Thursday, March 8, 2012
भूमंडलीकरण के 20 वर्ष गरीबी, भूख, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार
भूमंडलीकरण के 20 वर्ष गरीबी, भूख, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार
भारत सरकार द्वारा 1991 से प्रारंभ नई आर्थिक नीति, जिसे उदारीकरण, निजीकरण और वैष्वीकरण (एल.पी.जी.) के रूप में जाना जाता है, वास्तव में मुख्य रूप से यह वैष्वीकरण की ही नीति थी। वर्ष 2011 को इस नीति को प्रारंभ हुये 20 वर्ष हो चुके है, इस संबंध में पर्याप्त अनुभव, जानकारियां और आंकड़े उपलब्ध हैं कि इस नीति का भली-भांति मूल्यांकन किया जा सके।
वैष्वीकरण और इसकी वकालत
सिद्धांतिक रूप से वैष्वीकरण से अभिप्राय है, बिना कोई बाधा के दुनिया के विभिन्न अर्थव्यवस्थाओं को एकीकृत करते हुए वस्तुओं और सेवाओं, प्रौद्योगिकी, पूंजी और मानव संसाधनों का मुक्त प्रवाह। वैष्वीकरण एक षब्द है जिसे चार मापदंडों पर देखा जा सकता है -
1. व्यापार बाधाओं में कमी करते हुए विभिन्न राष्ट्रों के बीच वस्तुओं और सेवाओं के मुक्त प्रवाह की अनुमति।
2. विभिन्न राष्ट्रों के बीच पूंजी के मुक्त प्रवाह हेतु वातावरण का निर्माण।
3. प्रौद्योगिकी के मुक्त प्रवाह हेतु वातावरण का निर्माण।
4. अंतिम लेकिन, विषेषतौर पर विकासषील देषों के परिप्रेक्ष में सबसे महत्वपूर्ण, ऐसे वातावरण का निर्माण जिससे दुनिया के विभिन्न देषों के बीच में श्रम (मानव संसाधनों) का मुक्त प्रवाह संभव हो सके।
भूमंडलीकरण के पैरोकार, विषेषतौर पर विकसित देष, भूमंडलीकरण की परिभाषा को पहले तीन मापदंडों तक सीमित करने का प्रयास करते हैं। यानि वे चाहते है कि ऐसी नीतियां एवं वातावरण का निर्माण हो ताकि देषों के बीच बिना रोक-टोक वस्तुओं और सेवाओं का व्यापार हो सके एवं पूंजी और प्रौद्योगिकी का मुक्त प्रवाह हो सके। इसलिए वे भूमंडलीकरण की बहस में उनके द्वारा तय किये गये मापदंडों पर ही बात करना चाहते हैं। लेकिन विकासषील देषों के कई अर्थषास्त्री यह मानते हैं कि भूमंडलीकरण की यह परिभाषा अपूर्ण है और यदि भूमंडलीकरण का अंतिम उद्देष्य पूरी दुनिया को एक गांव के रूप में बदलने का है, तो इसमें अनिवार्य रूप से मानव संसाधनों यानि श्रम का अबाध प्रवाह षामिल होना चाहिए।
भूमंडलीकरण के पैरोकार, भूमंडलीकरण को कई तर्कों के आधार पर सही ठहराते हैं -
1. विकासषील देष अंतर्राष्ट्रीय ऋणग्रस्तता से बचते हुए प्रत्यक्ष विदेषी निवेष के माध्यम से पूंजी जुटा सकते हैं।
2. विकासषील देष अनुसंधान और विकास में निवेष किये बिना विकसित देषों से उन्नत प्रौद्योगिकी प्राप्त कर विकास कर सकते हैं।
3. विकासषील देषों के उपभोक्ता अपेक्षाकृत बहुत कम कीमतों पर उन्नत उपभोक्ता वस्तुओं खासतौर पर टिकाऊ उपभोक्ता वस्तुओं को मंगा कर उपयोग कर सकते हैं। साथ ही साथ विकासषील देषों के लिए एक अवसर भी मिलता है कि वे अपना सामान विकसित देषों में बेच सके।
4. भूमंडलीकरण के माध्यम से ज्ञान का तेजी से प्रसार संभव है, जिससे विकासषील देष अपने अर्थव्यस्था में उत्पादन और उत्पादकता का स्तर अंतर्राष्ट्रीय मानकों के आधार पर बढ़ा सकते हैं।
5. परिवहन एवं संचार लागत को कम करते हुए वैष्वीकरण अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को बढ़ावा देता है और इस कारण से सकल घरेलू उत्पादक के प्रतिषत के रूप में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में खासी वृद्धि संभव होती है।
यानि भूमंडीकरण के पैरोकारों की बात मानी जाए तो भूमंडलीकरण विकास का इंजन और आधुनिकीकरण का द्योतक है। प्रौद्योगिकी को उन्नत करने वाली, उत्पादकता को बढ़ाने वाली और इस माध्यम से रोजगार में वृद्धि करने वाली और गरीबी घटाने वाली प्रक्रिया है।
भूमंडलीकरण का प्रभाव: आर्थिक संवृद्धि के बीच गहराती गरीबी
वैष्वीकरण के समर्थकों के दावों का विभिन्न देषों में कई षोधकर्ताओं ने परीक्षण किया है। वैष्वीकरण की कड़ी आलोचना अर्थषास्त्र में 2001 में प्राप्त नोबेल पुरस्कार विजेता और विष्व बैंक के प्रमुख अर्थषास्त्री जोज़ेफ स्टिग्लिटज़ ने अपनी पुस्तक ‘‘वैष्वीकरण और इसकी निराषाएं’’ में प्रस्तुत की है। वैष्वीकरण के सामाजिक आयाम पर विष्व आयोग ने भी विष्व भर में वैष्वीकरण के अनुभव पर विचार किया है और कई चैंकाने वाले तथ्य प्रस्तुत किए हैं।
विष्व आयोग ने स्पष्ट षब्दों में उल्लेख किया- ‘‘वैष्वीकरण का मौजूदा मार्ग बदलना होगा। इससे बहुत थोड़े लोगों को लाभ होता है।’’
हम वैष्वीकरण को मानवीय कल्याण और स्वतंत्रता के विस्तार का साधन बनाना चाहते हैं और स्थानीय समुदायों के पास जहां वे निवास करते हैं, लोकतंत्र और विकास लाना चाहते हैं।
यदि वैष्वीकरण के मानको के आधार पर जांच की जाए तो कहा जा सकता है कि भारत वैष्वीकरण के रास्ते पर काफी आगे बढ़ा है। भारत के नीति निर्माताओं ने भारतीय अर्थव्यस्था को षेष दुनिया के साथ एकीकृत करने का काम खूब किया है। भारत का निर्यात जो 1990-91 में सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) का मात्र 8.5 था वर्ष 2010-11 तक बढ़कर जी.डी.पी. के 14.4 प्रतिषत तक बढ़ गया। साथ ही साथ आयात 1990-91 में जी.डी.पी. के 8.4 से बढ़ता हुआ वर्ष 2010-11 तक 23.1 प्रतिषत तक पहुंच गया। साथ ही साथ व्यापार घाटा जो पहले जी.डी.पी. का 3.0 प्रतिषत ही था वह बढ़ते हुए 8.7 प्रतिषत तक पहुंच गया। पिछले 10 वर्षों में भारत ने षेष दुनिया से 390 अरब डाॅलर का विदेषी निवेष (प्रत्यक्ष एवं संस्थागत दोनों मिलाकर) प्राप्त किया। विदेषी निवेष जो पूर्व में नगण्य होता था अब बढ़कर कुल वैष्विक प्रत्यक्ष विदेषी निवेष का 3.4 प्रतिषत तक पहुंच चुका है।
लेकिन वैष्वीकरण के पैरोकारों के वे तमाम तर्क कि इससे भारत के आम लोगों का जीवन स्तर सुधर जायेगा, नितांत रूप से झूठे साबित हुए हैं।
भूख और कुपोषण: गलत आर्थिक नीतियों के कारण षर्मसार है राष्ट्र
