Thursday, June 21, 2018
योग के फायदे
Monday, June 4, 2018
गुरु गौरखनाथ कोहेनूर हीरा
आज गोरखपुर में गुरु गोरखनाथ मंदिर का दर्शन किया। बहुत लोग समझते है कि महंत अवेद्यनाथ या मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के कारण यह मंदिर प्रसिद्ध हो रहा है....बिल्कुल गलत बात है। मुझे याद आया कि ओशो ने उन्हें हीरो में कोहिनूर हीरा कहा। ओशो से कभी महाकवि सुमित्रानंदन पंत ने पूछा कि अगर भारत के बारह महापुरुषों का ही नाम लेना हो तो किन्हें गिनोगे, वे बोले :कृष्ण, पतंजलि, बुद्ध, महावीर,नागार्जुन, शंकर, गोरख, कबीर, नानक, मीरा, रामकृष्ण, कृष्ण मूर्ति। फिर कहा कि कोई 7 चुने तो ...और अंत मे कहा अगर चार चुनने हो तो उन्होंने - कृष्ण, पतंजलि, बुद्ध और गौरखनाथका नाम लिया। साथ ही वे बोले कि अब इससे कम नहीं क्योंकि ये चार दिशाओ जैसे हैं, दिशाएँ चार से कम नहीं। गुरु गौरखनाथ का ऐसाअद्भुत वर्णन मैने कभी पहले व अन्यत्र सुना नही था। साथ ही बताता चलूं की उनकी सूची ऑब्जेक्टिव टाइप नही थी, पूरा वर्णन, गज़ब का विश्लेषण किया है गौरखनाथ के बारे में।आज मंदिर के प्रति लोगों की अपार श्रद्धा देखकर मैंने नेट से वो पूरा प्रसंग निकाला। समय लगे तो नीचे पढ़े।,,,,,,,,,
उन्होंने महाकवि सुमित्रानंदन पंत ने मुझसे एक बार पूछा कि भारत के धर्माकाश में वे कौन से सबसे चमकते हुए सितारे है? मैंने उन्हें सूची दी: कृष्ण, पतंजलि, बुद्ध, महावीर,नागार्जुन, शंकर, गोरख, कबीर, नानक, मीरा, रामकृष्ण, कृष्ण मूर्ति।
उन्होंने फिर मुझसे पूछा: तो फिर ऐसा करें सात नाम मुझे दें। अब बात और कठिन हो गई थी। मैंने उन्हें सात नाम दिये: कृष्ण, पतंजलि, बुद्ध, महावीर, शंकर, गोरख, कबीर। उन्होंने कहा आपने जो पाँच नाम छोड़ दिये, वे किस आधार पर। मैंने कहां नागार्जुन बुद्ध में सम्माहित है। जो बुद्ध में बीज-रूप था, उसी को नागार्जुन ने प्रगट किया है। नागार्जुन ने प्रगट किया है। नागार्जुन छोड़े जा सकते है। और जब बचाने की बात हो तो वृक्ष छोड़े जा सकते है। बीज नहीं छोड़े जा सकते। क्योंकि बीज से फिर वृक्ष हो जाएगा। जहां बुद्ध पैदा होंगे वहां सैकडों नागार्जुन पैदा हो जाएंगे, लेकिन कोर्इ नागार्जुन बुद्ध को पैदा नहीं कर सकता। बुद्ध तो गंगोत्री है, नागार्जुन तो फिर गंगा के रास्ते पर आये हुए एक तीर्थ स्थल है—प्यारे है, अगर छोड़ना हो तो तीर्थ स्थल छोड़े जा सकते है। गंगोत्री नहीं छोड़ी जा सकती है।
ऐसे ही कृष्ण मूर्ति भी बुद्ध में समा जाते है। रामकृष्ण, कृष्ण में सरलता से लीन हो जाते है। मीरा, नानक, कबीर में लीन हो जाते है। जैसे कबीर की ही साखायें है। जैसे कबीर में जो इक्कठ्ठा था, वह आधा नानक में प्रगट हुआ और आधा मीरा में। नानक में कबीर का पुरूष रूप प्रगट हुआ है—इसलिए सारा सिक्ख धर्म क्षत्रिय का धर्म हो गया, योद्धा का, तो आर्श्चय नहीं है। मीरा में कबीर का स्त्रैण रूप प्रगट हुआ है—इसलिए सारा माधुर्य, सारी सुगंध सारा सुवास, सारा संगीत,मीरा के पैरों में धुँघरू बन कर बजा है। मीरा के इकतारे पर कबीर की नारी गाई है, नानक में कबीर का पुरूष रूप बोला है। दोनों कबीर में समाहित हो जाते है।
