Friday, August 26, 2016

उत्तराखंड का चिपको आंदोलन

चिपकोआंदोलन
चिपको आंदोलन की मांगे चिपको और इस आंदोलन में महिलाओं की भूमिका
हम जब से चिपको आंदोलन के बारे में पढ़ते है तो सबसे पहले हमारे सामने राजस्थान के अमृता देवी बिश्नोई की वृक्षों से चिपक कर आत्माहुति देने वाली घटना आती है। परंतु उत्तराखंड का चिपको आंदोलन भी बहुत प्रेरणादाई है। इसके बारे में सुना बहुत है परंतु अधिक विस्तार से नहीं सुना था। आज ही नेट पर किसी लेखक का निम्न लेख पढ़ा तो बहुत प्रेरक लगा। आइये आप भी देखें।
चिपको आंदोलन मूलत: उत्तराखण्ड के वनों की सुरक्षा के लिए वहां के लोगों द्वारा 1970 के दशक में आरम्भ किया गया आंदोलन है। इसमें लोगों ने पेड़ों केा गले लगा लिया ताकि उन्हें कोई काट न सके। यह आलिंगन दर असल प्रकृति और मानव के बीच प्रेम का प्रतीक बना और इसे "चिपको " की संज्ञा दी गई। चिपको आंदोलन के पीछे एक पारिस्थितिक और आर्थिक पृष्ठभूमि है। जिस भूमि में यह आंदोलन अपजा वह 1970 में आई भयंकर बाढ़ का अनुभव कर चुका था। इस बाढ़ से 400 कि०मी० दूर तक का इलाका ध्वस्त हो गया तथा पांच बढ़े पुल, हजारों मवेशी, लाखों रूपये की लकडी व ईंधन बहकर नष्ट हो गयी। बाढ़ के पानी के साथ बही गाद इतनी अधिक थी कि उसने 350 कि०मी० लम्बी ऊपरी गंगा नहर के 10 कि०मी० तक के क्षेत्र में अवरोध पैदा कर दिया जिससे 8.5 लाख एकड़ भूमि सिंचाई से वंचित हो गर्ई थी और 48 मेगावाट बिजली का उत्पादन ठप हो गया था। अलकनदा की इस त्रासदी ने ग्रामवासियों के मन पर एक अमिट छाप छोड़ी थी और उन्हें पता था कि लोगों के जीवन में वनों की कितनी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। चिपको आंदोलन को ब्रिटिशकालीन वन अधिनियम के प्रावधानों से जोड कर भी देखा जा सकता है जिनके तहत पहाड़ी समुदाय को उनकी दैनिक आवश्यकताओं के लिए भी वनों के सामुदायिक उपयोग से वंचित कर दिया गया था। स्वतंत्र भारत के वन-नियम कानूनों ने भी औपनिवेशिक परम्परा का ही निर्वाह किया है। वनों के नजदीक रहने वाले लोगों कोवन-सम्पदा के माध्यम से सम्मानजनक रोजगार देने के उद्देश्य से कुछ पहाड़ी नौजवानों ने 1962 में चमोली जिले के मुख्यालय गोपेश्वर में दशौली ग्राम स्वराज्य संघ बनाया था। उत्तर प्रदेश के वन विभाग ने संस्था के काष्ठ-कला केंद्र को सन् 1972-73 के लिए अंगु के पेड़ देने से इंकार कर दिया था। पहले ये पेड़ नजदीक रहने वाले ग्रामीणों को मिला करते थे। गांव वाले इस हल्की लेकिन बेहद मजबूत लकडी से अपनी जरूरत के मुताबिक खेती- बाड़ी के औजार बनाते थे। गांवों के लिए यह लकडी बहुत जरूरी थी। पहाडी खेती में बैल का जुआ सिर्फ इसी लकड़ी से बनाया जाता रहा है, पहाड में ठण्डे मौसम और कठोर पथरीली जमीन में अंग के गुण सबसे खरे उतरते हैं। इसके हल्केपन के कारण बैल थकता नहीं। यह लकड़ी मौसम के मुताबिक न तो ठण्डी होती है, न गरम, इसलिए कभी फटती नहीं है और अपनी मजबूती के कारण बरसों तक टिकी रहती है। इसी बीच पता चला कि वन विभाग ने खेल-कूद का सामान बनाने वाली इलाहाबाद की साइमंड कम्पनी का गोपेश्वर से एक किलोमीटर दूर मण्डल नाम के वन से अंगू के पेड़ काटने की इजाजत दे दी है। वनों के ठीक बगल में बसे गांव वाले जिन पेडों को छू तक नहीं सकते थे, अब उन पेडों को दूर इलाहाबाद की एक कम्पनी को काटकर ले जाने की इजाजत दे दी गई। अंगू से टेनिस, बैडमिंटन जैसे खेलों का सामान मैदानी कम्पनियों में बनाया जाये-इससे गांव के लोगों या दशौली ग्राम स्वराज्य संघ को कोई एतराज नही था। वे तो केवल इतना ही चाहते थे कि पहले खेत की जरूरतें पूरी की जाये और फिर खेल की। इस जायज मांग के साथ इनकी एक छोटी-सी मांग और भी थी। वनवासियों को वन संपदा से किसी-न-किसी किस्म का रोजगार जरूर मिलना चाहिए ताकि वनों की सुरक्षा के प्रति उनका प्रेम बना रह सके। चिपको आंदोलन का मूल केंद्ररेनी गांव (जिला चमोली) था जो भारत-तिब्बत सीमा पर जोशीमठ से लगभग 22 किलोमीटर दूर ऋषिगंगा और विष्णुगंगा के संगम पर बसा है। वन विभाग ने इस क्षेत्र के अंगू के 2451 पेड़ साइमंड कंपनी को ठेके पर दिये थे। इसकी  इसकी खबर मिलते ही च<डी प्रसाद भट्ट के नेत्तट्टव में 14 फरवरी, 1974 को एक सभा की गई जिसमें लोगों को चेताया गया कि यदि पेड़ गिराये गये, तो हमारा अस्तित्व खतरे में पड जायेगा। ये पेड़ न सिर्फ हमारी चारे, जलावन और जड़ी-बूटियों की जरूरते पूरी करते है, बल्कि मिट्टी  का क्षरण भी रोकते है।

