स्वतन्त्रता आंदोलन व स्वदेशी की भूमिका
यद्यपि स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव की मुख्य रूपरेखा सरकार द्वारा बनाई गई है परंतु समाज के विभिन्न संगठन भी जोरशोर से इस अवसर को मनाने की तैयारी कर रहे हैं।
परन्तु हमारा मानना है कि यह समय इस बात का मूल्यांकन करने का भी है कि इस आजादी की लड़ाई में स्वदेशी का क्या महत्व रहा है। और आज जिस प्रकार से विशाल बहुराष्ट्रीय कंपनियां व औपनिवेशिक मानसिकता वाले देश भारत कैसे विकासशील देशों का शोषण नित नए ढंग से कर रहे हैं, यह आज बड़ी चुनोती है। अतः हमारे लिये इस विषय की बहुत बड़ी प्रासंगिकता आज भी है। वैसे भी भारत के संविधान के भाग 4 क में हमारे मूलभूत कर्तव्यों में से एक बताया गया है कि " हम राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को अपने हृदय में स्थान दें एवं उनका पालन करें।" अतः यह हमारा मूलभूत दायित्व है।
'स्वदेशी' भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन का एक महत्वपूर्ण आन्दोलन, सफल रणनीति व दर्शन का था। 'स्वदेशी' का अर्थ है - 'अपने देश का'। इस रणनीति का लक्ष्य ब्रिटेन में बने माल का बहिष्कार करना तथा भारत में बने माल का अधिकाधिक प्रयोग करके साम्राज्यवादी ब्रिटेन को आर्थिक हानि पहुँचाना व भारत के लोगों के लिये रोजगार सृजन करना था। यह ब्रितानी शासन को उखाड़ फेंकने और भारत की समग्र आर्थिक व्यवस्था के विकास के लिए अपनाया गया साधन था।
एक आम सहमति है कि स्वदेशी आंदोलन स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्वपूर्ण आंदोलन था जिसने भारत को आजादी दिलाने में बड़ी भूमिका निभाई थी। परन्तु ज्यादातर लोग आज़ादी के आंदोलन में स्वदेशी की भूमिका की शुरूआत करने का श्रेय गांधी जी को देते हैं। यह सर्वज्ञात है कि उन्होंने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार और खादी आदि को प्रचारित करने में लंबा संघर्ष किया। परन्तु गाँधीजी ने ही सबसे पहले स्वदेशी आंदोलन चलाया, यह कहना पूरा सत्य नहीं। हम जानते हैं कि दक्षिण अफ्रीका से लौटकर गांधी जी का भारत में 1915 में पदार्पण हुआ। उससे पूर्व ही बहुत बड़ा स्वदेशी आंदोलन फल-फूल एवं यशस्वी हो चुका था। इसको बंग-भंग विरोधी आंदोलन कहते है। लाल-बल-पल का त्रिशूल इसका नेतृत्व कर रहा था। यह स्वदेशी आंदोलन 1905 से 1911 तक चला।
अतः काफी लोगों का मानना है की यह पहला स्वदेशी आंदोलन था। परन्तु यह भी पूर्ण सत्य नहीं लगता क्योंकि इससे पूर्व भी कई स्वदेशी आंदोलनों की अत्यधिक सशक्त लहरें चली थी। पंजाब में कूका आंदोलन (1871-72), ऋषि दयानन्द का आर्यसमाजी आंदोलन (1875), आदि-आदि। इस लिये कुछ लोग मानते हैं कि 1857 की लड़ाई भी स्वदेशी आधार को लेकर थी।
