Thursday, June 30, 2011

Our kiranas deserve better, including a ministry of their own


Our kiranas deserve better, including a ministry of their own

R Vaidyanathan

http://www.dnaindia.com/mobile/report.php?n=1418024&p=0
Our kiranas deserve better, including a ministry of their own
R Vaidyanathan
August 3, 0:04 IST
Trade, with a GDP share of 15.1%, only slightly less than manufacturing at 15.6%, is an important segment of the economy.
More than 125 lakh kirana stores provide a source of livelihood to 16 crore people. Retail trade has grown faster than the economy: it registered a compounded annual growth rate (CAGR) of 9.4% between 2004-05 and 2008-09 when the Indian economy grew at 8.66%.
The retail trade comprises all kinds of people and formats — from street vendors to departmental stores of various types, shapes and characteristics.
More than 80% of trade is accounted for by partnership and proprietorship forms — often called the unorganised sector. The kirana shop adjacent to my home opens at 7am and closes at 10pm every day, 365 days of the year. It is very efficient, and one can order through a mobile. The owner knows the tastes and price preferences of our family, but his business is classified as “unorganised” by our experts and national income data.
The footfall in his shop cannot be measured using western models (since there is no place for anybody to set foot inside his shop), and so he is derided and ignored. It is like clubbing housewives along with prostitutes in our census data to show them as unproductive citizens.
These are economic constructs imposed by the west on the rest and it is a form of terminological terrorism which is mouthed ad nauseam by our economists and policy planners without understanding the implications. The retail trade suffers from two major handicaps. One is the non-availability of credit at reasonable rates from institutions; the other is the bribe one has to pay to the government babus to leave him in peace.
Nagamma has been a flower vendor for more than 20 years in my suburb of Bangalore. When she needs a loan, she participates in chit funds. Sometimes, she has lost big as the chit funds were run by crooks.
As a finance professor, I thought I should do some good in the world of practical finance and advised her to open an account with a commercial bank for saving her hard earned money and perhaps get a loan later.
The branch manager — a pleasant lady — was also acquainted with the flower vendor for many years, but the core banking software solution used by the bank will not recognise the Nagammas as customers. The bank’s “know your customer (KYC)” norms require proof of address, PAN cards, proof of date of birth — everything but her dog’s surname. She has no chance of getting this kind of KYC done.
Large companies get loan rates below the prime lending rate, but my vegetable vendor gets it at 0.5% per day. They have to return 50 paise at the end of the day for every Rs100 borrowed in the morning. This will work out to be more than 180% per annum.
My retail provision stores man gets his money in an interesting way. He gets Rs45,000 (for a loan amount of Rs50,000) upfront and pays Rs500 a day for 100 days to repay his full Rs50,000. It turns out to be more than 10% for three months. More than 70% of the working capital requirements of retail trade in 2009-2010 came from non-bank sources.
The other perennial problem faced by the “unorganised” retail trade is the “organised” dacoity by minions of the state. They need to bribe the cops, bribe the municipal authorities and other local goons. The cost can be as high as Rs20 on an income of Rs200 or so per day. That is 10% of gross income. The same is true of fruit seller, the fast-food idli joint or the beauty parlour.
Instead of looking at these two important constraints imposed on the fastest-growing and most productive and efficient retail trade, our planners want to open the field up for global sharks in the name of liberalisation. For anything and everything the policy-maker wants Indians to emulate the Japanese, the French, the Germans or the South Koreans.
All petroleum services and products, rice, tobacco, salt, alcoholic beverages and fresh food traded at public markets are excluded in Japan from any “distributional aspect” by foreign companies. The French simply restrict any development of hypermarkets to protect what they call “centres of French towns and villages and the livelihoods of small shopkeepers”.
Germany has legislative constraints on outlets above 1,200 sq m. This is despite trade constituting a relatively small portion of their economy both in terms of employment and value addition compared to India.
The paan-chewing, dhoti-clad, English-ignorant retail trader should not be seen as an inefficient entrepreneur who needs to be bleached by globally-accepted detergents. What he needs is a level playing field, in the full sense of the term, with access to affordable credit and the abolition of inspector raj in the form of harassment by various arms of the government. We are still a savings-based, family-oriented economy.
The sooner we have a ministry of retail trade to protect, preserve and enhance the capabilities of our kirana stores the better for the Indian economy.

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R.VAIDYANATHAN
PROFESSOR OF FINANCE
INDIAN INSTITUTE OF MANAGEMENT
BANNERGHATTA ROAD
BANGALORE
INDIA_560076
TEL: 91-80-2699-3086
FAX:91-80-2658-4050
E mail:vaidya@iimb.ernet.in
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Friday, June 17, 2011

स्वदेशी जागरण मंच (स्वजाम) के सात सूत्र

स्वदेशी जागरण मंच (स्वजाम) के सात सूत्रस्वदेशी जागरण मंच (स्वजाम) के सात सूत्र

निम्न 7 सूत्रों को सप्ताह के नामों के साथ जोड़ा गया है। यह नामों के साथ जोड़ना केवल याद रखने के लिए ही है, चाहे तो अन्य माध्यमों से भी याद किया जा सकता है। इन 7 सूत्रों में से जितनी भी बाते संभव हो, उतनी लागू करने का प्रयास करना चाहिए।

1. साहित्य - सोमवार (स्वदेशी पत्रिका)ः किसी भी व्यक्ति को स्वदेशी आंदोलन में प्रेरित करने के लिए स्वदेशी का साहित्य पढ़ना, पढ़ाना पहली आवश्यकता है। हमारे यहां पर 4 किस्म का साहित्य उपलब्ध है, और यह चारों प्रकारों को एक जगह पर पढ़ना हो तो स्वदेशी पत्रिका पर्याप्त है। चार प्रकार के साहित्य निम्न है-
क. प्राचीन साहित्यः इसमें चाणक्य के अर्थशास्त्र से लेकर गांधीजी, धर्मपाल जी, पं. दीन दयाल उपाध्याय, श्री गुरूजी, दत्तोपंत ठेंगड़ी आदि का साहित्य इस श्रेणी में आता है। इसके द्वारा हम भारतीय अर्थशास्त्र की मूल बातें ग्रहण कर सकते है। श्री एम.जी. बोकरे की पुस्तक ‘हिन्दू अर्थशास्त्र’ भी सारांश में उपर्युक्त साहित्य का दिग्दर्शन कराती है।
ख. वर्तमान लेखक यथा श्री गुरूमूर्ति, जितेन्द्र बजाज, गोविन्दाचार्य, डॉ. मुरली मनोहर जोशी आदि-आदि। इसके अतिरिक्त स्तंभ लेखक जो आर्थिक विषयों पर लिखते हैं जैसे देवेन्द्र शर्मा, वी. सतीश, पी. साईनाथ आदि। विदेशी लेखक जैसे जोजेफ स्टिग्लिट्ज (नोबेल विजेता), मार्टिन खोर आदि का साहित्य भी वर्तमान वैश्विकरण प्रक्रिया के घातक परिणाम समझाने के लिए पर्याप्त है।
ग. पत्र-पत्रिकाएं: स्वदेशी पत्रिका के अतिरिक्त भारतीय पक्ष, आजादी बचाओं आंदोलन, सुनीता नारायण की पत्रिका ‘इंडिया टुगेदर’ व वंदना शिवा की पत्रिका भी इन सब विषयों पर प्रकाश डालती है।
घ. वेबसाइट्स (अंतरताना): स्वदेशी जागरण मंच की अधिकृत वेबसाइट www.swadeshionline.in है। इसमें मंच की भूमिका समझने के लिए काफी सामग्री है। जो प्रश्न बार-बार पूछे जाते हैं, उनको भी थ्।फ शीर्षक तथा प्रमुख व्यक्तियों के अद्यतन लेख, ब्लाग आदि भी इसमें दिए गए है।
ड. साहित्य प्रमुख व पत्रिका प्रमुख विशेष रूप से इन कार्यों को देखते है। इनके साथ धीरे-धीरे एक सहयोगी टोली भी जोड़नी चाहिए।

2. मिलन - मंगलवार: क. दूसरा महत्त्वपूर्ण पक्ष है जिसे मंगलवार के नाम से स्मरण रखना है, कार्यकर्ताओं के आपसी मेलजोल की व्यवस्था करना। इसके लिए साप्ताहिक कार्यकर्ता बैठक व मासिक विचार मंडल अर्थात विचार गोष्ठी, सेमिनार आदि आवश्यक है। इन कार्यक्रमों में अनौपचारिकता, प्रश्नोत्तर व विचार विमर्श को पर्याप्त महत्व देना चाहिए। अच्छा होगा कि स्वदेशी पत्रिका के किसी विषय को आधार बनाकर परिचर्चा रखी जाएं ताकि सभी प्रमुख लोग उस विषय को पहले से पढ़कर आएं। वक्ता यथासंभव स्थानीय हो और उससे छोटी टोली में पहले विषय के बिंदुओं पर विचार विमर्श होना अच्छा रहता है। यदि विषय के 2-3 पक्षों को रखने के लिए अलग-अलग वक्ता हों तो और भी अच्छा रहता है। कार्यक्रम में परिचय, धन्यवाद, अध्यक्षता, सूत्रधार, मंच संचालन आदि दायित्व अलग-अलग लोगों में बांटने से अधिक लोगों की भागीदारी होती है।
ख. स्वजाम के कुछ कार्यक्रम होते ही हैं, जिनके द्वारा कार्यकर्ता का प्रशिक्षण होता है। जैसे 5 जून को पर्यावरण दिवस या 28 अगस्त या भाद्रपद शुक्ल दशमी को जोधपुर, खेजडली ग्राम की शहीद अमृता देवी बिश्नोई का बलिदान दिवस, मकर सक्रांति 14 अप्रेल, स्वदेशी सप्ताह जोकि 25 सितंबर दीन दयाल उपाध्याय जी की जयंती से 2 अक्टूबर महात्मा गांधी जयंती, पूज्य दत्तोपंत ठेंगड़ी जी का जन्मदिन 10 नवंबर, स्वजाम के प्रथम संयोजक डॉ. बोकरे का जन्म दिवस, मई 18, 1926, स्वदेशी दिवस अर्थात् बाबू गेनू का बलिदान दिवस 12 दिसंबर आदि कुछ महत्वपूर्ण तिथियां हैं। जनू-जूलाई मास के निकट राष्ट्रीय विचार वर्ग व नवंबर-दिसंबर में राष्ट्रीय सभा/सम्मेलन का आयोजन होता है। जिन्हें सब इकाईयों को मनाने का प्रयास करना चाहिए। इसके अतिरिक्त जिला व प्रांतीय सम्मेलन, जून-जुलाई मास में राष्ट्रीय विचार वर्ग एवं नवंबर-दिसंबर में राष्ट्रीय सभा/सम्मेलनों का आयोजन प्रतिवर्ष होता है। कार्यक्रम बनाते समय इन तिथियों का भी ध्यान रखना चाहिए। इसके अतिरिक्त जिला, प्रांतीय सम्मेलन करने चाहिए।
ग. जब कभी एक अंतराल के बाद कार्यकर्ता इकक्ठे हों तो इस बीच में उन्होंने जो कुछ स्वदेशी विचार संबंधी पढ़ा हो, सुना हो, अथवा समाचार पत्रों की ऐसी कतरने इक्कठी की हो - उन पर चर्चा, आदान-प्रदान आदि होना व आगामी कार्यक्रमों की चर्चा भी काफी लाभप्रद रहती है। इसके लिए अलग से किसी वक्ता आदि तय करने की आवश्यकता भी नहीं पड़ती है।
घ. विचार मंडल प्रमुख इस काम के लिए अपने साथ एक टोली का निर्माण करें- ऐसी अपेक्षा है।

3. आंदोलन - बुधवार: क. तीसरी महत्वपूर्ण गतिविधि है धरना, प्रदर्शन, आंदोलन आदि। इसके द्वारा युवा शक्ति भी जुड़ती है और संगठन की धार भी तेज होती है। मास दो मास में एक बार ऐसा प्रदर्शन अति आवश्यक है। इसके अतिरिक्त जब भी कोई ऐसा विषय मिले तो उसके लिए प्रदर्शन आदि करने का स्वभाव हर इकाई का बनना चाहिए।
ख. इन कार्यक्रमों के लिए आवश्यक सामग्री यथा झंडे़, बैनर, तख्तियां, नारें, पुतलें (दहन हेतु) कुछ ऐसी चीजें है जिनके द्वारा समाज में सरलता से इन विषयों को ले जाया जा सकता है।
ग. स्थान चयन का महत्व: भीड़-भाड वाले सार्वजनिक स्थानों का इन प्रदर्शनों के लिए चयनित करना अति महत्वपूर्ण है।
घ. ऐसे अवसरों पर उचित नारे, जयघोष छोटे भाषण और वितरण के लिए पहले से तैयार संक्षिप्त परचें, पेम्फलेट, कर-पत्रक आदि देना आवश्यक है। इसके अतिरिक्त मीड़िया को पहले से ही समय आदि की जानकारी देना आवश्यक है।
आंदोलन अपने मंच का प्राण है अतः इसके लिए पर्याप्त ध्यान देना आवश्यक है। संघर्ष वाहिनी प्रमुख मुख्यतः इस काम को अपनी टोली के साथ गति देता है।

4. प्रचार माध्यम (मीडिया) - वीरवार: क. समय पूर्व प्रैैस-विज्ञप्ति (प्रेस ब्रीफ) तैयार करना और उसकी पर्याप्त प्रतियां निकालकर वितरित करना महत्वपूर्ण पक्ष है। विज्ञप्ति की जानकारियां व आंकडे़ अच्छी तरह देखभाल कर लिखने चाहिए। हिन्दी व अंग्रेजी व स्थानीय भाषा की अलग से प्रेस ब्रीफ तैयार करना अधिक लाभदायक रहता है।
ख. समाचार पत्र व अन्य माध्यमों को सप्ताह पूर्व कार्यक्रम की जानकारी लिखित में देना व व्यक्तिगत वार्ता द्वारा प्रेरित करना, जिससे पत्रकारों का आने की ज्यादा संभावना है।
ग. कार्यक्रम के पश्चात कार्यक्रम के चित्र व प्रेस ब्रीफ की प्रति ई-मेल द्वारा सीधे समाचार पत्रों को भेजना और अपनी वेबसाइट पर भेजना चाहिए। इस काम को प्रचार प्रमुख को मुख्यतः देना चाहिए।
कुल मिलाकर मीडिया का महत्व अपने ध्यान में रहना चाहिए और सामान्यतः मीडिया भी स्वजाम की जानकारियों को महत्व देता ही है।