इस सभा के बाद 15 मार्च को गांव वालों ने रेनी जंगल की कटाई के विरोध में जुलूस निकाला। ऐसा ही जुलूस 24 मार्च को विधार्र्थियों ने भी निकाला। जब आंदोलन जोर पकडने लगा ठीक तभी सरकार ने घोषणा की कि चमोली में सेना के लिए जिन लोगों के खेतों को अधिग्रहण किया गया था, वे अपना मुआवजा ले जाएं। गांव के पुरूष मुआवजा लेने चमोली चले गए। दूसरी ओर सरकार ने आंदोलनकारियों को बातचीत के लिए जिला मुख्यालय, गोपेश्वर बुला लिया। इस मौके का लाभ उठाते हुए ठेकेदार और वन अधिकारी जंगल में घुस गये। अब गांव में सिर्फ महिलायें ही बची थीं। लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। बिना जान की परवाह किये 27 औरतों ने श्रीमती गौरादेवी के नेतृट्टव में चिपको-आंदोलन शुरू कर दिया। इस प्रकार 26 मार्च, 1974 को स्वतंत्र भारत के प्रथम पर्यावरण आंदोलन की नींव रखी गई।
चिपको आंदोलन की मांगे
चिपको आंदोलन की मांगें प्रारम्भ में आर्थिक थीं, जैसे वनों और वनवासियों का शोषण करने वाली दोहन की ठेकेदारी प्रथा को समाप्त कर वन श्रमिकों की न्यूनतम मजदूरी का निर्धारण, नया वन बंदोबस्त और स्थानीय छोटे उद्योगों के लिए रियायती कीमत पर कच्चे माल की आपूर्ति। धीरे-धीरे चिपको आंदोलन परम्परागत अल्पजीवी विनाशकारी अर्थव्यवस्था के खिलाफ स्थायी अर्थव्यवस्था-इकॉलाजी का एक सशक्त जनआंदोलन बन गया। अब आंदोलन की मुख्य मांग थी- हिमालय के वनों की मुख्य उपज राष्ट्र के लिए जल है, और कार्य मिट्टी  बनाना, सुधारना और उसे टिकाए रखना है। इसलिए इस समय खड़े हरे पेड़ों की कटाई उस समय (10 से 25 वर्ष) तक स्थगित रखी जानी चाहिए जब तक राष्ट्रीय वन नीति के घोषित उददेश्यों के अनुसार हिमालय में कम से कम 60 प्रतिशत क्षेत्र पेड़ों से ढक न जाए। मृदा और जल संरक्षण करने वाले इस प्रकार के पेड़ों का युद्ध स्तर पर रोपण किया जाना चाहिए जिनसे लोग भोजन-वस्त आदि की अनिवार्य आवश्यकतों में स्वावलम्बी हो सकें।
रेनी में हुए चिपको की खबर पाकर अगले दिन से आसपास के एक दर्जन से अधिक गांवों के सभी पुरुष बड़ी संख्या में वहां पहुंचने लगे। अब यह एक जन-आंदोलन बन गया। बारी-बारी से एक-एक गांव पेड़ों की चौकसी करने लगा। दूर-दराज के गांवो में चिपको का संदेश पहुँचाने के लिए विभिन्न पद्घतियों का सहारा लिया गया जिनमे प्रमुख थे पदयात्राएँ, लोकगीत तथा कहानियाँ आदि। लोकगायकों ने उत्तेजित करने वाले गीत गाये। उन्होंने वनों की कटाई और वन आधारित उद्योगों से रोजगार के अल्पजीवी अर्थव्यवस्था के नारे--
"क्या हैं जंगल के उपकार, लीसा, लकडी और व्यापार"
को चुनौति देते हुए इससे बिल्कुल भिन्न स्थाई
अर्थ-व्यवस्था के इस मंत्र का घोष किया--
"क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार।
मिट्टी , पानी और बयार, जिंदा रहने के आधार।"
गोपेश्वर में वन की कटाई के सफलता-पूर्वक रूकते ही वन आंदोलन ने जोर पकड लिया। सुदूरलाल बहुगुणा के नेतृट्टव में चमोली जिले में एक पदयात्राओं का आयोजन हुआ। आंदोलन तेजी से पहले उत्तरकाशी और फिर पूरे पहाडी क्षेत्र में फैल गया।
इन जागृत पर्वतवासियों के गहरे दर्द ने पदयात्रियों, वैज्ञानिकों और राजनीतिज्ञों के दिलोदिमाग पर भी असर किया। 9 मई, 1974 को उत्तर प्रदेश सरकार ने चिपको आंदोलन की मांगों पर विचार के लिए एक उच्चस्तरीय समिति के गठन की घोषणा की। दिल्ली विश्वविद्यालय के वनस्पति-विज्ञानी श्री वीरेन्द्र कुमार इसके अध्यक्ष थे। गहरी छानबीन के बाद समिति ने पाया कि गांव वालों ओर चिपको आंदोलन कारियों की मांगे सही हैं। अक्टूबर, 1976 में उसने यह सिफारिश भी कि 1,200 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में व्यावसायिक वन-कटाई पर 10 वर्ष के लिए रोक लगा दी जाए। साथ ही समिति ने यह सुझाव भी दिया कि इस क्षेत्र के महट्टवपूर्ण हिस्सों में वनरोपन का कार्य युद्धस्तर पर शुरू किया जाए। उत्तरप्रदेश सरकार ने इन सुझावों को स्वीकार कर लिया। इस रोक के लागु होने के कारण 13,371 हेक्टेयर की वन कटाई योजना वापस ले ली गई। चिपको आदोलन की यह बहुत बड़ी विजय थी।
चिपको आंदोलन कई मामलों में सफल रहा। यह उत्तर प्रदेश में 1000 मीटर से अधिक की ऊँचाई पर पेड़-पौधों की कटाई, पश्चिमी घाट और विंध्य में जंगलों की सफाई (क्लियर फेंलिंग) पर प्रतिबंध लगवाने में सफल रहा। साथ ही, एक राष्ट्रीय वन नीति हेतु दबाव बनाने में सफल रहा है, जो लोगों की आवश्यकताओं एवं देश विकास के प्रति अधिक संवेदनशील होगी। रामचंद्र गुहा के शब्दों में चिपको प्राकृतिक संसाधनों से संबद्घ संघषों की व्यापकता का प्रतिनिधिट्टव करता है। इसने एक राष्ट्रीय विवाद का हल प्रदान किया। विवाद यह था कि हिमालय के वनों की सर्वाधिक सुरक्षा किसके हाथ होगी--स्थानीय समुदाय, राज्य सरकार या निजी पूंजीपतियों के हाथ। मसला यह भी था कि कौन से पेड़-पौधे लगाए जाएं-शंकु वृक्ष, चौडै पत्ते वाले पेड़ या विदेशी पेड़ और फिर सवाल उठा कि वनों के असली उत्पाद क्या हैं- उद्योगों के लिए लकड़ी, गांव के लोगों के लिए जैव संपदा, या पूरे समुदाय के लिए आवश्यक मिट्टी , पानी और स्वक्वछ हवा। अत: पूरे देश के लिए वन्य नीति निर्धारण की दिशा में इस क्षेत्रीय विवाद ने एक राष्ट्रीय स्वरूप ले लिया।
चिपको ने विकास के आधुनिक मॉडल के समक्ष एक विकल्प पेश किया है। यह आम जनता की पहल का परिणा था। यह आंदोलन भी गांधीवादी संघर्ष का ही एक रूप था क्योंकि इसमे भी अन्यायपूर्ण, दमनकारी शासन व्यवस्था का निरोध किया गया जो पर्यावरण संरक्षण के नाम पर उसका शोषण कर रहा था। इस आंदोलन को वास्तविक नेतृट्टव भी गांधीवांदी कार्यकत्ताओं मुख्यत: चंडीप्रसाद भट्ट और सुंदर लाल बहुगुढा से मिला जिनके द्वारा प्रयोग की गई तकनीक भी गांधी जी के सट्टयाग्रह से प्रे्ररित थी। वंदना शिवा और जयंत वंदोपाध्याय के शब्दों में "ऐतिहासिक दार्शनिक और संगठनात्मक रूप से चिपको आंदोलन पारंपरिक गांधीवादी सत्याग्रहों का विस्तृत स्वरूप था"
चिपको आंदोलन में महिलाओं की भूमिका
चिपको आंदोलन को प्राय: एक महिला आंदोलन के रूप में जाना जाता है क्योंकि इसके अधिकांश कार्यकर्ताओं में महिलाएं ही थीं तथा साथ ही यह आंदोलन नारीवादी गुणों पर आधारित था। 26 मार्च, 1974 को जब ठेकेदार रेणी गांव में पेड़ काटने आये, उस समय पुरुष घरों पर नहीं थे। गौरा देवी के नेतृट्टव में महिलाओं ने कुल्हाड़ी लेकर आये ठेकेदारों को यह कह कर जंगल से भगा दिया कि यह जंगल हमारा मायका है। हम इसे कटने नहीं देंगी। मायका महिलाओं के लिए वह सुखद स्थान है जहाँ संकट के समय उन्हें आश्रय मिलता है। वास्तव में पहाड़ी महिलाओं और जंगलों का अटूट संबंध है। पहाड़ों की उपजाऊ मिट्टी के बहकर चले जाने से रोजगार के लिए पुरुषों के पलायन के फलस्वरूप गृहस्थी का सारा भार महिलाओं पर ही पड़ता है। पशुओं के लिए घास, चारा, रसोई के लिए ईंधन और पानी का प्रबंध करना खेती के अलावा उनका मुख्य कार्य है। इनका वनों से सीधा संबंध है। वनों की व्यापारिक दोहन की नीति ने घास-चारा देने वाले चौड़ी पत्तियों के पेड़ों को समाप्त कर चीड़, देवदार के शंकुधारी धरती को सूखा बना देने वाले पेड़ों का विस्तार किया है। मोटर-सडक़ों के विस्तार से होने वाले पेड़ों के कटाव के कारण रसोई के लिए ईंधन का आभाव होता है। इन सबका भार महिलाओं पर ही पड़ता है। अत: इस विनाशलीला को रोकने की चि<ता वनों से प्रट्टयक्ष जुड़ी महिलाओं के अलावा और कौन कर सकता है। वे जानती हैं कि मिट्टी  के बहकर जाने से तथा भूमि के अनुपजाऊ होने से पुरुषों को रोजगार के लिए शहरों में जाना पड़ता है। मिटटी रुकेगी और बनेगी तो खेती का आधार मजबूत होगा। पुरुष घर पर टिकेंगे। इसका एक मात्र उपाय है - हरे पेड़ों की रक्षा करना क्योंकि पेड़ मिटटी को बनाने और पानी देने का कारखाना हैं।
रेणी के पश्चात् (चिपको के ही क्रम में) 1 फरवरी, 1978 को अदवाणी गांव के जंगलों में सशस्त्र पुलिस के 50 जवानों की एक टुकड़ी वनाधिकारियों और ठेकेदारों द्वारा भाड़े के कुल्हाड़ी वालों के संरक्षण के लिए पहुँची। वहाँ स्त्रियाँ यह कहते हुए पेड़ों पर चिपक गयीं, ‘‘पेड़ नहीं, हम कटेंगी’’। इस अहिंसक प्रतिरोध का किसी के पास उत्तर नहीं था। इन्हीं महिलाओं ने पुन: सशस्त्र पुलिस के कड़े पहरे में 9 फरवरी, 1978 को नरेन्द्र नगर में होने वाली वनों की नीलामी का विरोध किया। वे गिरफ्तार कर जेल में बंद कर दी गईं।
25 दिसम्बर, 1978 को मालगाड़ी क्षेत्र में लगभग 2500 पेड़ों की कटाई रोकने के लिए जन आंदोलन आरंभ हुआ जिसमें हजारों महिलाओं ने भाग लेकर पेड़ कटवाने के सभी प्रयासों को विफल कर दिया। इस जंगल में 9 जनवरी, 1978 को सुदूरलाल बहुगुणा ने 13 दिनों का उपवास रखा। परिणामस्वरूप सरकार ने तीन स्थानों पर वनों की कटाई तत्काल रोक दी और हिमालय के वनों को संरक्षित वन घोषित करने के प्रश्न पर उन्हें बातचीत करने का न्योता दिया। इस संबंध में निर्णय होने तक गढ़वाल और कुमायूं मण्डलों में हरे पेड़ों की नीलामी, कटाई और छपान बंद करने की घोषणा कर दी गई।
चिपको आंदोलन के दौरान महिलाओं ने वनों के प्रबंधन में अपनी भागीदारी की मांग भी की। उनका तर्क था कि वह औरत ही है जो ईंधन, चारे, पानी आदि को एकत्रित करती हैं। उसके लिए जंगल का प्रश्न उसकी जीवन- मृत्यु का प्रश्न है। अत: वनों से संबंधित किसी भी निणर्य में उनकी राय को शामिल करनी चाहिए। चिपको आंदोलन ने वंदना शिवा को विकास के एक नये सिधांत - ‘पर्यावरण नारीवाद’ के लिए प्रेरणा दी, जिसमें पर्यावरण तथा नारी के बीच अटूट संबंधों को दर्शाया गया है।
इस प्रकार हम देख सकते हैं कि जंगलों की अंधाधुंध कटाई के खिलाफ आवाज उठाने में महिलाएं कितनी सक्रिय रहीं हैं। चिपको ने उन पहाड़ी महिलाओं को जो हमेशा घर की चार दीवारी में ही कैद रहती थीं, बाहर निकल कर लोगों के बीच प्रतिरोध करने तथा अपने आपको अभिव्यक्ति करने का मौका दिया। इसने यह भी दर्शाया कि किस प्रकार महिलाएं पेड़-पौधे से संबंध रखती हैं और पर्यावरण के विनाश से कैसे उनकी तकलीफें बढ़ जाती हैं। अत: चिपको पर्यावरणीय आंदोलन ही नहीं है, बल्कि पहाड़ी महिलाओं के दुख-दर्द उनकी भावनाओं की अभिव्यक्ति का भी आंदोलन है