हाल ही में एक न्यास द्वारा प्रकाषित रिपोर्ट में कहा गया कि भारत में भयंकर गरीबी के चलते पांच वर्ष से कम आयु के 42 प्रतिषत बच्चे कुपोषण का षिकार हैं ओर वे अपनी आयु की तुलना में कम भार वाले हैं, 59 बच्चों प्रतिषत बच्चे अपनी आयु की तुलना में ठिगने हैं। हंगामा नामक इस न्यास का कहना है कि उनका निष्कर्ष 73000 गृहस्थों के 109093 बच्चों के सर्वेक्षण पर आधारित है। इस सर्वेक्षण रिपोर्ट के लोकापर्ण के अवसर पर प्रधानमंत्री ने कहा कि कुपोषण और भूख की स्थिति के मद्देनजर राष्ट्र षर्मसार है।
यह कोई पहला सर्वेक्षण नहीं
उपरोक्त सर्वेक्षण देष में भूख और कुपोषण के संदर्भ में कोई पहला सर्वेक्षण नहीं है। अंतर्राष्ट्रीय खाद्य अनुसंधान संस्थान द्वारा वैष्विक भूख सूचकांक तैयार किया जाता है, जिसके अनुसार भारत खतरनाक भूख की श्रेणी में है और अंतर्राष्ट्रीय क्रम में भारत 2008 में 66वें स्थान पर था। इस संस्थान के अनुसार भारत की स्थिति पाकिस्तान और बंगलादेष से भी बदतर है क्योंकि भारत का वैष्विक भूख सूचकांक 25.2 और पाकिस्तान और बंगलादेष का 21.7 और 23.7 आंका गया।
कुपोषण के संदर्भ में भारत में स्वास्थ्य मंत्रालय के सहयोग से एक राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण समय-समय पर किया जाता है। इनके अनुसार देष में कुपोषण घटने की बजाय बढ़ रहा है। 1998-99 और 2005-06 के बीच में एनीमिया (खून की कमी) से पीडि़त बच्चों की संख्या 74.2 प्रतिषत से बढ़कर 78.9 प्रतिषत, विवाहित महिलाओं में एनीमिया का आपात 51.8 प्रतिषत से बढ़कर 56.2 प्रतिषत और गर्भवती महिलाओं में यह 49.7 प्रतिषत से 57.9 प्रतिषत तक पहुंच गया। इसमें कोई दो मत नहीं हो सकते कि एनीमिया का आपात सीधेतौर पर पोषण पर निर्भर करता है और एनीमिया का बढ़ता आपात देष में बढ़ते कुपोषण की कहानी बयान करता है।
यही नहीं अगर दूसरे मापदंड भी लें तो भी पोषण के संदर्भ में कोई बेहतर स्थिति दिखाई नहीं पड़ती। 2005-06 में 3 वर्ष से कम आयु के बच्चे जिनका भार कम पाया गया उनकी संख्या 40.4 प्रतिषत थी। 1998-99 में यह उससे थोड़ी अधिक 42.7 प्रतिषत थी। इसी आयु वर्ग में जो बच्चे अपनी आयु की तुलना में पतले थे उनकी संख्या 1998-99 में 19.7 प्रतिषत से बढ़कर 2005-06 में 22.9 प्रतिषत हो गई। मोटेतौर पर कहा जा सकता है कि पिछले डेढ़ दषक में पोषण के संदर्भ में कोई प्रगति नहीं हुई है, बल्कि कुपोषण में वृद्धि अवष्य दिखाई देती है। हाल ही में हुए सर्वेक्षण से यह बात और पुष्ट हो जाती है।
राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के द्वारा किये गये सर्वेक्षण भी देष में बढ़ते कुपोषण की ओर इंगित करते हैं। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के अनुसार वर्ष 1993-94 और 2004-05 के बीच ग्रामीण और षहरी दोनों क्षेत्रों में कैलोरी उपभोग क्रमषः 4.9 प्रतिषत और 2.5 प्रतिषत गिरा। ग्रामीण क्षेत्रों में प्रोटीन का उपभोग इस बीच 5 प्रतिषत घटा। 2004-05 में दो तिहाई ग्रामीण और 70 प्रतिषत षहरी भारतीयों ने यह बताया कि उन्हें 2700 कैलोरी नहीं मिलती। संगठन के आंकड़ों के अनुसार कुपोषण की स्थिति भयंकर पाई गई।
बढ़ती आर्थिक संवृद्धि और कुपोषण का विरोधाभास
आज हमारे देष के नीति निर्माता लगातार यह दावा कर रहें हैं कि देष आगे बढ़ रहा है। हमारी राष्ट्रीय आय 7 से लेकर 9 प्रतिषत की दर से बढ़ रही है। आज भारत आर्थिक ताकत के बल पर दुनिया में तीसरे पायदान पर खड़ा है। जाहिर है कि ऐसी स्थिति दुनिया में भारत का मानव विकास का रिपोर्ट कार्ड बेहतर नहीं कहा जा सकता। यही कारण है कि पिछले कई सालों से भारत मानव विकास की दृष्टि से विषेष आगे नहीं बढ़ पाया। वर्ष 2007 में भारत मानव विकास की दृष्टि से 134वें स्थान पर था और वर्ष 2011 में भी भारत का स्थान 134वां ही बना हुआ है। ऐसे में प्रष्न खड़ा होता है कि भारत में आम आदमी के कुपोषण की ऐसी स्थिति क्यों है ?
इस विरोधाभास को समझने के लिए हमें आर्थिक संवृद्धि की संरचना को समझना होगा। आर्थिक संवृद्धि का मतलब यह है कि हमारी जीडीपी में वृद्धि हो रही है। जीडीपी देष में उत्पादित होने वाली वस्तुओं और सेवाओं के मौद्रिक मूल्य को कहते हैं। पिछले दो दषकों में जीडीपी में होने वाली अधिकांष वृद्धि सेवाओं के क्षेत्र में हुई है। औद्योगिक क्षेत्र में भी आर्थिक संवृद्धि देखने को मिल रही है, लेकिन कृषि क्षेत्र में आर्थिक संवृद्धि की दर ऋणात्मक से 3-4 प्रतिषत के बीच देखने को मिलती है। इसका प्रभाव यह है कि कृषि जो 1980-81 में कृषि का जीडीपी में योगदान 38 प्रतिषत था, अब मात्र 14.3 प्रतिषत ही रह गया है। यह आंकड़े न केवल खाद्य पदार्थों की अपर्याप्त उपलब्धता की ओर इंगित करते हैं, बल्कि कृषि पर निर्भर 60 प्रतिषत जनसंख्या की आर्थिक विपन्नता की तरफ भी इषारा करते हैं। जाहिर है जब 60 प्रतिषत लोगों को केवल 14 प्रतिषत आय प्राप्त हो रही हो तो उनके कुपोषण का बढ़ना स्वभाविक ही है।
बढ़ती आर्थिक संवृद्धि के बीच गरीबी, भुखमरी और कुपोषण का यह नंगानाच देष के आर्थिक और सामाजिक ताने-बाने के लिए सही लक्षण नहीं है। नीति निर्माताओं को इस विषय पर विचार करना होगा। आज कुपोषण की इस स्थिति के लिए राष्ट्र षर्मसार है, लेकिन इसके दोषी देष के नीति निर्माताओं के अतिरिक्त कोई और नहीं।
गरीबी की कमी में धीमापन - देष ग्रस्ति है बहुआयामी गरीबी से
आजकल गरीबी की रेखा की सही परिभाषा देने की बात काफी चर्चा में है। देष की सरकार (योजना आयोग के माध्यम से) गरीबी की एक ऐसी परिभाषा दे रही है, जिसके अनुसार षहरी क्षेत्रों में 32 रूपये प्रतिदिन पाने वाला व्यक्ति गरीबी की रेखा से ऊपर माना जायेगा। प्रो. तेंदुलकर द्वारा गरीबी की रेखा की नई परिभाषा सुझाई गई और वर्ष 2004-05 में 37 प्रतिषत जनसंख्या को गरीबी की रेखा से नीचे माना गया। ध्यातव्य है कि इससे पहले तो योजना आयोग वर्ष 2004-05 में मात्र 27 प्रतिषत लोगों को ही गरीबी की रेखा से नीचे बता रहा था। इस परिभाषा में भुखमरी को ही गरीबी कहा गया था यानि जो व्यक्ति कैलोरी उपभोग के संदर्भ में भुखमरी से ऊपर था, वह गरीब नहीं माना गया। प्रो. तेंदुलकर द्वारा सुझाई गई परिभाषा में नई बात यह थी कि उसमें गरीब के उपभोग बंडल में षिक्षा और स्वास्थ्य भी आंषिक रूप से जोड़ने की बात कही गई। प्रो. तेंदुलकर की परिभाषा के अनुसार भी 2004-05 में षहरी क्षेत्रों में प्रतिदिन 19.5 रूपये पाने वाला गरीबी की रेखा से ऊपर माना गया।