5. समन्वय, संपर्क - शुक्रवार: समविचारी संगठनों व विभिन्न आंदोलनों को चलाने वालो के साथ तालमेल बैठाना अपने आंदोलन को बल देता है। चाहे वंदना शिवा हो या खेती विरासत, थर्ड वर्ल्ड नेटवर्क हो या मेधा पाटकर, बाबा रामदेव जी हो या आजादी बचाओं आंदोलन, गांधीवादी हो या समाजवादी आदि मुद्दों पर आधारित तालमेल अवश्य होना चाहिए। इन संगठनों के कार्यक्रमों में जाना, आंदोलनों के लिए आपसी तालमेल व संवाद बने रहना चाहिए। इसी तरह भारतीय मजदूर संघ, भारतीय किसान संघ, विद्या भारती, अ.भा.वि. परिषद, विश्व हिन्दू परिषद, राष्ट्र सेविका समिति आदि संगठनों के प्रतिनिधियों के साथ मिलकर एक संचालन समिति भी बनानी चाहिए। जिसकी नियमित अंतराल पर विधिवत बैठके होनी चाहिए। जिस आंदोलन/कार्यक्रम में इन सबका सहयोग लेना हो तो प्रारंभ से ही संवाद रहे और हर चरण पर इक्कठे योजना बनानी चाहिए। इनसे संवाद, सहयोग व सहकार की त्रिसूत्र को बनाए रखने में मुख्य भूमिका संपर्क प्रमुख की रहती है।

6. आर्थिक पक्ष - शनिवार: उपर्युक्त सब कार्यक्रमों को सफल करने के लिए धन की आवश्यकता रहती ही है। अतः प्रारंभ से ही इसकी समुचित व्यवस्था सोचनी चाहिए। इसके लिए समर्थक अभियान, मासिक/वार्षिक सहयोग दाता तैयार करने, स्मारिका (सूवेनीर), स्वदेशी मेला व स्वदेशी पत्रिका के लिए विज्ञापन एकत्र करना आदि कुछ माध्यम है। सामान्यतः एक कार्यक्रम करते समय अगले कार्यक्रम के लिए भी कुछ धन संग्रह करना आवश्यक होता है। इसी प्रकार केंद्राश के लिए भी और बाहर से बुलाए गए कार्यकर्ता/वक्ता आदि को किराया आदि देना भी स्थानीय इकाई का ही दायित्व बनता है। कुछ व्यक्तियों को इस कार्य के लिए विशेष रूप से तैयार करना लाभदायक रहता है। इसी प्रकार कार्यकर्ता टोली के सामने हर कार्यक्रम के बाद आय-व्यय का उचित ब्यौरा रखना आर्थिक पारदर्शिता व शुचिता के लिए आवश्यक है।

7. संरचना, संगठन - रविवार: क. यद्यपि स्वजाम संगठन न होकर मंच है तो भी उपर्युक्त सब कामों को सफल करने के लिए एक सक्षम कार्यकर्ता टोली हर इकाई पर आवश्यक है। क्षेत्र, प्रांत, जिला, खंड, नगर व ग्राम स्तर पर यथासंभव ये टोलियां बनाना एक महत्वपूर्ण कार्य है। स्वजाम के मुख्य 4 कार्य है- क. आंदोलन, ख. अध्ययन/शोध, ग. रचनात्मक कार्य, व घ. संपर्क या नेटवर्किंग/संपर्क और सबसे तालमेल रखना। इन चारों कामों की आवश्यकता को देखकर उपर्युक्त व्यक्तियों की तलाश करनी चाहिए।
ख. समय-समय पर इन्हें सक्रिय रखने व उचित प्रशिक्षण के लिए कार्यशाला अध्ययन शिविर व प्रशिक्षण की उचित व्यवस्था करनी चाहिए। वर्ष में एक बार लगने वाले केंद्रीय विचार वर्ग में भी इन कार्यकर्ताओें को पूर्व तैयारी के साथ भेजना बहुत उपयोगी रहता है। इसके लिए समय पूर्व उनकी सूचि बनाना व तैयारी करवानी चाहिए।
ग. इन सभी कार्यकर्ताओं को स्वजाम के लिए स्थानीय स्तर पर समय देना, दूसरी इकाईयों पर प्रवास करना कार्यवृद्धि के लिए आवश्यक है। प्रवास व उसकी उचित व्यवस्था कार्यवृद्धि के लिए रामबाण है।
घ. वर्ष में राष्ट्रीय सभा/सम्मेलन, विचार वर्ग, प्रांतीय सम्मेलन व अन्य बैठकों के लिए समय निकालना व वापिस आकर अन्य लोगों को उसकी जानकारी देना भी एक आवश्यक अंग है।
ड. उपर्युक्त सातों कामों को करने के लिए निम्न प्रकार के दायित्व होने चाहिए। संयोजक, सहसंयोजक, संचालक, संगठक, संघर्ष वाहिनी प्रमुख, विचार मंडल प्रमुख, संपर्क प्रमुख, प्रकोष्ठ प्रमुख, पत्रिका प्रमुख, साहित्य प्रमुख, प्रचार प्रमुख, कार्यालय प्रमुख, कोष प्रमुख, महिला प्रमुख, तरुण प्रमुख आदि 15 ऐसी जिम्मेवारियां है जो कार्यकर्ताओं की मनोस्थिति, क्षमता व मनःस्थिति उपलब्धता देखकर देनी चाहिए। इसके अतिरिक्त एक-एक विषय पर यथा कृषि, खुदरा व्यापार, शिक्षा, न्याय व्यवस्था, परिवार व्यवस्था आदि को देखने के लिए अलग से प्रकोष्ठ भी बनाए जा सकते है, जिनकी देखभाल प्रकोष्ठ प्रमुख को प्रमुखता से करनी चाहिए। स्थान-स्थान पर टोली बनाकर स्वदेशी मेलों का आयोजन भी इकाई की वार्षिक गतिविधियों में से एक हो सकता है जो अपने कार्य को बल प्रदान करता है।

सारांश: उपर्युक्त सातों काम केवल मात्र दिशा दर्शन के लिए है और संकेत मात्र है। अनेक कार्यकर्ताओं से विचार-विमर्श करके ही इन्हें सूचीबद्ध किया गया है। तो भी इसके अतिरिक्त भी कुछ काम ध्यान में आए तो इन शीर्षकों के अंदर यथासंभव समाविष्ट करने चाहिए। समय-समय पर अपने कार्य का विश्लेषण करने के लिए इन बिंदुओं को कार्यकर्ताओं के मध्य चर्चा के लिए रखना चाहिए व वृत्त भी एकत्र करना चाहिए। ध्यान रखें, स्वजाम के उद्देश्यों के अनुरूप स्थानीय मुद्दों को भी अवश्य शामिल करना चाहिए।

अरूण ओझा (09430513102), कश्मीरीलाल (9868271424), अष्वनी महाजन (9212209090), प्रदीप शर्मा (9810454566)ashmirilal1951@gmail.com, ashwanimahajan@rediffmail.com, pradip_swa@yahoo.com akosjmbihar@rediffmail.com, kashmirilal@rediffmail.com, k

Tuesday, June 7, 2011

Scams during Congress governance


Scams during Congress governanceWe will analyse the scams during tenure of various Congress Prime ministers

Jawaharlal Nehru 1947–1964

LIC scam

The LIC funds were used to buy fictitious shares thereby causing loss of 1.2 crores. The Finance Minister T. T. Krishnamachari, in his testimony tried to distance himself from the LIC decision, implying that it may have been taken by the Finance Secretary, but Justice Chagla held that the Minister is constitutionally responsible for the action taken by his secretary and he disown his actions. Eventually, Krishanamachari had to resign. The Nehru government suffered considerable loss of prestige in the incident. It turned out that Mundhra’s manipulations were not restricted to LIC. The income tax department had curiously withdrawn certain notices pending against him having entered into "some understanding" about the payment of arrears

Jeep scam

The jeep scandal in 1948 that began independent India's tryst with corruption. V.K. Krishna Menon, the then Indian high commissioner to UK, ignored norms to sign a Rs 80 lakh contract for the purchase of army jeeps

Mudgal case

H.G. Mudgal, the CONGRESS MP who was forced to resign from the Provisional Parliament on September 24, 1951, for tabling questions for a remuneration obtained from an association of business persons. Mudgal was almost expelled from Parliament after he was found guilty by a Parliament Committee.

Malaviya sirajuddin Oil scam

Minister of Mines and Fuel, K.D. Malaviya in Nehru Cabinet charged for his dubious involvement in the 1956 Sirajuddin affair.

Partap Singh Kairon

CONGRESS Chief Minister of Punjab from 1956 to 1964. While he is credited for much of the developments the state achieved, the controversy about his corrupt actions in promoting the economic interests of his sons, relatives and cohorts forced him to resign after being indicted by the S.R Das Commission.
Lal Bahadur Shastri 1964-1966

Orissa CONGRESS Chief Minister Biju Patnaik [1965] was forced to resign after the charges of corruption against him were investigated by HR Khanna Commission. He was indicted for awarding government contract to his privately held companies Kalinga Tube.

Indira Gandhi 1966-1977

Nagarwala financial scam in 1971

Maruti Scandal, 1974

Well before the company was set up, former prime minister Indira Gandhi's name came up in the first Maruti scandal, where her son Sanjay Gandhi was favoured with a licence to make passenger cars.

Kuo Oil deal scam, 1976

The Indian Oil Corporation signed a Rs 2.2-crore oil contract with a non-existent firm in Hong Kong and a kickback was given. The petroleum and chemicals minister was directed to make the purchase.
Indira Gandhi 1980-1984

Antulay trust scam Congress CM Maharashtra, A.R. Antulay, was collecting bribe for granting licensed cement and industrial alcohol. He resigned following adverse court verdict.. Antulay had garnered Rs 30 crore from businesses dependent on state resources like cement and kept the money in a private trust.

Lakhubhai Pathak cheating scam, 1983

England-based NRI pickle king Lakhubhai Pathak, alleged that ‘godman’ Chandraswami and K N Aggarwal alias Mamaji, cheated him of $100,000 in 1983, promising they would get him a paper pulp supply contract. He accused P V Narsimha Rao, then minister in the Congress government.

Churhat lottery scam [ Congress minister – Arjun singh]

Rajiv Gandhi 1984-1989

Westland helicopter scam, 1986

The Prime Minister Rajiv gandhi forced the public sector Pawan Hans Corporation to buy 21 helicopters from a British company that was shutting down. A series of technical faults and crashes followed. The helicopters were eventually discarded as junk and lined up at an unused airport in Mumbai.

HDW Submarine, 1987

The German submarine maker was blacklisted after allegations that commissions worth Rs 420 crore had been paid .

Bofors scam, 1987

Involvement of family friend of Sonia Gandhi Ottrovio Quattrochi and allegations of kickbacks received by Rajiv Gandhi

Rs.2500 crore -Airbus A-320 deal with France involving kickback

In the 1984 Airbus A-320 deal congress collected money. The CBI filed FIR charging senior officials of Civil aviation Ministry and IA with corruption in hasty negotiation to purchases amounting to Rs.2,500 crore. The case not yet solved.
PV Narasimha Rao 1991-1996

Harshad Mehta security scam, 1992

Harshad Mehta allegedly gave Narasimha Rao Rs 1 crore as bribe

Gold Star Steel and Alloys controversy, 1992

JMM bribery case, 1993

In July 1993, when Narasimha Rao’s government was facing a no-confidence motion, it was alleged that his representative offered big money to Jharkhand Mukti Morcha (JMM) members, and possibly a breakaway faction of the Janata Dal, to vote for him. In 2000, a special court convicted Rao and colleague, Buta Singh. The same Buta singh was made Bihar governor by MMS & Sonia Gandhi.

Enron – Dabhol power project Maharashtra

Involved 1993-95 CONGRESS CM Sharad Pawar

Sugar Import, 1994

As CONGRESS food minister, Kalpnath Rai presided over the import of sugar at a price higher than that of the market, causing a loss of Rs 650 crore to the exchequer. He resigned following the allegations.

Urea scam, 1996

Advance payment of Rs.133 crore to a little known Turkish firm, Korsan Ltd., for import of urea which was never delivered.

Congress minister Sukhram in 1996

Rs. 3.6 crores in cash concealed in bags and suitcases from his official residence. The cash was allegedly collected by him committing irregularities in awarding a telecom contract . He was convicted and sentenced to three years’ rigorous imprisonment by a Delhi court in 2002.
Manmohan Singh 2004- present

Oil for food scam

Oil scam for food took place in 2005 and K.Natwar Singh was dismissed from the duty after finding the oil scam with Iraq for food.

Satyam scam

Madhu Koda corruption

MHADA flats scam

Mhada flats in Mumbai. Congress government constructed posh flats using public money and gave away flats to its members flouting rules.

