holi mahotsav par vishesh
होली महोत्सव ,होली विषय पर जानकारी परक लेख
होली का त्यौहार है ,प्यार और मनुहार का,
रंगों का साथ है ,अबीर और गुलाल का ।
होली हिन्दुओँ का वैदिक कालीन पर्व है । इसका प्रारंभ कब हुआ , इसका कहीं
उल्लेख या कोई आधार नहीं मिलता है । परन्तु वेदों एवं पुराणों में भी इस
त्यौहार के प्रचलित होने का उल्लेख मिलता है । प्राचीन काल में होली की अग्नि
में हवन के समय वेद मंत्र " रक्षोहणं बल्गहणम " के उच्चारण का वर्णन आता है
।
होली पर्व को भारतीय तिथि पत्रक के अनुसार वर्ष का अन्तिम त्यौहार कहा जाता
है । यह पर्व फाल्गुन मास की पूर्णिमा को संपन्न होने वाला सबसे बड़ा त्यौहार
है । इस अवसर पर बड़े -बूढ़े ,युवा -बच्चे, स्त्री-पुरुष सबमे ही जो उल्लास व
उत्साह होता है, वह वर्ष भर में होने वाले किसी भी उत्सव में दिखाई नहीं देता
है । कहा जाता है कि प्राचीन काल में इसी फाल्गुन पूर्णिमा से प्रथम
चातुर्मास सम्बन्धी "वैश्वदेव " नामक यज्ञ का प्रारंभ होता था, जिसमे लोग
खेतों में तैयार हुई नई आषाढी फसल के अन्न -गेहूं,चना आदि की आहुति देते थे
और स्वयं यज्ञ शेष प्रसाद के रूप में ग्रहण करते थे । आज भी नई फसल को डंडों
पर बांधकर होलिका दाह के समय भूनकर प्रसाद के रूप में खाने की परम्परा
"वैश्वदेव यज्ञ " की स्मृति को सजीव रखने का ही प्रयास है । संस्कृत में भुने
हुए अन्न को होलका कहा जाता है । संभवत : इसी के नाम पर होलिकोत्सव का प्रारंभ
वैदिक काल के पूर्व से ही किया जाता है ।
यज्ञ के अंत में यज्ञ भष्म को मस्तक पर धारण कर उसकी वन्दना की जाती थी , शायद
उसका ही विकृत रूप होली की राख को लोगों पर उड़ाने का भी जान पड़ता है ।
समय के साथ साथ अनेक ऐतिहासिक स्मृतियां भी इस पर्व के साथ जुड़ती गई :-
नारद पुराण के अनुसार ---परम भक्त प्रहलाद की विजय और हिरन्यक्शिपु की बहन "
होलिका " के विनाश का स्मृति दिवस है । कहा जाता है कि होलिका को अग्नि में
नहीं जलने का आशीर्वाद प्राप्त था । हिरन्यक्शिपु व होलिका राक्षक कुल के बहुत
अत्याचारी थे । उनके घर में पैदा प्रहलाद भगवान् भक्त था , उसको ख़त्म करने के
लिए ही होलिका उसे गोद में लेकर अग्नि में बैठी थी मगर प्रभु की कृपा से
प्रहलाद बच गया और होलिका उस अग्नि में ही दहन हो गई । शायद इसीलिए इस पर्व
को होलिका दहन भी कहते हैं ।
भविष्य पुराण के अनुसार कहा जाता है कि महाराजा रघु के राज्यकाल में " ढुन्दा
"नामक राक्षसी के उपदर्वों से निपटने के लिए महर्षि वशिष्ठ के आदेशानुसार
बालकों को लकड़ी की तलवार-ढाल आदि लेकर हो-हल्ला मचाते हुए स्थान स्थान पर
अग्नि प्रज्वलन का आयोजन किया गया था । शायद वर्तमान में भी बच्चों का
हो-हल्ला उसी का प्रतिरूप है ।
होली को बसंत सखा "कामदेव" की पूजा के दिन के रूप में भी वर्णित किया गया है ।
"धर्माविरुधोभूतेषु कामोअस्मि भरतर्षभ " के अनुसार धर्म संयत काम संसार में
ईश्वर की ही विभूति माना गया है । आज के दिन कामदेव की पूजा किसी समय सम्पूर्ण
भारत में की जाती थी । दक्षिण में आज भी होली का उत्सव " मदन महोत्सव " के
नाम से ही जाना जाता है ।
वैष्णव लोगों के किये यह " दोलोत्सव" का दिन है । ब्रह्मपुराण के अनुसार --
नरो दोलागतं दृष्टा गोविंदं पुरुषोत्तमं ।
फाल्गुन्यां संयतो भूत्वा गोविन्दस्य पुरं ब्रजेत ।।
इस दिन झूले में झुलते हुए गोविन्द भगवान के दर्शन से मनुष्य बैकुंठ को
प्राप्त होता है । वैष्णव मंदिरों में भगवान् श्री मद नारायण का आलौकिक
श्रृंगार करके नाचते गाते उनकी पालकी निकाली जाती है ।
कुछ पंचांगों के अनुसार संवत्सर का प्रारंभ कृषण पक्ष के प्रारंभ से और कुछ के
अनुसार शुक्ल प्रतिपदा से माना जाता है । पूर्वी उत्तर प्रदेश में पूर्णिमा
पर मासांत माना जाता है जिसके कारण फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को वर्ष का अंत हो
जाता है और अगले दिन चैत्र कृषण प्रतिपदा से नव वर्ष आरम्भ हो जाता है ।
इसीलिए वहां पर लोग होली पर्व को संवत जलाना भी कहते हैं । क्योंकि यह वर्षांत
पूर्णिमा है अत: आज के दिन सब लोग हंस गाकर रंग-अबीर से खेलकर नए वर्ष का
स्वागत करते हैं ।
इतिहास में होली का वर्णन ---
वैदिक कालीन होली की परम्परा का उल्लेख अनेक जगह मिलता है । जैमिनी मीमांशा
दर्शनकार ने अपने ग्रन्थ में " होलिकाधिकरण" नामक प्रकरण लिखकर होली की
प्राचीनता को चिन्हित किया है ।
विन्ध्य प्रदेश के रामगढ़ नामक स्थान से 300 ईशा पूर्व का एक शिलालेख बरामद हुआ
है जिसमे पूर्णिमा को मनाये जाने वाले इस उत्सव का उल्लेख है ।
वात्सायन महर्षि ने अपने कामसूत्र में " होलाक" नाम से इस उत्सव का उल्लेख
किया है । इसके अनुसार उस समय परस्पर किंशुक यानी ढाक के पुष्पों के रंग से
तथा चन्दन-केसर आदि से खेलने की परम्परा थी ।
सातवी सदी में विरचित "रत्नावली" नाटिका में महाराजा हर्ष ने होली का वर्णन
किया है ।
ग्यारहवीं शताब्दी में मुस्लिम पर्यटक "अलबरूनी" ने भारत में होली के उत्सव का
वर्णन किया है । तत्कालीन मुस्लिम इतिहासकारों के वर्णन से पता चलता है कि उस
समय हिन्दू और मुसलमान मिलकर होली मनाया करते थे ।
सम्राट अकबर और जहांगीर के समय में शाही परिवार में भी इसे बड़े समारोह के रूप
में मनाये जाने के उल्लेख हैं ।
विश्व व्यापी पर्व है होली ---
होलिकोत्सव विश्व व्यापी पर्व है । भारतीय व्यापारियों के कालांतर में विदेशों
में बस जाने के बावजूद उनकी स्मृतियों में यह त्यौहार रचा बसा है और समय के
साथ साथ यह पर्व उन देशों की आत्मा से मिलजुल कर , मगर मौलिक भावना संजोते हुए
विभिन्न रूपों में आज भी प्रचलित है ।
इटली में यह उत्सव फरवरी माह में "रेडिका " के नाम से मनाया जाता है ।शाम के
समय लोग भांति -भांति के स्वांग बनाकर "कार्निवल" की मूर्ति के साथ रथ पर
बैठकर विशिष्ट सरकारी अधिकारी की कोठी पर पहुंचते हैं । फिर गाने-बजाने के साथ
