अभी कुछ दिन पहले ही एक यात्रा यमुना के नाम पर्र निकली। जरा उस पर एक लेख देखे।
पुष्परंजन . जनसत्ता 13 मार्च, 2013: जर्मनी का कोलोन शहर दो कारणों से पूरे यूरोप में पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र रहा है। एक, रोमन कैथलिक चर्च ‘डोम’ के कारण, और दूसरी वजह है राइन नदी। प्राकृतिक सौंदर्य के लिए राइन नदी पूरी दुनिया में बेमिसाल है। दस साल पहले कोलोन शहर में दिल्ली से एक मित्र का आना हुआ। रविवार का दिन था, छुट्टियां मनाने मित्र का परिवार राइन नदी के किनारे निकल पड़ा। साथ में खाने-पीने का सामान जब समाप्त हुआ, तो आदतन मित्र के परिवार ने प्लास्टिक की थैली में, चिप्स के खाली हो चुके पैकेट डाले, और उसे नदी में फेंक दिया।
इसके बाद जर्मन पुलिस वालों के प्रकट होने में दस मिनट भी नहीं लगे होंगे। पचास यूरो (आज की दर से साढ़े तीन हजार रुपए) का जुर्माना भरना पड़ा। साथ में बांड भरा कि दोबारा गलती हुई, तो आपके रिश्तेदार जर्मनी से बाहर होंगे। सोमवार को गंगा-यमुना समेत देश की सभी नदियों की सफाई को लेकर जब राज्यसभा में बहस हो रही थी, तब बरबस उस घटना की याद आई। सोचने लगा कि क्या भारत में नदियों को गंदा करने की गलती पर कभी किसी नागरिक को जुर्माना भरना पड़ा है?
नदियों में प्रदूषण को लेकर जनता के दुख का इजहार कोई पहली बार नहीं हुआ है। लेकिन ऐसा क्यों होता है कि जब तक लाखों की भीड़ दिल्ली को नहीं घेरती, तब तक राजनीतिक दलों की नींद भी बहस के लिए नहीं खुलती। संसद में यमुना को बचाने के सवाल पर दस दिन पहले बहस क्यों नहीं हो सकती थी? दरअसल, सरकार और राजनीतिक दलों को यही लगा कि एक मार्च को चंद लोग मथुरा से चलेंगे, और रास्ते में ही निपट जाएंगे। यों, वृंदावन का बरसाने, साल में एक बार अवश्य चर्चा में रहता है।
लेकिन इस बार बरसाने की चर्चा लठमार होली के लिए नहीं हो रही, बल्कि चर्चा इस बात की हो रही है कि आखिर क्यों वहां के लोग यमुना को बचाने के लिए राधाकांत शास्त्री के नेतृत्व में लाठी लेकर निकल पड़े। सौ से हजार, और दिल्ली के बदरपुर बार्डर पहुंचते-पहुंचते यह कारवां जनसैलाब का रूप ले चुका था। यमुना बचाओ अभियान, एक आंदोलन का रूप ले लेगा, और इतने लोग दिल्ली को घेरने आ पहुंचेंगे, इसकी कल्पना राजनीतिक नेताओं को नहीं रही होगी।
ऐसा बहुत कम होता है, जब संसद किसी सवाल पर दल-जमात से ऊपर उठ कर एक दिखती है। सोमवार को राज्यसभा गंगा-यमुना समेत देश की सभी नदियों की सफाई को लेकर चिंतित थी। जो सांसद उपस्थित थे, पूरी तैयारी के साथ नदियों की सफाई को लेकर संवेदनशील थे। समवेत स्वर उठा कि नदियों की सफाई करनी है। लेकिन इसे समय सीमा में नहीं बांधा गया। पर्यावरण राज्यमंत्री जयंती नटराजन के पास आंकड़े थे, पर साथ में सरकार की विवशता थी कि यमुना की सफाई का कौन-सा विकल्प ढूंढ़ा जाए।
जयंती नटराजन ने स्वीकार किया कि दिल्ली में बाईस किलोमीटर तक बहने वाली यमुना नदी को गंदा करने में हर सवा किलोमीटर पर बने अठारह बड़े नालों की भूमिका रही है। पानी को साफ करने के वास्ते जो गिने-चुने ‘सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट’ लगे हैं, उनमें फिर से गंदे नाले का पानी आ मिलता है। लोकसभा में यह तय हुआ कि कुछ सांसद, आंदोलनकारियों को समझाने जाएंगे कि इस बार सरकार और विपक्ष इस सवाल पर गंभीर हैं।