षिक्षा और स्वास्थ्य का भी अभाव
इसी परिभाषा को आधार मानकर वर्तमान में 32 रूपये प्रतिदिन पाने वाले को गरीबी की रेखा से ऊपर माना गया। अभी हाल ही में योजना आयोग के मुख्य सलाहकार श्री प्रणव सेन ने कहा कि देष में अभाव और गरीबी के बारे में सरकार के विभिन्न विभागों द्वारा अलग-अलग प्रकार की परिभाषाएं इस्तेमाल की जाती है। लेकिन यदि हम वास्तविक धरातल पर देखें तो आज जनसंख्या का एक बड़ा भाग भुखमरी से पीडि़त है ही, मध्यम वर्ग का एक बड़ा हिस्सा षिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं के संदर्भ में आमतौर पर अभाव ग्रस्त है। षहरों और गांवों में रहने वाला आम आदमी आज अपने बच्चों को अच्छे स्तर की षिक्षा दिलाने में पूर्णतया अक्षम महसूस कर रहा है। उसी प्रकार बीमारी की स्थिति में इलाज के लिए वह आज अच्छे अस्पतालों में नहीं जा सकता। इस प्रकार षिक्षा और स्वास्थ्य के इन अभावों के चलते वह या तो षिक्षा और स्वास्थ्य सुरक्षा विहीन रहने को मोहताज है अथवा येन-केन-प्रकारेण उधार लेकर अपने बच्चों को पढ़ाने ओर अपने प्रियजनों के इलाज के लिए मजबूर है।
भूमंडलीकरण और निजीकरण के दौर में षिक्षा और स्वास्थ्य आज सबसे ज्यादा निजी हाथों में केन्द्रित होते जा रहे हैं। अधिकाधिक लाभ की संभावनाओं के कारण इस क्षेत्र में निजी निवेष तो हुआ है और सेवाओं का स्तर भी पहले से बेहतर हुआ है, लेकिन ये सेवाएं केवल उनके लिए हैं जो उनकी कीमत अदा कर सकते हैं। इसलिए गरीब भोजन के अभाव से ही नहीं बल्कि सरकार द्वारा षिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र से भी हाथ खींच लेने से भी षिक्षा और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत आवष्यकताओं के अभाव से भी पीडि़त है।
बहुआयामी गरीबी
ऐसे में संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम के द्वारा ‘बहुआयामी गरीबी सूचकांक’ विकसित किया गया है, जिसके अनुसार भोजन ही नहीं बल्कि षिक्षा, स्वास्थ्य, जीवन स्तर जिसमें बिजली, पेयजल, सफाई, ईंधन, परिसंपत्तियां इत्यादि षामिल हैं। यह बहुआयामी गरीबी सूचकांक (एम.पी.आई.) 104 देषों के 520 करोड़ लोगों के लिए बनाया गया है, जिसमें 170 करोड़ लोग गरीब माने गये हैं। भारत में जहां सरकारी परिभाषा के अनुसार मात्र 37 प्रतिषत लोग ही गरीबी की रेखा से नीचे माने गये हैं, इस व्यापक परिभाषा के अनुसार (वर्ष 2000 से 2008 के बीच) 53.5 प्रतिषत लोग गरीब माने गये हैं। इसके अतिरिक्त 16 प्रतिषत से भी अधिक लोग गरीबी के खतरे में हैं। एक अन्य महत्वपूर्ण बात यह है कि 37.5 प्रतिषत लोग षिक्षा के अभाव, 56.5 प्रतिषत स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव और 58.5 प्रतिषत लोग जीवन स्तर के अभावों से ग्रस्त माने गये हैं। बहुआयामी गरीबी सूचकांक की दृष्टि से भारत में यह सूचकांक 0.296 माना गया है, जबकि मानव विकास सूचकांक की दृष्टि से भारत से भी नीचे के कई देष गरीबी सूचकांक में भारत से भी कहीं बेहतर स्थिति में हैं। इसका अभिप्राय यह है कि मानव विकास सूचकांक भी वास्तव में बहुआयामी गरीबी को परिलक्षित नहीं करता है।
इससे यह निष्कर्ष नहीं निकालना चाहिए कि बहुआयामी गरीबी के संदर्भ में भारत में कोई प्रगति नहीं हुई है। वास्तव में हम देखते हैं कि षिक्षा के क्षेत्र में भारत ने खासी प्रगति की है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में 74 प्रतिषत लोग आज साक्षर हैं। पुरूषों में साक्षरता वर्ष 2001 में 75.3 से बढ़कर अब 82.14 प्रतिषत हो गई है। महिलाओं में भी साक्षरता 53.7 प्रतिषत से बढ़कर 65.5 प्रतिषत हो गई है। हालांकि स्वास्थ्य के सूचक के रूप में हमारे देष में प्रत्याषित आयु भी बढ़ी है, लेकिन जब हम स्वास्थ्य की सुविधाओं के संदर्भ में बात करें तो हमारी स्थिति अभी भी बहुत अच्छी नहीं है। वर्ष 2005-06 के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार 6 से 35 महीनों के आयु वर्ग के 79 प्रतिषत बच्चों में खून की कमी पाई गई और 15 से 49 वर्ष के आयु वर्ग में 56 प्रतिषत विवाहित महिलाओं में खून की कमी पाई गई। 38 प्रतिषत बच्चे अपनी आयु के हिसाब से ठिगने थे और 3 वर्ष के आयु से कम के 46 प्रतिषत बच्चे अपनी आयु के हिसाब से हल्के थे। 58 प्रतिषत लोग अभी भी पीने योग्य पानी के अभाव से ग्रस्त हैं।
बढ़ती असमानताएं
वर्ष 1990-91 से वर्ष 2009-10 के बीच राष्ट्रीय उत्पाद की वृद्धि दर औसत 7 प्रतिषत से भी अधिक रिकार्ड हुई। दसवीं पंचवर्षीय योजना में राष्ट्रीय उत्पाद की संवृद्धि दर 7.8 प्रतिषत की रही। लेकिन इसके साथ ही साथ देष में असमानताएं भी बढ़ी हैं। विषेषतौर पर जहां 1980-81 में कृषि का योगदान सकल देषीय उत्पाद में 38 प्रतिषत होता था, वह घट कर 2010-11 तक मात्र 14.2 प्रतिषत ही रह गया। ऐसे में हमारे पास एक चमकता भारत है, जिसमें आज 55 लोग ऐसे हैं जिनकी परिसम्पतियां 1 अरब डाॅलर से भी अधिक है, कुल 10-12 करोड़ लोगों का समृद्ध एवं मध्यम वर्ग है, जो विकास के तमाम लाभ उठा रहा है। दूसरी ओर लगभग 110 करोड़ वे गरीब लोग हैं, जो अपनी न्यूनतम आवष्यकताओं को भी पूरा नहीं कर पाते। देष में निगम क्षेत्र में संलग्न बड़े पूंजीपति और मैनेजर करोड़ों रूपये का पारिश्रमिक पाते है और लगभग 14 करोड़ मजदूर भूमिहीन आकस्मिक श्रमिक हैं, जो लगभग 100 रूपये या उससे कम की मजदूरी प्रतिदिन प्राप्त करते हैं।