यह जुलुस नगर के मुख्य चौक पर आता है । वहां पर सूखी लकड़ियों में इस रथ को
रखकर आग लगा दी जाती है । इस अवसर पर लोग खूब नाचते-गाते हैं और हो-हल्ला
मचाते हैं ।
फ़्रांस के नार्मन्दी नामक स्थान में घास से बनी मूर्ति को शहर में गाली देते
हुए घुमाकर, लाकर आग लगा देते हैं । बालक कोलाहल मचाते हुए प्रदक्षिणा करते
हैं ।
जर्मनी में ईस्टर के समय पेड़ों को काटकर गाड दिया जाता है। उनके चारों तरफ
घास-फूस इकट्ठा करके आग लगा दी जाती है । इस समय बच्चे एक दुसरे के मुख पर
विविध रंग लगाते हैं तथा लोगों के कपड़ों पर ठप्पे लगा कर मनोविनोद करते हैं ।
स्वीडन नार्वे में भी शाम के समय किसी प्रमुख स्थान पर अग्नि जलाकर लोग नाचते
गाते और उसकी प्रदक्षिणा करते हैं । उनका विश्वास है की इस अग्नि परिभ्रमण से
उनके स्वास्थ्य की अभिवृद्धि होती है ।
साइबेरिया में बच्चे घर-घर जाकर लकड़ी इकट्ठा करते हैं । शाम को उनमे आग लगाकर
स्त्री -पुरुष हाथ पकड़कर तीन बार अग्नि परिक्रमा कर उसको लांघते हैं ।
अमेरिका में होली का त्यौहार " हेलोईन " के नाम से 31 अक्टूबर को मनाया जाता
हैं ।" अमेरिकन रिपोर्टर" ने अपने 12 मार्च 1954 के अंक में लिखा :- हैलोइन
का त्यौहार अनेक दृष्टि से भारत के होली त्यौहार से मिलता-जुलता है । जब
पुरानी दुनिया के लोग अमेरिका पहुंचे थे तो अपने साथ हैलोइन का त्यौहार भी
लाये थे । इस अवसर पर शाम के समय विभिन्न स्वांग रचकर नाचने-कूदने व खेलने की
परम्परा है ।
होली पर्व का वैज्ञानिक आधार :----------
भारत ऋषि मुनियों का देश है । ऋषि-मुनि यानी उस समय के वैज्ञानिक जिनका सार
चिंतन- दर्शन विज्ञान की कसौटी पर खरा-,परखा, प्रकृति के साथ सामंजस्य
स्थापित करता रहा है । पश्चिम के लोग भारत को भूत-प्रेत व सपेरों का देश कहते
हैं ,मगर वह भूल जाते हैं कि विश्व में भारत ही एक मात्र देश है जिसके सारे
त्यौहार, पर्व ,पूजा पाठ, चिंतन-दर्शन सब विज्ञान की कसौटी पर खरा- परखा है ।
हमारे ऋषि-मुनियों ने विज्ञान व धर्म का ताना-बाना बुना और ताने-बाने से
निर्मित इस चदरिया को त्योहारों व पर्वों के नाम से समाज के अंग-अंग में
प्रचलित किया ।
भारत में मनाया जाने वाला होली पर्व भी विज्ञान पर आधारित है । इसकी प्रत्येक
क्रिया प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मानव स्वास्थ्य और शक्ति को प्रभावित
कराती है । एक रात में ही संपन्न होने वाला होलिका दहन ,जाड़े और गर्मी की
ऋतू संधि में फूट पड़ने वाली चेचक,मलेरिया,खसरा तथा अन्य संक्रामक रोग कीटाणुओं
के विरुद्ध सामूहिक अभियान है । स्थान -स्थान पर प्रदीप्त अग्नि आवश्यकता से
अधिक ताप द्वारा समस्त वायुमंडल को उष्ण बनाकर सर्दी में सूर्य की समुचित
उष्णता के अभाव से उत्पन्न रोग कीटाणुओं का संहार कर देती है । होलिका
प्रदक्षिणा के दौरान 140 डिग्री फारनहाईट तक का ताप शरीर में समाविष्ट होने
से मानव के शरीरस्थ समस्त रोगात्मक जीवाणुवों को भी नष्ट कर देता है ।
होली के अवसर पर होने वाले नाच-गान ,खेल-कूद ,हल्ला-गुल्ला ,विविध स्वांग,
हंसी -मजाक भी वैज्ञानिक दृष्टि से लाभप्रद हैं । शास्त्रानुसार बसंत में रक्त
में आने वाला द्रव आलस्य कारक होता है । बसंत ऋतु में निंद्रा की अधिकता भी
इसी कारण होती है । यह खेल-तमाशे इसी आलस्य को भगाने में सक्षम होते हैं ।
महर्षि सुश्रुत ने बसंत को कफ पोषक ऋतु माना है ।
कफश्चितो हि शिशिरे बसन्तेअकार्शु तापित: ।
हत्वाग्निं कुरुते रोगानातस्तं त्वरया जयेतु ।।
अर्थात शिशिर ऋतू में इकट्ठा हुआ कफ ,बसंत में पिघलकर कुपित होकर जुकाम,
खांसी,श्वास , दमा आदि रोगों की सृष्टि करता है और इसके उपाय के लिए ---
तिक्ष्नैर्वमननस्याधैर्लघुरुक्
षैश्च भोजनै:।
व्यायामोद्वर्तघातैर्जित्वा श्लेष्मान मुल्बनं ।।
अर्थात तीक्षण वमन,लघु रुक्ष भोजन,व्यायाम,उद्वर्तन और आघात आदि काफ को शांत
करते हैं । ऊँचे स्वर में बोलना, नाचना, कूदना, दौड़ना-भागना सभी व्यायामिक
क्रियाएं हैं जिससे कफ कोप शांत हो जाता है ।
होली रंगों का त्यौहार है । रंगों का हमारे शारीर और स्वास्थ्य पर अद्भुत
प्रभाव पड़ता है । प्लाश अर्थात ढाक के फूल यानी टेसुओं का आयुर्वेद में बहुत
ही महत्व पूर्ण स्थान है । इन्ही टेसू के फूलों का रंग मूलत: होली में प्रयोग
किया जाता है । टेसू के फूलों से रंगा कपड़ा शारीर पर डालने से हमारे रोम कूपों
द्वारा स्नायु मंडल पर प्रभाव पड़ता है । और यह संक्रामक बीमारियों से शरीर
को बचाता है ।
यज्ञ मधुसुदन में कहा गया है ----
एतत्पुष्प कफं पितं कुष्ठं दाहं तृषामपि ।
वातं स्वेदं रक्तदोषं मूत्रकृच्छं च नाशयेत ।।
अर्थात ढाक के फूल कुष्ठ ,दाह ,वायु रोग तथा मूत्र कृच्छादी रोगों की महा औषधी
है ।
दोपहर तक होली खेलने के पश्चात स्नानादि से निवृत होकर नए वस्त्र धारण कर होली
मिलन का भी विशेष महत्त्व है । इस अवसर पर अमीर -गरीब, छोटे-बड़े, उंच-नीच , का
कोई भेद नहीं माना जाता है यानी सामजिक समरसता का प्रतीक बन जाता है होली का
यह त्यौहार ।
शरद और ग्रीष्म ऋतू के संधिकाल पर आयोजित होली पर्व का आध्यात्मिक व वैज्ञानिक
आधार है । जैसा की ऊपर वर्णित किया गया है कि हमारे सभी पर्व -त्यौहार विज्ञान
की कसौटी पर खरे-परखे है । बस आवश्यकता है उसकी मूल भावना को समझने की ।
वर्तमान समय में होली पर्व भी बाजारवाद की भेंट चढ़ता जा रहा है । विभिन्न
रासायनिक रंगों के प्रयोग ने लाभ के स्थान पर स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव
डालने का प्रयास किया है । कुछ व्यक्तियों द्वारा होली के हुडदंग में शराब या
अन्य नशीले पदार्थों का सेवन करके वातावरण खराब करने का प्रयास किया जाता है ।
जो पर्व आपसी भाई-चारे एवं वर्ष भर के मतभेदों को भुलाकर एक होने का है ,उस पर
किसी प्रकार की रंजिश पैदा करना होली की भावना के विपरीत है ।
