अनुवाद के अंत में मूल अंग्रेजी रूप भी दिया गया है।
विकास की अवधारणा
श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी
अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद
43वां राष्ट्रीय अधिवेशन, चेन्नई।
25 से 28 ,1997
विकास की अवधारणा
यह एक सामान्य मिथ्या धारणा है कि विकास की अवधारणा हाल ही की है, और यह द्वितीय विश्व युद्ध के बाद प्रारंभ की गई। हालांकि यह सच है कि प्रगति के विचार, जिसे विकास का पर्याय माना गया, के पहले प्रसिद्ध प्रणेता एक फ्रांसीसी दार्शनिक काॅन्डोरसेट (Condorcet) (1743-94) थे। लेकिन सच्चाई यह है कि विकास का विचार उतना ही पुराना है, जितनी मानव की सोच की प्रक्रिया पुरानी है। डार्विन ने अपने सिद्धांत के माध्यम से पता लगाया कि इस ग्रह में जीवन के प्रारंभ से ही विकास की प्रक्रिया शुरू हो गई थी।
यूरोप का इतिहास देखें तो ग्रीक शहरों के शुरूआती काल के दौरान, सुकरात, प्लेटो और अरस्तु का क्या लक्ष्य थे? हालांकि देश काल और परिस्थितियों के अनुसार प्रयासों की प्रकृति बदलती रही, लेकिन परिस्थितियों की जरूरतों के अनुसार विकास के लिए प्रयास कभी नहीं रूके। सम्पूर्ण परिदृश्य पर यदि सरसरी दृष्टि डालें तो देखते हैं कि प्राचीन रोम से लेकर प्राचीन ग्रीस तक, मध्यकाल, इतालवी पुनर्जागरण, जर्मन सुधार, भौगोलिक खोजों और विदेशों में विस्तार, पश्चिमी यूरोप में राष्ट्रों का उदय, वैज्ञानिक क्रांति और प्रबुद्धता, लोकतांत्रिक क्रांतियों का काल और क्रांति के बाद का यूरोप, और 1945 के बाद का यूरोप - ये सभी निरंतर विकास के प्रयासों के उदाहरण हैं। हर कालखंड में हम महान मानवतावादी विचारकों को देखतें हैं जिनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य विकास ही था, चाहे यह विशेष पारिभाषिक शब्द चलन में नहीं था। विभिन्न धर्मों एवं ‘वादों’ के प्रणेताओं को किससे प्रेरणा मिलती थी? ई.पू. 509 की रोमन क्रांति से आधुनिक विद्रोहों तक, सभी क्रांतियों की प्रेरणा के बारे में, चे गुएवारा और फ्रायर ने स्पष्ट किया है। क्रांतिकारियों की मौलिक प्रेरणा समान थी। समान उद्देश्यों को दृष्टि में रखते हुए प्रजातंत्र के समर्थकों ने विभिन्न यूरोपीय देशों में संवैधानिक संघर्ष शुरू किया। आश्चर्यजनक सच्चाई है कि चाहे सामान्यतः सम्राट स्वकेन्द्रित और जनविरोधी होते थे, उनमें से कुछ ने यह सुनिश्चित करने के लिए विशेष प्रयास किए कि उनकी प्रजा उस प्रक्रिया में, जिसे आज ‘विकास’ कहते हैं, से लाभांवित हो सके। पीटर महान, फ्रेडेरिक महान और चाल्र्स महान (चाल्र्समैग्ने) ऐसे प्रबुद्ध शासक रहे।
संक्षेप में कह सकते हैं कि विकास एक पारिभाषिक शब्द चाहे जून 1945 के बाद चलन में आया, लेकिन इसका मूल विचार जीवन जितना ही पुराना है।
