold its Jaguar and Land Rover (JLR) loss making manufacturing unit in UK to Tata motors of India at a fabulous price of USD 2.5 billion. We find a similar example from Kodak Film Company of Japan which has valued its 1100 patents to an estimated amount of US 2.6 billion, which may provide relief to its creditors. Indian Banks should look at his aspect which may enable them to realize money by capitalizing the IP assets of their defaulting borrowers and thereby to reduce their NPAs.

The link between R&D expenditures and IP in select countries
The below figure shows the R&D expenditure in percentage of GDP, compared to number of resident patent filings from 2001 to 2009
 
The above graph reflects that Japan and Korea spend about 4 % of their respective GDP on R &D followed by U.S, EU and China with 3.5, 2.75 and 2 % of their respective GDP. However, the figure shows that the number of patents filed by Resident has sharply increased in China in the past few years. India on the other hand spends only about 0.9 per cent of its GDP on R&D.


Share in global R &D expenditure
Country US Europe China Japan India
2007 34.3 25.9 9.5 13.5 2.0
2012 31.1 24.1 14.2 11.2 2.9
It is a fact as reveals from the above table that the global share of R & D has been increasing for both India and China, though the share of U.S and EU has been declining over the past five years, even if they remain the largest spenders in the R & D.

The growing importance of intangibles in the present knowledge economy
S&P 500 asset distributions:

Year Tangible Assets (in %) Intangible Assets (in %)
1978 95 5
1982 62 38
1992 38 62
1998 28 72
2002 13 87
2004 20 80
2008 25 75
2010 20 80

Data source: Investopedia.com, Brookings Institute, Balanced Scorecard European Summit, Ocean TOMO, Vanguard 500 Index Trust fund

Concluding Remarks
India had been very rich in its intellectual resources from the time immemorial but never thought of Intellectual Property or intellectual property rights. Indian brain is globally recognized but due to wrongful policy since independence there had been a continuous brain drain. Even today most of the inventions are undertaken by Indians but the IPR belongs to MNCs or to the foreign countries who provide adequate R&D infrastructure and who are able to commercialise the IPR. There has been piracy of our intellect due to lack of due awareness within the country and our scientists are not very inclined to obtain patents for their inventions. The need of the hour is to create a robust IP Eco system in the country whereby the entire five important segments in the value chain of IPR, i.e. Creation, protection, enforcement, commercialization and all pervasive awareness are duly recognized. The IP education and the importance of IPR is taught form the school level, the IP incubation centers are established at all district level and there is an enlightened effort for unlocking the hidden treasure to reestablish our country as a great intellectual powerhouse across the globe.

Friday, August 6, 2021

IPR: Biopiracy of indian seeds

Vandana Shiva 2016,

IPR National policy has been  clearly been made under US pressure. It was US corporations which introduced IPRs into trade treaties, and it is US corporations that are trying to undo India’s laws and policies. Laws and policies that protect the public interest and the national interest.



India has evolved her patent and IPR laws through democracy. US laws are shaped by corporations. It is the US laws and policies that need to change, not India’s. It is US corporate pressure which created the need for an IPR policy (even though we have implemented TRIPS consistent legislation in India after the US initiated a TRIPS dispute in the WTO).


On 30 September 2014, the US & India issued a Joint Statement on the occasion of Prime Minister Modi’s meeting with President Obama,in the US.


(a)greeing on the need to foster innovation in a manner that promotes economic growth and job creation...committed to establish an annual high-level Intellectual Property (IP) Working Group with appropriate decision-making and technical-level meetings as part of the Trade Policy Forum.


Quite clearly the IPR policy is guided less by the national imperative, and more by US corporate pressure.


“India has cleared its stance on the intellectual property rights policy framework well in time for the upcoming US visit of Prime Minister Narendra Modi,” commerce and industry minister Nirmala Sitharaman said.


But the corporations are not happy - they want more.


“17 US Business groups, including BIO, the Biotechnology lobby group ,and PhRMA have sent a letter to Obama and to Congress on India saying that the IPR policy “falls far short of industry expectations” and that “longstanding challenges” on IP are among the issues that “ensure India remains a challenging place for US companies to do business” they say the Modi’s visit is a great chance to discuss many of these issues that are “limiting India’s own trade engagement and growth”


We would like to inform Bio and Monsanto that people of India do not want their toxic products, their false claims about GMOs , and their attempt to own our biodiversity and seeds. In 1998 we had said “Monsanto, quit India”— Millions of farmers came together to send a clear message that India’s biodiversity belongs in the commons. We continue to say it and act so we are free of GMOs and patents and IPRs on seeds. Now, even the Government has agreed.


Indian policies and laws should be written in India, by Indians, for Indians; not by the US business interests, in US, for the US and US corporations.


While the corporate pressure has been on India since the 1990’s, we have stood firm as a sovereign nation. It would be against India’s national interest and sovereignty to undo our gains in the IPR area through an IPR policy written under US corporate direction.


There can be no safeguards if what is not allowed, under Indian law, becomes permissible through a backdoor policy.


The most dangerous aspect of the policy is that it subtly suggests changes in India’s IPR and Biodiversity laws. Laws that protect our biodiversity, the order public, and the rights of people to their knowledge and resources, to seeds and medicines.


The vision of the IP policy is based on the false assumption that knowledge owned is transformed into knowledge shared.


The opposite is true.


Once knowledge is owned, it cannot be shared. Intellectual Property Rights are defined as property in the “products of the mind”, including patents. Patents are granted for inventions, and give the patent holder the right to exclude everyone from the use or marketing of a patented product or process. Over the last 2 decades, patent laws have taken a perverse direction under the influence of corporations who want to own life , and establish monopolies over seed and medicine. Such monopolies are violative of article 21 of the Indian constitution which guarantees all citizens the right to life.


Biopiracy is another example of false claims to inventions.


When the policy opens up India’s Biodiversity and Traditional knowledge to extraction, the Bio-Pirates will have the right to prevent Indians from using our own knowledge and biodiversity.


We have fought against cases of Biopiracy, and won.


Over the past decade, through new property rights and new technologies, corporations have hijacked the diversity of life on earth, and people’s indigenous innovation.


Patents on life are a hijack of biodiversity and indigenous knowledge; they are instruments of monopoly control over life itself. Patents on living resources and indigenous knowledge are an enclosure of the biological and intellectual commons. Life forms have been redefined as “manufacture”, and “machines”, robbing life of its integrity and self-organisation. Traditional knowledge is being pirated and patented unleashing a new epidemic of “bio piracy”.


