एफडीआई का विषय आज आम चर्चा का मुद्दा है। स्वदेशी जागरण मंच की औ से इस विषय पर अच्छे लेखों का संग्रह छप रहा है। उसकी भूमिका मुझे लिखने को कही गयी। मुझे लगा की कई बार लोग पुस्तक नही पढ़ते और केवल प्रस्तावना ही पढ़ लेते है, सो मैंने अपनी ओर से पूरा मंतव्य इसी में लिख दिया। देखे आपको कैसा लगता है।
प्रस्तावना
आज़ाद भारत की दो तिथियों को लोग हमेशा याद रखेंगे। एक 15 अगस्त 1947, जब वर्षों की गुलामी के बाद हमने आज़ादी पायी । दूसरी उसके 44 साल बाद 24 जुलाई,1991 जब आर्थिक सुधारों के नाम से भारत को फिर गुलामी की ओर धकेलने का प्रयास हुआ। शेष, डंकल प्रस्ताव, विश्व व्यापार संगठन आदि आगे उसी की खरपतवार हैं। आजकल एक सवाल आम लोग पूछ रहे हैं। इस जून 20 जून 2016 या इससे पूर्व, जिस प्रकार प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के दरवाजे भारत सरकार ने खोले हैं, क्या यह इस श्रृंखला में तीसरी तिथि है ?
आओ देखे कि यह प्रश्न लोगों की जुबान पर क्यों आया है? 2012 में जब एफडीआई इन रिटेल का स्वदेशी आंदोलन अपने चरम पर था, तो उस समय हर आदमी के जेहन में यह "एफडीआई" शब्द एक गाली की तरह घर कर गया। संसद में लगभग पूरा विपक्ष और सरकार के अधिकाँश सहयोगी दल यथा सपा, तृणमूल कांग्रेस आदि भी एक जुबान से सभी " एफडीआई" को बुरी तरह कोस रहे थे। वर्तमान सरकार के अधिकाँश नेता डट कर एफडीआई का विरोध कर रहे थे। वे ट्वीट, और ब्यान आज पर जिन्दा है जिसमे आज के सत्ताधारी राजनेताओं में वरिष्ठतम ने एफडीआई की मंजूरी देने के कृत्य की तुलना "कांग्रेस का विदेशियों के हाथों राष्ट्र सौंपने" से की थी। ये बाते, और भाजपा के 2014 के मैनिफेस्टो में ये आश्वासन बड़े अच्छे ढंग दिए गए हैं। लोग परेशान है कि पिछले चार वर्षों में ऐसा क्या हुआ कि भाजपा को अपने पुराने इरादे से पीछे हटना पड़ा।
शायद एक स्पष्टीकरण सरकारी पक्ष का ये होगा कि भले ही यहाँ सिर्फ शब्द 'एफडीआई' आया है, परंतु इसे सभी प्रकार की एफडीआई के बारे में नहीं बोला गया था। सिर्फ एफडीआई इन मल्टीब्रांड रिटेल के बारे में कहा था। ठीक है, ऐसा ही हुआ होगा। तो प्रश्न उठता है की खुदरा व्यापार में बहु ब्रांड को वापिस लेने का आश्वासन क्या निभाया गया है? बिलकुल नहीं। अब, जब वर्तमान सरकार ने ई-कॉमर्स में अमेज़न, अलीबाबा जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को खुली छूट प्रदान कर दी है, तो खुदरा व्यापार में बाकी बचा क्या है? और जब साथ-साथ खाद्य प्रसंस्करण और कृषि उत्पादों के (भारत में निर्मित) के विपणन में भी विदेशी कंपनियों को शतप्रतिशत निवेश की अनुमति मिल गयी तो इस मामले में "अंतिम सांस तक लड़ने " के अभयदान का क्या हुआ? इस लिये रिटेल बहुब्रांड पर यह यू-टर्न समझ से बाहर है।
परंतु साथ साथ ये भी बताते चलें कि स्वदेशी जागरण मंच प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के वर्तमान स्वरुप का शुरू से विरोध करता रहा है, आज भी करता है और आगे भी करता रहेगा। हाँ, हम दुनिया से कतई अलग-थलग अर्थव्यस्था (आइसोलेशन) के समर्थक नहीं है। वसुधैव कुटुम्बकम् हमारी सोच और संस्कृति है। परंतु यह वर्तमान 'वैश्वीकरण' कोई परिवारवाद नहीं है, यह बाज़ारवाद है, उपभोक्तावाद है। भूमंडलीकरण के नाम पर दुनिया का भू-मंडी-करण है। उदारीकरण के नाम पर उधारी-करण है। कुल मिलाकार WTO की व्यवस्था उसी पुराने उपनिवेशवाद को नए ढंग से गरीब देशो पर थोपने की साजिश है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों की लूट का नया तरीका है। इस मौलिक समझ को जागृत और विकसित किये बिना एफडीआई की माया समझ पाना मुश्किल है।
प्रस्तुत पुस्तक ऐसे ही विद्वान लेकिन ज़मीन से जुड़े लेखको के कुछ लेखों का संग्रह है जो इस विषय की बारीकी को बखूबी समझते हैं। इन लेखों में से कुछ सिद्धान्तवादी व राष्ट्रवादी -- किसान, मजदूर और लघु उद्योग आन्दोलनों से जुड़े - संगठनों द्वारा प्रेषित लेख भी है। वे प्रस्तुतियाँ उन संगठनों की इस विषय पर सोच को परिलक्षित करती हैं।आशा है पुस्तक पढ़ने के बाद आपको लगेगा कि एफडीआई के गोरखधंधे को समझने का यह एक ईमानदार और सार्थक प्रयास है। आइये, एक बार सिलसिलेवार देखें कि कौन-कौन से तर्क विभिन्न सरकारों द्वारा एफडीआई के पक्ष में दिए जाते है । यहाँ उनके खोखलेपन को भी आप स्वयं देख लेवें:
1. क्या एफडीआई से रोजगार बढेगा?