इसलिये हम भारत में स्वदेशी आंदोलन को तीन हिस्सों में बांट सकते हैं। पहला अट्ठारह सौ सत्तावन से सन उन्नीस सौ तक। दूसरा भाग 1903 से 1911 तक यानी बंगाल विभाजन विरोधी आंदोलन। और तीसरा 1915 से प्रारंभ होकर के 1947 की आजादी तक का आंदोलन जिसमें गांधी जी की बड़ी भूमिका रही। आइए इन तीनों भागों का अलग-अलग वर्णन करते हुए देखें कि आज भी इन आंदोलनों से वर्तमान संदर्भ में क्या प्रेरणा ली जा सकती है।
भाग एक: 1857 का स्वदेशी आंदोलन:
1857 के विद्रोह का एक प्रमुख कारण कंपनी द्वारा भारतीयों का आर्थिक शोषण भी था। कंपनी की नीतियों ने भारत की पारम्परिक अर्थव्यवस्था को पूरी तरह से समाप्त कर दिया था। इन नीतियों के कारण बहुत से किसान, कारीगर, श्रमिक और कलाकार कंगाल हो गये। इनके साथ साथ जमींदारों और बड़े किसानों की स्थिति भी बदतर हो गयी। सन १८१३ में कंपनी ने एक तरफा मुक्त व्यापार की नीति अपना ली इसके अन्तर्गत ब्रितानी व्यापारियों को आयात करने की पूरी छूट मिल गयी, परम्परागत तकनीक से बनी हुई भारतीय वस्तुएं इसके सामने टिक नहीं सकी और भारतीय शहरी हस्तशिल्प व्यापार को अकल्पनीय क्षति हुई।
रेल सेवा के आने के साथ ग्रामीण क्षेत्र के लघु उद्यम भी नष्ट हो गये। रेल सेवा ने ब्रितानी व्यापारियों को दूरदराज के गावों तक पहुँच दे दी। सबसे अधिक क्षति कपड़ा उद्योग (कपास और रेशम) को हुई। इसके साथ लोहा व्यापार, बर्तन, कांच, कागज, धातु, बन्दूक, जहाज और रंगरेजी के उद्योगों को भी बहुत क्षति हुई। १८ वीं और १९ वीं शताब्दी में ब्रिटेन और यूरोप में आयात कर और अनेक रोकों के चलते भारतीय निर्यात समाप्त हो गया। पारम्परिक उद्योगों के नष्ट होने और साथ साथ आधुनिक उद्योगों का विकास न होने की कारण यह स्थिति और भी विषम हो गयी। साधारण जनता के पास खेती के अलावा कोई और साधन नहीं बचा।
खेती करने वाले किसानो की हालत भी खराब थी। ब्रितानी शासन के प्रारम्भ में किसानों को जमीदारों की दया पर छोड़ दिया गया, जिन्होने लगान को बहुत बढा़ दिया और बेगार तथा अन्य तरीकों से किसानो का शोषण करना प्रारम्भ कर दिया। कंपनी ने खेती के सुधार पर बहुत कम खर्च किया और अधिकतर लगान कंपनी के खर्चों को पूरा करने में प्रयोग होता था। फसल के खराब होने की दशा में किसानो को साहूकार अधिक ब्याज पर कर्जा देते थे और अनपढ़ किसानो को कई तरीकों से ठगते थे। ब्रितानी कानून व्यवस्था के अन्तर्गत भूमि हस्तांतरण वैध हो जाने के कारण किसानों को अपनी भूमि से भी हाथ धोना पड़ता था। इन समस्याओं के कारण समाज के हर वर्ग में असंतोष व्याप्त था। उसी का परिणाम था यह पहला आज़ादी का आंदोलन। भारत में स्वदेशी का पहले-पहल नारा बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय ने "वंगदर्शन" के 1872 ई. में ही विज्ञानसभा का प्रस्ताव रखते हुए दिया था। उन्होंने कहा था-"जो विज्ञान स्वदेशी होने पर हमारा दास होता, वह विदेशी होने के कारण हमारा प्रभु बन बैठा है, हम लोग दिन ब दिन साधनहीन होते जा रहे हैं। अतिथिशाला में आजीवन रहनेवाले अतिथि की तरह हम लोग प्रभु के आश्रम में पड़े हैं, यह भारतभूमि भारतीयों के लिए भी एक विराट अतिथिशाला बन गई है।"
