Wednesday, September 22, 2021
प्राचीन भारत में रोज़गार
Wednesday, September 15, 2021
न मन हूँ न बुद्धि न चित अहंकार
Tuesday, September 14, 2021
भारत के खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश के खिलाफ अपील
क्या आप जानते है :
1. भारत में 1 करोड़ 20 लाख छोटी बड़ी दुकानें हैं।
2. ये दुकानें देश के 120 करोड़ लोगों को एक वर्ष में 23 लाख करोड़ रूपये का माल खरीदती/बेचती हैं।
3. लगभग 3.5 करोड़ लोग इन दुकानों पर मालिक अथवा कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं तथा 1.5 करोड़ लोग इन दुकानों पर माल लाने/ले जाने व अन्य गतिविधियों में लगे हुए हैं।
4. इन 5 करोड़ लोगों के परिवार एवं साप्ताहिक बाजार (सोम बाजार, मंगल बाजार आदि-आदि) में लगे हुए लोगों की संख्या जोड़ ली जाए तो लगभग 26 करोड़ लोगों का जीवन यापन इन्हीं दुकानों पर निर्भर है।
5. भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) का लगभग 9 प्रतिशत इसी व्यापार से आता है।
भारत के व्यापार में विदेशी कम्पनियों की दस्तक
1. अमरिका, यूरोप आदि के विकसित देशों ने अपनी जीवन शैली इतनी विलासितापूर्ण एवं खर्चीली बना ली है कि इनका अपने देश में ही कमाई से गुजारा नहीं हो सकता, इसलिए दुनिया के दूसरे देशों के बाजारों पर कब्जा करके भारी कमाई करते हैं। इसी क्रम में इनकी सरकारें भारत सरकार पर दबाव डालकर यहां के बाजार विदेशी कम्पनियों के लिए खुलवा रहे हैं। अमरिका में आई मन्दी के बाद इस गति में तेजी आयी है।
2. वालमार्ट, टेस्को, केरीफोर आदि कम्पनियों ने अनेक देशों के करोड़ों दुकानदारों को व्यापार से बाहर करके उन देशों के 80 प्रतिशत तक व्यापार अपने कब्जे में कर लिया है।
3. भारत का 97 प्रतिशत व्यापार करोड़ों दुकानदारों के द्वारा ही किया जाता है। अभी तक इस व्यापार में विदेशी कम्पनियों को अनुमति नहीं मिली हुई है। किन्तु इन विदेशी कम्पनियों की गिद्ध दृष्टि लगातार हमारे व्यापार पर कब्जा करने के लिए लगी हुई है।
4. केन्द्र की यू.पी.ए. सरकार देश के कुछ प्रान्तों के हुए विधानसभा चुनावों उपरान्त अब विदेशी कम्पनियों को आने की अनुमति देने जा रही है।
विदेशी कपंनियों के क्या तर्क हैं :
1. विदेशी कम्पनियों के आने से उपभोक्ता को सस्ता एवं अच्छी गुणवत्ता का माल मिलने लगेगा।
2. इन कम्पनियों में नौकरी करके रोजगार के अवसर प्राप्त होंगे।
3. बिचौलियों से छूटकारा मिलेगा।
सच्चाई क्या है:
1. इन्हीं तको± के साथ देश के शीतल पेय के बाजार में कुछ वर्ष पूर्व पेप्सी कोला एवं कोका-कोला कम्पनी आई थी। आज स्थिति यह है कि शीतल पेय का 95 प्रतिशत बाजार इन कम्पनियों ने कब्जा करके देश के करोड़ों शीतल पेय निर्माताओं (केम्पा-कोला, स्थानीय ब्राण्ड वाले शीतल पेय, कन्चे वाली बोतल, जूस, गन्ने का रस, शिकञ्जी, सोड़ा, लस्सी, बेल का शरबत आदि-आदि) को बबाZद कर दिया।
2. ये कम्पनियां बिचौलियों को हटाने की बात करती है किन्तु स्वयं फिल्मी सितारों, खिलाड़ियों को सैकड़ों करोड़ रूपये तथा टेलीविजन चैनल को 1 लाख रूपये प्रति सेकण्ड की दर से विज्ञापन के लिए भुगतान करती है। क्या ये लोग बिचौलिए नहीं हैर्षोर्षो
3. अन्य देशों में इन कम्पनियों का इतिहास यह बताता है कि ये पहले तो सस्ता माल बेच कर वहां ही दुकानों को बन्द करवा देते है फिर ग्राहक को भी मनमाना लूटते है।
4. यूरोप में करीब 4 लाख दुकानें इन्हीं कम्पनियों के कारण बन्द हो गई है। अमरिका के किसानों की आय 10 प्रतिशत कम हो गई है। वालमार्ट ने अपना माल चीन से खरीदना शुरू कर दिया जिस कारण अमरिका का व्यापार घाटा बढ़ गया तथा 5 लाख लोग भी बेरोजगार हो गए। जर्मनी और दक्षिण कोरिया ने अपने दुकानदारों को बचाने के लिए वालमार्ट जैसी कम्पनियों को देश से बाहर निकाल दिया। चीन, थाईलैण्ड व मलेशिया की सरकारें इन कम्पनियों से बचने के लिए रास्ते तलाश रही हैं।
5. देश की संसद के द्वारा गठित संसदीय समिति ने दिनांक 8 जून 2009 को इस सम्बन्ध में विदेशी कम्पनियों को भारत में अनुमति दिए जाने का कड़ा विरोध करते हुए अपनी रिपोर्ट लोकसभा के पटल पर रखी थी। किन्तु उस रिपोर्ट को सरकार दरकिनार करके एक निजी एजेंसी की रिपोर्ट को महत्व दे रही है। इक्रियर नाम की इस एजेंसी ने देश भर में मात्र 2018 दुकानों का सर्वे किया है। यह एक संयोग है कि इस एजेंसी को विदेशी कम्पनियों के सबसे बड़े पेरोकार श्री मोण्टेक सिंह अहलूवालिया (योजना आयोग के उपाध्यक्ष) की धर्मपत्नी चलाती हैं।
भारत में खतरा क्या है :
1. देश में ज्यादातर दुकानदार स्वयं के द्वारा ही जुटाई गई बहुत कम पूञ्जी से अपना व्यापार चलाते हैं। दूसरी ओर बड़ी कम्पनियों को बहुत कम ब्याज पर बैंकों से बड़ी-बड़ी राशि मिल जाती है। इस कारण वे बड़ी कम्पनियों के साथ मुकाबले में वे टिक नहीं पाएंगे।
2. करोड़ों की संख्या में ये छोटे दुकानदार बेरोजगार हो जाएंगे। जिसके कारण हत्या, आत्महत्या एवं लूटपाट बढ़ेगी तथा देश में अनेक प्रकार के आर्थिक, सामाजिक एवं सुरक्षा सम्बन्धी संकट खड़े हो जाएंगे।
3. काण्ट्रेक्ट खेती के नाम पर ये कम्पनियां किसानों का भी भारी शोषण करेगी।
4. भारी मुनाफा कमाकर ये कम्पनियां देश का धन बाहर ले जायेगी।
सरकार से हमारी मांग
1. खुदरा व्यापार खोलने से पहले देश भर में इस मुद्दे पर सरकार की ओर से एक बहस चलायी जाए कि आम व्यापारी इस बारे में क्या सोचता है।
2. सिंगल ब्राण्ड रिटेलिंग के क्षेत्र में अभी तक जिन कम्पनियों को पिछले वषो± में अनुमति दी गई है उसके सम्बन्ध में अब तक देश को हुए लाभ हानि का लेखा जोखा (श्वेत पत्र) सरकार शीघ्र जारी करे। (जैसे शीतल पेय में कोका-कोला, पेप्सी-कोला, खाद्यान्न में कारगिल कम्पनी, आदि-आदि)
3. बड़ी कम्पनियों के आने से लगभग 17 करोड़ लोगोें की दुकानदारी एवं रोजगार बिल्कुल खत्म हो जायेगी, उनके पुनर्वास के लिए क्या योजना है।
4. दिनांक 28 जुलाई 2010 को दिल्ली के कंस्टीटयूशन क्लब में योजना आयोग के उपाध्यक्ष ने स्वीकार किया था कि कृषि से आजीविका चलाने वाले लोगों की संख्या घटानी पडेगी, लघु उद्योगों में ओर अधिक लोगों को रोजगार नहीं दिया जा सकता अपितु लोगों को निकाला जा रहा है। एक तरफ किसान आत्महत्या कर रहे है, दूसरी तरफ छोटे लघु उद्योगों को चीन का माल बबाZद कर रहा है तो ऐसी स्थिति में खुदरा व्यापार में भी विदेशी कम्पनियों को बुला कर करोड़ों लोगों को क्यों बबाZद किया जा रहा :
हमारा संकल्प
``लघु किसान- लघु व्यापार- लघु उद्योग
बचेगा तो - बचेगा देश - बचेगा देश´´
``घर-घर ले जाएंगे - हम यह सन्देश´´
आईये हम सब मिलकर प्रधानमन्त्री के नाम ज्ञापन पर अपने हस्ताक्षर करके स्वदेशी जागरण मंच द्वारा चलाए जा रहे हस्ताक्षर अभियान में सम्मिलित होकर करोड़ों लोगों के रोजगार की रक्षा करने में भागीदार बनें।
चीन का खतरा और समाधान - कश्मीरी लाल
यदि ये पूछा जाये कि आजाद भारत का ऐसा कौन सा क्षण हे जिस पर आप सबसे ज्यादा गर्व कर सकते हे. इस के कई उत्तर हो सकते हे. पोखरण के विस्फोट से लेकर बाबरी ढांचा गिरने तक और कारगिल विजय से अन्ना हजारे की विजय तक कई उत्तर हो सकते हैं. लेकिन आजाद भारत के पूरे इतिहास को देखें तो बंग्लादेश पर विजय एक ऐसा उत्तर हे जिसपर काफी लोग सहमत हो जायेंगे. इस तेरह दिन के युद्ध में भारत ने पकिस्तान को बुरी तरह परास्त करके आत्म-समर्पण के लिए मजबूर किया. क्या नज़ारा था जब 16 दिसंबर 1971 को हमारे जेनेरल अरोड़ा ने पकिस्तान के जेनेरल निआज़ी को आत्मसमर्पण पत्र पर दस्तखत करने पर उनके 90 ,००० से ज्यादा भेद-बकरीओं की तरह इकट्ठे किये सैनिको को रिहा किया. अब अगर इससे बिलकुल उल्टा प्रश्न ये पूछा जाये कि आजादी के बाद का सबसे शर्मनाक समय कौन सा हो सकता है, तो इसके भी कई उत्तर हो सकते हे । संसद पर या ताज होटल पर हमले से लेकर नोट फॉर वोट जैसी घटना के कई शर्मनाक दिन गिनाये जा सकते हे. लेकिन एक उत्तर पर ज्यादातर लोगों कि सहमति होगी. वो होगी चीन से करारी हार. 1962 में चीन के हाथों ये बहुत ही शर्मनाक हार थी, और आज भी उसका स्मरण कर सर शर्म से झुकता है. कोई लोग तो उस दुर्घटना को याद भी नहीं करना चाहेंगे। इस हार के कारण क्या थे, इसको विष्लेषण करने के लिए एक समिति बनाई गई थी। उस रिपोर्ट पर चर्चा करके कुछ सबक सीखने की बात तो दूर, उस रिपोर्ट को आजतक सार्वजनिक ही नहीं किया गया।
हमने इस पराजय को एक घिसे-पिटे शब्द से छुपाने व पर्दा डालने की कोशिश की और वह शब्द है ‘‘धोखा’’। चीन ने हमारे साथ छल किया, फरेब किया ऐसा हमारे नेताओं ने कहा. 'हिन्दी चीनी भाई-भाई' के नारे लगाते-लगाते गला अभी सहज भी नहीं हो पाया था कि हमारा गला कोई घोंटने लगा । हमारे प्रधानमंत्री जी ने पंचषील के शांति के कबूतर छोड़कर और उनके सुखद फडफड़ाने के स्वर से आह्लादित हो आंखे बंद कर ली थी. अचानक हमारे इन शांतिदूत कबूतरों के गले से दबी चीख निकली और खून के छींटे नीचे गिरे। चीन के बाजों और चीलों ने उनपर झपट्टा मारके घायल कर दिया था। नेहरु लाचार थे. और सारा देश शर्मसार था. उनको कुछ समझ नहीं आ रहा की ये कैसे हो गया.