To end this new epidemic and to save the sovereignty rights of our farmers it is required that our legal system recognises the rights of communities, their collective and cumulative innovation in breeding diversity, and not merely the rights of corporations. It is the need of the hour to evolve categories of community intellectual rights (CIRs) related to biodiversity to balance and set limits along with boundary conditions for protection. The Intellectual Property Rights as evolved are in effect, a denial of the collective innovation of our people and the seed sovereignty or seed rights of our farmers.


1. Patenting of Neem


The patenting of the fungicidal properties of Neem was a blatant example of biopiracy and indigenous knowledge. But on 10th May, the European Patent Office (EPO) revoked the patent (0436257 B1) granted to the United States Department of Agriculture and the multinational corporation W. R. Grace for a method of controlling fungi on plants by the aid of an extract of seeds from the Neem tree. The challenge to the patent ofNeem was made at the Munich Office of the EPO by 3 groups : The European Parliament’s Green Party, Dr. Vandana Shiva of RFSTE, and the International Federation of Organic Agriculture and challenged it on the grounds of “lack of novelty and inventive step”. They demanded the invalidation of the patent among others on the ground that the fungicide qualities of the Neem and its use has been known in India for over 2000 years, and for use to make insect repellents, soaps, cosmetics and contraceptives and the neem patent was finally revoked.


2. Biopiracy of Basmati


On 8th July 1994, Rice Tec Inc, a Texas based company, filed a generic patent (Patent No. 5663484) on basmati rice lines and grains in the United States Patent and Trademark Office (USPTO) with 20 broad claims designed to create a complete rice monopoly patent which included planting, harvesting collecting and even cooking. Though Rice Tec claimed to have “invented” the Basmati rice, yet they accepted the fact that it has been derived from several rice accessions from India. Rice Tec had claimed a patent for inventing novel Basmati lines and grains.


After our protests, and our case in the SC of India, the U.S. Patent and Trademark Office struck down most sections of the Basmati patent. The basmati victory was our second Biopiracy victory.


3. Syngenta’s Attempt at Biopiracy of India’s rice diversity


Syngenta, the biotech giant, tried to grab the precious collections of 22,972 varieties of paddy, India’s rice diversity, from Chattisgarh in India. It had signed a MoU with the Indira Gandhi Agricultural University (IGAU) for access to Dr. Richharia’s priceless collection of rice diversity which he had looked after as if the rice varieties were his own children. The mass agitation by the peoples’ organization, farmers’ unions and civil liberty groups, women’s groups, students’ groups and biodiversity conservation movements against Syngenta and IGAU bore result and Syngenta called off the deal.


4. Monsanto’s Biopiracy of Indian Wheat


The next major victory against biopiracy for Navdanya came in 2004 when the European Patent Office in Munich revoked Monsanto’s patent on the Indian wheat variety, Nap Hal. Monsanto, the biggest seed corporation was assigned the patent (No. EP 0445929 B1) on wheat on May 21st, 2003 by the EPO under the simple title, “plants”. On January 27th, 2004 The Research Foundation for Science, Technology and Ecology along with Greenpeace and Bharat Krishak Samaha filed a petition at the EPO challenging the patent rights given to Monsanto, leading to the patent being revoked.


5. ConAgra’s Biopiracy claim on Atta (Wheat flour)


Atta, a staple food and ingredient within India, is currently under threat from the corporation ConAgra who filed a “novel” patent (patent no 6,098,905) claiming the rights to an atta processing method, and was granted the patent on August 8th, 2000. The method that ConAgra is claiming to be novel has been used throughout South Asia by thousands of atta chakkis, and so cannot justly be claimed as a novel patent.


6. Monsanto’s Biopiracy of Indian Melons


In May 2011, the US company Monsanto was awarded a European patent on conventionally bred melons (EP 1 962 578). These melons which originally stem from India have a natural resistance to certain plant viruses. Using conventional breeding methods, this type of resistance was introduced to other melons and is now patented as a Monsanto “invention”. The actual plant disease, Cucurbit yellow stunting disorder virus (CYSDV), has been spreading through North America, Europe and North Africa for several years. The Indian melon, which confers resistance to this virus, is registered in international seed banks as PI 313970. With the new patent, Monsanto can now block access to all breeding material inheriting the resistance derived from the Indian melon. The patent might discourage future breeding efforts and the development of new melon varieties. Melon breeders and farmers could be severely restricted by the patent. At the same time, it is already known that further breeding will be necessary to produce melons that are actually protected against the plant virus. DeRuiter, a well known seed company in the Netherlands, originally developed the melons. DeRuiter used plants designated PI 313970 – a non-sweet melon from India. Monsanto acquired DeRuiter in 2008, and now owns the patent. The patent was opposed by several organisations in 2012.


At the Milan Expo 2015, during the Women’s conference organised by Emma Bonino, Italy’s former foreign Minister, I was invited to give a keynote address. In a panel following my address, a representative of the Gates Foundation talked of how the Foundation was financing the innovation and invention of climate resilient crops through new technologies. When I asked him which farmers varieties they were using, he was silent.


Climate resilience is a complex trait, and cannot be “engineered” through the crude tools of transferring single gene traits from one organism to another.


What corporations and the Gates foundation are doing is taking farmers varieties with known climate resilient traits from public gene banks, mapping their genome, and taking patents on the basis of guesswork and speculation, about which part of the genome contributes to the known trait.


Like Columbus — setting out for India, getting lost and arriving in the Americas, “discovered” “America” — Gates and Monsanto are “discovering” climate resilience.


Today Biopiracy is carried out through the convergence of information technology and biotechnology. It is done through taking patents by mapping genomes and genome sequences. While living seeds need to evolve in situ, patents on genomes can be taken through access to seed ex situ. This is where the Svalbard seed bank, also called the Doomsday vault comes into the picture. Bill Gates and the Rockefeller Foundation are investing heavily in collecting seeds from across the world and storing them in this facility in the Arctic .


Diversity Seek (DivSeek) is a global project launched in 2015 to map the genetic data in the peasant diversity of seeds held in gene banks. It is funded by Bill Gates. It robs the peasant of their seeds and knowledge, it robs the seed of its integrity and diversity, its evolutionary history, its link to the soil, and reduces it to “information” and “data”. It is an extractive project to “mine” the data in the seed. SEVEN MILLION CROP ACCESSIONS are in public seed banks. DivSeek could allow 5 corporations to own this diversity.


http://www.pricklyresearch.com/AutoIndex/index.php?dir=digitalgenebanking/&file=DivSeek_Paper_25May2016.pdf


The IPR policy of a a strong, sovereign India and a biodiversity and knowledge rich civilisation needs to prevent its take over by foreign interest.