पश्चिमी सोच के साथ कठिनाई यह है कि यह हमेशा भागों में बटी हुई और खंडित रही है। हमारी सोच सदैव एकात्म एवं समग्र रही है। पश्चिम को हमेशा लगता है कि आर्थिक समस्याओं का समाधान सदैव अर्थशास्त्र के अध्ययन के माध्यम से और राजनीतिक समस्याओं का समाधान राजनीतिक विज्ञान के अध्ययन से ही हो सकता है। यह एकतरफा सोच है। किसी आर्थिक समस्या का सही निदान और उसको ठीक करने के उपयुक्त उपायों का विचार, विभिन्न गैर आर्थिक कारकों को साथ में संज्ञान में लिए बिना नहीं हो सकता। चाहे वह राजनीतिक, सामाजिक अथवा सांस्कृतिक क्षेत्र हो, यह बात सभी क्षेत्रों पर लागू होती है। आर्थिक समस्याओं में गैर आर्थिक कारकों के संज्ञान के महत्व को कम नहीं आंका जा सकता। उदाहरण के लिए ‘सामाजिक कारकों’ के बारे में एलटी हाॅबहाउस (Hobhouse) निम्न टिप्पणी करते हैं।
यदि हम संपूर्ण सामाजिक कारक को हटा दें और हमें मलबे में उसकी रक्षित संपत्ति और अर्जित ज्ञान के साथ, लेकिन एक नग्न व्यक्ति जो कंद-मूल, बेर और लूट पर आश्रित व्यक्ति राॅबिन्सन क्रूसो मिलेंगे। मानव कल्याण पर विचार करते समय, गेर-आर्थिक भौतिकवादी कारकों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। उदाहरण के लिए इस देश की भौगोलिक स्थित, इसकी जलवायु, नदियां, पहाड़, प्राकृतिक बंदरगाह, शांति और सुरक्षा, या देश के प्राकृतिक संसाधन जैसे भूमि, जल, जंगल, खनिज संसाधन, कृषि क्षमता (दूसरे देशों में सामान्य विकास), आदि।
इसलिए गैर आर्थिक भौतिक कारकों जिनका मौद्रिक आंकलन नहीं हो सकता, की भी इस संदर्भ में अपनी एक भूमिका है।
लेकिन यही सबकुछ नहीं है। डेविड मारकोड राइट अपनी पुस्तक ‘ओपन सीक्रेट आॅफ इक्नाॅमिक ग्रोथ’ (1957) में कहते हैं कि ‘‘आर्थिक संवृद्धि को लाने वाले मौलिक कारक, गैर आर्थिक और गैर भौतिक स्वरूप के होते हैं। यह वो आत्मा है जो शरीर का निर्माण करती है।’’
पश्चिमी और हिन्दू दोनों प्रकार के विचारों के बीच इस बड़े अंतर को संज्ञान में लेना आवश्यक है।
पश्चिमी
हिन्दू
1. भागों में बटी हुई सोच - एकात्म सोच
2. मनुष्य- मात्र एक भौतिक जीव ही नहीं बल्कि
मनुष्य- एक शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक-आध्यात्मिक अस्तित्व
3.अर्थ और काम की गुलामी नहीं बल्कि
पुरूषार्थ चतुष्टयम् की ओर प्रयास
4. समाज स्वकेन्द्रित व्यक्तियों का एक क्लब नहीं बल्कि एक समाज एक ऐसा शरीर जिसमें सभी मनुष्य उसके भाग हों
5. स्व की खुशी, बल्कि सब की खुशी
6. परिग्रह, नहीं अपरिग्रह (गैर आधिपत्य)
7. लाभ का उद्देश्य, नहीं बल्किसेवा का उद्देश्य
8. उपभोक्तावाद नहीं बल्कि, संयमित उपभोग
9. शोषण, नहीं अंत्योदय
10. दूसरों के कर्तव्य और अपने अधिकारों के प्रति सजगता, बल्कि अपने कर्तव्यों और दूसरों के अधिकारों के प्रति सजगता
11. अल्पता का भाव, नहीं बल्कि उत्पादन की प्रचुरता
12. विभिन्न उपकरणों’ के माध्यम से एकाधिकारिक पूंजीवाद नहीं अपितु
बाजारों में हेरफेर बिना मुक्त प्रतिस्पर्धा **
13. मजदूरी रोजगार केंद्रित आर्थिक सिद्धांत
नहीं, बल्कि स्वरोजगार केंद्रित आर्थिक सिद्धांत
14. सर्वहारा की लगातार बढ़ती फौज
नहीं बल्कि लगातार बढ़ता विश्वकर्मा (स्वरोजगार) क्षेत्र
15.लगातार बढ़ती असमानताएं नहीं बल्कि
गुणवत्ता के साथ समानता एवं बराबरी की ओर बढ़ना
16.प्रकृति का बलात्कार नहीं बल्कि प्रकृति माता का दोहन
17. व्यक्ति, समाज एवं प्रकृति के बीच निरंतर संघर्ष नहीं बल्कि व्यक्ति, समाज और प्रकृति के बीच पूर्ण सामंजस्य