१.चीन का आक्रमण क्या अचानक हुआ था :हमारे कुछ रक्षा विषेषज्ञों ने इस सत्य को तथ्यों के साथ उजागर किया है कि ‘‘धोखे’’ का यह इल्जाम शंकास्पद ही नहीं, हास्यास्पद भी है। 'फन्नी' ही नहीं 'फाल्स' भी हे. समय रहते हम ने चीन के कुत्सित इरादों की और कभी गौर नहीं किया था. नेहरु जी की दुनिया में शांति का मसीहा बनाने की खोखली चाहत ने उन्हें कुछ समझने ही नहीं दिया. इतिहास गवाह हे की चीनी नेता माओत्से तुंग ने कई बार कहा था कि तिब्बत चीन के हाथ ही हथेली की मानिंद है और हथेली के साथ की पांच उंगलियां लद्दाख, सिक्किम, नेपाल, भूटान और नेफा है. लेकिन हमने कभी जियादा गौर नहीं किया था। 1950 के बाद के अपने नक्शों में चीन कोरिया, इंडोचीन, मंगोलिया, बर्मा, मलेषिया, पूर्वी तुर्किस्तान, नेपाल, सिक्किम, भूटान व भारत जैसे 11 देषों को अपनी सीमा में दिखाता रहा है. हमें तभी संभलना चाहिए था. लेकिन हमने गौर नहीं किया ।(भारत वर्मा , रक्षा विशेषज्ञ, चीन से भारत को आशंका, इंडियन डिफेन्स रेवियु , मई 2010 ) राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया श्रीगुरू जी की भविष्यवाणी उसी समय की गई थी की चीन भारत पर हमला कर सकता हे . उसी समाया चीनी प्रधानमंत्री चायू एन लाई की भारत यात्रा के समय भारत हिंदी-चीनी, भाई-भाई के नारे लगा रहे थे । श्रीगुरू जी की चेतावनी भी अनसुनी कर दी गई - और फिर कहा गया कि धोखा हुआ है।
इस धोखे की बात को आज फिर याद करना पड़ेगा । कुछ विशेषज्ञों का मानना हे की चीन फिर भारत पर अगले साल हमला कर सकता हे. उन रक्षा विषेषज्ञों का अनुमान है कि चीनी विजय के 50 वर्ष 2012 में होंगे। इस स्वर्ण जयन्ति (गोल्डन जुबली ) को चीन भारत पर दुबारा हमला करके मनाएगा। इसके कारन भी बताये हे. चीन की अपनी घरेलू समस्याएं हैं, गरीब अमीर का अंतर बाद रहा हे । गाँव में आक्रोश हे की शहरों की चकाचोंध वहीं सिमट कर रह गई हे. और साड़ी दुनिया में लोकतंत्र की बयार उनके देश को नहीं छू रही. वो पहले की तरह तिनामिनान चौक पर अपने लोगों को टैंकों से रोंद कर 'श्मशान की शांति' पैदा करने से बचना चाहेगा। वह भारत पर आक्रमण करके अपनी जनता का ध्यान बढते हुए आक्रोश से हटा सकता है। भारत की समृधि की और बढ़त उसे फूटी आँखों सुहा नहीं रही. उसे भी अवरुद्ध करने वो हमला कर सकता हे. लेकिन क्या हमारी तैयारी है? क्या हम इसी भरोसे बैठे हैं की चीन व्यापारी बन गया हे और हमारे बाजार को छोड़ेगा नहीं, युद्ध तक नहीं जायेगा. यही बातें 1962 पहले भी नेतायों द्वारा कही जाती थी. हम इतिहास के गढ़े मुर्दे उखडने के आदी नहीं है, लेकिन इतना ही स्मरण करवाना चाहते है कि जो लोग इस कहावत को अक्सर भूलते है कि इतिहास अपने को दोहराते हैं और उससे सीख नहीं लेते वे पुनः लज्जा, शर्म सहने को अभिषप्त रहते है। हमारा ये जन जागरण अभियान एक चेतावनी सा हे. हम पूरे देश के सामने ये बात रखना चाहते हे की यदि युद्ध दुबारा होता हे तो क्या हमारी तेयारी हे. नेता इस मामले में चैन से सोते दिखाई दे रहे हैं.
हमारी सरकार को व जनता को लगातार इस खतरों को भांपना चाहिए था। हर बार पृथ्वीराज की तरह उदार होते-होते फिर स्वयं गिरफ्तार और आंखों से लाचार होने को अभिशप्त होना हमारी नियति नहीं होनी चाहिए. धोखा-धोखा चिल्लाने की बजाय कुछ और सोचना चाहिए. क्या अच्छा नही कि भारत शिवाजी महाराज की तरह पूर्व तैयारी में हो. धोखा देने वाला अफजल खां रूपी चीनी दैत्य स्वयम पेट की आंतडियां बाहर निकलते वक्त चिल्लाए 'फरेब', 'धोखा'। यदि भारत चैन की नींद न सोये तो यह बिलकुल हो सकता है. भारत को तेयार रहना ही चाहिए. .
2. चीन द्वारा पैदा किये गए संकट का कारण क्या हैं: हमें कई बार हेरानी होती हे की चीन बेशक हमारा सदा से पडोसी रहा हे और हमेश से ही एक ड्रेगन के स्वाभाव का देश रहा हे. दूसरों को अपने अधीन करने वाला मुल्क रहा हे. लेकिन हमारे इतिहास में एक भी घटना ये नहीं दर्शाती की चीन ने हमारे पर कभी कोई हमला किया हो. चंगेज़ खान नामक वहां का क्रूर हमलावर जहाँ कहाँ अपनी तलवार घुमाता रहा लेकिन भारत भूमि पर बिलकुल नहीं आया क्योंकि वो बौद्ध धर्म का मानाने वाला बताया जाता हे और महात्मा बुद्ध की भूमि को कैसे छेड़ता. इतिहासकार तो उसका नाम भी चंगेस हान बताते हे. तो फिर क्या हुआ की चीन ने सं 1962 में हमारे पर हमला बोल दिया और तब से लगातार हमारे प्रति शत्रुता दिखा रहा हे. वास्तव में चीन और हमारे बीच तिब्बत था, और 1950 से पहले कभी भी हमारी और चीन की सीमा आपस में मिलती नहीं थी. तिब्बत की बफर स्टेट बीच में गायब होते ही स्थिति गड़बड़ा गयी. ये गलती इस लिए हुई की तत्कालीन प्रधान मंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु चीन के इरादे नहीं भांप पाए थे और चीन को खुश करने के लिए एक से एक गलती करते गए जिसको आज तक भुगतना पड़ रहा हे. पंडित नेहरु "हिंदी चीनी भाई भाई " और " तीसरी दुनिया को अलग पहचान दिलाने " की हवाई नीतियों में मस्त रहे और चीन नयी से नयी चाले चलने में व्यस्त रहा. तिब्बत पर चीन से समझौता बहुत बड़ी भूल थी, और इसके बाद वो लगातार हिमालयन फ्रंटीयर के इलाके में फेलता गया और भारत अपने पैर समेटता गया ( . मोनिका चंसोरिया "चीन क विस्तार" "जौर्नल, सेंटर फॉर लैंड वार फैर स्टडीज़ )
चीन की रणनीति शुरू से यही रही की शक्ति बन्दूक की नाली से निकलती हे ना की शांति के प्रवचनों से. वैसे यदि हमने चीन के षड्यंत्रों को समझना हो तो चीन के एक पुराने राजनीतिक चिन्तक झून-जी (298 -238 ईसा पूर्व ) को समझना होगा. उसके तीन सिद्धांत चीन आज भी अनुसरण करता प्रतीत हो रहा हे. क्रमांक एक कि आदमी स्वाभाव से कुटिल और धूर्त होता हे. दुसरे कि संघर्ष और कलह में से ऐसी परिस्थितियाँ बनती हे जिसमें हर देश को उसका लाभ अपने हक में करने की कोशिश करनी चाहिए. और तीसरे यह के द्वि-पक्षीय संबंधो को कानूनी रूप देने से पहले अपनी हालत इतनी मजबूत कर लेनी चाहिए , जहाँ से उसका दब-दबा हमेश बरकरार रहे. अगर चीन और भारत के सम्बन्ध देखें जाएँ तो ये बातें बिलकुल खरी उतरती हे और चीन इन बातों का उपयोग अपने हक में करता स्पष्ट दिखाई देता हे. (नेहा कुमार, चीन से आणविक खतरा" इंडिया क्वार्टरली 65 ,2009 ) सन 1949 के बाद से ही चीन ने अपना चक्र-व्यूह रचना शुरू कर दिया था. चीन की चाल में फँस कर नेहरु ने तिब्बत जो की एक स्वतंत्र देश था, उसको चीन का अभिन्न अंग मानने की गलती कर ली. वास्तव में 1950 में तिब्बतियों ने भारत के साथ रहने और भारत का प्रोटेक्टोरत बनने की इच्छा जाहिर की. लेकिन विडम्बना देखिये कि नेहरु जी ने उदारता बरतते हुए उन्हें चीन का प्रोटेक्टोरत बनने की सलाह दी. इतना ही नहीं तो 1951 में उनकी एक संधि भी करवाई जिसमे तिब्बत की आन्तरिक स्वायत्ता और संस्कृति और स्वशाशन आदि कायम रहें गे, ऐसा कहा. और कहा की केवल संधि कर चीन की संप्रभुता तिब्बत स्वीकार कर ले. तिब्बत ने भारत के भरोसे ही यह संधि की थी. लेकिन भरोसे में मारा गया. जैसे ही 1955 के बाद चीन ने तिब्बत में अपनी सेना भेजनी शुरू की तो पंडित नेहरु को अपनी गलती का एहसास होने लगा. 1959 के आते आते चीन ने तिब्बत पर पूरी तरह कब्ज़ा कर लिया . यही वो दुर्भाग्यशाली साल था जब पूज्य दलाई लामा को तिब्बत छोड़ कर भारत की शरण लेनी पड़ी. यहाँ ध्यान रहे कि पंडित नेहरु ने चीनी विस्तारवाद का विरोध तो किया लेकिन यह विरोध केवल शब्दों तक ही सीमित था. भारत और चीन के बीच से एक बफर स्टेट तिब्बत के गायब होने से हमारे लिए भी मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा. इसके बाद चीन तिब्बत तक ही सीमित नहीं रहा बल्कि वो पहले नेपाल, फिर भूटान, मंगोलिया आदि समीपवर्ती देशों पर अपनी पकड़ मजबूत करता गया.
