Saturday, January 28, 2012
डरबन में संपन्न पर्यावरण सम्मलेन के बारे में
डरबन में संपन्न पर्यावरण सम्मलेन के बारे में1.
ऐसा लगता हे की समाज में पर्यावरण को लेकर जो चिंता हे, और लेखको के मन में जो कसक उनकी लेखनी में दीखाई देती हे वो चिंता राज्नेतायों में दूर दूर तक नहीं हे. इससे भी बढ़कर बात हे के खासकर विकसित देश अपनी नीतियों के चलते, अपनी जिम्मेदारी से मुंह चुराते दिखाई दे रहे हैं। अभी हाल में ही दिसंबर के पहले हफ्ते डरबन में संपन्न इस विषय के बारे में कई बाते जानने लायक हे जो कपत्र पर्त्रिकयों में छपे हे. नीचे ऐसे हे कुछ दिल को छोने वाले बिंदु इकट्ठे किये गए हे.
1. अरविंद मेहरोत्रा की मशहूर अंग्रेजी कविता है ‘सेल’, जिसमें एक ब्रह्मांडीय कबाड़ी द्वारा पूरी पृथ्वी को सेल पर बेचने की बात कही गई है। यानी पृथ्वी की हालत इतनी खराब हो गई है कि वह कबाड़ी उसे ‘सेल’ पर बेचने को तैयार है। पृथ्वी को बचाने की जो फिक्र हमें कई समकालीन कविताओं में दिखती है, वह सत्ता के गलियारों में नहीं दिखती। खासकर विकसित देश अपनी नीतियों के चलते, अपनी जिम्मेदारी से मुंह चुराते दिखाई दे रहे हैं।
2. हर जलवायु सम्मेलन में हजारों की संख्या में लोग एकत्र होते हैं। खुदा जाने, वे क्या करते हैं। कोपेनहेगन जलवायु सम्मेलन तो बिना किसी अर्थपूर्ण सहमति के ही खत्म हो गया था, इसलिए उसकी तुलना में कहा जा सकता है कि डरबन में कुछ तो हुआ है, और वह यह कि एक नई सहमति पर सौदेबाजी भविष्य में की जाएगी। इस जलवायु सम्मेलन के निष्कर्षों को ‘डरबन समझौते’ का नाम दिया गया है, जिसकी भाषा इतनी लचीली रखी गई है कि विकसित और विकासशील देश अपने-अपने ढंग से उसका अर्थ लगा सकते हैं।
फिर भी मोटे तौर पर यह फैसला हुआ दिखता है कि बाली में कॉप-13 (कॉप: कॉन्फ्रेंस आफ पार्टीज) देशों की बैठक के बाद बना एक अस्थायी समूह 2012 के अंत तक अपना अस्तित्व समाप्त कर देगा और नया अस्थायी समूह अस्तित्व में आएगा जो डरबन समझौते के तहत एक करार को विकसित करने की प्रक्रिया शुरू करेगा, और एक कानूनी व्यवस्था कायम करेगा जो संयुक्त राष्ट्र की जलवायु परिवर्तन संबंधी धारा के तहत सभी देशों पर लागू होगी।
3. यह काम 2012 से शुरू होगा, 2013 से 2015 तक इसकी समीक्षाएं होंगी और 2015 तक इसे पूरा कर लिया जाएगा, पर इसे 2020 से ही लागू किया जाएगा। जिस तरह जलवायु सम्मेलन की एक बैठक पिछली बैठक में पारित प्रस्तावों की अनदेखी करती आई है उसे देखते हुए फिलहाल दावा करना मुश्किल है कि जलवायु-नियंत्रण के लिए 2020 से अंतरराष्ट्रीय कानून लागू हो जाएगा। दूसरे, अब भी इसके लिए लगभग दस वर्ष पडे हैं।
डरबन समझौते से ऐसा लगता है जैसे सभी देशों को छूट मिल गई है कि वे 2020 तक जितना ग्रीनहाउस गैसों (कॉर्बन डाइआक्साइड, मीथेन, नाइट्रस आक्साइड आदि) का उत्सर्जन करना है, कर लें। इसके बाद उन पर कानून लागू हो सकता है। तब तक पृथ्वी का तापमान 40 सेंटीग्रेड तक बढ़ सकता है, जिससे इस दुनिया में रहने वालों को भीषण परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं। संयुक्तराष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की