Tuesday, August 23, 2016

स्वदेशी की विकास यात्रा - संक्षिप्त प्रश्नोत्तरी


स्वदेशी की विकास यात्रा - एक प्रश्नोत्तरी

प्र.1  स्वतंत्रता प्राति के बाद श्री गुरूजी ने देश की नीति निर्धारण में विदेशी प्रभाव की बात का उल्लेख किस संदर्भ में किया था?
उ. 1965 में सिंधु नदी के जल बटवारे में विश्व बैंक के दबाव का उल्लेख किया था कि भले ही आज  देश स्वतंत्र है परंतु आर्थिक निर्णय विदेशी दबाव मे हीं होते है।


प्र.2 ठेंगड़ी जी ने स्वजाम को क्या संज्ञा  दी थी?
उ. ठेंगड़ी जी ने इसे ‘ आर्थिक स्वाधीनता का दूसरा युद्ध’ कहा है। ऐसा शब्द प्रयोग उन्होंने 1982 में और भारतीय मजदूर संघ के राष्ट्रीय अधिवेशन (1984) में कहा था। 
प्र.3 नई आर्थिक नीतियों की वकालत करते हुए डाॅ. मनमोहन सिंह ने लोकसभा में क्या प्रस्ताव रखा था।
उ. श्री नरसिंह राव ने प्रधानमंत्री और डाॅ. मनमोहन सिंह के वित्तमंत्री के नाते भारतीय संसद में एक प्रस्ताव लाया गया और पूर्व की गलत नीतियों का उल्लेख करते हुए नई आर्थिक नीतियों की घोषणा 1 अगस्त 1991 में की गई। इन नीतियों को 1 अगस्त 1991 से लागू किया गया।


प्र.4 1991 की नई आर्थिक नीतियों का सारांश क्या था?
उ. विदेशी निवेश को खुला निमंत्रण, कस्टम डयूटी घटाई गई, विदेशियों के लिए प्रतिबंधित क्षेत्रों को खोला गया, और कुल मिला  कर आर्थिक स्वावलम्बन को खत्म किया गया।


प्र.5 स्वदेशी जागरण मंच की स्थापना कहां, कब और किन परिस्थितियों में हुई?
उ. नागपुर में 22 नवंबर 1991 को नये विदेशी हमले के प्रतिकार के लिया स्वदेशी जागरण मंच का गठन किया गया। समविचारी सात संगठनो की उपस्थिति में ये कार्य प्रारम्भ हुआ।


प्र.6 स्वदेशी जागरण मंच को मंच क्यों कहा गया, संगठन क्यों नहीं?
उ. क्योंकि किसी भी विचारधारा का व्यक्ति जिसे आर्थिक स्वतंत्रता का विषय प्रिय है, वह इसमें भाग ले सकता है। संगठन के खांचे में डालने की अपेक्षा हरेक के लिए इसे खुला रखा गया। 


प्र.7 कौन-कौन से प्रमुख महानुभाव स्वदेशी के प्रारंभिक काल में ही मंच से जुड़ गये थे?
उ. (क) 2-5 सितंबर 1993 के प्रथम सम्मेलन में जस्टिस वी.आर. कृष्ण अय्यर ने उद्घाटन किया।
(ख) कभी प्रसिद्ध मार्क्स वादी रहे डाॅ. बोकरे मंच के प्रथम संयोजक बनाये गए। जे बाद में ‘हिन्दू इकोनोमिक्स’ गं्रथ लिखा।
(ग) चन्द्रशेखर जैसे समाजवादी, जाॅर्ज फर्नांडीज, अहसान कुलकर्णी (P&T के अध्यक्ष) आदि ऐसे महानुभाव जुड़े।


प्र.8 श्री निखिल चक्रवर्ती स्वदेशी जागरण मंच की किस बात से प्रभावित हुए?
उ. जीप सेल् व बैटरी को हैदराबाद के अमनभाई नामक मुसलमान उत्पादक बनाते थे। जीप का नाम हमारी स्वदेशी-विदेशी सूचि पत्रक था, जिसे हमारें  कार्यकर्तायों को बांटते हुए जब उन्होंने देखा तो बहुत प्रभावित हुए। उन्हें लगा कि हम सांप्रदायिकता से उपर उठकर राष्ट्रव्यापी विचार करते है। उन्होंने इस पर एक लंबा काॅलम अपनी पत्रिका में लिखा। बाद में अन्य स्वदेशी के कार्यक्रमों में भी वक्ता के नाते उपस्थित रहे।


प्र.9 1992 व 1994 के जन-जगारण अभियानों का सारांश क्या था?
उ. 1992 में देश भर में स्वदेशी-विदेशी वस्तुओं की सूचि बांटी गई। 1994 में जल, जमीन, जंगल और जानवर का बड़ा सर्वेक्षण हुआ। 3 लाख गांवों में कार्यक्रम आदि के लिए गये। श्री चन्द्रशेखर जी ने पांच स्थानों पर इसका उद्घाटन किया और खुलकर  भाषण भी दिया।


प्र.10 पहला बड़ा संघर्ष कौन सा था और उस संघर्ष का सरांश क्या था?
उ. विदेशी एनराॅन बिजली कंपनी के खिलाफ एक प्रपत्र तैयार किया। महाराष्ट्र में शरद पवार की सरकार के खिलाफ आंदोलन चलाया गया। ऐसे 7-8 फास्ट ट्रेक परियाजनाओं का विरोध किया। उससे विदेशी निवेश की रफ्तार धीमी हो गई। किसानों ने इस कंपनी को जमीन देने का विरोध किया, लेकिन इस आंदोलन में कुछ कष्टदायक पहलु भी है, अर्थात् जो राजनेता इस आंदोलन में पहले साथ चले, सत्तासीन होने पर वे इस कंपनी के साथ हो गये। 13 दिन की राजग की सरकार ने इस कंपनी के साथ समझौते को पारित किया, लेकिन जीत सच्चाई की ही हुई और कंपनी एनराॅन को भागना पड़ा।


प्र.11 पशुधन संरक्षण आंदोलन की मुख्य बातें क्या थी?
उ. अलकवीर यात्रा - सेवाग्राम से अलकवीर तक 750 किमी. की यात्रा हुई। 15 नवंबर 1995 से 6 दिसंबर तक 1 बड़ी जनसभा और गिरफ्तारियां भी हुई।


प्र.12 सागर यात्रा क्या है?
उ. 12 जनवरी 1996 से 8 फरवरी 1996 तक  वैश्वीकरण के दौर में विदेशी कंपनियों को ‘मेकेनाइज्ड फिशिंग’ के लाईसंेस दिये गये, लेकिन हमने विरोध किया। सरकारी मुरारी कमेटी ने भी रिपोर्ट हमारे हक में दी। दो हिस्सों में त्रिवेन्द्रम के पास व काकीनाडा के समुद्र में विशाल जनसभा की गई। लड़ाई तो पहले से थाॅमस कोचरी व मजदूर नेता कुलकर्णी लड़ रहे थे हमने इसे उभार दिया। दोनों यात्राओं के कारण देश-विदेश में बहुत जागृति हुई और मछुआरों का व्यवसाय और समुद्री जीव के साथ साथ फ्लोरा एवं फौना भी बच गया।


प्र.13 बीड़ी रोजगार रक्षा आंदोलन क्या है?
उ. जून 1996 में तेंदुपत्ता उद्योग और बीड़ी उद्योग में लगे लोगों का रोजगार समाप्त हो रहा था। छोटी विदेशी सिगरेट को भारत में बनाने की अनुमति दी गयी। अंततः जीत हमारी ही हुई।


प्र.14 मीड़िया को विदेशी हाथों में पड़ने से कैसे बचाया?
उ. 1995 की केबिनेट चर्चा में कहा गया कि सूचना का अधिकार अपने नागरिकों हेतु है। अतः विदेशियों को यहां अखबार चलाने का अधिकार नहीं है। फिर 26 प्रतिशत विदेशी निवेश आया। इसलिए कुल सकल मीडिया में 26 प्रतिशत से ज्यादा विदेशी चैनल नहीं है। हर प्रांत में अपने चैनल है। 


प्र.15 विदेशी हाथों से टेलिकाॅम्यूनिकेशन कैसे बची?
उ. इसके कारण से वोडाफ़ोन छोड़कर शेष भारतीय कंपनियों का प्रभुत्व रहा। यह भी प्रभावी कदम था।


प्र.16 विनिवेश की लड़ाई क्या हुई?
उ. रिलायंस का पेट्रोलियम उत्पादक का एकाधिकार एनडीए सरकार के समय हुआ। सरकारी होटल भी औने-पौने दामों में बेचे गये। सरकारी उपक्रमों को घाटे का उपक्रम या बीमार उपक्रम घोषित करके निजी हाथों में सस्ते भाव से बेचना, विनियोग कहलाता है। श्री अरूण शौरी के मंत्री काल में इनको बेचा गया और मजदूर भी निजीकरण का शिकार हुए। स्वदेशी जागरण मंच ने इसका डटकर इसका विरोध किया। 


प्र.17 आयोडीन नमक का गौरखधंधा क्या है?
उ. आयोडीन युक्त नमक को अनिवार्य किया जा रहा था। इससे गरीबों की एक जरूरी चीज की बड़ी कंपनियों की इच्छा पर मूल्य बढ़ाने की इजाजत मिल जाती। हमारे आंदोलन की बहुत चर्चा बनी। अभी तक वो मामला सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है। गांधी जी ने दांड़ी नमक आंदोलन छेड़ा था, हमें भी वहीं करना पड़ा।


प्र.18 बौद्धिक संपदा अधिकार की लड़ाई का क्या इतिहास है?
उ. ठेंगडी जी की प्ररेणा से श्री बी.के. कैला ने ‘वर्किंग ग्रुप ओन पेटेंट’ बनाया। धीरे-धीरे कई सांसदों को इसके साथ जोड़ा गया। Forum of parliamentarian or working group on Public Sectors बना।


प्र.19 खुदरा व्यापार की लड़ाई में स्वदेशी जागरण मंच का क्या योगदान है?
उ. बहुत ही अहम्। मंच और व्यापारिक संगठनो के आह्वान पर देशव्यापी बंध हुआ। यद्यपि बिल तो संसद में पारित हुआ परंतु विदेशी कंपनियां आने से कतरा रही है।


प्र.20 बीटी कपास का मुद्दा और बीटी बैंगन को कैसे रोका गया?
उ. श्री जयराम रमेश ने बी टी बेंगन के लिए सात जगह जन सुनवाई करवाई वहां हमारी उपस्थिति प्रभावी रही और अभी तक अनुमति रुकी हुई है।


प्र.21 प्रदेशों के स्तर पर विभिन्न आंदोलन कौन-कौन से हुए?
उ. 1. वेदांता विश्वविद्यालय विरुद्ध सफलआंदोलन, 2. प्लाचीमाड़ा, 3. आलूचासी बेंगाल 4. हल्दी आंदोलन, तेलंगाना 5. हिमाचल प्रदेश में स्की विलेज, 6. 


