मुंशी प्रेम चंद की एक सो साल पहले लिखी कहानी आज भी उतनी ही विचक्षनता से प्राकृतिक साधनों की लूट को उजागर करती है और उसका नाम है 'नमक का दरोगा। बेचारे ईमानदार दरोगा जिस नमक माफिया के साथ शिद्दत से लड़ते हे, भ्रष्ट कानूनी लड़ाई में हारने के बाद उतनी ही शिद्दत और इमानदारी से उसी माफिया की नौकरी करके उस भ्रष्टाचार से कमाए साम्राज्य की रक्षा करने लगता है। प्रशासन और पूँजी का ये त्रासद गठजोड़ ही क्रोनि कैपिटलिज्म या 'याराना पूंजीवाद' कहलाता है जिसका जंजाल आजकल चुनाव में चहुँ ओर व्याप्त है। कहानी का नायक वंशीधर आज का चुनाव में भ्रष्टाचार से लड़ने वाले चेहरे है और दूसरी तरफ इनको तीस हज़ार करोड़ प्रदान करने वाले पं अलोपिदीन है। वैसे तो अंग्रेजी शासन के जकडन में लिखी कहानी एक सुखान्त है, पर बारीकी से देखें तो दुखांत है! श्री विकास नारायण राय का जनसत्ता में लिखा ये लेख और मुंशी जी की कहानी जिस पर आधारित मैने लिखा है, दोनों पढने लायक हैं।
कहानी ‘नमक का दारोगा’ में तत्कालीन पैमाने पर आज के क्रोनी याराने का समूचा माहौल दृष्टिगोचर है। जो स्थिति आज कोयला, लोहा, तेल, गैस, रेत जैसे खनिज पदार्थों को लेकर है, उस जमाने में नमक को लेकर रही होगी। समाज में ‘सच्चाई’ की आज जैसी वस्तुस्थिति- ‘जब नमक का नया विभाग बना और ईश्वर प्रदत्त वस्तु के व्यवहार करने का निषेध हो गया तो लोग चोरी-छिपे इसका व्यवहार करने लगे। अनेक प्रकार के छल-प्रपंचों का सूत्रपात हुआ, कोई घूस से काम निकालता था, कोई चालाकी से। अधिकारियों की पौ बारह थी।’ सरकारी कामकाज में ‘ईमानदारी’ की भूमिका भी आज जैसी- ‘मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चांद है, जो एक दिन दिखाई देता है और घटते-बढ़ते लुप्त हो जाता है। ऊपरी आय बहता हुआ स्रोत है, जिससे सदैव प्यास बुझती है।’ और क्रोनी कैपिटल की पहुंच? नमक तस्करी का काफिला सरे-राह पकड़ा गया तो भी क्या- ‘पंडित अलोपीदीन का लक्ष्मीजी पर अखंड विश्वास था। वे कहा करते थे कि संसार का तो कहना ही क्या, स्वर्ग में भी लक्ष्मी का ही राज्य है। उनका यह कहना यथार्थ ही था। न्याय और नीति सब लक्ष्मी के ही खिलौने हैं, इन्हें वह जैसा चाहती हैं नचाती हैं।’
अब आया असल प्रसंग। तस्कर अलोपीदीन की अदालत में पेशी। मोइली-अंबानी का क्रोनी नाच! ‘अदालत में पहुंचने की देर थी। पंडित अलोपीदीन इस अगाध वन के सिंह थे। अधिकारी वर्ग उनके भक्त, अमले उनके सेवक, वकील-मुख्तार उनके आज्ञापालक और अरदली, चपरासी और चौकीदार तो उनके बिना मोल के गुलाम थे। उन्हें देखते ही लोग चारों ओर से दौड़े। सभी विस्मित हो रहे थे। इसलिए नहीं कि अलोपीदीन ने क्यों यह कर्म किया, बल्कि इसलिए कि वह कानून के पंजे में कैसे आए!’ अलोपीदीन बाइज्जत बरी हुए और वंशीधर बाकायदा मुअत्तल। तस्कर ने मौका देख कर दारोगा को अपना मैनेजर बनाने का पांसा फेंका- ‘संसार में ऐसे कितने धर्मपरायण मनुष्य हैं, जो धर्म पर अपना सब कुछ अर्पण कर सकें?’ आज के अलोपीदीनों को भी वंशीधरों की यारी सहज उपलब्ध है; राजनीतिकों और नौकरशाहों का कॉरपोरेट जेबों में होने में नया कुछ भी नहीं।
फिर भी, 2014 के चुनावी संदर्भ में कहानी का पुनर्पाठ तभी संगत कहा जाएगा जब यह शासक और जनता के बीच ध्रुवीकरण के दोनों सिरों, ‘ईमानदारी’ और ‘सच्चाई’, को रेखांकित करे। कांग्रेसी मनमोहन और भाजपाई मोदी जैसे क्रोनी-कैपिटल के विश्वासपात्रों से इतर, दारोगा की एक तीसरी छवि भी कहानी में है- ‘आप’ के अरविंद केजरीवाल की! दारोगा ने तस्कर की गिरफ्तारी का हुक्म दे दिया और मोलभाव की नौबत आ गई- ‘धर्म की इस बुद्धिहीन दृढ़ता और देव-दुर्लभ त्याग पर धन बहुत झुंझलाया। अब दोनों शक्तियों में संग्राम होने लगा। धन ने उछल-उछल कर आक्रमण करने शुरू किए। एक से पांच, पांच से दस, दस से पंद्रह और पंद्रह से बीस हजार तक नौबत पहुंची, लेकिन धर्म अलौकिक वीरता के साथ इस बहुसंख्यक सेना के सम्मुख अकेला पर्वत की भांति अटल, अविचलित खड़ा था।’
पर यह अब भी ‘सच्चाई’ का नहीं, ‘ईमानदारी’ का ही सिरा हुआ। प्रेमचंद को इस पर भी, अलोपीदीन की गिरफ्तारी के प्रसंग में, ‘यथा राजा तथा प्रजा’ का आवरण चढ़ाना पड़ा- ‘जिसे देखिए वही पंडितजी के इस व्यवहार पर टीका-टिप्पणी कर रहा था, निंदा की बौछारें हो रही थीं, मानो संसार से अब पापी का पाप कट गया।’ अंगरेजी राज का कारिंदा प्रेमचंद ‘सच्चाई’ का सिरा एक सीमा तक ही पकड़ सकता था। कहानीकार प्रेमचंद ने यह कसर अपनी विचक्षणता से पूरी की। लीक से अलग उनके दारोगा के समांतर किरदार ने शासन के जन-विरोधी चरित्र को ही बेतरह उजागर किया- दिखाया कि सरकारी अमले का व्यापक भ्रष्टाचार औपनिवेशिक लूट का एक सहज हथकंडा ही तो था! क्रोनी कैपिटल को नंगा करने की भूमिका में ‘आप’ का ‘नमक का दारोगा’ बनने का चुनावी दावा इन्हीं सीमाओं और संभावनाओं के परिदृश्य का हिस्सा है
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सच में ही कहानी सार्वकालिक और सार्वभौमिक है। अनेको इमानदार आर टी आई के सैनिक एन जी ओ बनाकर रोक्फेलर और पूँजी पतियों की पगार पर पलते है, कही कहीं राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय पुरुस्कारों में इसी दरोगाई की दुर्गन्ध आती है।
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