Tuesday, September 20, 2011

सितंबर 01 याद रहा सितंबर 07 भूल गए

सितंबर 01 याद रहा सितंबर 07 भूल गए

चीन पर छपी सुरक्षा सलाहकार की रिपोर्ट का खुलासा


Sep 15, 08:34 pm
dainki jagran, rashtriya sanskaran



नई दिल्ली [अंशुमान तिवारी]। चीन का खतरा अब देश की सीमाओं तक सीमित नहीं है। हमारी अर्थव्यवस्था के बहुत बड़े हिस्से पर उसका परोक्ष कब्जा हो गया है। लगभग 26 फीसदी औद्योगिक उत्पादन अब चीन से आयातित इनपुट या उत्पादों पर निर्भर है, यानी उसकी मुट्ठी में है। यह हैरतअंगेज निष्कर्ष राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार [एनएसए] का है। एनएसए सचिवालय ने चीन पर हाल में सरकारी विभागों को एक रिपोर्ट दी है।

इसके अनुसार चीन ने कई संवेदनशील क्षेत्रों में हमारी आत्मनिर्भरता पर दांत गड़ा दिए हैं। बिजली, दवा, दूरसंचार और सूचना तकनीक के क्षेत्रों में उसका दखल अब खतरनाक स्तर तक पहुंच गया है। इस रिपोर्ट के बाद विदेश मंत्रालय और आर्थिक मंत्रालयों में हड़कंप मचा हुआ है।

करीब आठ पेज की यह गोपनीय रिपोर्ट बेहद सनसनीखेज है। एनएसए ने इस साल मार्च में योजना आयोग और अगस्त में आर्थिक मंत्रालयों के साथ बैठक की थी। इसके बाद यह रिपोर्ट तैयार की गई है। रिपोर्ट में बताया गया है कि चीन की नीयत और नीतियां साफ नहीं है। वह दूरसंचार और सूचना तकनीक के क्षेत्रों में अपने दखल का इस्तेमाल साइबर जासूसी के लिए कर सकता है।

इस रहस्योद्घाटन ने सरकार के हाथों से तोते उड़ा दिए हैं कि अगले पांच साल में चीन हमारे 75 फीसदी मैन्यूफैक्चरिंग उत्पादन को नियंत्रित करने लगेगा। इस समय देश मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र का करीब 26 फीसदी उत्पादन चीन से मिलने वाली आपूर्ति के भरोसे है। एक देश पर इतनी बड़ी निर्भरता अर्थव्यवस्था को गहरे खतरे की तरफ ले जा रही है। रिपोर्ट के मुताबिक तमाम तरह की सब्सिडी और मौद्रिक अवमूल्यन के चलते चीन हमारी तुलना में 40 फीसदी सस्ता उत्पादन करता है, जिससे भारत की औद्योगिक प्रतिस्पतर्धा बुरी तरह टूट रही है।

चीन के असर से भारत की आत्मनिर्भरता को खतरे के कई उदाहरण इस रिपोर्ट में दर्ज हैं। हमारे उद्योग बिजली बचाने वाले सीएफएल लैंप के प्रमुख कच्चे माल [फास्फोरस] के लिए चीन पर पूरी तरह निर्भर हैं। हाल में फास्फोरस की कीमत बढ़ाकर चीन ने यहां के सीएफएल उद्योग की चूलें हिला दीं। स्टील और इसके उत्पादों में ही चीन की कीमतें यहां से 26 फीसदी कम हैं। हमारा दवा उद्योग भी कुछ बेहद जरूरी [फमर्ेंटेशन आधारित] कच्चे माल यानी और बल्क ड्रग के लिए पूरी तरह चीन के भरोसे है। घरेलू दवा उद्योग चीन से सस्ते आयात के चलते सालाना 2500 करोड़ रुपये का नुकसान उठा रहा है। कंपनियां चीन से आयातित पेनिसिलीन जी पर एंटी डंपिंग लगाने के लिए सरकार से गुहार लगा रही हैं।

राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार का निष्कर्ष है कि भारत में दूरसंचार उद्योग अपनी जरूरत के 50 फीसदी उपकरण आयात करता है, जिसमें चीन का हिस्सा 62 फीसदी है। बिजली परियोजनाओं के एक तिहाई ब्वॉयलर और टरबाइन जनरेटर चीन से आए हैं, जो भारत के मुकाबले 6 से 20 फीसदी सस्ते हैं। दूरसंचार और बिजली क्षेत्र में चीन के दखल को लेकर सुरक्षा चिंताएं चरम पर हैं। यही चिंता सूचना तनकीक उत्पादों को लेकर भी है, जिनका आयात का आकार 2020 तक पेट्रो आयात से ज्यादा हो जाएगा। चीन इन उत्पादों का दुनिया में सबसे बड़ा निर्यातक है, इसलिए भारत में प्रमुख सप्लायर है।

मोबाइल पर ताजा खबरें, फोटो, वीडियो व लाइव स्कोर देखने के लिए जाएं m.jagran.com पर

Saturday, September 17, 2011

चीन का खतरा और समाधान - कश्मीरी लाल


चीन का खतरा evam samadhan

यदि ये पूछा जाये कि आजाद भारत का ऐसा कौन सा क्षण हे जिस पर आप सबसे ज्यादा गर्व कर सकते हे. इस के कई उत्तर हो सकते हे. पोखरण के विस्फोट से लेकर बाबरी ढांचा गिरने तक और कारगिल विजय से अन्ना हजारे की विजय तक कई उत्तर हो सकते हैं. लेकिन आजाद भारत के पूरे इतिहास को देखें तो बंग्लादेश पर विजय एक ऐसा उत्तर हे जिसपर काफी लोग सहमत हो जायेंगे. इस तेरह दिन के युद्ध में भारत ने पकिस्तान को बुरी तरह परास्त करके आत्म-समर्पण के लिए मजबूर किया. क्या नज़ारा था जब 16 दिसंबर 1971 को हमारे जेनेरल अरोड़ा ने पकिस्तान के जेनेरल निआज़ी को आत्मसमर्पण पत्र पर दस्तखत करने पर उनके 90 ,००० से ज्यादा भेद-बकरीओं की तरह इकट्ठे किये सैनिको को रिहा किया. अब अगर इससे बिलकुल उल्टा प्रश्न ये पूछा जाये कि आजादी के बाद का सबसे शर्मनाक समय कौन सा हो सकता है, तो इसके भी कई उत्तर हो सकते हे । संसद पर या ताज होटल पर हमले से लेकर नोट फॉर वोट जैसी घटना के कई शर्मनाक दिन गिनाये जा सकते हे. लेकिन एक उत्तर पर ज्यादातर लोगों कि सहमति होगी. वो होगी चीन से करारी हार. 1962 में चीन के हाथों ये बहुत ही शर्मनाक हार थी, और आज भी उसका स्मरण कर सर शर्म से झुकता है. कोई लोग तो उस दुर्घटना को याद भी नहीं करना चाहेंगे। इस हार के कारण क्या थे, इसको विष्लेषण करने के लिए एक समिति बनाई गई थी। उस रिपोर्ट पर चर्चा करके कुछ सबक सीखने की बात तो दूर, उस रिपोर्ट को आजतक सार्वजनिक ही नहीं किया गया।

हमने इस पराजय को एक घिसे-पिटे शब्द से छुपाने व पर्दा डालने की कोशिश की और वह शब्द है ‘‘धोखा’’। चीन ने हमारे साथ छल किया, फरेब किया ऐसा हमारे नेताओं ने कहा. 'हिन्दी चीनी भाई-भाई' के नारे लगाते-लगाते गला अभी सहज भी नहीं हो पाया था कि हमारा गला कोई घोंटने लगा । हमारे प्रधानमंत्री जी ने पंचषील के शांति के कबूतर छोड़कर और उनके सुखद फडफड़ाने के स्वर से आह्लादित हो आंखे बंद कर ली थी. अचानक हमारे इन शांतिदूत कबूतरों के गले से दबी चीख निकली और खून के छींटे नीचे गिरे। चीन के बाजों और चीलों ने उनपर झपट्टा मारके घायल कर दिया था। नेहरु लाचार थे. और सारा देश शर्मसार था. उनको कुछ समझ नहीं आ रहा की ये कैसे हो गया.



.चीन का आक्रमण क्या अचानक हुआ था :हमारे कुछ रक्षा विषेषज्ञों ने इस सत्य को तथ्यों के साथ उजागर किया है कि ‘‘धोखे’’ का यह इल्जाम शंकास्पद ही नहीं, हास्यास्पद भी है। 'फन्नी' ही नहीं 'फाल्स' भी हे. समय रहते हम ने चीन के कुत्सित इरादों की और कभी गौर नहीं किया था. नेहरु जी की दुनिया में शांति का मसीहा बनाने की खोखली चाहत ने उन्हें कुछ समझने ही नहीं दिया. इतिहास गवाह हे की चीनी नेता माओत्से तुंग ने कई बार कहा था कि तिब्बत चीन के हाथ ही हथेली की मानिंद है और हथेली के साथ की पांच उंगलियां लद्दाख, सिक्किम, नेपाल, भूटान और नेफा है. लेकिन हमने कभी जियादा गौर नहीं किया था। 1950 के बाद के अपने नक्शों में चीन कोरिया, इंडोचीन, मंगोलिया, बर्मा, मलेषिया, पूर्वी तुर्किस्तान, नेपाल, सिक्किम, भूटान व भारत जैसे 11 देषों को अपनी सीमा में दिखाता रहा है. हमें तभी संभलना चाहिए था. लेकिन हमने गौर नहीं किया ।(भारत वर्मा , रक्षा विशेषज्ञ, चीन से भारत को आशंका, इंडियन डिफेन्स रेवियु , मई 2010 ) राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया श्रीगुरू जी की भविष्यवाणी उसी समय की गई थी की चीन भारत पर हमला कर सकता हे . उसी समाया चीनी प्रधानमंत्री चायू एन लाई की भारत यात्रा के समय भारत हिंदी-चीनी, भाई-भाई के नारे लगा रहे थे । श्रीगुरू जी की चेतावनी भी अनसुनी कर दी गई - और फिर कहा गया कि धोखा हुआ है।



इस धोखे की बात को आज फिर याद करना पड़ेगा । कुछ विशेषज्ञों का मानना हे की चीन फिर भारत पर अगले साल हमला कर सकता हे. उन रक्षा विषेषज्ञों का अनुमान है कि चीनी विजय के 50 वर्ष 2012 में होंगे। इस स्वर्ण जयन्ति (गोल्डन जुबली ) को चीन भारत पर दुबारा हमला करके मनाएगा। इसके कारन भी बताये हे. चीन की अपनी घरेलू समस्याएं हैं, गरीब अमीर का अंतर बाद रहा हे । गाँव में आक्रोश हे की शहरों की चकाचोंध वहीं सिमट कर रह गई हे. और साड़ी दुनिया में लोकतंत्र की बयार उनके देश को नहीं छू रही. वो पहले की तरह तिनामिनान चौक पर अपने लोगों को टैंकों से रोंद कर 'श्मशान की शांति' पैदा करने से बचना चाहेगा। वह भारत पर आक्रमण करके अपनी जनता का ध्यान बढते हुए आक्रोश से हटा सकता है। भारत की समृधि की और बढ़त उसे फूटी आँखों सुहा नहीं रही. उसे भी अवरुद्ध करने वो हमला कर सकता हे. लेकिन क्या हमारी तैयारी है? क्या हम इसी भरोसे बैठे हैं की चीन व्यापारी बन गया हे और हमारे बाजार को छोड़ेगा नहीं, युद्ध तक नहीं जायेगा. यही बातें 1962 पहले भी नेतायों द्वारा कही जाती थी. हम इतिहास के गढ़े मुर्दे उखडने के आदी नहीं है, लेकिन इतना ही स्मरण करवाना चाहते है कि जो लोग इस कहावत को अक्सर भूलते है कि इतिहास अपने को दोहराते हैं और उससे सीख नहीं लेते वे पुनः लज्जा, शर्म सहने को अभिषप्त रहते है। हमारा ये जन जागरण अभियान एक चेतावनी सा हे. हम पूरे देश के सामने ये बात रखना चाहते हे की यदि युद्ध दुबारा होता हे तो क्या हमारी तेयारी हे. नेता इस मामले में चैन से सोते दिखाई दे रहे हैं.



हमारी सरकार को व जनता को लगातार इस खतरों को भांपना चाहिए था। हर बार पृथ्वीराज की तरह उदार होते-होते फिर स्वयं गिरफ्तार और आंखों से लाचार होने को अभिशप्त होना हमारी नियति नहीं होनी चाहिए. धोखा-धोखा चिल्लाने की बजाय कुछ और सोचना चाहिए. क्या अच्छा नही कि भारत शिवाजी महाराज की तरह पूर्व तैयारी में हो. धोखा देने वाला अफजल खां रूपी चीनी दैत्य स्वयम पेट की आंतडियां बाहर निकलते वक्त चिल्लाए 'फरेब', 'धोखा'। यदि भारत चैन की नींद न सोये तो यह बिलकुल हो सकता है. भारत को तेयार रहना ही चाहिए. .