गुलाल में कुछ रंग इंसानियत के मिलाएं ,
उसे समाज के बदनुमा चहरे पर लगाएं ,
हर गैर में भी "कीर्ति" अपनापन नजर आयेगा
होली फिर से राष्ट्र प्रेम का त्यौहार बन जाएगा ।
और अंत में -होली के इस पवित्र अवसर पर अपने सभी देश वासियों के लिए एक
विनम्र सन्देश :----
खून की होली मत खेलो , प्यार के रंग में रंग जाओ ,
जात-पात के रंग ना घोलो , मानवता में रंग जाओ ।
भूख -गरीबी का दहन करो , भाई-चारे में रंग जाओ,
अहंकार की होली जलाकर , विनम्रता में रंग जाओ ।
ऊँच-नीच का भेद ख़त्म कर, आज गले से मिल जाओ ,
होली पर्व का यही सन्देश, देश प्रेम में "कीर्ति" रंग जाओ ।
इस आलेख की सामग्री श्री पंडित माधवाचार्य शास्त्री जी की पुस्तक " क्यों " से
ली गई है , हम उनके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करते हैं ।
डॉ अ कीर्तिवर्धन --
"विद्या लक्ष्मी निकेतन "
53-महालक्ष्मी एन्क्लेव ,जानसठ रोड,
मुज़फ्फरनगर -251001 (उत्तर प्रदेश
Wednesday, March 27, 2013
Wednesday, March 20, 2013
एक यात्रा यमुना के नाम
अभी कुछ दिन पहले ही एक यात्रा यमुना के नाम पर्र निकली। जरा उस पर एक लेख देखे।
पुष्परंजन . जनसत्ता 13 मार्च, 2013: जर्मनी का कोलोन शहर दो कारणों से पूरे यूरोप में पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र रहा है। एक, रोमन कैथलिक चर्च ‘डोम’ के कारण, और दूसरी वजह है राइन नदी। प्राकृतिक सौंदर्य के लिए राइन नदी पूरी दुनिया में बेमिसाल है। दस साल पहले कोलोन शहर में दिल्ली से एक मित्र का आना हुआ। रविवार का दिन था, छुट्टियां मनाने मित्र का परिवार राइन नदी के किनारे निकल पड़ा। साथ में खाने-पीने का सामान जब समाप्त हुआ, तो आदतन मित्र के परिवार ने प्लास्टिक की थैली में, चिप्स के खाली हो चुके पैकेट डाले, और उसे नदी में फेंक दिया।
इसके बाद जर्मन पुलिस वालों के प्रकट होने में दस मिनट भी नहीं लगे होंगे। पचास यूरो (आज की दर से साढ़े तीन हजार रुपए) का जुर्माना भरना पड़ा। साथ में बांड भरा कि दोबारा गलती हुई, तो आपके रिश्तेदार जर्मनी से बाहर होंगे। सोमवार को गंगा-यमुना समेत देश की सभी नदियों की सफाई को लेकर जब राज्यसभा में बहस हो रही थी, तब बरबस उस घटना की याद आई। सोचने लगा कि क्या भारत में नदियों को गंदा करने की गलती पर कभी किसी नागरिक को जुर्माना भरना पड़ा है?
नदियों में प्रदूषण को लेकर जनता के दुख का इजहार कोई पहली बार नहीं हुआ है। लेकिन ऐसा क्यों होता है कि जब तक लाखों की भीड़ दिल्ली को नहीं घेरती, तब तक राजनीतिक दलों की नींद भी बहस के लिए नहीं खुलती। संसद में यमुना को बचाने के सवाल पर दस दिन पहले बहस क्यों नहीं हो सकती थी? दरअसल, सरकार और राजनीतिक दलों को यही लगा कि एक मार्च को चंद लोग मथुरा से चलेंगे, और रास्ते में ही निपट जाएंगे। यों, वृंदावन का बरसाने, साल में एक बार अवश्य चर्चा में रहता है।
लेकिन इस बार बरसाने की चर्चा लठमार होली के लिए नहीं हो रही, बल्कि चर्चा इस बात की हो रही है कि आखिर क्यों वहां के लोग यमुना को बचाने के लिए राधाकांत शास्त्री के नेतृत्व में लाठी लेकर निकल पड़े। सौ से हजार, और दिल्ली के बदरपुर बार्डर पहुंचते-पहुंचते यह कारवां जनसैलाब का रूप ले चुका था। यमुना बचाओ अभियान, एक आंदोलन का रूप ले लेगा, और इतने लोग दिल्ली को घेरने आ पहुंचेंगे, इसकी कल्पना राजनीतिक नेताओं को नहीं रही होगी।
ऐसा बहुत कम होता है, जब संसद किसी सवाल पर दल-जमात से ऊपर उठ कर एक दिखती है। सोमवार को राज्यसभा गंगा-यमुना समेत देश की सभी नदियों की सफाई को लेकर चिंतित थी। जो सांसद उपस्थित थे, पूरी तैयारी के साथ नदियों की सफाई को लेकर संवेदनशील थे। समवेत स्वर उठा कि नदियों की सफाई करनी है। लेकिन इसे समय सीमा में नहीं बांधा गया। पर्यावरण राज्यमंत्री जयंती नटराजन के पास आंकड़े थे, पर साथ में सरकार की विवशता थी कि यमुना की सफाई का कौन-सा विकल्प ढूंढ़ा जाए।
जयंती नटराजन ने स्वीकार किया कि दिल्ली में बाईस किलोमीटर तक बहने वाली यमुना नदी को गंदा करने में हर सवा किलोमीटर पर बने अठारह बड़े नालों की भूमिका रही है। पानी को साफ करने के वास्ते जो गिने-चुने ‘सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट’ लगे हैं, उनमें फिर से गंदे नाले का पानी आ मिलता है। लोकसभा में यह तय हुआ कि कुछ सांसद, आंदोलनकारियों को समझाने जाएंगे कि इस बार सरकार और विपक्ष इस सवाल पर गंभीर हैं।
यमुना नदी हिमालय के चंपासागर ग्लेशियर से निकलती है। एक हजार तीन सौ छिहत्तर किलोमीटर का सफर तय करते हुए इलाहाबाद संगम पर गंगा में विलीन हो जाती है। इस नदी की सबसे अधिक दुर्गति दिल्ली के वजीराबाद से लेकर ओखला बराज तक होती है। बाईस किलोमीटर तक बहने वाले पानी में कूड़ा-कचरा और फैक्ट्रियों से निकले रसायन के कारण बीओडी (बायोकैमिकल आॅक्सीजन डिमांड) स्तर तेईस तक पहुंच चुका है। इसका मतलब यह होता है कि नदी में मछलियां या वनस्पतियां जीवित नहीं रह सकतीं।
इसलिए दिल्ली में बहने वाली यमुना को लोगों ने ‘मृत नदी’ कहना आरंभ कर दिया है। इसी यमुना नदी का पानी हरियाणा के ताजेवाला से छूटता है, तब वहां ‘बीओडी’ शून्य मिलता है। यानी ताजेवाला में यमुना का पानी इस्तेमाल के लायक है। 1993 से 2008 तक यमुना को साफ करने के वास्ते केंद्र सरकार, करदाताओं के तेरह अरब रुपए बहा चुकी है। यह तो एक छोटा-सा उदाहरण है। ठीक से पता करें, तो यह पुख्ता हो जाएगा कि करदाताओं के हजारों करोड़ रुपए नदियों की सफाई के नाम पर डकार लिए गए हैं। 2009 में जयराम रमेश ने लोकसभा में बयान देते हुए स्वीकार किया था कि यमुना को साफ करने में हम विफल रहे। 2009, और अब 2013, यानी पांच साल बाद केंद्र सरकार ने एक बार फिर संसद में स्वीकार किया कि बाईस किलोमीटर यमुना की सफाई हमारे बस से बाहर की बात है। फैक्ट्री वालों के आगे कितनी असहाय है सरकार!