3. एक गलती का एहसास होने पर क्या पंडित नेहरु सम्हल गए ? नहीं, बिलकुल नहीं. तिब्बत को हडपने के बाद चीन ने एक पर एक कब्जे करने शुरू कर दिए. पहले चीनी राष्ट्रपति चायू एन लाई ने कभी नहीं कहा की भारत के साथ चीन का कोई सीमा विवाद हे. लेकिन 1959 में तिब्बत पर कब्ज़ा पूरा होने के बाद चीन ने चिल्लाना शुरू किया कि भारत ने हमारी एक लाख चार हज़ार वर्ग किलो मीटर जमीन दबा राखी हे. दूसरी गलती और सुन लेनी चाहिए. पहला धोखा खाने के बावजूद भारत ने चीन से शांति खरीदने के मृगजाल में एक और गलती करदी. जब चीन संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य नहीं था तो साम्यवादी देशो के इलावा भारत ही एक ऐसा देश था जिसने चीन कि सदस्यता के लिए प्रबल समर्थन किया था. और चीन ने इस उपकार का बदला दिया और 1962 में भारत पर बलात हमला कर दिया. इसी वक्त हमारी 38 ,000 वर्ग किलो मीटर जमीन पर कब्ज़ा कर लिया जो आजतक यथावत हे. (रिपोर्ट, तिब्बत डेली नोवंबर 2010 ). इतना ही नहीं तो उसने 5183 वर्ग किलोमीटर 1963 में पकिस्तान से ले ली. इसी जमीन पर महत्वपूर्ण कराकोरम पक्का मार्ग तेयार कर लिया. उसका पेट इससे भी नहीं भरा हे. उसने इल्जाम लगाया हे हे की भारत ने उसकी 90000 वर्ग किलोमीटर जमीन कब्ज़ा रखी हे. जो जो इलाके सामरिक दृष्टी से उसे उपयोगी लगते हैं, उनपर उसने अपनी उंगली टिका रखी हे. अब यदि तिब्बत सुरक्षित रहता तो चीन हमारा पडोसी बनकर हमारे पर लगातार दवाब नहीं बना सकता था. दूसरी बात हे जल विवाद की जो उसके बाद पैदा होने शुरू हुए . तिब्बत से ही ब्रह्पुत्र सहित और दस नदियाँ निकलती हे जिनसे 11 देशों की जलापूर्ति होती हे. अब ये सर्व विदित हे कि चीन उन नदियों के जल को अपने ढंग से मोड़ने का प्रयास कर रहा हे. चीन का उत्तर-पूर्वी हिस्सा सूखा हे और उसका तीन घाटियों वाला बाँध सूख रहा हे. इस लिए चीन इन नदियों का पानी उधर दे रहा हे. इसके लिए टनल और सुरंगों का जाल बिछाया जा रहा हे. दुःख का विषय हे की भारत सरकार ने अपने देश से इस बातको छुपा रहा हे. वैसे उपग्रहों के चित्र और अंतर-राष्ट्रीय प्रेक्षक और ऐसी पत्रिकाएं इन तथ्यों को नंगा कर रही ही. चीन की ये करतूते आने वाले दिनों में ये भारत के लिए ही नहीं तो विश्व के लिए एक संकट बनने वाला हे. (डॉ. भगवती शर्मा: चीन एक सुरक्षा संकट, पेज 13 )
४. नेहरु का पंचशील और आजके पंचशूल: हमने नेहरू के पंचषील के सिद्धांत की दुर्दषा होते देखी है - वह पंचषील हमारे लिए ‘पंचषूल’ बन गया और आज वे पांच शूल बहुत ही कष्ट दे रहे है . पहला शूल तो हे आर्थिक रूप से नुकसान. जो चीनी माल हमारे देष की दूकानों में अटे पड़े है। बचों के खिलोनो से लेकर पूजा के लिए लक्ष्मी गणेश कि प्रतिमा तक चीन निर्मित हे. होली का रंग भी चीन का, पिचकारी भी चीन की. दिवाली के चीन निर्मित पटाखे हमारे देश का दिवाला निकल के छोड़ें गे. हर साल चालीस हजार करोड़ रुपये हम चीन तो मुनाफे के रूप में दे रहे हे. बेरोजगारी भी इससे बढ रही हे. दूसरा नुक्सान पर्यावरण का हे. सारी दुनिया में आज पर्यावरण रक्षा की दुहाई दी जा रही हे. लेकिन पता हमें पता रहना चाहिए कि दुनिया का सबसे बड़े पर्यावरण विनाशको में से एक चीन है. बल्कि वो नंबर एक हे । दुनिया के सारे प्रदूषण का पांचवा हिस्सा यानि 21 प्रतिषत चीन फैला रहा है। तीसरा नुकसान चीन द्वारा हमारे देष में अराजकता फेलाना हे । माओवादी कहां से संरक्षण प्राप्त कर रहे हैं, उनको हथियार से लेकर ट्रेनिंग देने में चीन की बहुत बड़ी भूमिका हे. हमारे देश में लगभग 150 जिलो में मायो-वादियों का सिक्का चल रहा हे. और तो और - 'माओ' नाम ही उनके यहां से आया है . चौथा नुक्सान चीन कर रहा हे कि वो हमारे सभी पड़ोसियों को हथियार दे देकर और आर्थिक सहयोग करके उन्हें हमारे खिलाफ उकसा रहा है। पाकिस्तान, नेपाल, बंग्लादेष सभी को हमारे खिलाफ उकसाने का काम तो चीन कर ही रहा हे, उसने वहां अपनी सैनिक चोकियाँ बना ली हे। और पांचवा सीधा-सीधा चीन से सामरिक खतरा है। रक्ष विशेषज्ञों को प्राय ये लगता हे के चीन के सामने हम कहीं नहीं टिकते. संसद में 2007 में सरकार ने एक सवाल के जवाब में इस बात को माना की चीन बार बार हमारे यहाँ घुसपैठ करता हे. ये माना की अकेले इस साल के ग्यारह महीनो में चीन ने 146 बार घुसपैठ की हे. मोटा अनुमान हे की बासठ के युद्ध के बाद अबतक 1500 बार चीन ने हमारी सीमायों में घुसपैठ की हे. ये भी लगता हे के दुबारा चीन से युद्ध होने पर फिर शर्मनाक हार होगी. ये भी लगता हे के सरकार उसी तरह गुमराह हे, या मुगालते में हे जैसे पहले थी. हम उसको अपने देश में मार्केट देकर समझ रहे हे के चीन हमारे से युद्ध करके इस व्यापार को नहीं खोएगा. लेकिन हालत खतरनाक हे. अब तो चीन के शस्त्र भी नये-नये है। उधाहरण के लिए यदि चीन ब्रह्मपुत्र पर बनाए जा रहे बांध को ही कहीं विस्फोट से तोड़ता है तो बहुत बड़े हमारे भूभाग को सुनामी जैसी स्थिति में ला सकता है। यह कल्पना की उड़ान नहीं, कुछ वर्ष पूर्व पूरा हिमाचल ऐसी ही स्थिति में लाने का चीनी प्रयोग सफल रहा है। हमारी सरकार को व जनता को लगातार इस खतरों को भांपना चाहिए था. (भारत वर्मा , रक्षा विशेषज्ञ, चीन से भारत को आशंका, इंडियन डिफेन्स रेवियु , मई 2010 ). आईये इन पांचो खतरों रुपी शूलों को विस्तार से पहचाने.
