DATA TO REMEMBER 3
असमानता पर एक लेख
१. 2016 स्विट्जरलैंड के बर्फीले नगर दावोस में वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की बैठक की पूर्व संध्या पर ब्रिटेन की संस्था ऑक्सफाम ने एक रिपोर्ट जारी की, जिससे पूरी दुनिया में हंगामा मच गया. पहली बात कि 'iएन इकोनॉमी फॉर दी 1%’ नामक इस रिपोर्ट में बताया गया है कि आज महज बासठ खरबपतियों की संपत्ति 17.6 खरब डॉलर (1187.64 खरब रुपए) है, जो विश्व की आधी आबादी की दौलत के बराबर है। दूसरी कि, एक प्रतिशत अमीरों के पास शेष निन्यानबे फीसद जनसंख्या के बराबर दौलत है। तीसरी बात और भी अजीब कि पिछले पांच साल में जहां ‘सुपर रिच’ तबके की संपत्ति में चौवालीस फीसद इजाफा हुआ है, वहीं दुनिया के 3.6 अरब लोगों की संपत्ति इकतालीस प्रतिशत घट गई। चौथी जो सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि इन धन्नासेठों के पास जो धन-दौलत है, वह दुनिया के 118 देशो के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के बराबर है। मतलब की मंदी अगर पड़ी है तो ग़रीबों की लिए क्योंकि अमीर और ज़्यादा अमीर हुए और ग़रीब लगातार ग़रीब। इसके लिए पाँचवा आँकड़े को देखना चाहिए। वर्ष 2010 में 388 अमीरों की संपत्ति दुनिया की आधी आबादी की कुल दौलत के बराबर थी, जबकि 2011 में उनकी संख्या घट कर 177, 2012 में 159, 2013 में 92, 2014 में 80 और 2015 में 62 रह गई। विकास का ये मॉडल है ज़िम्मेवार : इस सच से अब कोई इनकार नहीं कर सकता कि विकास की मौजूदा डगर पर चलने से ही गरीब-अमीर के बीच की खाई निरंतर चौड़ी होती जा रही है। किताबों se जब जी भर जाए तो, Sadak ko भेजे पढ़ लेना चाहिए, Kitabon se jab pet bhar jaye to Sadak ko bhee jarआ pad Lena chahiye, Kyonki kuchh Jinda chapters aise bhee hote haen. Jinke liye majhab, philosophy ka matlab, Sirf do vakt Ki Roti hota Hae, Sapno se jab jee bhar jaye yo, Saamne bhee dekh Lena chahiye kyonki, Kuchh aisle bhee khyalaat hae jinke liye, Gaane bajane, taraane ka matlab, Sirf Do vakt ki Roti hota hae.
2015,oxfam report, an economy for 1%, 62 kharabpati = 50 % of world GDP = 118 Desh GDP 2010, 388, 11,177, in 12, 159, 13- 92, 14 - 80
2. . भारत में आम धारणा यही है कि देश के बाहर जाने वाले काले धन का मुख्य स्रोत नेताओं या बड़े सरकारी अफसरों को मिलने वाली रिश्वत, घरेलू व्यापारियों द्वारा इनवाइस में हेरा-फेरी से होने वाली दो नंबर की कमाई या हवाला कारोबार से उपजा पैसा है, लेकिन काले धन पर ग्लोबल फाइनेंशियल इंटिग्रिटी (जीएफइ) की ताजा रिपोर्ट पढ़ने के बाद यह भ्रम टूट जाता है। जीएफइ की गत दिसंबर में जारी रिपोर्ट- ‘इलिसिट फाइनेंशियल फ्लो फ्रॉम डेवलपिंग कन्ट्रीज: 2004-2013’ के अनुसार उक्त अवधि में भारत से करीब 400 खरब रुपए की काली कमाई बाहर गई और यह सारा धन बहुराष्ट्रीय कंपनियों का है। इसमें एक इकन्नी भी नेताओं, सरकारी अफसरों, घरेलू व्यापारियों या हवाला कारोबारियों की नहीं है। हां, अगर जीएफइ के घोषित काले धन में उनका नंबर दो का पैसा जोड़ दिया जाए, तो आंकड़ा और ऊंचा हो जाएगा। हर साल खातों में हेरा-फेरी कर भीमकाय एमएनसी भारी कर चोरी करती हैं और फिर यह पैसा बाहर भेज देती हैं। विदेशी बैंकों में जमा कुल काले धन में एमएनसी की हिस्सेदारी 83.4 फीसद है। भारत सरकार के वित्त मंत्रालय के अनुसार सन 2000 से 2015 के बीच देश को कुल 399.2 अरब डॉलर का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआइ) मिला, जबकि 2004-13 में काले धन के रूप में 510 अरब डॉलर बाहर चले गए। इस प्रकार महज दस बरस के भीतर भारत को 112.8 अरब डॉलर का घाटा हुआ। यह एक आंकड़ा ही एफडीआइ की चमक की पोल खोलने को काफी है। ३. काला धन देशों के क़र्ज़ से भी ज़्यादा: टैक्स जस्टिस नेटवर्क (टीजेएस) ने निम्न और मध्य आयवर्ग के 139 देशों का अध्ययन किया, जिसमें चौंकाने वाले तथ्य सामने आए। वर्ष 1970 और 2010 की बीच की अवधि में विदेशी निवेश करने वाली बड़ी कंपनियों ने जिस देश में जितना धन लगाया, उससे कहीं अधिक कमा कर बाहर भेजा। सन 2010 में इन राष्ट्रों के मुट््ठी भर आभिजात्य वर्ग के पास 70.3 से लेकर 90.3 खरब डॉलर (4682-6014 खरब रुपए) की अघोषित दौलत थी, जबकि कर्ज की रकम 40.8 खरब डॉलर (2717 खरब रुपए) थी। मतलब यह कि अंगुलियों पर गिने जाने वाले धन्ना सेठों के पास पूरे देश पर चढ़े कर्जे से अधिक काला धन था
