काफी समय से स्वदेशी की महिला प्रमुख बीज बम या बीज गेंदों के बारे में स्वदेशी जागरण मंच के कार्यक्रमों में उत्साहपूर्वक जानकारी दे रही थी, परंतु जनसत्ता के इस लेख ने मेरी आँखें खोल दी है। पढ़ने लायक लेख है।
राजनीति: हरित क्रांति का नया कदम
बीज बमबारी एक प्रकार की हरित कृषि पद्धति है। इसके लिए जमीन पर औजारों का उपयोग आवश्यक नहीं है। इस तकनीक को दूसरे विश्व युद्ध के समय जापान में प्राकृतिक कृषि को प्रचारित और प्रसारित करने वाले मसानबु फ्यूकोंका ने पुनर्जीवन दिया, विशेषकर ज्वालामुखियों की मिट्टी वाले क्षेत्रों में।
वीरेंद्र कुमार पैन्यूली
जंगली जानवरों के बढ़ते आक्रमणों से आज उत्तराखंड के गांवों में रहना और खेती करना जोखिम भरा होता जा रहा है। अन्य पहाड़ी इलाकों में भी कमोबेश ऐसी स्थिति बनती दिख रही है। उत्तराखंड में इसके समाधान का एक रास्ता जन सहयोग से जंगलों में खाद्य शृंखला को सशक्त करना माना जा रहा है। इसके लिए कुछ समाजसेवी घूम-घूम कर लोगों को नदी-नालों के किनारे गांव, शहर, बस्तियों की सीमाओं पर, नजदीकी जंगलों में बीज बमों से बीज बमबारी करने को प्रेरित कर रहे हैं। उनके अभियान का नाम बीज बम अभियान है, जिसे वे खेल-खेल में पर्यावरण संरक्षण की मुहिम भी मानते हैं।
शुरुआत 2017 में खेतों और बस्तियों के समीपवर्ती जंगलों में फलों व सब्जियों के बीज बिखेरने से हुई थी, पर आशाजनक सफलता नहीं मिली थी। खुले बीजों को पक्षी, बंदर और कीड़े खाते या नष्ट कर देते थे। इससे सीख लेते हुए मिट्टी और गोबर को गूंथ कर बनाए गए गोलों में बीजों को रख कर तीन-चार दिन धूप में सुखाया गया। बाद में उन्हें जंगलों में रखा गया। नमी मिलते ही बीज अंकुरित होते दिखे। परिणाम संतोषप्रद लगे। यह तकनीक जन भागीदारी से ज्यादा से ज्यादा उपयोग में आए, इसलिए उन्होंने बीज गोलों को ऐसा नाम देना चाहा, जिससे इनकी उपादेयता के प्रति उत्सुकता जागृत हो। इन्हें बीज बम कहा जाने लगा। बीज बमों के छिड़काव में ज्यादा से ज्यादा भागीदारी बढ़ाने का औपचारिक बीज बम अभियान उत्तरकाशी में शुरू किया गया।
इस शुरुआत के बाद उत्तराखंड और अन्य राज्यों में पांच माह की बीज बम यात्राएं की गर्इं। वर्तमान में सहयोगी संस्थाओं के साथ उत्तराखंड और सात अन्य राज्यों में बीज बम अभियान सक्रिय हैं। साझा गतिविधि के तौर पर इस वर्ष जुलाई के आखिरी हफ्ते में उत्तराखंड और अन्य राज्यों में पांच सौ दो स्थानों पर बीज बम अभियान सप्ताह मानाया गया। इसमें लगभग नब्बे हजार छात्रों और ग्रामीणों ने भाग लिया। सप्ताह भर जंगलात विभाग, प्रशासन, शिक्षण संस्थाओं, छात्र-छात्राओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने निर्दिष्ट स्थलों पर बीज बमबारी में उत्साहजनक भागीदारी की। दो जिलों- उत्तरकाशी और देहरादून के जिलाधीशों ने स्वयं बच्चों के साथ बीज बम फेंकने में भागीदारी की। उल्लेखनीय है कि 2019 के पहले कुछ स्थानों पर बच्चों द्वारा स्कूलों के आसपास जो बीज बम डाले गए थे, उनसे उत्पादित सब्जी को मिड डे मिल में अतिरिक्त सब्जी के रूप में प्रयोग भी किया गया था।
इस अभियान को चलाने वाले द्वारिका प्रसाद सेमवाल के अनुभवों से सीख कर बीज बम अभियान में लोगों को यह नहीं पता था कि ऐसे प्रयोग द्वितीय विश्व युद्ध के समय ही जापान में शुरू हो गए थे। अब यह अमेरिका, फ्रांस, इग्लैंड, केन्या और स्वयं भारत में धारवाड़ में भी हो रहे थे। इनमें हेलीकॉप्टरों और जहाजों का भी उपयोग हो रहा है। यही नहीं, व्यावसायिक कंपनियां अब पैकेटों में भी उनकी तरह के बीज बम, बीज गेंदों के नाम से बेच रही हैं। केन्या में तो व्यावसायिक कंपनियां सत्तर लाख तक बीज गेंद बेचने का दावा करती हैं।