India needs to remind the US — at this fragile moment of human history — that we have evolved the deepest knowledge of Ayurveda, and the richest Biodiversity in Agriculture, not through privatisation and IPRs but through the philosophy Vasudhaiva Kutumbhakam, the Earth family.


Our ancestors did not put their names on the texts they wrote. They contributed to a collective, cumulative process of innovation, creativity, wisdom — not the philosophy behind IPRs, of privatisation of knowledge for profits and rent collection. They evolved knowledge for the “Common Good” — Sarve Bhavantu Sukhna — not private greed which promotes “Sarve Bhavantu Dukhina”.


Farmers committing suicide because of seed monopolies, as has happened with Bt cotton in India, patients dying due to lack of access to affordable medicine because of patent monopolies, pollinators and soil organisms dying because patented RoundUp and other herbicides are being pushed in Agriculture through the promotion of Roundup Ready GMOs, farmers in Sri Lanka dying because of Kidney Failure because of the spread of Roundup, are all signs of Sarve Bhavaintu Dukhina.


Patents on life violate the “Ordre Public” or moral order embodied in the philosophy of Vasudhaiv Kutumbhakam, that all beings on earth are family. IP laws need to be subjected to ethical criteria, criteria of justice, and on a clear definition of invention.


Life-forms, plants and seeds are all evolving, self-organised, sovereign beings. They have intrinsic worth, value and standing. Owning life by claiming it to be a corporate invention is ethically and legally wrong. Patents on seeds are legally wrong because seeds are not an invention. Patents on seeds are ethically wrong because seeds are life forms, they are our kin members of our earth family.


On criteria of rights of nature (Vasudhaiv Kutumbhakam) and people’s rights, India’s laws are strong, US laws are weak.


When the US talks of strong patent laws, it is restricting itself to the corporate interest. On criteria of corporate rights at the cost of nature and people, US laws are strong. On grounds of ethical considerations and social and ecological justice, they are weak. Instead of India being bullied to destroy her civilisational legacy of Vasudhaiv Kutumbhakam, her carefully and democratically evolved laws related to Biodiversity, the Rights of Mother Earth, and rights of people to their collective intellectual and cultural heritage, it is time for the US government to stop being an instrument of the ethically, scientifically and legally perverse construction of global corporations to define life as their invention and property.


It is time to revisit our IPR policies in the context of our civilisational imperative and our constitution, in terms of the public interest and the national interest. Let it not be recorded in history that in 2016 India was recolonised through an IPR policy that gave away our rich biodiversity and knowledge, our freedom and sovereignty.


(These are extracts from a note written by Dr Vandana Shiva made available to The Citizen. Dr Shiva is an Indian scholar, environmental activist and anti-globalization author. Shiva, currently based in Delhi, has authored more than twenty books.)



आईपीआर पर दो लेख

आजकल में एक फ़िल्म कअ जिक्र जरूर करता हूँ जिसका नआम फायर ईन ब्लड हऐ। नीचेका लेखक का लेख बड़ा ठीक लगा। जरा पढ़े।
दवा का जहर : पश्चिमी दवा कंपनियों का तांडव और उसे रोकने का संघर्ष क्या जारी रह पाएगा?
Posted by कृष्ण सिंह
वैश्विक परिदृश्य में बड़ी दवा कंपनियों का रिकार्ड देखने पर साफ पता चलता है कि उनका एकमात्र एजेंडा सिर्फ छप्पर फाड़ मुनाफा होता है। इसके लिए ये कंपनियां पेटेंट को सबसे बड़े हथियार के रूप में इस्तेमाल करती हैं। यह उन्हें बाजार में एकाधिकार का ऐसा कवच प्रदान करता है, जिसके जरिए दवाओं की मनमाफिक काफी ऊंची कीमतें तय की जाती हैं। पश्चिम की बड़ी दवा कंपनियां अपनी सरकारों की मदद के जरिए अपने उत्पादों का बड़ा हिस्सा विकासशील और तीसरी दुनिया के गरीब मुल्कों के बाजारों में खपाती हैं। इसकी दो वजहें हैं। पहली यह कि दुनिया की आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा इन देशों में रहता है जिसके कारण यहां का बाजार भी काफी बड़ा है। दूसरा, इन देशों में असाध्य और अन्य तमाम तरह की बीमारियों के बढऩे की दर भी तेज है। इन देशों में रहने वाली आबादी के बड़े हिस्से के पास जीवनयापन की सुविधाएं भी वैसी नहीं रही हैं जैसी कि विकसित देशों में हैं। इन परिस्थितियों में दवाओं के एकाधिकार के सहारे बहुराष्ट्रीय कंपनियां एक ऐसा दुष्चक्र तैयार करती हैं जिसमें यदि आप (मरीज) नहीं फंसते हैं तो भी मारे जाएंगे और फंसते हैं तो भी आपका बच पाना असंभव है।

उदाहरण के लिए, गुर्दे और यकृत के कैंसर के इलाज में इस्तेमाल होने वाली नेक्सवर दवा का वैश्विक पेटेंट जर्मनी की बहुराष्ट्रीय दवा कंपनी बेयर कॉरपोरेशन के पास है। भारत में नेक्सवर के एक पैकेट (120 कैप्सूल) की कीमत 2.8 लाख रुपए है। दवा की यह खुराक एक माह के लिए होती है। लेकिन इस दवा की इतनी अधिक कीमत भारत जैसे विकासशील देशों में मध्य वर्गीय तो क्या उच्च मध्य वर्गीय पृष्ठभूमि से आने वाला मरीज भी वहन नहीं कर सकता है। ऐसे में यदि मरीज को बचाना है या उसकी जीवन-प्रत्याशा बढ़ानी है तो उसके परिवार को इतनी महंगी जीवन रक्षक दवा के लिए अपनी घर-संपत्ति तक को बेचना पड़ेगा। फिर भी कहना मुश्किल है कि इलाज कराने में वह सक्षम हो भी पाएगा या नहीं। वैसे भी विकासशील देशों में कैंसर से पीडि़त मरीजों के इलाज के संसाधनों की उपलब्धता बहुत ही कम है। भारत में दस हजार कैंसर पीडि़तों के लिए केवल एक डॉक्टर है। यह हाल तब है जब भारत को तेजी से उभरती हुई एक ताकतवर अर्थव्यवस्था के रूप में पेश किया जा रहा है। ऐसे में तीसरी दुनिया के अन्य गरीब देशों में स्वास्थ्य सुविधाओं का क्या हाल होगा इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। इंडियन काउंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि भारत में हर साल दस लाख से ज्यादा लोग कैंसर की बीमारी से प्रभावित होते हैं। इनमें से एक तिहाई लोग हर साल मर जाते हैं। वर्ष 2025 तक भारत में कैंसर के मरीजों की संख्या में पांच गुना वृद्धि होगी। भारत में तीन प्रतिशत आबादी किसी न किसी तरह के कैंसर से पीडि़त है। वर्ष 2012 में भारत में कैंसर के कारण पांच लाख 55 हजार लाख लोगों की मौत हुई थी।