एक रिपोर्ट के अनुसार ग्रीनहाउस गैसों के कुल उत्सर्जन की मात्रा को 4400 करोड़ टन की सीमा के अंदर रखना होगा, अगर धरती के तापमान को 20 सेंटीग्रेड से अधिक बढ़ने नहीं देना है। पर जब डरबन सम्मेलन के बाद लगभग दस वर्षों तक प्रदूषण कम करने के लिए कोई ठोस कानून अस्तित्व में ही नहीं लाया जाएगा तो ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन की मात्रा निश्चित रूप से बढेÞगी।
दरअसल, इस उत्सर्जन की मात्रा का संबंध ऊर्जा के खर्च से है, जिसका सीधा संबंध विकास से है। जो अर्थव्यवस्थाएं, जैसे कि भारत और चीन, ऊंचाई की ओर अग्रसर हैं, उन्हें अधिक ऊर्जा चाहिए। उन्हें कारखाने लगाने हैं, उत्पादन बढ़ाना है, बिजली पैदा करनी है, और इसके लिए जब वे देश ऊर्जा खर्च करेंगे तो ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन भी बढेÞगा। डरबन सम्मेलन से अगर कोई देश संतुष्ट और खुश दिखाई दे रहा है तो वे हैं चीन और अमेरिका। चीन के अनुसार दस वर्ष काफी हैं उसकी अर्थव्यवस्था को विश्व में सबसे ऊपर पहुंचाने के लिए। फिर 2020 में जो होगा, वह निपट लेगा।
चीन और अमेरिका, दोनों क्योतो करार में शामिल नहीं थे, इसलिए वे अपनी उत्सर्जन मात्रा जारी रख सकते हैं। यहां एक बात और गौर करने लायक है। चीन का प्रतिव्यक्ति उत्सर्जन अमेरिका के प्रतिव्यक्ति उत्सर्जन से एक-तिहाई है। इसलिए चीन अगर ऊर्जा खर्च करता है और अपने विकास की गति को बढ़ाता है तो वह अमेरिका के मुकाबले अधिक जायज है।
डरबन सम्मेलन के बाद भी अमेरिका और अन्य विकसित देशों की मनमानी ज्यों की त्यों बनी हुई है। जलवायु वार्ताओं में उनका रवैया वैसा ही है
4. जैसा नाभिकीय अप्रसार संधि की वार्ताओं में हुआ करता था। अमेरिका और अन्य अमीर देशों ने मिल कर इतने परमाणु बम बना रखे हैं कि इस धरती को कई बार खत्म किया जा सकता है। उनका तर्क यह था कि हमने जितने बम बना लिए, वह अब इतिहास की बात है। वर्तमान में अब और कोई देश एक भी परमाणु हथियार नहीं बनाएगा। (भारत ने इसीलिए, ठीक ही, इस संधि पर हस्ताक्षर नहीं किए।) यही तर्क वे अब जलवायु वार्ताओं पर लागू करना चाहते हैं।
जिन देशों में दुनिया की केवल बीस प्रतिशत आबादी रहती है वे आकाश में विद्यमान कुल कार्बन डाइआक्साइड के चौहत्तर प्रतिशत के लिए जिम्मेवार हैं। जबकि विश्व की अस्सी प्रतिशत जनसंख्या वाले देशों ने केवल छब्बीस प्रतिशत उत्सर्जित किया है। उनका तर्क है कि हमने इस आकाश का जो कबाड़ा करना था, वह कर दिया, अब जो भी देश इसमें बढ़ोतरी करेगा वह बराबर का जिम्मेवार होगा। पिछले पापों के लिए विकसित देश कोई भी कीमत चुकाने को तैयार नहीं हैं।
जलवायु वार्ताओं में अमीर देश कभी भी ग्रीनहाउस गैसों के प्रतिव्यक्ति उत्सर्जन की बात नहीं करते। वे देश के कुल उत्सर्जन की बात करते हैं। भारत का प्रतिव्यक्ति उत्सर्जन आज 1.7 टन है, जबकि अमेरिका का 19 टन। धरती को बिना कोई अधिक नुकसान पहुंचाए, आकाश में कॉर्बन डाइआक्साइड की जो कुल मात्रा उत्सर्जित की जा सकती थी, वह असीमित नहीं थी। उसका अधिकांश जिन देशों ने उगला है, उन्हें अब जलवायु नियंत्रण के लिए अधिक खर्च करना चाहिए। पर अमेरिका और विकसित देश इसके लिए राजी नहीं हैं। क्योतो करार में इसीलिए अमेरिका शामिल नहीं हुआ