कहा जाता है की देश में रोजगार की कमी है। यदि बहुराष्ट्रीय कंपनियां यहां नए कारखाने शुरू करेगी तो रोजगार स्वाभाविक रूप से बढ़ेगा। पर सच्चाई इसके उल्ट है।
एफडीआई से रोजगार बढने की सम्भावना तलाशना महज एक मृग-मारिचिका है। पूरी दुनिया में इस समय रोजगार विहीन विकास का दौर चल रहा है । जब से भारत ने अपने यहां विदेशी निवेश को बढ़ाया है तभी से बेरोजगारी में और वृद्धि हुई है। गत 12 वर्षों में मात्र 1.6 करोड़ रोजगार सृजित हुए है जबकि 14.5 करोड़ लोगों को इसकी तलाश थी। यदि यू.एन.ओं की संस्था अंकटाड की माने तो दुनियाभर में 41 प्रतिशत एफ.डी.आई ब्राउन फील्ड में आयी है । अर्थात पुराने लगे उद्योंगों को ही बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने हथियाया है, कोई नया उद्योग शुरू नहीं किया। ऐसे में नए रोजगार सृजन की सम्भावना हो ही नहीं सकती। यह बात
भी कोई छुपी हुई नहीं है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनीयों का जोर केवल स्वचालित या रोबोट प्रणाली द्वारा निर्माण व उत्पादन करने का रहता है। जिसके चलते बची खुची रोजगार की सम्भावनाएं और कम हो रही है। हमारे आज के सभी बड़े नेताओं की जुबान पर वाल्मार्ट का एक क्लासिक उदाहरण बोलने के लिये सहज रहता था। भारतीय मॉडल में जितना व्यापार करोड़ो हाथों तक पहुँचता था वही वालमार्ट के मॉडल में महज लाखों तक मिलता है। इसलिए विदेशी विकास के मॉडल में रोज़गार कम होंगे, बिलकुल बढ़ेंगे नहीं।
2. क्या एफडीआई से देश में अधिक पूँजी आएगी:
इसी प्रकार से विदेशी पूँजी जितनी आती है उससे दुगुनी से भी अधिक पूंजी रायॅल्टी व लांभाश आदि द्वारा विकसित देश चली जाती है।। इसी लिए कहा गया एफडीआई द्वारा पूँजी "आधी आए, दुगनी जाए, अंधी पीसेे, कुत्ता खाए।
एशियाई टाइगर कही जाने वाली अर्थव्यवस्थाओं की पोस्ट मार्टम रिपोर्ट भी यही कहती है। जरा आंकड़ो पर दृष्टि डालें तो बात और ज्यादा समझ आएगी।
2012-13 में भारत में 26 अरब डॉलर का विदेशी निवेश हुआ और 31.7 अरब डॉलर बाहर निकल गया। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के वेतन, मुख्यालय खर्च, व्याज, मुनाफा आदि की मदो में ये राशि बाहर साइफोन हो गयी। भारत को क्या मिला? बस झूठे आश्वासन, एनरॉन जैसे घोटाले और भोपाल जैसी गैस त्रासदी! क्या आगे भी हम यही चाहते है?