Siachen army ration scam

Cash for votes scam

IPL scam

Sukna land scam

2G scam

Karnataka landscam

Commonwealth games scam

Adarsh society scam

ISRO Devas scam

Pune landscam

Fake pilots scam

Speak Asia scam

भू-अधिग्रहण के खतरे: स्वदेशी नोट्स


भूमि अधिग्रहण अधिनियम
उड़ीसा, झारखंड,महाराष्ट्र, कर्नाटक,पश्चिम बंगाल के सिंगूर और नंदीग्राम के बाद उत्तरप्रदेश का चंदौली और भट्टा परसौल गांव भूमि अधिग्रहण अधिनियम की आग में झुलसा रहा है। इस गांव के किसानों के आंदोलन ने एक बार फिर बता दिया है कि विकास परियोजनाओं के लिए जमीन अधिग्रहण का मामला कितना नाजुक हैं।
एक ऐसे देश में जो बड़े पैमाने पर खाद्य असुरक्षा की मार झेल रहा है। खेती की जमीन जैसे दुर्लभ संसाधन को भवन निर्माताओं या दूसरी परियोजनाओं के लिए लुटाए जाने के दुष्परिणामों की देश के नीति नियंता लगातार अनदेखी कर रहे है। औद्योगिक विकास विदेशी पूंजी निवेश और सकल घरेलू उत्पादन की चिंता में दुबली होती हमारी सरकारों ने अन्नदाता किसानों की लगातार अनदेखी की है। शहरीकरण और औद्योगिकीकरण के चलते खेती का रकबा लगातार घटता जा रहा है। विशेष अर्थिक क्षेत्र (सेज) के नाम पर खेती की जमीन हड़पी जा रही है। खेती की जमीन पर ही रियल इस्टेट का बाजार गर्म हो रहा हैं रियल इस्टेट, शेयर बाजार, कमोडिटीज एक्सचेंज और अन्य तरह के सट्टा बाजारों के विकास को केन्द्र में रखकर ही आथ्रिक नीतियाँ बनाई जाएंगी, तो भयंकर दुष्परिणाम सामने आएंगे। अभी हाल ही में एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था ’’ऑक्सफेम’’ ने अपनी रिपोर्ट कहा है कि 1990 से 2005 के दौरान भारत में भूखों की संख्या साढ़े छः हजार करोड़ बढ़ गई हैं। 1947 में भारत की आबादी 33 करोड़ 60 लाख थी। आज 1.2 बिलियन है और 2060 तक बढ़कर 1.7 बिलियन हो जाएगी, लेकिन हमारे पास जमीन उतनी ही है। खेती का रकबा लगातार घट रहा है। ऐसे में क्या हालात बनेंगे ? इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है।
नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के बोलबाले के बीच खेती को जिस गहरे संकट में धकेल दिया गया है। उसे देखते हुए यह ताज्जुब की बात नहीं है कि किसानों की नई पीढ़ी अपनी जमीन को मुख्यतः अचल संपत्ति के रूप में ही देखती है। दूसरी ओर सभी सरकारें 1894 में अंग्रेजों द्वारा बनाए गए भूमि अधिग्रहण कानून का हवाला देकर लोगों की उपजाऊ जमीन छीन रही है, जिसे नाम दिया जा रहा है, ’’अधिग्रहण’’। यह अधिग्रहण वह व्यवस्था है, जिसमें किसान को उस अर्थ में उसकी जमीन का मालिक नहीं माना जाता है, जिस अर्थ में पूंजीपति या उद्योगपति को उसकी संपत्ति का मालिक माना जाता है। इसलिए इस साम्राज्यवादी कानून का सहारा लेकर किसान से तो उसकी जमीन वास्तविक या दिखावटी सार्वजनिक हित के नाम पर छीन कर अधिग्रहण का नाम दिया जा रहा है। लेकिन सवाल यह है कि क्या किसी सरकार ने आज तक किसी बंद पड़ी औद्योगिक इकाई की जमीन को किसी सार्वजनिक हित की परियोजना के लिए अधिग्रहित की है ?
इस मामले में राज्य सरकारों से ज्यादा हैरान करने वाली केन्द्र सरकार की चुप्पी हैं। किसानद्रोही माहौल का ही यह नतीजा है कि देश को खाद्यान्य के मामले में आत्मनिर्भर बनाने वाली उपजाऊ जमीनें तथाकथित विकास की भेंट चढ़ रही है। कहा जा सकता है कि किसानों की यह हालत देश की कृषि नीति के साथ-साथ विकास नीति की विफलता के कारण भी है, जिन्हें सामाजिक और आर्थिक समता का दर्शन खटकता है। सरकार के इसी रवैये के चलते अब सुप्रीम कोर्ट को भी कहना पड़ा है कि केन्द्र सरकार को जमीन मालिकों के लिए एक सुविचारित और न्यायोचित मुआवजा नीति बनानी चाहिए।
हालांकि भट्टा परसौल आंदोलन का असर यह हुआ है कि भूमि अधिग्रहण व पुर्नवास के जो दो संशोधित विधेयक काफी समय से अटके हुए थे, उन्हें आगे बढ़ाने में अब तेजी आ गई हैं संसद के मानसून सत्र में इसे पेश करने के लिए अंतिम रूप दिया जा रहा है। हरियाणा व गुजरात में हाल ही में भूमि अधिग्रहण के नियम बनाए हैं मध्यप्रदेश सरकार ने भी कहा है कि किसानों की उपजाऊ जमीन अधिग्रहण के नाम पर जबरन नही छीनी जाएगी।
सौ साल से ज्यादा पुराने भू-अधिग्रहण अधिनियम 1894 की जगह लेने वाले भू-अधिग्रहण संशोधन अधिनियम के प्रारूप को सरकार अंतिम रूप से देने में लगी हैं। सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एन.एस.सी) ने सिफारिश की है कि विकास योजनाओं के लिए अधिग्रहित भूमि के लिए उसके मालिक को पंजीकृत मूल्य से छः गुना अधिक कीमत मिले और यदि निजी क्षेत्र के लिए जमीन अधिग्रहित की जाय तो इसके लिए प्रभावित होने वाले 75 प्रतिशत लोगों की लिखित मंजूरी अनिवार्य होगी। क्या यह समस्या का समाधान है ?
विचारणीय बिन्दु:-
1. इसी तरह अगर खेती का रकबा घटता रहा तो क्या हम खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर रह पाएंगे ?
2. उपजाऊ जमीन पर कांक्रीट के जंगल खड़े होने से क्या देश का पर्यावरणीय संतुलन नही बिगड़ेगा ?
3. खेती योग्य जमीन कम हो जाने से गांवों से शहरों की ओर पलायन बढ़ेगा और हमारी ग्राम आधारित अर्थ व्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पेड़गा ?
4. पर्वतीय क्षेत्रों के वन आच्छादित क्षेत्र अगर तथाकथित विकास परियोजनाओं की भेंट चढ़ गए तो भूस्खलन, बाढ़, सूखे का खतरा बढ़ जाएगा तथा जैव विविधता पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।
5. गांवो में बटाईदार, खेत, मजदूर, दस्तकार, कारीगर और अन्य सेवा कार्यो में लगे अनेक परिवारों के पास कानूनी रिकॉर्ड जमीन नहीं होती है। अगर गांव की परंपरागत व्यवस्था टूटेगी तो वे बेरोजगार हो जाएंगे।

चीन का बढ़ता खतरा - एक नोट (चंदेल जी द्वारा तेयार)