5 भारतीय मीडिया के एक हिस्से ने डरबन में भारत की पर्यावरण मंत्री की भूमिका की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। आश्चर्य है कि एक गैर-सरकारी संगठन विज्ञान और पर्यावरण केंद्र की सुनीता नारायण ने भी एक टीवी कार्यक्रम में भारत के सरकारी प्रतिनिधियों की प्रशंसा की है। जयंती नटराजन ने शुरू में जलवायु नियंत्रण के लिए एक ‘साझी, पर अलग-अलग जिम्मेदारी’ की बात कही। यानी जिन्होंने अतीत में अधिक प्रदूषण फैलाया है, उन्हें इसे दूर करने के लिए अधिक भार उठाना होगा। चीन और कई विकासशील देशों ने उनका समर्थन किया। मजेदार बात यह थी कि यूरोपीय संघ भी कुछ आनाकानी करके उनके साथ जाने को तैयार था। मगर ऐन उस वक्त जब डरबन प्रस्ताव के मसविदे में ‘समानता’ और ‘साझा पर अलग-अलग जिम्मेदारी’ की बात शामिल करने का मुद्दा आया, जयंती नटराजन ने अपने कदम खींच लिए।
6.यह ऐसा मौका था जब अमेरिका पूरी तरह अलग-थलग पड़ सकता था, पर हमारे शासकों को यह मंजूर न था। डरबन समझौते में इन धाराओं का न होना आगामी जलवायु वार्ताओं के लिए रुकावटें पैदा करेगा। क्योतो करार में यह लक्ष्य रखा गया था कि विकसित देश अपने उत्सर्जन में1990 के मुकाबले 5.2 प्रतिशत की कमी लाएंगे। और 2010 में हम पाते हैं कि यह कमी नौ प्रतिशत हो गई। इसका मुख्य कारण यह है कि 1990 में सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप की अर्थव्यवस्थाएं ढह गर्इं। बिना किसी सरकारी पहल के, उत्पादन गिरने से उत्सर्जन भी कम हो गया।
पहले विकसित देशों में सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के देश भी आते थे। अब उनके पाला पलटने से ऐसा मालूम होता है कि विकसित देशों के उत्सर्जन में कमी आई है, जबकि ऐसा नहीं है। अगर पूर्व सोवियत संघ के भूभाग और पूर्वी यूरोप को निकाल दिया जाए तो शेष विकसित देशों के उत्सर्जन में 1999के में कमी लाने के लक्ष्य पर डरबन में कोई अर्थपूर्ण विस्तृत बहस नहीं होने दी, बल्कि इसकी समीक्षा करने के नाम पर अधिक समय-अवधि मांगने और उसे हासिल करने में कामयाब हो गए।
7. साथ-साथ उन्होंने यह भी कहा कि जब तक भारत और चीन अपने उत्सर्जन को कम नहीं करते, विकसित देशों से कोई कदम उठाने की उम्मीद न रखें। यानी विकसित देशों को तो प्रदूषण फैलाने का अधिकार है, पर विकासशील देशों को विकास करने का अधिकार नहीं।
विकसित देशों का तर्क है कि आगामी वर्षों में उनका कुल उत्सर्जन भारत और चीन के मुकाबले कम होने जा रहा है। इसलिए इन देशों को भी अपनी जिम्मेदारी उठानी होगी। अफसोस कि दो सम्मेलनों के बीच की अवधि में हमारी सरकार, हमारी वैज्ञानिक और अकादमिक संस्थाएं और स्वतंत्र सोच रखने वाले गैर-सरकारी संगठनों को मिल कर भारत के दावों को मजबूत करने के लिए जो विशेष अध्ययन और नई तकनीकी जानकारियां हासिल करनी चाहिए, उनके लिए उन्हें जितनी जद्दोजहद करनी चाहिए, वे नहीं करतीं। जबकि अमेरिका, यूरोपीय संघ, ब्राजील और चीन पूरी तैयारी के साथ इन सम्मेलनों में शिरकत करते हैं।