**’ उदाहरण के लिए एजेंटो, ब्रांडों, काॅपी राईट, ट्रेड मार्क, लाईसेंस, कोटा, संरक्षणात्मक आयात शुल्क, कार्टेल, एकत्रीकरण, ट्रस्ट, होल्डिंग कंपनियां या अंतरनिगमीय निदेशक मंडल, अंतरनिगमीय निवेश इत्यादि।
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ये दोनों पूर्णतया अलग विचार हैं। प्रत्येक समाज ‘सभी लो या सभी छोड़ो’ के आधार पर इन दोनों में से चयन करने के लिए स्वतंत्र है।
संयुक्त राष्ट्र ने पहली बार इस समस्या का संज्ञान 1951 में एक रिपोर्ट द्वारा लिया, जिसमें अल्पविकसित देशों के विकास के बारे में सोचा गया था। इस प्रकार से यह एक बड़ा मील का पत्थर था। संयुक्त राष्ट्र की इस रिपोर्ट को तैयार करने में डाॅ. डी.आर. गाडगिल जुड़े हुए थे।
डाॅ. गाडगिल को इस समस्या का सही ज्ञान था। दुर्भाग्य से इस विषय में स्वछंद पश्चिमी विचार से अभिभूत पंडित नेहरू सदैव की भांति विकास के बारे में पश्चिमी विचार के प्रभाव में आ गये। दुर्भाग्य से डाॅ. गाडगिल पंडित नेहरू को अपनी इस जमीन से जुड़ी विचार प्रक्रिया के बारे में राजी नहीं कर पाये।
विकास का अर्थशास्त्र, कई अवधारणाओं को संवृद्धि या ग्रोथ के सिद्धांतों से लेता है। दुर्भाग्य से हमारे अर्थशास्त्री पश्चिमी पद्धतियों का अंधानुकरण करते हैं। वे हमारी परिस्थितियों के अुनरूप संवृद्धि सिद्धांत विकसित करने में सक्षम हैं। लेकिन वे स्वयं की सोच न मानने की हठ पर अड़े हुए हैं। वे पश्चिमी सिद्धांतों से इतने अभीभूत हैं कि जब वे किसी एक सिद्धांत से विमुख हो जाते हैं तो वे स्वयं की बुद्धि का उपयोग किये बिना, पश्चिम के किसी दूसरे सिद्धांत की खोज में दौड़ने लगते हैं। वे स्वीकार कर सकते हैं कि माक्र्स के साथ-साथ जे.एस. मिल, रिचर्ड और माल्थस सभी पुराने हो गये हैं। वे चाहे वर्तमान परिस्थितियों में अल्फ्रेड माशर्ल, विकसेल, गुनार, मार्यडल और केन्स की प्रासंगिकता के बार में संदेहशील हो सकते हैं, लेकिन वे अपनी स्वतंत्र सोच विकसित करने के लिए तैयार नहीं है। इसके बजाए वे प्रो. राॅस्टौ के आर्थिक संवृद्धि के पांच स्तरों की चर्चा में व्यस्त हो जाते हैं कि क्या हम आर्थिक संवृद्धि के तीसरे स्तर ‘उड़ान’ पर पहुंच गये हैं ताकि हम चैथे स्तर ‘परिपक्वता’ की ओर जा सकते हैं, जिससे पांचवें स्तर ‘उच्च उपभोग’ की ओर अग्रसर हो सकें।
हम वही पश्चिमी संवृद्धि के माॅडलों का अनुकरण कर रहे हैं, चाहे पश्चिमी देशों के लोग उनकी अनुपयुक्तता को समझ रहे हैं। उदाहरण के लिए पिछले वर्ष संयुक्त राष्ट्र की मानव विकास पर रिपोर्ट ने स्वीकार किया है कि हमने अभी तक जो संवृद्धि हासिल की है वह रोजगारविहीन संवृद्धि है, निर्दयी संवृद्धि है, हिसंक संवृद्धि है और भविष्यविहीन संवृद्धि है।
लेकिन रिपोर्ट के प्रकाशित होेन के तुरंत बाद ही संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम के अध्यक्ष जिनके मार्गदर्शन में वह रिपोर्ट लिखी गई थी, को त्याग पत्र देने को कहा गया और इस वर्ष प्रकाशित होने वाली रिपोर्ट में इन बातों का कोई जिक्र भी नहीं है।
लेकिन उनका यह शतुरमुर्ग जैसा रवैया केवल यही दर्शाता है कि उनके संवृद्धि के माॅडल असफल हो चुके हैं। उनके विकास के माॅडलों के असफल होने के प्रमुख कारण क्या रहे?