2. चीन द्वारा पैदा किये गए संकट का कारण क्या हैं: हमें कई बार हेरानी होती हे की चीन बेशक हमारा सदा से पडोसी रहा हे और हमेश से ही एक ड्रेगन के स्वाभाव का देश रहा हे. दूसरों को अपने अधीन करने वाला मुल्क रहा हे. लेकिन हमारे इतिहास में एक भी घटना ये नहीं दर्शाती की चीन ने हमारे पर कभी कोई हमला किया हो. चंगेज़ खान नामक वहां का क्रूर हमलावर जहाँ कहाँ अपनी तलवार घुमाता रहा लेकिन भारत भूमि पर बिलकुल नहीं आया क्योंकि वो बौद्ध धर्म का मानाने वाला बताया जाता हे और महात्मा बुद्ध की भूमि को कैसे छेड़ता. इतिहासकार तो उसका नाम भी चंगेस हान बताते हे. तो फिर क्या हुआ की चीन ने सं 1962 में हमारे पर हमला बोल दिया और तब से लगातार हमारे प्रति शत्रुता दिखा रहा हे. वास्तव में चीन और हमारे बीच तिब्बत था, और 1950 से पहले कभी भी हमारी और चीन की सीमा आपस में मिलती नहीं थी. तिब्बत की बफर स्टेट बीच में गायब होते ही स्थिति गड़बड़ा गयी. ये गलती इस लिए हुई की तत्कालीन प्रधान मंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु चीन के इरादे नहीं भांप पाए थे और चीन को खुश करने के लिए एक से एक गलती करते गए जिसको आज तक भुगतना पड़ रहा हे. पंडित नेहरु "हिंदी चीनी भाई भाई " और " तीसरी दुनिया को अलग पहचान दिलाने " की हवाई नीतियों में मस्त रहे और चीन नयी से नयी चाले चलने में व्यस्त रहा. तिब्बत पर चीन से समझौता बहुत बड़ी भूल थी, और इसके बाद वो लगातार हिमालयन फ्रंटीयर के इलाके में फेलता गया और भारत अपने पैर समेटता गया ( . मोनिका चंसोरिया "चीन क विस्तार" "जौर्नल, सेंटर फॉर लैंड वार फैर स्टडीज़ )

चीन की रणनीति शुरू से यही रही की शक्ति बन्दूक की नाली से निकलती हे ना की शांति के प्रवचनों से. वैसे यदि हमने चीन के षड्यंत्रों को समझना हो तो चीन के एक पुराने राजनीतिक चिन्तक झून-जी (298 -238 ईसा पूर्व ) को समझना होगा. उसके तीन सिद्धांत चीन आज भी अनुसरण करता प्रतीत हो रहा हे. क्रमांक एक कि आदमी स्वाभाव से कुटिल और धूर्त होता हे. दुसरे कि संघर्ष और कलह में से ऐसी परिस्थितियाँ बनती हे जिसमें हर देश को उसका लाभ अपने हक में करने की कोशिश करनी चाहिए. और तीसरे यह के द्वि-पक्षीय संबंधो को कानूनी रूप देने से पहले अपनी हालत इतनी मजबूत कर लेनी चाहिए , जहाँ से उसका दब-दबा हमेश बरकरार रहे. अगर चीन और भारत के सम्बन्ध देखें जाएँ तो ये बातें बिलकुल खरी उतरती हे और चीन इन बातों का उपयोग अपने हक में करता स्पष्ट दिखाई देता हे. (नेहा कुमार, चीन से आणविक खतरा" इंडिया क्वार्टरली 65 ,2009 ) सन 1949 के बाद से ही चीन ने अपना चक्र-व्यूह रचना शुरू कर दिया था. चीन की चाल में फँस कर नेहरु ने तिब्बत जो की एक स्वतंत्र देश था, उसको चीन का अभिन्न अंग मानने की गलती कर ली. वास्तव में 1950 में तिब्बतियों ने भारत के साथ रहने और भारत का प्रोटेक्टोरत बनने की इच्छा जाहिर की. लेकिन विडम्बना देखिये कि नेहरु जी ने उदारता बरतते हुए उन्हें चीन का प्रोटेक्टोरत बनने की सलाह दी. इतना ही नहीं तो 1951 में उनकी एक संधि भी करवाई जिसमे तिब्बत की आन्तरिक स्वायत्ता और संस्कृति और स्वशाशन आदि कायम रहें गे, ऐसा कहा. और कहा की केवल संधि कर चीन की संप्रभुता तिब्बत स्वीकार कर ले. तिब्बत ने भारत के भरोसे ही यह संधि की थी. लेकिन भरोसे में मारा गया. जैसे ही 1955 के बाद चीन ने तिब्बत में अपनी सेना भेजनी शुरू की तो पंडित नेहरु को अपनी गलती का एहसास होने लगा. 1959 के आते आते चीन ने तिब्बत पर पूरी तरह कब्ज़ा कर लिया . यही वो दुर्भाग्यशाली साल था जब पूज्य दलाई लामा को तिब्बत छोड़ कर भारत की शरण लेनी पड़ी. यहाँ ध्यान रहे कि पंडित नेहरु ने चीनी विस्तारवाद का विरोध तो किया लेकिन यह विरोध केवल शब्दों तक ही सीमित था. भारत और चीन के बीच से एक बफर स्टेट तिब्बत के गायब होने से हमारे लिए भी मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा. इसके बाद चीन तिब्बत तक ही सीमित नहीं रहा बल्कि वो पहले नेपाल, फिर भूटान, मंगोलिया आदि समीपवर्ती देशों पर अपनी पकड़ मजबूत करता गया.



3. एक गलती का एहसास होने पर क्या पंडित नेहरु सम्हल गए ? नहीं, बिलकुल नहीं. तिब्बत को हडपने के बाद चीन ने एक पर एक कब्जे करने शुरू कर दिए. पहले चीनी राष्ट्रपति चायू एन लाई ने कभी नहीं कहा की भारत के साथ चीन का कोई सीमा विवाद हे. लेकिन 1959 में तिब्बत पर कब्ज़ा पूरा होने के बाद चीन ने चिल्लाना शुरू किया कि भारत ने हमारी एक लाख चार हज़ार वर्ग किलो मीटर जमीन दबा राखी हे. दूसरी गलती और सुन लेनी चाहिए. पहला धोखा खाने के बावजूद भारत ने चीन से शांति खरीदने के मृगजाल में एक और गलती करदी. जब चीन संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य नहीं था तो साम्यवादी देशो के इलावा भारत ही एक ऐसा देश था जिसने चीन कि सदस्यता के लिए प्रबल समर्थन किया था. और चीन ने इस उपकार का बदला दिया और 1962 में भारत पर बलात हमला कर दिया. इसी वक्त हमारी 38 ,000 वर्ग किलो मीटर जमीन पर कब्ज़ा कर लिया जो आजतक यथावत हे. (रिपोर्ट, तिब्बत डेली नोवंबर 2010 ). इतना ही नहीं तो उसने 5183 वर्ग किलोमीटर 1963 में पकिस्तान से ले ली. इसी जमीन पर महत्वपूर्ण कराकोरम पक्का मार्ग तेयार कर लिया. उसका पेट इससे भी नहीं भरा हे. उसने इल्जाम लगाया हे हे की भारत ने उसकी 90000 वर्ग किलोमीटर जमीन कब्ज़ा रखी हे. जो जो इलाके सामरिक दृष्टी से उसे उपयोगी लगते हैं, उनपर उसने अपनी उंगली टिका रखी हे. अब यदि तिब्बत सुरक्षित रहता तो चीन हमारा पडोसी बनकर हमारे पर लगातार दवाब नहीं बना सकता था. दूसरी बात हे जल विवाद की जो उसके बाद पैदा होने शुरू हुए . तिब्बत से ही ब्रह्पुत्र सहित और दस नदियाँ निकलती हे जिनसे 11 देशों की जलापूर्ति होती हे. अब ये सर्व विदित हे कि चीन उन नदियों के जल को अपने ढंग से मोड़ने का प्रयास कर रहा हे. चीन का उत्तर-पूर्वी हिस्सा सूखा हे और उसका तीन घाटियों वाला बाँध सूख रहा हे. इस लिए चीन इन नदियों का पानी उधर दे रहा हे. इसके लिए टनल और सुरंगों का जाल बिछाया जा रहा हे. दुःख का विषय हे की भारत सरकार ने अपने देश से इस बातको छुपा रहा हे. वैसे उपग्रहों के चित्र और अंतर-राष्ट्रीय प्रेक्षक और ऐसी पत्रिकाएं इन तथ्यों को नंगा कर रही ही. चीन की ये करतूते आने वाले दिनों में ये भारत के लिए ही नहीं तो विश्व के लिए एक संकट बनने वाला हे. (डॉ. भगवती शर्मा: चीन एक सुरक्षा संकट, पेज 13 )



४. नेहरु का पंचशील और आजके पंचशूल: हमने नेहरू के पंचषील के सिद्धांत की दुर्दषा होते देखी है - वह पंचषील हमारे लिए ‘पंचषूल’ बन गया और आज वे पांच शूल बहुत ही कष्ट दे रहे है . पहला शूल तो हे आर्थिक रूप से नुकसान. जो चीनी माल हमारे देष की दूकानों में अटे पड़े है। बचों के खिलोनो से लेकर पूजा के लिए लक्ष्मी गणेश कि प्रतिमा तक चीन निर्मित हे. होली का रंग भी चीन का, पिचकारी भी चीन की. दिवाली के चीन निर्मित पटाखे हमारे देश का दिवाला निकल के छोड़ें गे. हर साल चालीस हजार करोड़ रुपये हम चीन तो मुनाफे के रूप में दे रहे हे. बेरोजगारी भी इससे बढ रही हे. दूसरा नुक्सान पर्यावरण का हे. सारी दुनिया में आज पर्यावरण रक्षा की दुहाई दी जा रही हे. लेकिन पता हमें पता रहना चाहिए कि दुनिया का सबसे बड़े पर्यावरण विनाशको में से एक चीन है. बल्कि वो नंबर एक हे । दुनिया के सारे प्रदूषण का पांचवा हिस्सा यानि 21 प्रतिषत चीन फैला रहा है। तीसरा नुकसान चीन द्वारा हमारे देष में अराजकता फेलाना हे । माओवादी कहां से संरक्षण प्राप्त कर रहे हैं, उनको हथियार से लेकर ट्रेनिंग देने में चीन की बहुत बड़ी भूमिका हे. हमारे देश में लगभग 150 जिलो में मायो-वादियों का सिक्का चल रहा हे. और तो और - 'माओ' नाम ही उनके यहां से आया है . चौथा नुक्सान चीन कर रहा हे कि वो हमारे सभी पड़ोसियों को हथियार दे देकर और आर्थिक सहयोग करके उन्हें हमारे खिलाफ उकसा रहा है। पाकिस्तान, नेपाल, बंग्लादेष सभी को हमारे खिलाफ उकसाने का काम तो चीन कर ही रहा हे, उसने वहां अपनी सैनिक चोकियाँ बना ली हे। और पांचवा सीधा-सीधा चीन से सामरिक खतरा है। रक्ष विशेषज्ञों को प्राय ये लगता हे के चीन के सामने हम कहीं नहीं टिकते. संसद में 2007 में सरकार ने एक सवाल के जवाब में इस बात को माना की चीन बार बार हमारे यहाँ घुसपैठ करता हे. ये माना की अकेले इस साल के ग्यारह महीनो में चीन ने 146 बार घुसपैठ की हे. मोटा अनुमान हे की बासठ के युद्ध के बाद अबतक 1500 बार चीन ने हमारी सीमायों में घुसपैठ की हे. ये भी लगता हे के दुबारा चीन से युद्ध होने पर फिर शर्मनाक हार होगी. ये भी लगता हे के सरकार उसी तरह गुमराह हे, या मुगालते में हे जैसे पहले थी. हम उसको अपने देश में मार्केट देकर समझ रहे हे के चीन हमारे से युद्ध करके इस व्यापार को नहीं खोएगा. लेकिन हालत खतरनाक हे. अब तो चीन के शस्त्र भी नये-नये है। उधाहरण के लिए यदि चीन ब्रह्मपुत्र पर बनाए जा रहे बांध को ही कहीं विस्फोट से तोड़ता है तो बहुत बड़े हमारे भूभाग को सुनामी जैसी स्थिति में ला सकता है। यह कल्पना की उड़ान नहीं, कुछ वर्ष पूर्व पूरा हिमाचल ऐसी ही स्थिति में लाने का चीनी प्रयोग सफल रहा है। हमारी सरकार को व जनता को लगातार इस खतरों को भांपना चाहिए था. (भारत वर्मा , रक्षा विशेषज्ञ, चीन से भारत को आशंका, इंडियन डिफेन्स रेवियु , मई 2010 ). आईये इन पांचो खतरों रुपी शूलों को विस्तार से पहचाने.