8. पर्यावरण पर जितना अकादमिक-तकनीकी काम ये लोग करते हैं, भारत नहीं करता। इसका नतीजा यह हुआ कि डरबन में भारत के स्वाभाविक सहयोगी ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका तक यूरोपीय संघ के साथ हो लिए। चीन तो विकसित देशों की नीतियों पर कभी आक्रामक तेवर नहीं अपनाता, उसे मालूम था कि फिलहाल कोई लक्ष्य तय नहीं हुए हैं, इसलिए टकराहट से कोई फायदा नहीं होगा। लिहाजा, डरबन में भारत अलग-थलग पड़ गया।
9. डरबन में विकसित देशों में हर देश के लिए कोई लक्ष्य नहीं रखा गया है। कुल मिला कर इन देशों को 2020 तक 1990 के मुकाबले उत्सर्जन में पचीस से चालीस प्रतिशत की कमी लाने की बात है। ये सभी लक्ष्य तभी पूरे होंगे जब हरित जलवायु कोष में कोई धन देगा। 2009 में कोपेनहेगन में इस कोष की बात की गई थी। कानकुन में इस कसम को दोहराया गया। डरबन में इसके लिए कार्यकारिणी बनाने आदि पर कुछ सहमति हुई। मगर जो सबसे महत्त्वपूर्ण मुद्दा था कि इस कोष में कौन देश कितना धन देगा उस पर कोई विशेष बात नहीं हुई।
10 विश्व बैंक को इस कोष का प्रबंधक बनाने का सुझाव खारिज हो चुका है। डरबन में जब इस पर थोड़ी चर्चा हुई तो प्राय: विकसित देशों ने अपनी डावांडोल आर्थिक स्थिति और मंदी का हवाला देकर पल्ला झाड़ लिया। ऐसा नहीं है कि यह सब यों ही हो गया। यह एक सोची-समझी नीति के तहत हो रहा है। विश्व के जलवायु-संकट की चिंता इन्हें नहीं है। दरअसल, जलवायु-वार्ताओं में अमीर देशों का रवैया प्राय: सच को छिपाने, उससे बचने और अपनी जिम्मेदारी दूसरों पर डालने का रहा है। इस प्रवृत्ति के चलते नुकसान इस धरती के बाशिंदों का होगा- वे इंसान हों या पशु-पक्ष
Climate deal salvaged after marathon talks in Durban
Description of the photo above:
Delegates clashed over attempt to make agreement legally binding until deal was struck in pre-dawn hours
John Vidal and Fiona Harvey, Durban, and agencies
The Observer, Sunday 11 December 2011
In the photo above:Greenpeace’s Kumi Naidoo with activists who occupied the convention centre. Photograph: Shayne Robinson/Greenpeace
Countries have agreed a deal in Durban to push for a new climate treaty, salvaging the latest round of United Nations climate talks from the brink of collapse.
The UK's cimate change secretary, Chris Huhne, hailed the deal, finally struck in the early hours of Sunday after talks had overrun by a day and a half, as a "significant step forward" that would deliver a global, overarching legal agreement to cut emissions. He said it sent a strong signal to businesses and investors about moving to a low-carbon economy.
But environmental groups said negotiators had failed to show the ambition necessary to cut emissions by levels that would limit global temperature rises to no more than 2C and avoid "dangerous" climate change.