कभी आप दिल्ली के आइटीओ पुल से गुजरें, तो इसके दोनों ओर लगी लोहे की जाली पर गौर कीजिएगा। यमुना में कोई व्यक्ति कचरा, फूल या टोटके वाली सामग्री न फेंके, इसे रोकने के वास्ते जाली लगाई गई है। लेकिन ‘श्रद्धालुओं’ ने लोहे की मोटी जालियां जगह-जगह से काट रखी हैं। क्या इन कर्मकांडी गुनहगारों को पकड़ने के लिए सरकार सीसीटीवी कैमरे नहीं लगा सकती? क्या सरकार को बताने की जरूरत है कि नदियों को गंदा करने वालों को सजा देने के लिए कड़े कानून बनाए जाएं?
/>जल को जीवन मानने वाला संत समाज, भक्तजनों को क्यों नहीं समझाता कि नदी को गंदा करना, नरक में जाने के बराबर है। शास्त्रार्थ करने वाले हमारे संत क्या उन धर्मग्रंथों की इबारतों को बदल नहीं सकते, जिनमें मूर्तियों से लेकर फूल, पूजा-हवन की सामग्री, और अस्थियों को नदी में प्रवाहित करने का विधान बनाया गया है? नदियों में शव बहा देने की परंपरा को आखिर कौन बदलेगा? सरकार के भरोसे अगर आप हैं, तो सच जान लीजिए कि यह किसी भी सरकार के बूते से बाहर की बात है।
अपने यहां जल विद्युत परियोजना के लिए ब्रह्मपुत्र की प्रलयंकारी धारा का प्रचुर इस्तेमाल हो सकता था। ब्रह्मपुत्र क्यों नदी नहीं, ‘नद’ है, यह बात उसकी हाहाकारी और ताकतवर जलधारा को देखने के बाद समझ में आती है। लेकिन गंगा, यमुना, कृष्णा, कावेरी, गोदावरी, पेरियार, झेलम, सतलज, सिंधु, शिप्रा, महानंदा, गंडक जैसी नदियां उतनी ही कोमल, और पवित्र हैं, जितनी कि भारतीय नारी। तभी तो इन नदियों को हमने मां का सम्मान दिया है। नारी को सम्मान देने वाला भारतीय समाज, उतना ही सम्मान देश की नदियों को क्यों नहीं दे सकता? भारत की ऐसी कौन-सी नदी है, जिसका संबंध हमारे अध्यात्म और सभ्यता से नहीं है?
ज्यादा नहीं, पचास से पचहत्तर साल पहले का इतिहास पलटिए, तो पता चलेगा कि उस दौर में जलमार्ग से माल ढुलाई अधिक होती थी। जो बुजुर्ग हो चुके, वे बताते हैं कि कैसे पटना से कलकत्ता, बनारस से इलाहाबाद, भागलपुर, मुंगेर से फरक्का पानी के जहाज से वे यात्रा कर चुके हैं। बढ़ती आबादी, प्रदूषण, समाज और सरकारों की उपेक्षा ने पूरे देश के जलमार्ग का बेड़ा गर्क कर दिया है। 30 अगस्त 2007 को जहाजों को जलमार्ग की सुविधाएं देने संबंधी संशोधन विधेयक जब संसद में पास हो रहा था, तब जानकारी दी गई कि देश भर में मात्र 0.17 प्रतिशत जलमार्ग इस्तेमाल में है।
क्या यह वही देश है, जहां बारह लाख साठ हजार किलोमीटर तक जलमार्ग की सुविधा वाली सिंधु घाटी जैसी महान सभ्यता का जन्म हुआ था? सिंधु घाटी की सभ्यता के दौर में अपने यहां सबसे अधिक व्यापार जलमार्ग से ही हुआ करता था। गुजरात के लोथल से लेकर सिंधु-रावी नदी और गंगा-दोआब तक के व्यापारी जलमार्ग से ईरान, मध्य एशिया तक मसाले और कपास पहुंचाते थे।
जलमार्ग ने भारतीय जन-जीवन को काफी कुछ दिया है। पनिया के जहाज से पिया रंगून चले जाते थे, उनसे जुड़ी जुदाई और विछोह की असंख्य रचनाएं, हमारे साहित्य और संगीत को समृद्ध कर रही थीं। जल से जुड़े यात्रा-वृत्तांत, माझी गीत अब कौन लिख रहा है?
प्रदूषण के कारण नदियों से मछलियां गायब हैं, जिससे स्थानीय मछुआरों को दो जून भोजन नसीब होता था। स्थानीय लोगों के बीच ‘सोंस’ कही जाने वाली ‘गंगा डाल्फिन’ को देखना अब दुर्लभ है। हिमालय से मैदानी इलाके की जलधारा में जब घड़ियाल उतरते नहीं, तो नई पीढ़ी को क्या पता कि ‘गज और ग्राह की लड़ाई’ की चर्चा किस संदर्भ में होती रही है।
प्रधानमंत्री के सीधे नियंत्रण में नदियों की सफाई का काम चल रहा है। लेकिन सरकार को फुरसत नहीं है कि नदियों वाले इलाके से विस्थापन का विस्तृत ब्योरा तैयार करे। सरकार कितनी लाचार है, उसकी मिसाल दिसंबर 2002 की एक घटना से देते हैं। उत्तर प्रदेश सरकार ने इलाहाबाद से फरक्का, बलिया से फैजाबाद और डालीगंज से गौघाट माल ढुलाई के लिए पानी जहाज चलाने की परियोजना तैयार की। बाद में इन जलमार्गों पर यात्री सेवाएं भी शुरू होनी थीं। इस योजना को तैयार करने में करदाताओं के करोड़ों रुपए खर्च कर दिए गए। 2002 के अंत में उत्तर प्रदेश सरकार ने बयान दिया कि नदियों में पानी नहीं है, इसलिए हम इस योजना पर अमल नहीं कर सकते।
भारतीय अंतरदेशीय जलमार्ग प्राधिकरण (आइडब्ल्यूआइ) ने देश में साढ़े चौदह हजार किलोमीटर जलमार्ग का पता किया था। जलमार्ग प्राधिकरण मानता है कि नदियों के माध्यम से बावन सौ किलोमीटर, और नहरों के जरिए चार हजार किलोमीटर की यात्रा संभव है। छिछली, सूखती, गंदे नाले में परिवर्तित नदियों को देख कर यकीन नहीं होता कि अपने देश के जलमार्ग से भारी मशीनों, या माल की ढुलाई संभव है।
अपने देश के नेता, सरकारी अफसर, उद्योग और समाज के समृद्ध लोग सबसे अधिक यूरोप की सैर करते हैं। मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि यूरोप का जलमार्ग देख कर या तो उनमें हसद (ईर्ष्या) का भाव पैदा होता होगा, या हसरत का। सैंतीस हजार किलोमीटर लंबे यूरोपीय जलमार्ग से यूरोप के सैकड़ों शहर जुड़े हुए हैं। यूरोपीय संघ के सत्ताईस में से बीस सदस्य-देशों के शहर और गांव, जलमार्ग से ही माल मंगाते हैं। लोगों का घूमना भी जलमार्ग से ज्यादा होता है। स्वच्छ हवा और नैसर्गिक सौंदर्य के कारण, यूरोप में सबसे महंगे मकान नदी के किनारे मिलते हैं।
यूरोप में पचास प्रतिशत माल की ढुलाई रेल से होती है, और सत्रह प्रतिशत माल पानी वाले जहाज ढोते हैं। एशिया में ही चीन है, जो एक लाख दस हजार किलोमीटर जलमार्ग का दोहन कर रहा है। साढ़े इक्कीस हजार किलोमीटर जलमार्ग वाले इंडोनेशिया, और सत्रह हजार सात सौ किलोमीटर जलमार्ग वाले विएतनाम से भी ‘सारे जहां से अच्छा, हिंदोस्तां हमारा’ क्यों पीछे है? क्योंकि इन देशों ने अपनी हर परियोजना को समय और संकल्प से बांध रखा है। नदी के किनारे न्यूयार्क बसा है, पेरिस और लंदन भी। क्या इन तीनों शहरों से यमुना के तीर पर बसी दिल्ली की तुलना हो सकती है?
