छतीसगढ़ में नक्सलियों की पाषविकता से ठिठका जन जीवन
छतीसगढ़ में नक्सलियों की पाषविकता से ठिठका जन जीवन
पिछले दो-तीन दिन से में छत्तीसगढ़ में हूँ और उस से पहले भी 25-26 मई को में बस्तर के साथ लगते और नक्सलवाद से प्रभावित महाराष्ट्र के गढ़ चिरोली जिले में घूमा. हर जगह नकसल वाद की चर्चा है और अखबार इस विषय को लेकर भरे पड़े हैं और एक दल के नेता दूसरे दल पर दोषारोपण कर रहे है. जियादातर लोग श्री जोगी को शक की सुई लगाते नज़र आ रहे हैं. में परसों राजनांदगांव में पुराने विधायक श्री मुदालियर के घर अफ़सोस करने गया जो इस घटना में शहीद हुए. वहां के कांग्रेस के युवा शहीद नेता अल्ला नूर के घर भी बैठने गए. पर हर और लोग श्री जोगी की और इशारा करते हैं. पर नीचे लिखा लेख मुझे काफी सच्चाई के निकट लगा. वैसे लेखक श्री अंजनी झा मेरे पुराने मित्र हैं.
छतीसगढ़ में नक्सलियों की पाषविकता से ठिठका जन जीवन-- डा0 अंजनी कुमार झा
कांग्रेस की परिवर्तन मात्रा के दौरान बस्तर (छतीसगढ़) के निकट सुकमा क्षेत्र में 25 मई को नक्सलियों ने घात लगाकर छतीछतीसगढ़ में नक्सलियों की पाषविकता से ठिठका जन जीवन-- डा0 अंजनी कुमार झा
कांग्रेस की परिवर्तन मात्रा के दौरान बस्तर (छतीसगढ़) के निकट सुकमा क्षेत्र में 25 मई को नक्सलियों ने घात लगाकर छतीसगढ़ प्रदेष कांग्रेस के अध्यक्ष नंद कुमार पटेल और पार्टी के वरिष्ठ नेता महेन्द्र कर्मा समेत 29 लोगों को गोलियों से भून डाला। पूर्व केंन्द्रीय मंत्री विद्या चरण शुक्ल की हालत गंभीर है। प्रदेष में तीन दिन का राजकीय शोक है। पहले कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी, फिर राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कार्यकर्ताओं को ढांढस बंधाया। सभी ने कानून व व्यवस्था की धज्जियां उड़ायीं।
सवाल उठता है कि क्या इसके लिये केवल प्रदेष सरकार जिम्मेदार है ? इस राजनीतिक यात्रा की सुरक्षा के लिये सरकार ने पर्याप्त पुलिस उपलब्ध कराये थे। हां हजारों की तादात में बढ़ रहे हथियारबंद नक्सलियों को रोक पाना एक दर्जन पुलिस के बूते से बाहर है। अंतिम सांस तक पुलिसकर्मी लड़ते रहे। बीस से पच्चीस बर्ष के डेढ़ हजार पुरूष-महिला नक्सलियों का जंगल में दिन की तेज रोषनी में चहलकदमी करना क्या केन्द्रीय सुरक्षा बलों और खुफिया एजेंसी को नहीं दिखा ? बडी संख्या में सीआरपीएफ, बी.एस.एफ,आई.टी.बी.पी. के फोर्स तैनात हैं। फिर ऐसी घिनौनी वारदात कैसे? कई अनुत्तरित सवालों का जवाब केन्द्र के पास भी नहीं है। नक्सल प्रभावित छतीसगढ़ में आज और कल भी नक्सल ही एक मुद्दा रहा। केन्द्र से लगातार गुहार के बाद भी आपरेषन नाकाफी साबित हो रहे हैं। कुछ वर्षों पूर्व अचानक नक्सली वरदातों में बढ़ोतरी को रोकने के बजाय तत्कालीन गृह मंत्री षिवराज पाटिल ने इसे राज्य की समस्या बताकर पल्ला झाड़ लिया। अलग-अलग पार्टी की केन्द्र और राज्य में सरकार बनने के कारण निहित स्वार्थ निर्दोष लोगों की बलि ले रहा है।