उनका उद्देश्य कुछ लोगों के लिए भौतिक समृद्धि है, सभी के लिए खुशी नहीं। कुछ लोगों के लिए ही अधिकतम लाभ। स्वभाविक रूप से उनके मापदंड शुद्ध रूप से भौतिक हैं- जीडीपी, जीएनपी, राष्ट्रीय संपदा, राष्ट्रीय आय, भुगतान शेष स्थिति इत्यादि। लेकिन वे मुद्रा स्फीति और बेरोजगारी समस्याओं के बारे में रत्ती भर भी चिंतित नहीं है।
क्या यह शुद्ध भौतिक अवधारणा प्र्याप्त है? क्या यह उन कुछ लोगों के लिए भी खुशी ला सकते हैं, जो उनके पक्षकार हैं। एक व्यक्ति की खुशी में उसकी हर स्तर की खुशी शामिल होती है - भौतिक, मानसिक, बौद्धिक और अध्यात्मिक। भौतिक समृद्धि से भौतिक सुख प्राप्त हो सकता है, हालांकि वह भी संदिग्ध है। मानसिक, बौद्धिक और अध्यात्मिक सुख भौतिकता के अधिकार क्षेत्र से परे है, तो विकास क्या 80 प्रतिशत लोगों की कीमत पर, कुछ लोगों के भौतिक समृद्धि के लिए होगा। भौतिकता के विचार से भी कुछ मुल्कों की प्रधानता वाले गैट वार्ताओं के प्रावधान से यह अवधारणा कपटपूर्ण हो गई है।
पहले चरण में क्यों इस एकतरफा अवधारणा को विकास मान लिया गया? बहाना यह दिया गया कि व्यक्ति की गैर भौतिक खुशी को मुद्रा के मानक के रूप में मापना संभव नहीं है। यह तो घोड़े के आगे गाड़ी रखने के समान है। भौतिक संवृद्धि के सूचकांकों का इस संदर्भ में कोई महत्व नहीं है। लेकिन इसके लिए अलग प्रकार की कार्यपद्धति हो सकती है, और यह हमारे देश में पतांजली जैसे विचारकों द्वारा वैज्ञानिक रूप से विकसित की गई है। हमारा मानवीय विकास के संदर्भ में संतुलित एवं व्यापक दृष्टिकोण रहा है, जो क्षम रूप से मानवीय खुशी की ओर लेकर के जाता है।
भौतिक संवृद्धि (समुत्कर्ष) के साथ अध्यात्मिक उत्थान (नि:श्रेष्यस), दोनों एक सिक्के के दो पहलू हैं और दोनों को मिलाकर महर्षि व्यास द्वारा प्रभाव घोषित किया गया।
प्रभावार्थे हि भूतानां धर्मं प्रवचनं कृतम् ।
यः स्यात् प्रभावसंयुक्तः स धर्मः इति निश्चयः।।
" जीवों की भौतिक एवं आध्यात्मिक प्रगति के लिए धर्म का आचरण बताया जाता है। भौतिक एवं आध्यात्मिक प्रगति के साथ जो होना चाहिए, वह वास्तव में धर्म है।"
विभिन्न मंचों पर विचारकों ने इस विषय का व्यवहार किया है। यहां यह कहना पर्याप्त है कि सदियों के अनुभव के बाद हमारी कार्यप्रणाली आजमायी और परखी हुई है। इसलिए यह मान्य नहीं है कि जो मुद्रा के रूप में मापा नहीं जा सकता, उसे विकास की परिभाषा में शामिल नहीं किया जाना चाहिए।
वास्तविकता यह है कि आज विकास की परिभाषा को अंतर्राष्ट्रीय षड्यंत्रकारियों द्वारा अपने कुटिल इरादों को आगे बढ़ाने के लिए उपयोग किया जा रहा है। इस फरेब को स्वदेशी जागरण मंच द्वारा निर्णायक रूप से उजागर किया गया है। इसलिए बिना विस्तार में जाए, आईए यह जानें कि संबद्ध देशों पर ‘विकास’ का प्रभाव किस प्रकार से हो सकता है।
