कंपनी सरकार के नियंत्रण में जाती खेती की स्थिति का विश्लेषण करते विकास संवाद के आलेखों की एक श्रृंखला
1. भूख की खेती की नीति
जिस वक्त पूरा देश क्रिकेट विश्वकप के सेमीफाईनल और फाइनल मैचों की खुमारी में गिर-गिर पड़ रहा था, देश के प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, नेता, मंत्री, अफसरान भी उसके नशे से सराबोर थे, मीडिया में (जिसे अब जन विरोधी और दृष्टिहीन मान लेना चाहिये) क्रिकेट का नशा बिखरा हुआ था; ठीक उन्हीं चार दिनों के दौरान भारत की सरकार ने समग्र प्रत्यक्ष विदेशी निवेश नीति-सर्कुलर 1-2011 जारी की। जिसमें कृषि के क्षेत्र को लगभग पूरी तरह से 100 प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिये खोल दिया गया। अब कोई भी विदेशी कम्पनी बीज, पौधों, फूलों, हार्टीकल्चर, फ्लोरीकल्चर, सब्जियों, चाय और मशरूम आदि के उत्पादन और विकास में सीधे दखल दे सकती है। पशुपालन, मछलीपालन भी अब इसमें शामिल है। सरकार उन्हें आयात-निर्यात शुल्कों और अन्य करो में रियायत भी देगी।
वे भारत की बची-खुची कृषि संपदा (बीज और उत्पादन तकनीकों) के साथ पूरा खिलवाड़ कर सकेंगे। इस नीति के बिना ही सवा दो लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। अब यह दर बढ़ जायेगी क्योंकि अब नारियल, चाय, मशरूम, फल, फूल पैदा करने वालों के साथ-साथ पशुपालन और मछलीपालन करने वाले लोगों को उन बड़ी-बड़ी कंपनियों के साथ प्रतिस्पर्धा करना होगी। जिनके पास आर्थिक संसाधन तो हैं ही, सरकार का नीतिगत संरक्षण भी है। भारत में किसानों और उत्पादों को लगभग प्रत्यक्ष सम्बन्ध रहे हैं। यहां चार दशकों से कृषि उपज मण्डी की व्यवस्था काम करती रही है पर पिछले 10 वर्षों में भारत में आईटीसी और कारगिल सरीखी कम्पनियों ने मण्डियों के समानान्तर अपनी व्यवस्था खड़ी कर दी गई है और वे भारी मात्रा में किसानों से सीधी खरीदी कर रही हैं। मोंटेक सिंह अहलूवालिया सरीखे अर्थषास्त्री मानते हैं कि इससे किसानों को बेहतर व्यवस्था और बेहतर दाम मिल रहे हैं। ये वे विचारक हैं जो यह मानते हैं कि यदि सरकारी ढांचा ठीक से काम न करे तो उसमें समानान्तर निजी ढांचा खड़ा कर दो। पर सरकारी ढांचा ठीक मत करो।
मध्यप्रदेश के रायसेन जिले में 4 अप्रैल को एक किसान की कृषि उपज मण्डी में मृत्यु हो गई। वह 8 दिन से अपनी फसल बिकने का इंतजार कर रहा था पर बारदाना (बोरे) नहीं होने के कारण अनाज नहीं बिका और तनाव इतना बढ़ा कि उसकी जान चली गई। आज मण्डी में कृषि उत्पाद बेचने के बाद किसानों को 8 से 10 दिन तक भुगतान नहीं होता है इसलिये वे दूसरा विकल्प खोजते हैं, सवाल यह है कि क्या उनके लिये प्रभावी भुगतान की व्यवस्था खड़ी नहीं की जा सकती है। मण्डी में उत्पाद बेचने के लिए मण्डी अब किसानों से 6 तरह के दस्तावेज मांगे जा रहे हैं इससे उनका मन उचट रहा है, सवाल यह है कि क्या व्यवस्था को जटिल बनाना जरूरी है ? ऐसे ही कारणों से मण्डी व्यवस्था को कमजोर किया गया है और निजी कम्पनियों के लिये माहौल बनाया गया है। आज मध्यप्रदेश में तीन कम्पनियों ने 30 प्रतिशत बाजार पर कब्जा जमा लिया है और अब सरकार धीरे-धीरे मण्डी व्यवस्था को खत्म करने की दिशा में बढ़ रही है। आज आईटीसी या कारगिल किसानों को थोड़ा सम्मान इसलिये देती है क्योंकि उन्हें पता है कि किसानों के पास कृषि उपज मण्डी का विकल्प मौजूद है। जैसे ही यह विकल्प खत्म होगा या अप्रभावी होगा; वैसे ही इन कम्पनियों के काटने वाले दांत नजर आना शुरू हो जायेंगे।