बढ़ता चीनी खतराभारत में खिलौना बाजार 2500 करोड़ रूपये का
23 जनवरी 2009 को सरकार ने सुरक्षा आधार पर चीनी खिलौनो के आयात पर प्रतिबन्ध लगाया था जो चीन के दबाव पर उठा लिया गया। 2007 में दुनिया की प्रमुख खिलौना कंपनी भटेल ने चीन में बने 2.1 करोड़ खिलौनों को लेड की मात्रा गंभीर स्तर पर होने से वापिस ले लिया था। जबलपुर के कुल खिलौना मार्केट के 70ः पर चीनी खिलौने का कब्जा है। रोजाना एक लाख रूपये तक के चीनी खिलौने जबलपुर में बिकते हैं। चीनी कम्पनीयों की बार्बी, हॉटव्हील्स, टेडीबियर, रिमोट ब्लाग, डॉल, टॉयगन, मेटल टॉय, वुडन टॉय, म्यूजिकल टॉय, इलेक्ट्रानिक टेªन एवं कई प्रकार साफ्ट टॉयज लेड केडमियम, मर्करी जैसे हानिकारक तत्वों की अधिकता बच्चों के स्वास्थ्य के लिये घातक है।
केलिफोर्निया के पर्यावरण ष्षोध एवं नीति केन्द्र की एक रिपोर्ट के अनुसार चीना खिलौनों से बच्चों में समय के पूर्व रजस्वला होना, बहरापन, रोगरोधका क्षमता का हृास, नपुसंकता, केंसर, मानसिक विकलांगता जैसे खतरनाक रोग प्रकट हो रहे हैं। शोध में मुलायम प्लास्टिक टीयर, बच्चों को नहलाने के उपकरण, थेलेट्स लिये खिलौने, पैड्स, चटाईयां, सुलाने के उपकरण में जहरीले अग्निरोधी पाये गए। किसी खिलौने पर इन खतरनाक तत्वों की जानकारी का लेबल नहीं होने से पालकों के पास छिपे खतरनाक स्वास्थ्य के लिये खतरों की जानकारी नही होती।
एक छळव् की रिपोर्ट के अनुसार डॉल और टॉय की क्षमता को प्रभावित करने के अलावा उनकी इस प्रकार के खिलौनों का बाजार 1.5 बिलियन (700 करोड़ रू.) से उपर का है। टाक्सिक लिंक के निर्देषक रवि अग्रवाल के अध्ययन के अनुसार भारतीय बाजार में ऐसे खिलौनों की बहुतायत से प्रतिदिन लाखों बच्चे अनजाने ही अनेक रोगों के षिकार बन रहे हैं। बेबी टॉयज दमें बिस्फेनाल-। की कम सांद्रता से कैंसर की आषंका, जीन में विकृति की आषंका बढ़ी है क्योंकि बच्चों के रक्त एवं मलमूत्र में इसकी मात्रा पाई गईहै जो प्राकृतिक रूप से उपस्थित एक्ट्रोजन को प्रभावित करती है। बेल्जियम, इटली, फिलिपाईन, डेनमार्क, स्वीडन, नीदरलैण्ड, ऑस्ट्रिया, जर्मनी, स्पेन आदि देषों ने इन खिलौनों पर प्रतिबंध लगा रखा है।
चीन ने इलेक्ट्रॉनिक गुड्स के बाजार पर भी कब्जा कर लिया है। भारत में किसी एक वस्तु के बाजार पर कब्जा करने का अर्थ एक भरी पूरी व्यवस्था का खात्मा है। बहुत सारे परिवार परिवारों की विरासत विरासत के आधार पर फलती फूलती संस्कृति और उस फलती फूलती संस्कृति के आधार पर खड़ा देष। चीन ने धीरे-धीरे भारत की ऐसी समस्त व्यवस्थाओं पर उद्योगों पर कब्जा करना शुरू कर दिया है। इलेक्ट्रॉनिक्स गुड्स, फायर क्रेकर बाजार, देवी देवताओं की मूर्तियां एवं प्रतीक चिन्ह, कपड़ा उद्योग फूड प्रोडक्ट्स। यहां तक की देष में होली में चीनी रंग, दीपावली में चीनी लट्टू, झालरें, चीन लक्ष्मी। हमारे बुजुर्गों ने जिन्हौने अपनी दूरदृष्टि से इस परिवर्तन को भांप लिया था उन्हौने हमारे कंठ में एक कहावत उतारी थी ‘‘ सस्ता रोए बार-बार मंहगा रोए एक बार।
जेनेटिकली मॉडिफाईड (अनुवांषिकतः प्रवर्धित) फसलें, बीज क्या हैं।
अनुवांषिक प्रौद्योगिकी जेनेटिक इंजीनियरिंग- जीन्स में हेराफेरी का एक कृतिम प्रयास है। जीई में कृत्रिम जैव पदार्थोंे का प्रयोग किया जाता है जो पौधों की कोषिकाओं में डाले जाते है। ळम् भ्वेज मेजबान क्छ। के अन्दर जीन्स के उत्पन्न होने की प्राकृतिक व्यवस्था में गड़बड़ी पैदा करता है। ळम् अन्य जीन्स के समूह के साथ काम करता है जो प्राकृतिक रूप से पैदा नहीं होते। जेनेटिक इंजीनियरिंग एक जटिल प्रक्रिया है जिसमें कृत्रिमतः तैयार जीन्स का हस्तान्तरण किया जाता है। पौधे की कोषिका का क्छ। निकालकर जो जीन अपनी विषेषताओं के साथ पैदा होता है उसे अलग निकाल लेते हैं उसमें प्रमोटर और अन्य आवष्यक वस्तुओं जैसे (मार्कर आदि) को मिलाया जाता है। इस विधि से तैयार कृत्रीम जीन को दूसरे पौधों की कोषिका में समाहित कर दिया जाता है। इस प्रक्रिया को पूरा करने के लिये एक तरह की परिवहन प्रणाली अपनाई जाती है जिसकी जरूरत एक जीव के जीन को दूसरे जीव के जीन तक पहुंचाने में पड़ती है। इस परिवाहक को वेक्टर कहते हैं। एक अन्य विधि शूटिंग से भी कृत्रिम रूप से तैयार जीन को होस्टसेल तक हस्तांतरित करते हैं।
ळम् प्रकृति के साथ दखलंदाजी:- जैव विविधता प्राकृतिक रूप से अनेक पीढ़ियों से लगातार बनती चली आ रही है लेकिन यह एक सीमा के अन्दर होता है जैसे चावल की एक किस्म को दूसरी किस्म से मिलाना, टमाटर की किस्म को भिन्न किस्म के साथ जोड़ना आदि लेकिन जेनेटिक इंजीनियरिंग में वैज्ञानिक नए पौधे, जानवर जीन्स में हेराफेरी करके तैयार करते हैं। यह प्रक्रिया अप्राकृतिक है। एक पौधा तैयार करने में पौधे की दूसरी प्रजाति, बैक्टीरिया जानवरों यहां तक की मनुष्यों के जीन्स का भी उपयोग किया जाता है। इस तरह से तैयार जीन्स प्रयोगषालाओं से निकलकर जब बाहर मैदान मे आ जाते हैं तो उनमें प्रजनन क्षमता तो होती ही है वे प्राकृतिक जीन्स के साथ भी दखलंदाजी कर सकते हैं।
जीएम बीज या फसल के लिये प्रयुक्त जीन में खतरनाक ढंग के जेनेटिक पदार्थ, बेक्टीरिया या वायरस पाए जाते हैं। इस प्रकार तैयार अनाज में नषीले पदार्थ, एलर्जी पैदा करने वाले तत्व तथा एंटी-बायोटिक प्रतिरोधी तत्व उन लोगों के शरीर में पहुंच जाएं जो जीई द्वारा तैयार अनाज को खाते हैं।
सुरक्षा का प्रष्न:- वास्तव में पूरे विष्व में कोई भी यह नहीं जानता कि जेनेटिक ढंग से उत्पन्न पौधे खेतों में किस तरह की प्रतिक्रिया दिखाते हैं। अर्थात खुद उन पौधों पर क्या असर होता है घ् उनकी वजह से अन्य पौधों, कीड़े मकोड़ों, खेत की मिट्टी और पानी पर क्या असर पड़ता है। संक्षेप में कोई भी व्यक्ति यह नहीं जानता कि जीएम फसलें किस तरह पर्यावरण प्रदुषित करती हैं। कोई भी व्यक्ति यह नहीं जानता कि जीएम द्वारा उगाए गए अनाज का आगे चलकर सेहत पर क्या असर पड़ता है घ् उनसे कैसी-कैसी अज्ञात बीमारियां पैदा होंगी घ् क्या उनसे कैंसर जैसी भयावह बीमारी का खतरा है घ् या केवल एलर्जी और डायरिया का खतरा है घ् क्या ऐसा भी हो सकता है कि जीएम फसल के उपयोग से शरीर पर एंटी बायोटिक्स दवाओं का असर ही समाप्त हो जाए घ् क्योंकि जीएम फसल में एंटी बायोटिक्स प्रतिरोधी जीन्स भी होते हैं। अर्थात इससे बीमारियों के संक्रमण होने पर उनकी रोकथाम नहीं हो सकेगी। क्या इस विधि से नई संक्रामक बीमारियां पैदा नहीं होंगीघ् कई बार तो प्रभाव का आकलन और असर दो-तीन पीढ़ियों बाद सामने आएगा।
मोनसांटो जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियां जीएम फसलों को प्रवर्धित कर रही हैं लेकिन उनका तर्क है कि भरपूर फसल और भरपूर अनाज (उत्पादन) होने से भूखे लोगों का पेट भरेगा गली नही उतरता। वे संपूर्ण विष्व में अपना एकाधिपत्य चाहती हैं। केवल पैसा कमाना चाहती हैं। क्योंकि जीएम बीज के साथ साथ खाद भी और तक्नीकि भी उनसे ही लेनी पड़ेगी।
ठज ब्वजजवद का अनुभव अच्छा नही रहा सर्वाधिक आत्महत्याएं ही उन किसानो ने की जो ठज ब्वजजवद उगाकर मंहगा बीज मंहगी कीटनाषक और अधिक पानी सोच कर भी भरपूर मोनसाटो के दावे के अनुसार फसल प्राप्त नहीं कर सके।
भूखे रहने और कम अनाज की उपलब्धता का दावा भी गले नहीं उतरता देष में 4 करोड़ टन का सुरक्षित खाद्यान्य भण्डार है और रखरखाव के अभाव में लगभग 2 करोड़ टन खाद्यान्न सड़-गल जाता है। सन 2002 मे सरकार ने ठज ब्वजजवद कपास के व्यावसायिक उत्पादन की अनुमति दी यह आषा की जानी चाहिये कि कानून के उल्लघंन की ऐसी कहानी फिर न दोहराई जा सके। जेनेटिक कृत्रिमता संबंधी समीक्षा समिति ने ठज कपास के बीजों के आयात की अनुमति नहीं दी इसके बावजूद कपास की ठज किस्म को उगाने का परीक्षण हुआ और गैर कानूनी ढंग से और अधिक स्थानों पर उगाया गया।
ळड सरसों:- अनेक वर्षों से बड़ी मात्रा में इस किस्म के परीक्षण खेतों में चल रहे हैं जिसमे सुपर वीड्स तैयार हो सकते हैं जो ग्लूफोसिनेट के इस्तेमाल से उसके आदि हो जाते हैं ये ऐसे कीटाणू हैं जो सरसों की परंपरागत फसलों को पूरी तरह बरबाद कर सकते हैं। जीएम सरसों इस तरह तैयार होता है कि उस पर ग्लूफोसिनेट का असर नहीं होता यह तत्व मनुष्यों और पषुओं के लिये खतरनाक है क्योंकि यह स्नायुतंत्र पर असर डालता है। चूहों पर इसके प्रयोग से चूहों के भू्रणों में विकलांगता आ जाती है तो इंसान पर इसका असर कैसा होगा घ्
राउंड अप रेडी:- मोनसाटो द्वारा भारतीय किसानो का हर्बिसाइड नामक रेडी राउंडअप रेडी किस्म के उत्पादन के लिये उकसाया जा रहा है। सोया, मकई, गेंहू, सब्जियां और तिलहनो की कुछ जीएम किस्में राउंडअप हर्बिसाइड (तृणभक्षी) के उत्पादन को रोकती हैं लेकिन विकासषील देषों में खेती की छोटी और सघन जोतें हैं। आजू बाजू के खेतों में अलग-अलग फसलें उगती हैं। इस प्रकार खेत प्राकृतिक जैव विविधता वाली पर्यावरण प्रणाली के अंग हैं। यदि मोंसाटो की राउंडअप रेडी मकई के खेत के इर्द-गिर्द अन्य फसलों के खेत या वन क्षेत्र की प्राकृतिक वनस्पतियां हैं तो राउंडअप त्रणभक्षी के छिड़काव से वन वनस्पतियां एवं अन्य फसलों के समूल नष्ट होने का खतरा उत्पन्न हो जाएगा।
सोया:- भारत में तिलहन के रूप में 10000 टन सोयाबीन का आयात हुआ जिसमें ऐसी कोई गारंटी नहीं है कि उनमें जीएम दानों की मिलावट नहीं है। सोयाबीन के बीज आयातित वस्तु हैं इसका व्यापार मुख्य रूप से बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों में है और खतरा भारतीय किसानों और उपभोक्ताओं पर आया फलस्वरूप परंपरागत तिलहनों से नियंत्रण घटा। मिलावट रहित सरसों का तेल सेहतमंद होता है और सदियों से भारत में खाद्य पदार्थ के रूप में इसका प्रयोग हो रहा है। यह स्थानीय उत्पाद होने से सस्ते में उपलब्ध है अतः इसकी कमी या समाप्ति से बहुराष्ट्रीय कंपनीयों की मोनोपाली हो जावेगी।
चीन की चुनौती
कुछा वर्षो पूर्व तत्कालीन रक्षामंत्री जार्ज फर्नान्डीज ने चीन को भारत के लिए सबसे बड़ा खतरा बताते हुए आगाह किया था तो उस समय उनकी चेतावनी पर देश गंभाीर नहीं हुआ था। लेकिन आज स्वदेशी जागरण मंच के द्वारा इस मुद्दे को गांव-गांव, झार-घर प्रत्येक गली मोहल्ले में ले जाने का बीड़ा उठा लिया गया है। भसरत के लिए चीन कभी भी सहृदय नहीं रहा वह अपनी कुटिलता से बाज नहीं आया। चीन की विस्तारवादी नीति सुरसा के मुँह की तरह दिन दूपी रात चौगुनी गति से बढ़ रही है। अमेरिका के पराजय के संकेतो की शुरूआत के साथ वह संपूर्ण विश्व की एकक्षत्र महाशक्ति बनने के मार्ग पर अग्रसर है।सौर इस प्रयास में वह किसी भी हद तक गिरने के लिए तैयार है। अपनी इस साम्राज्य की विसतारवादी महतवाकांक्षा के माग्र में वह भारत को सबसे बड़ा रोड़ा मानता है, इसलिए उसका प्रत्येक कदम भारत को कमजोर करने की गहरी साजिश से भरा हुआ है। 1962 में पंचशील की आड़ में हिंदी-चीनी भाई-भाई के नारे लगाकर 43000 पर्ग किलोमीटर जमीन पर कब्जा बदस्तूर कायम है।आज अरूणाचल प्रदेश और सिक्किम पर भी वह अपना अधिकार बताने से गुरेज नहीं कर रहा है।
ऽ चीनी इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॅार स्ट्रेटजिक स्टडीज की वेबसाईट पर प्रकाशित एक लेख में चीनी रणनीतिकार झान लुई पे चीनी सरकार को परामर्श दिया है कि भारत को अनेक भागो। में विभाजित कर उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए जाए ओर इस काम में पाकिस्तान, नेपाल, भूटान और बांग्लादेश जैसे सहयोगियों की सहायता लेनी चाहिए
ऽ पिछले वर्ष ही चीन की पीपुल्स लिबरेयान आर्मी द्वारा सीमा पर नियंत्रण रेखा के 270 उल्लंघन और आक्रामक सीमा चौकसी की 2285 घटनाएं हुई हैं।
ऽ 50 के दशक में लद्दाख के अक्साईचिन पर कब्जा किया हम मौन है।
ऽ 1987 मंे सुदोरांग चू घाटी के विषय में हमें अपमानजनक समझौता करना पड़ा।
ऽ दक्षिण म्यांमार के कोको द्वीप में उनकी गश्ती चौकी अब पूर्णतः सज्जित सैनिक चौकी बन गई है।
ऽ श्रीलंका में चीन एक वाणिज्य बंदरगाह का निर्माण कर रहा है।
ऽ श्रीलंका के दक्षिण में हंबनटोटा में नौसैनिक बंदरगाह बना लिया है जो भारत के लिए सामरिक खतरा है।
ऽ पाकिस्तान के सिंध प्रांत में ग्वादर सैनिक बंदरगाह तैयार हो गया है।
ऽ चीन सीमा के पार अपना मजबूत रेल नेटवर्क बना रहा है।जिसकी पटरियां अरूणाचल प्रदेश की सीमा तक पहँुच गई है।
ऽ नेपाल की राजधानी काठमाण्डू चीन के साथ सड़क मार्ग से जुड़ा है यह राजमार्ग काठमाण्डू को सोनोली बार्डर से जोड़ता है। चीन 100 मिलीयन डालर खर्च कर ल्हासा से काठमाण्डू तक सड़क बना रहा है।
ऽ चीन नेपाल स्थित नेपानी चाईनीज स्टडी संेटर के माध्यम से भारत के विरूद्ध गुप्तचरी कर रहा है।
ऽ हाल ही में नेपाल के झापा जिले में भारतीय सीमा के चीन के सहयोग से एक सेंटर खोला गया है। ऐसे 24 सेंटर गुप्तचर नेटवर्क तैयार कर आतंकवादी प्रशिक्षण एवं सूचनाओं के के आदान प्रदान के उपयोग में आ रहे है।
ऽ पाकिस्मानी आतंकवादी संगठनों विशेषकर अलकायदा को सहयोग कर रहा है।
ऽ म्यांमार के रास्ते मिजोरम तथा असम के करीमगंज के रास्ते पूर्वोत्तर के उग्रवादियों को हथियार उपलब्ध करा रहा है।
ऽ अरूणाचल प्रदेश से लगे म्यांमार के काचीन प्रांत में काचरन इंडिपेंडेंस आर्गनाईजेशन से चीन क निकट संबंध है।
ऽ मणिपुर की पिपुल्स लिबरेशन आर्मी के सदस्य हथियार व सैन्य प्रशिक्षण लेने काचीन द्वारा ही चीन जाते है।
ऽ जिस समय नगा विद्रोही नेता थुइगालेंग ;छैब्छ;श्र.डद्ध ळमदमतंस ेमबतमजवतलद्ध मुइवा की भारत सरकार से शंातिवार्ता चल रही थी एस समय मुइवा का सहायक इसाक सम अपने गुट के साथ चीन में भारत के विरूद्ध समर्थन मांगने गया हुआ था।
ऽ अरूणाचल प्रदेश में ।क्ठ से बाढ़ और नदी के क्षरण प्रबंधन योजना के लिए तकनीकि सहयता और वित्तपोषण में चीन के मुखर विरोध के फलस्वरूप् भारत को असफलता मिली जबकि शेष सभी देश भारत के समर्थन में खड़े थे।
ऽ तिब्बत पर चीन के जबरिया कब्जे के बाद तिब्बत में स्थित डेलिंगा में चीन अंतर्राष्ट्रीय मिसाइल बेस बना रहा है। जहां डी.एफ. 5 नामक 12000 किमी तक मार करने वाली अंतर महाद्वीपीय बैलेस्टिक मिसाइल तैनात कर रहा है।
ऽ छवज इल उमजमतए इनज इल पदबीमे की नीति अपनाकर धीरे-धीरे भारत की जमीन पर कब्जा करता जा रहा है।
ऽ पाकिस्तान, भूटान, नेपाल, सिक्किम,बांगलादेश, श्रीलंका, बर्मा, म्यांमार को भारत का शत्रु बनाकर अपनी ओर मिलाने मे चीन सफल हुआ है।
ऽ इन पडौसियों के साथ सैन्य समझौते करना सड़के, पुल, बंदरगाह, रेलमार्ग एरोड्रम, बांध बनाना और इस प्रकार पहुँच बना कर भारत को घेरना चीन की रणनीति का हिस्सा है।
ऽ ॅज्व् की आड़ में अपना घटिया सस्ता माल भेजकर भारत की अर्थव्यवस्था को और चौपट करने में आंश्सिक रूप् से सफल हुआ है।
ऽ वर्षों से लिट्टे के आक्रमणों से झुलसते श्रीलंका ने अचानक लिट्टे का सफाया कैसे कर दिया ? यह संभव हुआ चीन द्वारा सामरिक सहायता एवं लिट्टे की आर्थिक घेरेबंदी से।
ऽ भारत ईरान के साथ जिस गैस पाईपलाईन की योजना लंबे समय से बना रहा था उसका रास्ता भी अब चीन की ओर मुड़ गया है।
ऽ तीसरी दुनिश के नेतृत्व का भारत का दावा अब हास्य का विषय है। भारत ने अनेक अफ्रीकी देशों की स्वतंत्रता में सहायता की। लगभग 1 अरब डालर के ऋण दिए। ऐसे उदार भारत 2008 में 40 अफ्रीकी देशों सम्मेलन बंलाया तो 10 आज सही सम्मेलन 2006 में चीन ने बुलाया तो 40 मे से 40 अफ्रीकी देश पहुँचे थे।
ऽ अमेरिका भी दिल्ली के स्थान पर बीजिंग को महत्व दे रहा है अमेरिका ने अरूणाचल प्रदेश में संयुक्त सैनिक अभ्यास से किनारा कर दिया है। 2007 में बंगााल की खाड़ी में 5 देशों द्वारा संयुक्त सैनिक अभ्यास अब दोहराया नहीं जाएगा।
ऽ भारत का प्रधानमंत्री अपने देश के अखण्ड भू-भाग अरूणाचल प्रदेश के तवांग में सिर्फ इसलिए नहीं जा सके क्योंकि चीन ने उसे आँखे दिखा दी थी।
ऽ ॅज्व् का लाभ लेकर चीन भारत देश के संवेदनशील स्थानों ें पास की विविध परियोजनाओं के टेंडर परियोजना लागत से भी कम मूल्य पर हस्तगत कर आंतरिक सुरक्षा के लिए गंभीर संकट उत्पन्न कर रहा है। कितने चीनी नागरिक कर्मचारी भारत में किन-किन परियोजनाओं पर काम कर रहें है उसकी पुख्ता जानकारी भारत सरकार के पास नहीं है।
ऽ देश के 25ः से अधिक दूरसंार एक्सचंेज व विविध दूरसंचार उपकरणें का निर्माण चीन द्वारा किया गया है।
ऽ क्रेंद्र सरकार द्वारा चीनी राडार लगाना गंभीर सुरक्षा संकट की आहट है। क्योंकि चीन अपनें उपग्रहों के माध्यम से देश की संपूर्ण अंदरूनी फोटोग्राफी कर सकता ह। और पल-पल की खबर रख सकता है।
ऽ बंगलौर, हैदराबाद से साफ्टवेअर में कुशलता प्राप्त कर वापस चीन लौटे साइबर योद्धा हमारी सारी महत्वपूर्ण और गोपनीय सूचनाएं हैक कर चुके है।
ऽ भारत चीन व्यापार 2001 में 2.1 अरब डालर से 2004 तक मात्र 7 अरब डालर हुआ जो अब 2008-09-10 में लगभग 50 अरब डालर का हो चुका है। इसमें भारत का हिस्सा मात्र 9.7 अरब डालर है वह भी अधिकांश कच्चे माल के रूप में जबकि चीन से आय 40 अरब डालर का है। इसके अलावा बिलों में कम मूल्य दर्शा कर या तस्करी द्वारा भी बहुत सारा चीनी माल भारत में प्रवेश कर रहा है।
ऽ भरत का पटाखा उद्योग, खिलौना उद्योग, रसायन उद्योग, कृषि रसायन उद्योग, विद्युत उपकरण उद्योग, अनेक अभियांत्रिकी उद्योग, प्लास्टिक उद्योग, सीडाट जैसे उच्च प्रौद्योगिकी उद्योग, इलेक्ट्रातिक गुड्स उद्योग, वस्त्र उद्योग संकटापन्न होकर समाप्त होने की कगार पर है।
ऽ हिमालय से निकलने वाली नदियों पर बांधों और सुरंगों के माध्यम से जल प्रवाह चीन की ओर मोड़ने की अनेंक परियोजनाएं चीन द्वारा प्रारंभ की जा चुकी है।
ऽ सस्ते घटिया स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा बने चीनी माल की देश में गिक्री 3,20,000 करोड़ (32 खरब रूपयांें) हमारी जेबों से निकाला गया हमारा यह पैसा ही चरन हमारे खिलाफ शस्त्र बनाने में पड़ौसी देशों की आर्थिक सामरिक सहायता में तथा वाले माओवादी नक्सली संगठनों में चुके है।
ऽ चीन द्वारा जम्मू काश्मीर के निासियों को पेपर वीसा जारी करना, अरूणाचल प्रदेश के लोगांे को बिना वीया चीन में आमंत्रण लश्कर के संगठनों को आतंककारी घोषित करने के भरत के प्रयास पर संयुक्तराष्ट्र संघ में आपत्ति करना, हमारी महत्वपूर्ण गोपनीय जानकारीयों को सुरक्षा संस्थानों के कम्प्यूटरों को हेक कर उड़ा लेना, भारत को टुकड़ों-टुकड़ों 20-30 राज्य (राष्ट्रों) में बांट देने की अपूरणीय अप्रतिहत इच्छा अमेरिका के स्थान पर संपूणग् विश्व में दादागिरी चलाने की योजना पर अमल एक बहुत बड़े खतरे की ओर स्पष्ट संकेत है।
यह हतारी राष्ट्र के प्रति निष्ठा की अनिवार्य परीक्षा की घड़ी है। आने वाले दो तीन वर्ष निर्णायक होने जा रहे है। आखिर क्या कारण है कि सारा विश्व भारत से घबराता है ? क्यों चीन भारत की इस प्रकार घेराबंदी कर रहा है ? हम बिना किसी पर आक्रमण किए बिना किसी साम्राज्य लिप्सा के सारे आक्रमण झेलते हुए पिछले 60 वर्षों से ढुलमुल नीतियों के सहारे कब तक चलेंगे ? ये सारे अनुत्तरित ज्वलंत प्रश्न है जिनका उत्तर आपको हमें ढुढ़ना है। बस दृढ मनोबल, सर्वस्च त्याग और अडिग राष्ट्रनिष्ठा से ही इनके उत्तर खजे जा सकते हैं।