The EU had come to the talks in Durban, South Africa, calling for a mandate to negotiate a new legally binding treaty on global warming by 2015, covering all major emitters, in return for the bloc signing up to a second period of emissions cuts under the existing Kyoto climate deal.
But talks were plunged into disarray after the EU clashed with India and China in a series of passionate exchanges over the legal status of a potential new agreement, putting more than a year of talks between 194 countries in jeopardy.
In the third consecutive all-night session, exhausted ministers had more or less agreed on a series of measures aimed at protecting forests, widening global markets and establishing by 2020 a $100bn fund to help poorer countries move to a green economy and cope with the effects of climate change. But the crucial issue at the talks was whether a new agreement on protecting the climate should have full legal force.
Connie Hedegarrd, the EU climate change commissioner, said she was prepared to offer developing countries the prize they had sought for many years – a continuation of the Kyoto protocol, the only treaty that commits rich countries to cut greenhouse gases. But the price of the offer was for all nations to agree to be "legally bound" to a new agreement by 2020. There were cheers as she said: "We need clarity. We need to commit. The EU has shown patience for many years. We are almost ready to be alone in a second commitment period [to the Kyoto protocol] We don't ask too much of the world that after this second period all countries will be legally bound."
But the Indian environment minister, Jayanthi Natarajan, responded fiercely: "Am I to write a blank cheque and sign away the livelihoods and sustainability of 1.2 billion Indians, without even knowing what the EU 'roadmap' contains? I wonder if this an agenda to shift the blame on to countries who are not responsible [for climate change]. I am told that India will be blamed. Please do not hold us hostage." As countries clashed in the early hours of the morning, scenes in the conference hall resembled a theatre, with wild applause bursting out sporadically.
China's minister Xie Zhenhua made an impassioned speech backing India and accusing developed countries. "What qualifies you to tell us what to do? We are taking action. We want to see your action," he said.
The fate of the talks were, by 2am, hanging on a knife edge, with no resolution likely for many hours. The talks had already overrun by 36 hours.
A deal was reached after the South African president of the talks urged the EU and India to go "into a huddle" in the middle of the conference hall in the early hours of this morning, in a bid to work out language both sides were happy with.
A compromise, suggested by the Brazilian delegation, saw the EU and Indians agree to a road map which commits countries to negotiating a protocol, another legal instrument or an "agreed outcome with legal force".
The treaty will be negotiated by 2015 and coming into force from 2020.
The deal also paves the way for action to address the "emissions gap" between the voluntary emissions cuts countries have already pledged and the reductions experts say are needed to effectively tackle climate change.
Earlier Venezuela's ambassador, Claudia Salerno, had stood on a chair and banged her nameplate as she accused the UN chair of the session of ignoring the views of some developing countries. Referring to the money promised by rich countries to help developing countries to adapt to climate change, she said: "This agreement will kill off everyone. It is a farce. It is immoral to ask developing countries to sell ourselves for $100bn."
The row over the legal status of a new agreement has dogged climate talks for over a decade. Rich countries have wanted rapidly emerging economies such as like China – the world's largest emitter – and India to be equally legally bound as developed countries, though taking on softer targets on emission curbs.
However, developing countries argue that they were not responsible for the bulk of climate change emissions in the atmosphere and argue that they have pledged to rein in their emissions more than the developed countries.
Despite the broad backing of more than 120 countries, including major developing economies such as Brazil, plus the US and Japan, the EU had found it hard to push through its ambitious "roadmap", which would establish a new over-arching agreement that would commit all countries to emission cuts.
China, India and some developing countries had raised a series of objections throughout the talks about the dates that the new treaty would become operational, and argued that the Kyoto protocol would effectively be killed off before a replacement could be put in its place. With Japan, Canada and Russia saying that they were unwilling to sign up to a second period, the EU had become almost alone among developed countries in committing to continue the protocol in some form.
Several countries said they feared the deal on offer would suit the US most because it had always insisted that all other countries should cut emissions and has resisted a legally-binding agreement.
Several developing countries spoke out strongly in favour of the EU proposals, including Brazil and Colombia, rejecting calls to downgrade the legal status of any agreement.
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