हमने अपनी सरकार से यह सवाल कभी क्यों नहीं पूछा कि आखिर खेती में विदेशी निवेश की जरूरत क्यों है! सरकार ने पिछले 10 वर्षों में कर्ज और बीमा आधारित ऐसी तकनीकें अपनाई हैं, जिनसे किसान कंपनियों का बंधुआ बन गया है। किसान को संरक्षण देने का तर्क देकर कृषि बीमा योजना शुरू की गई। पर यह एक सामूहिक बीमा योजना है, जिसके अब तक के क्रियान्वयन से पता चला है कि किसानों को 80 प्रतिशत नुकसान की तो भरपाई का प्रावधान ही इसमें नहीं है। आज देश भर में नहरों के भारी और भीतरी रिसाव के कारण लाखों हेक्टेयर की खेती प्रभावित होती है और वह जमीनें दलदल में बदल गयी है, पर सरकार की राहत और बीमा प्रावधानों में इन किसानों को मदद देने का कोई प्रावधान नहीं है। अब बैंक-बीमा कंपनिया और सरकार मिल कर किसान की अर्थी तैयार कर रहे हैं।
खेती के लिए तो थोड़ी बहुत सब्सिडी बजट में बची हैए वह अब सीधे उर्वरक, कीटनाशक, मशीन और ट्रेक्टर बनाने वाली कंपनियों को देने की पहल कर दी गई है। इसके साथ ही ठेका खेती (कांट्रेक्ट फार्मिंग) के तहत कम्पनियाँ बड़े किसानों के समूह बना कर अपनी जरूरत के मुताबिक उत्पादन करवायेंगी, जैसे मूगफली, लहसुन, टमाटर, आलू, कपास, सोयाबीन, गन्ना कुछ ऐसी फसलें हैं, जिनकी प्रोसेसिंग होती है। इनका उत्पादन ठेका खेती के तहत होगा। इस नीति से बाज़ार वाली नकद फसलों का उत्पादन बढेगा और अनाज का उत्पादन कम होगा। सरकार इन कंपनियों को लाभ पंहुचाने के उद्देश्य से 25000 हज़ार रूपए प्रति एकड़ के मान से फलों और फूलों के उत्पादन के लिए सीधी सब्सिडी किसानों को दे रही है, ताकि इनका उत्पादन तो बढे ही इनका व्यापार करने वाली कंपनियों को किसान सस्ते दाम पर अपने उत्पाद बेंचे।
एक तरह से बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लाभ को रियायत दी जा रही है। पहली हरित क्रान्ति के बाद भारत में खाद्य सुरक्षा का अर्थ केवल गेंहू और चावल से जोड़ दिया गया। देश में पैदा होने वाले 370 तरह के प्रचलित अनाजों की हर संभव उपेक्षा की गई, जिससे उनका उत्पादन और उपलब्धता लगभग शून्य होती गई है। इससे खेती की तकनीकें और फसल चक्र भी टूटा है। और पोषण की असुरक्षा भी बढ़ी है। आज सरकार भी सरकारी भंडारण की नीति के तहत केवल गेंहू और चावल की खरीदी करती है, ज्वार, बाजरा, कोदो-कुटकी, रागी, चना, दलहन की कोई खरीदी नहीं होती है। इससे पूरे देश में खाद्य सुरक्षा और खाद्य संस्कृति दोनों को ही गहरा नुक्सान पंहुचा है। एक तरफ तो सरकार सूखे में खेती की साधन और तकनीकें ढूढ़ रही है, तो वहीँ दूसरी और ऐसी फसलों और बीजों को सरकारी कार्यक्रमों के तहत बढ़ावा दिया जा रहा है, जिनमें देशी बीजों की तुलना में कई गुना ज्यादा पानी की जरूरत होती है और बिना रसायनों के उत्पादन को सुरक्षित नही रखा जा सकता है। पर ऐसी खेती ही औद्योगिक घरानों की हित में है, उन्हें इससे लाभ होता है। सो सरकार ने खेती के क्षेत्र को विदेशी निवेश के लिए अब पूरा खोल दिया है, यानी जो कंपनी जैसा चाहेंगी वैसा कर सकेगी, सरकार को बस कुछ आंकड़े चाहिए होंगे।
100 प्रतिशत विदेशी निवेश का मतलब यह है कि खेती को आधुनिक और कम लागत का बनाने के नाम पर मशीनी खेती को और बढ़ावा दिया जाएगा। पहले जब हार्वेस्टर आया तो पता चला कि उससे पुआल और चारा नहीं निकल पाता है, तो अब एक नयी मशीन बना दी गयी जो हार्वेस्टर से बचे हुए ठूठों को काटने का काम करेगी। नई खेती की व्यवस्था में पशुधन और समाज के अपने ज्ञान के लिए कोई स्थान नहीं है। जिस तरह से खेतों में मशीनों का उपयोग बढ़ा है उससे चारे का संकट पैदा हुआ है। अब तक जो चारा गाँव में बिना लागत उपलब्ध हो जाता था, अब एक ट्राली के लिए 2500 रूपए चुकाने की जरूरत पड़ रही है। चारे की उपलब्धता कम होने से किसानों और किसानी से जुड़े काम करने वाले समुदायों की आजीविका पर गहरा संकट छाया है। पिछले 4 वर्षों में भारत में दूध की किल्लत जबरदस्त तरीके से बढ़ी है और इसका परिणाम हुआ है दूध की कीमतों में 300 प्रतिशत की बढौतरी। पशुधन कृषि उत्पादन के क्षेत्र में कई कडि़यों को जोड़ने का काम करता है। इससे प्राकृतिक खाद मिलती और कीटनाशक भी बनते हैं, दूध भी मिलता है और पर्यावरण को संरक्षण भी मिलता है। इसके सांस्कृतिक महत्व भी हैं, पर पूंजीवादी सोच के प्रभाव ने सब कुछ मिटा सा दिया है।