स्वदेशी संगठन विस्तार के कुछ आयाम - मध्यभारत द्वारा तेयार


स्वदेशी संगठन विस्तास्वदेशी जागरण मंचसंगठन विस्तार
 स्वदेशी आन्दोलन  ऐतिहासिक ऽ स्वतंत्राता का दूसरा अध्याय आर्थिक संघर्ष

ऽ विकासशील देशों का तथा विकसित देशों की जनता का नेतृत्व शोषणकारी आथिकतंत्र से जूझने में।
 वैचारिक ऽ साम्यवादी व्यवस्था का अपूर्णता के कारण पतन

ऽ पूंजीवादी व्यवस्था द्वारा विश्व जमाज की आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक व्यवस्था रचना की ठेकेदारी इस परिस्थिति में सामाजिक एकता, समरसता, स्थाई विकास, विविधता का पोषक स्वदेशी आधारित स्वावलम्बी आर्थिक व्यवस्था का निर्माण, विश्व की व्यापक हितों के पोषक के लिए राजनैतिक व्यवस्था का संचालन
 स्वदेशी ऽ मूलतः जन-आन्दोलन परिणति होना है।
आयाम
वैचारिक ऽ स्वदेशी दर्शन - युगानुकूल होना चाहिए। व्यवस्थाओं की बारीकियों का विकास
रचनात्मक ऽ प्रकल्प स्वदेशी समाज रचना विकसित करने के लिए अनुकूल प्रकल्प उसके माध्यम से अभ्यास तथा ऐसे प्रकल्प भिन्न भिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग विषयों पर प्रकल्प चलाने वालों से समन्वय
जागरणात्मक - ऽ स्वदेशी व्यवस्थओं पर आक्रमण के संदर्भ में,
ऽ स्वदेशी विचार के कार्यक्रम
संघर्षात्मक ऽ आक्रमण के विरोध में सक्रिय विरोध

कार्यकर्ता ऽ सूक्ष्म बुद्धि (बौद्धिक क्षमता में निरंतर विकास)
ऽ स्वदेशी दृष्टि (ैूंकमेीप टपेपवद)
ऽ राष्ट्र-प्रेम
ऽ जन समीकरण - जनान्दोलन की रणनीति-कला
कार्यकर्ता निष्ठाएं ऽ दैनन्दिन जीवन में स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग (टूथपेस्ट, साबून, तैल, इत्यादी)
ऽ भोजन में स्वदेशी (तेल, नमक इत्यादि)
ऽ कपड़े (स्वदेशी कंपनी से निर्मित)
ऽ धार्मिक कार्यक्रमों में स्वदेशी (पूजा-अर्चना, दान इत्यादी)
ऽ स्वदेशी प्रचार प्रसार (प्रतीक के नाते स्वदेशी पत्रिका का सदस्य बनान का कुछ लक्ष्य)

कार्यकर्ता विकास प्रक्रिया ऽ कार्यक्रमों का आयोजन निरंतर
ऽ स्वदेशी विचार मण्डल (ैजनकल ब्पतबसम)
ऽ अलग-अलग विषयों पर विशेषा से साप्ताहित/पाक्षिक प्रस्तुति तथा चर्चा
ऽ अभ्यास वर्ग (समय-समय पर)
ऽ समाज में जन एकत्रीकरण के विषय एवं स्थानों के बारे में विशेष अध्ययन करना है।



स्व.जा.मं. समिति - ऽ संयोजक
ऽ सह-संयोजक (आवश्यकता के अनुसार संख्या)
ऽ कार्यालय प्रमुख
ऽ कोष प्रमुख (स्वदेशी हितचिन्तक मण्डली का विकास का दायित्व)
ऽ जनसंपर्क प्रमुख प्रवक्ता
ऽ स्वदेशी पत्रिका प्रमुख
ऽ स्वदेशी विचार मण्डल प्रमुख
ऽ स्वदेशी वस्तु/भण्डार विस्तार/प्रचार प्रमुख
ऽ 2, 3 वरिष्ठ समिति के साधारण सदस्य के रूप में।
ऽ युवा प्रमुख
ऽ संघर्ष वाहिनी प्रमुख
ऽ महिला प्रमुख
ऽ प्रकोष्ठ प्रमुख
प्रांत, जिला, नगर, मण्डल स्तर तक स्व.जा.म. का इकाई का गठन शीर्घ करें।
स्व.जा.मं. संचालन समिति ऽ स्व.जा.मं. मुख्य सदस्य
ऽ सहयोगी जन संगठनों के सदस्य (भा.म.सं., भा.कि.सं., रा.से.सं., वि. भारती, वि.हि.प., अ.भा.वि.प., भा.ज.पा.) जिला स्तर तक शीर्घ गठन हो।
स्व.जा.मं. परिषद् ऽ स्व.जा.मं. के समिति सदस्य
ऽ अन्य सहयोगी संगठन के मनोनीत सदस्य
ऽ स्व.जा.मं. पिछले स्तर के अपेक्षित पदाधिकारी
प्रांत स्तर तक शीर्घ गठन हो तथा सक्रिययता बढ़ाया जाना ।
निर्णय प्रक्रिया ऽ कार्यक्रमों की योजना, क्रियान्वयन आंदोलन की रणनीति के लिए बैठक व्यवस्था नियमित प्रारंभ करें।
बैठक ऽ स्व.जा.म. समिति-नगर इकाई (आदर्श स्थिति साप्ताहिक)
ऽ स्व.जा.म. समिति (संचालन समिति) - प्रांत स्तर पर-दो माह में एक बार
ऽ स्व.जा.म.-प्रांत स्तर पर - वर्ष में दो बार परिषद
वर्ष में केन्द्र से कुछ सुझाव
कार्यक्रम ऽ सित. 25-अक्टू.-02 स्वदेशी सप्ताह
ऽ दिस. 12 - स्वदेशी दिवस(बाबू गेनू बलिदान दिवस)
ऽ स्वदेशी मेला
ऽ करके देखो का आयोजन
ऽ स्वदेशी पत्रिका का अभियान सप्ताह
ऽ विदेशी बहिष्कार कार्यक्रम
ऽ स्वदेशी पुरस्कार समारोह
प्रान्त केन्द्र(विशेष) ऽ प्रान्त कार्यालय (स्वतंन्त्र व्यवस्था/स्थान)
ऽ कोष की शास्त्रीय योजना एवं नियंत्रण
ऽ कार्यालय से नियमित रूप से जिला केन्द्र तक सूचना पूर्वक एवं पत्र व्यवहार
ऽ भिन्न-भिन्न विषय (बौद्धिक संपदा आई.पी.आर., एकाधिकार, पेटेन्ट, उर्जा, बीड़ी रोजगार रक्षा, पशुधन इत्यादि पर)
ऽ सशक्त कार्यदल
ऽ बैठकों का क्रम नियमित हो
ऽ प्रवास की उचित व्यवस्था

र के कुछ आयाम - मध्यभारत द्वारा तेयार

Monday, June 6, 2011

श्री कल्याण रमण जी के कृषि सम्बन्धी सुझाव

Monday, March 10, 2008
Stop cheating voters with loan waivers, set up National Water Grid Authority, NOW.
Table of Farm suicides
Stop cheating voters with loan waivers, set up National Water Grid Authority, NOW.

Sonia (aka Antonia Maino) indulges in political immorality (see reports annexed) by this move to fool farmers with a loan waiver offer. The move will create a new ‘waiver caste’ and divide the already fragmented, shattered samajam. I don’t know who her economic advisers are. But, the disaster of Rural Employment Guarantee Scheme, just looting the exchequer, has been masterminded by a naturalized Belgian Jean Dreze. Ain’t there no economists in Bharatam? Whatever happened to the thinkers and activists of Swadeshi Jagaran Manch? Whatever happened to the Agricultural Technology experts? Why are they not mounting a peoples’ movement in all 607 districts of Bharatam to voice the farmers’ real woes?

What is the vikalpa for this madness of loan waivers and fraudulent payments doled out to politico-s for no work done?

As Sainath asked, we have to ask and answer this question: why do farmers take loans? Cultivation costs per acre have risen from Rs. 2,500 in 1991 to Rs. 13,500 in 2008. Farmers do not get a fair price. That is why farmers take loans and an a vicious circle, end up taking their lives to avoid the ignominy of being referred to as a loan-cheat. Rinamochan is the Bharatiya tradition. Not rina default and waiting for waiver largesse from state power.

During the Tenth plan period (2002-7), agriculture recorded a 2.3% rate of growth. How realistic is the target set for 4.1% in the Eleventh plan (2007-12) given the fact that there are no significant investments planned to provide for two critical inputs: soil health, water. Plan schemes and schemes like the employment guarantees are scheming political skullduggery, creating a mirage and a false hope for the farmers.