ग्लोबल फिनेंशल इंटीग्रिटी के आंकड़ो को देखें तो पूरी दुनिया में इसी तरह की लूट इन बहुराष्ट्रीय कपनियों ने की है। 2010 में पूरे विश्व् के विकासशील देशो में 506 अरब डॉलर का विदेशी निवेश प्राप्त हुआ। थोडा पीछे का आंकड़ा देखेगे तो पोल खुल जायेगी। 2006 में सारे विकासशील देशो में 858 अरब डॉलर गैर कानूनी ढंग से इन बहुराष्टीय कंपनियों ने बाहर निकाला था। सो मतलब साफ़ है कि किसी गरीब को एक बोतल खून देने की घोषणा करना और उल्टा उसी मरीज का दो बोतल खून निकाल लेना। बस यही है बहुराष्ट्रिय कंपनियो के तथाकथित रक्तदान शिविर का फण्डा! बात यहीं ख़त्म नहीं होती! ये लोग बेहोश गरीब का अंगूठा लगवा लेते है 'अंगदान' के फ़ार्म पर । ब्राउनफ़ील्ड इन्वेस्टमेंट, डिसइनवेस्टमेंट, अधिग्रहण, मर्जर, आदि ये सारे शब्द गरीबों के अंग निकालने के सामान है।
3,क्या उच्च श्रेणी की टेक्नोलॉजी देश में आएगी:
आज तक कोई उच्च तकनीक किसी विकासशील देश को इन कंपनियों द्वारा नहीं दी गयी है। वैसे भी जिसे स्टेट-ऑफ़-आर्ट टेक्नोलॉजी कहा जाता है, उसको देने का अधिकार उस देश की सरकार का होता है, न कि वहां की कॉम्पनी को। जरा विचार करें कि भारत द्वारा सुपर कंप्यूटर से लेकर चंद्रयान और नाविक जैसी उच्च तकनीक जो है वह सिर्फ स्वदेशी प्रयासों द्वारा अर्जित हुई है, दुनिया ने हमें नहीं दी। ऐसे में कलाम साहिब की उस उदघोषणा को याद करना चाहिए की ' हमारे वैज्ञानिक अपने भरोसे भारत को दुनिया के "फ्रंट रैंकिंग नेशन्स में बिठा सकते हैं। शर्त है कि 'इच्छा शक्ति' होनी चाहिए।' उसी रास्ते को आगे बढ़ाना है। अन्वेषण पर खर्च बढ़ाना चाहिए। इस पुस्तक में श्री त्यागी जी के विचार पढ़ेंगे तो इस विषय पर और अधिक जानकारी मिलेगी।
4.क्या इससे स्वस्थ प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी:
कोका-पेप्सी का भारत में काला इतिहास बताता है की ये कंपनियां एकाधिकार करती है और स्वस्थ प्रतियोगिता की संभावनाएं भी ख़त्म कर देती है। पूरी दुनिया का अनुभव है की ये कंपनियां पेटेंट द्वारा, कार्टेल द्वारा या अन्य हथकंडे अपना कर पूरे बाजार पर एकाधिकार करती है। ग्राहक को केवल उन्ही का सामान खरीदने को मजबूर करती है। हमारा दवा उद्योग दुनिया की जेनेरिक व सस्ती दवाईयों का कारखाना है। आज दुनिया भर के 35 प्रतिशत मरीज भारत की सस्ती दवाईयों पर आश्रित है। ऐसे में यदि 74 प्रतिशत ब्राउन फील्ड निवेश ओटोमेंटिक रूट से, एवं 100 प्रतिशत सरकारी अनुमति के कारण से आता है, भारत के इस दवा उद्योग हेतु अत्यंत ही खतरनाक है। यह हमारे फार्मा सेक्टर को अपूरणीय क्षति पहुचायेंगा। बल्कि साथ ही साथ दुनिया की गरीब जनता का एक मात्र सस्ता व वहनीय विकल्प भी छिन जायेगा। निजी सुरक्षा अजेंसी को ये छूट जासूसी का जाल देश में बिछा देगी।डॉ अश्वनी जी व भगवती प्रकाश शर्मा जी के लेख इस पर पर्याप्त प्रकाश डालेंगे।
5. क्या अत्यधिक उन्मुक्त अर्थव्यवस्था से अपनी संस्कृति खतरे में आएगी:
वैसे भी भारत दुनियां के सर्वाधिक परम्परागत देशों में से एक है। ऋषि मुनियों और मनीषियो द्वारा सिंचित इस परम्परा का समाज विज्ञान और अर्थशास्त्र से गूढ़ सम्बन्ध है। आज जिस सतत विकास, पर्यावरण रक्षा, घरेलू बचत आदि की खोज दुनिया में है, उसके जीवन्त मॉडल इसी स्वदेशी सोच की उपज है। इसे पश्चिम के उपभोगवादी मॉडल से नहीं समझ जा समझा जा सकता। इस प्रकार बेरोकटोक एफडीआई और कंपनियों की बाढ़ में इस सुगठित परिवार व्यवस्था और संस्कार व्यवस्था पर क्या ग़लत असर पड़ेगा, इसका भी पूर्व आंकलन करना आवश्यक है। आज की भाषा में इसे सामाजिक प्रभाव आकलन या सोशल इम्पैक्ट असेसमेंट (SIA) कहा जाता है।