2. जैविक खेती का अर्थशास्त्र
हम यह मानते रहे हैं कि जैविक खेती और इसके उत्पाद सीधे खेत और किसानों से हमारी रसोई में आयेंगे परन्तु अब यह सच नहीं है। जैसे-जैसे यह तर्क स्थापित हुआ है कि हमें यानी उपभोक्ता को साफ और रसायनमुक्त भोजन चाहिये; वैसे-वैसे देश और दुनिया में बड़ी और भीमकाय बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने जैविक खेती और जैविक उत्पादों के व्यापार को अपने कब्जे में लेना शुरू कर दिया। भारत में पारम्परिक रूप से जैविक उत्पाद सामान्यतः सीधे खेतों से लोगों तक पहुंचे हैं। हमारे यहां हाईब्रिड और देशी टमाटर या लोकल लौकी जैसे शब्दों के साथ ये उत्पाद बाजार में आते रहे हैं पर अब बड़ी कम्पनियों ने इस संभावित बाजार पर अपना नियंत्रण जमाना शुरू कर दिया है। तर्क यह दिया जा रहा है कि जितने बड़े पैमाने पर आधुनिक खेती में रसायनों का उपयोग किया जा रहा है; उसके खतरे को देखते हुये यह सवाल महत्वपूर्ण नहीं है कि उसका मालिकाना हक किसके पास है। पर इसके दूसरी तरफ हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिये कि आज की सबसे बड़ी जरूरत यह तय करने की है कि अनाज, खाद्यान्न और भोजन के उत्पादन का तंत्र और व्यवस्था विकेन्द्रीकृत, जनोन्मुखी और पारदर्शी ही होना चाहिये। ठण्डे पेयों में कीटनाशकों की खतरनाक स्तर तक मौजूदगी, फिर डिब्बाबंद खाद्य पदार्थों में अमान्य रसायनों का उपयोग और खेतों में एण्डोसल्फान के छिड़काव के मामलों में बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की भूमिका ने यह सिद्ध किया है कि उनके उत्पादों पर विष्वास नहीं किया जा सकता है।
ये महाकाय आर्थिक रूप से सम्पन्न कम्पनियां भी जानती है कि जैविक उत्पादों का बाजार अब तेजी से बढ़ रहा है। रणनीतिक रूप से इन कम्पनियों ने वर्ष 1997 से 2007 के बीच दुनिया भर में 363 छोटी और स्थानीय उत्पादक इकाइयों का अधिग्रहण किया। इनमें से ज्यादातर ने अधिग्रहण के बाद भी उन स्थानीय ब्राण्डों के नाम से ही व्यापार किया ताकि उनकी बदनामी का असर इस नये व्यापार पर न पड़े। कोकाकोला ने आनेस्ट-टी का अधिग्रहण किया। मुईर ग्लेन और कास्केडियन फार्म को स्माल पेनेट फूड्स के नाम से चलाया जा रहा है जो वास्तव में जनरल मिल्स की कम्पनी हैं आनेस्ट टी पर कोकाकोला के नियंत्रण की बात जब लोगों को पता चली तो उसकी दुनिया भर में व्यापक प्रतिक्रिया हुई। सच यह है कि आज बाजार में अनाज और भोजन से लाभ कमाने के लिये उसे किसी भी स्तर तक जहरीला बना देने को तत्पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर आम समाज विश्वास नहीं करता है। वह यह नहीं मान पाता है कि ये कम्पनियाँ वास्तव में सच्चे जैविक उत्पाद उन्हें उपलब्ध करवायेंगे। आर्गेनिक ट्रेड एसोसिएशन ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि वर्ष 2009 में ही जैविक उत्पादों का बड़ा बाजार 11.40 अरब रूपए यानी 24.8 बिलियन डॉलर का हो चुका था। यानी जितनी ज्यादा संभावना उतना बड़ा भोजन पर आर्थिक उपनिवेशवादी खतरा।
वर्ष 2002 से भारत में जैव संशोधित बीजों (बीटी और जीएम्) के प्रयोग और उपयोग की शुरुआत हुई। मोनसेंटो जैसी एक बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनी इन बीजों को इस दावे के साथ भारत लाई थी कि बीटी कपास पर बोल्वार्म या कहें कि कपास को खाने वाला एक कीड़ा नहीं लगेगा। इससे कीटनाशकों का खर्च कम होगा। चूंकि इससे उत्पादन बढेगा, इसलिए इन बीजों की कीमत सामान्य देशी बीजों की तुलना में 7 से 8 गुना ज्यादा रखी गयी और मोनसेंटो ने किसानों से खूब कमाई की। 3 साल बाद ही यह स्थापित हो गया कि बीटी बीज पर भी कीट लगता है और उसमे पहले की तुलना में ज्यादा रासायनिक कीटनाशकों-उर्वरकों का उपयोग किसान को करना पड़ रहा है। लागत बढ़ी और किसान पर क़र्ज, दामों के उतार चढ़ाव के बीच भारत की सरकार ने उन देशों से सस्ती दर के कपास के आयात पर शुल्क कम रखा जहाँ खेती पर बहुत सब्सिडी मिलती है। तर्क यह था कि भारत में कपास का उपयोग करने वाले उद्योगों को सस्ता कपास मिल सके।