यह सिर्फ कैंसर की जीवन रक्षक दवाओं तक ही सीमित नहीं है, बल्कि एचआईवी/एड्स की पेटेंट वाली दवाओं की कीमतों का भी यही हाल है। पश्चिमी दवा कंपनियों की दवाओं, एकाधिकार और कपट की कहानी को सामने लाने वाली फिल्म ‘फायर इन द ब्लड’ के निर्देशक डिलन ग्रे ने पिछले दिनों लंदन के द गार्डियन अखबार के ऑनलाइन संस्करण में प्रकाशित लेख में कहा, ”बहुत साल पहले मैंने वह जानना शुरू किया जिसे मैं मानव इतिहास में सबसे बड़ा गुनाह मानता हूं। अफ्रीका और अन्य स्थानों पर लाखों लोग बड़ी निर्दयता से एड्स से मरने के लिए छोड़ दिए गए, जबकि पश्चिमी देशों की सरकारों और फार्मास्यूटिकल कंपनियों ने लोगों तक कम कीमत वाली दवाओं को पहुंचने नहीं दिया। …विकासशील देशों में जहां लोग दवाओं के लिए अपनी सामथ्र्य से बाहर खर्च करते हैं, स्थिति इससे भी बदतर है। फार्मास्यूटिकल कंपनियों के प्रतिनिधियों ने मुझे बताया कि (तुलनात्मक रूप से समृद्ध) दक्षिण अफ्रीका में वे अपने उत्पादों की कीमत बाजार के सबसे ऊपरी हिस्से श्रेष्ठ पांच प्रतिशत के हिसाब से लगाते हैं, जबकि भारत में उपभोक्ता आधार मात्र ऊपरी हिस्सा 1.5 प्रतिशत ही होगा। बाकी की जनसंख्या का कोई महत्त्व नहीं है। साथ ही दूसरी तरफ दवा कंपनियां दिन-रात मेहनत कर रही हैं कि वह भारत, ब्राजील और थाईलैंड जैसे देशों में बनाई जा रही कम कीमत की जेनेरिक दवाओं की आपूर्ति को काट सकें ताकि वे यह सुनिश्चित कर लें कि वे एक भी ऐसा उपभोक्ता नहीं खो रहे हैं जो उनकी गगनचुंबी कीमतों को अदा कर सकता है। ”

पेटेंट को पश्चिम की दवा कंपनियां सबसे बड़े हथियार के रूप में इस्तेमाल करती हैं। ये कंपनियां अपनी सरकारों की मदद के जरिए अपने उत्पादों का बड़ा हिस्सा विकासशील और तीसरी दुनिया के गरीब मुल्कों में खपाती हैं। दवाओं के एकाधिकार के सहारे बहुराष्ट्रीय कंपनियां ऐसा दुष्चक्र तैयार कर चुकी हैं जिसमें यदि आप (मरीज) नहीं फंसते हैं तो भी मारे जाएंगे और फंसते हैं तो भी आपका बच पाना असंभव है। उदाहरण के लिए, गुर्दे और यकृत के कैंसर के इलाज की नेक्सवर नामक दवा का वैश्विक पेटेंट जर्मनी की बहुराष्ट्रीय दवा कंपनी बेयर कॉरपोरेशन के पास है। भारत में नेक्सवर के एक पैकेट (120 गोलियां) की कीमत दो लाख 80 हजार रुपए है। यह एक माह की खुराक है। यही हाल एचआईवी/एड्स और कैंसर की पेटेंट वाली दवाओं की कीमतों का है।
फिलहाल, जेनेरिक (ऐसी दवाएं जिनके पेटेंट नहीं होते) दवा निर्माता कंपनियों और बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों के बीच कानूनी लड़ाइयों का बड़ा अखाड़ा अभी भारत बना हुआ है। हालांकि इन कानूनी लड़ाइयों में फिलहाल जेनेरिक दवा कंपनियां जीतती दिखाई दे रही हैं, लेकिन नव उदारीकरण और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हित में बनने वाली नीतियों के इस दौर में आगे क्या होगा यह कहना मुश्किल है। अभी जो चल रहा है उसकी गाथा कुछ इस तरह से है। बहुराष्ट्रीय दवा कंपनी बेयर कॉरपोरेशन की जिस पेटेंटयुक्त कैंसर रोधी दवा नेक्सवर की कीमत भारत में दो लाख 80हजार रुपए है, जबकि उसी दवा के जेनेरिक संस्करण के एक पैक की कीमत 8800 रुपए है। भारतीय पेटेंट कार्यालय ने पिछले साल नौ मार्च को हैदराबाद की कंपनी नेटको फार्मा को नेक्सवर के जेनेरिक संस्करण को भारत में बनाने और बेचने का अनिवार्य लाइसेंस दिया। भारतीय कानून में अनिवार्य लाइसेंसिंग की अनुमति विश्व व्यापार संगठन के नियमों के अनुरूप ही है। इसके मुताबिक कोई भी स्थानीय कंपनी राष्ट्रीय गैर व्यावसायिक वजहों से किसी दवा को स्थानीय स्तर पर बना और बेच सकती है। बेहद आपात परिस्थितियों में ऐसा पेटेंट धारक की इच्छा के खिलाफ जाकर भी किया जा सकता है। जब कंट्रोलर जनरल ऑफ पेटेंट्स यह सुनिश्चित कर लेता है कि जनता की जरूरत पेटेंट धारक के अधिकारों से ज्यादा बड़ी है तो वह इस तरह का अनिवार्य लाइसेंस जारी करता है। यही बेयर के मामले में भी हुआ। कंट्रोलर जनरल ने अनिवार्य लाइसेंस के लिए जो शर्तें लगाईं उसके मुताबिक नेटको को जेनेरिक दवा नेक्सवर की बिक्री से छह प्रतिशत की रॉयल्टी बेयर को देनी होगी।