प्र.22  स्वदेशी मेलें - सीबीएमडी, लघु ऋण वितरण योजना
उ.


प्र.23 ठेंगडी जी उद्धरण में से प्रश्न बनता है कि उन्होंने किन-किन विदेशी अर्थशास्त्रियों ने भूमंडलीकरण की निंदा की है, ऐसा उल्लेख किया है
उ: जोसेफ स्टिग्लिट्ज़, एलबुग् डेविसन, आदि का।





Monday, August 22, 2016

Bhopal Rashtriya bparishad, 21-22 May 2016

दिनांकः 4 जून 2016
विषयः राष्ट्रीय परिषद बैठक 21-22 मई 2016, भोपाल (म.प्र.) की कार्यवाही एवं लिए गए निर्णय

दिनांक 21 मई 2016 को अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के भोपाल स्थित कार्यालय के सभागार में मंच की राष्ट्रीय परिषद बैठक प्रातः 10.00 बजे प्रारंभ हुई। आंचलिक संघर्ष वाहिनी प्रमुख श्री वंदेशंकर सिंह (झारखंड) ने ‘‘आंधी क्या है - तूफान चले’’ गीत प्रस्तुत किया। मध्य प्रदेश के सह प्रांत संयोजक श्री अरूषेन्द्र शर्मा ने व्यवस्था संबंधी सूचनाएं प्रदान की। मंच के राष्ट्रीय संयोजक श्री अरूण ओझा, सह संयोजकगण प्रो. भगवती प्रकाश, श्री सरोज मित्र, प्रो. बी.एम.कुमारस्वामी, डाॅ. अश्वनी महाजन, सीए आर. सुन्दरम्, लघु उद्योग भारती के राष्ट्रीय महामंत्री श्री जितेन्द्र गुप्त, वनवासी कल्याण आश्रम से श्री कृपा प्रसाद सिंह, श्री लक्ष्मी नारायण भाला ने भारत माता, राष्ट्रऋषि दत्तोपंत ठेंगडी एवं पं. दीनदयाल उपाध्याय के चित्रों के संमुख दीप प्रज्ज्वलन करके बैठक का उद्घाटन किया। अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख श्री दीपक शर्मा ‘प्रदीप’ ने बैठक का संचालन करते हुए देश भर से आए हुए प्रतिनिधियों का स्वागत किया।
श्री अरूण ओझा ने कहा कि वर्ष 1999 में इसी ऐतिहासिक शहर भोपाल में मंच की राष्ट्रीय परिषद बैठक हुई थी। इसमें विश्व व्यापार संगठन के संबंध में भारत की भूमिका को लेकर नारा दिया गया था ‘‘मोड़ो-तोड़ो-छोड़ो’’। वर्ष 2016 में एक बार फिर यहां बैठक हो रही है। इतने वर्षों में मंच आगे तो बढ़ा है किंतु प्रगति संतोषजनक नहीं है। जिस तीव्रता से नए-नए आक्रमण हो रहे हैं हम उसी मात्रा में प्रतिकार नहीं कर पा रहे हैं। कहीं पानी पर धारा 144, कहीं जंगलों में आग, कहीं अति वृष्टि दिखाई दे रही है। सरकार की नीतियों में कुछ अंतर तो दिखाई दे रहा है। साथ ही साथ विकास की ललक के कारण देश के संसाधनों की भारी लूट का तंत्र खड़ा हो रहा है। वह हमें कहां ले जायेगा ? ‘‘इस प्रकार के विकास’’ से किस प्रकार वापस लौटा जाए ? इस बारे में हम इस बैठक में विचार करेंगे।
स प्रांतों के वृत्त विभिन्न कार्यकर्ताओं ने अपने-अपने प्रांतों का विस्तृत वृत प्रस्तुत किया। 
स कार्य विभाग योजनाएं निम्नलिखित कार्यकर्ताओं ने प्रस्तुत की-
1. संपर्क विभाग-श्री लालजी भाई पटेल (अ.भा.संपर्क प्रमुख), 2. संघर्ष वाहिनी-श्री अन्नदा शंकर पाणीग्रही (अ.भा. संघर्ष वाहिनी प्रमुख), 3. कोष-श्री संजीव महेश्वरी सी.ए. (अ.भा. सह कोष प्रमुख), 4. प्रचार विभाग-डाॅ. निरंजन सिंह (अ.भा. सह प्रचार प्र्रमुख)। 
स पारित प्रस्तावः
1. ई-काॅमर्स व खाद्य प्रसंस्करण उद्योग में 100 प्रतिशत विदेशी निवेश वापिस हो- डाॅ. अश्वनी महाजन ने प्रस्ताव प्रस्तुत किया एवं डाॅ. देवेन्द्र विश्वकर्मा ने इसका समर्थन किया।
प्रस्ताव की भूमिका रखते हुए डाॅ. अश्वनी महाजन ने कहा कि इस विषय पर यू.पी.ए. सरकार के समय स्वदेशी जागरण मंच सहित अनेक संगठनों ने भारत बंद का आह्वान किया था। इसमें भारतीय जनता पार्टी ने घोषित रूप से पूरा समर्थन किया था एवं अपने चुनावी घोषणा पत्र में भी इसका उल्लेख किया। किंतु सत्ता में आने के बाद उनकी सरकार इसे ‘‘चोर दरवाजे’’ से ला रही है। इससे भारी बेरोजगारी बढ़ेगी तथा व्यापार पर विदेशी कंपनियों का कब्जा हो जायेगा।
2. सस्ती दवाओं व चिकित्सा सेवाओं से चिकित्सा की सर्वसुलभता आवश्यक- डाॅ. भगवती प्रकाश ने यह प्रस्ताव प्रस्तुत किया एवं डाॅ. बी.एल. जागेटिया (प्रांत सहसंयोजक, राजस्थान), प्रो. राजकुमार मित्तल (उत्तर क्षेत्र सह विचार मंडल प्रमुख) एवं श्री अमोल पुसद्कर (प्रांत संयोजक, महाराष्ट्र) ने इसका समर्थन किया।
प्रस्ताव की भूमिका रखते हुए डाॅ. भगवती प्रकाश ने कहा कि शहरी क्षेत्र की 70 प्रतिशत एवं ग्रामीण क्षेत्र की 63 प्रतिशत जनसंख्या प्राईवेट अस्पतालों में ईलाज करवाने के लिए मजबूर है। चिकित्सा अत्यंत मंहगी होती जा रही है जिसके कारण लोगों को या तो अपनी संपत्ति बेचनी पड़ती है या फिर भारी ब्याज पर कर्ज लेना पड़ता है। जिसके कारण प्रतिवर्ष कुल जनसंख्या के 2.2 प्रतिशत (2 करोड़ 70 लाख) लोग गरीबी रेखा से नीचे जा रहे हैं। अतः इलाज सस्ता एवं सुलभ होना चाहिए।
3. विकासः अस्तित्व के लिए - प्रो. बी.एम. कुमारस्वामी ने इसका वाचन किया। श्री अरूण ओझा ने समर्थन किया। 
प्रस्ताव की भूमिका रखते हुए प्रो. बी.एम. कुमारस्वामी ने कहा कि विकास का पश्चिमी माॅडल लालच पर आधारित है। इसमें मनुष्य-जीव-वनस्पति-पर्यावरण रक्षा-जल-जमीन-जंगल आदि के बीच में कोई सामंजस्य ही नहीं दिखाई देता। विकास के नाम पर संसाधनों की लूट के लिए योजनाएं बनाई जा रही है। जिसके कारण मानवता का अस्तित्व ही संकट में पड़ रहा है। 
प्रस्तावों की प्रति संलग्न है।
विशेष व्याख्यान- वर्तमान आर्थिक परिदृश्य के विषय पर प्रो. भगवती प्रकाश, स्वदेशी एजेंडा के विषय पर श्री योगानंद काले (पूर्व राष्ट्रीय सहसंयोजक), आई.पी.आर. के विषय पर श्री कश्मीरी लाल एवं श्री भगवती प्रकाश, जी.एम. फसलों के विषय पर डाॅ. अश्वनी महाजन, मुक्त व्यापार समझौते के विषय पर श्री आर.सुन्दरम, सौर उर्जा के विषय पर श्री सतीश कुमार, स्वदेशी परंपराएं एवं खेल के विषय पर श्रीमति राजलक्ष्मी ने विस्तार से विषय रखा।  
राष्ट्रीय विचार वर्ग-
पूर्वी क्षेत्र- 13,14,15 अगस्त 2016, बलांगीर (उड़ीसा), प्रतिभागी संख्या- बिहार-30, झारखंड-40, उड़ीसा-70, असम-5, सिक्किम-5, अरूणाचल प्रदेश-2, कुल संख्या-152 प्रतिनिधि
पश्चिमी क्षेत्र - 22,23,24 जुलाई 2016, इंदौर (म.प्र.)। प्रतिभागी संख्याः महाराष्ट्र-20, गुजरात-22, म.प्र.-75, छत्तीसगढ़-15, कुल संख्या-132 प्रतिनिधि।
उत्तर प्रदेश-उत्तराखंड क्षेत्रः 24,25,26 जून 2016, इलाहाबाद (उ.प्र.)। प्रतिभागी संख्याः प.उ.प्र.-40, अवध-30, काशी-70, उत्तराखंड-5, कुल संख्या-145 प्रतिनिधि।
उत्तर क्षेत्र- 10,11,12 जून 2016, पलवल (हरियाणा)। प्रतिभागी संख्याः जम्मू कश्मीर-5, हि.प्र.-25, पंजाब-25, हरियाणा-60, दिल्ली-75, राजस्थान-50। कुल संख्या-240 प्रतिनिधि।
दक्षिण क्षेत्र- तिथियों की सूचना शीघ्र भेजी जायेगी।
विचार वर्ग का प्रतिनिधि शुल्क रू. 250/- है।