हर संस्कृति का अपना एक माॅडल होता है। अन्य सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से लाए गए या निहित विदेशी स्वार्थी तत्वों द्वारा थोपे गए विकास का माॅडल विनाशकारी हो सकता है। ‘टूवर्डस ए हिस्ट्री आॅफ निड्स’, ‘मेडिकल नेमेसिस’, ‘टूल्स फाॅर काॅनविविएलिइटी' एवम 'डिस्कूलिंग सोसाईटी’ आदि पुस्तकों के रचयिता ईवान इलीच, विकास के मिथ्क के अपने मैक्सिको के अनुभव को बयान करते हैं। वे मैक्सिको के लिए विकास का क्या मतलब है, को जहां विकास की योजनाएं बनती है, और जहां उसके कार्यान्वयन की समीक्षा होती है, के नजरिए से नहीं देखते, न ही वे अफसरशाही एवं तकनीशियनों द्वारा बनाए गए सांख्यिकीय और सैद्धांतिक सूचकांको के आधार पर विकास के सबूतों के आधार पर विकास का आंकलन करते हैं, बल्कि वे इसे इस नजरिए देखतें हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों एवं स्लमों में रहने वाले गरीबों की पारंपरिक कौशल एवं जीवनयापन के साधानों, आत्मनिर्भरता के ह्रास और समुदायों के सम्मान एवं एकजुटता, प्रकृति की लूट, पारंपरिक वातावरण से विस्थापन, बेरोजगारी, प्रकृति का विनाश, आत्मनिर्भर समुदायों से विस्थापन करते हुए नकद अर्थव्यवस्था में बदलाव, सांस्कृतिक जड़ों से उखाड़ और राजनीति में भ्रष्टाचार आदि के कारण ग्रामीण एवं स्लमों में रहने वाले गरीबों के जीवन पर प्रभाव के नजरिए से देखते हैं। विकास जिसका उन समुदायों जो उस विकास के लाभार्थियों के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, के उद्देश्यों एवं परिस्थितियों के साथ कोई संबंध नहीं हैं, उसके .................. के लिए दी जाने वाली कीमत है।
वे व्यंग्य से समीक्षा करते हैं:
विकास एक अजीव परिभाषा है जिसे आजकल हाउसिंग प्रोजेक्ट, सोच प्रक्रिया के तर्कसंगत क्रम, बच्चे के मस्तिष्क के विकास या किशोरों के स्तनों के निर्माण के लिए इस्तेमाल किया गया। लेकिन विकास कम से कम एक चीज की ओर संकेत करता है, एक व्यक्ति की स्पष्ट अकथनीय, अशोभनीय स्थिति से पलायन की क्षमता, जिसे ‘सबडेसारोल्लो (subdesarollo)’ या अल्प विकास कहते है, जिसकी खोज हैरी ट्रूमैन ने 10 जनवरी 1949 को थी।
जिस प्रकार से इस शब्द को स्वीकार्यता मिले, एसी शायद ही किसी को मिली हो और यह परिभाषा अदम्य अफसरशाही के लिए परिणामकारी बन गई।
एवं पुनः,
‘एक ऐसे मार्ग की ओर बढ़ना जिसे दूसरे बेहतर जानते है, एक ऐसे लक्ष्य की ओर अग्रसर जो दूसरे पा चुके हैं, एकतरफा गली पर दौड़ का मतलब विकास माना जाने लगा। पर्यावरण, एकजुटता, पारंपरिक मान्यताओं और रीति-रिवाजों का ह्रास और लगातार बदलती विशेषज्ञों की सलाहों को विकास कहते हैं, विकास लोगों को अमीरी का झांसा देते हुए बहुसंख्यकों के लिए उनकी गरीबी के निरंतर आधुनिकीकरण का नाम है।’
निष्कर्ष में ईवान इलिच कहते हैं, ‘..