बेयर ने इस आदेश को बौद्धिक संपदा अपीलीय बोर्ड (आईपीएबी) में चुनौती दी थी। चार मार्च 2013 को बोर्ड ने भारतीय पेटेंट कार्यालय के फैसले पर मुहर लगाते हुए बेयर की अपील ठुकरा दी और काफी महंगी जीवन रक्षक दवाओं के कम दामों में मिलने का रास्ता खोल दिया। बोर्ड की अध्यक्ष न्यायमूर्ति प्रभा श्रीदेवन और सदस्य डीपीएस परमार ने विभिन्न अंतरराष्ट्रीय संधिपत्रों और भारतीय कानूनों को आधार बनाकर कहा कि सदस्य देशों को ऐसे अनिवार्य लाइसेंस देने की इजाजत है ताकि दवाएं लोगों तक सस्ते दामों में पहुंचाई जा सकें। बोर्ड का कहना था कि पेटेंट हासिल करने के बाद भी बेयर ने एक तय समय के भीतर बड़े पैमाने पर और वहन करने योग्य कीमत पर दवा उपलब्ध नहीं कराई। बेयर की ओर से दाखिल शपथपत्रों और निवेदनों को देखने के बाद बोर्ड इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि उसकी (दवा) 2.8 लाख की कीमत वहन करने योग्य नहीं थी। बौद्धिक संपदा अपीलीय बोर्ड का कहना था कि पेटेंट आविष्कार से जनता को लाभ के लिए दिया जाता है। हालांकि बोर्ड ने रॉयल्टी के मामले में संशोधन करते हुए नेटको को बेयर को सात प्रतिशत रॉयल्टी देने का निर्देश दिया है।

बौद्धिक संपदा अपीलीय बोर्ड का यह फैसला ऐतिहासिक है। जैसा कि यूनिवर्सिटी ऑफ ओकलाहोमा कॉलेज ऑफ लॉ में प्रोफेसर श्रीविद्या राघवन ने कहा, ”यह राय इससे बेहतर समय पर नहीं आ सकती थी, क्योंकि सात दिन पहले समाचारपत्रों ने यह खबर दी थी कि डिपार्टमेंट ऑफ फार्मास्यूटिकल्स ने सुझाया है कि अनिवार्य लाइसेंसिंग पर अब विराम लगा देना चाहिए। मुझे वह रिपोर्ट आज भी याद है जब दोहा घोषणापत्र में सार्वजनिक स्वास्थ्य के मामले में ट्रिप्स समझौते के लिए मुरासोली मारन ने अगुवाई की थी, जिसे व्यापक रूप से विकासशील देशों की एक बड़ी जीत माना जाता है। जो समझौता हमने इतने विचार करके हासिल किया कितनी शर्म की बात होती अगर भारत उसे रद्द करने के लिए पहला कदम उठाता।” प्रोफेसर राघवन का कहना था, ”इस फैसले का सबसे अहम हिस्सा है ‘रीजनेबल’ (तर्कसंगत) शब्द की लोगों की क्रय की क्षमता के संदर्भ में विवेचना। कुल मिलाकर फैसला बहुत ही हिम्मत भरा था- क्योंकि यह जनहित को भारत में पेटेंट मुद्दों के केंद्र में लाकर रख देता है। अगर समस्या है, तो वह सरकार के लिए है कि वह ऐसे काबिल व्यक्ति को ढूंढ ले जो न्यायमूर्ति श्रीदेवन की जिम्मेदारी और हिम्मत का, उनके रिटायर होने के बाद भी वहन कर सके। ”

बोर्ड का फैसला इस मायने में भी दूरगामी असर डालने वाला हो सकता है क्योंकि बेयर का नेटको के साथ ही विवाद नहीं चल रहा था, बल्कि वह एक और भारतीय जेनेरिक दवा निर्माता कंपनी सिप्ला के साथ भी कानूनी लड़ाई लड़ रही है। बेयर ने सिप्ला पर भी उसके पेटेंट के उल्लंघन करने का आरोप लगाया है। यह मामला अभी दिल्ली हाईकोर्ट में लंबित है। सिप्ला ने जेनेरिक नेक्सवर (सोराफेनिब टोसीलेट) का 120 कैप्सूल का पैक करीब 30 हजार रुपए की कीमत पर बाजार में उतारा था। अभी जब नेटको बनाम बेयर के मामले में बौद्धिक संपदा अपीलीय बोर्ड का मत सामने आया तो उस समय सिप्ला 5400 रुपए की कीमत पर इस दवा को बेच रही थी। हैरान करने वाली बात यह है कि पेटेंट के उल्लंघन के आरोपों और नेटको को अनिवार्य लाइसेंस देने से पहले वर्ष 2008 से 2010 के बीच बेयर ने सोराफेनिब टोसीलेट दवा का भारत में नाममात्र के लिए ही आयात किया। वर्ष 2008 में तो बेयर ने इसका आयात ही नहीं किया, जबकि उस साल बेयर ने दुनिया के बाकी हिस्से से जो लाभ कमाया वह 67 करोड़ 80 लाख डॉलर था। जबकि यह दवा लीवर और किडनी के कैंसर के पूरे फैल जाने की स्थिति (एडवांस स्टेज) में इस्तेमाल होती है। भारत और अमेरिका दोनों में इसका पेटेंट बेयर के पास है। बेयर का इस मामले में यह शर्मनाक रुख दर्शाता है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां पेटेंट को हथियार बनाकर अपनी सुविधा के हिसाब से उसका इस्तेमाल करती हैं।

कैंसर और एड्स के इलाज में काम आने वाली अधिकतर दवाओं पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कब्जा है, क्योंकि उनके पास इन दवाओं का पेटेंट है। लेकिन पिछले कुछ सालों से जेनेरिक दवा कंपनियों ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए चुनौती पेश की है। इसका एक और उदाहरण नोवार्टिस का है। नोवार्टिस स्विट्जरलैंड की बहुराष्ट्रीय दवा कंपनी है। नोवार्टिस को ग्लेविक दवा के लिए भारत में विशेष मार्केटिंग अधिकार प्राप्त थे। ग्लेविक इमाटिनिब मैसेलेट का बीटा क्रिस्टल रूप है। ग्लेविक क्रोनिक माइलॉयड ल्यूकिमिया के लिए निर्धारित औषधि है। नोवार्टिस की दवा की कीमत प्रति माह एक लाख बीस रुपए बैठती है। जबकि भारतीय जेनेरिक निर्माता इसी जीवन रक्षक दवा को दस हजार रुपए प्रति माह की कीमत पर मरीजों को उपलब्ध कराते हैं। बौद्धिक संपदा अपीलीय बोर्ड ने ग्लेविक के पेटेंट नवीकरण करने से इनकार कर दिया। इसके पीछे बोर्ड का आधार यह था कि इसकी कीमत बहुत ही अधिक है। नोवार्टिस यह मामला सुप्रीम कोर्ट में ले गई है। इसके अलावा भारत फाइजर कंपनी की कैंसर की दवा सूटंट, रॉश होल्डिंग एजी की हेपेटाइटिस सी की दवा पैग्सिस और मर्क एंड कंपनी की अस्थमा के इलाज की एयरोसोल सस्पेंशन फॉम्र्यूलेशन के मंजूर पेटेंटों को रद्द कर चुका है।