जहां मिस्र में भी सैकड़ों वर्षों से ऐसी पद्धति अपनाई जा रही थी, वहीं इक्कीसवीं शताब्दी में अमेरिका की नासा जैसी संस्था भी इसको लोकप्रिय बनाने में लगी है। वास्तव में उत्तराखंड में प्रचारित ये बीज बम बीज गेंद ही हैं। दुनिया भी इन्हें बीज गेंद ही कहती है। बीज गेंदें फेंकने को बीज बमबारी का नाम वर्षों से पश्चिम में दिया जाता रहा है। ‘सीड बांबिंग’ वह प्रक्रिया है, जिससे बीज गेंद फेंक कर जमीन पर वनस्पति प्रवेश कराने का प्रयास किया जाता है। विभिन्न नामों से चल रहे हरित अभियानों और वनीकरण में इस पद्धति का उपयोग होता रहा है। ऐसे ही एक अभियान का नाम रहा गुरिल्ला गार्डनिंगि। यह वनीकरण में बहुत उपयोगी साबित हुआ। केन्या में हवाई जहाज से भी सीड बांबिंग की गई।
बीज बमबारी एक प्रकार की हरित कृषि पद्धति है। इसके लिए जमीन पर औजारों का उपयोग आवश्यक नहीं है। इस तकनीक को दूसरे विश्व युद्ध के समय जापान में प्राकृतिक कृषि को प्रचारित और प्रसारित करने वाले मसानबु फ्यूकोंका ने पुनर्जीवन दिया, विशेषकर ज्वालामुखियों की मिट्टी वाले क्षेत्रों में। ज्वालामुखीय मृदा उपजाऊ होती थी।
बीज बम अभियान उत्तराखंड के दुर्गम क्षेत्रों के लिए अत्यंत उपयुक्त हैं। उत्तराखंड में जलागम विकास में भी इसे अपनाया जा सकता है। निस्संदेह इसमें बीजों का नुकसान होने की आशंका ज्यादा रहती है। इसमें उतनी ही पैदावार सफलता के लिए पचीस से पचास प्रतिशत ज्यादा बीज की आवश्यकता होती है। पर जो इस प्रक्रिया को लोकप्रिय बनाने की कोशिश में हैं, जैसे भारत में धारवाड़ में सैकड़ों किसान इस अभियान में भाग ले रहे हैं वे बीज गेंदों को कर्नाटक के जंगलों में फेंक रहे हैं। वे कहते हैं कि फेंके गए पचहत्तर प्रतिशत बीज गेंदों से पौधे निकल रहे हैं।
बीज बमबारी नदी किनारे के तटों में निर्मल गंगा अभियान के अंतर्गत भी की जा सकती हैै। बीज गेंदों के लिए अधिकांशतया स्थानीय परिवेश की मिट्टी का ही उपयोग होता है। मिट्टी तालाबों की सफाई या नहरों की सफाई से निकली भी हो सकती है। पर सूरज के ताप में सुखाने पर आवश्यक है कि बीज गेंदों की मिट्टी ठोस रहे, भरभुरी न हो जाए। मजबूती देने के लिए मिट्टी और ऊर्वरकों के साथ लिए कागज की लुगदी मिलाने का भी प्रयोग किया गया है, विशेषकर उन परिस्थितियों में जब बीज गेंदों को सख्त जमीन पर फेंका जाना हो। बीज गेंदों में अब ऐसा भी मिश्रण होता है, जिसकी निकलती गंध से बीजों के दुश्मन जीवजंतु भाग जाएं।
जंगलों में छिड़काव के लिए ऐसी बीज प्रजातियां चुनी जानी चाहिए, जिनमें पौध आदि की वहां जाकर देखभाल की जरूरत कम से कम पड़े। जिन प्रजातियों को हमने घरेलू बना दिया, खेतों में उगा रहे हैं, उन्हें ज्यादा देखभाल की जरूरत होती है। जैसे जंगली आम, जंगली आंवला, जंगली फूलों को जंगलों में न के बराबर देखभाल मिलती है। जिन फलों-फूलों के बीज अब वनों में फेंक रहे हैं, वे अगर जंगली ही हों तो सफलता का प्रतिशत बढ़ सकता है। वहां उन प्रजातियों की जरूरत है, जिनमें उद्यानिकी जैसे कार्य न करने हों। क्योंकि जंगलों में उस तरह के कार्यों को करना ज्यादा संभव न होगा। विदेशों में भी बीज गेदों में, जिनसे बमबारी करनी है, जंगली फूलों के बीज ही होते हैं।
इससे गरम होती धरती को ठंडा करने में मदद मिलेगी। ग्रीन हाउस गैसें कम की जा सकेंगी। गरम होती धरा को बचाने की लड़ाई को जल्दी से जल्दी लड़े जाने की अपरिहार्यता के कारण बीज बर्बादी की आशंकाओं के बावजूद इस पद्धति को संज्ञान और वरीयता में रखा ही जाना चाहिए। उत्तराखंड में तो पिघलते हिमनदों, बढ़ते भूस्खलनों को कम करने में वानस्पतिक आवरण बढ़ाने के लिए बीज बम अभियान निश्चित रूप से एक सार्थक पहल है।
अंतत: ऐसे अभियानों में जन सहयोग बहुत जरूरी है, आप कर्मचारी रख कर तो बीज बम नहीं फिंकवाएंगे। इसी तरह बीज बम भी विकेंद्रित स्तर पर ही तैयार करने होंगे। स्थानीय मौसम और परिवेश जान कर, जैसे बरसात कब होती है, कितनी होती है, पानी कितना टिकता है, तापमान कैसा और कितना रहता है, सूरज की रोशनी कितनी रहेगी, कब रहेगी, बीजों और बीज बमबारी का समय अगर तय किया जाएगा, तो सफलता की ज्यादा आशा है। क्योंकि बीजों की जड़ें कितनी तेजी से जमीन के भीतर घुस कर मौसम की विपरीत परिस्थितियों को झेल सकती हैं, इसका पूर्व आकलन भी अपेक्षित है।
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