" The time has come to recognise development itself as a malignant myth whose pursuit threatens those with whom I live in Mexico. The "crisis" in Mexico enables us to dismantle development as a goal"
उनके कथन भविष्यवाणी थे, जो आने वाली घटनाओं से साबित हो गया।
‘साउथ’ दस्तावेज, जो डाॅ. मनमोहन सिंह, जो उसके तुरंत बाद स्मृति भृंश का शिकार हो गये थे, की देखरेख में तैसार किया गया था, को चुनौती देते हुए नवीनतम प्रौद्योगिकी के बेरोजगारी की समस्या पर प्रभाव, यूरोपीय समुदाय की समिति की रिपोर्ट, चीन और जापान द्वारा अमरीका के कुछ कदमों पर प्रतिघात, जर्मन मजदूरों द्वारा ‘सामाजिक धारा’ के खिलाफ अंादोलन, अमरीका के साथ समझौते से बाहर आने की मांग के साथ फ्रांसीसी किसानों का विद्रोह, उत्तरी अमरीकी देशों द्वारा ‘माफटा’ का विरोध और मैक्सिको के किसानों का इसके विरोध में सशस्त्र आंदोलन, जिस पार्टी की सरकार ने यह समझौता किया था उसका चुनावों में सूपड़ा साफ और नव निुयक्त प्रधानमंत्री का इस समझौते पर पुनर्वार्ता के लिए अमरीकी राष्ट्रपति क्लिंटन को पत्र, अमरीका के उपभोक्ता आंदोलन के नेता मिस्टर नादिर और मजदूर नेताओं द्वारा चेतावनी, जनवरी 20-21 को डेनवर में आयोजित ‘दी अदर इक्नाॅमिक सम्मिट’ का प्रस्ताव और नवंबर 3-4, 1997 को मलेशियाई प्रधानमंत्री मेहथ मोहम्मद के सोरथ नेतृत्व में आयोजित क्वॉल्लंपुर के जी-15 सम्मेलन में पारित प्रस्ताव - यह सब इवान इलिच के विकास की अवधारणा के संदर्भ में लिये गये - को सही सिद्ध करते हैं।
The Concept of Development is an article written by Shri DATTOPANT THENGADI ji and was delivered at Chennai in 1997 at 43rd National Conference of ABVP.
A VERY, VERY IMPORTANT DOCUMENT, IS WORTH READING.
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There is a general misconception that the concept of Development is a recent one. and that this phenomenon was initiated only after the end ofthe second world-war. True. the first most renowned advocate of the idea of progress’', which was synonymous with development’ was one French Philosopher Condorcet.(1743-94). But. in fact the idea of development is as old as the process of human thinking. What Darwin traced through his theory was the process of development right from the beginning of life on this planet.
Take the case of European history. What were Socrates, Plato and Aristotle aiming a t during the earliest period of Greek city states9 Efforts for development were never discontinued through out the his torical period, though the nature of efforts differed from time to time and country to country, according to the differing demands of the situations, Have a cursory glance at the entire canvass, from ancient Greece through ancient Rome, the middle ages, Italian Renaissance, German reformation, geographical discoveries and overseas expan sion . rise of nation states in Western Europe, Scientific revolution and enlightenment, age of democratic revolutions and post revolu tionary Europe, to the post 1945 Europe . During every period we come across great humanitarian thinkers whose sole object of life was Development” - though this specific term was not in vogue. Then what inspired the founders of various religions and “Ism’s”?. Cheguevara and Friar have spelt out the motivation behind all revolutions-right from the Roman Revolution of 509 BC to modern
coups. Original motivation of the revolutionaries was the same. With the same object in view, the advocates of democracy launched constitutional struggles in the different European countries. A sur- ^isuigfect is that though monarchs in general were self-centred and anti-people, some of them took great pains to ensure that their sub jects benefited by the process which we now term as Development”.
These enlightened despots were Peter the Great, Frederick the Great, Fredrick the Great and Charles the Great ( Charlesmagne)
In brief, the term development might have gained or given currency after June 1945. but the under lying idea is as old as life itself.
The difficulty with western thinking is that it is always compartmentalized, fragmentary. Ours is always integrate^ holis tic. They feel that solutions to economic problems can be found through the study of economics, to political problems through the study of political science and so on. This is lopsided thinking. With out taking simultaneously into consideration the various non-eco- nomic factors, it is impossible to have correct diagnoses of any eco nomic malady' and to think of the appropriate remedial measures. This holds good about all other fields- whether political of social or cultural. The importance of non-economic factors in the ccnsidera- tion of economic problems cannot be minimised. For example, L.T. Hobhouse has the following remark about “Social factor”.
Take away the whole social factor and we have got Robinson Crusoe, with his salvage from wreck and his acquired knowledge, but the naked salvage living on roots, berries and vermin* While considering human welfare, the non -economic materialistic factors cannot be ignored. For example geographical position of this eoun- try, it s climate, rivers, mountains, natural harbours, peace and secu rity, or natural resources of the country such as land, water, forests, mineral resources, agricultural potentialities, (general development in other countries), etc.,
Thus non-economic materialistic footers not amenable to money measurement have also a role to play in this respect.
But that is not all. In his ‘open secret of economic growth’ (1957) David Macrod Wright observed:
"The fundamental factors making for economic growth are non-economic and non-materialistic in character. It is the spirit itself that builds the body."
It is necessary to take into consideration the drastic differences between the two approaches, the Western and Hindu.