देखा जाए तो जेनेरिक दवा निर्माता कंपनियां बहुराष्ट्रीय कंपनियों के एकाधिकार का विकल्प बन सकती हैं। खासकर एचआईवी/एड्स के इलाज में इस्तेमाल में लाई जाने वाली एंटीरेट्रोवाइरल दवाओं के मामले में यह देखने को मिला है। एचआईवी-एड्स के एक मरीज को एक साल के इलाज के लिए 12 हजार से 15 हजार डॉलर खर्च करने पड़ते थे। भारत की बड़ी जेनेरिक दवा निर्माता कंपनियों में से एक सिप्ला ने उच्च गुणवत्ता वाली एचआईवी-एड्स एंटीरेट्रोवाइरल दवाएं सस्ते में उपलब्ध कराकर विकासशील देशों, विशेषकर अफ्रीका में मरीजों में एक नई आशा जगाई। सिप्ला ने तीन एंटीरेट्रोवाइरल को मिलाकर एक गोली बनाई जिसका नाम ट्राइओम्यून है। इसके लिए मरीज को एक साल के इलाज के लिए 350 डॉलर देने पड़ते हैं। अफ्रीका और अन्य विकासशील देशों में 85 प्रतिशत दवाएं भारतीय कंपनियों से जाती हैं। इन जेनेरिक दवाओं ने बहुत सारे लोगों का जीवन बचाया और बहुत सारे मरीजों की जीवन-प्रत्याशा को बढ़ाया। पूरी दुनिया में चार करोड़ लोग एड्स से पीडि़त हैं। इन मरीजों को सस्ती और उच्च गुणवत्ता वाली जेनेरिक दवाएं उपलब्ध होना जरूरी है, क्योंकि इन मरीजों में से अधिसंख्य के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों की दवाएं खरीदना असंभव है।

दवाओं की इतनी अधिक कीमत के मामले में बहुष्ट्रीय कंपनियों का तर्क है कि वह दवा की खोज और उसके विकास में बहुत अधिक निवेश करते हैं और अपने फार्मूले पर वह इसलिए भी अधिकार चाहते हैं ताकि वे आने वाले समय में अपनी गुणवत्ता को बढ़ा सकें। पर शोध और विकास में बहुत अधिक धन खर्च करने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों का तर्क पूरी तरह निराधार है। इस मामले में हुए अध्ययन बताते हैं कि दवा अनुसंधान के लिए जो वैश्विक फंडिंग है उसमें से 84 फीसदी पूंजी सरकारों और सार्वजनिक स्रोतों से आती है। जबकि फार्मास्यूटिकल कंपनियां 12 प्रतिशत ही पूंजी लगाती हैं। उल्टा ये कंपनियां औसतन 19 गुना अधिक पैसा मार्केटिंग पर खर्च करती हैं। अपने राजस्व का 1.3 प्रतिशत पैसा ही ये कंपनियां मूल अनुसंधान पर खर्च करती हैं।

दरअसल, व्यापार संबंधी बौद्धिक संपदा अधिकारों के प्रसार के बाद पेटेंट बड़ा मुनाफा कमाने का एक खतरनाक हथियार बन गया है। जबकि हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि प्राकृतिक दुनिया से संबंधित ज्ञान का एक बहुत बड़ा हिस्सा जो आज मानव के पास है उसमें कई सदियों के दौरान देशज और स्थानीय लोगों के प्रयासों का योगदान रहा है। देशज लोगों ने जो आविष्कार और खोजें की उन पर स्वामित्व का दावा नहीं किया। हालांकि हाल के दशकों में व्यापार संबंधी बौद्धिक संपदा के अधिकारों (ट्रिप्स) के परिणामस्वरूप देशज और स्थानीय लोगों के अधिकारों का उल्लंघन हुआ है। ट्रिप्स जीव रूपों और ट्रांस नेशनल कॉरपोरेशनों की गतिविधियों, जो जैविक संसाधनों (इस प्रक्रिया को जैव संभावना के नाम से जाना जाता है) पर आधारित उत्पादों के व्यावसायीकरण में शामिल हैं, को पेटेंट करने की इजाजत देता है। ट्रांस नेशनल कॉरपोरेशन जिन बहुत सारे ‘आविष्कारों’ को करने का दावा करते हैं, वह ज्ञान पहले से मौजूद रहा है, लेकिन जिसका दस्तावेजीकरण नहीं किया गया था। यह मौखिक तौर पर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को मिलता रहा है। यह सामूहिक ज्ञान है, इस पर स्वामित्व का अधिकार नहीं किया गया। देशज लोग इस तरह के ज्ञान के व्यावसायीकरण को पसंद नहीं करते थे। असली आविष्कारक इसे लोकहित में इस्तेमाल करते थे। बौद्धिक संपदा दौर के प्रसार के साथ पिछले कुछ सालों में देशज और स्थानीय लोगों के अधिकारों का उल्लंघन हुआ है। ट्रिप्स समझौते, जो जीवाणु, सूक्ष्म जीव विज्ञान प्रक्रियाओं और साथ ही वनस्पतियों की किस्मों के पेटेंट के लिए रास्ता उपलब्ध कराता है, ने पिछले कुछ वर्षों में पेटेंट के प्रसार के लिए अवसर उपलब्ध कराया है। ट्रांस नेशनल कॉरपोरेशनों ने देशज और स्थानीय लोगों के परंपरागत ज्ञान को स्वयं द्वारा किए गए ‘आविष्कारों’ का दावा करके पेटेंट कराने की कोशिश की है।