इसके बाद भोलानाथ चन्द्र ने 1874 में शम्भुचन्द्र मुखोपाध्याय द्वारा प्रवर्तित "मुखर्जीज़ मैग्जीन" में स्वदेशी का नारा दिया था। उन्होंने लिखा था-
किसी प्रकार का शारीरिक बलप्रयोग न करके राजानुगत्य अस्वीकार न करते हुए तथा किसी नए कानून के लिए प्रार्थना न करते हुए भी हम अपनी पूर्वसम्पदा लौटा सकते हैं। जहाँ स्थिति चरम में पहुँच जाए, वहाँ एकमात्र नहीं तो सबसे अधिक कारगर अस्त्र नैतिक शत्रुता होगी। इस अस्त्र को अपनाना कोई अपराध नहीं है। आइए हम सब लोग यह संकल्प करें कि विदेशी वस्तु नहीं खरीदेंगे। हमें हर समय यह स्मरण रखना चाहिए कि भारत की उन्नति भारतीयों के द्वारा ही सम्भव है।
जुलाई, सन १९०३ की सरस्वती पत्रिका में 'स्वदेशी वस्त्र का स्वीकार' शीर्षक से एक कविता छपी। रचनाकार का नाम नहीं था किन्तु वर्ष भर के अंकों की सूची से ज्ञात होता है कि वह पत्रिका के सम्पादक महावीर प्रसाद द्विवेदी की रचना थी। कविता का कुछ अंश उद्दृत है-
"विदेशी वस्त्र हम क्यों ले रहे हैं?
वृथा धन देश का क्यों दे रहे हैं?
न सूझै है अरे भारत भिखारी!
गई है हाय तेरी बुद्धि मारी!
हजारों लोग भूखों मर रहे हैं;
पड़े वे आज या कल कर रहे हैं।
इधर तू मंजु मलमल ढ़ूढता है!
न इससे और बढ़कर मूढ़ता है।"
यद्यपि यह स्वतंत्रता का प्रथम युद्ध असफल हुआ परन्तु स्वदेशी भाव लगातार बढ़ता गया।
भाग दो--- बंग-भंग विरोधी आंदोलन:
प्रायः स्वदेशी आन्दोलन विशेषकर उस आन्दोलन को कहते हैं जो बंग-भंग के विरोध में न केवल बंगाल अपितु पूरे ब्रिटिश भारत में चला। इसका मुख्य उद्देश्य अपने देश की वस्तुओं को अपनाना और दूसरे देश की वस्तु का बहिष्कार करना था।
'स्वदेशी' का विचार कांग्रेस के जन्म से पहले ही दे दिया गया था। जब 1905 ई. में बंग-भंग हुआ, तब स्वदेशी का नारा जोरों से अपनाया गया। उसी वर्ष कांग्रेस ने भी इसके पक्ष में मत प्रकट किया। देशी पूँजीपति उस समय मिलें खोल रहे थे, इसलिए स्वदेशी आन्दोलन उनके लिए बड़ा ही लाभदायक सिद्ध हुआ।
इन्हीं दिनों जापान ने रूस पर विजय प्राप्त की। उसका असर सारे पूर्वी देशों पर हुआ। भारत में बंग-भंग के विरोध में सभाएँ तो हो ही रही थीं। अब विदेशी वस्तु बहिष्कार आन्दोलन ने भी बल पकड़ा। वंदे मातरम् इस युग का महामन्त्र बना। 