राष्ट्रीय सभा - 12,13,14 नवंबर 2016, गीता निकेतन आवासीय विद्यालय, कुरूक्षेत्र (हरियाणा)। दिनांक 11 नवंबर को दोपहर 3.00 बजे राष्ट्रीय परिषद की बैठक इसी स्थान पर होगी। प्रतिभागी संख्याः केरल-10, तमिलनाडू-25 पुरूष 5 महिलाएं, कनार्टक-30 पु. 4 म., तेलंगाना-15 पु. 5 म., आंध्र प्रदेश-15 पु. 5 म., महाराष्ट्र-15 पु. 5 म., गुजरात-25 पु. 5 म., महाकौशल (म.प्र.)-35 पु. 10 म., मालवा (म.प्र.)-25 पु. 5 म., मध्य भारत-25पु. 10म., छत्तीसगढ़-15 पु. 5 म., राजस्थान-50 पु. 10 म., जम्मू कश्मीर-10पु., हि.प्र.-50 पु. 30 म., पंजाब-23 पु., 2 म., हरियाणा-70 पु. 10 म., दिल्ली-70 पु. 20 म., प.उ.प्र.-40 पु. 5 म., अवध-35 पु. 15 म., काशी-65 पु. 5 म., उत्तराखंड-25 पु. 5 म., बिहार-55 पु. 10 म., झारखंड-45 पु. 5 म., उडीसा-50 पु. 10 म., बंगाल-20 पु. 5 म., उत्तर पूर्व राज्य-10, कुल संख्या-853 पुरूष व 192 महिलाएंत्र1045 प्रतिनिधि।
प्रतिनिधि शुल्क- रू.300/- प्रति व्यक्ति।
पात्रता- राष्ट्रीय सभा में प्रांतीय परिषद के सदस्य एवं इससे उपर के स्तर के कार्यकर्ता अपेक्षित है। प्रांतीय परिषद से तात्पर्य यह है कि सभी नगर, जिला, विभाग एवं ऊपर स्तर के संयोजक/सह संयोजक/संगठक तथा समविचारी संगठनों के 2-2 प्रतिनिधि। सभी प्रांत अपने जिले/प्रांत का बैनर झंडे साथ लेकर आएं।
संगठनात्मकः श्री कश्मीरी लाल ने विभिन्न प्रांतों में संगठनात्मक ढांचा सुदृढ़ करने के सुझाव दिये। देशी विदेशी वस्तुओं की सूची, अधिकाधिक सदस्य बनाने, जिला/प्रांत विचार वर्ग आदि के विषय में चर्चा की।
अन्य: बैठक में स्वदेशी जागरण मंच के प्रथम राष्ट्रीय संगठक एवं राष्ट्रऋषि दत्तोपंत ठेंगडी के अनन्य सहयोगी श्री रामदास पांडे (भारतीय मजदूर संघ), मध्य प्रदेश से पूर्व राज्यसभा सांसद श्री रघुनन्दन शर्मा, भारतीय मजदूर संघ (म.प्र.) के पूर्व प्रदेश महामंत्री श्री सुल्तान सिंह का परिचय श्री अरूण ओझा ने कराया। मध्य प्रदेश स्वदेशी जागरण मंच की ईकाई ने स्मारिका का विमोचन किया एवं मंचासीन सभी प्रतिनिधियों को स्मृति चिह्न भेंट किया। श्री अरूण ओझा ने व्यवस्था के सभी कार्यकर्ताओं का धन्यवाद ज्ञापन किया।
नई नियुक्तियांः निम्नलिखित कार्यकर्ताओं को नए दायित्व प्रदान किए -
क्षेत्रीय दायित्व- श्री रमेश दवे (गुजरात, महाराष्ट्र प्रांतों के सह क्षेत्र संयोजक),
प्रांतीय दायित्व - गुजरात-श्री धीरेन्द्र भाई जेठवा (प्रांत संयोजक), श्री हसमुख भाई ठाकर (प्रांत सहसंयोजक), श्री अश्विन भाई सोनी (प्रांत सहसंयोजक), 
तमिलनाडू- श्रीमति राजलक्ष्मी (प्रांत सहसंयोजक),
कर्नाटक- श्री विजय कृष्ण (प्रांत सहविचार मंडल प्रमुख), 
राष्ट्रीय परिषद सदस्य - श्री नीलेश भाई परमार (गुजरात), श्री प्रभास पाणीग्रही (उड़ीसा) 
आगामी कार्यक्रम/योजनाएं
1. बारहवीं राष्ट्रीय सभा - 12,13,14 नवंबर 2016, कुरूक्षेत्र (हरियाणा), दिनांक 11 नवंबर को दोपहर 3.00 बजे इसी स्थान पर रा.प. बैठक होगी।
2. केंद्रीय कार्यसमिति बैठक - 3,4 सितंबर 2016, नई दिल्ली
3. राष्ट्रीय विचार वर्ग - पत्रक में तिथियां व स्थान का उल्लेख किया गया है। 
4. बुद्धिजीवी सम्मेलन- दिल्ली के प्रतिष्ठित Delhi School of Economics एवं JNU सहित देश के 55 विश्वविद्यालयों में एक वर्ष में मंच के कार्यक्रम हुए हंै। इनमें से बुद्धिजीवियों को चिन्हित करके उनके नाम/पता दिल्ली में प्रो. राजकुमार मित्तल (उत्तर क्षेत्र सह विचार मंडल प्रमुख) को ईमेल (dr123mittal@yahoo.com)/फोन (08586888937) पर शीघ्र भेजें। जुलाई माह में ऐसे बुद्धिजीवियों का राष्ट्रीय सम्मेलन नई दिल्ली में आयोजित किया जायेगा। 
5. संघर्ष वाहिनी बैठक - दिनांक 27,28 अगस्त 2016, तुलसी भवन, बिष्टुपुर, जमशेदपुर (झारखंड), यह बैठक दिनांक 27 अगस्त को प्रातः 10 बजे प्रारंभ होकर 28 अगस्त की देापहर 1.00 बजे तक चलेगी। इसमें सभी जिला/विभाग/नगर/प्रांत के संघर्ष वाहिनी प्रमुख अपेक्षित है। ऐसे कार्यकर्ता जिनको भविष्य में दायित्व दिया जा सकता है, वे भी अपेक्षित है। शुल्क-100 रू. प्रति व्यक्ति, संपर्क सूत्र- श्री बंदेशकर सिंह-आंचलिक संघर्ष वाहिनी प्रमुख (0943117966008987517941bandejsr@gmail.com)
6. चीन विरोधी अभियान- दीपावली से पूर्व एक सप्ताह तक चीनी वस्तुओं के विरोध में जन जागरण। रक्षा बंधन के अवसर पर भी जन जागरण करना है। जिलाधिकारियों को ज्ञापन भी देना है। 
7.  परिवार सम्मेलन- प्रखंड/नगर/जिला/विभाग/प्रांत स्तर की सभी ईकाईयो ने परिवार सम्मेलन आयोजित करने है।
8. स्वदेशी सप्ताह- 25 सिंतबर से 2 अक्टूबर तक स्वदेशी सप्ताह मनाना है। इससे पूर्व जिला/प्रखड/नगर/विभाग/प्रांत की ईकाईयों ने शिक्षक सम्मेलन करने हंै। इसका स्वाभाविक लाभ स्वदेशी सप्ताह की गतिविधियों में प्राप्त होगा। (स्वदेशीः क्या-क्यूं, कैसा को कार्यक्रमों का आधार बनाएं।)
9. नई इकाईयांे का गठन- प्रत्येक स्तर की ईकाई ने प्रयासपूर्वक नई इकाईयां खड़ी करनी है।
10. एफ.डी.आई. के मुद्दे पर सभी वर्गों में जन जागरण। यह संभव है कि राष्ट्रीय सभा में इस पर कोई देश व्यापी अभियान/जनमत संग्रह का निर्णय लिया जाए। अतः जन जागरण का कार्य पूरा करके ही राष्ट्रीय सभा में आएं। इस हेतु पदयात्राएं/पत्रक वितरण/मोटरसाईकल यात्रा व अन्य कार्यक्रम करें।
11. सौर उर्जा के विषय पर सभी प्रांतों ने कार्यक्रम करने हैं।
12. कृषि के न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कार्यक्रम करने है।
13. बाबू गेनू बलिदान दिवस (इस अवसर पर दैनन्दिन जीवन में स्वदेशी को आधार बनाकर कार्यक्रम करने है।)
14. आई.पी.आर. से जुड़े योग्य बुद्धिजीवियों को चिन्हित करके उनकी जानकारी श्री सतीश कुमार को देनी है।
समारोप: श्री अरूण ओझा ने कहा कि दिनांक 2,3,4 सितंबर 1993 को मंच का पहला राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ था। उस समय ठेंगडी जी ने कहा था कि स्वदेशी जागरण मंच का अपना कोई संगठन नहीं है। यह विभिन्न संगठनों का साझा मंच है। आज देखने में आ रहा है कि स्वदेशी जागरण मंच का अपना संगठन बढ़ रहा है। देश के अधिकांश जिलों से 1040 संयोजक/सहसंयोजक/संगठक स्तर के कार्यकर्ता कुरूक्षेत्र सभा में आ रहे हैं। किंतु हम संतुष्ट नहीं है। क्योंकि समस्याएं भी रोग-अपसंस्कृति-बेरोजगारी के रूप में बढ़ रही हैं। अतः सभी कार्यकर्ताओं को अपनी क्षमता शीघ्रता से बढ़ानी होगी। हम सभी दिए गए कार्यक्रमों पर पूरी शक्ति से काम करते हुए कुरूक्षेत्र की राष्ट्रीय सभा में पुनः एकत्रित होंगे। इसी आह्वान के साथ राष्ट्रीय परिषद बैठक संपन्न हो गई।
सादर,
भवदीय

दीपक शर्मा ‘प्रदीप’
प्रभारी, मुख्यालय

Wednesday, August 10, 2016

नगरीय विकास का क्या कोई भारतीय मॉडल है?