Why hasn’t the potential to increase the number of crops per year from one to four been investigated and solutions implemented? Agri commissions headed by experts produce their reports which remain as scraps of paper adorning bureaucrats’ offices with no action taken on the recommendations. Marine segment of agriculture is given the short-shrift as footnotes to agricultural project reports and plans, by not treating marine economic zones as a separate, potentially phenomenal growth zones.

I heard Dr. Sankaran, the mentor of Dr. Swaminathan in Rajaji Centre, Chennai a few years ago before he left the country in disgust to settle in USA with his children. He is the country’s outstanding agricultural scientist; he said the same thing: empower the farmer, use organic fertilizers instead of wasting public exchequer funds to import chemical fertilizers or to manufacture tuti-frutis of mud in the likes of triple whammies (triphala or whatever) of Madras Fertilisers. He also gave the sage guidance: focus on two factors --soil health and water availability.

No one in the Government or in Swadeshi Jagaran Manch seems to care about the imperative of saving agriculturists’ lives if the economy has to reach to the potential heights of Developed Nation India Vision 2020.

Panchayat Raj empowerment has remained a mere slogan with little or no powers to the Panchayat Raj institutions.

Little has been done by the UPA dispensation despite a Common Minimum Programme item to put in place a Peninsular Water Grid.

There have been suggestions for setting up, immediately, a National Water Grid Authority and no one heeds it. Such a Grid will revolutionise agriculture creating a Blue Revolution to complement the successes of the Green Revolution. It is no mean achievement of the agriculturists that the nation has survived without famine deaths beacuase agriculture production increased mainly thanks to the increase in the command area of irrigation (apart from other contributory causes such as selection of seeds, crop rotation).

The potential infrastructure which will be created through a National Water Grid will be so phenomenal, that the Eleventh Plan can be targeted to achieve even a 9% growth upto 2012 if only water is made available to every piece of arable land in the nation, in every nook and corner of every one of the villages in 607 districts. The potential estimated increase in the acreage of wet land with the interlinking of rivers alone is estimated by NWDA to be 9 crore acres of additional wet land. Water availability 24X7 will mean that every farm can have the potential for 4 crops per year, with the possibility of quadrupling agricultural production. Increasing the command area of irrigation is the key ingredient of the Grid which will involve not only river-linked canal systems, but also network of tanks, sustainable groundwater tables and desalinated sea water for drinking water supplies along the long coastline of 8118 kms. in the Indian Ocean (including Arabian Sea and Bay of Bengal).

Sonia and UPA and collaborators of the most corrupt regime of swarajyam India, stop cheating people, start setting up the National Water Grid Authority, NOW on the lines of the Konkan Railway Corporation involving every Panchayati Raj Institution as stakeholders in this Authority. This Authority will need no largesse from the Central or bankrutpt State Budgets, but can draw upon public funds through issuance of Sarasvati and Brahmaputra bonds to reach Manasarovar waters to Gujarat and to reach Brahmaputra flood waters to Kanyakumari.

It is time for action, not mere political gimmicks. Set up National Water Grid Authority, NOW to start implementing the NWDA masterplan without any further moment’s delay.

Dr. S. Kalyanaraman

Budget can’t write off suicides
SATISH NANDGAONKAR AND G.S. RADHAKRISHNA
March 10 (Kolkata, Telegraph): Ghanshyam Mirge, 38, of Akola in Maharashtra and 35-year-old Jayarami Reddy from Andhra’s Kurnool had a lot in common — both are young farmers owning around 8 acres, steeped in debt and not eligible for P. Chidambaram’s loan waiver.
The similarity doesn’t end there: both took their lives last week.
Satyanarayan Reddy, also from Kurnool, had around 4 acres, which qualified him for a waiver. But since most of his money was owed to moneylenders who had put him in jail and now threatened to get his wife arrested as well, Reddy, too, killed himself.
As did Kashinath Belure (60) of Bidar in Karnataka. He would have got a total loan waiver but for the fact that he was indebted to moneylenders.
Nearly 60 farmers have taken their lives in India’s death bowl since Chidambaram announced the farm loan waiver 10 days ago.
Questions have been raised about the largesse because the complete loan waiver is limited to the 3 crore marginal and small farmers owning up to 2 hectares (4.9 acres). Those with over 2 hectares — around 1 crore farmers — will get a 25 per cent discount for a one-time settlement.
Economists had also pointed out that farmers had borrowed heavily from moneylenders as well, and the government had no answers to that.
The highest number of deaths has been reported from Andhra, where 35 farmers have committed suicide since February 29, when the finance minister unveiled the waiver plan in the budget. Barring a couple, all the farmers owned over 5 acres, which meant they had to cough up 75 per cent of the money.
At least 22 farmers killed themselves in Maharashtra’s Vidarbha region, among the worst hit by the debt cycle, while two deaths have been reported from Karnataka. All the Vidarbha farmers had over 5 acres of land.
The Vidarbha Jan Andolan Samiti, an NGO based in the Pandhakavda region of Yawatmal, the Maharashtra district with the highest number of suicides, said the announcement has had little impact on the farmers who grow cotton and are burdened with loans from banks as well as private moneylenders.
Like Kisan Uike, 32, who consumed pesticide in Khadki village, 50km from Nagpur. Uike, the owner of around 8 acres, had an outstanding loan of Rs 43,000, which had ballooned to Rs 75,000 because of interest accumulation.
“Twenty-two farmers have killed themselves since the budget. This indicates that the farmers have no faith in the government and its announcements,” said Kishore Tiwari, convener of the samiti, which maintains a “death register” of the suicides in six districts of Vidarbha.
According to the samiti’s records, 80 farmers had killed themselves in January, 66 in February and, in March, the figure could be higher.
Not all farmers are overjoyed by the waiver. Vidarbha’s farmers say their counterparts in western Maharashtra, whose land holdings are smaller and who have higher loan amounts, were likely to benefit more.
Prabhakar Reddy of Marrikunta village in Kurnool, around 700km away, echoed them. “We don’t want any charity or freebies. Let the government organise agricultural credit during harvesting, subsidies in seeds and fertilisers. We will ensure that the loans are repaid in time,” he said.
The majority of the deaths in Andhra has been of farmers badly hit by the recent unseasonal rain. Narne Rama Rao (45) had sown groundnut crop but the rains destroyed his livelihood and swamped him with loans of Rs 12 lakh. Narne did not take his life, he died of a heart attack.
Leaders from the Congress, which hopes to reap the benefit of the scheme in the spate of elections to be held over the next 12 months, tried to soften the blow.
Maharashtra chief minister Vilasrao Deshmukh said he would ask the Centre to either increase the ceiling to 15 acres or offset loans of Rs 50,000 for all farmers irrespective of land holdings.
“The suicides and the loan waiver have no link,” said a Congress spokesperson in Andhra.
With inputs from Anil Budur Lulla
http://telegraphindia.com/1080311/jsp/frontpage/story_9005657.jsp

Nearly 1.5 lakh farm suicides from 1997 to 2005
P. Sainath (The Hindu, Nov. 12, 2007)
Nearly 1,50,000 Indian farmers committed suicide in nine years from 1997 to 2005, official data show. While the suicides occurred in many States, nearly two-thirds of such deaths were concentrated in five States where just a third of the country’s population lives. This means that farm suicides occurred in these (mainly cash crop) regions with appalling intensity.
The five States are Maharashtra, Andhra Pradesh, Karnataka, Madhya Pradesh (including Chattisgarh) and Kerala. Of these, only Kerala showed no sustained increase in the number of yearly farm suicides over this period. That was mainly because of a decline after 2003, which was that State’s worst year. Maharashtra, for which data exists from 1995, is by far the worst-hit. Farm suicides there more than trebled from 1083 in 1995 to 3926 in 2005.
Suicides as a whole rose nationally in the 1997-2005 period. But the rate of increase in farm suicides was far higher than the rate of increase in suicides by non-farmers. In Maharashtra, Andhra Pradesh, Karnataka and Madhya Pradesh, the percentage increase in farm suicides were more than double the increase in non-farm suicides in this period.
While suicides by non-farmers went up by 23 per cent in the Big Four States, farm suicides went up by 52 per cent. Indeed, these States might be termed the “Suicide SEZ” or “Special Elimination Zone” for farmers this past decade. In 1997, these States accounted for 53 per cent, or just over half of all farm suicides in the country. By 2005, it was 64 per cent.
That is, in less than a decade, their share of farm suicides, already disproportionately high, leapt to nearly two-thirds.
These and other grim findings emerge from a comprehensive study of official data on farm suicides by Professor K. Nagaraj of the Madras Institute of Development Studies (MIDS).
The data analysed by him were drawn from various issues of Accidental Deaths and Suicides in India.
This is a publication of the National Crime Records Bureau, Ministry of Home Affairs, Government of India. The period covered by the study is from 1997-2005.
http://www.hindu.com/2007/11/12/stories/2007111257790100.htm

Farm suicides worse after 2001 — study
P. Sainath (The Hindu, 13 Nov. 2007)
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While the number of farm suicides kept increasing, the number of farmers has fallen since 2001, with countless thousands abandoning agriculture in distress.
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http://www.hindu.com/2007/11/13/images/2007111352250901.jpg

Although National Crime Records Bureau (NCRB) data confirm an appalling 1.5 lakh farm suicides between 1997 and 2005, the figure is probably much higher. Worse, the farmers’ suicide rate (FSR) — number of suicides per 100,000 farmers — is also likely to be much higher than the disturbing 12.9 thrown up in the 2001 Census.
In the five years from 1997 to 2001, there were 78,737 farm suicides recorded in the country. On average, around 15,747 each year. But in just the next four years 2002-05, there were 70,507. Or a yearly average of 17,627 farm suicides. That is a rise of nearly 1,900 in the yearly averages of the two periods. Simply put, farm suicides have shot up after 2001 with the agrarian crisis biting deeper.
A comprehensive study of official data on farm suicides by K. Nagaraj of the Madras Institute of Development Studies (MIDS) pins down these and other figures. The data analysed by Professor Nagaraj are drawn from the various issues of Accidental Deaths and Suicides in India, a publication of the NCRB. But Professor Nagaraj also explains some of the reasons why the actual numbers and farmers’ suicide rate (FSR) could be far higher.
In 2001, when the farm suicides were not yet at their worst, the FSR at 12.9 was already higher than the General Suicide Rate (GSR) — suicides per 100,000 population — at 10.6. But even this higher suicide rate among farmers conceals a far worse reality. Firstly, the NCRB data seem to underestimate the number of farm suicides. This is because the criteria adopted for identifying a farm suicide at the State level are quite stringent. For instance, women and tenant farmers tend to get excluded from lists of farmers’ suicides. In those lists, only those with a title to land tend to be counted as farmers. On the other hand, the Census data are based on a very liberal definition of ‘cultivator.’
Categories of cultivators
The 2001 Census gives data on two categories of cultivators: Cultivators among ‘main workers’ and those among ‘marginal workers.’ For the first group — cultivators among main workers — farming is the main activity. The second group includes those who practice cultivation only on a sporadic basis. However, both groups get counted as farmers. The net result of this is that while deriving the farm suicide rate from the NCRB and Census data, we are saddled with figures that undercount farm suicides but overcount the number of ‘farmers.’ Hence a value of 12.9 for the FSR is likely to be way below the mark. As Professor Nagaraj points out, “If we took only the cultivators among the main workers as farmers, the FSR increases dramatically to 15.8 which is nearly one and a half times the GSR of 10.6 in 2001.”
Secondly, the FSR is anchored in 2001 because that is the year of the Census. However, it was not one of the worst years in terms of farm suicides. Farm suicides in that year actually fell when compared to the previous year, 2000. But the very next year, in 2002, farmers’ suicides leapt by about 10 per cent. And the number of such deaths peaked in 2004. So while the number of farmers’ suicides shows a rising trend after 2001, the number of farmers may well have declined.
The trend of a decline in cultivators seems to have begun even earlier. The 1991 Census says there were 111 million cultivators among main workers. This fell to 103 million in the 2001 Census. This decline would surely have sharpened after 2001 as the farm crisis deepened. Certainly farming has no new takers.
As Professor Nagaraj’s study shows, the Annual Compound Growth rate (ACGR) for all suicides in India over the nine-year period 1997-2005 is 2.18 per cent. This is not very much higher than the population growth rate. For farm suicides, it is much higher, at nearly 3 (or 2.91) per cent. An ACGR of 3 per cent in farm suicides is more alarming as it applies to a smaller total of farmers each year. This means the farm suicide rate must have shot up after 2001.
Suicides by farmers went up 27 per cent during the 1997-2005 period. But non-farm suicides went up by 18 per cent. Indeed, the general suicide rate declined after 2001 — from 10.6 in 2001 to 10.3 in 2005. Which means the increase in general suicides has not kept pace with the increase in the general population. So by all accounts, while the number of farm suicides kept increasing, the number of farmers has fallen since 2001, with countless thousands abandoning agriculture in distress. Which would mean that farm suicides are mounting even as the farm population slowly declines.
Huge differentials in numbers
Lastly, whether we take the farm suicide rate as 12.9 or 15.8, it is the figure for the country as a whole. That again hides huge differentials in the numbers and intensity of farm suicides across the country. There are States and regions in the country where the FSR is appallingly high. There are regions where it is mercifully still low.
Professor Nagaraj accordingly divided the States into four groups. Group I: States with very high general suicide rates. Group II: States with high general suicide rates and large numbers of farmers’ suicides. (This is the most important group.) Group 3: States with moderate general and farm suicide rates. And Group 4: States with low general and farm suicide rates (See Table).
What demarcates the Group II States — clearly the worst hit — is also the trend in suicides, which is most dismal there. This key group includes Maharashtra, Andhra Pradesh, Karnataka, and Madhya Pradesh (including Chhattisgarh) and Goa. (The last with tiny absolute numbers.) The ratio of farmers’ suicide rate to the general suicide rate was highest in this Group (see Table). The overall ratio of this group is 1.7. Which means the farm suicide rate in these States is 70 per cent higher than it is in their whole population.
Of the major States, Maharashtra has the worst figure with a ratio of farmers’ suicide rate to general suicide rate of 2.0. That is, one hundred per cent higher. This is followed by Karnataka with 1.6. Of the smaller States, Kerala (from Group I) has the awful figure of 4.7. But it also shows a decline from 2004. Puducherry shows up as the worst with 15.4. Of course, the last two have smaller absolute numbers.
The trend for Group II is most dismal. The AGCR for farm suicides in these States for the 1997-2005 period was 5.33. Or nearly double the national figure of 2.9. And if this trend holds, farm suicides in this group as a whole would double every 13 years. Among these States, Maharashtra and Andhra Pradesh would fare even worse.
http://www.hindu.com/2007/11/13/stories/2007111352250900.htm