इस प्रकार देष में व्याप्त असमानताओं के चलते 100 करोड़ से अधिक लोग वर्तमान में उपलब्ध निजी क्षेत्र में उच्च षिक्षा के अवसरों से पूर्णतया वंचित हैं। यही नहीं सरकार द्वारा उच्च षिक्षा से हाथ खींचने और सरकारी षिक्षण संस्थाओं में भी स्वपोषित कोर्स षुरू होने के कारण गरीब सरकारी क्षेत्र की षिक्षा सेवाओं से भी वंचित है। दूसरी ओर देष में स्वास्थ्य के क्षेत्र में निजी संस्थाओं के माध्यम से होने वाले विकास का भी गरीबों के लिए कोई मतलब नहीं है, क्योंकि वे उनके लिए कीमत अदा कर पाने में असमर्थ है। दूसरी ओर सरकारी अस्पतालों में इलाज की अपर्याप्त सुविधाएं गरीब को बिना इलाज दम तोड़ने को विवष कर रही हैं। अपने प्रियजनों का इलाज कराने के लिए गरीब अपने पास जो थोड़ी-बहुत सम्पत्ति होती है, उसे भी बेचने को विवष हो रहा है और गरीबी की रेखा के नीचे धकेला जा रहा है। गरीबी उन्नमूलन के सरकारी उपाय तभी सार्थक हो सकते हैं, जब अभावों के इन तमाम प्रकारों को भली-भांति समझकर गरीब आदमी का जीवन स्तर सुधारने का प्रयास हो।
बढ़ती बेरोजगारी की पीड़ा
एक तरफ तेजी से होते आर्थिक संवृद्धि और दूसरी ओर गहराती गरीबी का विरोधाभास रोजगार विहीन विकास के कारण है। यह सही है की जी.डी.पी. बढ़ रही है और तेजी से बढ़ रही है, लेकिन साथ ही साथ रोजगार के अवसर नहीं बढ़ रहे। देष में ग्रामीण और षहरी दोनों क्षेत्रों में बेरोजगारी लगातार बढ़ी है। 1999-2000 में राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के 55वें दौर के आंकड़े के अनुसार पुरूषों में षहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी की दर क्रमषः 7.3 प्रतिषत और 7.2 प्रतिषत थी और महिलाओं में यह क्रमषः 9.4 प्रतिषत और 7.0 प्रतिषत थी। यह 61वें दौर तक आते-आते 2004-05 में बढ़कर पुरूषों में क्रमषः 7.5 प्रतिषत और 8.0 प्रतिषत और महिलाओं में क्रमषः 11.6 प्रतिषत और 8.7 प्रतिषत पहुंच गई।
राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के 66वें दौर के आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2004-05 से 2009-10 के बीच 5 वर्षों में कुल 20 लाख रोजगार के अवसर ही जुटाये जा सके। यह तो आंकड़ों का खेल था कि तब भी सरकार ने बेरोजगारी की दर घटी हुई दिखाई।
घटिया होता रोजगार
कुछ समय पहले राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन ने अपने 66वें सर्वेक्षण दौर की रिपोर्ट जारी की है। इस रिपोर्ट में एक अत्यंत चिंताजनक बात सामने आई है, और वह है रोजगार में बढ़ती आकस्मिकता या यूं कहें कि अस्थिरता। नमूना सर्वेक्षण संगठन समय-समय पर रोजगार और बेरोजगारी से संबंधित रिपोर्ट प्रस्तुत करता है। हाल की रिपोर्ट के अनुसार 2004-05 और 2009-10 के बीच आकस्मिक श्रमिकों की संख्या में 219 लाख की वृद्धि हुई। पिछले दौर की तुलना में यह वृद्धि काफी ज्यादा है। स्थायी यानि वेतन पाने वाले श्रमिकों की बात कहें तो 2009-10 के दौर में यह वृद्धि पूर्व से आधी यानि मात्र 58 लाख की ही थी। स्वरोजगार युक्त श्रमिकों जिसमें अधिकतर किसान, लघु और कुटीर उद्योगपति और व्यापारी आते हैं; की संख्या में 251 लाख की कमी दर्ज की गई है।
इस बात में कोई संदेह नहीं है कि जब आकस्मिक रोजगार वाले श्रमिकों की संख्या में वृद्धि होती है तो रोजगार का स्तर घटता है और श्रमिकों के जीवन स्तर में कमी आती है। प्रतिषत आधार पर देखें तो पाते हैं कि 1993-94 में ग्रामीण क्षेत्रों में आकस्मिक रोजगार केवल 35.6 प्रतिषत और षहरी क्षेत्रों में 18.3 प्रतिषत था। 2009-10 में यह ग्रामीण क्षेत्रों में 38.6 प्रतिषत पहुंच गया और षहरी क्षेत्रों में यह 17.5 प्रतिषत रहा। 2004-05 की तुलना में 2009-10 में ग्रामीण और षहरी दोनों क्षेत्रों में आकस्मिकता वाला रोजगार तेजी से बढ़ा है। गौरतलब है कि यह प्रतिषत 2004-05 में ग्रामीण और षहरी क्षेत्रों में क्रमषः 35.0 और 15.1 प्रतिषत ही था।
नई आर्थिक नीति और भूमंडलीकरण के पैरोकार तो यह मानने के लिए कभी तैयार ही नहीं होते कि इस आर्थिक नीति में कुछ गलत भी हो सकता है। वे तो लगातार बढ़ती आर्थिक संवृद्धि का दंभ भरते हैं। गौरतलब है कि रोजगार में घटियापन उन्हीं वर्षों में सबसे ज्यादा बढ़ा जब आर्थिक संवृद्धि सबसे ज्यादा तेज थी। 2004-05 और 2009-10 में आर्थिक संवृद्धि की दर औसत रूप में 8 से 9 प्रतिषत रही, जबकि पूर्व के वर्षों में वह उससे कहीं कम थी। लेकिन पूर्व के वर्षों में आकस्मिक रोजगार घटा था। आम तौर पर माना जाता है कि आर्थिक संवृद्धि के साथ रोजगार भी बढ़ता है। लेकिन वर्तमान आर्थिक संवृद्धि अभी तक रोजगार विहीन आर्थिक संवृद्धि ही मानी जाती है, क्योंकि इसमें जी0डी0पी0 तो बढ़ी लेकिन रोजगार नहीं। पिछले पांच वर्षों में रोजगार में पहले से थोड़ी ज्यादा वृद्धि देखने को मिली, लेकिन वह रोजगार स्तरीय रोजगार नहीं था। वास्तव में इस कालखण्ड में कम मजदूरी वाला आकस्मिक रोजगार ही बढ़ा। यदि हम इस आर्थिक संवृद्धि की तस्वीर देखते हैं तो इस बात का उत्तर साथ ही साथ मिल जाता है। इस आर्थिक संवृद्धि में हमारी आधी से अधिक आबादी, जो कृषि पर निर्भर करती है, की कोई भागीदारी नहीं थी। जबकि अर्थव्यवस्था के दूसरे क्षेत्रों में 8 से 12 प्रतिषत की वृद्धि दर्ज की गई, कृषि की स्थिति षोचनीय ही बनी रही और उसमें मात्र षून्य से तीन प्रतिषत (औसतन 2 प्रतिषत) संवृद्धि दर्ज की गई।
साथ ही साथ अर्थव्यवस्था के षेष क्षेत्रों में भी आर्थिक संवृद्धि संगठित क्षेत्रों और कारपोरेट क्षेत्र तक ही सीमित रही। पूंजीपतियों का लाभ और कुछ खास लोगों के वेतन बढ़े लेकिन बहुसंख्यक लोगों का रोजगार का स्तर या तो बढ़ नही पाया या घट गया।
आकस्मिकता का मतलब
आकस्मिक रोजगार वह रोजगार होता है, जहां श्रमिकों को काम में स्थायीत्व और अन्य सुविधाओं का अभाव होता है। ठेकेदारी व्यवस्था में काम करने वाले अधिकतर श्रमिक जो गार्ड, सफाई कर्मचारी, ड्राईवर इत्यादि के नाते काम करते हैं, वे सभी इसी श्रेणी में आते हैं। आकस्मिक रोजगार घटिया इसलिए माना जाता है क्योंकि स्थायी कर्मचारियों की अपेक्षा आकस्मिक श्रमिकों की मजदूरी कम होती है और इसमें वृद्धि भी कम होती है। हम देखते हैं कि हमारे आस-पास ठेकेदारी व्यवस्था के अंतर्गत काम करने वाले गार्ड, सफाई कर्मचारी इत्यादि अत्यंत अमानवीय परिस्थितियों में काम करते हैं और उनका वेतन भी गुजारे लायक वेतन से कहीं कम होता है। इन्हें मजदूरी के अतिरिक्त कुछ और भत्ते इत्यादि भी नहीं मिलते।