राजनैतिक विष्लेषकों का अभिमत है कि यह ‘खेल’ आपसी प्रतिद्वंद्विध़ता का हो सकता है। परिवर्तन यात्रा में उमड़ रही भीड़ कहीं जनादेष में परिवर्तित हो जाये तो मुख्यमंत्री को लेकर दौड़ बढ़ जायेगी, शायद षड्यंत्रपूर्वक इसे समाप्त कर दिया गया। दो दिग्गज रेस से बाहर और एक जीवन और मृत्यु से संघर्षरत है। ऐसे में कुछ समीक्षकों ने तो अजीत जोगी की ओर भी बातों बातों में इषारा किया है।
बहरहाल, जनाक्रोष में लगी चिंगारी लपटों में सरकार को न लपेट ले, इसको लकर राजनीतिक दुराग्रह को समझने की जरूरत है। पूरे प्रांत में चुनाव के निकट आते ही लाषों को बिछाने का ‘खेल’ बढ़ जाता है। केन्द्र इसे राज्य का मामला बताकर चुप्पी साध लेता है, जबकि राज्य अपने सीमित संसाधनों का रोना रोता है। तत्कालीन गृहमंत्री पी.चिदम्बरम के कार्यकाल मे सुकमा के कलेक्टर ऐलिस का दिनदहाडे आहरण समेत सी.आर.पी.एफ के दर्जनों जवानों की नृषंस हत्या जैसी कई वारदातों के बाद भी दिल्ली से केवल ‘वायदों’ का पुलिंदा रायपुर आता रहा। कभी प्रभावित और पीडि़त जिलों को सेना के हवाले तेा कभी विषेष दर्जा देकर विषेष निगरानी की बातें केवल की जाती रहीं। हां, बेकसूर जवानों और निर्दोष नागरिकों का कत्लेआम नरसंहार की तर्ज पर जरूर होता रहा, जो आज भी बदस्तूर जारी है।
सलवा जुडूम के जनक और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता महेन्द्र कर्मा की उग्रवाद की बलिवेदी पर शहादत होना बेहद दुखद अध्याय है। गरीबी और भूख से तड़पते आदिवासियों को नौकरी का प्रलोभन देकर नक्सली उन्हें अपना समर्थक फिर वेतन पर रखकर पुलिस,सरकार, ठेकेदार, उद्योगपति,नेता आदि को निषाना बनाते हैं। सरकार की बेबसी और पूरे सिस्टम में अनगिनत छेद ही नक्सलियों की ताकत को बढ़ाने में यूरिया खाद का काम करती है। भ्रष्ट तंत्र ने पूरे नक्सल प्रभावित क्षेत्र को बेकारी और विवषता की अंधी गली में धकेल दिया है। अकूत प्राकृतिक खनिज संपदा को लूटने में नक्सली भी बड़े हिस्सेदार हैं। गरीबों का मसीहा बनने का नाटक कर अरण्य क्षेत्र पर नक्सलियों का कब्जा उनकी रणनीति है। विचार और सिद्वांत की खुली पोल ने उन्हें भी लुटेरों की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया है। ऐसे में सरकार को व्यूह रचकर नक्सली ताकतों को नेस्तनाबूद करने में पूरी ताकत झोंकनी चाहिये।
सितंबर , 2012 में चतरा (झारखण्ड) मं घायल सी.आर.पी.एफ जवानों के राहत और बचाव मिषन को लेकर वायुसेना और गृह मंत्रालय आमने-सामने थे। वहीं जनवरी 2013 में वायुसेना हेलीकाॅप्टर पर गोलीबारी मामले पर भी दोनों के विवाद खुलकर सामने आये थे। नक्सल प्रभावित क्षेत्रांे में विभिन्न केन्द्रीय सुरक्षा बलों, राज्य पुलिस और खुफिया अधिकारियों के बीच तालमेल का नितांत अभाव के कारण दर्जनों निर्दोष पुलिस और नागरिकों की जानें जाती रही हैं। सुरक्षा अभियान के तालमेल के लिए बतौर सलाहकर सेना के सेवानिवृत मेजर जनरल रैंक में भी कोई प्रगति नहीं हुई। रिटायर्ड सैन्य अफसरों के नामों का पैनल भी गृह मंत्रालय में धूल फांक रहा है।