पहला शूल: चीन का भारत पर आर्थिक हमला:
अभी इस 16 सितम्बर के दैनिक जागरण एवं दुसरे अखबारों में सुरक्षा सलाहकार का खुलासा चौकाने वाला हे. उसके मुताबिक चीन का खतरा अब देश की सीमाओं तक सीमित नहीं है। हमारी अर्थव्यवस्था के बहुत बड़े हिस्से पर उसका परोक्ष कब्जा हो गया है। लगभग 26 फीसदी औद्योगिक उत्पादन अब चीन से आयातित इनपुट या उत्पादों पर निर्भर है, यानी उसकी मुट्ठी में है। यह हैरतअंगेज निष्कर्ष राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार [एनएसए] का है। एनएसए सचिवालय ने चीन पर हाल में सरकारी विभागों को एक रिपोर्ट दी है।
इसके अनुसार चीन ने कई संवेदनशील क्षेत्रों में हमारी आत्मनिर्भरता पर दांत गड़ा दिए हैं। बिजली, दवा, दूरसंचार और सूचना तकनीक के क्षेत्रों में उसका दखल अब खतरनाक स्तर तक पहुंच गया है। इस रिपोर्ट के बाद विदेश मंत्रालय और आर्थिक मंत्रालयों में हड़कंप मचा हुआ है।
करीब आठ पेज की यह गोपनीय रिपोर्ट बेहद सनसनीखेज है। एनएसए ने इस साल मार्च में योजना आयोग और अगस्त में आर्थिक मंत्रालयों के साथ बैठक की थी। इसके बाद यह रिपोर्ट तैयार की गई है। रिपोर्ट में बताया गया है कि चीन की नीयत और नीतियां साफ नहीं है। वह दूरसंचार और सूचना तकनीक के क्षेत्रों में अपने दखल का इस्तेमाल साइबर जासूसी के लिए कर सकता है।
इस रहस्योद्घाटन ने सरकार के हाथों से तोते उड़ा दिए हैं कि अगले पांच साल में चीन हमारे 75 फीसदी मैन्यूफैक्चरिंग उत्पादन को नियंत्रित करने लगेगा। इस समय देश मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र का करीब 26 फीसदी उत्पादन चीन से मिलने वाली आपूर्ति के भरोसे है। एक देश पर इतनी बड़ी निर्भरता अर्थव्यवस्था को गहरे खतरे की तरफ ले जा रही है। रिपोर्ट के मुताबिक तमाम तरह की सब्सिडी और मौद्रिक अवमूल्यन के चलते चीन हमारी तुलना में 40 फीसदी सस्ता उत्पादन करता है, जिससे भारत की औद्योगिक प्रतिस्पतर्धा बुरी तरह टूट रही है।
चीन के असर से भारत की आत्मनिर्भरता को खतरे के कई उदाहरण इस रिपोर्ट में दर्ज हैं। हमारे उद्योग बिजली बचाने वाले सीएफएल लैंप के प्रमुख कच्चे माल [फास्फोरस] के लिए चीन पर पूरी तरह निर्भर हैं। हाल में फास्फोरस की कीमत बढ़ाकर चीन ने यहां के सीएफएल उद्योग की चूलें हिला दीं। स्टील और इसके उत्पादों में ही चीन की कीमतें यहां से 26 फीसदी कम हैं। हमारा दवा उद्योग भी कुछ बेहद जरूरी [फमर्ेंटेशन आधारित] कच्चे माल यानी और बल्क ड्रग के लिए पूरी तरह चीन के भरोसे है। घरेलू दवा उद्योग चीन से सस्ते आयात के चलते सालाना 2500 करोड़ रुपये का नुकसान उठा रहा है। कंपनियां चीन से आयातित पेनिसिलीन जी पर एंटी डंपिंग लगाने के लिए सरकार से गुहार लगा रही हैं।
राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार का निष्कर्ष है कि भारत में दूरसंचार उद्योग अपनी जरूरत के 50 फीसदी उपकरण आयात करता है, जिसमें चीन का हिस्सा 62 फीसदी है। बिजली परियोजनाओं के एक तिहाई ब्वॉयलर और टरबाइन जनरेटर चीन से आए हैं, जो भारत के मुकाबले 6 से 20 फीसदी सस्ते हैं। दूरसंचार और बिजली क्षेत्र में चीन के दखल को लेकर सुरक्षा चिंताएं चरम पर हैं। यही चिंता सूचना तनकीक उत्पादों को लेकर भी है, जिनका आयात का आकार 2020 तक पेट्रो आयात से ज्यादा हो जाएगा। चीन इन उत्पादों का दुनिया में सबसे बड़ा निर्यातक है, इसलिए भारत में प्रमुख सप्लायर है।
सिफ इतना ही नहीं तो आज हर तरफ हमारे बाज़ार चीनी माल से भरा पड़ा हे. 2001 तक चीन का भारत से व्यापार कोई खास नहीं था. भारत चीन को हर तरह से सुविधाएँ दे रहा हे. और 2010 तक भारत चीन व्यापार 62 अरब डालर का हो गया था, और 2011 ख़तम होते तक ये आंकड़ा 84 अरब डालर तक पहुँचाने वाला हे. इस व्यापार में दो हिस्से चीन के हे और एक हिस्सा भारत के, लेकिन इस में भी एक पेच हे. वो ये हे की हम जो बीस अरब डालर का माल चीन को देते हे वो कच्चा माल हे. इन बेश-कीमती खनिज पदार्थों में से भी साठ प्रतिशत तो कच्चा लोहा हे. अनुमान हे की यदि भारत इसी गति से लोह-अयस्क का निर्यात करेगा तो ये पचास साठ साल में बिलकुल ख़तम हो जायेगा. फिर जरूरत पूरी करने पर चीन से किस भाव खरीदेंगे, इसका नदाजा ही रोंगटे खड़े कर देता हे. दूसरा सामान जो चीन को हम भेजते हे वो कच्चा रबर हे. आज भारत दुनिया के तीन-चार बड़े रबर उत्पादक देशों में से एक हे. लेकिन त्रासदी ये हे की हम अपना रबर अनुदान देकर निर्यात करते हे. इस का नतीजा ये हे की चीन हमारा रबर सस्ते रूप में खरीदता हे. बस और ट्रक का टायर चीन इसी कारण भारत में 2000 से 3000 रुपये सस्ता बेचता हे. अब हालत ये की बड़ी-बड़ी भारतीय कम्पनिया भी चीन में कारखाना लगाने की सोच रहीं हैं . ऐसे ही वस्त्र उद्योग भी प्रभावित हो रहा हे. कपास भी बड़ी मात्र में चीन जा रही हे. फिक्की के सर्वे में आया हे की 74 पर्तिशत उद्यमियों को चीनी उत्पादों के कड़ा मुकाबला करना पड़ रहा हे. 62 फ़ीसदी उद्यमियों का मानना हे की चीन के सस्ते उद्पादों के कारण कभी भी उनको अपना कारखाना बंद करना पड़ सकता हे. यही हाल प्रिंटिंग या इंजिनीरिंग के उत्पादों का हे, और रसायनों का तो और भी बुरा हाल हे. आज की तारीख में 35 फ़ीसदी पवार प्लांट और टेलीफोन एक्सचेंज भी चीनी लग रहे हे. आर्थिक नुक्सान के साथ साथ एक बहुत बड़ा खतरा ये भी हे की टेलीफोन क्षेत्र में चीन का आना वैसे भी बड़ा संवेदनशील मुद्दा हे. चीन जब चाहे हमारे महत्वपूर्ण लोगो की बात जब चाहे टेप कर सकता हे, देश की सुरक्षा और गोपनीयता कहा बचेगी.चीन से बड़ी मात्र में हम मौसम जानने वाले संयंत्र आयात कर रहे हे. अब वो हमें मौसम का हाल बताएँगे, या यहाँ की गतिविधियों के चित्र अपने देश में पहुचाएंगे.
आज दुनिया में तकनीक समृद्ध करने की होड़ लगी हे. हमारे यहाँ बताते हे की अभी टेलकम में प्रथम जेनेरशन टेक्नोलोगी ही विकसित हुई, और दूसरी पीड़ी की टेलेकाम टेक्नोलोजी ही यहाँ विकसित नहीं हुई. और तीसरी की तो दूर दूर तक सोची नहीं. चीन, आपकी जानकारी के लिए, चौथी पीड़ी की टेक्नोलोजी विकसित करने में अमरीका से भी आगे बढ़ने की कोशिश में हे. अगर हम आपनी चीजो का उपयोग नहीं करेंगे, अपने यहाँ उत्पादन नहीं करेंगे तो हमेशा के लिए पिछड़ जायेंगे. कच्चा माल ही चीन को देकर खुश होंगे और तेयार माल कई गुना कीमत चुका कर लेते रहेंगे तो हालत बहुत बुरी होगी. ये नीति तो ईस्ट इंडिया कंपनी हमारे साथ आजादी से पहले करती थी. कहाँ तो हम अमरीकी और यूरोप के आर्थिक जाल से बचने की कोशिश कर रहे थे, और कहाँ एक नया फन्दा चीन का और पड़ गया. इसी बात से अनुमान लगा लीजिये की आर्थिक गुलामी चीन से कितनी हे. बच्चो के खिलोनो से लेकर टेक्सन के केलकुलेटर चीनी हे. दिवाली के पटाखों से लेकर 'लिनोवा' के कम्प्यूटर भी चीनी हे. मंदिर पर जगमगाने वाली बिजली की लड़ियों से लेकर पूजा में रखी गयी लक्ष्मी और गणेश जी की मूर्तियाँ भी चीनी हे. मोटा अनुमान हे की हर साल हम 40-50 हजार करोड़ रुपये का आर्थिक सहयोग मुनाफे के रूप में चीन का कर रहे हे. शत्रु देश का आर्थिक सशक्तीकरण करना अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारना ही होता हे. . कुछ समय पहले ही चीन ने जापान को दुनिया की दुसरे नंबर की सर्व-श्रेष्ट अमीर अर्थवयवस्था के स्थान से हटा कर अपना कब्ज़ा जमाया हे. वैसे भी चीन के सामान नुकसानदेह हे. चीनी दूध के उत्पाद दुनिया भर में प्रतिबन्ध का विषय बने हैं क्योंकि उनमे एक मेलामाइन नामक नुक्सानदेह औद्योगिक रसायन हे. खिलोनो के रंगों में भी घातक रसायन बच्चों के लिए खतरनाक हे. सस्ते जरूर होते हे चीनी सामान लेकिन इतनी जल्दी खराब होते हे की पूछिए नहीं. इस लिए लम्बे वक्त में कुल मिला कर चीनी उत्पाद महंगे ही पड़ते हे. बेशक ये एक चुटकला होगो पर चीनी वस्तुयों की हकीकत दर्शाता हे. एक लड़के ने किसी चीन की लडकी से शादी की और पांच-छे महीने बाद ही वो लड़की मर गयी. अफ़सोस करने वालों में से एक ने उसे यूँ धाडस दिलाया: भले मानस क्यों रोता हे, पांच छे महीने तो निकाल ही गयी आपकी चीनी पत्नी. ये क्या कम हे. और चीनी माल वैसे चलता ही कितनी देर हे," ऐसे में फिर क्यों खरीदना ऐसा चीनी सामान को. क्योंकी इससे सेहत का भी नुक्सान, जेब का भी नुक्सान और वातावरण का भी नुक्सान.