दूसरी ओर वेतनभोगी स्थायी मजदूरों को बोनस, मकान, किराया भत्ता, दवाई और इलाज के लिये खर्च, मुफ्त टेलीफोन, यातायात भत्ता/कार इत्यादि तमाम प्रकार की सुविधायें मिलती हैं अथवा इन सुविधायों के बाजार मूल्य के आधार पर भरपाई होती है।
आकस्मिक श्रमिकों की निम्न मजदूरी
जिस मजदूरी पर आकस्मिक श्रमिकों का गुजारा चलता है वह भी बहुत ही निम्न स्तर की होती है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार तीन प्रकार के अस्थायी मजदूरों के लिये अलग-अलग मजदूरी की गणना की गई है। षहरी क्षेत्रों में स्थायी कर्मचारियों की मजदूरी औसत 365 रूपये और ग्रामीण क्षेत्रों में यह 232 रूपये आंकी गई है। जबकि निजी क्षेत्र के कार्यों के लिये भाड़े पर लिये गये आकस्मिक मजदूरों की मजदूरी षहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में क्रमषः 122 रूपये और 93 रूपये ही है।
महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के अलावा ग्रामीण क्षेत्रों में यह मजदूरी पुरूषों के लिये 98 रूपये और महिलाओं के लिये 86 रूपये थी। रोजगार गारंटी योजना और सरकारी प्रकल्पों पर भाड़े पर लिये गये मजदूरों की मजदूरी क्रमषः पुरूषों और महिलाओं के लिये मात्र 91 रूपये और 87 रूपये आंकी गई है।
इसके अतिरिक्त यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि दिहाड़ीदार मजदूरों को वर्ष भर काम नहीं मिलता। ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत भी काम तो केवल 100 ही दिन मिल पाता है। षेष मजदूरों को तो उतना भी काम नसीब नहीं होता। वेतनभोगी मजदूरों से काम के दिनों में एक चैथाई से एक तिहाई ही मजदूरी और वास्तव में वर्ष भर में मात्र 100 दिनों से भी कम रोजगार की स्थिति, देष में इन मजदूरों की बदतर स्थिति बयान करती है।
नई आर्थिक नीति है दोषी
इसके साथ मजदूरों में बढ़ती आकस्मिकता और अस्थायीत्व अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है। वास्तव में नई आर्थिक नीति के चलते कृषि, लघु और कुटीर उद्योगों में स्वरोजगार घट रहा है। इसके साथ सरकारों द्वारा किसानों की भूमि का जबरन अधिग्रहण, किसान से उसका परंपरागत रोजगार छीन रहा है। ऐसे में स्वरोजगार युक्त श्रमिकों में मात्र 5 वर्षों में 251 लाख की कमी और उन स्वरोजगार युक्त लोगों का आकस्मिक श्रमिक के रूप में बदलाव, देष में आम मजदूर और किसान की बदहाली की ओर इषारा कर रहा है।
नई आर्थिक नीति के पैरोकारों को विचार करना होगा कि केवल जी0डी0पी0 आधरित आर्थिक संवृद्धि से आम आदमी के जीवन में सुधार नहीं हो सकता। लेकिन जब इस जी0डी0पी0 को बढ़ाने की कवायद में आम आदमी गरीबी की ओर जा रहा हो, तो उस नीति का परित्याग कर जनोन्मुखी आर्थिक नीति बनानी होगी। कृषि, लघु उद्योग और अन्य स्वरोजगार प्रदान करने वाले क्षेत्रों का विकास और बचाव ही एकमात्र उपाय है।
सरकार पर बढ़ता कर्ज
अभी हाल ही में ग्रीस समेत यूरोपीय समुदाय के कई देष बढ़ते सरकारी कर्ज के चलते अपनी संप्रभुता को खोने का दंष सह रहे हैं। हाल ही में ग्रीस की संसद द्वारा यूरोपीय समुदाय के 130 अरब यूरो के सहायता पैकेज की षर्त के अनुसार कटौती प्रस्तावों को पारित किया है। ग्रीस की जनता के भारी विरोध के बावजूद, ग्रीस को आर्थिक संकट से उबारने के लिए उठाया गया यह कदम वर्तमान परिस्थितियों में सही ठहराया जा सकता है, लेकिन जिस प्रकार से ग्रीस को कटौती के लिए बाहरी ताकतों द्वारा मजबूत किया जा रहा है, वह ग्रीस के संप्रभुता के खतरे की ओर सीधा इषारा कर रहा है। इसी प्रकार से इटली, पुर्तगाल सहित कुछ अन्य देष भी इसी प्रकार के संप्रभुता के संकट से जूझ रहे हैं।
सवाल पैदा होता है कि ऐसा क्यों हो रहा है, आखिर संप्रभुता के संकट के कारण क्या हैं ? ग्रीस, इटली, पुर्तगाल और जर्मनी सरीखे यूरोपीय देषों में सरकारों के बढ़ते खर्च और उसके कारण लिए जा रहे कर्ज के कारण सरकार को कर्ज वापसी में होने वाली कठिनाई और संभावित कोताही ने इन देषों के लिए संप्रभुता का संकट खड़ा कर दिया है। मात्र 130 अरब यूरो के सहायता पैकेज के लिए ग्रीस की सरकार को यूरोपीय समुदाय की षर्तों के अनुसार अपनी आर्थिक नीतियां बदलनी पड़ रही हैं। अत्यंत जरूरी सामाजिक सुरक्षा संबंधी खर्चों में भी कटौती की जा रही है। कमोबेष इस प्रकार के संकट से जूझ रहे अन्य यूरोपीय देषों में भी संप्रभुता के संकट के बादल मंडरा रहे हैं।
कर्ज के भंवर में फंसता भारत
हाल ही में रिजर्व बैंक के गर्वनर ने चेतावनी दी है कि यदि राजकोषीय घाटे को रोकने के कारगर कदम नहीं उठाये गये तो भारत भी कर्ज के भंवर में फंस सकता है। भारत में केन्द्रीय सरकार का कर्ज अब जीडीपी के 65 प्रतिषत तक पहुंच चुका है। उभरती अर्थव्यवस्थाओं में हमारा कर्ज-जीडीपी अनुपात हंगरी के बाद सबसे अधिक है। वर्ष 2011-12 में बजट अनुमानों के अनुसार केन्द्र सरकार का राजकोषीय घाटा 4.13 लाख करोड़ रूपये था। कहा जा रहा है कि वास्तव में यह घाटा इससे कहीं अधिक रहेगा। इस घाटे की आंषिक रूप से पूर्ति रिजर्व बैंक से उधार लेते हुए नये नोट छाप कर की जायेगी, लेकिन इस घाटे की अधिकतम भरपाई पूर्व के अनुसार अतिरिक्त ऋण जुटाकर ही की जायेगी। केन्द्र सरकार पर कुल कर्ज 2002-03 में मात्र 15.59 लाख करोड़ से बढ़ते हुए 2011-12 तक 43.53 लाख करोड़ रूपये हो चुका है। इसके अतिरिक्त 18.2 लाख करोड़ रूपये का कर्ज राज्य सरकारों पर है। वर्ष 2011-12 के बजट में केन्द्र सरकार को मात्र ब्याज की अदायगी में 2.68 लाख करोड़ रूपये खर्च करने पड़े। यदि केन्द्र सरकार का कर्ज इसी प्रकार से बढ़ता गया तो हर बार टैक्सों से होने वाली प्राप्तियों का एक बड़ा हिस्सा ब्याज की अदायगी में ही चला जायेगा। ऐसे में सरकार के पास षिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सामाजिक सेवाओं पर खर्च करने के लिए धन नहीं बचेगा और हर बार इन खर्चों की पूर्ति के लिए सरकार को और ज्यादा ऋण लेने पड़ेंगे।