यमुना नदी हिमालय के चंपासागर ग्लेशियर से निकलती है। एक हजार तीन सौ छिहत्तर किलोमीटर का सफर तय करते हुए इलाहाबाद संगम पर गंगा में विलीन हो जाती है। इस नदी की सबसे अधिक दुर्गति दिल्ली के वजीराबाद से लेकर ओखला बराज तक होती है। बाईस किलोमीटर तक बहने वाले पानी में कूड़ा-कचरा और फैक्ट्रियों से निकले रसायन के कारण बीओडी (बायोकैमिकल आॅक्सीजन डिमांड) स्तर तेईस तक पहुंच चुका है। इसका मतलब यह होता है कि नदी में मछलियां या वनस्पतियां जीवित नहीं रह सकतीं।
इसलिए दिल्ली में बहने वाली यमुना को लोगों ने ‘मृत नदी’ कहना आरंभ कर दिया है। इसी यमुना नदी का पानी हरियाणा के ताजेवाला से छूटता है, तब वहां ‘बीओडी’ शून्य मिलता है। यानी ताजेवाला में यमुना का पानी इस्तेमाल के लायक है। 1993 से 2008 तक यमुना को साफ करने के वास्ते केंद्र सरकार, करदाताओं के तेरह अरब रुपए बहा चुकी है। यह तो एक छोटा-सा उदाहरण है। ठीक से पता करें, तो यह पुख्ता हो जाएगा कि करदाताओं के हजारों करोड़ रुपए नदियों की सफाई के नाम पर डकार लिए गए हैं। 2009 में जयराम रमेश ने लोकसभा में बयान देते हुए स्वीकार किया था कि यमुना को साफ करने में हम विफल रहे। 2009, और अब 2013, यानी पांच साल बाद केंद्र सरकार ने एक बार फिर संसद में स्वीकार किया कि बाईस किलोमीटर यमुना की सफाई हमारे बस से बाहर की बात है। फैक्ट्री वालों के आगे कितनी असहाय है सरकार!
कभी आप दिल्ली के आइटीओ पुल से गुजरें, तो इसके दोनों ओर लगी लोहे की जाली पर गौर कीजिएगा। यमुना में कोई व्यक्ति कचरा, फूल या टोटके वाली सामग्री न फेंके, इसे रोकने के वास्ते जाली लगाई गई है। लेकिन ‘श्रद्धालुओं’ ने लोहे की मोटी जालियां जगह-जगह से काट रखी हैं। क्या इन कर्मकांडी गुनहगारों को पकड़ने के लिए सरकार सीसीटीवी कैमरे नहीं लगा सकती? क्या सरकार को बताने की जरूरत है कि नदियों को गंदा करने वालों को सजा देने के लिए कड़े कानून बनाए जाएं?
/>जल को जीवन मानने वाला संत समाज, भक्तजनों को क्यों नहीं समझाता कि नदी को गंदा करना, नरक में जाने के बराबर है। शास्त्रार्थ करने वाले हमारे संत क्या उन धर्मग्रंथों की इबारतों को बदल नहीं सकते, जिनमें मूर्तियों से लेकर फूल, पूजा-हवन की सामग्री, और अस्थियों को नदी में प्रवाहित करने का विधान बनाया गया है? नदियों में शव बहा देने की परंपरा को आखिर कौन बदलेगा? सरकार के भरोसे अगर आप हैं, तो सच जान लीजिए कि यह किसी भी सरकार के बूते से बाहर की बात है।
अपने यहां जल विद्युत परियोजना के लिए ब्रह्मपुत्र की प्रलयंकारी धारा का प्रचुर इस्तेमाल हो सकता था। ब्रह्मपुत्र क्यों नदी नहीं, ‘नद’ है, यह बात उसकी हाहाकारी और ताकतवर जलधारा को देखने के बाद समझ में आती है। लेकिन गंगा, यमुना, कृष्णा, कावेरी, गोदावरी, पेरियार, झेलम, सतलज, सिंधु, शिप्रा, महानंदा, गंडक जैसी नदियां उतनी ही कोमल, और पवित्र हैं, जितनी कि भारतीय नारी। तभी तो इन नदियों को हमने मां का सम्मान दिया है। नारी को सम्मान देने वाला भारतीय समाज, उतना ही सम्मान देश की नदियों को क्यों नहीं दे सकता? भारत की ऐसी कौन-सी नदी है, जिसका संबंध हमारे अध्यात्म और सभ्यता से नहीं है?