दूसरा शूल - चीन से पर्यावरण को खतरा: तिब्बत कभी दुनिया के सबसे पर्यावरण की दृष्टि से साफ़-सुथरे स्थानों में से एक था. लेकिन तिब्बत को हडपने के बाद उसने तिब्बत को न केवल सैनिक अड्डे बल्कि आणविक कचरादान के रूप में तब्दील कर दिया हे. ऐसा करने के लिए तिब्बत के घने जंगलो को उसने काटना शुरू कर दिया हे. तकरीबन 2.5 मिलियन वर्ग किलोमीटर में फ़ैली चीन के हरयाली और खूबसूरती को तहस-नहस कर दिया हे. यहाँ से निकलने वाली दस नदियाँ भारत ही नहीं बल्कि नेपाल, बंगलादेश, भूटान, पकिस्तान, थाईलैंड, बर्मा, विएतनाम, लोस और कम्बोडिया जैसे अन्य ग्यारह देशों का मेरुदंड हैं. ये न केवल उन देशों की पानी की जरूरत पूरी करती हे बल्कि उपजाऊ मिटटी भी इनके बहाव के साथ मिलकर इन देशों की फसल को उपजाऊ बनती हे. मोटे तौर पर इन नदिओं के तटों पर विश्व के करीब आधी आबादी बसती हे.( भारत-नीति प्रतिष्ठान ,'चीनी- विस्तारवाद' पेज 17.)
लेकिन पिछले चार दशकों से इन देशों का मौसम चीन के कारण से बुरी तरह प्रभावित हुआ हे. अगर चीन के द्वारा सैनिक समीकरण के नाम पर तिब्बत की पहाड़ों पर बड़े-बड़े डैम बनाये जाते तो प्रत्यक्ष नुक्सान तो भारत को होगा, पर चीखे गी दुनिया भी. लेकिन इससे भी खराब बात हे के तिब्बत के एक हिस्से को आणविक अवशेष में तब्दील कर दिया गया हे. इससे ये परमाणु का कचरा मुहाने के भारतीय खेत खलिहानों और लोगों के घरों तक पहुँच रहा हे. यहाँ ये बात बताने की हे के कभी दलाई लामा ने विश्व शांति के लिए इस क्षेत्र को 'आणविक-मुक्त क्षेत्र' घोषित करने की बात 1980 के दशक में कही थी. वैसे भी चीन दुनिया के सबसे प्रदूषण फैलाने वाले देशों में अग्रणी हे. दुनिया का पांचवा हिस्सा परदुषण यानी 21 अकेला चीन ही फैला रहा हे. विश्व की सर्वाधिक प्रदुशंकारी ग्रीन हाउस गसों का उत्सर्जन चीन ही कर रहा हे. दुनिया में इस बात की काफी चर्चा हे, और चीन की प्रोद्योगिकी इतनी प्रदुषण पैदा करने वाली हे. ये बाते लोगों के जेहन में बिठाई जाती हे तो चीन देश द्वारा बनाई चीज़ों का बहिष्कार लोग सरलता से कर देंगे.परन्तु साथ में भारत सरकार की एक और बहुत बड़ी गलती ही नहीं बल्की पाप का जिक्र हम करना चाहेंगे. अभी दो साल पहले पर्यावरण पर संपन्न कोपेंगेहन वार्ता में cheen का साथ उस समाया दिया jab वह अंतर-राष्ट्रीय jagat mein kopbhaajan ban raha tha.
हिंद स्वराज के मूल गुजराती रूप का हिंदी और अंग्रेजी में रूपांतरण
हिंद स्वराज पुस्तक का नए (पुराने) रूप में लोकार्पण कार्यक्रम:
ब्रिटिश की कंपनी द्वारा अदरख का पटेंट होने से बच गया हिंदी व इंग्लिश
dinank 4 janwari 2012:दिनांक ४ जनुअरी २०१२: सारांश: एक इंग्लैंड की कंपनी ने सन २००६ में एक अर्जी दी थे
सूचना प्रसारण में विदेशी निवेश की सीमा बढ़ने का विरोध
Sunday, July 07, 2013, 23:31
Qनई दिल्ली : गृह मंत्रालय ने रक्षा, अंतरिक्ष, दूरसंचार तथा अन्य क्षेत्रों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) की अधिकतम सीमा बढाये जाने के प्रस्ताव पर गहरी चिंता जताई है और उसका कहना है कि इन क्षेत्रों में चीन जैसे देशों से धन के प्रवाह से देश की सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है।
गृह मंत्रालय ने औद्योगिक नीति एवं संवर्धन विभाग (डीआईपीपी) को अपनी इस राय से अवगत करा दिया है। वह इस बारे में एक और पत्र भेजने की तैयारी में है। इस पत्र में वह किसी भी ऐसे कदम का कड़ा विरोध करेगा जिससे देश की सुरक्षा संकट पड़ने की आशंका हो।
गृह मंत्रालय का कहना है कि चीन, पाकिस्तान, बांग्लादेश, सउदी अरब तथा इंडोनेशिया जैसे देशों से रक्षा, अंतरिक्ष, दूरसंचार, सूचना एवं प्रसारण व नागर विमानन जैसे क्षेत्रों में एक निश्चित सीमा से परे एफडीआई की अनुमति से उन देशों के लोग ऐसी शर्तें लाद सकते हैं जो भारत के हितों के खिलाफ हो सकती हैं।
गृह मंत्रालय के अधिकारी ने कहा, `यह एक गंभीर मुद्दा है। हमने अपनी राय से पहले ही डीआईपीपी को अवगत करा दिया है और शीघ्र ही एक पत्र भेजेंगे जिसमें इन प्रमुख क्षेत्रों में एफडीआई सीमा बढाने के पीछे हमारे विरोध का कारण बताएंगे।` (एजेंसी)
http://www.swadeshionline.in/press-release-eng/stop-anti-national-move-increase-dominance-foreigners-defence-telecom
Swadeshi Jagaran Manch
::Central
Office::
Dharmakshetra,
Sector-8, R.K. Puram, New Delhi - 110 022
Ph.: 011-26184595, E-Mail:
swadeshipatrika@rediffmail.com, Website: www.swadeshionline.in
Dated:
13-07-2013
Press Release
Stop Anti-National Move to Increase
Dominance of Foreigners in Defence & Telecom
Swadeshi
Jagaran Manch strongly condemns governments move to increase the FDI limit in
the telecom sector to 100 percent, as this move will not only kill domestic
telecom sector, but even expose the nation to serious strategic risks and make
the nations security vulnerable. Swadeshi Jagaran Manch wishes to draw the
attention of the public about serious concerns raised by Home Ministry over
hiking FDI cap in defence, space, telecom and other sectors, contending that
flow of funds from countries like China in these sectors may compromise
countrys security.
The
Ministry of Home affairs has also said that FDI beyond certain limit from
countries like China, Pakistan, Bangladesh, Saudi Arabia and Indonesia in
defence, space, telecom, information and broadcasting, civil aviation may allow
people from these countries to dictate terms which could be contrary to Indias
interests. Even Ministry of Defence has opposed higher foreign investment in
defence, again stating that the move would make the nations security
vulnerable.
It
is even more unfortunate that the advocacy about raising of FDI cap in defence,
telecom, space and other sectors is coming from the person no less than Prime
Minister of India, in the name of external payment crisis and depreciation of
rupee. The argument being given by the government is that such moves would
reinstate the investors confidence.
Swadeshi Jagaran Manch sincerely believes that the present payment crisis
and depreciation of rupee is primarily due to the policy of unbridled
globalization. It may be recalled that ever since the policy of globalization
has started rupee has constantly been depreciating, as exchange rate of rupee which was rupee 18 per
dollar in 1991 has gone up to more than rupee 61 per dollar by July 2013. The
argument, made at that point of time was also that opening the borders for
foreign goods and capital would help in correcting imbalance in the balance of
payment. However, the outcome of the policy of globalization is that in the
last quarter current account deficit had reached 6.7 percent of GDP, which was
hardly 3.3 percent of GDP in 1990-91 (the worst year).
It seems that the government bowing down to the pressures from
overseas, is compromising national security, which is most unfortunate.
Swadeshi Jagaran Manch warns the government to desist from such an antinational
move and drop the proposals to raise FDI limit in Defence and telecom sectors.
Swadeshi Jagaran Manch also calls upon the general public, experts,
intelligentsia and the political parties to exert pressure on the government to
stop this move.