अपने ही संकल्पों को पूरा नहीं कर पाई सरकार
कुछ वर्ष पूर्व सरकार ने एफ.आर.बी.एम. कानून पास करते हुए स्वयं पर यह अंकुष लगाया था कि राजकोषीय घाटे को कम करते हुए उसे तीन वर्षों में 2.5 प्रतिषत तक लाया जाएगा, लेकिन सरकार अपने इस संकल्प पर अडिग न रह सकी और अपने ही संकल्प की धज्जियां उड़ाते हुए वर्ष 2008-09 में राजकोषीय घाटे को लगभग 7 प्रतिषत तक पहुंचा दिया गया। सरकार ने इसके लिए यह तर्क दिया कि वैष्विक मंदी से उबरने के लिए सरकार को एक ओर करों में छूट देनी पड़ी और दूसरी ओर सरकारी व्यय बढ़ाना पड़ा। वित्त मंत्री का कहना है कि सरकार एफ.आर.बी.एम. एक्ट के अनुरूप अपने राजकोषीय घाटे को कम करके उसे 2.5 प्रतिषत पर लाने के लिए संकल्पित है। लेकिन वर्ष 2011-12 में भी राजकोषीय घाटा जीडीपी का लगभग 6 प्रतिषत रहने का अनुमान है। यदि राज्य सरकारों का राजकोषीय घाटा भी इसमें जोड़ दिया जाए तो कुल राजकोषीय घाटा जीडीपी का 10 प्रतिषत हो जाता है। स्वभाविक है कि बड़े राजकोषीय घाटे देष को कर्ज के बड़े भंवर की ओर धकेल रहे हैं।
विदेषी कर्ज और उभरते खतरे
देष पर विदेषी कर्ज भी लगातार बढ़ता जा रहा है। 2005 में विदेषी कर्ज जो मात्र 134 अरब डालर ही था, वह बढ़ता हुआ 2011 में 306 अरब डालर तक पहुंच गया। हाल ही के वर्षों में न केवल विदेषी कर्ज में भारी वृद्धि हुई है, बल्कि कुल विदेषी कर्ज में लघुकालिन विदेषी कर्ज 2006-07 में 20 प्रतिषत से बढ़ता हुआ हाल ही में 40 प्रतिषत तक पहुंच गया है। इसके चलते हमारा विदेषी मुद्रा भंडार जो मात्र 293 अरब डालर का है, उसका अधिकांष हिस्सा इस लघुकालिन विदेषी कर्ज को चुकाने में ही खर्च हो सकता है। ऐसे में अन्य मुद्राओं की तुलना में रूपया और भी ज्यादा कमजोर हो सकता है। बढते विदेषी कर्ज और खासतौर पर लघुकालिन विदेषी कर्ज का मुख्य कारण हमारा बढ़ता व्यापार घाटा है। लगातार बढ़ते व्यापार घाटे के कारण हमारी सेवाओं के बड़े निर्यात और प्रवासी भारत द्वारा भेजे जा रहे अपार धन के बावजूद हमारा भुगतान षेष का घाटा लगातार बढ़ता हुआ वर्ष 2010-11 में 130.5 अरब डालर तक पहुंच गया है। भुगतान षेष का यह घाटा देष पर विदेषी कर्ज बढ़ाने का बड़ा सबब बन रहा है।
आर्थिक नीतियों में जरूरी हैं बड़े बदलाव
पिछले वर्षों में सरकारों की लोकलुभावन नीतियों के चलते सरकारी बजट में अनुषासनहीनता लगातार बढती जा रही है। हमारी सरकारों द्वारा अपनाई जाने वाली भूमंडलीकरण की नीतियों के कारण पूंजी प्रधान तकनीकों का उपयोग तो बढ़ा ही है, विदेषों से बढ़ते आयातों के कारण देष में लघु और कुटीर उद्योगों में रोजगार के अवसर भी कम हुए हैं। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन द्वारा प्रकाषित 66वें दौर की रिपोर्ट के अनुसार देष में स्वरोजगार 2004-05 और 2009-10 के बीच 251 लाख घटा और उसके स्थान पर आकस्मिक रोजगार 220 लाख बढ़ा। ऐसे में घटते रोजगार के अवसर सरकार को नरेगा जैसी रोजगार गारंटी योजनाएं चलाने के लिए बाध्य करती है, जिन पर हर वर्ष 40 हजार करोड़ रूपये से भी अधिक का खर्च आता है। सरकार द्वारा कृषि की अनदेखी के चलते किसानों की घटती आमदनियां और उनपर बढ़ता कर्ज का बोझ सरकार को कर्ज माफी की योजना लाने के लिए प्रेरित करता है। लेकिन ये ऐसे गैर जरूरी सरकारी खर्च हैं जिनसे रोजगार प्रधान और कृषि विकास की आर्थिक नीतियों के माध्यम से बचा जा सकता है। साथ ही साथ सरकारों को फिजूल खर्ची से बचते हुए अपने खर्चों पर अंकुष लगाना होगा। नीतियों के सही मिश्रण से ही कर्ज के इस भंवर से बचा जा सकता है।
अर्थव्यवस्था के कुप्रबंधन से त्रस्त आम आदमी
2009 में आम चुनाव से पहले यूपीए । सरकार ने पेट्रोल की कीमतों में 9 रूपये की कमी थी, लेकिन जैसे ही चुनाव संपन्न हुए, उसके कुछ ही समय बाद दो किष्तों में पेट्रोल का दाम उससे ज्यादा बढ़ा दिया गया। 2010 में पेट्रोल की कीमतें कई बार बढ़ाई गई। पहले से भारी मुद्रा स्फीति की मार झेल रहा आदमी सरकार की इस नीति से बिल्कुल असहाय सा हो गया है। 15 सितम्बर 2011 को पेट्रोलियम कंपनियों ने पेट्रोल की कीमत फिर से 3 रूपये बढ़ा दी और दिल्ली में पेट्रोल लगभग 67 रूपये प्रति लीटर हो गया। इससे दो माह पूर्व ही कंपनियों ने रसोई गैस पर 50 रूपये प्रति सिलेण्डर, डीजल पर 3 रूपये और कैरोसिन पर 2 रूपये प्रति लीटर बढ़ोतरी की थी। ध्यातव्य है कि जुलाई 2010 में दिल्ली में पेट्रोल 43 रूपये प्रति लीटर बिकता था। इसी प्रकार डीजल और रसोई गैस भी अभी से बहुत सस्ती थी। हालांकि पेट्रोलियम पदार्थों का बढ़ना कोई नई बात नही है। नया यह है कि पहले ये कीमतें सरकारी नियंत्रण में थी लेकिन जून 2010 से ये बाजारी नियंत्रण में चली गई।
16 सितम्बर 2011 को भारतीय रिजर्व बैंक ने मार्च 2010 से लगातार 12वीं बार रेपोरेट और रिवर्स रेपोरेट में 0.25 प्रतिषत की वृद्धि करते हुए उसे क्रमषः 8.25 प्रतिषत और 7.25 प्रतिषत कर दिया है। भारतीय रिजर्व बैंक का कहना है कि यह कदम लगातार बढ़ती महंगाई के मद्देनजर उठाया गया है। रेपोरेट वह ब्याज दर होती है, जिस पर बैंक रिजर्व बैंक से उधार लेते हैं। रिवर्स रेपोरेट वह ब्याज दर होती है, जिस पर बैंक अपना पैसा रिजर्व बैंक के पास जमा करते हैं।
भारतीय रिजर्व बैंक के द्वारा मात्र 17 से भी कम महीनों में 12 बार ब्याज दरों में बढ़ोत्तरी सीधे तौर पर संकुचनवादी मौद्रिक नीति मानी जा सकती है। सामान्यतौर पर माना जाता है कि महंगाई का प्रमुख कारण मांग में वृद्धि होता है। वस्तुओं की कम उपलब्धता और बढ़ती मांग कीमतों पर दबाव बनाती है, इसलिए रिजर्व बैंक परंपरागत तौर पर ब्याज दरों में वृद्धि कर कीमतों को षांत करने का प्रयास करता है। लेकिन विडंबना यह है कि इतने कम समय में ब्याज दरों में भारी वृद्धि के बावजूद कीमत वृद्धि थमने का नाम नहीं ले रही और अगस्त माह तक आते-आते पिछले वर्ष की तुलना में महंगाई 9.78 प्रतिषत तक बढ़ गई। खाद्य पदार्थों में यह वृद्धि लगभग 10 से 13 प्रतिषत के बीच बनी हुई है। लेकिन रिजर्व बैंक की मृग-मिरीचिका का कोई अंत नहीं है।