WESTERN v/s HINDU DEVELOPMENT PARADIGMS
1. compartmentalised thinking v/s integrated thinking,
2. Man - a mere material being v/s Man-a physical, mental, intellectual-spiritual being,
3. Subservience to Artha-Kama v/s Drive towards Purushartha chathushtayam
4. Society, a club if self-centred individuals v/s. Society . a body with all individuals therein as its limbs
5. Happiness for oneself v/s. Happiness for All
6. Acquisitiveness v/s. ‘Aparigraha’ (Non-possession)
7. Profit-motive v/s service motive
8. Consumerism v/s Restrained consumption
9. Exploitation v/s Antoydaya, wellbeing of last man
10. Rights-Oriented consciousness of outers duties v/s. Duty-oriented consciousness of others rights
11. Contrived scarcities v/s Abundance of production
12. Monopoly capitalism through various devices v/s Free competition without manipulated markets **
13. Economic theories centred round wage-employment v/s Economic theories centred round self- employment **
14. An ever increasing army of proletariat v/sThe ever increasing sector of VIshva karma (Self-employment)
15. Ever widening disparities v/s Movement towards equitability and equality with quality
16. The Rape of Nature v/s. The milking of Mother Nature
17. Constant conflict between individual, society and the Nature v/s The complete harmony between an individual, society and nature.
**For example, agents, brands, copyrights, trade names, licences, quotas, protective tariff, cartels, pools, trusts, holding companies, or intercorporate boards of directors, intercorporate investments, etc.,
These are entirely different paradigms. Everv society is free to choose its own mode on ‘Take all, or Leave all’ basis.
The United nations took cognisance of this problem first in its
1951 report dealing with the problems ofdevelopment of the under
developed countries. It was a major landmark in this respect.
Dr.D.R. Gadgil was associated with the preparation of that UN Re port.
Dr. Gadgil had correct perception of the problem, Unfortunately, the Western thinking on the subject became wayward, and Pandit Nehru, as usual, came under the influence of the West. Dr Gadgil could not persuade Pt.Nehru to his line of thinking which was of the earth, earthly.
Development Economics has appropriated many concepts from Growth Theories'’ Unfortunately, our economists are blindly fol lowingthewesternpatterns. Theyarecapableofworkingoutgrowth theories suited to our conditions. But they stubbornly refuse to con
duct self-thinking. They are so enamoured of western theorists that if they get disillusioned by one theory, they will, instead of using their own intellect, rush in search of some other western theory which theycancatchholdof. They may accept that Marx as well as Adam Smith, J.S.Mill, Richards and Malthus have become outdated. They may be sceptic about the relevance of Alfred Marshall, Wicksell, Gunner Myrdal and Keynes, to the present day conditions. But they will refuse to conduct their own independent thinking. Instead they will feel homely with the five stages of Economic Growth enumerated by Prof.Rastow and get busy in discussing whether we have reached his third, take off stage’ so as to pass over to his fourth ‘Drive to Maturity , leading to the stage of high mass consumption.
We are following Western models of growth, while Westerners themselves are progressively realising their futility. For example the last year’s UN. Report on Human Development frankly states that what they have achieved so far wasjobless growth’, ‘ruthless growth, violent (peaceless) growth’and ‘futureless growth’.
But immediately after the Report was published, the chairman of the U.N.D.P under whose guidance the Report was prepared, was asked to quit his post, and the Report published this year does not touch this subject with a pair of ton.
But this ostrich-like attitude has only highlighted the failure of their growth models. What particular factors have been responsible for their failure?
Their object is material prosperity of a few, not happiness for all, Profit-maximisation of fewer and fewer persons. Naturally, their parameters are purely materialistic G.D.R, G.N.P. national wealth, national income, per capita income, balance of payment position etc. They are least concerned about the problems like inflation or unemployment.
Is this purely materialistic concept adequate? Can it ensure happiness for even the few' who are its clients ? Happiness of an individual includes happiness at all levels, physical, mental, intellectual and spiritual. Material Prosperity may lead to physical hap piness- though this is also doubtful. The mental, the intellectual, the spiritual are beyond its jurisdiction. So 'development' for what material prosperity of a few at the cost of 80% people in the world . Even from purely materialistic pint of view, this term has become fraudulent after the arrangement of GATT negotiations, like hegemonism parading under the banner of globalisation.
