फ्रांसिस बेकन व घोड़े के दांत
एक बड़ी मजेदार कथा बताई जाती है फ्रांसिस बेकन द्वारा कि 1432 ईसवी में एक दैवीय जिज्ञासा का प्रादुर्भाव हुआ कि आखिर घोड़े के दांत कितने होते हैं? इतने गंभीर प्रश्न का सर्वकालिक समाधान ढूंढने के लिए एक विद्वत मंडल का सेमिनार हुआ और एक से एक प्राचीन शास्त्रो का सांगोपांग उल्लेख की ज्ञानगंगा झरने लगे कि किस ग्रन्थ में कितने दांत वर्णित है और अन्यत्र कितने। ज्यों ज्यों दिन पर दिन गुजरने लगे ज्ञान का प्रवाह घोर गुह्य, गहन व गंभीर होता गया और समाधान के दूर होता गया। शास्त्रार्थ के तेहरवें दिन एक अनपढ़ पशु चराने वाले युवा ने इस शास्त्रार्थ में अनधिकृत रूप से अपनी टांग अड़ाई। वह एक घोड़े को लाया, मूंह के नीचे से दबाया और घोड़े के जबड़े में मोटा से दंड दबाया और सब विद्वत जन को कहा के मैंने तो दो बार गिन लिए हैं कि 40 दांत हैं, किसी का समाधान न हो तो आकर स्वयं गिन ले , शंकसमाधन करें और इस प्रकार शास्त्रार्थ का पटाक्षेप करें। समाधान तो क्या होना था, उल्टे वहां सभा मे भयंकर कोलाहल का प्रस्फुटण हुआ और सब मूर्धन्य मंडली के मूंह से झाग निकलने लगी, भौंहे तन गयी सभी एकमत थे कि किसी बात को सिद्ध करने का ये कौन सा तरीका हुआ कि लो गिन लो!...मूर्ख, अज्ञानी, अधम नर! अरे ये तो शास्त्रोक्त वचन ही बता सकते हैं, तुम्हारा ये प्रत्यक्ष गिनने का तरीका सर्वदा प्रमाण रहित हैं, neither हिस्टोरिकॉली, nor theologically, nor padagogically! ये तो satanic way है। सर्वसम्मति से युवक को बाहर पटकने के बाद बाइबिल के मंत्रों से वातावरण शुद्धिकरण उपरांत पुनः शास्त्रार्थ विधिवत शुभारम्भ हुआ, और 15वें दिन विधिवत घोषित हुआ कि समुचित साक्ष्यों एवं प्रमाण के अभाव में इसे endless mystry की श्रेणी में घोषित किया गया। समाधान पूर्वक विद्वत मंडल विसर्जित हुआ। लगता है आर्थिक, सामाजिक विशेषज्ञ आज भी ऐसा ही व्यवहार करते हैं।
Francis Bacon and Horse's Teeth
Here is a famous story you might have heard, taken from here:
In the year of our Lord 1432, there arose a grievous quarrel among the brethren over the number of teeth in the mouth of a horse. For thirteen days the disputation raged without ceasing. All the ancient books and chronicles were fetched out, and wonderful and ponderous erudition such as was never before heard of in this region was made manifest. At the beginning of the fourteenth day, a youthful friar of goodly bearing asked his learned superiors for permission to add a word, and straightway, to the wonderment of the disputants, whose deep wisdom he sore vexed, he beseeched them to unbend in a manner coarse and unheard-of and to look in the open mouth of a horse and find answer to their questionings. At this, their dignity being grievously hurt, they waxed exceeding wroth; and, joining in a mighty uproar, they flew upon him and smote him, hip and thigh, and cast him out forthwith. For, said they, surely Satan hath tempted this bold neophyte to declare unholy and unheard-of ways of finding truth, contrary to all the teachings of the fathers. After many days more of grievous strife, the dove of peace sat on the assembly, and they as one man declaring the problem to be an everlasting mystery because of a grievous dearth of historical and theological evidence thereof, so ordered the same writ down.
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