1906 के 14 और 15 अप्रैल को स्वदेशी आन्दोलन के गढ़ वारीसाल में बंगीय प्रादेशिक सम्मेलन होने का निश्चय हुआ। यद्यपि इस समय वारीसाल में बहुत कुछ दुर्भिक्ष की हालत थी, फिर भी जनता ने अपने नेता अश्विनी कुमार दत्त आदि को धन जन से इस सम्मेलन के लिए सहायता दी। उन दिनों सार्वजनिक रूप से "वन्दे मातरम्" का नारा लगाना गैर कानूनी बन चुका था और कई युवकों को नारा लगाने पर बेंत लगाने के अलावा अन्य सजाएँ भी मिली थीं। जिला प्रशासन ने स्वागतसमिति पर यह शर्त लगाई कि प्रतिनिधियों का स्वागत करते समय किसी हालत में "वन्दे मातरम्" का नारा नहीं लगाया जायेगा। स्वागत समिति ने इसे मान लिया। किन्तु उग्र दल ने इसे स्वीकार नहीं किया। जो लोग "वन्दे मातरम्" का नारा नहीं लगा रहे थे, वे भी उसका बैज लगाए हुए थे। ज्यों ही प्रतिनिधि सभास्थल में जाने को निकले त्यों ही उन पर पुलिस टूट पड़ी और लाठियों की वर्षा होने लगी। सुरेन्द्र नाथ बनर्जी गिरफ्तार कर लिए गए। उन पर 200 रुपया जुर्माना हुआ। वह जुर्माना देकर सभास्थल पहुँचे। सभा में पहले ही पुलिस के अत्याचारों की कहानी सुनाई गई। पहले दिन किसी तरह अधिवेशन हुआ, पर अगले दिन पुलिस कप्तान ने आकर कहा कि यदि "वन्दे मातरम्" का नारा लगाया गया तो सभा बन्द कर दी जायेगी। लोग इस पर राजी नहीं हुए, इसलिए अधिवेशन यहीं समाप्त हो गया। पर उससे जनता में और जोश बढ़ा।
इसी आन्दोलन के दौरान विदेशी वस्त्रों की दुकानों पर पिकेटिंग शुरू हुई। अनुशीलन समितियाँ बनीं जो गोरी सरकार द्वारा दबाये जाने के कारण क्रान्तिकारी समितियों में परिणत हो गयीं। अरविन्द के छोटे भाई वरिन्द्रकुमार घोष ने बंगाल में क्रांतिकारी दल स्थापित किया। इसी दल की ओर से खुदीराम बोस ने जज किंग्सफोर्ड के धोखे में कैनेडी परिवार को मार डाला, कन्हाईलाल ने जेल के अन्दर मुखबिर नरेन्द्र गोसाई को मारा और अन्त में वारीद्र स्वयं अलीपुर षड्यन्त्र में गिरफ्तार हुए। उनको तथा तथा उनके साथियों को लम्बी सजाएँ हुईं।
यह सुनते ही पूरा बंगाल आक्रोश में जल उठा। इसके विरोध में न केवल राजनेता अपितु बच्चे, बूढ़े, महिला, पुरुष सब सड़कों पर उतर आये। राष्ट्रीय नेताओं ने लोगों से विदेशी वस्त्रों एवं वस्तुओं के बहिष्कार की अपील की। जनसभाओं में एक वर्ष तक सभी सार्वजनिक पर्वों पर होने वाले उत्सव स्थगित कर राष्ट्रीय शोक मनाने की अपील की जाने लगीं।
इन अपीलों का व्यापक असर हुआ। पंडितों ने विदेशी वस्त्र पहनने वाले वर-वधुओं के विवाह कराने से हाथ पीछे खींच लिया। नाइयों ने विदेशी वस्तुओं के प्रेमियों के बाल काटने और धोबियों ने उनके कपड़े धोने से मना कर दिया। इससे विदेशी सामान की बिक्री बहुत घट गयी। उसे प्रयोग करने वालों को हीन दृष्टि से देखा जाने लगा। ‘मारवाड़ी चैम्बर ऑफ कॉमर्स’ ने ‘मेनचेस्टर चैम्बर ऑफ कॉमर्स’ को तार भेजा कि शासन पर दबाव डालकर इस निर्णय को वापस कराइये, अन्यथा यहाँ आपका माल बेचना असंभव हो जाएगा।
योजना के क्रियान्वयन का दिन 16 अक्तूबर, 1905 पूरे बंगाल में शोक पर्व के रूप में मनाया गया। रवीन्द्रनाथ टैगोर तथा अन्य प्रबुद्ध लोगों ने आग्रह किया कि इस दिन सब नागरिक गंगा या निकट की किसी भी नदी में स्नान कर एक दूसरे के हाथ में राखी बाँधें। इसके साथ वे संकल्प लें कि जब तक यह काला आदेश वापस नहीं लिया जाता, वे चैन से नहीं बैठेंगे।
