Saturday, March 2, 2013
बजट समीक्षा 2013-14
वैसे तो इस समय बजट समीक्षा से अख्बार भरे पडे हे पर कुछ ही लेख समझ में आने वाले होते हे और ऐसे ही ये लेख जनसत्ता में छपा हे, जरा बनगी तो देखे -
वर्ष 1993 के एशियाई आर्थिक संकट के बाद दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाएं मंदी से जूझ रही थीं। उस वक्त अमेरिका का बजट पेश करने जा रहे डेमोक्रेटिक पार्टी के बिल क्लिंटन से पूछा गया कि बजट में आपकी प्राथमिकताएं क्या हैं? बिल क्लिंटन ने कहा है कि गृहणी की रसोई में सामान और उपभोक्ता की जेब में पैसा मेरा मकसद है। अगर इस पैमाने पर पी चिदंबरम के बजट को परखा जाए तो नाकामी ही हाथ लगती है। फरवरी के शुरुआती दिनों से बजट के बारे में शुरू हुए कयासों के दौर ने कई उम्मीदों को जन्म दिया। ऐसा माहौल बन चुका था कि मानो अट्ठाईस फरवरी को भारतीय अर्थव्यवस्था की तस्वीर ही बदलने जा रही है।
बजट बुखार में कुछ लोगों को यह अहसास हो चला कि बजट के बाद सारी आर्थिक दिक्कतें दूर होनी हैं और सबकुछ पटरी पर आ जाएगा। हालांकि ऐसा कुछ नहीं होना था और हुआ भी नहीं। यह दीगर बात है कि हमारी अर्थव्यवस्था जिस तरह की बुनियादी समस्याओं से घिरी हुई है, उनका हल किसी एक बजट या भारतीय संविधान के शब्दों में कहें तो ‘सालाना वित्तीय बयान’ के जरिए नहीं खोजा जा सकता। 2014 के आम चुनावों से पहले यह आखिरी बजट था और कांग्रेस अगला चुनाव राहुल गांधी की अगुवाई में लड़ने का मानस बना चुकी है। लिहाजा विश्लेषकों ने नगाड़ा पीट दिया था कि चिदंबरम लोकलुभावन बजट पेश करने जा रहे हैं और इस दफा कांग्रेस के मतादाता यानी आम आदमी को खुश करने का पूरा जतन किया जाएगा। आम आदमी की सबसे बड़ी समस्या क्या है? महंगाई। क्या चिदंबरम के बजट में ऐसा कोई दूरगामी फैसला है जो महंगाई को काबू करेगा? नहीं।
बजट के तीरों से महंगाई का शिकार करने का सपना देखने से पहले हम इस बीमारी की जड़ पर विचार करते हैं। आम आदमी को परेशान करने वाली महंगाई (उपभोक्ता मूल्य सूचकांक, सीपीआइ) की दर फिलहाल ग्यारह फीसद के करीब है। सही मायने में चीजों की कीमतें लोगों की पहुंच में होने के लिए सीपीआइ की दर पांच फीसद के नीचे होनी चाहिए। सीपीआइ की ऊंची दर में सबसे ज्यादा योगदान खाद्य वस्तुओं की महंगाई का है, जो बीते दो साल से दोहरे अंक की मुद्रास्फीति दर से नीचे उतरने का नाम ही नहीं ले रही है।
जनता को खाद्य पदार्थों की महंगी कीमतों से राहत पहुंचाने के लिए दो काम किए जा सकते हैं। एक, सरकार फल-सब्जियों के आपूर्ति तंत्र में सुधार करे और किसान के खेत से खाद्य वस्तुओं को बरबाद होने से पहले कम दाम पर उपभोक्ता तक पहुंचाने का इंतजाम करे। दूसरा, अर्थव्यवस्था में नकदी की आमद में इजाफा किया जाए, ताकि लोग सस्ती ब्याज दरों पर पैसा लेकर महंगाई से लड़ सकें। सरकार बजट से पहले या बजट में पहला काम (आपूर्ति तंत्र में निवेश) कर सकती थी, लेकिन यूपीए सरकार का कहना है कि यह काम हम नहीं, वालमार्ट, टेस्को और कोरफोर जैसी रिटेल कंपनियां करेंगी।
अर्थव्यवस्था में नकदी का प्रवाह बढ़ने के लिए जरूरी है कि भारतीय रिजर्व बैंक नीतिगत दरों (रेपो और रिवर्स रेपो दर) में कमी करे। मगर आरबीआइ का कहना है कि सीपीआइ यानी खुदरा मुद्रास्फीति की दर ‘कंफर्ट जोन’ (पांच फीसद के भीतर) में आए बगैर ब्याज दरों में ढील नहीं दी जा सकती। न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी। महंगाई और ऊंची ब्याज दरों के बीच बने इस दुश्चक्र को तोड़ने की किसी योजना की झलक चिदंबरम के बजट में दिखाई नहीं दी है। अगर आप हद से ज्यादा आशावादी हैं तो चिदंबरम के बजट में खाद्य सुरक्षा विधेयक के लिए किए गए दस हजार करोड़ रुपए के प्रावधान और दो लाख से पांच लाख सालाना आमदनी वाले लोगों को दी गई दो हजार रुपए की छूट में अपने लिए राहत के छींटे खोज सकते हैं। मगर हकीकत यह है कि बड़े पैमाने पर बदलाव लाने वाला कोई फैसला बजट में नहीं लिया गया है।