सरकार ने भारत में तो कृषि पर रियायत कम कर दी, बिजली, उर्वरक, कीटनाशक महंगे हो गए और किसान बाज़ार में आयातित कपास से मार खा गया। विदर्भ में किसानों ने इसीलिए आत्महत्या की है। अब तक बहुराष्ट्रीय कंपनियों को नए और तथाकथित उन्नत बीजों या कृषि तकनीकों को व्यापारिक उपयोग में लाने या उनके परीक्षण करने के लिए हर एक मामले में अनुमति लेना होती थी, पर अब यह एक खुला क्षेत्र हो गया है। हमें यह याद रखना होगा कि संकट को हमने खुद आमंत्रित किया है और अपने आप को बर्बाद करने के लिए हम उसे पुरुस्कृत भी कर रहे हैं। हमने यह सवाल नहीं पुछा कि भारत में 42 कृषि विश्वविद्यालय और 193 कृषि महाविद्यालय हैं, उन विश्वविद्यालयों ने भारतीय सन्दर्भ में खेती के विकास के लिए जिम्मेदार भूमिका क्यों नहीं निभाई। ये क्यों ईमानदार तरीके से शोध और परीक्षणों का काम नहीं कर सकते थे, क्यों ये बीजों को उन्नत करने की तकनीकों पर काम नही करते! यही कारण है जिनके चलते रसायनमुक्त खेती भारत से लुप्तप्राय होती गई। ऐसे में हमें क्यों यह जरूरत पड़ रही है कि विदेशी कंपनियों, जिनके लाभ के लिए अपने निहित स्वार्थ हैं और जिनके बारे में यह स्थापित है कि उनकी रूचि किसानों के हितों में नहीं बल्कि आर्थिक लाभ में है।ये कम्पनियाँ बार-बार ऐसे बीज विकसित करती हैं, जिनसे होने वाली पैदावार से अगली बुआई या फसल के लिए उत्पादक बीज नहीं मिल सकते है।
मतलब कि हर फसल से समय पर किसान को एक ख़ास कंपनी के बीज खरीदने पड़ेंगे। उन्होंने ऐसी व्यवस्था भी विकसित कर ली है कि एक ख़ास कंपनी के बीजों पर उसके द्वारा बनाए जाने वाले कीटनाशक और उर्वरक ही प्रभावी होंगे। मतलब साफ़ है कि किसान पूरी तरह से एक कंपनी का बंधुआ होगा। और नयी नीति में सरकार ने इस बन्धुआपन की पूरी तैयारी कर दी है। सरकार ईमानदार नहीं है इसीलिए तो उसने देश में कृषि शिक्षा को बढ़ावा नहीं दिया, यह कारण है कि वह देश के किसानों के विज्ञान से ज्यादा कंपनियों के लाभ को ज्यादा महत्वपूर्ण मानती है, इसीलिए तो वह अनाज व्यापार के लिए उगाना चाहती है स्वाबलंबन और खाद्य सुरक्षा के लिए नहीं। इसीलिये तो वह देश में कुपोषण और भुखमरी होने के बावजूद देश का अनाज निर्यात करती है या समुद्र में डुबो देती है। इसलिए तो वह यह जानते हुए कि 10 लाख टन अनाज गोदामों में सड़ रहा है पर देश के के लोगों में नहीं बांटती है। सरकार ईमानदार नहीं है।
हम बुनियादी रूप से यह मानते हैं कि भारत में चूंकि 67 प्रतिशत जनसंख्या खेती पर निर्भर है और अब बड़े पैमाने पर किसान भी खेती के स्थाई विकास के लिये रासायनिक खेती को छोड़कर जैविक खेती को अपना रहा है; ऐसी स्थिति में इस क्षेत्र में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के दखल को खत्म करने की जरूरत है। आंध्रप्रदेश के 23 जिलों के किसान रसायनमुक्त खेती कर रहे हैं पर अब तक देश में इसकी कोई ऐसी नीति नहीं है जो किसानों को बड़े दानवों से सुरक्षित करने की व्यवस्था देती हो। दूसरा बिंदु यह महत्वपूर्ण है कि जैविक खेती के लिये उत्पादन के एक पूरे तंत्र की जरूरत होती है। जिसमें विविध किस्मों के अनाज का उत्पादन, पशुधन का संरक्षण, स्थानीय उर्वरकों और कीटनाशकों का उत्पादन शामिल है। इस बात में शक है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियां इस तरह की व्यवस्था को खड़ा करने में कोई रूचि दिखायेंगी। और पूरी आशंका है कि इसके बजाये वे जैव संशोधित बीजों का उपयोग करेंगी और किसी न किसी रूप में रसायनों का उपयोग करती रहेंगी। यानी जैविक खेती को नये खतरों का सामना करना पड़ेगा।
3. अनाज क्या शोरूम में मिलेगा!