In the first phase, why this lopsided concept has been ac cepted as “development"? The excuse given is the non physical as pects of human happiness are not amenable to measurement by mon etary standards. This is putting the cart before the house. The indi ces that are being used in the context of material prosperity may not be useful in this context. But there can be different methodology, and it was developed, scientifically in our country by thinkers led by Patanjali. We had a balanced and comprehensive view of human development leading to perfect human happiness.
Material prosperity (samutkarasha )coupled with spiritual elevation (nisreyas), both being the two facets of the same coin, together were termed as prabhav by Maharshi Vyasa who declared,
Prabhavarthahi bhootanam Dharma pravachanam kritam
Yat syat prabhav samyukthah sa dharma ithi nischayaha
Tor the material and spiritual progress of the beings, dhanna was narrated. What is accompanied by the material and spiritual progress, that indeed is Dharma.
This subject has been dealt with at length by different thinkers at different forums. Here suffice it to say that our methodology has been tried and tested and found to be perfect after the expe rience of centuries. Therefore, the lame excuse that whatever is not amenable to money measurement should not be included in the defi nition of ‘development’ is not tenable.
Coming to brass tacks, the term ‘development’ is being
today used by global conspirators to promote their nefarious designs.
This fraud has been conclusively exposed from the forum of Swadeshi
jagaran manch. Therefore, without going into the details, let us find
out what type of impact ‘development’ can have on the concerned countries.
Every culture has its own model. The model of de velopment brought over from another cultural setting, or imposed by alien vested interests, can be disastrous. Ivan Illicit, the famous au thor of ‘Towards a history of needs’ . ‘Medical nemeses’, ‘Tools for conviviality and De-schooling Society’, narrates his Mexican expe rience of the development myth “. He looks at what development has meant to Mexico, not from the summit where plans of develop ment are prepared, and where implementation is reviewed, not from the statistics and theoretical indices that the bureaucracy and the technicians offer as evidence of “development” but the impact it has had on the life of the poor in the rural areas and slums erosion of means of subsistence and traditional skills, loss of self-reliance and dignity and solidarity of communities, spoliation of nature, displace ment from traditional environments, unemployment, bull-dozing of nature, displacement from traditional self-reliant communities into the cash economy, cultural rootlessness, and corruption in politics.
He asks whether this is development. This is the price that is being paid for a blue print of development that has no relation to the condi tion and goals of the communities that are described as the beneficiaries of development.
Sarcastically, he observes
"Development is an oozy term that is currently used for
housing project, for the logical sequence of thought, for the awaken
ing of child s mind or the building of a teenager’s breasts. But 'development'
always connotes at least one thing; a person’s ability to
escape from a vague, unspeakable, undignified condition called ‘sub-
desarollo’ or under-development, invented by Harry Truman on 10 January, 1949.
Seldom has a term been accepted all around the world, like this word, on the day it was coined. It became a term to spawn irrepressible bureaucracies”.
And, again,
“Development means to have startedf on a road that others know better, to be on the way towards a goal that others have reached, to race up a one-way street. Development means the sacrifice of environments, solidarities, traditional interpretations and customs, to ever changing expert-advice. Development promises enrichment^ and for the overwhelming majority, has alwavs meant the progres sive modernization of their poverty”. '
In conclusion Ivan Illich says, “ The time has come to recognize development itself as the malignant myth whose pursuit threatens those among whom I live in Mexico. The “crisis” in Mexico enables us to dismantle development as a goal.”
That his remarks were prophetic has been proved by sub sequent events. *
The challenge to the South’ document prepared under the guid ance of Dr.Manmohan Singh, who suffered from amnesia immediately afterwards, the report of the committee appointed by European community on the impact of latest technology on the unemployment problem, the rebuff given by China and Japan to certain U.S. moves, agitation of German workers against the ‘Social clause’, revolt of th
French peasants demanding that their government should withdraw its signature from the agreement with USA, resentment of North American countries against NAFTA, armed rising of Mexican peasants against it the rout in Canadian elections of a ruling party that has signed the agreement, and a letter by the newly elected prime minister to president Clinton that Canada demands renegotiation on the same agreement, the warnings Mr.Nadir, the head of the U S consumer movement and the U.S labour leaders; the resolution of ‘The other Economic Summit1, Conference held at Denver on June 20-21 and the resolution passed by the G15 Conference held at Kualalumpur on Nov. 3-4,1997, under the able guidance of Malaysian Mahathir Mohammed, all these vindicate the stand taken by lllich on the concept of development.
Kashmiri Lal, Shiv Shakti Mandir, RK Puram sector 8 M
New Delhi 110022.