सवाल यही है कि दवाओं के अनुसंधान और विकास का लाभ किसको मिल रहा है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां जिस तरह से मनमाना मुनाफा वसूल रही हैं उसे क्या चिकित्सा विज्ञान के मानदंडों से उचित कहा जा सकता है ? जैसे, बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पेटेंट युक्त इंजेक्शन के दाम डेढ़ लाख रुपए तक हैं। वैश्विक संदर्भ में बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों के एकाधिकार को देखते हुए यह जरूरी है कि पेटेंट युक्त दवाओं के जेनेरिक संस्करण के लिए अनिवार्य लाइसेंस देने की नीति को ज्यादा सक्रिय तरीके से लागू किया जाना चाहिए। जेनेरिक दवा निर्माण और अनिवार्य लाइसेंसिंग के मामले में भारत और अन्य विकासशील देश यदि कमजोर रुख अपनाएंगे तो इसके परिणाम तीसरी दुनिया के लिए बहुत ही घातक होंगे। लेकिन इसके साथ ही जेनेरिक दवा निर्माता कंपनियों की दवाओं की कीमतों के निर्धारण की ऐसी नीति होनी चाहिए जो आम जनता की पहुंच के अंदर हो। भारत जैसे देश में ऐसे लोगों की काफी बड़ी संख्या है जो जेनेरिक दवा निर्माता कंपनियों की जीवन रक्षक दवाओं को भी खरीदने में सक्षम नहीं हैं। अगर जिस व्यक्ति की प्रति माह आमदनी पांच हजार से सात हजार रुपए के बीच है वह इलाज के लिए दस हजार रुपए के कीमत वाली जेनेरिक दवा भी नहीं खरीद सकता है। भारत में इस तरह की कम आय वाले परिवारों की संख्या करोड़ों में है। ”

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दवाईयों के पेटेण्ट पर केन्द्र सरकार का निर्णय स्वागत योग्य

डाॅ. भगवती प्रकाश

​केन्द्र सरकार द्वारा अमेरिकी दबाव की अनदेखी कर दवाईयों के पेटेन्ट के मामले में अनिवार्य अनुज्ञापन (कम्पल्सरी लाईसेसिंग) के प्रावधानों एवं भारतीय पेटेन्ट अधिनियम की धारा 3 डी में, किसी भी प्रकार की शिथिलता लाने से इन्कार कर देने का निर्णय अत्यंत स्वागत योग्य है। भारत आज ‘फार्मेसी आॅफ द वल्र्ड‘ कहलाता है और पेटेन्ट के क्षेत्र में उपरोक्त दोनों मानवोचित प्रावधानों के कारण ही आज विश्व भर में ब्लड केन्सर, एच.आई.वी एड्स और अन्य गम्भीर बीमारियों के सस्ते ईलाज के लिए सस्ती दरों पर दवाईयाँ सुलभ करा पा रहा है, जिसके फलस्वरूप ही आज विश्व के 40 प्रतिशत से भी अधिक रोगी अपना ईलाज भारत में सस्ती दर पर सुलभ दवाईयों के कारण ही करा पा रहे है। देश मंे स्वास्थ्य - रक्षा व चिकित्सा लागतों पर नियंत्रण और वैश्विक मानवता के प्रति संवेदनावश ही विगत कई वर्षों से चल रहे अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधि और ओबामा प्रशासन के दबाव को पूरी तरह से नकारते हुए अब तो सरकार ने मंगलवार, दिसम्बर 29 को व्यक्त रूप से ही इन मुद्दों पर अमरीकी दबाव में आने से सर्वथा इन्कार कर दिया है। पिछली सरकार इन मुद्दों को व्यक्त रूप से नकारने का साहस नहीं दिखा पायी थी। इस सम्बन्ध में विश्व व्यापार संगठन के हाल ही में नैरोबी में सम्पन्न दसवें मंत्रीय स्तरीय सम्मेलन में भी भारत ने विकासशील व अल्पतम विकसित देशों के पक्ष को मजबूती से रखते हुए इन मुद्दों पर पर्याप्त दृढ़ता दिखाई थी।

​यहाँ पर यह भी उल्लेखनीय है कि वर्ष 2012 में जब भारत के तत्कालीन चीफ कन्ट्रोलर आॅफ पेटेन्ट्स, पी.एच. कुरियन ने जर्मन कम्पनी ‘बायर एजी‘ की 2,80,000 रूपये कीमत वाली, लीवर व किडनी केन्सर की ‘नेक्सावर‘ नामक दवाई को भारत को 8,800 रूपये में बनाकर बेचने के नेटको नामक भारतीय कम्पनी को कम्पलसरी लाईसेन्स दे दिया था, तब केन्द्र सरकार ऐसा साहस नहीं दिखला पायी थी। वस्तुतः श्री कुरिअन द्वारा दिये लाइसेंस के विरूद्ध तब तत्कालीन मनमोहसिंह सरकार पर इस कम्पल्सरी लाइसेंस के विरूद्ध आए यूरो अमेरीकी दबाव को वह सहन नहीं कर पाई थी। इसलिए इस बायर एजी कंपनी द्वारा 2 लाख 80 हजार रूपये में बेचे जा रहे लीवर व किडनी केंसर के इस इन्जेक्शन को, 8800 रूपये में बनाकर बेचने का कम्पल्सरी लाइसेंस देने वाले चीफ कंट्रोलर आॅफ पेटेन्ट्स, पी.एच. कुरियन का कार्यकाल 2.5 वर्ष शेष होने पर भी सरकार उनका इस पद से स्थानान्तरण कर देने के दबाव में आ गई थी। मानवता के हित में देश के विद्यमान कानून और 2001 के बहुपक्षीय दोहा घोषणा पत्र के अनुरूप ही कम्पल्सरी लाइसेंस देने पर भी पी.एच. कुरियन को समय से पहले उस पद से हटा दिया देने अत्यन्त हास्यास्पद निर्णय था। उसके बाद कोई भी चीफ कंट्रोलर आॅफ पेटेन्श देश में कम्पल्सरी लाइसेंस देने का साहस नहीं जुटा पाया है।

​इतना करने अर्थात कुरियन को पद हटा देने के बाद भी तत्कालीन मनमोहनसिंह सरकार के विरूद्ध अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधि ने दण्डात्मक कार्यवाही तक के लिए, भारत के विरूद्ध आऊट आॅफ साइकिल जन सुनवाई प्रारंभ कर दी थी। तब यह लग ही रहा था कि अमेरिकी प्रसासन भारत के विरूद्ध अमेरिकी कानून सुपर 301 के अधीन कार्यवाही करने के लिए भारत को प्रायोरिटी फाॅरेन कंट्री की श्रेणी में रखने वाला है। लेकिन, लोक सभा चुनावों के बीच अप्रेल 30, 2013 को जारी अपने प्रतिवेदन में उसने ऐसा नहीं किया। अब तो वर्तमान सरकार की दृढता को देखते हुए अमरिकी व्यापार प्रतिनिधि माइकल फ्रोमेन ने किसी आऊट आॅफ साइकिल समीक्षा जैसा कदम दुबारा नहीं उठाया है जबकि अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधि ने अपनी ताजा वार्षिक स्पेशल 301 रिपोर्ट में इस मुद्दे पर गंभीर चिंता व्यक्त की है।