नगरीय विकास का क्या कोई भारतीय मॉडल है?

भीलवाड़ा दिनांक 31 जुलाई 2016

आज यहाँ पर एक विचार गोष्ठी इस उपर्युक्त शीर्षक के साथ रखी गयी थी जिसमें में भी एक वक्ता या मुख्य वक्ता था। तत्काल कुछ स्फुट विचार जो मन में आये और जनसत्ता में स्मार्ट सिटी पर जो लेख पढ़ा, उसी को मिला जुला कर यह प्रस्तुति है। श्री भगवती लाल जगेटिया, पूर्व इतिहासाध्यक श्यामसुन्दर जी और प्रोफ राजकुमार जी भी वक्ता थे।

1.1 भारत की 38 करोड़ शहरी आबादी संयुक्त राष्ट्र के एक अनुमान के अनुसार, 2031 तक बढ़कर 60 करोड़ होने वाली है। जाहिर है, योजनाबद्ध शहरी विकास आज हमारी आवश्यकता है। बेहतर नागरिक के साथ-साथ प्रदूषण मुक्त शहरों के निर्माण में देश के सीमित संसाधनों का उपयोग किया जाए, यह शहरी निर्माण विशेषज्ञों के लिए चुनौती है। 
1.2  स्वदेशी जागरण मंच के नाते हमारी गाँव में श्रद्धा है, विकेन्द्रित अर्थ व्यवस्था की लघु इकाई है, और हम मानते है कि भारत वास्तव में गाँव में ही बसता है। लेकिन शहर भी हमारी संस्कृति का अंग रही है। प्रति सुबह हम बोलते है, अयोध्या, मथुरा माया, काशी कांची, अवंतिका, पूरी द्वारावती चैव, सप्तेयता मोक्षदायिका। नरक दायिका नहीं, मोक्षदायिका।
वैसे भी हम जानते है की भगवान कृष्ण पले-बढे तो नन्द गाँव में लेकिन बसाई नगरी जो अब समुद्र में है। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा तो जितने विकसित है, उतनी आजकी नगर नगरी भी नहीं, ऐसा लगता है। हाँ, आज जब भी विकसित नगर की बात होती है तो पेरिस के मॉडल से होती है और हम भूल जाते है कि यहाँ उससे भी विकसित कोई पाटलिपुत्र भी था जिसे अभी पटना है। इंग्लैंड का जिक्र करेंगे परंतु इंद्रप्रस्थ भी था। बात सिंगापूर से शुरु होती है और पुराने मायापुरी कप भूल जाते। अग्रोहाधाम को भी स्मरण करना चाहिए जहाँ की गरीन कार्ड पॉलिसी क्या गज़ब थी की आने वाले को एक ईंट और एक स्वर्ण मुद्रा हर स्थानीय व्यक्ति दिया करते थे। टैक्स लेते नहीं थे। 
1.3. हमारे देश में ‘जवाहर लाल नेहरू अर्बन रिन्यूअल मिशन’ योजना पहले से जारी थी। इसका लक्ष्य सभी शहरों का विकास करना था। फिर नरेंद्र मोदी के सत्ता संभालने के एक माह के भीतर ‘स्मार्ट सिटी परियोजना’ की घोषणा करने से पता चलता है कि सरकार की प्राथमिकताएं बदल रही हैं।
इसकी घोषणा के फौरन बाद अमेरिका की ‘स्मार्ट सिटी काउंसिल’ की भारतीय शाखा ‘स्मार्ट सिटी कांउसिल ऑफ इंडिया’ का गठन किया जाना बतलाता है कि यह योजना मात्र हमारे देश तक सीमित नहीं है। इसकी अलग-अलग शाखाएं विभिन्न देशों में खुल चुकी हैं। 
1.4 अमेरिका के योजनाकारों की मानें तो विश्व भर में लगभग 5000 स्मार्ट सिटीज बनेंगी, जिनमें भारत को केवल 100 आवंटित की गई हैं।
आज नजर निवेशकों पर नजर
मई, 2015 में दिल्ली में हुई स्मार्ट सिटी कॉन्फ्रेंस ने इन 100 शहरों के निर्माण में अगले 20 वर्षों में एक लाख 20 हजार करोड़ डॉलर खर्च होने का अनुमान लगाया है। आज एक डॉलर लगभग 69 रुपये का है तो यह रकम लगभग 82 लाख 80 हजार करोड़ रुपये बैठती है, जो हमारे जीडीपी के 60 प्रतिशत के बराबर है। आज जब सरकार शिक्षा, महिला एवं बाल कल्याण, स्वास्थ्य, मनरेगा, स्वच्छ पानी इत्यादि पर अपने खर्चे कम कर रही है, तो सोचा जाना चाहिए कि इतना सारा खर्च सरकार कैसे कर पाएगी? 
1.5 उसे अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों से उधार लेना पड़ेगा, जो जाहिर है उनकी शर्तों पर ही मिलेगा। संभव है कि सरकार को जन-कल्याण योजनाओं के खर्च में और अधिक कटौती करने के लिए कहा जाए। ग्रीस, स्पेन और अन्य कई देशों की अर्थव्यवस्थाओं को विश्व बैंक और आईएमएफ ने अपने कर्ज में फांस कर उनका क्या हश्र किया, यह जगजाहिर है।
भारत सरकार के शहरी विकास मंत्रालय ने अपने ‘ड्राफ्ट कॉन्सेप्ट नोट ऑन स्मार्ट सिटी मिशन’ में स्मार्ट सिटी की विशेषताएं इस तरह गिनाई हैं- ‘यहां बहुत ही उच्च स्तर पर गुणवत्तापूर्ण जीवन होगा, जिसकी तुलना यूरोप के किसी भी विकसित शहर से की जा सकती है। स्मार्ट सिटी वह स्थान होगा जो निवेशकों, विशेषज्ञों और प्रफेशनल्स को आकर्षित करने में सक्षम होगा।’ ये निवेशक और विशेषज्ञ सूचना व संचार तकनीकों पर निर्भर होंगे।
2. क्या बहुत जरूए है इस विषय पर बोलना और स्मार्ट सिटी बनाने?
2 .1 अब जरा दूसरी तरफ देखिए तो आज दुनिया का हर तीसरा कुपोषित बच्चा भारतीय है। यहां स्वच्छ पानी केवल 34 प्रतिशत आबादी को उपलब्ध है। शौचालय की सुविधा अभी देश की आधी आबादी के पास नहीं हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार सिर्फ 2012 में 98 लाख 16 हजार लोग भारत में ऐसी बीमारियों से मर गए, जिनका इलाज सहज ही संभव था। ऐसी परिस्थितियों में हमारी प्राथमिकताएं शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य और सस्ता भोजन होनी चाहिए, न कि स्मार्ट सिटी।
2 .2
2008 की मंदी ने बहुराष्ट्रीय निगमों की आर्थिक स्थिति पतली कर दी थी। इसकी मुख्य वजह यह थी कि उनके उत्पादन के लिए खरीदार नहीं मिल रहे थे। आज भी स्थिति में कोई खास सुधार नहीं हुआ है। उत्पादित माल गोदामों में पड़े हैं और उन्हें खरीद सकने वालों की जेबें खाली हैं।
2.3 स्मार्ट सिटी परियोजना का विश्व-व्यापी लक्ष्य महामंदी के दलदल में फंस चुकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को उबारना है। स्मार्ट सिटी के इस अभियान का नेतृत्व अमेरिका की आईबीएम और ऑप्टिकल नेटवर्क बनाने वाली कंपनी ‘सिस्को सिस्टम’ कर रही हैं। इनके साथ ही बिजली, गैस व पानी के स्मार्ट मीटर बनाने वाली इटरोन, जनरल इलेक्ट्रिक, माइक्रोसॉफ्ट, ओरेकल, स्विट्जरलैंड की एजीटी इंटरनेशनल और एबीबी, इंग्लैंड की साउथ अफ्रीका ब्रूअरीज जो बीयर के अलावा घरेलू उपभोक्ता सामान भी बनाती है, जापान की हिताची व तोशीबा, चीन की ह्वावेई जर्मन की सीमन्ज इत्यादि अपना माल बेचने की उम्मीद में इस स्मार्ट-सिटी अभियान में पूरे उत्साह के साथ शामिल हैं।
2.4 कोई आश्चर्य नहीं कि 17-18 फरवरी 2015 को इंडिया हैबिटेट सेंटर में आयोजित स्मार्ट सिटीज सम्मेलन के पहले सत्र में ही चर्चा का विषय था, ‘भारत में स्मार्ट सिटीज विकसित करने में अमरीकी कंपनियों के लिए अवसर।’ जिस तरह कोई बिल्डर अपनी हाउसिंग परियोजना के ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए एक मॉडल घर का निर्माण करता है, उसी तर्ज पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने दो प्रोटोटाइप स्मार्ट सिटीज का निर्माण किया है। उनमें एक शहर बार्सिलोना है और दूसरा अबूधाबी के निकट तैयार हो रहा शहर मसदर। जिन शहरों को स्मार्ट सिटी बनाने के लिए परियोजना के पहले चरण में चुना गया है, वहां के महापौर और नगर-निगम के मुख्य अधिकारियों को विडियो द्वारा इन शहरों की चकाचौंध दिखाई जा रही है।
खास खरीदारों के लिए
स्मार्ट सिटी को लेकर 16 फरवरी, 2015 को हमारे प्रधानमंत्री ने अमेरिका के मीडिया मुगल और वहां के दूसरे सबसे धनी व्यक्ति माइकल ब्लूमबर्ग से मुलाकात की और ‘सिटी चैलेंज प्रतियोगिता’ का प्रबंधन इन्हीं सज्जन की तथाकथित लोकोपकारी संस्था ब्लूमबर्ग फिलनथ्रॉपी को सौंप दिया। उपलब्ध सुविधाओं तथा मांग व आपूर्ति के हिसाब से इन स्मार्ट सिटीज में आवास की कीमतें ज्यादा होंगी। इसका नतीजा यह होगा कि भारत के आम लोगों के लिए इन शहरों में रहना काफी मुश्किल होगा, और अगर यहां किसी ने कोई झुग्गी-झोपड़ी डालने की कोशिश की तो बलपूर्वक उसे बाहर कर दिया जाएगा। ऐसा लगता है कि ये स्मार्ट शहर भारत के उभरते नव-धनाढ्य वर्ग के स्मार्ट लोगों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कारोबार के हित में बनाए जा रहे हैं।