खाद्य सुरक्षा की व्यवस्था में जितना उत्पादन का तंत्र महत्वपूर्ण है; उतना ही महत्वपूर्ण है बाजार का तंत्र। भारत में 2.9 करोड़ लोग भोजन और भोजन से सम्बन्धित सामग्री का व्यापार करते हैं। वे केवल लाभ के लिये व्यापार नहीं करते हैं बल्कि खाद्य सुरक्षा की परिभाषा के महत्वपूर्ण हिस्से ‘‘पहुंच’’ को सुनिश्चित करने में उनकी केन्द्रीय भूमिका रही है। अब इस ‘‘बाजार’’ पर प्रमुख भोजन व्यापार कम्पनियां अपना मिला-जुला एकाधिकार चाहती है। वालमार्ट, रिलायंस, भारती, ग्लेक्सो स्मिथ कंज्यूमर हेल्थ केयर, नेस्ले, केविनकरे, फील्ड फ्रेश फूड, डेलमोंटे, बुहलर इंडिया, पेप्सीको, और कोका कोला शामिल है। बाजार विष्लेषण करने वाली एक कम्पनी आर.एन.सी.ओ.एस. की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक भोजन का बाजार भारत में 7.5 प्रतिशत की दर से हर साल बढ़ रहा है और वर्ष 2013 में यह 330 बिलियन डालर के बराबर होगा। एपीडा (एग्रीकल्चयरल एण्ड प्रोसेस्ड फूड प्रोडक्ट्स एक्सपोर्ट डेवलमेन्ट कार्पोरेषन अथारिटी) के मुताबिक वर्ष 2014 में भारत से 22 बिलियन डालर के कृषि उत्पाद निर्यात हो सकते हैं जबकि वर्ष 2009-10 में फूलों, फलों, सब्जियों, पशु उत्पाद प्रोसेस्ड फूड और बारीक अनाज का निर्यात 7347.07 मिलियन डालर के बराबर हुआ। अब सरकार खाद्य प्रसंस्करण (प्रोसेसिंग) के जरिये दूसरी हरित क्रांति लाने की प्रक्रिया में है; जिस पर डेढ़ लाख करोड़ रूपये खर्च किये जायेंगे। इस हरित क्रांति के केन्द्र में खेत और किसान नहीं बल्कि प्राकृतिक संसाधनों, उत्पादन तंत्र पर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को नियंत्रण सौंपना है।
भारत के खाद्य प्रसंस्करण मंत्री सुबोधकांत सहाय के मुताबिक भारत सरकार इसमें अगले 5 साल में 21.9 बिलियन डॉलर का निवेश करेगी। इस निवेष का मकसद होगा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और वित्तीय संस्थानों के लिये अनुकूल माहौल तैयार करना। बाजार के विश्लेषकों का मनना है कि खाद्य प्रसंस्करण के क्षेत्र का हिस्सा 6 प्रतिशत से 20 प्रतिशत होने की पूरी संभावनायें हैं और दुनिया के प्रसंस्करण खाद्यान्न बाजार में भारत की हिस्सेदारी 1.5 प्रतिशत से बढ़कर 3 प्रतिशत हो जायेगी। जहां तक इसमें प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का मसला है; यह बढ़कर 264.4 मिलियन डालर का हो गया है। केवल 8 कम्पनियां (केविनकरे, नेस्ले, ग्लेक्सो, यम! रेस्टोरण्ट्स इंडिया, फील फ्रेश फूड, बहलर इण्डिया, पेप्सी और कोकोकोला) ही अगले दो सालों में 1200 मिलियन डालर का निवेष खाने-पीने का सामान बनाने वाले उद्योग में करने वाली हैं। इन्हें तमाम रियायतों के साथ ही पहले 5 वर्षों तक उनके पूरे फायदे पर 100 फीसदी आयकर में छूट और फिर अगले पांच वर्षों तक 25 फीसदी छूट मिलेगी। एक्साइज ड्यूटी आधी कर दी गई है यानी सरकार के बजट से उनका फायदा तय किया गया है; पर किसान के लिये सारी छूटें खत्म है।
ये कुछ बड़े-बड़े आंकड़े है; कुल मिलाकर बमनुमा; जो आप पर गिरा दिये गये हैं। परन्तु इन आंकड़ों में ही विध्वंस भी छिपा हुआ है। पिछले 20 वर्षों में भारत के योजना आयोग और आर्थिक सलाहकारों ने बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के एजेण्ट की भूमिका निभाकर यह तय कर लिया है कि हमें कृषि का ऐसा औद्योगिकीकरण करना है जो कम्पनियों के हाथ में हो। इसलिये वर्ष 2005 में उन्होंने कम्पनियों को किसानों से सीधे अनाज खरीदने की अनुमति दे दी, जिसका परिणाम यह हुआ कि अपनी ही जरूरतें पूरी करने के लिए भारत सरकार को दो गुना दामों पर 53 लाख टन अनाज आस्ट्रेलिया, कनाडा और यूक्रेन