पुष्परंजन . जनसत्ता 13 मार्च, 2013: जर्मनी का कोलोन शहर दो कारणों से पूरे यूरोप में पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र रहा है। एक, रोमन कैथलिक चर्च ‘डोम’ के कारण, और दूसरी वजह है राइन नदी। प्राकृतिक सौंदर्य के लिए राइन नदी पूरी दुनिया में बेमिसाल है। दस साल पहले कोलोन शहर में दिल्ली से एक मित्र का आना हुआ। रविवार का दिन था, छुट्टियां मनाने मित्र का परिवार राइन नदी के किनारे निकल पड़ा। साथ में खाने-पीने का सामान जब समाप्त हुआ, तो आदतन मित्र के परिवार ने प्लास्टिक की थैली में, चिप्स के खाली हो चुके पैकेट डाले, और उसे नदी में फेंक दिया।
इसके बाद जर्मन पुलिस वालों के प्रकट होने में दस मिनट भी नहीं लगे होंगे। पचास यूरो (आज की दर से साढ़े तीन हजार रुपए) का जुर्माना भरना पड़ा। साथ में बांड भरा कि दोबारा गलती हुई, तो आपके रिश्तेदार जर्मनी से बाहर होंगे। सोमवार को गंगा-यमुना समेत देश की सभी नदियों की सफाई को लेकर जब राज्यसभा में बहस हो रही थी, तब बरबस उस घटना की याद आई। सोचने लगा कि क्या भारत में नदियों को गंदा करने की गलती पर कभी किसी नागरिक को जुर्माना भरना पड़ा है?
नदियों में प्रदूषण को लेकर जनता के दुख का इजहार कोई पहली बार नहीं हुआ है। लेकिन ऐसा क्यों होता है कि जब तक लाखों की भीड़ दिल्ली को नहीं घेरती, तब तक राजनीतिक दलों की नींद भी बहस के लिए नहीं खुलती। संसद में यमुना को बचाने के सवाल पर दस दिन पहले बहस क्यों नहीं हो सकती थी? दरअसल, सरकार और राजनीतिक दलों को यही लगा कि एक मार्च को चंद लोग मथुरा से चलेंगे, और रास्ते में ही निपट जाएंगे। यों, वृंदावन का बरसाने, साल में एक बार अवश्य चर्चा में रहता है।
लेकिन इस बार बरसाने की चर्चा लठमार होली के लिए नहीं हो रही, बल्कि चर्चा इस बात की हो रही है कि आखिर क्यों वहां के लोग यमुना को बचाने के लिए राधाकांत शास्त्री के नेतृत्व में लाठी लेकर निकल पड़े। सौ से हजार, और दिल्ली के बदरपुर बार्डर पहुंचते-पहुंचते यह कारवां जनसैलाब का रूप ले चुका था। यमुना बचाओ अभियान, एक आंदोलन का रूप ले लेगा, और इतने लोग दिल्ली को घेरने आ पहुंचेंगे, इसकी कल्पना राजनीतिक नेताओं को नहीं रही होगी।
ऐसा बहुत कम होता है, जब संसद किसी सवाल पर दल-जमात से ऊपर उठ कर एक दिखती है। सोमवार को राज्यसभा गंगा-यमुना समेत देश की सभी नदियों की सफाई को लेकर चिंतित थी। जो सांसद उपस्थित थे, पूरी तैयारी के साथ नदियों की सफाई को लेकर संवेदनशील थे। समवेत स्वर उठा कि नदियों की सफाई करनी है। लेकिन इसे समय सीमा में नहीं बांधा गया। पर्यावरण राज्यमंत्री जयंती नटराजन के पास आंकड़े थे, पर साथ में सरकार की विवशता थी कि यमुना की सफाई का कौन-सा विकल्प ढूंढ़ा जाए।
जयंती नटराजन ने स्वीकार किया कि दिल्ली में बाईस किलोमीटर तक बहने वाली यमुना नदी को गंदा करने में हर सवा किलोमीटर पर बने अठारह बड़े नालों की भूमिका रही है। पानी को साफ करने के वास्ते जो गिने-चुने ‘सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट’ लगे हैं, उनमें फिर से गंदे नाले का पानी आ मिलता है। लोकसभा में यह तय हुआ कि कुछ सांसद, आंदोलनकारियों को समझाने जाएंगे कि इस बार सरकार और विपक्ष इस सवाल पर गंभीर हैं।
यमुना नदी हिमालय के चंपासागर ग्लेशियर से निकलती है। एक हजार तीन सौ छिहत्तर किलोमीटर का सफर तय करते हुए इलाहाबाद संगम पर गंगा में विलीन हो जाती है। इस नदी की सबसे अधिक दुर्गति दिल्ली के वजीराबाद से लेकर ओखला बराज तक होती है। बाईस किलोमीटर तक बहने वाले पानी में कूड़ा-कचरा और फैक्ट्रियों से निकले रसायन के कारण बीओडी (बायोकैमिकल आॅक्सीजन डिमांड) स्तर तेईस तक पहुंच चुका है। इसका मतलब यह होता है कि नदी में मछलियां या वनस्पतियां जीवित नहीं रह सकतीं।
इसलिए दिल्ली में बहने वाली यमुना को लोगों ने ‘मृत नदी’ कहना आरंभ कर दिया है। इसी यमुना नदी का पानी हरियाणा के ताजेवाला से छूटता है, तब वहां ‘बीओडी’ शून्य मिलता है। यानी ताजेवाला में यमुना का पानी इस्तेमाल के लायक है। 1993 से 2008 तक यमुना को साफ करने के वास्ते केंद्र सरकार, करदाताओं के तेरह अरब रुपए बहा चुकी है। यह तो एक छोटा-सा उदाहरण है। ठीक से पता करें, तो यह पुख्ता हो जाएगा कि करदाताओं के हजारों करोड़ रुपए नदियों की सफाई के नाम पर डकार लिए गए हैं। 2009 में जयराम रमेश ने लोकसभा में बयान देते हुए स्वीकार किया था कि यमुना को साफ करने में हम विफल रहे। 2009, और अब 2013, यानी पांच साल बाद केंद्र सरकार ने एक बार फिर संसद में स्वीकार किया कि बाईस किलोमीटर यमुना की सफाई हमारे बस से बाहर की बात है। फैक्ट्री वालों के आगे कितनी असहाय है सरकार!