16 अक्तूबर को बंगाल के सभी लोग सुबह जल्दी ही सड़कों पर आ गये। वे प्रभात फेरी निकालते और कीर्तन करते हुए नदी तटों पर गये। स्नान कर सबने एक दूसरे को पीले सूत की राखी बाँधी और आन्दोलन का मन्त्र गीत वन्दे मातरम् गाया। स्त्रियों ने बंगलक्ष्मी व्रत रखा। छह साल तक आन्दोलन चलता रहा। हजारों लोग जेल गये; पर कदम पीछे नहीं हटाये। महाराष्ट्र में बाल गंगाधर तिलक, पंजाब में लाला लाजपतराय व बंगाल के बिपिन चंद्र पल (लाल, बाल, पाल) की त्रिमूर्ति ने इस आग को पूरे देश में सुलगा दिया।
इससे लन्दन में बैठे अंग्रेज शासक घबरा गये। ब्रिटिश सम्राट जार्ज पंचम ने 11 दिसम्बर, 1912 को दिल्ली में दरबार कर यह आदेश वापस ले लिया। इतना ही नहीं उन्होंने वायसराय लार्ड कर्जन को वापस बुलाकर उसके बदले लार्ड हार्डिंग को भारत भेज दिया। इस प्रकार स्वदेशी राखी के धागों से उत्पन्न एकता ने इस आन्दोलन को सफल बनाया।
दिल्ली दरबार (1911) में बंग-भंग रद्द कर दिया गया, पर स्वदेशी आन्दोलन नहीं रुका। अपितु वह स्वतन्त्रता आन्दोलन में परिणत हो गया। बताते चले कि इस आंदोलन की शताब्दी पर 2005 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने पूरे देश में इस बंग-भंग विरोधी आंदोलन की शताब्दी कार्यक्रम को देश के कोने-कोने में मनाया और वर्तमान में इसकी प्रासंगिकता से अवगत करवाया।
1920 से 1945 का युग :-
महात्मा गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में रहते हुए ही 1909 में हिन्द स्वराज पुस्तक लिख कर मेनचेस्टर आदि के बने कपड़े का विरोध शुरू कर दिया था। लगे हाथ बताते चले कि 2009 ने स्वदेशी जागरण मंच ने सौ से अधिक स्थानों पर हिन्द स्वराज पुस्तक की शताब्दी के उपलक्ष्य में अच्छे कार्यक्रम सम्पन्न किये थे। 1915 में जब वे भारत लौटे तो उन्होंने इस को आगे बढ़ाया। गांधी स्वदेशी आंदोलन के केन्द्र बिन्दु हो बन गए। उन्होंने स्वदेशी को स्वराज की आत्मा भी कहा था। महात्मा गांधी को औपनिवेशिक सत्ता के विरुद्ध संघर्ष करने वाले योद्धा के रूप में देखा जाता है लेकिन गहराई से देखें तो उन्होंने न केवल स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ी बल्कि उन्होंने हर समय भारतीय सभ्यता को श्रेष्ठता दिलाने का प्रयास भी किया और विश्व व्यवस्था के सामने भारतीय सभ्यता का प्रतिनिधित्व भी किया था। पश्चिमी सभ्यता के वर्चस्व वाले उस युग में गांधी जी ने भारतीय सभ्यता को श्रेष्ठ बताते हुए उसे पूरी दुनिया के लिए एक विकल्प के रूप में पेश किया । रामधारी सिंह दिनकर ने उनके बारे में लिखा थाः‘
‘एक देश में बांध संकुचित करो न इसको, गांधी का कर्त्तव्य क्षेत्र, दिक् नहीं, काल है.