नीची ब्याज दरों के कारण विकास को मिली गति
यदि पिछले 12 वर्षों का हिसाब देखें तो पाते हैं कि कृषि की विकास दर कम होने के बावजूद अन्य क्षेत्रों में आमदनियां बढ़ी और अर्थव्यवस्था की सकल संवृद्धि दर 6.5 से 9 प्रतिषत के बीच रही। इसका सबसे बड़ा कारण यह था कि इस दषक के पहले 6-7 वर्षों तक कीमतों में वृद्धि को काफी हद तक काबू में रखा जा सका। कीमतों में अपेक्षित नियंत्रण के चलते ब्याज दरें घटने लगी। हालांकि घटती ब्याज दरों ने एक ऐसे वर्ग, जो ब्याज की आय पर आधारित था, को प्रभावित तो किया, लेकिन घटती ब्याज दरों ने देष में घरों, कारों, अन्य उपभोक्ता वस्तुओं इत्यादि की मांग में अभूतपूर्व वृद्धि की। कम ब्याज दरों के चलते सरकार द्वारा अपने पूर्व में लिए गए ऋणों पर ब्याज अदायगी पर भी अनुकूल असर पड़ा। हाऊसिंग, इन्फ्रास्ट्रक्चर और अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों में तेजी से विकास होना षुरू हुआ और देष दुनिया की सबसे तेज बढ़ने वाली अर्थव्यवस्थाओं में चीन के बाद दूसरे स्थान पर आ गया। यानि कहा जा सकता है कि भारत की आर्थिक संवृद्धि की गाथा में ब्याज दरों के घटने की एक प्रमुख भूमिका रही है।
ब्याज दरों में वृद्धि का मध्यम वर्ग के लिए मतलब
आज बढ़ती आमदनियों के युग में मध्यम वर्ग, विषषतौर पर मध्यम वर्गीय युवा अपने जीवन स्तर को ऊंचा उठाने की जुगत में रहता है। ऐसे में अच्छा और अपना घर, कार अथवा मोटर साईकिल और जीवन का अन्य साजो समान खरीदने के लिए वह बैंकों से उधार लेता है और उसे किष्तों यानि ईएमआई से चुकाता है। पष्चिमी देषों से आई इस पद्धति से जीवन स्तर तो बेहतर हुआ, लेकिन आम आदमी की देनदारियां भी बढ़ गई। यह देनदारियां सामान्यतः स्थिर ब्याज दर पर आधारित नहीं होती। बढ़ते ब्याज दर से ईएमआई भी बढ़ जाती है। ऐसे में मध्यम वर्ग की ईएमआई बढ़ते जाने से रोजमर्रा के लिए उसके पास आमदनी बहुत कम बचती है।
पेट्रोलियम पदार्थों की कीमत और आदमी
सरकार का यह तर्क है कि तेल कंपनियों के बढ़ते घाटे के मद्देनजर पेट्रेलियम पदार्थों की कीमतों का बढ़ाना अवष्यांभावी है। लेकिन हमें यह भी समझना चाहिए कि पेट्रोलियम पदार्थ उपभोग का मात्र एक पदार्थ नहीं है। यह यातायात, उद्योग आदि के लिए एक कच्चा माल भी है। जाहिर है कि किसी भी उद्योग के कच्चे माल की कीमतों में वृद्धि होने पर उस उद्योग द्वारा उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं की कीमतें भी बढ़ जाती है। यानि बसों और यातायात के अन्य साधनों के किराये तो बढ़ेंगे ही साथ ही साथ वस्तुओं की उत्पादन लागत बढ़ने के कारण उनकी कीमतों में भी वृद्धि होगी।
पेट्रोलियम कंपनियों को घाटे का झूठ
पहले सरकार आम व्यक्ति की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए पेट्रोलियम कीमतों को निर्धारित करती थी और पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतें वर्ष में एक या दो बार से ज्यादा नहीं बढ़ाई जाती थी। और कभी कभी तो कच्चे तेल की कीमतों में कमी के चले पेट्रोलियम कीमत को कम भी किया गया। सरकार कीमतों को स्थिर रखने के लिए बजट में भारी प्रावधान करते हुए पेट्रोलियम कंपनियों को कोई बहुत बड़ी सहायता भी नहीं दे रही थी। पेट्रोलियम कंपनियों को यह निर्देष था कि वे घाटा होने की स्थिति में ‘आॅयल बांड’ निर्गमित करके उससे अपने घाटे की भरपाई करें। सब जानते है कि अंतराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतें लगातार एक जैसी नहीं रहती, कभी कीमतें बढ़ती है तो कभी कीमतें बहुत कम हो जाती है। पिछले एक वर्ष में अंतराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतें 64 डाॅलर प्रति बैरल से लेकर 90 डाॅलर प्रति बैरल तक रिकाॅर्ड की गई। यदि पिछले 2 वर्षों का हिसाब लें तो अंतराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की न्यूनतम कीमत 34.57 डाॅलर प्रति बैरल रिकाॅर्ड की गई। इसलिए पेट्रोलियम कंपनियों को पुरानी व्यवस्था यानि कीमतों पर सरकारी नियंत्रण में भी कोई नुकसान नहीं होता था। यदि इन कंपनियों का हिसाब-किताब देखें तो वर्ष 2008-09 में ओ.एन.जी.सी को 16041 करोड़ रूपये, ‘गैल’ को 2814 करोड़ रूपये, इंडियन आॅयल को 2570 करोड़ रूपये और आॅयल इंडिया को 2166 करोड़ रूपये का लाभ हुआ। वर्ष 2009-10 में यह लाभ और ज्यादा बढ़ता हुआ क्रमषः 16745 करोड़ रूपये, 3139 करोड़ रूपये, 10321 करोड़ रूपये और 2611 करोड़ रूपये हो गया। इन दोनों वर्षों में पुरानी व्यवस्था लागू थी। इसके अलावा एक अन्य रोचक बात यह है कि 217 सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठानों द्वारा जो 92593 करोड़ रूपये का लाभ हुआ, उसमें मात्र तेल कंपनियों द्वारा ही 32857 करोड़ रूपये का लाभ हुआ। यानि कुल लाभ का 36 प्रतिषत मात्र पेट्रोलियम कंपनियों से ही प्राप्त हुआ। यानि पेट्रोलियम कंपनियों के नुकसान का तर्क सीधे तौर पर गलत सिद्ध होता है। एक अन्य महत्वपूर्ण बात यह है कि पेट्रोलियम पदार्थों पर करों से केन्द्र और राज्य सरकारों को लगभग 2 लाख करोड़ रूपये का राजस्व भी प्राप्त होता है। ऐसे में यदि पेट्रोलियम पदार्थों के वितरण में थोड़ा बहुत नुकसान भी हो तो भी सरकारें अपने इस राजस्व में से उसकी भरपाई आसानी से कर सकती हैं और सामान्य जन को महंगाई के इस आक्रमण से बचा सकती हैं।
महंगी होती दवाईयां