​इस संबंध में भारत सरकार अपनी दृढ़ता बनाये रखते हुए अन्य भी विदेशी पेटेन्ट युक्त महंगी जीवन रक्षक दवाईयों के संबंध में भी उदारता पूर्वक कम्पल्सरी लाइसेंस जारी करने की नीति पर आगे बढ़े तो देश व विदेश के आम रोगियों के लिए वरदान सिद्ध होगा। अच्छा तो यही होगा कि, सरकार पेटेन्ट के अधीन आने वाली अन्य भी ऐसी महंगी दवाईयाँ, जिन्हें कोई भी स्थानीय उत्पादक उसके विदेशी पेटेन्टधारी की तुलना में एक चैथाई से कम कीमत पर बनाकर बेचने को प्रस्तुत हो जाये उन सभी के लिए, स्वतः अनिवार्य अनुज्ञापन (आॅटोमेटिक कम्पल्सरी लाइसेंस) का प्रावधान करे।

​ऐसी अनेक दवाईयां है यथा रोश कम्पनी की केंसर-रोधी 1,35,200 रूपये की दवा हरसेप्टीन मर्क कम्पनी की अरबीटक्स जो 87,920 रूपये की है, ब्रिस्टोल मेयर स्क्विब की आई जेम्प्रा जो 66,460 रू. की है, फाइजर कम्पनी की मेकुजन जो 45,350 रूपये की है और सनोफी एवेन्टीस की फास्चरटेक 45,000 रूपये की कीमत पर उपलब्ध है। ऐसी सभी महंगी दवाईयों के लिए भी कम्पल्सरी लाइसेंस जारी किया जाना चाहिए। इनमें से अधिकांश दवाईयां केंसर, मधुमेह, हृदय रोग एवं अन्य गंभीर वेदनाओं के लिए प्रभावी दवाईयां हैं।

​ऐसे सभी मामलों में ऐसा कम्पल्सरी लाइसेन्स आवश्यक है। इसी प्रकार भारतीय पेटेण्ट अधिनियम की धारा 3 डी के कारण ही ब्लड कैंसर की दवा ग्लिवेक आज भी देश में रू. 1200 के स्थान पर मात्र रू. 90 में उपलब्ध है। अतएव पेटेण्ट व ट्रिप्स के मामले में नरेन्द्र मोदी सरकार की दृढ़ता भारत व विश्व भर के मध्यम व निम्न आय वर्ग के लाखों रोगियों के लिये जीवनदान तुल्य निर्णय है ।

 

डाॅ. भगवती प्रकाश

अखिल भारतीय सह संयोजक

स्वदेशी जागरण मंच

98292 43459


 

संदर्भ:

1. आर. राघवन, ‘नेटको फार्मा विंस कैंसर ड्रग द हिंदू, 5 मार्च 2013।

2. श्रीविद्या राघवन, ‘पेशंट्स विन ओवर पेटेंट्स ; द हिंदू, 7 मार्च 2013।

3. देबोश्री रॉय, ‘ऑफ ग्लेविक एंड नोवार्टिस ; फ्रंटियर, 9-15 दिसंबर 2012।

4. रोहिणी पाडुरंगी, ‘पेटेंटिंग ट्रेडिशनल नॉलेज ; फ्रंटियर, 9-15 दिसंबर 2012।

5. मार्टिन खोर, ‘फार्मा इंडस्ट्री फॉर द वल्र्डस् पूअर ; डेक्कन हेराल्ड, 20 मार्च 2013।

Thursday, August 5, 2021

पर्यावरण विभाग

लगभग दो वर्ष पूर्व संघ ने पर्यावरण विभाग बनाया। इसमें ज्यादा बाते नहीं रखा है। पर्यावरण विभाग के 3 मुख्य कार्यक्षेत्र हैं:  
पानी, पौधे, एवं प्लास्टिक । 
तथा 
6 कार्य विभाग हैं , मातृशक्ति कार्य विभाग, दूसरा धार्मिक संस्थान, तीसरा शिक्षण संस्थान, चौथा एनजीओज़I,  पांचवा प्रचार विभाग और छटा, विभिन्न क्षेत्रों के साथ संपर्क। सुना है अंत के दो विसर्जित करने का प्रयास हो रहा है। 

इसके अतिरिक्त फाइव स्टार घर, फाइव स्टार मंदिर स्थल,  फाइव स्टार विद्यालय या कोई भी संस्थान हो । उनके अंदर फाइव स्टार होने के लिए पांच बातें आवश्यक हैं। 
क्रमांक 1 घर का पानी घर में प्रयोग 
2. सौर ऊर्जा से घर में प्रकाश व्यवस्थाएं
3.  घर का कचरा घर में रखना और उसकी खाद आदि बनाना और
4.  पेड़ पौधे लगाना और
5.  पांचवा है घर में चिड़िया पक्षी आदि आए। 

विद्या भारती के अनेक विद्यालय इस और प्रयास कर रहे हैं और घरों पर भी यह प्रयास हो रहा है। यह बातचीत हैदराबाद की बैठक में 2 अगस्त को उनकी टोली में हुई। 
इससे पहले जब यह बना था तो यह खतरा महसूस होता था की जगह जगह जगह जगह प्रदर्शन पर्यावरण नीति के खिलाफ होंगे. सरकार के खिलाफ होंगे । तो उन सब संघर्ष की बातों को छोड़कर सकारात्मक ढंग से रचनात्मक ढंग से अपना काम हो इस और लगाया गया है।  प्रचार कम हो और अधिक से अधिक कार्य हो इसका भी ध्यान रखा जाए एक बात पर बहुत आग्रह है कि पर्यावरण लोगों की जीवन में आए यथा कम पानी प्रयोग करना और धीरे-धीरे व्यक्ति घर इसके निर्माण के अपना काम करें। 

संजीव जी पौदे, राजेश चौहान व

“The RSS’ work has reached a certain level and now we feel that it is time to take a big leap in terms of expansion of the work. The RSS has decided to take up a new initiative in the field on environment protection and conservation,” said Bhaiyya ji Joshi.

At Gwalior ABPS MEET 2019 HELD ON MARCH 8,9 MARCH, Bhaiyya Joshi was "Elaborating upon the new initiative of the RSS, he said that the Sangh will take up various activities along with the society in the field of environment protection and conservation through initiatives in three key areas – water conservation and water management, planting trees and eliminating the use of plastic and other non-biodegradable material like Thermocol.

He also added that we decided to assign a dedicated team to inculcate an integrated approach to address the environment-related concerns, which was later implemented in the Pratinidhi Sabha. Though concerns are global, many a time, solutions are rooted in the local geo-cultural approach and conventional wisdom. The societal participation will ensure the integration of different approaches while addressing the problems.