राजस्व घाटा, जीडीपी की विकास दर, बेरोजगारी, चालू खाते का घाटा और डॉलर के मुकाबले रुपए की कीमत में गिरावट जैसा अर्थव्यवस्था का हरेक पैमाना पिछले एक दशक की सबसे बुरी हालत में है। नौ साल पहले, यूपीए सरकार का पहला कार्यकाल शुरू होने के वक्त देश की विकास दर नौ फीसद और महंगाई पांच फीसद पर थी। आज महंगाई नौ फीसद और विकास दर पांच फीसद है, यानी आंकड़ा पूरी तरह उलटा हो चुका है। चिदंबरम का बजट इस दुश्चक्र से बाहर निकलने का रास्ता नहीं खोज पाया है।
दरअसल, चिदंबरम सिंगापुर और हांगकांग में बजट रोड शो आयोजित करके विदेशी पूंजी से निवेश हितैषी बजट पेश करने का वादा कर चुके थे। देशी-विदेशी निवेशक लंबे समय से सरकार पर दबाव बना रहे थे कि किसी भी सूरत में राजकोषीय घाटा जीडीपी के 4.8 फीसद के स्तर से ज्यादा न जाने दिया जाए। अधिकतर अनुमानों में कहा गया है कि राजकोषीय घाटा जीडीपी के छह फीसद से ऊपर रहेगा।
गैर-योजनागत व्यय में ब्याज का भुगतान और सरकारी कर्मचारियों की तनख्वाह जैसे खर्चे शामिल हैं, यानी इस खर्च में कमी करना संभव नहीं है। ऐसे में चिदंबरम ने अपना लक्ष्य पूरा करने के लिए बजट में योजनागत व्यय पर जमकर कैंची चलाई है। सीधे शब्दों में कहें तो कृषि, शिक्षा, स्वास्थ्य और ग्रामीण विकास जैसे कल्याणकारी मदों में कमी की गई है।
आंकड़ों की बाजीगरी दिखा कर वित्तमंत्री ने बजट भाषण में कई दफा कहा कि फलां मद में इस बार बढ़ोतरी क गई है। लेकिन बजट में किए गए आबंटन को सालाना दस फीसद की औसत दर के साथ रखा जाए तो वित्तमंत्री का इजाफा नकारात्मक साबित होता है। मिसाल के तौर पर शिक्षा क्षेत्र को 65,867 करोड़ रुपए का आबंटन किया गया है। बीते साल के मुकाबले यह रकम ज्यादा है, मगर महंगाई के साथ समायोजन करने पर पता चलता है कि इस क्षेत्र के आबंटन में सरकार ने कमी की है।
एक तरफ वित्तमंत्री ने बुनियादी क्षेत्रों के बजट आबंटन में कटौती की है तो दूसरी तरफ सामाजिक कल्याण के नाम पर प्रतीकात्मक योजनाएं लागू करके वाहवाही लूटने का पासा फेंका है। मसलन, महिलाओं की विशेष बैंक शाखाएं खोलने की घोषणा की गई है। सवाल उठता है कि इन बैंक शाखाओं से महिलाओं को क्या फायदा होगा। महिला विशेष शाखा जो बैंकिंग सुविधाएं मुहैया कराएगी, वही सुविधाएं साधारण बैंक शाखाएं मुहैया कराती हैं। दूसरी बात, देश की साठ फीसद आबादी संस्थागत बैंकिंग के दायरे से बाहर है। ऐसे में महिला विशेष शाखाओं से कितना फायदा होगा, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। अगर सरकार विकास का फायदा देश के सभी लोगों तक पहुंचाने के लिए गंभीर है तो बजट में वित्तीय समावेशन के लिए विशेष योजना पेश की जानी चाहिए थी। मगर वित्तमंत्री ने ग्रामीण आबादी को बैंकिंग के दायरे में लाने या वित्तीय समावेशन की गति तेज करने की दिशा में कोई नई पहल करने की जहमत नहीं उठाई है।