Panipat Resolution No. 1 (Hindi
स्वदेशी जागरण मंच
राष्ट्रीय परिषद बैठक, पनीपत (हरियाणा)
31 मई - 1 जून 2014
प्रस्ताव क्रमांक - 1
भारत में प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश
सघन चर्चा, बहस एवं आंदोलनात्मक कार्यक्रमों के कारण आज प्रत्यक्ष विदेशी निवेश देश में सबसे चर्चित विषय है। विविध क्षेत्रों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को पिछले दशक में अंधाधुंध रूप से खोला गया है। कुछ क्षेत्रों को छोड़कर विदेशी प्रत्यक्ष निवेश लगभग सभी क्षेत्रों में खोला गया है। अब हमें इस प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का देश की जनता एवं आर्थिक स्थिति पर क्या परिणाम हुआ है इसका आकलन करने के लिए पर्याप्त उपलब्ध है।
विभिन्न अध्ययनों से ज्ञात होता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का हिस्सा मात्र 5 प्रतिशत तक रहा है तथा घरेलू बचत से विकास दर सतत ऊंचा बना रहा है। 2007-08 से चली हालांकि मुद्रा के प्रसार के माध्यम से वे देश आज किसी प्रकार से बच पाये हैं वैश्विक आर्थिक मंदी ने अमरीका एवं यूरोपीय समुदाय जैसी आर्थिक महासत्ताओं के खो
स्वदेशी जगारण मंच की यह मान्यता है कि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश एवं विदेशी संस्थागत निवेश ने देश का भले से बुरा ही अधिक किया है। हमें ध्यान में आता है कि सत्र 1992-93 में ब्याज, लाभांश, अधिकार शुल्क, वेतन एवं ऐसे माध्यमों से डाॅलर 3.8 बिलियन की विदेशी मुद्रा देश से बाहर गई है जो सन 1992-93 में डाॅलर 31.7 बिलियन हो गई। जबकि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश सन 2012-13 में मात्र डाॅलर 26 बिलियन रहा है। विदेशी संस्थागत निवेश यह विदेशी निवेश दूसरा महत्वपूर्ण स्त्रोत है। संस्थात्मक विदेशी निवेश के अचानक निकाले जाने से प्रतिभूति बाजार में भारी गिरावट देखी गयी जिससे भारतीय निवेशकों को लाखों करोड़ रूपए का नुकसान उठाना पड़ा है। विदेशी संस्थागत निवेश के निकल जाने से रूपए पर भी बुरा प्रभाव पड़ा है।
बचत हमारे देश के जनसामान्य की आदत है तथा 30 प्रतिशत से अधिक बचत परिवार द्वारा की जाती है। ऐसी बचत से देश का विकास दर गत दो दशकों में बढ़ता रहा है। देश में बचत से उपलब्ध निधि के द्वारा मैन्यूफैक्चरिंग की क्षमता बढ़ाने पर हमारा ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है। अनुसंधान एवं विकास पर अधिक व्यय करते हुए विकास योजना पर ध्यान देने से विदेशी मुद्रा को बहिर्गमन पर काबू पाया जा सकता है। यह चालू खाते घाटे को कम करने की दिशा में एक सकारात्मक कदम होगा।
देश एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर के कई अध्ययनों का मत है कि भारत अपनी खरबों रूपए घाटे की मैन्यूफैक्चरिंग लागत की आवश्यकताओं को स्वयं ही पूर्ण कर सकता है। इसके लिए उसे विदेशी निवेश की आवश्यकता नहीं है। अब समय आया है कि जब हमारे देश ने विश्व बैंक एवं अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के समक्ष निवेश के लिए गिडगिडाने की अपेक्षा दृढ़ रहकर स्वावलंबन की ओर जाने वाले देशों को नेतृत्व प्रदान करना चाहिए।
देश में बहुमत से स्थापित मजबूत नेतृत्व वाली सरकार के गठन पर स्वदेशी जागरण मंच को प्रसन्नता है तथा हम सरकार का अभिनंदन करते है। वाणित्य मंत्री द्वारा खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश की अस्वीकृत करने के बयान से हमें संतोष है।
वैश्विक आर्थिक मंदी आने से दुनिया को स्पष्ट हो गया है कि विकसित देश अत्यधिक देनदार है एवं एशियाई देश उनके लेनदार है। वास्तव में विकसित देश ही पूंजी के अभाव को महसूस कर रहे हैं। केवल चीन, कोरिया जैसे देशों के पास ही विदेशी मुद्रा का भंडार है। सत्ता परिवर्तन से देश के घरेलू निवेशको की आशाएं पल्लवित हुई है तथा वे शासन की योजनाएं एवं विस्तार कार्य में अपना सहयोग प्रदान करने का अवसर ढूंढ रहे हैं। घरेलू निवेश एवं सरकारी क्षेत्र के उद्योगों के निवेश से भारत की अर्थव्यवस्था को गति मिलेगी। स्वदेशी जागरण मंच का मत है कि पिछले दो दशकों की विदेशी प्रत्यक्ष निवेश की समीक्षा कर ऐसे निवेश की आवश्यकता पर पुनर्विचार किया जाए और उपरोक्त सभी पक्षों को शमिल करते हुए एक श्वेत पत्र जारी करे। प्रत्यक्ष विदेशी एवं संस्थागत निवेश का देश की आर्थिक स्थिति पर दूरगामी परिणाम होता है। स्वदेशी जागरण मंच की राष्ट्रीय परिषद मांग करती है कि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के देश की आर्थिक स्थिति पर हुए प्रभाव का अध्ययन कर, रोजगार निर्मिति, तकनीकी, उन्नययन तथा गरीबों के उद्धार में इस निवेश का क्या सहयोग रहा है, इसका अध्ययन किया जाए।
Panipat Resolution No. 2 (Hindi)
स्वदेशी जागरण मंच
राष्ट्रीय परिषद बैठक, पनीपत (हरियाणा)
31 मई - 1 जून 2014
प्रस्ताव क्रमांक - 2
आर्थिक चुनौतियां और समाधान
स्वदेशी जागरण मंच की यह राष्ट्रीय परिषद केन्द्र में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में नई सरकार के गठन का स्वागत करती है। उल्लेखनीय है कि इस सरकार को एक बीमार अर्थव्यवस्था विरासत में मिली है। मंहगाई, गरीबी, बेरोजगारी, भारी राजकोषीय और भुगतान घाटे, भुखमरी और भ्रष्टाचार से ग्रस्त इस अर्थव्यवस्था को पुनः अंतर्राष्ट्रीय मानचित्र पर स्थापित करने, गरीब और बेरोजगार की विपदाओं को समाप्त करने और रूपये की बदहाली का अंत करने के लिए जरूरी है कि तुरंत कुछ प्रभावी कदम उठाये जायें। जरूरी है कि ऐसी समस्त नीतियों, कार्यक्रमों और प्रकल्पों की पहचान की जाए, जिसके माध्यम से अर्थव्यवस्था में खुशहाली लाई जा सके।
पिछले एक दशक से चल रही यूपीए सरकार द्वारा अपनायी गई जनविरोधी आर्थिक नीतियों के कारण देश केवल मंहगाई, बेरोजगारी, आर्थिक गिरावट आदि की त्रास्दी से ही ग्रस्त नहीं हुआ, देश पर विदेशी ताकतों का प्रभुत्व भी बढ़ा और देश जो इससे पूर्व दुनिया में अपनी पहचान बनाने की ओर अग्रसर हो रहा था, विकास की दौड़ में पिछड़ने लगा।
स्वदेशी जागरण मंच मानता है कि देश के समक्ष प्रस्तुत चुनौतियों के चलते नई सरकार की राह कठिन है, कई ठोस और कठोर निर्णय लेने की जरूरत है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि अर्थव्यवस्था का कुप्रबंधन बढ़ती मंहगाई के लिए जिम्मेदार है। आज जरूरत इस बात की है कि पूर्व सरकार की कृषि की अनदेखी को समाप्त करते हुए कृषि उत्पादन, विशेष तौर पर खाद्य पदार्थों का उत्पादन बढ़ाने का काम किया जाए। गौरतलब है कि खाद्य पदार्थों की आपूर्ति और मांग में असंतुलन के कारण पिछले तीन सालों में खाद्य पदार्थाें की कीमतें 50 प्रतिशत बढ़ चुकी है। सटोरियों और कंपनियों को लाभ पहुंचाने के उद्देश्य से पिछले लगभग 15 सालों से काॅमोडिटी एक्सचेंजों में कृषि उत्पादों का वायदा बाजार चलाया जा रहा है। यह सर्व मान्य है कि इस वायदा बाजार, जिसमें कृत्रिम कमी पैदा कर कीमतें बढ़ाई जाती है और खाद्य पदार्थों की कीमतें बढ़ती है। किसानों को इससे कोई लाभ नहीं होता। कामोडिटी एक्सचेंजों से खाद्य पदार्थों को बाहर करने से बढ़ती खाद्य कीमतों को रोका जा सकता है। यही नहीं विदेशों से आयात पर रोक लगनी चाहिए ताकि विदेशी मुद्रा की मांग घटे और रूपये पर दबाव कम हो सके। रूपये में 10 प्रतिशत का सुधार देश में मुद्रा स्फीति को 3 प्रतिशत तक कम कर सकता है।
नई सरकार के सामने एक अन्य चुनौती रोजगार सृजन की है। पिछली सरकार में दस साल के शासनकाल में बेरोजगारों की संख्या में दस करोड़ की वृद्धि हुई है। बढ़ती बेरोजगारी से युवाओं में कुंठा और हताशा बढ़ा रही है। समय की मांग है जहां-जहां संभव हो बड़ी पूंजी के स्थान पर लघु उद्यमों को बढ़ावा दिया जाए, ऐसी तकनीकों का उपयोग हो जहां श्रम का उपयोग बढ़े। खाद्य प्रसंस्करण उद्योग को बढ़ावा दिया जाए। 12 साल पहले बनी एस.पी. गुप्ता कमेटी की सिफारिशों को लागू किया जाए।