एफडीआई धोखा है - पस्तक पर मेरी प्रस्तावना

एफडीआई का विषय आज आम चर्चा का मुद्दा है। स्वदेशी जागरण मंच की औ से इस विषय पर अच्छे लेखों का संग्रह छप रहा है। उसकी भूमिका मुझे लिखने को कही गयी। मुझे लगा की कई बार लोग पुस्तक नही पढ़ते और केवल प्रस्तावना ही पढ़ लेते है, सो मैंने अपनी ओर से पूरा मंतव्य इसी में लिख दिया। देखे आपको कैसा लगता है।

प्रस्तावना

आज़ाद भारत की  दो तिथियों को  लोग हमेशा याद रखेंगे। एक 15 अगस्त 1947,  जब वर्षों की गुलामी के बाद हमने आज़ादी पायी । दूसरी उसके 44 साल बाद 24 जुलाई,1991 जब आर्थिक सुधारों के नाम से भारत को फिर गुलामी की ओर धकेलने का प्रयास हुआ। शेष, डंकल प्रस्ताव, विश्व व्यापार संगठन आदि आगे उसी की खरपतवार हैं। आजकल एक सवाल आम लोग  पूछ रहे हैं। इस जून 20 जून 2016 या इससे पूर्व, जिस प्रकार प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के दरवाजे भारत सरकार ने खोले हैं,  क्या यह इस श्रृंखला में तीसरी तिथि है ?
आओ देखे कि यह प्रश्न  लोगों की जुबान पर क्यों आया है?  2012 में जब एफडीआई इन रिटेल का स्वदेशी आंदोलन अपने चरम पर था, तो उस समय हर आदमी के जेहन में यह  "एफडीआई" शब्द  एक गाली की तरह घर कर गया। संसद में लगभग पूरा विपक्ष और सरकार के अधिकाँश सहयोगी दल यथा सपा, तृणमूल कांग्रेस आदि भी एक जुबान से  सभी " एफडीआई" को बुरी तरह कोस रहे थे। वर्तमान सरकार के अधिकाँश नेता डट कर एफडीआई का विरोध कर रहे थे। वे ट्वीट, और ब्यान आज  पर जिन्दा है जिसमे आज के सत्ताधारी राजनेताओं में वरिष्ठतम ने एफडीआई की मंजूरी देने के कृत्य की तुलना "कांग्रेस  का विदेशियों के हाथों राष्ट्र सौंपने" से की थी। ये बाते, और भाजपा के 2014 के मैनिफेस्टो में ये आश्वासन बड़े अच्छे ढंग दिए गए हैं। लोग परेशान है कि पिछले चार वर्षों में ऐसा क्या हुआ कि भाजपा को अपने पुराने इरादे से पीछे हटना पड़ा।
शायद एक स्पष्टीकरण सरकारी पक्ष का ये होगा  कि भले ही यहाँ सिर्फ शब्द 'एफडीआई' आया है, परंतु इसे सभी प्रकार की एफडीआई के बारे में नहीं बोला गया था। सिर्फ एफडीआई इन मल्टीब्रांड रिटेल के बारे में कहा था। ठीक है, ऐसा ही हुआ होगा। तो प्रश्न उठता है की खुदरा व्यापार में बहु ब्रांड को वापिस लेने का  आश्वासन क्या निभाया गया है? बिलकुल नहीं। अब,  जब वर्तमान सरकार ने ई-कॉमर्स में अमेज़न, अलीबाबा जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को खुली छूट प्रदान कर दी है, तो खुदरा व्यापार में बाकी  बचा क्या है? और जब साथ-साथ खाद्य प्रसंस्करण और कृषि उत्पादों के (भारत में निर्मित) के विपणन  में भी विदेशी कंपनियों को शतप्रतिशत निवेश की अनुमति मिल गयी तो इस मामले में "अंतिम सांस तक लड़ने " के अभयदान का क्या हुआ? इस लिये रिटेल बहुब्रांड पर यह यू-टर्न समझ से बाहर है।
परंतु साथ साथ ये भी बताते चलें कि स्वदेशी जागरण मंच प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के वर्तमान स्वरुप का शुरू से विरोध करता रहा है, आज भी करता है और आगे भी करता रहेगा।  हाँ, हम दुनिया से कतई अलग-थलग अर्थव्यस्था (आइसोलेशन) के समर्थक नहीं है। वसुधैव कुटुम्बकम् हमारी सोच और संस्कृति है। परंतु यह वर्तमान  'वैश्वीकरण' कोई परिवारवाद नहीं है, यह बाज़ारवाद है, उपभोक्तावाद है। भूमंडलीकरण के नाम पर दुनिया का भू-मंडी-करण है। उदारीकरण के नाम पर उधारी-करण है। कुल मिलाकार WTO की व्यवस्था उसी पुराने उपनिवेशवाद को नए ढंग से गरीब देशो पर थोपने की साजिश है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों की लूट का नया तरीका है।  इस मौलिक समझ को जागृत और विकसित किये बिना  एफडीआई की माया समझ पाना मुश्किल है।
प्रस्तुत पुस्तक ऐसे ही विद्वान लेकिन ज़मीन से जुड़े लेखको के कुछ लेखों का संग्रह है जो इस विषय की बारीकी को बखूबी समझते हैं। इन लेखों में से कुछ सिद्धान्तवादी व राष्ट्रवादी  -- किसान, मजदूर और लघु उद्योग आन्दोलनों से जुड़े - संगठनों द्वारा  प्रेषित लेख भी है। वे प्रस्तुतियाँ  उन संगठनों की इस विषय पर सोच को परिलक्षित करती हैं।आशा है पुस्तक पढ़ने के बाद आपको लगेगा कि एफडीआई के गोरखधंधे को समझने का यह एक ईमानदार और सार्थक प्रयास है।   आइये, एक बार सिलसिलेवार देखें कि  कौन-कौन से तर्क विभिन्न सरकारों द्वारा एफडीआई के पक्ष में दिए जाते है । यहाँ उनके खोखलेपन को भी आप स्वयं देख लेवें:
1. क्या एफडीआई से रोजगार बढेगा?
कहा जाता है की देश में रोजगार की कमी है। यदि बहुराष्ट्रीय कंपनियां यहां नए कारखाने शुरू करेगी तो रोजगार स्वाभाविक रूप से बढ़ेगा। पर सच्चाई इसके उल्ट है।
एफडीआई से रोजगार बढने की सम्भावना तलाशना महज एक मृग-मारिचिका है। पूरी दुनिया में इस समय रोजगार विहीन विकास का दौर चल रहा है । जब से भारत ने अपने यहां विदेशी निवेश को बढ़ाया है तभी से बेरोजगारी में और वृद्धि हुई है। गत 12 वर्षों में मात्र 1.6 करोड़ रोजगार सृजित हुए है जबकि 14.5 करोड़ लोगों को इसकी तलाश थी। यदि यू.एन.ओं की संस्था अंकटाड की माने तो दुनियाभर में 41 प्रतिशत एफ.डी.आई ब्राउन फील्ड में आयी है । अर्थात पुराने लगे उद्योंगों को ही बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने  हथियाया है, कोई नया उद्योग शुरू नहीं किया। ऐसे में नए रोजगार  सृजन की सम्भावना हो ही नहीं सकती। यह बात
भी कोई छुपी हुई नहीं है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनीयों का जोर केवल स्वचालित या रोबोट प्रणाली द्वारा निर्माण व उत्पादन करने का रहता है। जिसके चलते बची खुची रोजगार की सम्भावनाएं और कम हो रही है। हमारे आज के सभी बड़े नेताओं की जुबान पर वाल्मार्ट का  एक क्लासिक उदाहरण बोलने के लिये सहज रहता था।  भारतीय मॉडल में जितना व्यापार करोड़ो हाथों तक पहुँचता था वही वालमार्ट के मॉडल में महज लाखों तक मिलता है। इसलिए विदेशी विकास के मॉडल में रोज़गार कम होंगे,  बिलकुल  बढ़ेंगे नहीं।
2. क्या एफडीआई से देश में अधिक पूँजी आएगी:
इसी प्रकार से विदेशी पूँजी  जितनी आती है उससे दुगुनी से भी अधिक पूंजी रायॅल्टी व लांभाश आदि द्वारा विकसित देश चली जाती है।। इसी लिए कहा गया एफडीआई द्वारा पूँजी "आधी आए,  दुगनी जाए, अंधी पीसेे, कुत्ता खाए।
एशियाई टाइगर कही जाने वाली अर्थव्यवस्थाओं की पोस्ट मार्टम रिपोर्ट भी यही कहती है। जरा आंकड़ो पर दृष्टि डालें तो बात और ज्यादा समझ आएगी।
2012-13 में भारत में 26 अरब डॉलर का विदेशी निवेश हुआ और 31.7 अरब डॉलर बाहर निकल गया। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के वेतन, मुख्यालय खर्च, व्याज, मुनाफा आदि की मदो में ये राशि बाहर साइफोन हो गयी। भारत को क्या मिला?  बस झूठे आश्वासन, एनरॉन जैसे घोटाले और भोपाल जैसी गैस त्रासदी!  क्या आगे भी हम यही चाहते है?