3. Corporatocracy and Perkinson: Mallaby, who spent 13 years writing for the London Economist and wrote a critically well-received biography of World Bank chief James Wolfensohn,[4] holds that Perkins' conception of international finance is "largely a dream.He also disputes Perkins' claim that 51 of the top 100 world economies belong to companies. A value-added comparison done by the UN, he says, shows the number to be 29. (The 51 of 100 data comes from an Institute for Policy Studies Dec 2000 Report on the Top 200 corporations; using 2010 data from the CIA's World Factbook and Fortune Global 500 the current ratio is 114 corporations in the top 200 global economies.).
4. Jobless corporate growth A study [July 2013] by Credit Suisse Asia Pacific India Equity Research Investment Strategy revealed that after more than two decades of economic liberalisation, the share of the formal sector, (namely the public and private corporate sectors together) in national GDP stood at just 15 per cent and that of listed corporates was just 5 per cent. Despite all the pampering by the government and economists, the formal sector's share of the nation’s GDP improved by just 3 per cent in more than two decades. In this period, the sector had received foreign investment by debt and equity of over $550 billion and also drew over Rs 18 lakh crore from banks as credit. But how many jobs did it add in this period? Believe it, just 2.8 million! Economists would never mention the huge investment into the formal sector nor the insignificant number of jobs added by it, so that they need not answer either why it produced such jobless growth or ask who else provided the jobs. When I brought this to his notice, a shocked N R Narayanamurthy told me that as the software sector itself had added 3.5 million jobs, it meant that the rest of the corporate sector had actually cut jobs by over 700,000, rather than adding any. Did any economist or prime minister ever speak this hard truth that the big corporates do not provide jobs to the people? Prime Minister Narendra Modi spoke this truth when he unveiled the Mudra finance scheme to the non-corporate sector on April 9, 2015. He said: “People think it’s big industries and corporate houses that provide higher employment. The truth is, only 12.5 million people are employed by big corporates, against 120 million by MSME sector.” He reiterated it when he wrote to small businessmen on April 15, 2015. Unfunded job rich sector And where from then did the jobs and people’s livelihood come? The Credit Suisse study says that 90 per cent of the total of 474 million jobs in India is generated by the non-corporate sector which contributes half the national GDP. The study labels this sector in the global language as the informal sector. But it adds that unlike in the