देश में मैन्यूफैक्चरिंग बुऱी अवस्था में है। मैन्यूफैक्चरिंग संवृद्धि दर जो 10 से 15 प्रतिशत के बीच चल रही थी, पिछले साल ऋणात्मक 0.2 प्रतिशत पहुंच चुकी है। गौरतलब है कि आज इलैक्ट्रिकल, इलैक्ट्रोनिक उपभोक्ता वस्तुएं ही नहीं, बड़ी मात्रा में प्रोजेक्ट वस्तुओं, पूंजीगत साज सामान और पावर प्लांट भी आयात किए जा रहे हैं। दुर्भाग्यपूर्ण है कि बड़ी भारतीय कंपनियां जैसे बी.एच.ई., लारसन एण्ड टुयरो इत्यादि की आर्डर बुक सूख रही है और पूंजीगत वस्तुओं का आयात भारी मात्रा में हो रहा है।
स्वदेशी जागरण मंच की यह राष्ट्रीय परिषद देश की सरकार से आह्वाहन करती है कि देश के समक्ष भीषण आर्थिक चुनौतियों के मद्देनजर पूर्व सरकार की कृषि की अनदेखी समाप्त करे, कृषि उत्पादों को काॅमोडिटी एक्सचेंज से बाहर करे।
कृषि और लघु उद्योगों को राष्ट्रीय अर्थनीति के केन्द्र में लाया जाना चाहिए। रेलवे बजट की तर्ज पर कृषि बजट बनना चाहिए। कृषि ऋण शून्य ब्याज दर पर उपलब्ध करवाया जाए। मैन्यूफैक्चरिंग को पटरी पर लाने के लिए जरूरी है कि मंहगाई को थामते हुए ब्याज दरों को घटाया जाए, आयातों विशेष तौर पर चीन से आयातों पर रोग लगे। हर वस्तु पर अधिकतम खुदरा मूल्य के साथ-साथ लागत मूल्य घोषित हो।
Panipat Resolution No. 3 (Hindi)
स्वदेशी जागरण मंच
राष्ट्रीय परिषद बैठक, पनीपत (हरियाणा)
31 मई - 1 जून 2014
प्रस्ताव क्रमांक - 3
जी.एम. फसलों के खुले परीक्षण के खतरे
देश में जैव रूपान्तरित फसलों अर्थात् जेनेटिकली माॅडिफाइड (जी.एम.) फसलों के परीक्षण के विरूद्ध सर्वोच्य न्यायालय में याचिका विचाराधीन होने पर भी पूर्व पर्यावरण मंत्री वीरप्पा मोयली द्वारा फरवरी 28 को ऐसी 200 प्रजातियों के परीक्षण की अनुमति दे देने से देश के पारिस्थितिकी तंत्र के सम्मुख एक गंभीर संकट उत्पन्न हो गया है। देश के सम्पूर्ण वानस्पतिक जगत, उसके जैव द्रव्य और जीव सृष्टि के सम्पूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र के लिए गंभीर चुनौती उत्पन्न करने वाले इन परीक्षणों पर रोक लगाने के सर्वाेच्च न्यायालय के कारण बताओ नोटिस की अनदेखी कर आचार संहिता लागू हाने के ठीक पहले अनुमति दे देना अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण एवं सन्देहास्पद है। इन परीक्षणों के विरूद्ध सुनवाई के क्रम में सर्वोच्य न्यायालय द्वारा नियुक्त तकनीकी विशेषज्ञ समिति ने भी इन परीक्षणों पर रोक की अनुशंसा की है। सर्वोच्च न्यायालय के कारण बताओ नोटिस का उत्तर देकर न्यायालय के निर्णय की प्रतीक्षा करने के स्थान पर तत्कालीन पर्यावरण मंत्री मोयली द्वारा पर्यावरण के लिए इन घातक प्रभाव वाले परीक्षणों को अनुमति दे देने में की जल्दबाजी के गंभीर दुष्परिणाम होंगे।
वस्तुतः खुले में इन जैव रूपान्तरित फसलों के परीक्षण की दशा में इनके पराग कण विकिरण से आस-पास की साधारण फसलों या अन्य किन्हीं पादप प्रजातियों के जैव द्रव्यों को अनजाने में ही प्रदूषित कर सकते हैं। इस प्रकार पर-परागण या परा-निषेचन से प्रदूषण की संभावना को निर्मूल करने के लिए जी.एम. फसलों में टर्मिनेटर टेक्नोलाॅजी अर्थात बांझ बीजों का उपयोग करने की दशा में, किसानों को उनकी फसल से बीज नहीं प्राप्त हो सकेगा। इसलिए परागणकणों के विकिरण को रोकने के लिए ये परीक्षण खुले में न कर कांच या पी.वी.सी. के ग्रीन हाउस में ही किए जाने चाहिए।
परीक्षण के बाद भी इन फसलों की खेती की दशा में भी जैव रूपान्तरित फसलों में उत्परिवर्तन या म्यूटेशन की संभावनाएं बनी रहती है। उत्परिवर्तन की दशा में ही वह फसल अधिक गुणकारी या घातक व एलर्जी पैदा करने वाली अथवा विषैली हो सकती है। इसलिए बिना टर्मिनेटर या बांझ बीजों के बिना इनकी खेती करना जन स्वास्थ्य व हमारे जैव द्रव्य की शुद्धता के लिए खतरनाक है। दूसरी ओर टर्मिनेटर या बांझ बीजों से किसान को बीजविहीन कर देना भी खतरनाक है। इसके अतिरिक्त कीटाणुरोधी जी.एम. फसलों के कारण संवर्द्धित कीट या सुपर पेस्ट विकसित होने की घटनाएं भी खतरनाक हैं। ऐसे परिवर्तन कपास के डोडा कीट में भी हुए हैं।
परीक्षणों के बाद व्यापारिक स्तर पर इन्हें उगाने पर ये खाद्य कितने खतरनाक हो सकते हैं, इसके भी कुछ उदाहरणों व प्रयोगों का उल्लेख यहां आवश्यक है। अनेक प्रयोगों में जी.एम. टमाटर से चूहों के आमाशय में रक्तस्राव, बी.टी. आलू से चूहों में आंत्रक्षति, बी.टी. मक्का से सूअरों व गायों में वन्ध्यापन, आर.आर. सोयाबीन से चूहों, खरगोशों आदि के यकृत, अग्नयाश्य आदि पर दुष्प्रभाव आदि के अनेक मामले प्रायोगिक परीक्षणों के सामने आए हैं। जी.एम. फसलों से व्यक्ति में एण्टीबायोटिक दवाओं के विरूद्ध प्रतिरोध उपजना, कोषिका चयापचय (सेल मेटाबालिज्म) पर प्रतिकूल प्रभाव आदि जैसी अनेक जटिलताओं के भी कई शोध परिणाम सामने आए हैं। बी.टी. कपास की चराई के बाद कुछ भेड़ों के मरने आदि के भी समाचार आते रहे हैं। जी.एम. फसला या खाद्य के अनगिनत दुष्प्रभावों के परिणाम प्रयोगों में सामने आते रहे हैं।
कुछ समय पूर्व, नवंबर 12, 2012 को आस्ट्रेलिया के वैज्ञानिकों ने ‘फ्रेन्केन’ नाम जैव रूपान्तरित गेहूं के बारे में चेतावनी देते हुए कहा है कि इस गेहूं से यकृत खराब (लीवर फैल्यर) हो सकता है। पागलपनर या खाने वाले की अनुवांशिकी पर भी प्रतिकूल प्रभाव हो सकता है। इस गेहूं में बाहरी वंशाणु (जीन) प्रवेश कराने के स्थान पर इसी के कुछ वंशाणु अवरूद्ध (जीन ब्लाक) किए गए हैं।
जी.एम. फसलों के उपरोक्त प्रत्यक्ष दुष्प्रभावों के अतिरिक्त देश में प्रत्येक फसल की प्रजातियों में जो अथाह विविधता है और जिसके कारण प्रत्येक प्रजाति में प्रकृति में आने वाले विभिन्न चुनौतियों के विरुद्ध प्रतिरोध की भिन्न-भिन्न प्रकार की विविधतापूर्ण सामथ्र्य है। उनके स्थान पर एक ही जी.एम. फसल लेने पर हमारी विविध वैशिष्ठ्य वाली जैविक निधि विलोपित हो जायेगी। इसके अतिरिक्त पराग कण विकिरण की संभावनाओं के चलते क्या इनके खुले परीक्षण के लिए कदम बढ़ाने चाहिए ? एक बार किसी देश की कृषि व उसकी कृषि फसलों सहित संपूर्ण वानस्पतिक जगत के जैव द्रव्य के प्रदूषण से होने वाली क्षति की पूर्ति क्या कभी भी संपूर्ण हो सकेगी? यदि नही ंतो वीरप्पा मोयली का यह निर्णय तत्काल उलटना आवश्यक है। इसके अतिरिक्त राज्यों को भी अपने अधिकारों का उपयोग कर इन परीक्षणों को अनुमति नहीं देनी चाहिए।
इसलिए स्वदेशी जागरण मंच सरकार से आग्रह करता है कि जिन जी.एम. फसलों के परीक्षण की अनुमति पूर्व पर्यावरण मंत्री ने दे दी है, उनके खुले में परीक्षण पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया जाए। कोई भी जी.एम. परीक्षण कभी भी बन्द ग्रीन हाउस के बाहर नहीं किए जाएं। इसके साथ ही जी.एम. द्रव्य युक्त खाद्य पदार्थों पर जी.एम. लेबल की अनिवार्य बाध्यता को प्रभावी ढंग से लागू किया जाए। आयातित कृषि उत्पादों व कृषि जैव द्रव्य के संबंध में कठोर संगरोध प्रक्रिया अपनायी जाए। इसके अतिरिक्त कृषि जैव आतंकवाद से सुरक्षा के भी समुचित कदम उठाए जाने चाहिए। मंच अपने सभी कार्यकर्ताओं, नागरिकों के जागरूक संगठनों, किसान बंधुओं एवं समस्त देशवासियों का भी आवाह्न करता है कि हमारी कृषि जैव संपदा के प्रति जी.एम. फसलों से उपजे संकटों के विरुद्ध हम एकजुट हो जाएं।
पर्यावरण पर निरंकार
धरती को बचाना होगा
एक अनुमान के मुताबिक धरती के तापमान में एक डिग्री सेल्सियस बढ़ोत्तरी से कृषि पैदावार में दस फीसद की गिरावट आती है। अगर बांग्लादेश का उदाहरण लिया जाए तो उसकी कृषि पैदावार में चालीस लाख टन की कमी आएगी। हर साल पृथ्वी पर जल और खनिजों सहित प्राकृतिक संसाधनों के जबर्दस्त दोहन से जंगल साफ हो रहे हैं। पीने लायक पानी की कमी है। लिहाजा भूकम्प, सूखे और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाएं बढ़ती जा रही हैं।