से अनाज खरीदना पड़ा। पिछले 4 वर्षों में अनाज की खुले बाजार में कीमतें 70 से 120 प्रतिशत तक बढ़ीं पर सरकार ने किसानों के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य में महज 20 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी की। यह जानते हुऐ कि बढ़ी हुई कीमतों का फायदा दलाल और ट्रेडर उठा रहे हैं उन्हें नियंत्रित करने के लिये कोई नीति नहीं बनाई गई। सरकार को अनाज की कम खरीद करना पड़े इसलिये गरीबी की रेखा को छोटा किया गया ताकि सार्वजनिक वितरण प्रणाली का दायरा और छोटा हो जाये। यह इसलिये भी किया गया ताकि कम्पनियों को किसानों से मनमानी कीमत पर अनाज खरीदने का मौका मिल सके। इस अनाज का उपयोग निर्यात करने में किया जा रहा है और प्रसंस्करण के लिये भी। गेहूं से रोटी नहीं बल्कि डबलरोटी, नूडल्स, बिस्किट और डिब्बा बंद खाद्य पदार्थ बनाने के लिये उपयोग किया जाना प्राथमिक बना दिया गया है। लगभग 10 लाख हेक्टेयर सबसे उपजाऊ जमीन पर फूल और ऐसे फल उगाये जा रहे हैं; जिनसे रस, शराब और विलासिता के पेय बनते हैं।
मध्यप्रदेश में तीन कम्पनियाँ अघोषित रूप से अनुबंध की खेती करके चिप्स के लिये आलू और चटनी के लिये टमाटर-हरीमिर्च की खेती करवा रही हैं। इससे खेती की विविधता खत्म हुई है। झाबुआ में तो इसे ऐसे प्रोत्साहित किया गया कि वहां टमाटर के लिये एक एकड़ खेत में 600 से 800 किलो रासायनिक ऊर्वरकों का उपयोग होने लगा और अब मिट्टी की उर्वरता लगभग पूरी तरह से खत्म हो चुकी है। सबसिडी कम करने की नीति के तहत अब यूरिया, डीएपी पर दी जाने वाली रियायत भी खत्म हो चुकी है, डीजल के दाम बढते रहे हैं और बिजली की कीमतें पिछले पांच वर्षों में 190 फीसदी बढ़ाई जा चुकी है। इससे गेहूं की उत्पादन की लागत अब लगभग 1650 रूपये पर पहुंच गई है परन्तु भारत सरकार ने इस वर्ष न्यूनतम समर्थन मूल्य तय किया है 1120 रूपये। किसान के लिये दालों का समर्थन मूल्य है 32 रूपये पर बाजार में दालों की कीमत है 60 से 90 रूपये। क्या सरकार खुद किसानों की आत्महत्या का कारण नहीं है!!
हमारा विश्लेषण यह बताता है कि खेती की व्यवस्था के हर हिस्से (संसाधनों और उत्पादन तंत्र, मार्केटिंग और आपूर्ति, व्यवहार और उपभोग के तौर-तरीकों पर नियंत्रण) में अब कम्पनियों का दखल हो चुका है। अब तक वे प्रसंस्करण या डिब्बा बंद सामग्री बनाने में शामिल थे, पर अब कच्चे माल के उत्पादन पर उनका नियंत्रण है जिससे न तो किसान यह तय कर पा रहा है कि उसे क्या पैदा करना है न ही उसे यह स्पष्ट हो रहा है कि सरकार उसे क्या संरक्षण देगी!! यह जानना उल्लेखनीय है कि कारफोर, वालमार्ट, रिलायंस, भारती, फ्यूचर वेल्यू रिटेल, स्पाट हायपर मार्केट्स जैसे समूह 510 सुपर मार्केट और माल्स की श्रृंखला खड़ी करने वाले हैं। दिल्ली बेंगलूर, कलकत्ता, मुम्बई आदि में रहने के लिये कुछ वर्गमीटर जमीन नहीं मिल पा रही है परन्तु नाईट फ्रेंक इण्डिया की रिपोर्ट इण्डिया आर्गनाइज्स रीटेल मार्केट 2010 के मुताबिक मुम्बई में 2010 से 2012 के दौरान 5.5 करोड़ वर्गफिट स्थान फुटकर व्यापार के लिये कम्पनियों के लिये उपलब्ध होगा; कहां से आयेगी यह जगह ? जी हां, झुग्गियों और फुटपाथ पर काम करने वालों को विस्थापित करके।