कभी आप दिल्ली के आइटीओ पुल से गुजरें, तो इसके दोनों ओर लगी लोहे की जाली पर गौर कीजिएगा। यमुना में कोई व्यक्ति कचरा, फूल या टोटके वाली सामग्री न फेंके, इसे रोकने के वास्ते जाली लगाई गई है। लेकिन ‘श्रद्धालुओं’ ने लोहे की मोटी जालियां जगह-जगह से काट रखी हैं। क्या इन कर्मकांडी गुनहगारों को पकड़ने के लिए सरकार सीसीटीवी कैमरे नहीं लगा सकती? क्या सरकार को बताने की जरूरत है कि नदियों को गंदा करने वालों को सजा देने के लिए कड़े कानून बनाए जाएं?
/>जल को जीवन मानने वाला संत समाज, भक्तजनों को क्यों नहीं समझाता कि नदी को गंदा करना, नरक में जाने के बराबर है। शास्त्रार्थ करने वाले हमारे संत क्या उन धर्मग्रंथों की इबारतों को बदल नहीं सकते, जिनमें मूर्तियों से लेकर फूल, पूजा-हवन की सामग्री, और अस्थियों को नदी में प्रवाहित करने का विधान बनाया गया है? नदियों में शव बहा देने की परंपरा को आखिर कौन बदलेगा? सरकार के भरोसे अगर आप हैं, तो सच जान लीजिए कि यह किसी भी सरकार के बूते से बाहर की बात है।
अपने यहां जल विद्युत परियोजना के लिए ब्रह्मपुत्र की प्रलयंकारी धारा का प्रचुर इस्तेमाल हो सकता था। ब्रह्मपुत्र क्यों नदी नहीं, ‘नद’ है, यह बात उसकी हाहाकारी और ताकतवर जलधारा को देखने के बाद समझ में आती है। लेकिन गंगा, यमुना, कृष्णा, कावेरी, गोदावरी, पेरियार, झेलम, सतलज, सिंधु, शिप्रा, महानंदा, गंडक जैसी नदियां उतनी ही कोमल, और पवित्र हैं, जितनी कि भारतीय नारी। तभी तो इन नदियों को हमने मां का सम्मान दिया है। नारी को सम्मान देने वाला भारतीय समाज, उतना ही सम्मान देश की नदियों को क्यों नहीं दे सकता? भारत की ऐसी कौन-सी नदी है, जिसका संबंध हमारे अध्यात्म और सभ्यता से नहीं है?
ज्यादा नहीं, पचास से पचहत्तर साल पहले का इतिहास पलटिए, तो पता चलेगा कि उस दौर में जलमार्ग से माल ढुलाई अधिक होती थी। जो बुजुर्ग हो चुके, वे बताते हैं कि कैसे पटना से कलकत्ता, बनारस से इलाहाबाद, भागलपुर, मुंगेर से फरक्का पानी के जहाज से वे यात्रा कर चुके हैं। बढ़ती आबादी, प्रदूषण, समाज और सरकारों की उपेक्षा ने पूरे देश के जलमार्ग का बेड़ा गर्क कर दिया है। 30 अगस्त 2007 को जहाजों को जलमार्ग की सुविधाएं देने संबंधी संशोधन विधेयक जब संसद में पास हो रहा था, तब जानकारी दी गई कि देश भर में मात्र 0.17 प्रतिशत जलमार्ग इस्तेमाल में है।
क्या यह वही देश है, जहां बारह लाख साठ हजार किलोमीटर तक जलमार्ग की सुविधा वाली सिंधु घाटी जैसी महान सभ्यता का जन्म हुआ था? सिंधु घाटी की सभ्यता के दौर में अपने यहां सबसे अधिक व्यापार जलमार्ग से ही हुआ करता था। गुजरात के लोथल से लेकर सिंधु-रावी नदी और गंगा-दोआब तक के व्यापारी जलमार्ग से ईरान, मध्य एशिया तक मसाले और कपास पहुंचाते थे।
जलमार्ग ने भारतीय जन-जीवन को काफी कुछ दिया है। पनिया के जहाज से पिया रंगून चले जाते थे, उनसे जुड़ी जुदाई और विछोह की असंख्य रचनाएं, हमारे साहित्य और संगीत को समृद्ध कर रही थीं। जल से जुड़े यात्रा-वृत्तांत, माझी गीत अब कौन लिख रहा है?
प्रदूषण के कारण नदियों से मछलियां गायब हैं, जिससे स्थानीय मछुआरों को दो जून भोजन नसीब होता था। स्थानीय लोगों के बीच ‘सोंस’ कही जाने वाली ‘गंगा डाल्फिन’ को देखना अब दुर्लभ है। हिमालय से मैदानी इलाके की जलधारा में जब घड़ियाल उतरते नहीं, तो नई पीढ़ी को क्या पता कि ‘गज और ग्राह की लड़ाई’ की चर्चा किस संदर्भ में होती रही है।
प्रधानमंत्री के सीधे नियंत्रण में नदियों की सफाई का काम चल रहा है। लेकिन सरकार को फुरसत नहीं है कि नदियों वाले इलाके से विस्थापन का विस्तृत ब्योरा तैयार करे। सरकार कितनी लाचार है, उसकी मिसाल दिसंबर 2002 की एक घटना से देते हैं। उत्तर प्रदेश सरकार ने इलाहाबाद से फरक्का, बलिया से फैजाबाद और डालीगंज से गौघाट माल ढुलाई के लिए पानी जहाज चलाने की परियोजना तैयार की। बाद में इन जलमार्गों पर यात्री सेवाएं भी शुरू होनी थीं। इस योजना को तैयार करने में करदाताओं के करोड़ों रुपए खर्च कर दिए गए। 2002 के अंत में उत्तर प्रदेश सरकार ने बयान दिया कि नदियों में पानी नहीं है, इसलिए हम इस योजना पर अमल नहीं कर सकते।
भारतीय अंतरदेशीय जलमार्ग प्राधिकरण (आइडब्ल्यूआइ) ने देश में साढ़े चौदह हजार किलोमीटर जलमार्ग का पता किया था। जलमार्ग प्राधिकरण मानता है कि नदियों के माध्यम से बावन सौ किलोमीटर, और नहरों के जरिए चार हजार किलोमीटर की यात्रा संभव है। छिछली, सूखती, गंदे नाले में परिवर्तित नदियों को देख कर यकीन नहीं होता कि अपने देश के जलमार्ग से भारी मशीनों, या माल की ढुलाई संभव है।
अपने देश के नेता, सरकारी अफसर, उद्योग और समाज के समृद्ध लोग सबसे अधिक यूरोप की सैर करते हैं। मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि यूरोप का जलमार्ग देख कर या तो उनमें हसद (ईर्ष्या) का भाव पैदा होता होगा, या हसरत का। सैंतीस हजार किलोमीटर लंबे यूरोपीय जलमार्ग से यूरोप के सैकड़ों शहर जुड़े हुए हैं। यूरोपीय संघ के सत्ताईस में से बीस सदस्य-देशों के शहर और गांव, जलमार्ग से ही माल मंगाते हैं। लोगों का घूमना भी जलमार्ग से ज्यादा होता है। स्वच्छ हवा और नैसर्गिक सौंदर्य के कारण, यूरोप में सबसे महंगे मकान नदी के किनारे मिलते हैं।
यूरोप में पचास प्रतिशत माल की ढुलाई रेल से होती है, और सत्रह प्रतिशत माल पानी वाले जहाज ढोते हैं। एशिया में ही चीन है, जो एक लाख दस हजार किलोमीटर जलमार्ग का दोहन कर रहा है। साढ़े इक्कीस हजार किलोमीटर जलमार्ग वाले इंडोनेशिया, और सत्रह हजार सात सौ किलोमीटर जलमार्ग वाले विएतनाम से भी ‘सारे जहां से अच्छा, हिंदोस्तां हमारा’ क्यों पीछे है? क्योंकि इन देशों ने अपनी हर परियोजना को समय और संकल्प से बांध रखा है। नदी के किनारे न्यूयार्क बसा है, पेरिस और लंदन भी। क्या इन तीनों शहरों से यमुना के तीर पर बसी दिल्ली की तुलना हो सकती है?