ज्यादा नहीं, पचास से पचहत्तर साल पहले का इतिहास पलटिए, तो पता चलेगा कि उस दौर में जलमार्ग से माल ढुलाई अधिक होती थी। जो बुजुर्ग हो चुके, वे बताते हैं कि कैसे पटना से कलकत्ता, बनारस से इलाहाबाद, भागलपुर, मुंगेर से फरक्का पानी के जहाज से वे यात्रा कर चुके हैं। बढ़ती आबादी, प्रदूषण, समाज और सरकारों की उपेक्षा ने पूरे देश के जलमार्ग का बेड़ा गर्क कर दिया है। 30 अगस्त 2007 को जहाजों को जलमार्ग की सुविधाएं देने संबंधी संशोधन विधेयक जब संसद में पास हो रहा था, तब जानकारी दी गई कि देश भर में मात्र 0.17 प्रतिशत जलमार्ग इस्तेमाल में है।
क्या यह वही देश है, जहां बारह लाख साठ हजार किलोमीटर तक जलमार्ग की सुविधा वाली सिंधु घाटी जैसी महान सभ्यता का जन्म हुआ था? सिंधु घाटी की सभ्यता के दौर में अपने यहां सबसे अधिक व्यापार जलमार्ग से ही हुआ करता था। गुजरात के लोथल से लेकर सिंधु-रावी नदी और गंगा-दोआब तक के व्यापारी जलमार्ग से ईरान, मध्य एशिया तक मसाले और कपास पहुंचाते थे।
जलमार्ग ने भारतीय जन-जीवन को काफी कुछ दिया है। पनिया के जहाज से पिया रंगून चले जाते थे, उनसे जुड़ी जुदाई और विछोह की असंख्य रचनाएं, हमारे साहित्य और संगीत को समृद्ध कर रही थीं। जल से जुड़े यात्रा-वृत्तांत, माझी गीत अब कौन लिख रहा है?
प्रदूषण के कारण नदियों से मछलियां गायब हैं, जिससे स्थानीय मछुआरों को दो जून भोजन नसीब होता था। स्थानीय लोगों के बीच ‘सोंस’ कही जाने वाली ‘गंगा डाल्फिन’ को देखना अब दुर्लभ है। हिमालय से मैदानी इलाके की जलधारा में जब घड़ियाल उतरते नहीं, तो नई पीढ़ी को क्या पता कि ‘गज और ग्राह की लड़ाई’ की चर्चा किस संदर्भ में होती रही है।
प्रधानमंत्री के सीधे नियंत्रण में नदियों की सफाई का काम चल रहा है। लेकिन सरकार को फुरसत नहीं है कि नदियों वाले इलाके से विस्थापन का विस्तृत ब्योरा तैयार करे। सरकार कितनी लाचार है, उसकी मिसाल दिसंबर 2002 की एक घटना से देते हैं। उत्तर प्रदेश सरकार ने इलाहाबाद से फरक्का, बलिया से फैजाबाद और डालीगंज से गौघाट माल ढुलाई के लिए पानी जहाज चलाने की परियोजना तैयार की। बाद में इन जलमार्गों पर यात्री सेवाएं भी शुरू होनी थीं। इस योजना को तैयार करने में करदाताओं के करोड़ों रुपए खर्च कर दिए गए। 2002 के अंत में उत्तर प्रदेश सरकार ने बयान दिया कि नदियों में पानी नहीं है, इसलिए हम इस योजना पर अमल नहीं कर सकते।
भारतीय अंतरदेशीय जलमार्ग प्राधिकरण (आइडब्ल्यूआइ) ने देश में साढ़े चौदह हजार किलोमीटर जलमार्ग का पता किया था। जलमार्ग प्राधिकरण मानता है कि नदियों के माध्यम से बावन सौ किलोमीटर, और नहरों के जरिए चार हजार किलोमीटर की यात्रा संभव है। छिछली, सूखती, गंदे नाले में परिवर्तित नदियों को देख कर यकीन नहीं होता कि अपने देश के जलमार्ग से भारी मशीनों, या माल की ढुलाई संभव है।
अपने देश के नेता, सरकारी अफसर, उद्योग और समाज के समृद्ध लोग सबसे अधिक यूरोप की सैर करते हैं। मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि यूरोप का जलमार्ग देख कर या तो उनमें हसद (ईर्ष्या) का भाव पैदा होता होगा, या हसरत का। सैंतीस हजार किलोमीटर लंबे यूरोपीय जलमार्ग से यूरोप के सैकड़ों शहर जुड़े हुए हैं। यूरोपीय संघ के सत्ताईस में से बीस सदस्य-देशों के शहर और गांव, जलमार्ग से ही माल मंगाते हैं। लोगों का घूमना भी जलमार्ग से ज्यादा होता है। स्वच्छ हवा और नैसर्गिक सौंदर्य के कारण, यूरोप में सबसे महंगे मकान नदी के किनारे मिलते हैं।
यूरोप में पचास प्रतिशत माल की ढुलाई रेल से होती है, और सत्रह प्रतिशत माल पानी वाले जहाज ढोते हैं। एशिया में ही चीन है, जो एक लाख दस हजार किलोमीटर जलमार्ग का दोहन कर रहा है। साढ़े इक्कीस हजार किलोमीटर जलमार्ग वाले इंडोनेशिया, और सत्रह हजार सात सौ किलोमीटर जलमार्ग वाले विएतनाम से भी ‘सारे जहां से अच्छा, हिंदोस्तां हमारा’ क्यों पीछे है? क्योंकि इन देशों ने अपनी हर परियोजना को समय और संकल्प से बांध रखा है। नदी के किनारे न्यूयार्क बसा है, पेरिस और लंदन भी। क्या इन तीनों शहरों से यमुना के तीर पर बसी दिल्ली की तुलना हो सकती है?
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