पहला शूल: चीन का भारत पर आर्थिक हमला:


अभी इस 16 सितम्बर के दैनिक जागरण एवं दुसरे अखबारों में सुरक्षा सलाहकार का खुलासा चौकाने वाला हे. उसके मुताबिक चीन का खतरा अब देश की सीमाओं तक सीमित नहीं है। हमारी अर्थव्यवस्था के बहुत बड़े हिस्से पर उसका परोक्ष कब्जा हो गया है। लगभग 26 फीसदी औद्योगिक उत्पादन अब चीन से आयातित इनपुट या उत्पादों पर निर्भर है, यानी उसकी मुट्ठी में है। यह हैरतअंगेज निष्कर्ष राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार [एनएसए] का है। एनएसए सचिवालय ने चीन पर हाल में सरकारी विभागों को एक रिपोर्ट दी है।

इसके अनुसार चीन ने कई संवेदनशील क्षेत्रों में हमारी आत्मनिर्भरता पर दांत गड़ा दिए हैं। बिजली, दवा, दूरसंचार और सूचना तकनीक के क्षेत्रों में उसका दखल अब खतरनाक स्तर तक पहुंच गया है। इस रिपोर्ट के बाद विदेश मंत्रालय और आर्थिक मंत्रालयों में हड़कंप मचा हुआ है।

करीब आठ पेज की यह गोपनीय रिपोर्ट बेहद सनसनीखेज है। एनएसए ने इस साल मार्च में योजना आयोग और अगस्त में आर्थिक मंत्रालयों के साथ बैठक की थी। इसके बाद यह रिपोर्ट तैयार की गई है। रिपोर्ट में बताया गया है कि चीन की नीयत और नीतियां साफ नहीं है। वह दूरसंचार और सूचना तकनीक के क्षेत्रों में अपने दखल का इस्तेमाल साइबर जासूसी के लिए कर सकता है।

इस रहस्योद्घाटन ने सरकार के हाथों से तोते उड़ा दिए हैं कि अगले पांच साल में चीन हमारे 75 फीसदी मैन्यूफैक्चरिंग उत्पादन को नियंत्रित करने लगेगा। इस समय देश मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र का करीब 26 फीसदी उत्पादन चीन से मिलने वाली आपूर्ति के भरोसे है। एक देश पर इतनी बड़ी निर्भरता अर्थव्यवस्था को गहरे खतरे की तरफ ले जा रही है। रिपोर्ट के मुताबिक तमाम तरह की सब्सिडी और मौद्रिक अवमूल्यन के चलते चीन हमारी तुलना में 40 फीसदी सस्ता उत्पादन करता है, जिससे भारत की औद्योगिक प्रतिस्पतर्धा बुरी तरह टूट रही है।

चीन के असर से भारत की आत्मनिर्भरता को खतरे के कई उदाहरण इस रिपोर्ट में दर्ज हैं। हमारे उद्योग बिजली बचाने वाले सीएफएल लैंप के प्रमुख कच्चे माल [फास्फोरस] के लिए चीन पर पूरी तरह निर्भर हैं। हाल में फास्फोरस की कीमत बढ़ाकर चीन ने यहां के सीएफएल उद्योग की चूलें हिला दीं। स्टील और इसके उत्पादों में ही चीन की कीमतें यहां से 26 फीसदी कम हैं। हमारा दवा उद्योग भी कुछ बेहद जरूरी [फमर्ेंटेशन आधारित] कच्चे माल यानी और बल्क ड्रग के लिए पूरी तरह चीन के भरोसे है। घरेलू दवा उद्योग चीन से सस्ते आयात के चलते सालाना 2500 करोड़ रुपये का नुकसान उठा रहा है। कंपनियां चीन से आयातित पेनिसिलीन जी पर एंटी डंपिंग लगाने के लिए सरकार से गुहार लगा रही हैं।

राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार का निष्कर्ष है कि भारत में दूरसंचार उद्योग अपनी जरूरत के 50 फीसदी उपकरण आयात करता है, जिसमें चीन का हिस्सा 62 फीसदी है। बिजली परियोजनाओं के एक तिहाई ब्वॉयलर और टरबाइन जनरेटर चीन से आए हैं, जो भारत के मुकाबले 6 से 20 फीसदी सस्ते हैं। दूरसंचार और बिजली क्षेत्र में चीन के दखल को लेकर सुरक्षा चिंताएं चरम पर हैं। यही चिंता सूचना तनकीक उत्पादों को लेकर भी है, जिनका आयात का आकार 2020 तक पेट्रो आयात से ज्यादा हो जाएगा। चीन इन उत्पादों का दुनिया में सबसे बड़ा निर्यातक है, इसलिए भारत में प्रमुख सप्लायर है।



सिफ इतना ही नहीं तो आज हर तरफ हमारे बाज़ार चीनी माल से भरा पड़ा हे. 2001 तक चीन का भारत से व्यापार कोई खास नहीं था. भारत चीन को हर तरह से सुविधाएँ दे रहा हे. और 2010 तक भारत चीन व्यापार 62 अरब डालर का हो गया था, और 2011 ख़तम होते तक ये आंकड़ा 84 अरब डालर तक पहुँचाने वाला हे. इस व्यापार में दो हिस्से चीन के हे और एक हिस्सा भारत के, लेकिन इस में भी एक पेच हे. वो ये हे की हम जो बीस अरब डालर का माल चीन को देते हे वो कच्चा माल हे. इन बेश-कीमती खनिज पदार्थों में से भी साठ प्रतिशत तो कच्चा लोहा हे. अनुमान हे की यदि भारत इसी गति से लोह-अयस्क का निर्यात करेगा तो ये पचास साठ साल में बिलकुल ख़तम हो जायेगा. फिर जरूरत पूरी करने पर चीन से किस भाव खरीदेंगे, इसका नदाजा ही रोंगटे खड़े कर देता हे. दूसरा सामान जो चीन को हम भेजते हे वो कच्चा रबर हे. आज भारत दुनिया के तीन-चार बड़े रबर उत्पादक देशों में से एक हे. लेकिन त्रासदी ये हे की हम अपना रबर अनुदान देकर निर्यात करते हे. इस का नतीजा ये हे की चीन हमारा रबर सस्ते रूप में खरीदता हे. बस और ट्रक का टायर चीन इसी कारण भारत में 2000 से 3000 रुपये सस्ता बेचता हे. अब हालत ये की बड़ी-बड़ी भारतीय कम्पनिया भी चीन में कारखाना लगाने की सोच रहीं हैं . ऐसे ही वस्त्र उद्योग भी प्रभावित हो रहा हे. कपास भी बड़ी मात्र में चीन जा रही हे. फिक्की के सर्वे में आया हे की 74 पर्तिशत उद्यमियों को चीनी उत्पादों के कड़ा मुकाबला करना पड़ रहा हे. 62 फ़ीसदी उद्यमियों का मानना हे की चीन के सस्ते उद्पादों के कारण कभी भी उनको अपना कारखाना बंद करना पड़ सकता हे. यही हाल प्रिंटिंग या इंजिनीरिंग के उत्पादों का हे, और रसायनों का तो और भी बुरा हाल हे. आज की तारीख में 35 फ़ीसदी पवार प्लांट और टेलीफोन एक्सचेंज भी चीनी लग रहे हे. आर्थिक नुक्सान के साथ साथ एक बहुत बड़ा खतरा ये भी हे की टेलीफोन क्षेत्र में चीन का आना वैसे भी बड़ा संवेदनशील मुद्दा हे. चीन जब चाहे हमारे महत्वपूर्ण लोगो की बात जब चाहे टेप कर सकता हे, देश की सुरक्षा और गोपनीयता कहा बचेगी.चीन से बड़ी मात्र में हम मौसम जानने वाले संयंत्र आयात कर रहे हे. अब वो हमें मौसम का हाल बताएँगे, या यहाँ की गतिविधियों के चित्र अपने देश में पहुचाएंगे.



आज दुनिया में तकनीक समृद्ध करने की होड़ लगी हे. हमारे यहाँ बताते हे की अभी टेलकम में प्रथम जेनेरशन टेक्नोलोगी ही विकसित हुई, और दूसरी पीड़ी की टेलेकाम टेक्नोलोजी ही यहाँ विकसित नहीं हुई. और तीसरी की तो दूर दूर तक सोची नहीं. चीन, आपकी जानकारी के लिए, चौथी पीड़ी की टेक्नोलोजी विकसित करने में अमरीका से भी आगे बढ़ने की कोशिश में हे. अगर हम आपनी चीजो का उपयोग नहीं करेंगे, अपने यहाँ उत्पादन नहीं करेंगे तो हमेशा के लिए पिछड़ जायेंगे. कच्चा माल ही चीन को देकर खुश होंगे और तेयार माल कई गुना कीमत चुका कर लेते रहेंगे तो हालत बहुत बुरी होगी. ये नीति तो ईस्ट इंडिया कंपनी हमारे साथ आजादी से पहले करती थी. कहाँ तो हम अमरीकी और यूरोप के आर्थिक जाल से बचने की कोशिश कर रहे थे, और कहाँ एक नया फन्दा चीन का और पड़ गया. इसी बात से अनुमान लगा लीजिये की आर्थिक गुलामी चीन से कितनी हे. बच्चो के खिलोनो से लेकर टेक्सन के केलकुलेटर चीनी हे. दिवाली के पटाखों से लेकर 'लिनोवा' के कम्प्यूटर भी चीनी हे. मंदिर पर जगमगाने वाली बिजली की लड़ियों से लेकर पूजा में रखी गयी लक्ष्मी और गणेश जी की मूर्तियाँ भी चीनी हे. मोटा अनुमान हे की हर साल हम 40-50 हजार करोड़ रुपये का आर्थिक सहयोग मुनाफे के रूप में चीन का कर रहे हे. शत्रु देश का आर्थिक सशक्तीकरण करना अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारना ही होता हे. . कुछ समय पहले ही चीन ने जापान को दुनिया की दुसरे नंबर की सर्व-श्रेष्ट अमीर अर्थवयवस्था के स्थान से हटा कर अपना कब्ज़ा जमाया हे. वैसे भी चीन के सामान नुकसानदेह हे. चीनी दूध के उत्पाद दुनिया भर में प्रतिबन्ध का विषय बने हैं क्योंकि उनमे एक मेलामाइन नामक नुक्सानदेह औद्योगिक रसायन हे. खिलोनो के रंगों में भी घातक रसायन बच्चों के लिए खतरनाक हे. सस्ते जरूर होते हे चीनी सामान लेकिन इतनी जल्दी खराब होते हे की पूछिए नहीं. इस लिए लम्बे वक्त में कुल मिला कर चीनी उत्पाद महंगे ही पड़ते हे. बेशक ये एक चुटकला होगो पर चीनी वस्तुयों की हकीकत दर्शाता हे. एक लड़के ने किसी चीन की लडकी से शादी की और पांच-छे महीने बाद ही वो लड़की मर गयी. अफ़सोस करने वालों में से एक ने उसे यूँ धाडस दिलाया: भले मानस क्यों रोता हे, पांच छे महीने तो निकाल ही गयी आपकी चीनी पत्नी. ये क्या कम हे. और चीनी माल वैसे चलता ही कितनी देर हे," ऐसे में फिर क्यों खरीदना ऐसा चीनी सामान को. क्योंकी इससे सेहत का भी नुक्सान, जेब का भी नुक्सान और वातावरण का भी नुक्सान.





दूसरा शूल - चीन से पर्यावरण को खतरा: तिब्बत कभी दुनिया के सबसे पर्यावरण की दृष्टि से साफ़-सुथरे स्थानों में से एक था. लेकिन तिब्बत को हडपने के बाद उसने तिब्बत को न केवल सैनिक अड्डे बल्कि आणविक कचरादान के रूप में तब्दील कर दिया हे. ऐसा करने के लिए तिब्बत के घने जंगलो को उसने काटना शुरू कर दिया हे. तकरीबन 2.5 मिलियन वर्ग किलोमीटर में फ़ैली चीन के हरयाली और खूबसूरती को तहस-नहस कर दिया हे. यहाँ से निकलने वाली दस नदियाँ भारत ही नहीं बल्कि नेपाल, बंगलादेश, भूटान, पकिस्तान, थाईलैंड, बर्मा, विएतनाम, लोस और कम्बोडिया जैसे अन्य ग्यारह देशों का मेरुदंड हैं. ये न केवल उन देशों की पानी की जरूरत पूरी करती हे बल्कि उपजाऊ मिटटी भी इनके बहाव के साथ मिलकर इन देशों की फसल को उपजाऊ बनती हे. मोटे तौर पर इन नदिओं के तटों पर विश्व के करीब आधी आबादी बसती हे.( भारत-नीति प्रतिष्ठान ,'चीनी- विस्तारवाद' पेज 17.)



लेकिन पिछले चार दशकों से इन देशों का मौसम चीन के कारण से बुरी तरह प्रभावित हुआ हे. अगर चीन के द्वारा सैनिक समीकरण के नाम पर तिब्बत की पहाड़ों पर बड़े-बड़े डैम बनाये जाते तो प्रत्यक्ष नुक्सान तो भारत को होगा, पर चीखे गी दुनिया भी. लेकिन इससे भी खराब बात हे के तिब्बत के एक हिस्से को आणविक अवशेष में तब्दील कर दिया गया हे. इससे ये परमाणु का कचरा मुहाने के भारतीय खेत खलिहानों और लोगों के घरों तक पहुँच रहा हे. यहाँ ये बात बताने की हे के कभी दलाई लामा ने विश्व शांति के लिए इस क्षेत्र को 'आणविक-मुक्त क्षेत्र' घोषित करने की बात 1980 के दशक में कही थी. वैसे भी चीन दुनिया के सबसे प्रदूषण फैलाने वाले देशों में अग्रणी हे. दुनिया का पांचवा हिस्सा परदुषण यानी 21 अकेला चीन ही फैला रहा हे. विश्व की सर्वाधिक प्रदुशंकारी ग्रीन हाउस गसों का उत्सर्जन चीन ही कर रहा हे. दुनिया में इस बात की काफी चर्चा हे, और चीन की प्रोद्योगिकी इतनी प्रदुषण पैदा करने वाली हे. ये बाते लोगों के जेहन में बिठाई जाती हे तो चीन देश द्वारा बनाई चीज़ों का बहिष्कार लोग सरलता से कर देंगे.परन्तु साथ में भारत सरकार की एक और बहुत बड़ी गलती ही नहीं बल्की पाप का जिक्र हम करना चाहेंगे. अभी दो साल पहले पर्यावरण पर संपन्न कोपेंगेहन वार्ता में cheen का साथ उस समाया दिया jab वह अंतर-राष्ट्रीय jagat mein kopbhaajan ban raha tha.