देष की 1978 में घोषित दवा नीति के अनुसार विदेषी कंपनियों के कार्यकलापों पर कुछ अंकुष लगाये गये थे और भारतीय कंपनियों को वरीयता देने का प्रावधान भी उसमें षामिल था। 1979 के दवा मूल्य नियंत्रण आदेष के अनुसार 347 दवाईयों पर कीमत नियंत्रण का प्रावधान लागू था। लेकिन हाल ही के वर्षों में विदेषी कंपनियों द्वारा भारतीय कंपनियों के अधिग्रहण के बाद इन प्रावधानों को कुंद किया जा रहा है और अब देष का दवा मूल्य नियंत्रण आदेष केवल 76 दवाओं तक ही सीमित है और इस कारण से आम आदमी को दवाईयो की अधिक कीमतें तो देनी ही पड़ रही हैं, साथ ही साथ दवाईयों के गैर जरूरी मिश्रण भी अब बढ़ते जा रहे हैं। पिछले कुछ समय से बड़ी भारतीय दवा कंपनियों का विदेषी कंपनियों द्वारा तेजी से अधिग्रहण किया जा रहा है। कुछ वर्ष पूर्व देष की सबसे बड़ी दवा कंपनी ‘रैनबैक्सी’ को जापान की एक कंपनी ‘डाइची सैन्क्यो’ द्वारा खरीद लिया गया। उसके बाद ‘मैट्रिक्स लैबोरेटरी’ को अमेरिकी कंपनी ‘माइलन’, ‘डाबर फार्मा’ को सिंगापुर की कंपनी ‘फ्रैसीनियस कैबी’, ‘षांता बायटैक’ को फ्रांस की कंपनी ‘सैनोफी एवेंतीस’ और ‘औरचिड कैमिक्लस’ को अमेरिका की ‘हौसपीरा’ और ‘पीरामल हैल्थ’ केयर को अमेरिका की ही ‘एबट लैबोरेटरी’ द्वारा अधिग्रहित कर लिया गया। इसके अतिरिक्त कई भारतीय कंपनियों के विदेषी कंपनियों के साथ संयुक्त उपक्रम और अन्य समझौते भी हो रहे हैं। जैसे- ‘डाॅ. रेडिज़’ के साथ ‘जीएसके’ का; ‘फाइजर’ का तीन कंपनियों के साथ; एबट का ‘कैडिला हेल्थ केयर’ के साथ और ‘एस्ट्रा जैनेका’ का ‘टोरेंट’ के साथ समझौता हुआ है। ऐसे में एक बड़ा खतरा आ खड़ा हुआ है कि कहीं देष का सारा दवा उद्योग विदेषी कंपनियों के हाथ मे न चला जाए। इसके कारण देष में दवाईयां और ज्यादा महंगी होगी और आम आदमी के पहुंच से बाहर हो जायेंगी।
लेकिन षायद नीति-निर्माताओं की प्राथमिकता में आम आदमी नहीं है। जिस प्रकार से महंगाई बढ़ रही है लगता है कि सरकार का उस पर कोई अंकुष नहीं रह गया है। सरकार द्वारा कृषि की अनदेखी करने के कारण खाद्य पदार्थों की कीमतें तो लगातार बढ़ ही रही हैं। बढ़ते ब्याज की अदायगी, बढ़ते सरकारी ऋण और सरकारी घाटे को पूरा करने के लिए लगातार मुद्रा की पूर्ति में वृद्धि महंगाई की आग में घी डालने का काम कर रही है। ऐसे में ब्याज दरों में अंधा-धुंध वृद्धि देष के विकास की गति को थाम सकती है। अर्थव्यवस्था के कुप्रबंधन की यह पराकाष्ठा कही जा सकती है। जरूरी है कि सरकार महंगाई को रोकने में ब्याज दरों को बढ़ाने के अतिरिक्त और उपाय सोचे और पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों की बाजारी नियंत्रण की व्यवस्था को समाप्त करते हुए सरकारी नियंत्रण की नीति को पुनः प्रभावी करे।
कुप्रबंधन बनाम सुप्रबंधन
स्पष्ट है कि पिछले कुछ वर्षों से यूपीए सरकार के द्वारा जो आर्थिक नीतियां अपनाई जा रही हैं, उससे महंगाई तो बढ़ी ही है साथ ही विकास की संभावनाएं भी उत्तरोत्तर कम हो रही हैं। आम आदमी केवल खाने-पीने की वस्तुओं की महंगाई से नहीं बल्कि पेट्रोल, डीजल और गैस की भयंकर रूप से बढ़ती कीमतों से भी त्रस्त हैं। एनडीए सरकार के समय से घटती ब्याज दरों के कारण जिन लोगों कम ईएमआई के आर्कषण में घर और अन्य साजो समान खरीदे, अब बढ़ती हुई ईएमआई के कारण परेषान हैं। कम ब्याज के कारण देष का इन्फ्रास्ट्रक्चर जो तेजी से विकास कर रहा था, अब थम सा गया है। अब नई सड़कों का निर्माण लगभग रूक गया है और जो एयरपोर्ट इत्यादि नये बन भी रहे हैं, भारी उपयोग षुल्क के कारण आम आदमी को सुविधा के बजाय बढ़ते वायु यातायात के किरायों के रूप में मुष्किल का सबब बन गये हैं।
विकास की ऊंची दर के लिए जरूरी है कि ब्याज दरों को नीचा रखा जाए। लेकिन बढ़ती महंगाई के दौर में यह बात मुष्किल हो जाती है। एक ओर तो रिजर्व बैंक को महंगाई पर काबू करने के लिए ब्याज दरों में वृद्धि करनी पड़ती है, तो दूसरी ओर ब्याज अर्जित करने वाले वर्ग को बचत करने और उसे बैंकों के पास जमा करने हेतु प्रेरित करने के लिए ब्याज दर को महंगाई की दर से ऊंचा रखना पड़ता है। इसलिए देष में आर्थिक संवृद्धि की दर को तेज करने के लिए ब्याज दरों को घटाना जरूरी है और ब्याज दरों को घटाने के लिए महंगाई पर काबू पाना जरूरी है।
देष का दवा उद्योग हो अथवा खुदरा व्यापार अथवा खनिज भंडार सभी विदेषियों को सौंपे जा रहे हैं। विदेषी निवेष आधारित विकास के पैरोकार आम आदमी की कठिनाईयों के प्रति पूर्णतया संवेदनहीन हो चुके हैं। भारी भ्रष्टाचार और अर्थव्यवस्था के कुप्रबंधन के मद्देनजर एक देषभक्त और ईमानदार सरकार की भारी आवष्यकता है। यदि खेती पर ध्यान देते हुए खाद्य वस्तुओं की आपूर्ति बढ़ा दी जाए, पेट्रोलियम कंपनियो पर अंकुष लगाते हुए पेट्रो कीमतों पर नियंत्रण हो और महंगाई पर काबू रखते हुए ब्याज दरों को नीचा रखा जाए तो भारत कहीं बेहतर ढंग से विकास के रास्ते पर चल सकता है। दुनिया में भारत ही एक ऐसा देष है जो अपने विकास के लिए दुनिया के दूसरे मुल्कों से मांग पर आश्रित नहीं है। हमारी अभी तक की आर्थिक संवृद्धि घरेलू मांग से पोषित है। ऐसे में जब अमेरिका और यूरोप के देष आर्थिक दृष्टि से कमजोर हो रहे हैं, जिसके चलते चीन के निर्यातों की मांग घट रही है। यदि हम अपनी अर्थव्यवस्था का प्रबंधन ठीक प्रकार से कर सके तो भारत प्रगति की राह पर निरंतर बढ़ता जायेगा। सरकार को विदेषी निवेष के मोह को त्यागते हुए देष की प्रज्ञा और युवाओं के कौषल पर विष्वास दिखाते हुए अर्थव्यवस्था को एक नई दिषा देनी होगी।
अभी भी दूर है सबके लिए षिक्षा और स्वास्थ्य का लक्ष्य
कुछ समय पहले संसद में षिक्षा के अधिकार का कानून पारित किया गया था। सर्वविदित है कि संविधान में राज्य की नीति के निदेषक सिद्धांतों में सरकार से यह अपेक्षा की गई थी कि वह सभी को प्राथमिक प्रदान करने का कार्य करें। दुर्भाग्य का विषय है कि संविधान के लागू होने के 60 वर्ष बाद भी षिक्षा का अधिकार लागू नहीं हो सका। षिक्षा के अधिकार के कानून को लागू करने के लिए मात्र 30 हजार करोड़ रूपये की जरूरत है, जो 2-जी घोटाले में हजम की गई रकम का मात्र छठा हिस्सा है।
स्वास्थ्य सुविधाओं को उपलब्ध कराना सरकार की प्राथमिक जिम्मेवारी है। सहस्राताब्दी विकास लक्ष्यों में सबके लिए स्वास्थ्य का लक्ष्य बताया गया है। दुर्भाग्य का विषय है कि धन की कमी के चलते सरकार स्वास्थ्य सेवाओं से मुख मोड़ रही है। वर्ष 2011-12 के बजट के अनुसार स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए मात्र 23560
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