इन बाजारों से फुटकर बाजार को संचालित करने वालों के सामने जीवन का संकट खड़ा हो गया है क्योंकि अब सब कुछ वहीं मिलता है वह भी डिब्बा बंद या तथाकथित गुणवत्ता के साथ। इस व्यवस्था के जरिये बड़े समूह अब यह तय करने लगे हैं कि उपभोक्ता क्या खायेंगे और क्या पियेंगे। इस सुनियोजित व्यापारी षडयंत्र से किसान और समाज दोनों को लाचारी महसूस हो रही है। किसानों पर इसका असर दिखने लगा है इसलिए 48 प्रतिशत किसान यह कहते हैं कि दूसरा विकल्प मिलने पर फौरन खेती छोड़ देंगे क्योंकि अब न तो वे कमा पा रहे हैं न ही भविष्य में संभावनायें देख पा रहे हैं और सरकार भी दुश्मन सी ही लगती है। आखिर में सिर्फ इतनी सी बात कहना चाहता हूं कि सरकार की नीति, किसानों की आत्महत्या और 76 फीसदी लोगों के भूखे रहने की स्थिति के बीच बिल्कुल सीधे संबंध हैं।
4. सरकार की वृद्धिदर मांगती है खेती की बलि
हमारी सरकार जीडीपी यानी सकल घरेलु उत्पाद में 8 और 9 और 10 प्रतिशत की वृद्धि की तान पर अपना राग अलापते रहते हैं। उनके आलाप का आनंद यह है कि यह वृद्धि हासिल करना बहुत आसान और बहुत खतरनाक एक साथ है। बहुत आसान इसलिए कि जो कुछ भी खरीदा और बेचा जाता है उसमे धन का लेन-देन होता है, सरकार के खजाने में भी पैसा आता है और माना जाता है कि लोगों की भी उन्नति हुई। जिससे पैसा नहीं आता है वह जीडीपी के लिए बेकार है। बात को थोड़ा और साफ़ करते हैं। जंगल, जमीन, पानी, खनिज पदार्थ, पहाड़ यह सब कुछ हमारे संसाधन हैं। जब तक जंगल बचा हुआ है, जीडीपी नहीं बढती है, जब उसे सरकार या कंपनी काटती है, तब धन आता है। जब पानी कल-कल करके बहता रहता है, उसका सरकार के लिए कोई मूल्य नहीं है, पर जब क़ानून बना कर उसके उपयोग पर लोगों का हक सीमित कर दिया जाता है तो संकट बढ़ता है। और फिर उस पर कंपनी को कब्ज़ा देकर भारी कीमत वसूली जाने लगती है तो जीडीपी बढती है।
यदि लोग स्वस्थ रहते हैं, तो मोंटेक और मनमोहन सिंह वाला विकास नहीं होता है, जब लोग बीमार पड़ते तब जी.डी.पी बढती है। अब यदि ये वैसा वाला विकास चाहते हैं और उसके लिए काम कर रहे हैं, तो इसका मतलब है कि न तो जंगल बचेगा, न नदी और पहाड़, न खनिज, न जमीन और न स्वास्थ्य। पिछले 10 वर्षों र्में सरकार ने 10 लाख हेक्टयर जमीन बेंची है, अपनी यानी सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों में बहुत सी हिस्सेदारी बेचीं है, रेलवे ने अपनी जमीनें बेंची हैं, जो जंगल समुदाय की पारंपरिक संपत्ति है, उसके पेड़ और उसका खनिज बेचा है, कोयले, बाक्साईट, लोहा पत्थर और संगमरमर के लिए जमीनों के खनन की अनुमति दी है जिससे लाखों हेक्टयर जमीन लम्बे समय के लिए बेकार हो गई। तपेदिक और सिलिकोसिस जैसे बीमारी वहाँ पनपी और हज़ारों की जान लील ली। तब कहीं जाकर हमें 9 प्रतिशत की वृद्धि दर हासिल हो पायी है। इसी दौरान खेती में यह दर नकारात्मक हो गई, जिसमे सरकार को कोई समस्या नज़र नहीं आती। वह तो कह ही रहे हैं, लोगों को गाँव और खेती से बाहर निकालकर इस क्षेत्र के योगदान को छः प्रतिशत करने का लक्ष्य रखा है और खेती से जितना योगदान होने भी वाला है, उसमे बड़ी-बड़ी कम्पनियों को आने के लिए दरवाज़े खोल दिए गए हैं। और सरकार मानती है कि इससे खेती और किसानों की हालात सुधर जायेंगे। खेती को जो नुक्सान नीतिगत और सुनियोजित तरीके से पहुंचाया गया है वह बहुत दूर तक अपने प्रभाव दिखाएगा। जरा इन जानकारियों पर नजर डालें –
कृषि व्यवस्था में कारपोरेट निवेष के ये केवल 8 उदाहरण हैं जो 971.54 मिलियन डालर यानी 45.72 अरब रूपए का निवेश अगले दो सालों में करने वाले हैं। यह निवेश किसानोंए फुटकर व्यापारियों और गाँव की अर्थव्यवस्था के और गहरा नुकसान पंहुचाने का काम करेगा और अगर सरकार की बात की जाए तो सुनिए। सरकार इन कंपनियों को मदद करने के लिए अनुबंध की खेती को बढ़ावा देने और इस क्षेत्र (खाद्य प्रसंस्करण) को करमुक्त क्षेत्र बना चुकी है। सरकार की 30 बड़े फ़ूड पार्क बनाने की योजना है, ये एक तरह के विशेष खाद्य प्रक्षेत्र होंगे। अब हमारे देश की जीडीपी और बढने वाली है!