चीन का खतरा और समाधान - कश्मीरी लाल

चीन का खतरा

यदि ये पूछा जाये कि आजाद भारत का ऐसा कौन सा क्षण हे जिस पर आप सबसे ज्यादा गर्व कर सकते हे. इस के कई उत्तर हो सकते हे. पोखरण के विस्फोट से लेकर बाबरी ढांचा गिरने तक और कारगिल विजय से अन्ना हजारे की विजय तक कई उत्तर हो सकते हैं. लेकिन आजाद भारत के पूरे इतिहास को देखें तो बंग्लादेश पर विजय एक ऐसा उत्तर हे जिसपर काफी लोग सहमत हो जायेंगे. इस तेरह दिन के युद्ध में भारत ने पकिस्तान को बुरी तरह परास्त करके आत्म-समर्पण के लिए मजबूर किया. क्या नज़ारा था जब 16 दिसंबर 1971 को हमारे जेनेरल अरोड़ा ने पकिस्तान के जेनेरल निआज़ी को आत्मसमर्पण पत्र पर दस्तखत करने पर उनके 90 ,००० से ज्यादा भेद-बकरीओं की तरह इकट्ठे किये सैनिको को रिहा किया.

अब अगर इससे बिलकुल उल्टा प्रश्न ये पूछा जाये कि आजादी के बाद का सबसे शर्मनाक समय कौन सा हो सकता है, तो इसके भी कई उत्तर हो सकते हे । संसद पर या ताज होटल पर हमले से लेकर नोट फॉर वोट जैसी घटना के कई शर्मनाक दिन गिनाये जा सकते हे. लेकिन एक उत्तर पर ज्यादातर लोगों कि सहमति होगी. वो होगa चीन से करारी हार. 1962 में चीन के हाथों ये बहुत ही शर्मनाक हार थी, और आज भी उसका स्मरण कर सर शर्म से झुकता है. कोई लोग तो उस दुर्घटना को याद भी नहीं करना चाहेंगे। इस हार के कारण क्या थे, इसको विष्लेषण करने के लिए एक समिति बनाई गई थी। उस रिपोर्ट पर चर्चा करके कुछ सबक सीखने की बात तो दूर, उस रिपोर्ट को आजतक सार्वजनिक ही नहीं किया गया।

हमने इस पराजय को एक घिसे-पिटे शब्द से छुपाने व पर्दा डालने की कोशिश की और वह शब्द है ‘‘धोखा’’। चीन ने हमारे साथ छल किया, फरेब किया ऐसा हमारे नेताओं ने कहा. 'हिन्दी चीनी भाई-भाई' के नारे लगाते-लगाते गला अभी सहज भी नहीं हो पाया था कि हमारा गला कोई घोंटने लगा । हमारे प्रधानमंत्री जी ने पंचषील के शांति के कबूतर छोड़कर और उनके सुखद फडफड़ाने के स्वर से आह्लादित हो आंखे बंद कर ली थी. अचानक हमारे इन शांतिदूत कबूतरों के गले से दबी चीख निकली और खून के छींटे नीचे गिरे। चीन के बाजों और चीलों ने उनपर झपट्टा मारके घायल कर दिया था। नेहरु लाचार थे. और सारा देश शर्मसार था. उनको कुछ समझ नहीं आ रहा की ये कैसे हो गया.



१.चीन का आक्रमण क्या अचानक हुआ था :हमारे कुछ रक्षा विषेषज्ञों ने इस सत्य को तथ्यों के साथ उजागर किया है कि ‘‘धोखे’’ का यह इल्जाम शंकास्पद ही नहीं, हास्यास्पद भी है। 'फन्नी' ही नहीं 'फाल्स' भी हे. समय रहते हम ने चीन के कुत्सित इरादों की और कभी गौर नहीं किया था. नेहरु जी की दुनिया में शांति का मसीहा बनाने की खोखली चाहत ने उन्हें कुछ समझने ही नहीं दिया. इतिहास गवाह हे की चीनी नेता माओत्से तुंग ने कई बार कहा था कि तिब्बत चीन के हाथ ही हथेली की मानिंद है और हथेली के साथ की पांच उंगलियां लद्दाख, सिक्किम, नेपाल, भूटान और नेफा है. लेकिन हमने कभी जियादा गौर नहीं किया था। 1950 के बाद के अपने नक्शों में चीन कोरिया, इंडोचीन, मंगोलिया, बर्मा, मलेषिया, पूर्वी तुर्किस्तान, नेपाल, सिक्किम, भूटान व भारत जैसे 11 देषों को अपनी सीमा में दिखाता रहा है. हमें तभी संभलना चाहिए था. लेकिन हमने गौर नहीं किया ।(भारत वर्मा , रक्षा विशेषज्ञ, चीन से भारत को आशंका, इंडियन डिफेन्स रेवियु , मई 2010 ) राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया श्रीगुरू जी की भविष्यवाणी उसी समय की गई थी की चीन भारत पर हमला कर सकता हे . उसी समाया चीनी प्रधानमंत्री चायू एन लाई की भारत यात्रा के समय भारत हिंदी-चीनी, भाई-भाई के नारे लगा रहे थे । श्रीगुरू जी की चेतावनी भी अनसुनी कर दी गई - और फिर कहा गया कि धोखा हुआ है।



इस धोखे की बात को आज फिर याद करना पड़ेगा । कुछ विशेषज्ञों का मानना हे की चीन फिर भारत पर अगले साल हमला कर सकता हे. उन रक्षा विषेषज्ञों का अनुमान है कि चीनी विजय के 50 वर्ष 2012 में होंगे। इस स्वर्ण जयन्ति (गोल्डन जुबली ) को चीन भारत पर दुबारा हमला करके मनाएगा। इसके कारन भी बताये हे. चीन की अपनी घरेलू समस्याएं हैं, गरीब अमीर का अंतर बाद रहा हे । गाँव में आक्रोश हे की शहरों की चकाचोंध वहीं सिमट कर रह गई हे. और साड़ी दुनिया में लोकतंत्र की बयार उनके देश को नहीं छू रही. वो पहले की तरह तिनामिनान चौक पर अपने लोगों को टैंकों से रोंद कर 'श्मशान की शांति' पैदा करने से बचना चाहेगा। वह भारत पर आक्रमण करके अपनी जनता का ध्यान बढते हुए आक्रोश से हटा सकता है। भारत की समृधि की और बढ़त उसे फूटी आँखों सुहा नहीं रही. उसे भी अवरुद्ध करने वो हमला कर सकता हे. लेकिन क्या हमारी तैयारी है? क्या हम इसी भरोसे बैठे हैं की चीन व्यापारी बन गया हे और हमारे बाजार को छोड़ेगा नहीं, युद्ध तक नहीं जायेगा. यही बातें 1962 पहले भी नेतायों द्वारा कही जाती थी. हम इतिहास के गढ़े मुर्दे उखडने के आदी नहीं है, लेकिन इतना ही स्मरण करवाना चाहते है कि जो लोग इस कहावत को अक्सर भूलते है कि इतिहास अपने को दोहराते हैं और उससे सीख नहीं लेते वे पुनः लज्जा, शर्म सहने को अभिषप्त रहते है। हमारा ये जन जागरण अभियान एक चेतावनी सा हे. हम पूरे देश के सामने ये बात रखना चाहते हे की यदि युद्ध दुबारा होता हे तो क्या हमारी तेयारी हे. नेता इस मामले में चैन से सोते दिखाई दे रहे हैं.



हमारी सरकार को व जनता को लगातार इस खतरों को भांपना चाहिए था। हर बार पृथ्वीराज की तरह उदार होते-होते फिर स्वयं गिरफ्तार और आंखों से लाचार होने को अभिशप्त होना हमारी नियति नहीं होनी चाहिए. धोखा-धोखा चिल्लाने की बजाय कुछ और सोचना चाहिए. क्या अच्छा नही कि भारत शिवाजी महाराज की तरह पूर्व तैयारी में हो. धोखा देने वाला अफजल खां रूपी चीनी दैत्य स्वयम पेट की आंतडियां बाहर निकलते वक्त चिल्लाए 'फरेब', 'धोखा'। यदि भारत चैन की नींद न सोये तो यह बिलकुल हो सकता है. भारत को तेयार रहना ही चाहिए. .



2. चीन द्वारा पैदा किये गए संकट का कारण क्या हैं: हमें कई बार हेरानी होती हे की चीन बेशक हमारा सदा से पडोसी रहा हे और हमेश से ही एक ड्रेगन के स्वाभाव का देश रहा हे. दूसरों को अपने अधीन करने वाला मुल्क रहा हे. लेकिन हमारे इतिहास में एक भी घटना ये नहीं दर्शाती की चीन ने हमारे पर कभी कोई हमला किया हो. चंगेज़ खान नामक वहां का क्रूर हमलावर जहाँ कहाँ अपनी तलवार घुमाता रहा लेकिन भारत भूमि पर बिलकुल नहीं आया क्योंकि वो बौद्ध धर्म का मानाने वाला बताया जाता हे और महात्मा बुद्ध की भूमि को कैसे छेड़ता. इतिहासकार तो उसका नाम भी चंगेस हान बताते हे. तो फिर क्या हुआ की चीन ने सं 1962 में हमारे पर हमला बोल दिया और तब से लगातार हमारे प्रति शत्रुता दिखा रहा हे. वास्तव में चीन और हमारे बीच तिब्बत था, और 1950 से पहले कभी भी हमारी और चीन की सीमा आपस में मिलती नहीं थी. तिब्बत की बफर स्टेट बीच में गायब होते ही स्थिति गड़बड़ा गयी. ये गलती इस लिए हुई की तत्कालीन प्रधान मंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु चीन के इरादे नहीं भांप पाए थे और चीन को खुश करने के लिए एक से एक गलती करते गए जिसको आज तक भुगतना पड़ रहा हे. पंडित नेहरु "हिंदी चीनी भाई भाई " और " तीसरी दुनिया को अलग पहचान दिलाने " की हवाई नीतियों में मस्त रहे और चीन नयी से नयी चाले चलने में व्यस्त रहा. तिब्बत पर चीन से समझौता बहुत बड़ी भूल थी, और इसके बाद वो लगातार हिमालयन फ्रंटीयर के इलाके में फेलता गया और भारत अपने पैर समेटता गया ( . मोनिका चंसोरिया "चीन क विस्तार" "जौर्नल, सेंटर फॉर लैंड वार फैर स्टडीज़ )

चीन की रणनीति शुरू से यही रही की शक्ति बन्दूक की नाली से निकलती हे ना की शांति के प्रवचनों से. वैसे यदि हमने चीन के षड्यंत्रों को समझना हो तो चीन के एक पुराने राजनीतिक चिन्तक झून-जी (298 -238 ईसा पूर्व ) को समझना होगा. उसके तीन सिद्धांत चीन आज भी अनुसरण करता प्रतीत हो रहा हे. क्रमांक एक कि आदमी स्वाभाव से कुटिल और धूर्त होता हे. दुसरे कि संघर्ष और कलह में से ऐसी परिस्थितियाँ बनती हे जिसमें हर देश को उसका लाभ अपने हक में करने की कोशिश करनी चाहिए. और तीसरे यह के द्वि-पक्षीय संबंधो को कानूनी रूप देने से पहले अपनी हालत इतनी मजबूत कर लेनी चाहिए , जहाँ से उसका दब-दबा हमेश बरकरार रहे. अगर चीन और भारत के सम्बन्ध देखें जाएँ तो ये बातें बिलकुल खरी उतरती हे और चीन इन बातों का उपयोग अपने हक में करता स्पष्ट दिखाई देता हे. (नेहा कुमार, चीन से आणविक खतरा" इंडिया क्वार्टरली 65 ,2009 ) सन 1949 के बाद से ही चीन ने अपना चक्र-व्यूह रचना शुरू कर दिया था. चीन की चाल में फँस कर नेहरु ने तिब्बत जो की एक स्वतंत्र देश था, उसको चीन का अभिन्न अंग मानने की गलती कर ली. वास्तव में 1950 में तिब्बतियों ने भारत के साथ रहने और भारत का प्रोटेक्टोरत बनने की इच्छा जाहिर की. लेकिन विडम्बना देखिये कि नेहरु जी ने उदारता बरतते हुए उन्हें चीन का प्रोटेक्टोरत बनने की सलाह दी. इतना ही नहीं तो 1951 में उनकी एक संधि भी करवाई जिसमे तिब्बत की आन्तरिक स्वायत्ता और संस्कृति और स्वशाशन आदि कायम रहें गे, ऐसा कहा. और कहा की केवल संधि कर चीन की संप्रभुता तिब्बत स्वीकार कर ले. तिब्बत ने भारत के भरोसे ही यह संधि की थी. लेकिन भरोसे में मारा गया. जैसे ही 1955 के बाद चीन ने तिब्बत में अपनी सेना भेजनी शुरू की तो पंडित नेहरु को अपनी गलती का एहसास होने लगा. 1959 के आते आते चीन ने तिब्बत पर पूरी तरह कब्ज़ा कर लिया . यही वो दुर्भाग्यशाली साल था जब पूज्य दलाई लामा को तिब्बत छोड़ कर भारत की शरण लेनी पड़ी. यहाँ ध्यान रहे कि पंडित नेहरु ने चीनी विस्तारवाद का विरोध तो किया लेकिन यह विरोध केवल शब्दों तक ही सीमित था. भारत और चीन के बीच से एक बफर स्टेट तिब्बत के गायब होने से हमारे लिए भी मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा. इसके बाद चीन तिब्बत तक ही सीमित नहीं रहा बल्कि वो पहले नेपाल, फिर भूटान, मंगोलिया आदि समीपवर्ती देशों पर अपनी पकड़ मजबूत करता गया.