नक्सली धड़ल्ले से लेवी (रंगदारी टैक्स) औद्योगिक घरानों , सरकारी अफसरों, ठेकेदारों से वसूलते हैं और सरकार उनके दुस्साहस के सामने बौनी साबित हो रही है। एक गैर सरकारी संस्था के सर्वे के मुताबिक, ये 60 प्रतिषत हिस्से को संगठन को मजबूत करने में व्यय करते हैं। इनका मकसद हिंसा को तेज करना, राष्ट्रविरोधी तत्वों से गठजोड़ कर भय का साम्राज्य फैलाना है। बेरोजगारों को रोजगार उपलब्ध कराकर वे अपने गिरोह को संगठित करते हैं। वायदों और वायदों से केवल अलोकप्रिय होती सरकार से बनी नाउम्मीदी ने नक्सलियों को काफी सषक्त बना दिया है।
नक्सलियों ने भाजपा की ‘विकास यात्रा’और कांग्रेस की ‘परिवर्तन यात्रा’ का विरोध किया है।
नक्सलियों से जुड़ी हिंसक घटनाएं
साल घटनाएं
2003 1597
2004 1533
2005 1608
2006 1509
2007 1565
2008 1591
2009 2258
2010 2213
2011 1760
2012 1412
सूबे में 30 साल से नक्सली समस्या एक नासूर बन गई है। 16 जिले पूरी तरह इनके कब्जे में हैं। उनके मजबूत होते पांव ने नागरिकांे का जीना मुहाल कर दिया है। इस बढ़ती विषबेल को रोकने में प्रषासन अक्षम है। पष्चिम बंगाल से लकर आंध्रप्रदेष तक नक्सली ने सक बड़ा काॅरिडोर बना लिया है। आठ राज्यांे में इनकी और समर्थकांे की संख्या तेजी से बढ़ रही है। लम्बे अर्से से सरकार ने जिन उपेक्षित वर्गों की अनदेखी की, उन्हंे ये अपना समर्थक बना रहे हैं। ये संख्या बल में ज्यादा हैं। इस कारण सरकार को ज्यादा चुनौती मिल रही है। अनेक सरकारी योजनाओं के बावजूद आदिवासी, और हरिजन नक्सली-नेता -नौकरशाह - ठेकेदार के अत्याचार के षिकर हैं। हमेषा ठगे रहने के कारण वे उपेक्षित होकर बगावत पर उतारू हैं। ऐसे में नक्सली को उन्हें सरकार के खिलाफ करने में ज्यादा मषक्कत नहीं करनी पड़ती है।
छतीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा0 रमन सिंह से पांच सवाल
प्रश्न: नक्सलवाद पर नियंत्रण पाने में आप क्यांे विफल हुए ?
उत्तर: इसके लिये कांग्रेस की नीतियां जिम्मेदार हैं। अब तक कोई इंटीग्रेटेड प्लान
तैयार न हो पान से स्थिति अनियंत्रित हो गई है। केन्द्र सरकार को राष्ट्रीय
स्तर पर बातचीत करनी चाहिये।
प्रष्न: क्या केन्द्र से मदद नहीं मिल रहा है ?
उत्तर: पिछले 9 साल में हमारे राज्य में एक भी नई रेल लाईन को मंजूरी नहीं दी
गई। एन.एच.आई. के लिए फंड चाहिए लेकिन निर्णय नहीं हो सका।
प्रष्नः क्या केन्द्र व राज्य के बीच तालमेल का अभाव है ?
उत्तरः हां, केन्द्र से हमें अपेक्षित मदद नहीं मिल पाता है। बड़े हादसे के बाद नियंत्रण
के लिये जरूर वायदे किये जाते हैं, किन्तु वे कभी पूरे नहीं हो पाते।
प्रष्न: नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में विकास की गति धीमी क्यों है ?
उत्तर: विकास के लिये राषि तो काफी व्यय हो रहे हैं, किन्तु नक्सली निर्माण कार्य के
साथ सड़कों को ध्वस्त कर देते हैं, इसलिए विकास की गति धीमी है।
प्रष्न: क्या यह सरकार की विफलता है ?
उत्तर: नहीं, प्रयास जारी है। विकास के लिये कई योजनायें चल रही हैं।
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