West, where the informal sector is largely an illegal sector, in India it is legal business which remains informal only because the government has been unable to reach out to it. The Economic Census (2013-14) says that some 57.7 million non-farming and non-construction businesses yield 128 million jobs. The census classifies them as Own Account Enterprises (OAEs), implying it is self-employment. The census finds that over 60 per cent of OAEs are run by entrepreneurs belonging to Other Backward Castes, Scheduled Castes and Scheduled Tribes; more than half the OAEs and as many jobs provided by them are in rural areas; and nine out of 10 OAEs are unregistered. But this sector, which ensures both social justice and is rich in generating jobs, gets just 4 per cent of its credit needs from the formal banking system and the rest at usurious rates of interest. Here is a paradox. The banks fund corporates which add very little jobs. They are unable to fund the OAEs which generate ten times the jobs the corporates provide. Citing the Credit Suisse study, The Economist magazine (August 2013) wrote that the best way the Indian informal economy may be formalised is to provide formal finance to them. The capital employed in the 57.7 million units is about Rs 11.4 lakh crore, according to the Economic Census. This informal (cash) financing takes place outside the formal monetary system supervised by the Reserve Bank. The Mudra finance scheme is based on the experience that banks cannot fund this sector. It has devised an innovative method of associating existing large Non Banking Finance Companies providing finance to this sector as National and State Level Coordinators and the small ones as Last Mile Lenders. Without co-opting the existing non-formal finance players, the OAEs cannot be funded.
5. MBA करने के बाद कितने छात्रों को मिलती है नौकरी, : बुधवार अप्रैल 27, 2016 05:20 PM IST प्रतीकात्मक तस्वीर लखनऊ: मोटी रकम लेकर एमबीए ग्रेजुएट तैयार कर रहे ज्यादातर बिजनेस स्कूलों से बेरोजगारों और अर्धबेरोजगार 'पेशेवरों' की खेप दर खेप निकल रही हैं। उद्योग मंडल 'एसोचैम' के एक ताजा अध्ययन में किए गए महत्वपूर्ण सर्वेक्षण में यह चौंकाने वाला तथ्य सामने आया है। १. पहली बात कि एसोचैम की एजुकेशन कमेटी द्वारा कराए गए एक सर्वेक्षण के मुताबिक देश में चल रहे 5500 बिजनेस स्कूलों में से सरकार द्वारा संचालित भारतीय प्रबंध संस्थानों तथा कुछ मुट्ठी भर संस्थाओं को छोड़कर बाकी सभी इदारों से डिग्री लेकर निकलने वाले ज्यादातर छात्र-छात्राएं कहीं भी रोजगार पाने के लायक नहीं हैं। आलम यह है कि एमबीए की डिग्री रखने वाले बड़ी संख्या में लोग 10 हजार रुपये से कम की पगार पर नौकरी कर रहे हैं, जो अर्धबेरोजगारी की निशानी है। २. महज 7% छात्र-छात्राएं ही रोजगार : , सर्वे में इन बिजनेस स्कूलों के स्तर में गिरावट पर चिंता जाहिर करते हुए बताया गया है कि उनमें से अनेक संस्थानों का समुचित नियमन भी नहीं हो रहा है और आईआईएम संस्थानों से निकलने वाले छात्र-छात्राओं को छोड़ दें तो बाकी स्कूलों और संस्थानों से पढ़कर निकलने वाले पेशेवरों में से केवल सात प्रतिशत छात्र-छात्राएं ही रोजगार देने योग्य बन पाते हैं। ३. कैंपस रिक्रूटमेंट में भी 45% तक की भारी गिरावट सर्वेक्षण के मुताबिक पिछले दो वर्षों के दौरान दिल्ली-राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र, मुंबई, कोलकाता, बेंगलूर, अहमदाबाद, लखनऊ, हैदराबाद, देहरादून इत्यादि शहरों में करीब 220 बिजनेस स्कूल बंद हो चुके हैं। इसके