3. एक गलती का एहसास होने पर क्या पंडित नेहरु सम्हल गए ? नहीं, बिलकुल नहीं. तिब्बत को हडपने के बाद चीन ने एक पर एक कब्जे करने शुरू कर दिए. पहले चीनी राष्ट्रपति चायू एन लाई ने कभी नहीं कहा की भारत के साथ चीन का कोई सीमा विवाद हे. लेकिन 1959 में तिब्बत पर कब्ज़ा पूरा होने के बाद चीन ने चिल्लाना शुरू किया कि भारत ने हमारी एक लाख चार हज़ार वर्ग किलो मीटर जमीन दबा राखी हे. दूसरी गलती और सुन लेनी चाहिए. पहला धोखा खाने के बावजूद भारत ने चीन से शांति खरीदने के मृगजाल में एक और गलती करदी. जब चीन संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य नहीं था तो साम्यवादी देशो के इलावा भारत ही एक ऐसा देश था जिसने चीन कि सदस्यता के लिए प्रबल समर्थन किया था. और चीन ने इस उपकार का बदला दिया और 1962 में भारत पर बलात हमला कर दिया. इसी वक्त हमारी 38 ,000 वर्ग किलो मीटर जमीन पर कब्ज़ा कर लिया जो आजतक यथावत हे. (रिपोर्ट, तिब्बत डेली नोवंबर 2010 ). इतना ही नहीं तो उसने 5183 वर्ग किलोमीटर 1963 में पकिस्तान से ले ली. इसी जमीन पर महत्वपूर्ण कराकोरम पक्का मार्ग तेयार कर लिया. उसका पेट इससे भी नहीं भरा हे. उसने इल्जाम लगाया हे हे की भारत ने उसकी 90000 वर्ग किलोमीटर जमीन कब्ज़ा रखी हे. जो जो इलाके सामरिक दृष्टी से उसे उपयोगी लगते हैं, उनपर उसने अपनी उंगली टिका रखी हे. अब यदि तिब्बत सुरक्षित रहता तो चीन हमारा पडोसी बनकर हमारे पर लगातार दवाब नहीं बना सकता था. दूसरी बात हे जल विवाद की जो उसके बाद पैदा होने शुरू हुए . तिब्बत से ही ब्रह्पुत्र सहित और दस नदियाँ निकलती हे जिनसे 11 देशों की जलापूर्ति होती हे. अब ये सर्व विदित हे कि चीन उन नदियों के जल को अपने ढंग से मोड़ने का प्रयास कर रहा हे. चीन का उत्तर-पूर्वी हिस्सा सूखा हे और उसका तीन घाटियों वाला बाँध सूख रहा हे. इस लिए चीन इन नदियों का पानी उधर दे रहा हे. इसके लिए टनल और सुरंगों का जाल बिछाया जा रहा हे. दुःख का विषय हे की भारत सरकार ने अपने देश से इस बातको छुपा रहा हे. वैसे उपग्रहों के चित्र और अंतर-राष्ट्रीय प्रेक्षक और ऐसी पत्रिकाएं इन तथ्यों को नंगा कर रही ही. चीन की ये करतूते आने वाले दिनों में ये भारत के लिए ही नहीं तो विश्व के लिए एक संकट बनने वाला हे. (डॉ. भगवती शर्मा: चीन एक सुरक्षा संकट, पेज 13 )



४. नेहरु का पंचशील और आजके पंचशूल: हमने नेहरू के पंचषील के सिद्धांत की दुर्दषा होते देखी है - वह पंचषील हमारे लिए ‘पंचषूल’ बन गया और आज वे पांच शूल बहुत ही कष्ट दे रहे है . पहला शूल तो हे आर्थिक रूप से नुकसान. जो चीनी माल हमारे देष की दूकानों में अटे पड़े है। बचों के खिलोनो से लेकर पूजा के लिए लक्ष्मी गणेश कि प्रतिमा तक चीन निर्मित हे. होली का रंग भी चीन का, पिचकारी भी चीन की. दिवाली के चीन निर्मित पटाखे हमारे देश का दिवाला निकल के छोड़ें गे. हर साल चालीस हजार करोड़ रुपये हम चीन तो मुनाफे के रूप में दे रहे हे. बेरोजगारी भी इससे बढ रही हे. दूसरा नुक्सान पर्यावरण का हे. सारी दुनिया में आज पर्यावरण रक्षा की दुहाई दी जा रही हे. लेकिन पता हमें पता रहना चाहिए कि दुनिया का सबसे बड़े पर्यावरण विनाशको में से एक चीन है. बल्कि वो नंबर एक हे । दुनिया के सारे प्रदूषण का पांचवा हिस्सा यानि 21 प्रतिषत चीन फैला रहा है। तीसरा नुकसान चीन द्वारा हमारे देष में अराजकता फेलाना हे । माओवादी कहां से संरक्षण प्राप्त कर रहे हैं, उनको हथियार से लेकर ट्रेनिंग देने में चीन की बहुत बड़ी भूमिका हे. हमारे देश में लगभग 150 जिलो में मायो-वादियों का सिक्का चल रहा हे. और तो और - 'माओ' नाम ही उनके यहां से आया है . चौथा नुक्सान चीन कर रहा हे कि वो हमारे सभी पड़ोसियों को हथियार दे देकर और आर्थिक सहयोग करके उन्हें हमारे खिलाफ उकसा रहा है। पाकिस्तान, नेपाल, बंग्लादेष सभी को हमारे खिलाफ उकसाने का काम तो चीन कर ही रहा हे, उसने वहां अपनी सैनिक चोकियाँ बना ली हे। और पांचवा सीधा-सीधा चीन से सामरिक खतरा है। रक्ष विशेषज्ञों को प्राय ये लगता हे के चीन के सामने हम कहीं नहीं टिकते. संसद में 2007 में सरकार ने एक सवाल के जवाब में इस बात को माना की चीन बार बार हमारे यहाँ घुसपैठ करता हे. ये माना की अकेले इस साल के ग्यारह महीनो में चीन ने 146 बार घुसपैठ की हे. मोटा अनुमान हे की बासठ के युद्ध के बाद अबतक 1500 बार चीन ने हमारी सीमायों में घुसपैठ की हे. ये भी लगता हे के दुबारा चीन से युद्ध होने पर फिर शर्मनाक हार होगी. ये भी लगता हे के सरकार उसी तरह गुमराह हे, या मुगालते में हे जैसे पहले थी. हम उसको अपने देश में मार्केट देकर समझ रहे हे के चीन हमारे से युद्ध करके इस व्यापार को नहीं खोएगा. लेकिन हालत खतरनाक हे. अब तो चीन के शस्त्र भी नये-नये है। उधाहरण के लिए यदि चीन ब्रह्मपुत्र पर बनाए जा रहे बांध को ही कहीं विस्फोट से तोड़ता है तो बहुत बड़े हमारे भूभाग को सुनामी जैसी स्थिति में ला सकता है। यह कल्पना की उड़ान नहीं, कुछ वर्ष पूर्व पूरा हिमाचल ऐसी ही स्थिति में लाने का चीनी प्रयोग सफल रहा है। हमारी सरकार को व जनता को लगातार इस खतरों को भांपना चाहिए था. (भारत वर्मा , रक्षा विशेषज्ञ, चीन से भारत को आशंका, इंडियन डिफेन्स रेवियु , मई 2010 ). आईये इन पांचो खतरों रुपी शूलों को विस्तार से पहचाने.



पहला शूल: चीन का भारत पर आर्थिक हमला:



अभी इस 16 सितम्बर के दैनिक जागरण एवं दुसरे अखबारों में सुरक्षा सलाहकार का खुलासा चौकाने वाला हे. उसके मुताबिक चीन का खतरा अब देश की सीमाओं तक सीमित नहीं है। हमारी अर्थव्यवस्था के बहुत बड़े हिस्से पर उसका परोक्ष कब्जा हो गया है। लगभग 26 फीसदी औद्योगिक उत्पादन अब चीन से आयातित इनपुट या उत्पादों पर निर्भर है, यानी उसकी मुट्ठी में है। यह हैरतअंगेज निष्कर्ष राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार [एनएसए] का है। एनएसए सचिवालय ने चीन पर हाल में सरकारी विभागों को एक रिपोर्ट दी है।

इसके अनुसार चीन ने कई संवेदनशील क्षेत्रों में हमारी आत्मनिर्भरता पर दांत गड़ा दिए हैं। बिजली, दवा, दूरसंचार और सूचना तकनीक के क्षेत्रों में उसका दखल अब खतरनाक स्तर तक पहुंच गया है। इस रिपोर्ट के बाद विदेश मंत्रालय और आर्थिक मंत्रालयों में हड़कंप मचा हुआ है।

करीब आठ पेज की यह गोपनीय रिपोर्ट बेहद सनसनीखेज है। एनएसए ने इस साल मार्च में योजना आयोग और अगस्त में आर्थिक मंत्रालयों के साथ बैठक की थी। इसके बाद यह रिपोर्ट तैयार की गई है। रिपोर्ट में बताया गया है कि चीन की नीयत और नीतियां साफ नहीं है। वह दूरसंचार और सूचना तकनीक के क्षेत्रों में अपने दखल का इस्तेमाल साइबर जासूसी के लिए कर सकता है।

इस रहस्योद्घाटन ने सरकार के हाथों से तोते उड़ा दिए हैं कि अगले पांच साल में चीन हमारे 75 फीसदी मैन्यूफैक्चरिंग उत्पादन को नियंत्रित करने लगेगा। इस समय देश मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र का करीब 26 फीसदी उत्पादन चीन से मिलने वाली आपूर्ति के भरोसे है। एक देश पर इतनी बड़ी निर्भरता अर्थव्यवस्था को गहरे खतरे की तरफ ले जा रही है। रिपोर्ट के मुताबिक तमाम तरह की सब्सिडी और मौद्रिक अवमूल्यन के चलते चीन हमारी तुलना में 40 फीसदी सस्ता उत्पादन करता है, जिससे भारत की औद्योगिक प्रतिस्पतर्धा बुरी तरह टूट रही है।

चीन के असर से भारत की आत्मनिर्भरता को खतरे के कई उदाहरण इस रिपोर्ट में दर्ज हैं। हमारे उद्योग बिजली बचाने वाले सीएफएल लैंप के प्रमुख कच्चे माल [फास्फोरस] के लिए चीन पर पूरी तरह निर्भर हैं। हाल में फास्फोरस की कीमत बढ़ाकर चीन ने यहां के सीएफएल उद्योग की चूलें हिला दीं। स्टील और इसके उत्पादों में ही चीन की कीमतें यहां से 26 फीसदी कम हैं। हमारा दवा उद्योग भी कुछ बेहद जरूरी [फमर्ेंटेशन आधारित] कच्चे माल यानी और बल्क ड्रग के लिए पूरी तरह चीन के भरोसे है। घरेलू दवा उद्योग चीन से सस्ते आयात के चलते सालाना 2500 करोड़ रुपये का नुकसान उठा रहा है। कंपनियां चीन से आयातित पेनिसिलीन जी पर एंटी डंपिंग लगाने के लिए सरकार से गुहार लगा रही हैं।

राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार का निष्कर्ष है कि भारत में दूरसंचार उद्योग अपनी जरूरत के 50 फीसदी उपकरण आयात करता है, जिसमें चीन का हिस्सा 62 फीसदी है। बिजली परियोजनाओं के एक तिहाई ब्वॉयलर और टरबाइन जनरेटर चीन से आए हैं, जो भारत के मुकाबले 6 से 20 फीसदी सस्ते हैं। दूरसंचार और बिजली क्षेत्र में चीन के दखल को लेकर सुरक्षा चिंताएं चरम पर हैं। यही चिंता सूचना तनकीक उत्पादों को लेकर भी है, जिनका आयात का आकार 2020 तक पेट्रो आयात से ज्यादा हो जाएगा। चीन इन उत्पादों का दुनिया में सबसे बड़ा निर्यातक है, इसलिए भारत में प्रमुख सप्लायर है।