ग्लोबल फिनेंशल इंटीग्रिटी के आंकड़ो को देखें तो पूरी दुनिया में इसी तरह की लूट इन बहुराष्ट्रीय कपनियों ने की है। 2010 में पूरे विश्व् के विकासशील देशो में 506 अरब डॉलर का विदेशी निवेश प्राप्त हुआ। थोडा पीछे का आंकड़ा देखेगे तो पोल खुल जायेगी। 2006 में सारे विकासशील देशो में 858 अरब डॉलर गैर कानूनी ढंग से इन बहुराष्टीय कंपनियों ने बाहर निकाला था। सो मतलब साफ़ है कि किसी गरीब को एक बोतल खून देने की घोषणा करना और उल्टा उसी मरीज का दो बोतल खून निकाल लेना। बस यही है बहुराष्ट्रिय कंपनियो के तथाकथित रक्तदान शिविर का फण्डा! बात यहीं ख़त्म नहीं होती! ये लोग बेहोश गरीब का अंगूठा लगवा लेते है 'अंगदान' के फ़ार्म पर । ब्राउनफ़ील्ड इन्वेस्टमेंट, डिसइनवेस्टमेंट, अधिग्रहण, मर्जर, आदि ये सारे शब्द गरीबों के अंग निकालने के सामान है।
3,क्या उच्च श्रेणी की टेक्नोलॉजी देश में आएगी:
आज तक कोई उच्च तकनीक  किसी विकासशील देश को इन कंपनियों द्वारा नहीं दी गयी है। वैसे भी जिसे स्टेट-ऑफ़-आर्ट टेक्नोलॉजी कहा जाता है, उसको देने का अधिकार उस देश की सरकार का होता है, न कि वहां की कॉम्पनी को।  जरा विचार करें कि भारत द्वारा सुपर कंप्यूटर से लेकर चंद्रयान और नाविक जैसी उच्च तकनीक जो है वह सिर्फ स्वदेशी प्रयासों द्वारा अर्जित हुई है, दुनिया ने हमें नहीं दी।  ऐसे में कलाम साहिब की उस उदघोषणा को याद करना चाहिए की ' हमारे  वैज्ञानिक अपने भरोसे भारत को दुनिया के "फ्रंट रैंकिंग नेशन्स में बिठा सकते हैं। शर्त है कि 'इच्छा शक्ति' होनी चाहिए।'  उसी रास्ते को आगे बढ़ाना है। अन्वेषण पर खर्च बढ़ाना चाहिए। इस पुस्तक में श्री त्यागी जी के विचार पढ़ेंगे तो  इस विषय पर और अधिक जानकारी मिलेगी।
4.क्या इससे स्वस्थ प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी:
कोका-पेप्सी का भारत में काला इतिहास बताता है की ये कंपनियां एकाधिकार करती है और स्वस्थ प्रतियोगिता की संभावनाएं भी ख़त्म कर देती है। पूरी दुनिया का अनुभव है की ये कंपनियां पेटेंट द्वारा, कार्टेल द्वारा या अन्य हथकंडे अपना कर पूरे बाजार पर एकाधिकार करती है। ग्राहक को केवल उन्ही का सामान खरीदने को मजबूर करती है। हमारा दवा उद्योग दुनिया की जेनेरिक व सस्ती दवाईयों का कारखाना है। आज दुनिया भर के 35 प्रतिशत मरीज भारत की सस्ती दवाईयों  पर आश्रित है। ऐसे में यदि 74 प्रतिशत ब्राउन फील्ड निवेश ओटोमेंटिक रूट से, एवं 100 प्रतिशत सरकारी अनुमति के कारण से आता है,  भारत के इस दवा उद्योग हेतु अत्यंत ही खतरनाक है। यह  हमारे फार्मा सेक्टर को अपूरणीय क्षति पहुचायेंगा। बल्कि साथ ही साथ दुनिया की गरीब जनता का एक मात्र सस्ता व वहनीय विकल्प भी छिन जायेगा। निजी सुरक्षा अजेंसी को ये छूट जासूसी का जाल देश में बिछा देगी।डॉ अश्वनी जी व भगवती प्रकाश शर्मा जी के लेख इस पर पर्याप्त प्रकाश डालेंगे।
5.  क्या अत्यधिक उन्मुक्त अर्थव्यवस्था से अपनी संस्कृति खतरे में आएगी:
वैसे भी भारत दुनियां के सर्वाधिक परम्परागत देशों में से एक है। ऋषि मुनियों और मनीषियो द्वारा सिंचित इस परम्परा का समाज विज्ञान और अर्थशास्त्र से गूढ़ सम्बन्ध है। आज जिस सतत विकास, पर्यावरण रक्षा, घरेलू बचत आदि की खोज दुनिया में है, उसके जीवन्त मॉडल इसी स्वदेशी सोच की उपज है। इसे पश्चिम के उपभोगवादी मॉडल से नहीं समझ जा समझा जा सकता। इस प्रकार बेरोकटोक एफडीआई और कंपनियों की बाढ़ में इस सुगठित परिवार व्यवस्था और संस्कार व्यवस्था पर क्या  ग़लत असर पड़ेगा, इसका भी पूर्व आंकलन करना आवश्यक है। आज की भाषा में इसे सामाजिक प्रभाव आकलन या सोशल इम्पैक्ट असेसमेंट (SIA) कहा जाता है।
6. श्वेतपत्र जारी करना क्यों जरूरी हैं:
हम मान लेते है कि सरकार में आने के बाद कई प्रकार की व्यवहारिक बातें ध्यान आती है।  देश विदेश में भ्रमण से नई समझ विकसित होती होगी। तो पुरानी लकीर का फकीर बने रहना अच्छा नहीं होता। चलो, एक बार इस तर्क को मान लेते हैं। तो फिर इस नयी सोच पर इतना बड़ा यू-टर्न लेने से पहले क्या जनता  को विश्वास में लेना भी जरूरी नहीं था? और जो इतनी बड़ी नई समझ विकसित हुई है तो क्या इस एफडीआई के सम्बन्ध में एक श्वेतपत्र लाना क्या जरूरी नहीं बन जाता है। देश को बताया जाये कि अब तक के अनुभव के आधार पर एफडीआई से कितना लाभ हुआ और कितना नुक्सान। इस श्वेत पत्र से देश की भी समझ बढ़ेगी।
जाते-जाते तीन ताज़ा उदाहरण देना चाहूँगा। थॉमस पिकेटि की कुछ समय पूर्व प्रकाशित
अत्यंत चर्चित पुस्तक 'कैपिटल' ने इसी बात को समझाया है। बड़ी कंपनियां गरीब देशों में पूँजी लगाकर अपनी ही जेब भरती है, वहां का भला नहीं करती। एशिया के उभरते देशों का विश्लेषण कर बताया कि उनकी तरक़्क़ी मूलतः अपनी कंपनियों को उभारने व अपने संसाधनों के बल पर ही हुई है। आज पूरे विश्व के हर कोने से यही आवाज आ रही है। इसे बाबुओ, अफसरशाही, बहुराष्ट्रीय निगमो के गठजोड़ द्वारा परोसे तर्कों में अनसुना न किया जाये।
दूसरे, प्रसिद्ध गोल्डमैन सैश की रिपोर्ट न. 189 जो स्पष्ट कहती है कि 2020 तक जो धनराशि भारत को इंफ्रास्ट्रक्चर में 800 बिलियन डॉलर लगानी है वो भारत की घरेलू बचत से ही पूरी हो जायेगी। एक डॉलर भी बाहर से एफडीआई के माध्यम से लाने की जरूरत नहीं। इस रिपोर्ट का हवाला स्वदेशी के एक वरिष्ट नेता अनेक बार दे चुके हैं। तीसरे, पूज्य दत्तोपंत ठेंगडी जी अपने एक भाषण में बताते थे की 1991 में विकसित देशो की ओर से विकासशील देशों की ओर 49 बिलियन डॉलर का अनुदान भेज गया। समाचार पत्रों ने ये तो छापा। परन्तु ये नहीं छापा कि उसी दौरान व्याज आदि के रूप में 147 बिलियन डॉलर विकासशील देशों की ओर से विकसित देशों की ओर गया। मतलब की जितना आया तीन गुना ज्यादा वापिस गया। ओह!

अत: पूज्य ठेंगडी जी के सन् 2000 के वृन्दावन में कहे शब्द आज भी सार्थक हैं : "लोग नहीं जानते कि स्वतन्त्रता और संप्रभुता रहते हुए भी यदि हमारा आर्थिक जीवन विदेशियों के हाथों में जाता है, हमारी इंडस्ट्री, हमारी कृषि, हमारे लघु उद्योग, सारा आर्थिक आधार यदि विदेशियों के हाथ में जाता है, तो हमारी स्वतन्त्रता और सम्प्रभुता का कुछ मतलब नहीं रहेगा। यानी स्वदेशियत्व चला जाये तो फिर आप राजा बने रहें, इससे कुछ लाभ नहीं होने वाला।"
आशा है कि पं. दीनदयाल उपाध्याय एकात्म मानव दर्शन को अंगीकार करनेवाली ये सरकार इस सारे विषय पर उदारतापूर्वक विचारकर अपने एफडीआई संबंधी निर्णय पर पुनर्विचार करेगी। देश की जनता भी इस मामले में सरकार पर उचित दवाव बनाएगी और पूरी दुनिया की बहुराष्ट्रीय निगम भी भारत का ये कठोर सन्देश समझेगी। जनजागरण के लिए प्रकाशित पुस्तक में लिए लेखों के लिए लेखकवृन्द का भी और इन्हें एकत्र कर छपवाने वाली टोली का भी धन्यवाद।