अलावा कम से कम 120 ऐसे संस्थान इस साल बंद होने की कगार पर हैं। शिक्षा की निम्न गुणवत्ता और आर्थिक मंदी की वजह से वर्ष 2014 से 2016 के बीच कैम्पस रिक्रूटमेंट में भी 45 प्रतिशत तक की भारी गिरावट आई है। ४. बिजनेस स्कूलों की संख्या तीन गुना बढ़ी रावत ने कहा कि पिछले पांच साल के दौरान देश में बिजनेस स्कूलों की संख्या तीन गुना बढ़ गई है। वर्ष 2015-16 में इन स्कूलों में एमबीए पाठ्यक्रम के लिए कुल पांच लाख 20 हजार सीटें उपलब्ध थीं। वर्ष 2011-12 में यह संख्या तीन लाख 60 हजार थी। उन्होंने कहा कि गुणवत्ता नियंत्रण तथा मूलभूत ढांचे की कमी, कैम्पस प्लेसमेंट के जरिये कम वेतन वाली नौकरियां मिलना और योग्य शिक्षकों की कमी की वजह से भारत में बिजनेस स्कूलों की दुर्दशा है। ज्यादातर बिजनेस स्कूलों में शिक्षा के स्तर को उन्नत करने तथा मौजूदा वैश्विक परिदृश्य के अनुसार शिक्षकों को प्रशिक्षित करने की जरूरत नहीं महसूस की जाती है। इसकी वजह से उनमें पढ़ाए जाने वाले पाठ्यक्रम व्यर्थ साबित होते हैं। ५. 20 से 30% इंजीनियरिंग ग्रेजुएट को रोजगार नहीं मिलता सर्वेक्षण के मुताबिक, एमबीए के दो साल के पाठ्यक्रम के लिए हर छात्र आमतौर पर तीन से पांच लाख रुपये खर्च करता है, लेकिन शीर्ष 20 बिजनेस स्कूलों और संस्थानों को छोड़कर बाकी इदारों से पढ़कर निकलने वाले ज्यादातर पेशेवरों को मात्र आठ से 10 हजार रुपये प्रतिमाह के वेतन पर काम करना पड़ रहा है। रावत ने कहा कि भारत में बिजनेस क्षेत्र की उच्च शिक्षा की गुणवत्ता बेहद खराब है और वह कॉरपोरेट जगत की जरूरतों को सामान्यत: पूरा नहीं कर पाती है। उन्होंने कहा कि देश में हर साल 15 लाख इंजीनियरिंग ग्रेजुएट पढ़कर निकलते हैं और उनमें से 20 से 30 प्रतिशत को रोजगार नहीं मिलता। इसके अलावा बड़ी संख्या में इंजीनियर्स को उनकी अर्जित योग्यता के अनुरूप नौकरी नहीं मिल पाती
6. KOFI ANNAN'S Astonishing Facts! THE HAVES -- The richest fifth of the world's people consumes 86 percent of all goods and services while the poorest fifth consumes just 1.3 percent. Indeed, the richest fifth consumes 45 percent of all meat and fish, 58 percent of all energy used and 84 percent of all paper, has 74 percent of all telephone lines and owns 87 percent of all vehicles. . COSMETICS AND EDUCATION -- Americans spend $8 billion a year on cosmetics -- $2 billion more than the estimated annual total needed to provide basic education for everyone in the world. THE HAVE NOTS -- Of the 4.4 billion people in developing countries, nearly three-fifths lack access to safe sewers, a third have no access to clean water, a quarter do not have adequate housing and a fifth have no access to modern health services of any kind. ICE CREAM AND WATER -- Europeans spend $11 billion a year on ice cream -- $2 billion more than the estimated annual total needed to provide clean water and safe sewers for the world's population. PET FOOD AND HEALTH -- Americans and Europeans spend $17 billion a year on pet food -- $4 billion more than the estimated annual additional total needed to provide basic health and nutrition for everyone in the world. $40 BILLION A YEAR -- It is estimated that the additional cost of achieving and maintaining universal access to basic education for all, basic health care for all, reproductive health care for all women, adequate food for all and clean water and safe sewers for all is roughly $40 billion a year -- or less than 4 percent of the combined wealth of the 225 richest people in the world.
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