सिफ इतना ही नहीं तो आज हर तरफ हमारे बाज़ार चीनी माल से भरा पड़ा हे. 2001 तक चीन का भारत से व्यापार कोई खास नहीं था. भारत चीन को हर तरह से सुविधाएँ दे रहा हे. और 2010 तक भारत चीन व्यापार 62 अरब डालर का हो गया था, और 2011 ख़तम होते तक ये आंकड़ा 84 अरब डालर तक पहुँचाने वाला हे. इस व्यापार में दो हिस्से चीन के हे और एक हिस्सा भारत के, लेकिन इस में भी एक पेच हे. वो ये हे की हम जो बीस अरब डालर का माल चीन को देते हे वो कच्चा माल हे. इन बेश-कीमती खनिज पदार्थों में से भी साठ प्रतिशत तो कच्चा लोहा हे. अनुमान हे की यदि भारत इसी गति से लोह-अयस्क का निर्यात करेगा तो ये पचास साठ साल में बिलकुल ख़तम हो जायेगा. फिर जरूरत पूरी करने पर चीन से किस भाव खरीदेंगे, इसका नदाजा ही रोंगटे खड़े कर देता हे. दूसरा सामान जो चीन को हम भेजते हे वो कच्चा रबर हे. आज भारत दुनिया के तीन-चार बड़े रबर उत्पादक देशों में से एक हे. लेकिन त्रासदी ये हे की हम अपना रबर अनुदान देकर निर्यात करते हे. इस का नतीजा ये हे की चीन हमारा रबर सस्ते रूप में खरीदता हे. बस और ट्रक का टायर चीन इसी कारण भारत में 2000 से 3000 रुपये सस्ता बेचता हे. अब हालत ये की बड़ी-बड़ी भारतीय कम्पनिया भी चीन में कारखाना लगाने की सोच रहीं हैं . ऐसे ही वस्त्र उद्योग भी प्रभावित हो रहा हे. कपास भी बड़ी मात्र में चीन जा रही हे. फिक्की के सर्वे में आया हे की 74 पर्तिशत उद्यमियों को चीनी उत्पादों के कड़ा मुकाबला करना पड़ रहा हे. 62 फ़ीसदी उद्यमियों का मानना हे की चीन के सस्ते उद्पादों के कारण कभी भी उनको अपना कारखाना बंद करना पड़ सकता हे. यही हाल प्रिंटिंग या इंजिनीरिंग के उत्पादों का हे, और रसायनों का तो और भी बुरा हाल हे. आज की तारीख में 35 फ़ीसदी पवार प्लांट और टेलीफोन एक्सचेंज भी चीनी लग रहे हे. आर्थिक नुक्सान के साथ साथ एक बहुत बड़ा खतरा ये भी हे की टेलीफोन क्षेत्र में चीन का आना वैसे भी बड़ा संवेदनशील मुद्दा हे. चीन जब चाहे हमारे महत्वपूर्ण लोगो की बात जब चाहे टेप कर सकता हे, देश की सुरक्षा और गोपनीयता कहा बचेगी.चीन से बड़ी मात्र में हम मौसम जानने वाले संयंत्र आयात कर रहे हे. अब वो हमें मौसम का हाल बताएँगे, या यहाँ की गतिविधियों के चित्र अपने देश में पहुचाएंगे.



आज दुनिया में तकनीक समृद्ध करने की होड़ लगी हे. हमारे यहाँ बताते हे की अभी टेलकम में प्रथम जेनेरशन टेक्नोलोगी ही विकसित हुई, और दूसरी पीड़ी की टेलेकाम टेक्नोलोजी ही यहाँ विकसित नहीं हुई. और तीसरी की तो दूर दूर तक सोची नहीं. चीन, आपकी जानकारी के लिए, चौथी पीड़ी की टेक्नोलोजी विकसित करने में अमरीका से भी आगे बढ़ने की कोशिश में हे. अगर हम आपनी चीजो का उपयोग नहीं करेंगे, अपने यहाँ उत्पादन नहीं करेंगे तो हमेशा के लिए पिछड़ जायेंगे. कच्चा माल ही चीन को देकर खुश होंगे और तेयार माल कई गुना कीमत चुका कर लेते रहेंगे तो हालत बहुत बुरी होगी. ये नीति तो ईस्ट इंडिया कंपनी हमारे साथ आजादी से पहले करती थी. कहाँ तो हम अमरीकी और यूरोप के आर्थिक जाल से बचने की कोशिश कर रहे थे, और कहाँ एक नया फन्दा चीन का और पड़ गया. इसी बात से अनुमान लगा लीजिये की आर्थिक गुलामी चीन से कितनी हे. बच्चो के खिलोनो से लेकर टेक्सन के केलकुलेटर चीनी हे. दिवाली के पटाखों से लेकर 'लिनोवा' के कम्प्यूटर भी चीनी हे. मंदिर पर जगमगाने वाली बिजली की लड़ियों से लेकर पूजा में रखी गयी लक्ष्मी और गणेश जी की मूर्तियाँ भी चीनी हे. मोटा अनुमान हे की हर साल हम 40-50 हजार करोड़ रुपये का आर्थिक सहयोग मुनाफे के रूप में चीन का कर रहे हे. शत्रु देश का आर्थिक सशक्तीकरण करना अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारना ही होता हे. . कुछ समय पहले ही चीन ने जापान को दुनिया की दुसरे नंबर की सर्व-श्रेष्ट अमीर अर्थवयवस्था के स्थान से हटा कर अपना कब्ज़ा जमाया हे. वैसे भी चीन के सामान नुकसानदेह हे. चीनी दूध के उत्पाद दुनिया भर में प्रतिबन्ध का विषय बने हैं क्योंकि उनमे एक मेलामाइन नामक नुक्सानदेह औद्योगिक रसायन हे. खिलोनो के रंगों में भी घातक रसायन बच्चों के लिए खतरनाक हे. सस्ते जरूर होते हे चीनी सामान लेकिन इतनी जल्दी खराब होते हे की पूछिए नहीं. इस लिए लम्बे वक्त में कुल मिला कर चीनी उत्पाद महंगे ही पड़ते हे. बेशक ये एक चुटकला होगो पर चीनी वस्तुयों की हकीकत दर्शाता हे. एक लड़के ने किसी चीन की लडकी से शादी की और पांच-छे महीने बाद ही वो लड़की मर गयी. अफ़सोस करने वालों में से एक ने उसे यूँ धाडस दिलाया: भले मानस क्यों रोता हे, पांच छे महीने तो निकाल ही गयी आपकी चीनी पत्नी. ये क्या कम हे. और चीनी माल वैसे चलता ही कितनी देर हे," ऐसे में फिर क्यों खरीदना ऐसा चीनी सामान को. क्योंकी इससे सेहत का भी नुक्सान, जेब का भी नुक्सान और वातावरण का भी नुक्सान.





दूसरा शूल - चीन से पर्यावरण को खतरा: तिब्बत कभी दुनिया के सबसे पर्यावरण की दृष्टि से साफ़-सुथरे स्थानों में से एक था. लेकिन तिब्बत को हडपने के बाद उसने तिब्बत को न केवल सैनिक अड्डे बल्कि आणविक कचरादान के रूप में तब्दील कर दिया हे. ऐसा करने के लिए तिब्बत के घने जंगलो को उसने काटना शुरू कर दिया हे. तकरीबन 2.5 मिलियन वर्ग किलोमीटर में फ़ैली चीन के हरयाली और खूबसूरती को तहस-नहस कर दिया हे. यहाँ से निकलने वाली दस नदियाँ भारत ही नहीं बल्कि नेपाल, बंगलादेश, भूटान, पकिस्तान, थाईलैंड, बर्मा, विएतनाम, लोस और कम्बोडिया जैसे अन्य ग्यारह देशों का मेरुदंड हैं. ये न केवल उन देशों की पानी की जरूरत पूरी करती हे बल्कि उपजाऊ मिटटी भी इनके बहाव के साथ मिलकर इन देशों की फसल को उपजाऊ बनती हे. मोटे तौर पर इन नदिओं के तटों पर विश्व के करीब आधी आबादी बसती हे.( भारत-नीति प्रतिष्ठान ,'चीनी- विस्तारवाद' पेज 17.)



लेकिन पिछले चार दशकों से इन देशों का मौसम चीन के कारण से बुरी तरह प्रभावित हुआ हे. अगर चीन के द्वारा सैनिक समीकरण के नाम पर तिब्बत की पहाड़ों पर बड़े-बड़े डैम बनाये जाते तो प्रत्यक्ष नुक्सान तो भारत को होगा, पर चीखे गी दुनिया भी. लेकिन इससे भी खराब बात हे के तिब्बत के एक हिस्से को आणविक अवशेष में तब्दील कर दिया गया हे. इससे ये परमाणु का कचरा मुहाने के भारतीय खेत खलिहानों और लोगों के घरों तक पहुँच रहा हे. यहाँ ये बात बताने की हे के कभी दलाई लामा ने विश्व शांति के लिए इस क्षेत्र को 'आणविक-मुक्त क्षेत्र' घोषित करने की बात 1980 के दशक में कही थी. वैसे भी चीन दुनिया के सबसे प्रदूषण फैलाने वाले देशों में अग्रणी हे. दुनिया का पांचवा हिस्सा परदुषण यानी 21 अकेला चीन ही फैला रहा हे. विश्व की सर्वाधिक प्रदुशंकारी ग्रीन हाउस गसों का उत्सर्जन चीन ही कर रहा हे. दुनिया में इस बात की काफी चर्चा हे, और चीन की प्रोद्योगिकी इतनी प्रदुषण पैदा करने वाली हे. ये बाते लोगों के जेहन में बिठाई जाती हे तो चीन देश द्वारा बनाई चीज़ों का बहिष्कार लोग सरलता से कर देंगे.परन्तु साथ में भारत सरकार की एक और बहुत बड़ी गलती ही नहीं बल्की पाप का जिक्र हम करना चाहेंगे. अभी दो साल पहले पर्यावरण पर संपन्न कोपेंगेहन वार्ता में cheen का साथ उस समाया दिया jab वह अंतर-राष्ट्रीय jagat mein kopbhaajan ban raha tha.

Thursday, September 1, 2011

Rashtrya Vichar Varg Kolkata


14-15-16 July 2011

Rashtrya vichar varg was inaugurated by Prof. Radhika Ranjan Pramanick, Ex. M.P. at Binani Dharamashala in Kolkata on 14th July at 11.00 a.m.. Dr. D.R. Agarwal, Director, Swadeshi Research Institute welcomed the participants. Dr. Ashwani Mahajan, Akhil Bharatiya Vichar Mandal Pramukh, addressed the participants on progress so far made by SJM since its inception in 1991-92. Sh. Pramanik urged the participants to have faith on India’s culture traditions. Sh. Saroj Mitra senior leader and National co-convener SJM stressed the impotence of collective thinking in such a programme. The technical session started at 12.00 p.m. taken by D.R. Agarwal on present economic scenario. Dr. Ashwani Mahajan dealt with alternate economic model for development in the 3rd session. On land acquisition and food security Col. Sabya Sachi Bagchi, Chairman, West Bengal Small Industrial Development Corporation addressed the participants from 6.00-8.00 p.m. group discussion were being held on the direction of Sh. Kashmiri Lal, National Organizing Secretary, SJM.

On 15th July 2011 Sh. M.M. Mishra, Secretary, Bharatiya Kisan Sangh, Spoke on seed bill. On Black Money, Corruption and Lokpal Bill, Sh. Nand Lal Shah, Sh. Dinesh Bajpai, Ex. Police Commissioner expressed their views. Dr. Bhagwati Prakash Sharma and Sh. R.K. Vyas, C.A., where the speakers On issues related to WTO and Free Trade Agreements,. Dr. Bhagwati Prakash Sharma also spoke on FDI in retail trade and China posing dangers to India. The seminar on Ganga and River was addressed by Prof. U.K. Choudhary, Dr. K.K. Sharma and Sh. P.R. Goenka, National Treasurer Ganga River. Group Discussions as usual started from 6.00-8.00 p.m. led by Anada Charan Panigrahi, Zonal Convener and Sh. Dinesh Mandal, Zonal Co-convener, assisted by Bande Shankar, Co-convener, Jharkhand and Sh. Vinod Singh, Co-convener, Bihar. On 16th July 2011 Sh. Arun Ojha, National Convener, SJM and Sh. J.K. Jethalia (BJP), spoke on integral humanism. On green energy, Climate Change and Nuclear Power Sh. Manoj Singh, Sh. Basistha Sengupta, Prof. Dhurjat Mukherjee Spoke.

Finally in the concluding session Sh. Arun Ojha, Sh. Saroj Mitra, Dr. Ashwani Mahajan and Dr. D.R. Agarwal addressed the participants.

The total number of participants in the Vichar Varga was 150 who came from Orissa, Jharkhand, Bihar and West Bengal. The number of lady participants was 8 whom Smt. Renu Puranik, convener, Mahila Manch addressed along with Smt. Shanti Lata Sahu of Orissa.

Wednesday, August 24, 2011

शहीद राजगुरु: चार महत्वपूरण तथ्य उनके जीवन के बारें में


राजगुरु शहीद का आज जन्मदिन हे - चार महत्वपूर्ण तथ्य
by Kashmiri Lal on Wednesday, 24 August 2011 at 14:52

राजगुरू का संक्षिप्त जीवन परिचय

1 . शहीद राजगुरू का पूरा नाम शिवराम हरि राजगुरू था. राजगुरू का जन्म 24 अगस्त 1908 को पुणे ज़िले के खेड़ गाँव में हुआ था आजकल उसका नाम राजगुरु नगर रखा गया हे. उनके पिता का नाम श्री हरि नारायण और उनकी माता का नाम पार्वती बाई था.

अपने जीवन के शुरुआती दिनों से ही राजगुरू का रुझान क्रांतिकारी गतिविधियों की तरफ होने लगा था.

राजगुरू ने 19 दिसंबरए 1928 को भगत सिंह के साथ मिलकर लाहौर में सहायक पुलिस अधीक्षक पद पर नियुक्त अंग्रेज़ अधिकारी जेपी सांडर्स को गोली मारी थी.इन क्रांतिकारियों ने कबूला था कि वे पंजाब में आज़ादी की लड़ाई के एक बड़े नायक लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेना चाहते थे.एक प्रदर्शन के दौरान पुलिस की बर्बर पिटाई में लाला लाजपत राय की मौत हो गई थी.