जनसत्ता
Published on: September 26, 2019 1:44 AM
दुनिया इसी सदी में एक खतरनाक वातावरण परिवर्तन का सामना करने जा रही है।
निरंकार सिंह
दुनिया के एक सौ तिरसठ देशों के चालीस लाख लोग जलवायु संकट को दूर करने के लिए सड़कों पर उतरे। इसी महीने संयुक्त राष्ट्र युवा जलवायु शिखर सम्मेलन से पहले इन प्रदर्शनकारियों ने जलवायु संकट से निपटने के लिए कदम उठाने की मांग की है। धरती के बढ़ते तापमान से जलवायु जिस तेजी से बदल रही है, अब वह हमारे अस्तित्व के लिए खतरा बनती जा रही है। भविष्य में वैश्विक तापमान और तेजी से बढ़ने का खतरा सिर पर है, क्योंकि आने वाले समय में कार्बन डाइआक्साइड के उत्सर्जन में और ज्यादा बढ़ोत्तरी हो सकती है। वैज्ञानिकों ने पांच करोड़ साल पहले के वार्मिंग माडल के अध्ययन के बाद यह भविष्यवाणी की है। अमेरिका के मिशिगन विश्वविद्यालय और एरिजोना विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने बढ़ते वैश्विक तापमान के अध्ययन के लिए पहली बार सफलतापूर्वक एक जलवायु मॉडल का उपयोग किया जो धरती के प्रारंभिक अवधि के वैश्विक तापमान से मिलता-जुलता है और जिसे भविष्य की पृथ्वी की जलवायु के सदृश्य माना जाता है।
वैज्ञानिकों के सबसे बड़े समूह ने दुनिया को यह चेतावनी देते हुए कहा है कि अब धरती को बचाने के लिए बहुत कम वक्त रह गया है। अगर फौरन कुछ नहीं किया गया तो पृथ्वी को भारी नुकसान होगा। हाल में दुनिया के एक सौ चौरासी देशों के करीब पंद्रह हजार वैज्ञानिकों ने बायोसाइंस जनरल के लेख ‘वर्ल्ड साइंटिस्ट-वार्निंग टू ह्यूूमैनिटी-ए सेकेंड नोटिस’ पर दस्तखत किए। धरती को लेकर यह अब तक का सबसे बड़ा सम्मेलन था, जिसमें दुनिया भर के वैज्ञानिकों ने शिरकत की। पर्यावरण विज्ञानी विलियम रिपल ने बायोसाइंस के इस लेख में लिखा है कि धरती को बचाने का दूसरा नोटिस लोगों दे दिया गया है। वैज्ञानिकों के मुताबिक पृथ्वी से जुड़ी कई चुनौतियों जैसे पेड़ों की कटाई, ओजोन परत में छेद, मौसमी बदलाव आदि के बारे में पच्चीस वर्ष पहले ही चेतावनी दे दी गई थी। आज जब इन चुनौतियों पर अध्ययन किया गया तो पता चला कि हालात बदतर हो चुके हैं। ताजे पानी में छब्बीस फीसद की गिरावट आई है और तीस करोड़ एकड़ जंगलों का सफाया किया जा चुका है। इन ढाई दशकों में स्तनधारी जीवों, पक्षियों आदि में उनतीस फीसद की गिरावट देखी गई है।
विकासशील देशों की इस अध्ययन रिपोर्ट में 2010 और 2030 में एक सौ चौरासी देशों पर जलवायु परिवर्तन के आर्थिक असर का आकलन किया गया है। जलवायु परिवर्तन के कारण वैश्विक जीडीपी में हर साल 1.6 फीसद यानी बारह सौ खरब डॉलर की कमी हो रही है। अगर जलवायु संकट के कारण धरती का तापमान इसी तरह बढ़ता रहा तो 2030 तक यह कमी 3.2 फीसद हो जाएगी और 2100 तक यह आंकड़ा दस फीसद को पार कर जाएगा। जबकि जलवायु संकट से लड़ते हुए कम कार्बन पैदा करने वाली अर्थव्यवस्था को खड़ा करने में वैश्विक जीडीपी का मात्र आधा फीसद खर्च होगा। जलवायु संकट का सबसे ज्यादा असर गरीब देशों पर हो रहा है। 2030 तक विकासशील देशों की जीडीपी में ग्यारह फीसदी तक की कमी आ सकती है। एक अनुमान के मुताबिक धरती के तापमान में एक डिग्री सेल्सियस बढ़ोत्तरी से कृषि पैदावार में दस फीसद की गिरावट आती है। अगर बांग्लादेश का उदाहरण लिया जाए तो उसकी कृषि पैदावार में चालीस लाख टन की कमी आएगी। हर साल पृथ्वी पर जल और खनिजों सहित प्राकृतिक संसाधनों के जबर्दस्त दोहन से जंगल साफ हो रहे हैं। पीने लायक पानी की कमी है। लिहाजा भूकम्प, सूखे और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाएं बढ़ती जा रही हैं।
वस्तुत: पृथ्वी की एक बहुत सुसंबद्ध व्यवस्था है। पिछले साठ-सत्तर सालों में हमारी गतिविधियों के कारण वातावरण में कार्बन डाइआक्साइड काफी तेजी से बढ़ी है। किसी एक देश में छोड़ी जाने वाली कार्बन डाइआक्साइड फौरन समूचे वातावरण में घुल जाती है और किसी एक स्थान पर समुद्र में छोड़ा गया कचरा धरती के एक सिरे से दूसरे छोर पर पहुंच जाता है। इसलिए उत्सर्जन और प्रदूषण का असर स्थानीय नहीं रहता और वह विश्वव्यापी प्रदूषण की समस्या बन जाता है। जैव विविधता को हो रहे नुकसान और भूरक्षण के कारण भविष्य में मौसम में और तेज बदलाव आ सकते हैं। इसी तरह ग्रीनलैंड में बर्फ पिघलने और समुद्र की सतह में छह मीटर की वृद्धि से भारी आर्थिक-सामाजिक नुकसान हो सकते हैं। यह साफ हो चला है कि हमारी पृथ्वी उस युग में प्रवेश कर चुकी है, जिसमें आदमी नाम की प्रजाति ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पर्यावरणीय शक्ति है। इसलिए जलवायु संकट के लिए जिम्मेदार बदलावों को रोका जा सकता है।
धरती का तापमान जिस रफ्तार से बढ़ रहा है, वह इस सदी के अंत तक प्रलय के नजारे दिखा सकता है। दुनिया इसी सदी में एक खतरनाक वातावरण परिवर्तन का सामना करने जा रही है। भारत सहित पूरी दुनिया का तापमान छह डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा। पेट्रोलियम पदार्थों का कोई वैकल्पिक र्इंधन ढूंढ़ने में विफल दुनिया भर की सरकारें इन हालात के लिए जिम्मेदार हैं। पीडब्ल्यूसी (प्राइस वाटरहाउस कूपर्स)के अर्थशास्त्रियों ने अपनी एक रिपोर्ट में चेतावनी दी है कि अब वर्ष 2100 तक वैश्विक औसत तापमान को दो डिग्री सेल्सियस के अंदर तक रखना असंभव हो गया है। इसलिए इसके घातक नतीजे सारी दुनिया को भोगने होंगे।
अब सवाल उठता है कि जलवायु संकट से निपटने के लिए किया क्या जाए। क्या हम जलवायु बदलाव के विनाशकारी प्रभावों का समापन या प्रबंधन कर सकते हैं, जबकि लगातार बढ़ती वैश्विक आबादी अपनी निरंतर विस्तारवादी इच्छाओं, लालच और भूख को संतुष्ट करने के लिए विश्व के सीमित संसाधनों पर भारी दबाव डाल रही हो? इस पर लगाम कैसे लगाई जा सकती है, यह गंभीर सवाल है। विकास के प्रचलित मॉडल पर चलते हुए तो हम इसका समाधान नहीं खोज सकते हैं। इस संकट का अनुमान महात्मा गांधी ने पहले ही लगा लिया था। उन्होंने चेतावनी दी थी कि यदि आधुनिक सभ्यता, प्रकृति का ध्यान नहीं रखती है और मनुष्य प्रकृति के साथ तालमेल बना कर रहते हुए अपनी इच्छाओं को घटाने के लिए तैयार नहीं होता है तो अनेक प्रकार की
सामाजिक-राजनीतिक उथल-पुथल, पारिस्थितिकीय विनाश और मानव समाज के लिए अन्य दुर्भाग्यपूर्ण स्थितियां जन्म लेंगी। असीमित उपभोक्तावादी प्रवृत्तियां और मूल्यों के प्रति आलस्यपूर्ण उदासीनता मानवता को शांति की ओर बढ़ने में मदद नहीं करेगी। आर्थिक चुनौतियों की ही तरह आधुनिक विश्व के सामने पर्यावरणीय चुनौतियां हैं जो विभिन्न प्रकार के विनाशों, खाद्य और ऊर्जा संकट, सामाजिक तनावों और संघर्षों की ओर ले जा रही हैं। महात्मा गांधी का स्वराज या स्वशासन और स्वदेशी के माध्यम से लोगों को अपने पर्यावरणीय, सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक वातावरण पर नियंत्रित करने का दृष्टिकोण आज के बाजार संचालित पूंजीवादी तरीके के विकास की तुलना में विश्व को ज्यादा संतुलित और पर्यावरण-मित्र विकास की ओर ले जाने में ज्यादा सक्षम है।
हमारे पास गांधी जी के बताए रास्ते की ओर लौटने के सिवा कोई विकल्प नहीं है। आखिर टिकाऊ विकास क्या है? यह विनाश की अवधारणा के साथ प्रकृति और भावी पीढ़ियों के प्रति गांधीवादी नैतिक दायित्वों को मिलाने से ही तो बना है। इस नैतिक दायित्व के भाव का लोगों, समाजों और सरकारों द्वारा निर्वहन हुए बिना टिकाऊ विकास का विचार सफल नहीं हो सकता। इसके बिना आम लोगों के आम संसाधनों के संरक्षण के लिए चल रहे प्रयास भी केवल कानूनी उपायों के वित्तीय सहायताओं के बूते सफल नहीं हो सकते। वे केवल तभी सफल हो सकते हैं, जब नैतिक दायित्व की भावना सभी पक्षों की भागीदारी से मजबूत की जाए।