6. श्वेतपत्र जारी करना क्यों जरूरी हैं:
हम मान लेते है कि सरकार में आने के बाद कई प्रकार की व्यवहारिक बातें ध्यान आती है। देश विदेश में भ्रमण से नई समझ विकसित होती होगी। तो पुरानी लकीर का फकीर बने रहना अच्छा नहीं होता। चलो, एक बार इस तर्क को मान लेते हैं। तो फिर इस नयी सोच पर इतना बड़ा यू-टर्न लेने से पहले क्या जनता को विश्वास में लेना भी जरूरी नहीं था? और जो इतनी बड़ी नई समझ विकसित हुई है तो क्या इस एफडीआई के सम्बन्ध में एक श्वेतपत्र लाना क्या जरूरी नहीं बन जाता है। देश को बताया जाये कि अब तक के अनुभव के आधार पर एफडीआई से कितना लाभ हुआ और कितना नुक्सान। इस श्वेत पत्र से देश की भी समझ बढ़ेगी।
जाते-जाते तीन ताज़ा उदाहरण देना चाहूँगा। थॉमस पिकेटि की कुछ समय पूर्व प्रकाशित
अत्यंत चर्चित पुस्तक 'कैपिटल' ने इसी बात को समझाया है। बड़ी कंपनियां गरीब देशों में पूँजी लगाकर अपनी ही जेब भरती है, वहां का भला नहीं करती। एशिया के उभरते देशों का विश्लेषण कर बताया कि उनकी तरक़्क़ी मूलतः अपनी कंपनियों को उभारने व अपने संसाधनों के बल पर ही हुई है। आज पूरे विश्व के हर कोने से यही आवाज आ रही है। इसे बाबुओ, अफसरशाही, बहुराष्ट्रीय निगमो के गठजोड़ द्वारा परोसे तर्कों में अनसुना न किया जाये।
दूसरे, प्रसिद्ध गोल्डमैन सैश की रिपोर्ट न. 189 जो स्पष्ट कहती है कि 2020 तक जो धनराशि भारत को इंफ्रास्ट्रक्चर में 800 बिलियन डॉलर लगानी है वो भारत की घरेलू बचत से ही पूरी हो जायेगी। एक डॉलर भी बाहर से एफडीआई के माध्यम से लाने की जरूरत नहीं। इस रिपोर्ट का हवाला स्वदेशी के एक वरिष्ट नेता अनेक बार दे चुके हैं। तीसरे, पूज्य दत्तोपंत ठेंगडी जी अपने एक भाषण में बताते थे की 1991 में विकसित देशो की ओर से विकासशील देशों की ओर 49 बिलियन डॉलर का अनुदान भेज गया। समाचार पत्रों ने ये तो छापा। परन्तु ये नहीं छापा कि उसी दौरान व्याज आदि के रूप में 147 बिलियन डॉलर विकासशील देशों की ओर से विकसित देशों की ओर गया। मतलब की जितना आया तीन गुना ज्यादा वापिस गया। ओह!
अत: पूज्य ठेंगडी जी के सन् 2000 के वृन्दावन में कहे शब्द आज भी सार्थक हैं : "लोग नहीं जानते कि स्वतन्त्रता और संप्रभुता रहते हुए भी यदि हमारा आर्थिक जीवन विदेशियों के हाथों में जाता है, हमारी इंडस्ट्री, हमारी कृषि, हमारे लघु उद्योग, सारा आर्थिक आधार यदि विदेशियों के हाथ में जाता है, तो हमारी स्वतन्त्रता और सम्प्रभुता का कुछ मतलब नहीं रहेगा। यानी स्वदेशियत्व चला जाये तो फिर आप राजा बने रहें, इससे कुछ लाभ नहीं होने वाला।"
आशा है कि पं. दीनदयाल उपाध्याय एकात्म मानव दर्शन को अंगीकार करनेवाली ये सरकार इस सारे विषय पर उदारतापूर्वक विचारकर अपने एफडीआई संबंधी निर्णय पर पुनर्विचार करेगी। देश की जनता भी इस मामले में सरकार पर उचित दवाव बनाएगी और पूरी दुनिया की बहुराष्ट्रीय निगम भी भारत का ये कठोर सन्देश समझेगी। जनजागरण के लिए प्रकाशित पुस्तक में लिए लेखों के लिए लेखकवृन्द का भी और इन्हें एकत्र कर छपवाने वाली टोली का भी धन्यवाद।
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