राजगुरू ने 28 सितंबरए 1929 को एक गवर्नर को मारने की कोशिश की थी जिसके अगले दिन उन्हें पुणे से गिरफ़्तार कर लिया गयाण्

उन पर लाहौर षड़यंत्र मामले में शामिल होने का मुक़दमा भी चलाया गया.

राजगुरू को भी 23 मार्चए 1931 की शाम सात बजे लाहौर के केंद्रीय कारागार में उनके दोस्तों भगत सिंह और सुखदेव के साथ फ़ाँसी पर लटका दिया गया.इतिहासकार बताते हैं कि फाँसी को लेकर जनता में बढ़ते रोष को ध्यान में रखते हुए अंग्रेज़ अधिकारियों ने तीनों क्रांतिकारियों के शवों का अंतिम संस्कार फ़िरोज़पुर ज़िले के हुसैनीवाला में कर दिया था. इतनी बात तो आम लोग राजगुरु के बारे में जानते हे, ऐसा मुझे लगता हे.



2 . महाराष्ट्र से पंजाब कैसे गया: वे अपनी शिक्षा के लिए बनारस गए और संस्कृत BHASH में प्रवीणता प्राप्त की. इतना ही नहीं तो वहां रह कर वे तीर-कमान, कुश्ती, निशानेबाजी में भी अव्वल रहे. ये चीजे उनको क्रांतिकारी जीवन में बहुत काम आयी. 1919 में तेरह अप्रैल को जलियांवाला बाग़ के हत्याकांड के समाया उनकी की घटना का उनके बाल मन पर बहुत असर हुआ और वे गणेश (बाबाराव) सावरकर जी के संपर्क में ए और वहीँ से क्रांतिकारियों के संगठन में जुड़ गए.



3 . कुछ लोगो का दुःख के भगत सिंह तो लोकप्रिय हो गए लेकिन राजगुरु को कोई नहीं जनता: भगत सिंहए राजगुरु और सुखदेव को एक साथ फांसी दी गई थी.भारतीय स्वाधीनता संग्राम में तीन नाम अक्सर एक साथ लिए जाते हैं भगत सिंहए राजगुरु और सुखदेव लेकिन इतिहास में सुखदेव और राजगुरु को शायद वो स्थान नहीं मिल सका जो भगत सिंह को हासिल है.

यही कारण है कि साल 2008 में जहां भगत सिंह की जन्म शताब्दी पूरे देश में धूमधाम से मनाई गई वहीं यह साल राजगुरु की जन्म सदी का है लेकिन सिर्फ उनके गांव को छोड़ कर कहीं भी कोई समारोह शायद ही हुआ हो.

भगत सिंह पूरे क्रांतिकारी आंदोलन के एक तरह से दिशा निर्धारक थे जबकि राजगुरू की भूमिका समझिए एक शूटर की थी जो सबसे कठिन काम करने की कोशिश करता हो. शायद यही कारण था कि उन पर लोगों का ध्यान नहीं गयाराजगुरु की जन्म सदी के अवसर पर सरकारी या गैर सरकारी स्तर पर समारोह भले ही न हुए हों लेकिन उन पर एक किताब प्रकाशित हो रही है जिसके लेखक हैं अनिल वर्मा.

दिलचस्पी कैसे हुई

अनिल वर्मा पेशे से न्यायाधीश हैं और मध्य प्रदेश में कार्यरत हैं. लेकिन राजगुरु में उनकी दिलचस्पी कैसे हुई?

वर्मा कहते हैं खेल के मुद्दों पर लिखता था लेकिन मेरे पिताजी चंद्रशेखर आज़ाद के साथ स्वतंत्रता सेनानी रहे थे इसलिए मेरी रुचि थी. मुझे कई बार लगता था कि राजगुरु के बारे में लोगों की जानकारी कम है इसलिए मैंने सोचा क्यों न उनके बारे में लिखा जाए.

अनिल इस तथ्य से इंकार नहीं करते कि राजगुरु को भगत सिंह की तरह स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में ऊंचा दर्जा हासिल नहीं हुआ लेकिन वो कहते हैं कि धीरे धीरे लोगों को राजगुरू के बारे में अधिक जानकारी मिलेगी. पुस्तक के लिए अपने शोध के कारण अनिल राजगुरू के पैतृक गांव महाराष्ट्र के खैरवाड़ी भी गए जहां उन्हें राजगुरु के बचपन की जानकारियां मिलीं.

एक बार आगरा में चंद्रशेखर आज़ाद पुलिसिया जुल्म के बारे में बता रहे थे तो राजगुरु ने गर्म लोहे से अपने शरीर पर निशान बना कर देखने की कोशिश की कि वो पुलिस का जुल्म झेल पाएंगे या नहीं. देशभक्त के रुप में राजगुरु को भी कठिन परीक्षा देनी पड़ी.केवल 16 साल की उम्र में ही राजगुरु ने घर छोड़ दिया था क्योंकि उनके भाई अंग्रेज सरकार के मुलाज़िम थे औव जब राजगुरु को फांसी हुई तब भी उनके भाई अंग्रेज़ सरकार के नौकर बने रहे.

वर्मा बताते हैं कि इस अंतर्द्वंद्व के बावजूद राजगुरु की देशभक्ति में कोई कमी नहीं आई और वो हमेशा से बलिदान के लिए सबसे आगे रहते.इस समय राजगुरु के एकमात्र भतीजे जीवित हैं लेकिन उनके परिवार के लोगों को भी लगता है कि राजगुरु की उपेक्षा हुई है.

अब उनकी जन्म शती के अवसर पर भारत सरकार का प्रकाशन विभाग उन पर संभवत पहली किताब ; हिंदी और अंग्रेज़ी में प्रकाशित कर रहा है.वर्मा इस तथ्य से आशान्वित दिखते हैं और कहते हैं कि देर से ही सही लेकिन राजगुरु की सुध तो ली गई है और आने वाले समय में राजगुरु के बारे में लोग और अधिक जानना चाहेंगे.

4 . राजगुरु पर एक फिल्म भी बनी हे, आयो जरा निर्माता से मिले: मूलत आंध्र प्रदेश के रहने वाले अशोक कामले जब महाराष्ट्र के इस सपूत के जीवन पर फिल्म बनाने निकले और रिसर्च के दौरान पुणे के निकट खेड पहुंचे तो पाया कि इस क्रांतिकारी के गांव का नाम बदल कर राजगुरु नगर जरूर कर दिया गया है लेकिन राजगुरु का पैतृक निवास खंडहर बन चुका है। और तो औरएगांव के किसी नौजवान को राजगुरु के बारे में कुछ भी पता नहीं है। सालों की मेहनत के बाद अशोक कामले ने राजगुरु के बलिदान पर बनी अपनी फिल्म पूरी कर ली है।



उन्होंने बताया कि महाराष्ट्र सरकार ने पिछले साल बड़े जोरशोर से घोषणा की थी कि राजगुरु के गांव को ऐतिहासिक स्थल बनाया जाएगा ताकि भारत माता के इस महान सपूत की कुर्बानी के बारे में नई पीढ़ी को पता चले, मगर अफसोस कि सरकार की योजना कागज पर ही सिमट कर रह गई। देशभक्ति से ओतप्रोत राजगुरु के बारे में बहुत कम साहित्य उपलब्ध है और लाइब्रेरी में भी राजगुरु की ले.देकर बस एक ही तस्वीर मिलती है।



चार साल की रिसर्च के बाद बनी फिल्म श्में शहीद राजगुरु की भूमिका निभाई है एनएसडी के स्नातक चिन्मय मांडलेकर ने। उन्होंने अनेक किताबें पढ़ीं और राजगुरु से जुड़े काफी तथ्य इकट्ठा किएए फिर कैमरे के सामने गए। संगीत कृष्णमोहन का है तथा गीत लिखे हैं नीला सत्यनारायण एवं सलीम बिजनौरी ने। अशोक कामले के अनुसार स्वराज: दी इन्दिपेंदेंस (Swaraj : The Independence ) वीर शहीदों के कारण आज हम आजाद हवाओं में सांस ले रहे हैं उनके बारे में देश की युवा पीढ़ी को शिक्षित करना हम सबका कर्तव्य है।



Monday, August 1, 2011

राजस्थान प्रान्त का विचार वर्ग - अन्य प्रान्तों के लिए प्रेरणा


राजस्थान प्रान्त का विचार वर्ग - अन्य प्रान्तों के लिए प्रेरणा
by
Kashmiri Lal on Monday, 01 August 2011 at 23:08
इस 30 - 31 जुलाई 2011 को राजस्थान के एक एतिहासिक एवं सुंदर नगर जोधपुर में स्वदेशी जागरण मंच के इस प्रान्त का विचार वर्ग सम्पन्न हुआ. मुझे पूरा समय रहने का मौका मिला और लगभग सभी सत्रों में रहने का मौका मिला. ये बताने से पहले की मुझे यहाँ क्या क्या अच्छा लगा, ये बताना बेहतर होगा की यहाँ क्या क्या मुख्य रूप से हुआ. आयो संक्षेप में देखें:
१. उद्घाटन सत्र में प्रसिद्ध समाजसेवी श्री दमदार लाल बंग का अध्यक्षीय भाषण हुआ. मुझे मुख्या वक्ता के नाते बोलना पढ़ा और नए अमरीकी आर्थिक संकट, खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश का नया पंगा, भू-अधिग्रहण,नदियों, विशेषकर गंगा माता का संकट, कृषि क्षेत्र में बी.टी. से लेकर मोंसंतो के नए षड्यंत्र और चीन की चुनातियो जैसे कई विषयों जिन पर हम यहाँ चर्चा करने वाले थेउनका भूमिका रखी. अभी जो चीन डके विशे को लेकर पूरे राजस्थान में सभ समविचारी संघटनो की और से स्वदेशी जागरण मंच के तत्त्वाधान में जो सितम्बर- अक्टूबर में जो पखवाड़ा मनाया जाने वाला हे - मेरे हिसाब से अपने मंच के लिए आगे कार्यविस्तार के लिए बहुत ही बढ़ा अवसर हे. हमें आगो दो दिनों में उस सु-अवसर के लिए अपनी मानसिकता बनानी हे. श्री दामोदर लाल बंग ने गंगा के विषय को चुया और कहा की अगर गंगा समाप्त होती हे तो भारत का बहुत बढ़ा नुक्सान होने वाला हे, और राजस्थान में भी गंगास्वरूपी की नदियों की बहुत ही बुरी हालत हे. स्वदेशी जागरण मंच की भूमिका बहुत बरी होने वाली हे - ऐसा उन्होंने आह्वान किया. मंच पर बीकानेर के एम्.एल.ए श्री देवी सिंह भाती भी पूरे समाया रहे.

दूसरा सत्र श्री अश्वनी महाजन, राष्ट्रीय विचार मंडल प्रमुख, ने खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश के विषय पर विस्तार से हर पक्ष लिया. सरकार के उन तर्कों को बुरी तरह छलनी किया जिनमे विदेशी निवेश के आने से रोजगार में वृद्धि का छलावा किया गया हे और दूसरा की इससे कीमते कम होंगी, ऐसा तर्क दिया जा रहा हे. उन्होंने उन गार्डियन नामक अखबार के सर्वे को अबके सामने रखा की जहाँ शुरू में वाल-मार्ट कीमते कम करता हे, एक बार जम जाने के बाद और दूसरी छोटी दूकानों को मैदान से बाहर करने के बाद कीमते ४० प्रतिशत तक बढ़ जाती हे. सरकार के इस रोने-धोने का भी खुलासा किया के कैसे विदेशी प्रत्यक्ष निवेश से भंडारण की कमी को नापा जा सकता हे. उन्होंने चुटकी ली की इस पर कुल खर्च ही सात हजार करोड़ से कम आने वाला हे, और जो प्रधान मंत्री एक लाख सत्र हजार करोर के २ गी स्पेक्ट्रम घोटाले को चुप-चाप होने दे सकता हे, केवल ७ हजार करोरे पर हाथ खरे कर दे- बहुत शर्मिंदगी की बात हे. श्री मोंटेक सिंह अहलुवालिया और उनकी पत्नी जिस इक्रिएर नामक संस्था चलाती हे, उस पर चटकारे लेते हुए कई फब्तिय कसी. इक्रेअर संश्था की रिपोर्ट अधूरी हे, झूठी हे, प्रायोजित हे और उसको आधार बना कर हर बार विदेशो निवेश को ठीक साबित करने की साजिश देश के लिए एक षड़यंत्र हे जिससे करोरो खुदरा-व्यापारिओं के सवा-रोजगार को नष्ट करने का इरादा हे, और इसे हर हालत में नेस्तो-नाबूद करना चाहिए. खासतौर पर इस नयी मंत्री-स्तरीय बैठक की रिपोर्ट जिसके पीछे कथित अर्थशाष्त्री और प्रधान मंत्री के आर्थिक सलाहकार श्री बासु द्वारा खुदरा व्यापार में 51 प्रतिशत विदेशी निवेश का सुझाव एक दम विरोध करने लायक हे, और स्वदेशी जागरण मंच इस का मुंह-तोढ़ जवाब देगा, अन्य संगठनों के साथ मिलकर - ऐसा उन्होंने कहा. कार्यक्रम का सञ्चालन करते हुए श्री संदीप काबरा ने कहा की राजस्थान का इस शेत्र का खुदरा व्यापारी तो पूरे देश में गया हे, इस लिए हमारे लिए तो ये बहुत ही महत्त्व का विषय हे.