जो कंपनिया खाद्य प्रसंस्करण के क्षेत्र में निवेश कर रही हैं, उन्हें शुरू के 5 सालों तक आयकर 100 प्रतिशत और फिर अगले 5 सालों तक 25 प्रतिशत छूट का प्रावधान किया जा चुका है। डिब्बाबंद खाने के सामान पर एक्साईस ड्यूटी 16 प्रतिशत से घटाकर 8 प्रतिशत कर दी गयी है। अर्नेस्ट एंड यंग की रिपोर्ट फ्लेवर्स ऑफ इनक्रेडिबल इंडिया के मुताबिक़ भारत में खाने का बाज़ार 2015 में 181 बिलियन डालर और वर्ष 2020 में 318 बिलियन डालर होगा, जिसका ज्यादातर हिस्सा संगठित क्षेत्र यानी बड़ी कंपनियों के नियंत्रण में होगा। जरा यह भी जानें कि पिछले 15 वर्षों र्में भारत के शहरों-गाँव में नमकीन बनाने वाली 13 हज़ार छोटी इकाइयां बंद हो चुकी हैं।
1990 के दशक में जब आर्थिक उदारीकरण की नीतियां लागू की गई थी तब खेती के लिये लगभग 220 हजार करोड़ रूपये की सरकारी रियायत होती थी। पिछले 20 वर्षों का बदलाव यह है कि वर्ष 2011 में भारत सरकार ने किसानों के लिये सबसिडी 100 हजार करोड़ रूपये से कम कर दी और इस वर्ष किसानों के लिए 375 हजार करोड़ रूपये कर्ज देने का प्रावधान किया है। सरकार यह मानने के लिये तैयार नहीं है कि किसानों के लिये कृषि सबसिडी उपभोक्ताओं के लिये भी जरूरी है। इसी से किसानों को खेती करने का प्रोत्साहन मिलेगा, उत्पादन की लागत कम रहेगी और उपभोक्ताओं को उचित कीमत पर मूलभूत जरूरतों के कृषि उत्पाद मिल सकेंगे। इसका असर हम साफ देख सकते हैं, खेती की लागत बढ़ाना, किसानों पर कर्ज बढ़ाना और अब बेकाबू मंहगाई - उत्पादन करने वाला आत्महत्या कर रहा है और उपभोक्ता भुखमरी का शिकार है। ऐसे में हमारे वाणिज्यिक मंत्री कमलनाथ ने कहा कि अनाज कम इसलिये पड़ रहा है क्योंकि भारत के लोग ज्यादा खाने लगे हैं, कृषि मंत्री (जिनकी रूचि अपने काम से ज्यादा क्रिकेट के खेल में है) शरद पवार ने कहा मंहगाई कम करना हमारी जिम्मेदारी नहीं है, वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी कहते हैं कि मंहगाई कम करना हमारे हाथ में नहीं है और प्रधानमंत्री ने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय हमें सरकारी गोदामों में भरे करोड़ों टन अनाज को गरीबों में बांटने को न कहे, यह एक नीतिगत मसला है (दूसरे शब्दों में इससे व्यापार कर रही कम्पनियों को नुकसान होगा और सरकार यह नहीं चाहती है)।
भोजन और उससे जुड़े उत्पादनों के बाज़ार पर एकाधिकार करने के मकसद से शोधए प्रशिक्षण, उत्पादन और विपणन के साथ-साथ बहुराष्ट्रीय कंपनियों (हिंदुस्तान यूनीलीवर, पेप्सिको, कोका कोला, आईटीसी, नेस्ले, ब्रिटानिया आदि) के अधिकारियों-कर्मचारियों को राष्ट्रीय खाद्य नियामक इकाई (भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकारी) के 8 वैज्ञानिक पेनल पर नियुक्त कर दिया गया है। यही पेनल खाद्य पदार्र्थों और भोजन में पोषण, कीटनाशक अवयव, विज्ञापनों में किये जाने वाले दावों पर नज़र रखने और नियम बनाने की जिम्मेदारी निभाता है.। अब आप सोचिये कि क्या भारत सरकार के इतने महत्वपूर्ण और संवेदनशील पेनल केवल कंपनियों के हितों की रक्षा करने का काम नहीं करेंगे। और सवाल यह कि सरकार बाज़ार की इन ताकतों को नियमन और निगरानी की आधिकारिक जिम्मेदारी कैसे दे देती है ?
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