Saturday, March 2, 2013
बजट समीक्षा 2013-14
वैसे तो इस समय बजट समीक्षा से अख्बार भरे पडे हे पर कुछ ही लेख समझ में आने वाले होते हे और ऐसे ही ये लेख जनसत्ता में छपा हे, जरा बनगी तो देखे -
वर्ष 1993 के एशियाई आर्थिक संकट के बाद दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाएं मंदी से जूझ रही थीं। उस वक्त अमेरिका का बजट पेश करने जा रहे डेमोक्रेटिक पार्टी के बिल क्लिंटन से पूछा गया कि बजट में आपकी प्राथमिकताएं क्या हैं? बिल क्लिंटन ने कहा है कि गृहणी की रसोई में सामान और उपभोक्ता की जेब में पैसा मेरा मकसद है। अगर इस पैमाने पर पी चिदंबरम के बजट को परखा जाए तो नाकामी ही हाथ लगती है। फरवरी के शुरुआती दिनों से बजट के बारे में शुरू हुए कयासों के दौर ने कई उम्मीदों को जन्म दिया। ऐसा माहौल बन चुका था कि मानो अट्ठाईस फरवरी को भारतीय अर्थव्यवस्था की तस्वीर ही बदलने जा रही है।
बजट बुखार में कुछ लोगों को यह अहसास हो चला कि बजट के बाद सारी आर्थिक दिक्कतें दूर होनी हैं और सबकुछ पटरी पर आ जाएगा। हालांकि ऐसा कुछ नहीं होना था और हुआ भी नहीं। यह दीगर बात है कि हमारी अर्थव्यवस्था जिस तरह की बुनियादी समस्याओं से घिरी हुई है, उनका हल किसी एक बजट या भारतीय संविधान के शब्दों में कहें तो ‘सालाना वित्तीय बयान’ के जरिए नहीं खोजा जा सकता। 2014 के आम चुनावों से पहले यह आखिरी बजट था और कांग्रेस अगला चुनाव राहुल गांधी की अगुवाई में लड़ने का मानस बना चुकी है। लिहाजा विश्लेषकों ने नगाड़ा पीट दिया था कि चिदंबरम लोकलुभावन बजट पेश करने जा रहे हैं और इस दफा कांग्रेस के मतादाता यानी आम आदमी को खुश करने का पूरा जतन किया जाएगा। आम आदमी की सबसे बड़ी समस्या क्या है? महंगाई। क्या चिदंबरम के बजट में ऐसा कोई दूरगामी फैसला है जो महंगाई को काबू करेगा? नहीं।
बजट के तीरों से महंगाई का शिकार करने का सपना देखने से पहले हम इस बीमारी की जड़ पर विचार करते हैं। आम आदमी को परेशान करने वाली महंगाई (उपभोक्ता मूल्य सूचकांक, सीपीआइ) की दर फिलहाल ग्यारह फीसद के करीब है। सही मायने में चीजों की कीमतें लोगों की पहुंच में होने के लिए सीपीआइ की दर पांच फीसद के नीचे होनी चाहिए। सीपीआइ की ऊंची दर में सबसे ज्यादा योगदान खाद्य वस्तुओं की महंगाई का है, जो बीते दो साल से दोहरे अंक की मुद्रास्फीति दर से नीचे उतरने का नाम ही नहीं ले रही है।
जनता को खाद्य पदार्थों की महंगी कीमतों से राहत पहुंचाने के लिए दो काम किए जा सकते हैं। एक, सरकार फल-सब्जियों के आपूर्ति तंत्र में सुधार करे और किसान के खेत से खाद्य वस्तुओं को बरबाद होने से पहले कम दाम पर उपभोक्ता तक पहुंचाने का इंतजाम करे। दूसरा, अर्थव्यवस्था में नकदी की आमद में इजाफा किया जाए, ताकि लोग सस्ती ब्याज दरों पर पैसा लेकर महंगाई से लड़ सकें। सरकार बजट से पहले या बजट में पहला काम (आपूर्ति तंत्र में निवेश) कर सकती थी, लेकिन यूपीए सरकार का कहना है कि यह काम हम नहीं, वालमार्ट, टेस्को और कोरफोर जैसी रिटेल कंपनियां करेंगी।
अर्थव्यवस्था में नकदी का प्रवाह बढ़ने के लिए जरूरी है कि भारतीय रिजर्व बैंक नीतिगत दरों (रेपो और रिवर्स रेपो दर) में कमी करे। मगर आरबीआइ का कहना है कि सीपीआइ यानी खुदरा मुद्रास्फीति की दर ‘कंफर्ट जोन’ (पांच फीसद के भीतर) में आए बगैर ब्याज दरों में ढील नहीं दी जा सकती। न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी। महंगाई और ऊंची ब्याज दरों के बीच बने इस दुश्चक्र को तोड़ने की किसी योजना की झलक चिदंबरम के बजट में दिखाई नहीं दी है। अगर आप हद से ज्यादा आशावादी हैं तो चिदंबरम के बजट में खाद्य सुरक्षा विधेयक के लिए किए गए दस हजार करोड़ रुपए के प्रावधान और दो लाख से पांच लाख सालाना आमदनी वाले लोगों को दी गई दो हजार रुपए की छूट में अपने लिए राहत के छींटे खोज सकते हैं। मगर हकीकत यह है कि बड़े पैमाने पर बदलाव लाने वाला कोई फैसला बजट में नहीं लिया गया है।
राजस्व घाटा, जीडीपी की विकास दर, बेरोजगारी, चालू खाते का घाटा और डॉलर के मुकाबले रुपए की कीमत में गिरावट जैसा अर्थव्यवस्था का हरेक पैमाना पिछले एक दशक की सबसे बुरी हालत में है। नौ साल पहले, यूपीए सरकार का पहला कार्यकाल शुरू होने के वक्त देश की विकास दर नौ फीसद और महंगाई पांच फीसद पर थी। आज महंगाई नौ फीसद और विकास दर पांच फीसद है, यानी आंकड़ा पूरी तरह उलटा हो चुका है। चिदंबरम का बजट इस दुश्चक्र से बाहर निकलने का रास्ता नहीं खोज पाया है।
दरअसल, चिदंबरम सिंगापुर और हांगकांग में बजट रोड शो आयोजित करके विदेशी पूंजी से निवेश हितैषी बजट पेश करने का वादा कर चुके थे। देशी-विदेशी निवेशक लंबे समय से सरकार पर दबाव बना रहे थे कि किसी भी सूरत में राजकोषीय घाटा जीडीपी के 4.8 फीसद के स्तर से ज्यादा न जाने दिया जाए। अधिकतर अनुमानों में कहा गया है कि राजकोषीय घाटा जीडीपी के छह फीसद से ऊपर रहेगा।
गैर-योजनागत व्यय में ब्याज का भुगतान और सरकारी कर्मचारियों की तनख्वाह जैसे खर्चे शामिल हैं, यानी इस खर्च में कमी करना संभव नहीं है। ऐसे में चिदंबरम ने अपना लक्ष्य पूरा करने के लिए बजट में योजनागत व्यय पर जमकर कैंची चलाई है। सीधे शब्दों में कहें तो कृषि, शिक्षा, स्वास्थ्य और ग्रामीण विकास जैसे कल्याणकारी मदों में कमी की गई है।