17,060 farm suicides in one year
P. Sainath (The Hindu, 31 Jan. 2008)
Uptrends in major States unchanged
Mumbai: Farm suicides in Maharashtra rose dramatically in 2006, more than in any other part of the country. The State saw 4,453 farmers’ suicides that year, over a quarter of the all-India total of 17,060, according to the National Crime Records Bureau (NCRB) in its report Accidental Deaths and Suicides in India, 2006. That is the worst figure recorded ‘in any year for any State’ since the NCRB first began logging farm suicides.
The previous worst — 4,147 in 2004 — was also in Maharashtra. It has seen ‘36,428 farmers’ suicides’ since 1995, ‘in official count.’ ‘2006 is the latest year for which data are available.’
The suicides in Maharashtra mark an increase of 527 over the 2005 figure. This was four and a half times bigger than that in Andhra Pradesh, the next worst-hit State, which saw a rise of 117 farm suicides over 2005.
It was also more than twice the increase of 198 in Madhya Pradesh and Chhattisgarh taken together.
Worse, it means farmers accounted for half ‘the increase’ in all suicides in Maharashtra in 2006.
Significantly, Maharashtra’s upward spike occurred in the year when the relief packages of both the Prime Minister and Chief Minister — worth Rs. 4,825 crore in all — were being implemented in the Vidharbha region, where suicides have been most intense.
The NCRB figures show an unrelenting uptrend in what can be termed the ‘SEZ’ or (Farmers) ‘Special Elimination Zone’ States. These States, which account for nearly two-thirds of all farm suicides in the country, include Maharashtra, Andhra Pradesh, Karnataka and Madhya Pradesh (including Chhattisgarh).
As a group, the ‘SEZ’ States saw an increase of 6.2 per cent in such deaths.
Among them, Maharashtra (4,453), Andhra Pradesh (2,607) and Madhya Pradesh-Chhattisgarh (2,858) show a sharp upward spike.
Karnataka (1,720) reports a decline. So though the all-India numbers for 2006 reflect a very small decline of 61 over the 2005 figure of 17,131, the broad trends of the last decade continue. And the trend of rapidly rising farm suicides, particularly post-2001 in the ‘SEZ’ States, remains unchanged.
So the minuscule decline in the figure for the country as a whole marks no break from the dismal decade-long trend.
NCRB data record 1,66,304 farmers’ suicides in a decade since 1997.
Of these, 78,737 occurred between 1997 and 2001. The next five years — from 2002 to 2006 — proved worse, seeing 87,567 farmers take their own lives.
This means that on average, there has been one farmer’s suicide every 30 minutes since 2002.
http://www.hinduonnet.com/2008/01/31/stories/2008013160930100.htm

Farm Suicides in India, The Result of Profit Driven "Free Market" Reforms

By P. Sainath

Global Research, April 7, 2007

The Hindu

And Meanwhile in Vidharbha

There have been some 250 farm suicides in just the first three months of this year. Things could be a lot worse after June. And, as always, the farm suicides are a symptom of the crisis, not its cause.
Farm Suicides in Maharashtra rose by over 354 per cent between 1995 and 2003. That's if the data of the National Crime Records Bureau are anything to go by. Strictly speaking they are not, being gross under-estimates. They draw from local machinery, which from region to region leaves out thousands from the lists of farm suicides. Yet, they still present a clear trend — a painful one. Even these twisted numbers show that farm suicides went up from 1,083 in 1995 to 3,836 eight years later.
For one thing, these figures are for all of Maharashtra. Which means if we were looking at just Vidharbha or Marathwada, the rise would be more horrendous. For another, these regions saw their greatest spurt in farm suicides after 2003 — where the last available NCRB data stops. The government of Maharashtra admits to 1,447 farm suicides in 2006 alone. And that's in only six districts of Vidharbha. So just these six districts saw far more suicides in 2006 than the whole State did in 1995. That's if we give credence to official readings of the data.
Events on the ground confirm the trend, if not the accuracy of the data. Nine women turned widows on International Women's Day in Vidharbha. That's how many farmers took their lives on March 8. The highest on a single day in the region's recent history. Till two weeks later, when it happened again. There have been some 250 farm suicides in just the first three months of this year. Things could be a lot worse after June. And, as always, the farm suicides are a symptom of the crisis, not its cause. They are its outcome, not its engine.
Just months from now, Vidharbha could see its first 100 per cent Bt cotton season. Bt cotton accounted for over 60 per cent of acreage last season. As acreage under it rises, so do the risks taken by the farmer. The Maharashtra government admits Bt cotton has fared very poorly in rain-fed regions. And it's clear that the seed companies might market much less of hybrid varieties in the coming season, if they do that at all. Why sell hybrid when there's more money to be made in Bt cotton? So even as many, including the National Commission on Farmers, call for making Vidharbha "an organic farming zone," the reverse process is in full swing. Even apart from its report, the NCF chairperson, Dr. M.S. Swaminathan, pressed the government of Maharashtra on the notion of an organic zone. But the State's own seed corporation is a major distributor for Bt cotton.
This gets more worrying when you look at the record of the last few years. The government began the last season's harvest with boasts of a "record" 350 lakh quintal "bumper crop." The claim was made by the State's Minister of Marketing, Harshvardhan Patil. And this grand success was swiftly credited to Bt cotton in some media reports. As the run of events punctured these claims, the figure was scaled down more than once. This is further confirmed by how little of cotton the official agencies have procured. For all of them together, the figure has not crossed 70 lakh quintals. And private traders are believed to have picked up around 110 lakh quintals.
In short, less than 180 lakh quintals. And this in a time of distress when the numbers should have been much higher, when farmers would have been desperate to sell. It means production could not have topped 220 lakh quintals, and could well have been less. Consider that in the `non-Bt cotton year' of 2003, procurement alone was over 210 lakh quintals. Production was far higher, at close to 250 lakh quintals.
This equation shows how high the risks are in the coming season. Vidharbha did better in a `non-Bt cotton year' than during one in which more than 60 per cent of the acreage was under Bt cotton. The State government's own report informs us that in preceding seasons too, "In rain-fed conditions, Bt cotton has not paid good returns." And 97 per cent of cotton grown in Maharashtra is unirrigated. Here's the nub: a poor monsoon could make the earlier crisis seasons look like the good old times.
There's more irony to the vanished `bumper crop.' It has in fact been so hard to find that cotton prices are better than we've seen in a long time. In some places, they are as high as Rs.2,400 a quintal. At Rs.1,500 a quintal, soybean too is getting a better deal than before. Well, go easy on the cheers. It means that most farmers will go back to these crops again. The present prices, though still not good enough for cotton, will prove tempting. True, some people have turned to other crops. And it would be a good thing, further, if even cotton growers reserved an acre of their lands for jowar. That would give their families some security. But this is not happening on any large scale.
When they return to cotton months from now, it will be to a Bt cotton-saturated season. Input prices will be higher. And yes, they will still use lots of pesticides. And the credit crunch will be far worse. Farmers are already figuring out the high cost of low interest loans. To begin with, very few had access to these six per cent interest loans. Those not repaying their sums by March 31 are out of the loop. Since not more than 20 per cent of them can do that, it means that farmers will be facing the old, higher rates again, very soon.
Since there has been no loan waiver, most will be unable to access the credit they need from the banks. So it's back to the new loan sharks: the input dealers, the sellers of seed, the fake finance companies. The more this happens, the more the dealers will determine the inputs the farmers use. And, as an official report put it, for Bt cotton, "the yields have been unstable." ( The Hindu , November 25, 2006). "When farmers invest heavily in purchasing seeds and other inputs, the net return has often been negative."
What's more, there is nothing to suggest that the present cotton prices will rule next season. Not a step has been taken towards a price stabilisation fund. That would have made a big difference. But it's another NCF recce that bites the dust.
With things that serious, you'd expect a sense of urgency in the government. True, a handful of officers have on their own made efforts to study and measure the crisis. As a government — not a thing has changed. The Prime Minister's package is a shambles. The Chief Minister's efforts consist of contacting more Babas and Ammas for the spiritual salvation of the Vidharbha farmer. Salvation comes at a price. Which could translate into a number of these godmen being gifted prime pieces of real estate worth crores of rupees in due course. Their agents are already out scouting for the best locations, which they will then ask the government for. The business end of spirituality has always been deeply rooted in terra firma.
If anything in this mess occupies the government's mind at all, it is the mounting numbers of suicides. These do not constitute the crisis in itself. But they are a great tragedy and bad publicity. And a huge embarrassment to the extent this government can experience that emotion at all. So the state get ever more creative.
The number of suicides in six Vidharbha districts gets worse. So how do we bring them down? By upping the `rejection rate' of such suicides. Surely we are the only country in the world that has a category called `eligible suicides.' (As distinct, say, from eligible bachelors or the like.) This term refers to those cases the state deems are `real' farmers suicides. This means the affected families will get some compensation. It does not matter that the rest — the ineligible — are just as dead. Or that their families suffer no less.
One government report records that the "number of cases reported" in the six districts in 2002 was 105. In 2006, that number was 1,447. That's an increase in farm suicides of over 1,300 per cent in cases reported in five years. But while 69 per cent of the cases in 2002 were found `eligible' for compensation, just 40 per cent of last year's cases were found `eligible.' So more and more farmers are killing themselves. But fewer of these deaths will be counted as `farmers suicides.' In 2006, this rejection rate rose sharply almost every month of the year. For instance, 60 suicides were found `not eligible' in January last year. In October the same year, the rejected cases were 120. Ever growing numbers are rejected in this desperate bid to dilute the bad news.
Simply put, what's rising fastest in Maharashtra is self-delusion. We could see big trouble from May-June onwards. Which could be terrible by Diwali time if the monsoon emulates the State and Central governments in its functioning.

Palagummi Sainath is an award winning Indian journalist based in Mumbai. His articles have focussed on the social impacts in rural areas of India's IMF sponsored economic reforms. Sainath's writings illustrate how these reforms have led to poverty, social destitution and famine.
http://www.globalresearch.ca/index.php?context=viewArticle&code=SAI20070407&articleId=5296

Alarming Rates of Farm Suicides in India
A latest report by Prof. K Nagaraj of the Madras Institute of Development Studies (MIDS) and published in The Hindu revealed that within 1997 to 2005, the states of Maharashtra, Andhra Pradesh, Karnataka and Madhya Pradesh (including Chhattisgarh) accounted for 43.9 per cent of all suicides and 64 per cent of all farm suicides in the country.
In another article for the Counterpunch dated 17/18 Nov by the same writer, P. Sainath commented that 150,000 Indian farmers were estimated to have committed suicide within that period. That works out to an average of one Indian farmer passing away every 32 minutes.
Professor Nagara who culled the data from National Crime Records Bureau (NCRB) said the estimated figure “is a bottom line estimate” as it excludes people such as tenant and women farmers.
The cause, according to Professor Nagaraj is the domination of highly diversified, commercialised agriculture; water stress; compounded by dissipating state investment in agriculture. As these costs increase, lack of regulation pertaining to the sector worsened the problem.
US and EU subsidies to their growers also cause prices to drop while large corporations engaged in price rigging.
“From the mid-’90s onwards,” points out Professor Nagaraj, “prices and farm incomes crashed. As costs rose - even as bank credit dried up - so did indebtedness. Even as subsidies for corporate farmers in the West rose, we cut our few, very minimal life supports and subsidies to our own farmers. The collapse of investment in agriculture also meant it was and is most difficult to get out of this trap.”
In an article for Znet, “The Suicide Economy Of Corporate Globalisation”, Vandana Shiva attributed the causes to what Professor Nagaraj mentioned - rising production costs and decreasing selling prices.
The writer accused the World Bank of its structural adjustment programs that forced India to open up its seed sector to global corporations such as Cargill, Monsanto, and Syngenta.
Farmers are compelled to purchase these patented seeds which cannot be saved and which required fertilizers and pesticides. Seeds which used to be free and which can be saved became a cost which farmers had to buy annually, thereby, causing widespread poverty and debt.
Planting only corporate seeds also mean that one type of crop is grown which indirectly spells the disappearance of traditional and diverse crops such as legumes, millets, and oilseeds. Planting only one type of crop also increases the risks of crop failure.
The free trade WTO rules in agriculture also allows dumping which cause prices to drop while EU and US subsidises its own agricultural sector.
In short, neoliberalism does kill, in this case, the Indian farmers who are driven to debt… …
http://aussgworldpolitics.wordpress.com/2007/11/20/alarming-rates-of-farm-suicides-in-india/

Farm suicides on the rise
Relief packages are not enough (The Tribune, 4 Feb. 2008)
The countrywide figure of 17,060 farm suicides in 2006, released by the National Crime Records Bureau, is shockingly high and is bound to ring alarm bells. Maharashtra tops the list with 4,453 suicides in one year followed by Andhra Pradesh, Madhya Pradesh and Chhattisgarh. The first reaction to the news has come from Maharashtra Chief Minister Vilasrao Deshmukh, who has claimed that every suicide cannot be linked to indebtedness and that the number of suicides in his state has gone down as has been reported in the local media.
There may be some cases, no doubt, unjustly clubbed with farm suicides to claim compensation. However, it is also true that the ruling political parties tend to downplay tragedies in the fields to avoid any adverse electoral fallout. For instance, in Punjab there have been off and on reports of indebted farmers being driven to suicide. When the state was left out of the Central package for distressed farmers, NGOs and representatives of peasants alleged that the state government had not presented a correct picture of the ground reality to the Centre. All this points to the absence of an independent, reliable national agency capable of scientifically holding farm surveys.
Nonetheless, there is no denying the fact that farming is no longer a remunerative occupation and indebted farmers have been forced to end their lives. To be fair, the UPA government has certainly taken steps to strengthen irrigation and improve access to farm credit, but still much remains to be done. Farm labour, unfortunately, does not figure adequately in the government programmes. A recent survey by the Punjab State Farmers Commission shows that 70 per cent of the farm labourers in the state are also under debt. The solution to farm problems does not lie in announcing piecemeal packages for particular states but in making concerted efforts, both at the Central and state levels, to accelerate agricultural growth and promote supplementary avenues of income.
http://www.tribuneindia.com/2008/20080204/edit.htm#2

Farmers should look at alternative sources of income : Pawar
9 Mar, 2008, 0310 hrs IST, PTI

AHMEDNAGAR: Union Agriculture Minister Sharad Pawar said the loan waiver for farmers announced in the budget this year can not be a recurring phenomenon, the farmers should also consider alternative sources of income.