तीसरे सत्र का विषय था भू-अधिग्रहण की चुनोतियाँ: और तीन व्यक्तियों के उद्बोधन के साथ मुझे मुख वक्ता के नाते बोलने का अवसर दिया गया. सबसे पहले तो बाड़मेर के जिले संयोजक श्री राजेंद्र सिंह भीमाड़ ने बताया के कैसे बध्मेर की सीमा पर भ-अधिग्रहण का यद्यंत्र चलाया गया और स्वदेशी जागरण मंच ने इसके खिलाफ बीड़ा उठाया और इसको रुकवाया. बीकानेर के वरिष्ट कार्यकर्त्ता श्री धर्म प्रकाश ने इस विषय की सांगोपांग व्याख्या की, और इसके महत्त्व को दर्शाया. मैंने बताया की वैसे तो कई ग्रामों में ऐसे बदमाश पैदा हो गए हे जो जबरदस्ती लोगो की जमीन पर कब्ज़ा कर के छोटा-मोटा मुआवजा देकर लोगो को चलता करते हे, लोग दर के मारे कुछ बोलते नहीं. लेकिन दुर्भाग्य हे की राष्ट्रीय स्तर पर ये काम केंद्रीय सरकार कर रही हे और प्रदेश स्तर पर प्रदेश सरकारे. लगभग हर रंग-रूप की सरकारे इस में शामिल हे, बस अंतर केवल इतना हे की अपने प्रदेश में वे जबरदस्ती भूमि अधिग्रहण करती हे और दूसरी पार्टी के राज्य में इसका जमकर विरोध करती हे. एक जगह नायक बनाती हे, दूसरी जगह खलनायक. और इससे मुद्दे को श्रेया दिया जाता हे जिसने सिंगूर और नंदीगाम के कारण वहां की पुरानी जमी सरकार को उखड फेंका. वास्तव में ये विकास और भूमि स्वामित्व की लढ़ाई नहीं, जैसा की प्रचारित किया जाता हे, बल्कि ये तो बरी कंपनियो के स्वामित्व और आम आदमी के भूमि पर स्वामित्व की लढ़ाई हे. जरा आँकरो को देखो तो जिन भी देशो में आदमी जियादा जमीन कम, वे सबका बाहर से आने वालों का स्वागत तो करते हे लेकिन जमीन नहीं खरीदने देते. भारत में दुनिया की 18% आबादी हे लेकिन केवल दो % ही जमीन हे, और दुनिया के 15 % पशु धन भी भारत एं हे, जिनका भरण पोषण इस्सी भूमि से होना हे, तो अगर विदेशियों के द्वारा अंधाधुन्द भूमि=अधिग्रहण होगा तो कैसे चलेगा. सरकारी अन्करे के मुताबिक १९८०-२००६ के बीच 2 .42 लाख हेक्टर अति उपजाऊ भूमि घटी हे. दूसरी और जो १८९४ का एक सो सतरा (११७)साल पुराना अंग्रेजो का नियम भूमि अधिग्रहण के माक्ले में आज भी लागू होता हे. 2007 के जिस बिल के द्वारा इसमें सुधार करना था, वो तो वास्तव में इससमे कंपनियों की भूमिका को और बढ़ाने वाला था, इस लिए उस का डटकर विरोध सर्व-दूर हुआ और अब उसकी जगह नया बिल लाने का प्रावधान हे. कार्यक्रम की अध्यक्षता करने वाले सात बार विधायक रहे श्री देवी सिंह भाटी ने अपने क्षेत्र में कई भू-अधिग्रहण योजनायों का पर्दाफाश किया. गोचर की भूमि जो किसी ने दान दी, सरकार ने उसको ही अधिग्रहित कर वहां एक विधायक का पेट्रोल पम्प खोल कर घिनोना कार्य किया. राजस्थान और बहार जहाँ भी स्वदेशी मंच बुलाएगा, इस काम के लिए वे समर्पित हो कर मंच के साथ जुड़े गे ऐसी घोषणा का तालियों से स्वागत हुआ.

इस समय देश में कमसे कम बीस जगह विशाल प्रदर्शन इस मामले में चल रहे हे: ओडिशा में चार, यानी पोस्को, वेदान्त विश्व-विद्यालय पूरी, लंजिगढ़ का स्तेर्लिते इन्दुस्ट्री, और कलिंगनगर का टाटा का स्टील प्लांट. पश्चमी बंगाल में दो जगह अभी भी आग सुलग रही हे, सिंगूर और नंदीग्राम में क्योंकि जमीन अभी किसानो को नहीं मिली हे. महाराष्ट्र के चार उदहारण प्रसिद्ध हे: एनरन , रेलिंस सेज नवी मुंबई, जनतापुर का अतोमिक रेअक्टोर और कई जगह पर पावर प्रोजेक्ट के नाम पर भूमि अधिग्रहण का विरोध हो रहा हे. गुजरात में सनद का मामल तो शांत सा लगता हे, लेकिन निरमा द्वारा सीमेंट कंपनी के लिए जल-स्त्रोत का भू अधिग्रहण बहुत उग्र हे. उत्तर प्रदेश में भत्ता पारसोल और यमुना एक्सप्रेस है-वे के अतिरिक्त दादरी (नॉएडा) का रेलिअंस कमपनी के पावर प्रोजेक्ट का विरोध जे मशहूर हे. गोवा में सेज के 19 भू-अधिग्रहण के मामलो के खिलाफ समाज लामबद्ध हे. झारखण्ड में अरेलेर मित्तल के स्टील प्लांट का खूंटी और गुमला में ग्यारह हज़ार एकढ़ का मामला भी जोरो पर हे. इसी प्रकार हिमाचल प्रदेश में कुल्लू में सकी-विल्लेज और ऊना के सेज का मामला भी हे. सुदूर केरला का प्लाचीमाडा और कर्नाटक का मंगलूर सेज का मामला भी शांत नहीं हुआ. इन १८ में से आठ स्थानों पर स्वदेशी जागरण मंच अति सक्रिय हे या आन्दोलन को कहीं वो ही चला रहा हे. ऐसे में प्लाचीमाडा, हिमाचल के दोनों मामले, एनरोन का पूरा मामला, मंगलोर सेज का दूसरा फेज, वेदान्त विश्वविद्यालय, और शुरू में पोस्को, और राजस्थान का मामले, इनमें मंच की भूमिका सबका धियान खींचती हे. मंच ने रायपुर की बैठक में एक प्रस्ताव भी इस निमित पास कर कई सुझाव बी दिया और लगता हे की इस नया प्रावधान में, जो की गत सप्ताह ग्राम विकास मंत्रालय ने दिया उनका कुछ समावेश भी हो रहा हे. केंद्रीय स्तर पर स्वदेशी ने एक कमिटी बना कर प्रान्त प्रान्त में इस विषय के आर.टी.आई भी डाली के और ऐसे सभी संगठनो के जंतर-मंतर दिल्ली में इकठे करने का भी विचार चल रहा हे.
एक महत्त्व पूर्ण सत्र श्री मुरलीधर, भाजपा के राष्ट्रीय मंत्री एवं स्वदेशी नेता ने लिया और स्वदेश की इस समय की प्रमुख आर्थिक चुनोतियों का वर्णन किया .जिस देश को दुनिया का नेत्रित्व करना हो उसके पास सर्वाधिक महत्वपूर्ण निर्माण की तकनीक होनी चाहिए, उदहारण के लिए अभी मोबाइल की ही बात हे. दूसरी बात विकेंद्रीकरण की नीतियां हे जिस के सहारे समाज जिन्दा हे और भूमंदिलिकरण की प्रक्रिया उस का केन्द्रीयकरण करना कर के भारत की आत्मा नष्ट करना चाहती ही. मंदिर हमारी इस समाज-आधारित व्यवस्ता का अंग हे. गौ माता हमारी विकेन्द्रित वयस्था का प्राण हे और गोचर बूमी जिस प्रकार से समाप्त की जा रही हे उसके लिए भी जाना-आन्दोलन चलने परेगे. समाज के अंतिम व्यक्ति को ऊँचा उठाना देश को उठाना मानकर अन्तोदय की व्यवस्था खरी करनी होगी. विश्व व्यापार संगठन मृत-प्राय लग रहा हे, लेकिन दुसरे-दुसरे रूप लेकर यथा मुक्त व्यापार समझोते उसी का दूसरा वीभत्स रूप हे. उन्होंने अपनी बात की शुरुआत एक कथा से की जिसमे एक राजा के पास एक फ्रौड़ विदेशी व्यापारी ऐसा कपर तेयार करने की बात करता हे जिसे केवल साद-आत्मा के लोग ही देख सकें गे और पापी का तगमा न लगे कोई नंगे राजा को नंगा नहीं कह रहा था. जैसे भीर में एक बच्चा भोलेपन में चिल्लाया की राजानंगा हे, वैसे ही भूमंडली-करणके देश के नंगा करने के कू-प्रयासों को कोई बोलता नहीं स्वदेशी जागरण मंच के बच्चे ने निर्भीकता से जो बोला तो उस क्रम को आगे जारी रखना हे. इस कार्यक्रम की अध्यक्षता वहां के भाजपा सांसद श्री विश्नोई ने की.

चीन की चुनोतियों का विषय श्री भगवती प्रकाश जी प्रसिद्ध अर्थशास्त्री एवं मंच के राष्ट्रीय सह-संयोजक ने लिया. क्योंकि पूरे प्रान्त में इस विषय को गाँव-गाँव में लिया जाने वाला हे, इस लिए उनके भाषण की पर आधारित एक लघु-पुस्तिका लाखों की संख्या में वितरित करने की योजना हे. उनका पूरा भाषण का लघु रूप हम यहाँ नोट में एक दो दिन में छापे गे, इस लिए में कोई जियादा रूप यहाँ नहीं लिख रहा हूँ.इसी सत्र में श्री देवी सिंह भाति ने स्वेन घास का जो प्रकल्प उन्होंने प्रारंभ किया उसका वर्णन किया और बताया की पशु आहार का ये बीज जो बिलकुल लुप्त सा हो गया था, आज गाँव गाँव में प्रचारित हो रहा हे, और एक आन्दोलन का रूप लेता जा रहा हे. इसी एक साथ एक सत्र मीन मंच के प्रान्त सह संयोजक और इस कार्यक्रम के प्रमुख संयोजक डॉ. रणजीत सिंह ने आगामी चीन सम्बंधित अभियान के पखवाड़े का प्रारूप रखा और सभी के सुझाव सुनकर योजना बने. हर प्रखंड पर एक गोष्टी हो और हर घर में एक पत्रक जाएँ - ऐसी योजना का खुलासा किया. डॉ.राजकुमार चतुर्वेदी, भीलवाडा, और मंच के प्रान्त सह-संयोजक ने चीन की चोनोती सम्बन्धी विषय पर अपने सारगर्भित विचार रखे. प्रान्त संयोजक श्री भागीरथ चौधरी ने वर्तमान कृषि की दुरावस्था का चित्र खींचा और मंच के प्रयासों की जानकारी रखी. श्री अरुण शर्मा ने एक सत्र में जैविक खेती का विषय रखा. उन्होंने बताया की 78 % कीटनाशक अपने मानदंडो पर खरे नहीं उतारते और एन्डोसल्फान पर तेयार अपनी रिपोर्ट सरकार इस लिए प्रकाशित नहीं कर रही की उसके पास ४००० करोड़ का रखा स्टॉक कही बेकार न हो जाये, इस लिए लोगो की जान और कृषी को खतरा मंजूर कर रही हे.

कार्यक्रम की प्रमुख विशेषताएं: खैर अन्य विशेश्तायों के साथ अच्छी बात थी की सारे कार्यक्रम की रेकोरेडिंग की गयी और अब उसकी सीडी बना कर सबको दी जायेगी, ऐसा बताया. अगर ऐसा होता हे तो आगे कार्यकर्ताओं को इससे काफी लाभ होगा. दूसरी विशेषता ये लगी की जियादा विषय लेने की बजाय जो भी चार पांच प्रमुख विषय लिए गए, वो तसल्ली की साथ लिए गए. हर सत्र में कुछ न कुछ चर्चा भी हुई. तीसरी बात लगी के हाजरी हर सत्र में अच्छी रही और लोगो का पूरा ध्यान विषयों पर था. ऐसी ही कार्यक्रम के साथ चार छोटी लेकिनी कार्यकर्तायों के लिए उपयोगी पुस्तके भी दी गयी, जिनका छपवाना भी जोधपुर मंच ने ही किया था.
बस थोड़ी कमी लग रही थी तो ये की जो 64 कार्यकर्ता आये थे उनमें नए जितने आने चाहिए थे, शायद कम थे, 26 इनमे से जोधपुर व आसपास के, तीन उदयपुर से, पांच जालोर के, छे बाढ़मेर के, पांच बीकानेर के, तीन जयपुर, एक कोटा चार चितोर्गढ़ से, चार भीलवाडा से और दो फलौदी से, ऐसे ११ स्थानों से थे. शायद एक कारण वहां शिक्षकों की परीक्षा भी रही जो इसी दिन थी. हाँ, शायद स्वदेशी में आने के बाद ये मेरा पहला प्रान्त का ऐसा अभ्यास वर्ग था, बाकी जगह और और कार्यक्रम तो हुए लेकिन प्रांतीय अभ्यास वर्ग मैंने पहली बार देखा, इस लिए लगता हे की ये अन्य प्रान्तों के लिए भी प्रेरणा का विषय बन सकता हे. बाकी सुधार करने के लिए तो अच्छे व्यक्ति के पास हमेश ही