उन्होंने एक के बाद एक आंदोलन प्रारम्भ किये परन्तु सबकी जड़ में स्वदेशी था। नमक आंदोलन, खेड़ा सत्याग्रह, चंपारण सत्याग्रह, असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन, भारत छोड़ो आंदोलन के बल पर भारत को आजाद कराने में अहम भूमिका निभाई। गांधी जी के अनुसार-
“स्वदेशी का तात्पर्य उस भावना से है जो हमें अपने आसपास में निर्मित वस्तुओ के उपयोग तक से है। यह बाहर की वस्तुओ के प्रयोग का निषेध करता है। स्वदेशी एक धर्म है, एक कर्तव्य है जो हमें पैतृक धर्म की सीमा में अनुबंधित करता है। अगर इसमें कोई दोष है तो इसे सुधारना चाहिए। राजनीति के क्षेत्र में केवल स्वदेशी संस्थाओ के प्रयोग से है तथा उसमे जो खामियां हैं उसे हटाकर उसके उपयोग से है। आर्थिक क्षेत्र में उन्ही वस्तुओ के उपयोग से है जो आसपास में निर्मित होती हैं,तथा पडोस में बनने वाली वस्तुओ की गुणवत्ता में सुधार व उपयोग से है|"
संघ व स्वदेशी: स्वतन्त्रता आंदोलन में स्वदेशी की भूमिका में कुछ लोगों व संस्थायों के योगदान को उतना स्थान नहीं मिला जितना अपेक्षित था। उनमें गिनती करनी हो तो सबसे पहले वीर सावरकर जी का नाम आता है। कॉलेज से स्वदेशी के मुद्दे को लेकर वे निकले गए, और विदेशी वस्तुओं की होली जलाने में उनका महती योगदान को जानबूझ कर भुलाने का प्रयास हुआ। 1930 में स्वदेशी को लेकर शहीद हुए बालक बाबू गेनू सईद का वर्णन भी कम होता है, यद्यपि स्वदेशी को लेकर शहीद होने वाले वे इकलौते वीरपुरुष थे। इसी प्रकार से स्वदेशी विज्ञान को बढ़ाने वाले वैज्ञानिक जगदीश प्रसाद बसु से लेकर प्रफुल्ल चंद्र राय भी और अधिक प्रचार प्रसार के हकदार हैं। इसी प्रकार से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के निर्माता डॉ हेडगेवार का योगदान बहुत बड़ा रहा जिसकी ज्यादा चर्चा अपेक्षित है। राष्ट्राय स्वाहा नामक पुस्तक में पत्रकार मोरेश्वर गणेश तपस्वी ने विस्तार से डॉ हेडगेवार जी के स्वदेशी के लिए योगदान की चर्चा है। जिसमें कहा गया है वह है कि यह बहुत पहले से है कि डॉ. Hedgewar इस पर जोर दिया. म. न. वंहाड पांडेय की लिखी आधारभूत पुस्तक 'संघ कार्यपद्धति का विकास 'एक पुस्तक है जो भारत भर में द्वितीय वर्ष संघ शिक्षा वार्गा के लिए जा रहा स्वयंसेवकों के लिए निर्धारित है । इसके एक अध्याय ( पृष्ठ 81 पेज से प्राम्भ) पर शीर्षक "स्वदेशी का व्रत" की अवधारणा में विस्तार से वर्णन है कि संघ के स्वयंसेवकों के लिए स्वदेशी के क्या महत्व है। कई रोचक उदाहरणों से उसमें समझाया गया है कि राष्ट्रजीवन में स्वदेशी का क्या योगदान है।
अंत में दो इतिहासकारों की टिप्पणियों को उद्धरित करना जरूरी समझता हूं:
आरसी मजूमदार का मत था कि स्वदेशी आंदोलन ने राष्ट्रीय आंदोलन के दायरे को 'सिद्धांत से पूर्ण व्यावहारिकता' की ओर ले आया।
आधुनिक इतिहासकार सुमित सरकार ने कहा कि स्वदेशी आंदोलन की उल्लेखनीय विशेषताओं में से एक 'लोगों के जीवन को आकार देना' था जो 1947 तक निर्देशित था
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