If this amount was spent on water conservation all farmers in the country would have been benefited, Pawar said at model village Hivare Bazar.

Though the decision to waive loan to check farmers suicide has been taken, in consultation with the Prime Minister and Finance Minister, it has benefitted a certain section of farmers.

Advising the farmers, Pawar said suicide is not the solution to their problem but they should face the situation.

http://economictimes.indiatimes.com/News/Economy/Policy/Farmers_should_look_at_alternative_sources_of_income__Pawar_/rssarticleshow/2848849.cms

This waiver is immoral
9 Mar 2008, 0000 hrs IST , Gurcharan Das (Times of India)

Nagoba Khamnakar feels like a fool. Like many farmers in his village of Mahakurla in Chandrapur, Maharashtra, he borrowed money from his bank last year. He repaid it diligently, in instalments and on time. Many of his neighbours, however, did not. When the finance minister announced last week in his Budget an amnesty against repayment of small farm loans, he said sadly, “What is the use of being honest?”

Cancelling debts of small farmers worth a massive Rs 60,000 crore, equal to 3% of all loans in the entire banking system, was a staggering, seductive but hugely destructive act. When Devi Lal announced a similar loan waiver worth Rs 9,000 crore in 1990, he killed most cooperative and rural banks.

Farmers stopped repaying loans, banks stopped lending to them and it took 10 years for the nation to recover from that mistake. When we hurl abuse at Devi Lal, we always add, “What did you expect from an illiterate peasant!” But what do we say to a government headed by eminent economists and reformers?

One’s heart goes out to those in distress in the rural areas. There is great suffering, indeed, in our villages. But there are other, better ways to relieve it without turning the nation dishonest.

For example, a sustainable crop insurance programme or a restructuring of the loans would have done much more good. There will be distress again; farmers will borrow again; and get into trouble again. A crop insurance scheme will then come to their aid, unlike this one-time political bribe. Sharad Pawar, the agriculture minister, admitted as much when he confessed the day after the Budget — “I cannot say if (suicides) will stop after this loan waiver.”

Human society is based on trust. When an ordinary person takes a loan, he feels duty bound to repay it. He will even sell his family’s jewellery to fulfill his promise. This is because we learned as children from our mothers to keep promises. Tulsidas’ ideal, praan jaye par vachan na jaye was held up to us as a moral ideal. We admire Karna in the Mahabharata for not switching sides because he had given his word to Duryodhana. This loan waiver wounds that moral universe. It tells the farmer not to bother to repay his next loan, because, who knows, another party will be in power and it, too, will cancel his debts.

What message does this send to the honest village woman who struggles every week to repay her micro-loan? It is like excusing the crooked businessman who bounces his cheque. Or bailing out victims of sub-prime loans in America who are clamouring for a similar act of false compassion.

The irony is that the UPA government might actually lose more votes than it gains from this loan waiver. According to NSSO figures, almost 60% of farm loans are from moneylenders. They will not benefit.

The R Radhakrishna Committee says that farmers from the suicide prone areas of Vidharbha and Chattisgarh will benefit less than the richer farmers in the irrigated areas who grow sugar cane and grapes. Since those who will not benefit (or benefit less) are greater than those who will, resentment will build, and the UPA might end up losing more than it gains. Sharad Pawar has understood this.

Hence, he told the farmers of India last week, “Don’t pay a single paise to moneylenders.” No one likes the village sahukar, but to break a promise to someone you don’t like is just as wrong as to someone you do.

Imagine the staggering paradox — to turn a nation dishonest in order to win an election, and then go on and lose it! This is one irony that the UPA government might prefer to forget.

http://timesofindia.indiatimes.com/rssarticleshow/msid-2848572,prtpage-1.cms

Chitrangada Choudhury, Hindustan Times
Mumbai, March 11, 2008
First Published: 01:03 IST(11/3/2008)
Last Updated: 01:11 IST(11/3/2008)
Loan waiver will do little for Vidarbha farmers
The biggest farm loan write-off in India’s history will do little for the men who need the most help: the farmers in the suicide-prone belt of Vidarbha in Maharashtra. It will benefit farmers in Maharashtra’s six richest districts, among them Union Agriculture Minister Sharad Pawar’s home district of Pune.
The Union Budget had offered a complete loan write-off for farmers with up to 2 hectares of land, and discounted loans for farmers with larger farms.
Of the Rs 12,375 crore loan write off for Maharashtra's farmers, Rs 10,500 crore will comprise this complete erasure of loans for small farmers(see box). Of this, only Rs 536 crore (or 5 per cent) will be for Vidarbha, where over 2,100 farmers have killed themselves since Prime Minister Manmohan Singh visited the region in July 2006.
Only 4 lakh of the estimated 17 lakh cotton-growing households in this region will get complete waivers. Another 2.5 lakh farmers holding over 2 hectares of land will have their loans reduced to the tune of Rs 488 crore.
These details have emerged from an analysis (to which the Hindustan Times has obtained access) by the state’s agriculture and co-operative departments.
In six districts in Maharashtra’s prosperous swathe of sugarcane and grape farms stretching from Jalgaon in the north to Kolhapur in the south, farmers are seeing a write-off of close to four times that, or Rs 2,437 crore. Another 4.4 lakh farmers with farms larger than 2 hectares will see their loans reduced to the tune of Rs 1,973 crore.
The state government is now asking the Centre for a sharper targeting of the waiver, saying that size of land holdings should not be the sole determinant.
“We want them to write off farm loans of up to Rs 50,000, irrespective of the size of a farmer’s land. These issues will emerge in the Parliament’s discussion of the budget,” said Minister of Agriculture Balasaheb Thorat.
He said Vidarbha’s poor irrigation meant that farmers with holdings of over 2 hectares were also in heavy debt, but will not have loans waived. These farmers have bigger plots of land, but no access to irrigation.
They have to depend merely on the monsoon. The state has found that 98 per cent of farmers who kill themselves had no provisions of irrigation.
An analysis by economist Srijit Mishra, who was on a panel set up by the Prime Minister to study rural indebtedness, shows that while only 50 per cent of farmers in Yavatmal (one of the Vidarbha districts that has reported the most number of suicides) have holdings below 2 hectares, 76 per cent of farmers in Pune district fall in this category, making them eligible for the waiver.
Mishra said: “The waiver accepts a crisis. But there is nothing above it to stymie the crisis, to address its roots.”
Agrarian economist Ajay Dandekar, who studied the suicides for the Bombay High Court in 2004, agreed: “In Vidarbha, the crisis has been in the making for several years, putting farmers out of the formal credit system three or four years back. Moneylending is rampant. The write off might turn out to be a great Indian rope trick unless authorities look at the specifics of Vidarbha, where farmers need measures that will leave money in their hands, like fair pricing.”
http://tinyurl.com/23uqj7

Sonia: Waiver to benefit women

By Venkat Parsa (Asian Age, 8 March 2008)

New Delhi, March 8: Congress president Sonia Gandhi on Saturday asserted that the recent loan waiver for farmers, unveiled in the Union Budget, would have the larger benefit of helping women. Women are the first to be hit during any calamity. Even in farmer suicides, women are the worst hit, she said.

"A farmer’s suicide not only ends his life but casts a shadow on his family and children. It is for this reason that Prime Minister Manmohan Singh took the step to waive loans to the tune of Rs 60,000 crores and I thank him for this bold measure," she said. The loan waiver will benefit a staggering four crore farmers in the country who are reeling under debts.

Speaking after giving away the Stree Shakti Puraskar to mark International Women’s Day, Mrs Gandhi spoke of her dream of a society free of female foeticide, dowry deaths and where every girl is educated and said that this dream can be realised only through a collective effort. Underlining the urgent need to end female foeticide, she said there was no distinction between a boy and a girl. "The journey to women’s empowerment should not be halted," she said. Earlier, Mrs Gandhi hoisted the Ananya flag, which was specially designed with rainbow colours to celebrate the multi-faceted talents of women.

Listing out the several initiatives of the Congress-led UPA government at the Centre for making laws stringent to help women, raising IT exemption, launching special schemes, strengthening self-help groups (SHGs) and micro-finance, Mrs Gandhi said that the National Rural Employment Guarantee Scheme also would greatly benefit women as the scheme is all set to be universalised from April 1.

Praising the role of anganwadi workers at the grassroots level, the UPA chairperson complimented the government for raising their honorarium by 50 per cent. Recalling the dream of the late former Prime Minister Rajiv Gandhi to empower women, Mrs Gandhi said as a result of his pioneering effort, 10 lakh women have been elected in panchayati raj institutions.

Union women and child development minister Renuka Chowdhury said that in PPP mode, destitute women were imparted training in housekeeping and hospitality sectors, besides in the beauty and wellness sector, so that they have better employment opportunities. Stating that the Union Budget marked a leap of 24 per cent in the allocations for the WCD ministry, Ms Chowdhury said that it is for the first time that there is a "gender-sensitive" government.

http://newsrack.in/DisplayNewsItem.do;jsessionid=98D15F7A8EF84C7704D8F127AF224560?ni=9.3.2008%2F754.AsianAge%2Fsonia-waiver-to-benefit-women.aspx
Posted by S. Kalyanaraman at 5:24 PM 1 comments:
Jayesh A Patel said...
http://dharmic-aryan.blogspot.com/
is my blog excellent blog will look over in time

September 4, 2008 2:23 PM
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Sunday, June 5, 2011

बाबा रामदेव के समर्थन में स्वदेशी की समाचार विज्ञप्ति

बाबा रामदेव के समर्थन में स्वदेशी की समाचार विज्ञप्ति प्रेस विज्ञप्ति
दिल्ली के रामलीला मैदान में स्वामी रामदेव द्वारा लोकतान्त्रिक रूप से किये जा रहे आन्दोलन को समाप्त करने के लिये सरकार द्वारा की गई अलोकतान्त्रिक एवं बर्बरता पूर्ण कार्यवाही की स्वदेषी जागरण मंच घोर निन्दा करता है। बाबा रामदेव विदेषेां में जमा कालेधन को राष्टीय सम्पत्ति घोषित करने की एवं अन्य मांगों को लेकर 4 जुन 2011 से अनिष्चित काल के लिये अनषन पर बैठे थे।
आज सम्पूर्ण भारत वर्ष के लोग भ्रष्टाचार विषेष रूप से वर्तमान केन्द्र सरकार के कार्य काल में हुये 2 जी स्पेक्ट्रम एंव कामनवेल्थ खेलों में हुये विषालतम भ्रष्टाचार के विरूद्ध आन्दोलनरत हैं। वर्तमान सरकार भ्रष्टाचार के विरूद्ध कार्यवाही करने के बजाय लोकतान्त्रिक रूप से किये जा रहे आन्दोलनों का बलपूर्वक दमन करने पर उतारू हुई है । इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि सरकार जनता को भ्रष्टाचार एवं देष को लूट से बचाने की बजाय कालेधन व भ्रष्टाचारियों के संरक्षक रूप में कार्य कर रही है।
स्वदेषी जागरण मंच का मानना है कि प्रष्न केवल केवल बाबा रामदेव पर की गई कार्य वाही का नही है बल्कि वास्तविक मुद्दा देष में व्याप्त भ्रष्टाचार एवं सेंकडों लाख करोड रू. के कालेधन का है । जिसकी मात्रा देष की राष्ट्रीय आय के 6 गुना से भी अधिक है।
सरकार की वर्तमान कार्यवाही देष की समस्त लोकतान्न्त्रिक ष्षक्तियों के सम्मुख एक चुनौती है। यह कार्य वाही हमे जलियांवाला बाग की याद दिलाती है, जिसमे तत्कालिन ब्रिटिष सरकार ने लोकप्रिय जन आन्दोलन को कुचलने कि कौषिष की थी । स्वदेषी जागरण मंच देष के लोगों को ,1975 में तत्कालिन कांग्रेस सरकार द्वारा देष में लगाये गये आपात काल के बारे में याद दिलाना चाहता है जिसमें लोखेां लोगों को बिना कारण ही 19 माह के लिये जैलों में ठुस दिया गया था।
स्वदेषी जागरण मंच देष की समस्त लोकतान्त्रिक षक्तिों का आवाहन करता है कि अपने वर्तमान कार्यक्रमों को स्थगित करते हुये देष की लोकतान्त्रिक धरोहर को बचाने हेतु आन्दोलन में जुट जावें ।
स्वदेषी जागरण मंच सरकार से मांग करता है कि बाबा रामदेव को सम्मान पूर्वक रिहा करने के साथसाथ देष व जनता से विना ष्षर्त अविलम्ब माफी मांगें ओर कालेधन का राष्ट्रीयकरण करने के लिये अध्यादेष लावें । साथ ही देष की जनता को विष्वास दिलावें की गरीबों व पिछडों के उत्थान के लिये विदेषों मे जमा कालाधन वापस लाया जावेगा । स्वदेषी जागरण मंच अपने समर्थकों एवं सदस्यों का आवाहन करता है कि बाबा रामदेव के सर्मथन में एवं भष्टाचार , कालेधन व सरकार के बरर्बता पूर्ण कृत्यों के विरूद्ध षान्ति पूर्वक आन्दोलन करें ।