बजट में कहा गया है कि सरकार पूर्वी भारत में हरित क्रांति लाना चाहती है, पर इस क्षेत्र के नौ राज्यों के लिए हरित क्रांति के नाम पर केवल एक हजार करोड़ रुपए का आबंटन किया गया है। वहीं जलाक्रांता और जमीन में बढ़ते खारेपन से जूझ रहे पंजाब-हरियाणा-पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लिए पांच सौ करोड़ रुपए आबंटित हुआ है। क्या पूर्वी भारत के नौ राज्यों में एक हजार करोड़ की मामूली रकम से हरित क्रांति लाई जा सकती है और क्या पांच सौ करोड़ रुपए से उत्तर भारत के हरित क्रांति वाले इलाके की कृषि दिक्कतों को दूर किया जा सकता है? जवाब है, नहीं। लेकिन ऐसे शेखचिल्ली के सपने बजट ने देखे हैं। बजट में लिए गए ऐसे प्रतीकात्मक फैसलों की फेहरिस्त लंबी है। हकीकत यह है कि धरातल पर इनसे कुछ नहीं बदलने वाला। शायद यूपीए सरकार का वह इरादा भी नहीं है। मगर प्रतीकात्मक फैसलों के जरिए वह साबित करना चाहती है कि लोगों की भलाई के लिए कुछ किया जा रहा है।
शेयर बाजार और अमीरों पर वित्तमंत्री जमकर मेहरबान हुए हैं। अमीरों पर ज्यादा कर और उत्तराधिकार कर लगाने की बात हो रही थी, लेकिन बजट में दोनों ही मसलों को गोल कर दिया गया है। अमीरों पर कर के बजाय दस फीसद सरचार्ज लगाया गया है, वहीं उत्तराधिकार कर लगाने की बात पर वित्तमंत्री खामोश रहे। कृषि जिंसों की कीमतों को हवा देने वाले कमोडिटी बाजार पर कर लगाने की मांग लंबे समय से उठ रही थी और सरकार ने कमोडिटी परिचालन कर (सीटीटी) लगाने के संकेत भी दिए थे। ऐसा लगता है कि शेयर दलालों के विरोध-प्रदर्शन से प्रभावित होकर चिदंबरम साहब ने सीटीटी लगाने का इरादा टाल दिया और इस मांग की धार कम करने के मकसद से केवल गैर-कृषि जिंसों के कारोबार पर महज 0.01 फीसद सीटीटी लगाने की घोषणा की है। मगर इसके साथ ही वित्तमंत्री ने शेयर बाजार में लगने वाले सिक्युरिटीज ट्रांजैक्शन टैक्स (एसटीटी) की दर में 0.1 फीसद की कमी कर दी है। यानी एक हाथ से लेकर दूसरे हाथ से वापस दिया है। ‘गार’ को एक अप्रैल 2016 तक टालने की बजटीय घोषणा करके चिदंबरम ने साफ संकेत दिया है कि उनकी प्राथमिकता में ग्रामीण भारत नहीं, बहुराष्ट्रीय कंपनियां हैं।
युवा के लिए भी इस बजट में कुछ नहीं है। वित्तमंत्री ने एक तरफ शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे अहम क्षेत्रों को दी जाने वाली राशि में कटौती की है वहीं दूसरी ओर युवाओं को रोजगार के अवसर मुहैया कराने की दिशा में कुछ नहीं किया। बजट में कहा गया है कि सरकार एक हजार करोड़ रुपए युवाओं के कौशल विकास पर खर्च करेगी। आठ फीसद बेरोजगारी दर वाले जिस देश में बीस करोड़ से ज्यादा युवा रोजगार की तलाश में भटक रहे हों वहां वित्तमंत्री की यह घोषणा क्रूर मजाक लगती है।
दुनिया का कोई भी देश विनिर्माण क्षेत्र को मजबूत किए बिना आगे नहीं बढ़ा है, क्योंकि इस क्षेत्र में सबसे ज्यादा लोगों को रोजगार मिलता है। विकसित अर्थव्यवस्थाओं की बात छोड़िए, हमारे देश का विनिर्माण क्षेत्र विएतनाम, सिंगापुर और इंडोनेशिया जैसी दक्षिण-पूर्वी एशियाई अर्थव्यवस्थाओं में भी सबसे पीछे है। वित्तमंत्री ने बजट में वादा किया है कि देश के विनिर्माण क्षेत्र को मजबूत बनाया जाएगा ताकि ज्यादा से ज्यादा युवा आबादी को रोजगार दिया जा सके। यह बात और है कि ऐसे वादे हर बजट में किए जाते रहे हैं।
राजस्थान के रेगिस्तान में कहा जाता है कि पानी के भ्रम के सहारे राहगीर कई कोस का सफर तय कर जाता है। एक रेत का धोरा पार करने के बाद अगला रेत का टीला चमकते हुए पानी की झील का अहसास देता है और प्यासा मुसाफिर पानी की आस में आगे बढ़ता है। मगर अगले टीले पर पहुंच कर मालूम होता है कि पानी तो है ही नहीं, केवल झील होने का अहसास था। महंगाई से जूझती भारत की गरीब जनता भी हर बजट में राहत की झील खोजने की आस में साल-दर-साल आगे बढ़ती जा रही है। कोई नहीं जानता, इस सफर की मंजिल कहां है।
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