आंकड़ों की बाजीगरी दिखा कर वित्तमंत्री ने बजट भाषण में कई दफा कहा कि फलां मद में इस बार बढ़ोतरी क गई है। लेकिन बजट में किए गए आबंटन को सालाना दस फीसद की औसत दर के साथ रखा जाए तो वित्तमंत्री का इजाफा नकारात्मक साबित होता है। मिसाल के तौर पर शिक्षा क्षेत्र को 65,867 करोड़ रुपए का आबंटन किया गया है। बीते साल के मुकाबले यह रकम ज्यादा है, मगर महंगाई के साथ समायोजन करने पर पता चलता है कि इस क्षेत्र के आबंटन में सरकार ने कमी की है।
एक तरफ वित्तमंत्री ने बुनियादी क्षेत्रों के बजट आबंटन में कटौती की है तो दूसरी तरफ सामाजिक कल्याण के नाम पर प्रतीकात्मक योजनाएं लागू करके वाहवाही लूटने का पासा फेंका है। मसलन, महिलाओं की विशेष बैंक शाखाएं खोलने की घोषणा की गई है। सवाल उठता है कि इन बैंक शाखाओं से महिलाओं को क्या फायदा होगा। महिला विशेष शाखा जो बैंकिंग सुविधाएं मुहैया कराएगी, वही सुविधाएं साधारण बैंक शाखाएं मुहैया कराती हैं। दूसरी बात, देश की साठ फीसद आबादी संस्थागत बैंकिंग के दायरे से बाहर है। ऐसे में महिला विशेष शाखाओं से कितना फायदा होगा, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। अगर सरकार विकास का फायदा देश के सभी लोगों तक पहुंचाने के लिए गंभीर है तो बजट में वित्तीय समावेशन के लिए विशेष योजना पेश की जानी चाहिए थी। मगर वित्तमंत्री ने ग्रामीण आबादी को बैंकिंग के दायरे में लाने या वित्तीय समावेशन की गति तेज करने की दिशा में कोई नई पहल करने की जहमत नहीं उठाई है।
बजट में कहा गया है कि सरकार पूर्वी भारत में हरित क्रांति लाना चाहती है, पर इस क्षेत्र के नौ राज्यों के लिए हरित क्रांति के नाम पर केवल एक हजार करोड़ रुपए का आबंटन किया गया है। वहीं जलाक्रांता और जमीन में बढ़ते खारेपन से जूझ रहे पंजाब-हरियाणा-पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लिए पांच सौ करोड़ रुपए आबंटित हुआ है। क्या पूर्वी भारत के नौ राज्यों में एक हजार करोड़ की मामूली रकम से हरित क्रांति लाई जा सकती है और क्या पांच सौ करोड़ रुपए से उत्तर भारत के हरित क्रांति वाले इलाके की कृषि दिक्कतों को दूर किया जा सकता है? जवाब है, नहीं। लेकिन ऐसे शेखचिल्ली के सपने बजट ने देखे हैं। बजट में लिए गए ऐसे प्रतीकात्मक फैसलों की फेहरिस्त लंबी है। हकीकत यह है कि धरातल पर इनसे कुछ नहीं बदलने वाला। शायद यूपीए सरकार का वह इरादा भी नहीं है। मगर प्रतीकात्मक फैसलों के जरिए वह साबित करना चाहती है कि लोगों की भलाई के लिए कुछ किया जा रहा है।
शेयर बाजार और अमीरों पर वित्तमंत्री जमकर मेहरबान हुए हैं। अमीरों पर ज्यादा कर और उत्तराधिकार कर लगाने की बात हो रही थी, लेकिन बजट में दोनों ही मसलों को गोल कर दिया गया है। अमीरों पर कर के बजाय दस फीसद सरचार्ज लगाया गया है, वहीं उत्तराधिकार कर लगाने की बात पर वित्तमंत्री खामोश रहे। कृषि जिंसों की कीमतों को हवा देने वाले कमोडिटी बाजार पर कर लगाने की मांग लंबे समय से उठ रही थी और सरकार ने कमोडिटी परिचालन कर (सीटीटी) लगाने के संकेत भी दिए थे। ऐसा लगता है कि शेयर दलालों के विरोध-प्रदर्शन से प्रभावित होकर चिदंबरम साहब ने सीटीटी लगाने का इरादा टाल दिया और इस मांग की धार कम करने के मकसद से केवल गैर-कृषि जिंसों के कारोबार पर महज 0.01 फीसद सीटीटी लगाने की घोषणा की है। मगर इसके साथ ही वित्तमंत्री ने शेयर बाजार में लगने वाले सिक्युरिटीज ट्रांजैक्शन टैक्स (एसटीटी) की दर में 0.1 फीसद की कमी कर दी है। यानी एक हाथ से लेकर दूसरे हाथ से वापस दिया है। ‘गार’ को एक अप्रैल 2016 तक टालने की बजटीय घोषणा करके चिदंबरम ने साफ संकेत दिया है कि उनकी प्राथमिकता में ग्रामीण भारत नहीं, बहुराष्ट्रीय कंपनियां हैं।
युवा के लिए भी इस बजट में कुछ नहीं है। वित्तमंत्री ने एक तरफ शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे अहम क्षेत्रों को दी जाने वाली राशि में कटौती की है वहीं दूसरी ओर युवाओं को रोजगार के अवसर मुहैया कराने की दिशा में कुछ नहीं किया। बजट में कहा गया है कि सरकार एक हजार करोड़ रुपए युवाओं के कौशल विकास पर खर्च करेगी। आठ फीसद बेरोजगारी दर वाले जिस देश में बीस करोड़ से ज्यादा युवा रोजगार की तलाश में भटक रहे हों वहां वित्तमंत्री की यह घोषणा क्रूर मजाक लगती है।
दुनिया का कोई भी देश विनिर्माण क्षेत्र को मजबूत किए बिना आगे नहीं बढ़ा है, क्योंकि इस क्षेत्र में सबसे ज्यादा लोगों को रोजगार मिलता है। विकसित अर्थव्यवस्थाओं की बात छोड़िए, हमारे देश का विनिर्माण क्षेत्र विएतनाम, सिंगापुर और इंडोनेशिया जैसी दक्षिण-पूर्वी एशियाई अर्थव्यवस्थाओं में भी सबसे पीछे है। वित्तमंत्री ने बजट में वादा किया है कि देश के विनिर्माण क्षेत्र को मजबूत बनाया जाएगा ताकि ज्यादा से ज्यादा युवा आबादी को रोजगार दिया जा सके। यह बात और है कि ऐसे वादे हर बजट में किए जाते रहे हैं।
राजस्थान के रेगिस्तान में कहा जाता है कि पानी के भ्रम के सहारे राहगीर कई कोस का सफर तय कर जाता है। एक रेत का धोरा पार करने के बाद अगला रेत का टीला चमकते हुए पानी की झील का अहसास देता है और प्यासा मुसाफिर पानी की आस में आगे बढ़ता है। मगर अगले टीले पर पहुंच कर मालूम होता है कि पानी तो है ही नहीं, केवल झील होने का अहसास था। महंगाई से जूझती भारत की गरीब जनता भी हर बजट में राहत की झील खोजने की आस में साल-दर-साल आगे बढ़ती जा रही है। कोई नहीं जानता, इस सफर की मंजिल कहां है।
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