इस तरह मैंने सात की सूची बनाई। अब उनकी उत्सुकता बहुत बढ़ गयी थी। उन्होंने कहा: और अगर पाँच की सूची बनाई जाए तो। मैंने कहां काम मेरे लिए कठिन हो गया है। मैंने यह सूची उन्हें दी: कृष्ण, पतंजलि, बुद्ध, महावीर, गोरख....। क्योंकि कबीर को गोरख में लीन किया जा सकता है। गोरख मूल है। गोरख नहीं छोड़े जा सकता। और शंकर तो कृष्ण में सरलता से लीन हो जाते है। कृष्ण के ही एक अंग की व्याख्या है, कृष्ण के ही एक अंग का दार्शनिक विवेचन है।
तब तो वे बोले: बस एक बार और....। अगर चार ही रखने हों।
तो मैंने कहां:’’ कृष्ण, पतंजलि, बुद्ध, गोरख....। क्योंकि महावीर बुद्ध से बहुत भिन्न नहीं है। थोडे ही भिन्न है। जरा-सा ही भेद है। वह भी अभिव्यक्ति का भेद है। बुद्ध की महिमा में महावीर की महिमा लीन हाँ सकती है।
वे कहने लगे एक बार और .....। अब तीन व्यक्ति चुनें।
तब मैंने कहां: अब असंभव है। अब इन चार में से किसी को भी छोड़ा नहीं जा सकता। मैंने उन्हें कहां: जैसे चार दशाएं है, ऐसे ये चार व्यक्तित्व है। जैसे काल और क्षेत्र के चार आयाम है, ऐसे ये चार महापुरुष है।जैसे परमात्मा की हमने चार भुजाओं सोची है, ऐसी ये चार भू जाएं है। ऐसे तो एक ही है, लेकिन उस एक की चार भुजाएं है। अब इनमें से कुछ छोड़ना तो हाथ काटने जैसे है। यह मैं न कर सकूंगा। अभी तक में आपकी बात मानकर चलता रहा, संख्या कम करता रहा। क्योंकि अभी तक जो अलग करना पडा वह वस्त्र था, अब अंग तोड़ने पड़ेंगे। अंग-भंग मैं न कर सकूंगा। ऐसी हिंसा आप न करवायें।
वे कहने लगे: आपने महावीर को छोड़ दिया, गोरख को नहीं?
गोरख को नहीं छोड़ सकता हूं, क्योंकि गोरख से इस देश में एक नया ही सूत्रपात हुआ है, महावीर से न कोई नया नहीं हुआ है। वे अपूर्व पुरूष है। मगर जो सदियों से कहा गया था, उन्होंने उसकी पुनरूक्ति की है। वे किसी यात्रा का प्रांरभ नहीं है। वे किसी नया शृंखला की पहली कड़ी नहीं है, बल्कि अंतिम कड़ी है।
गोरख एक शृंखला की पहली कड़ी है। उनसे नए प्रकार के धर्म का जन्म हुआ, अविभाव हुआ। गोरख के बिना न तो कबीर हो सकते थे, न नानक हो सकते थे। न दादू, ना वाजिद, न फरिद, न मीरा, गोरख के बिना ये कोर्इ भी न हो सकते थे। इन सब के मौलिक आधार गोरख में है। फिर मंदिर बहुत ऊँचा उठा। मंदिर पर बड़े स्वर्ण कलश चढ़े.....। लेकिन नींव का पत्थर नींव का पत्थर है। और स्वर्ण कलश दूर से दिखाई दे जाते है। लेकिन नीव के पत्थर से ज्यादा मूल्यवान नहीं हो सकते है। और नींव भित्तियों सारे शिखर...। शिखर की पूजा होती है, बुनियाद के पत्थरों को तो लोग भूल ही जाते है। ऐसे ही गोरख भी भूल गए थे।
लेकिन भारत की सारी संत-परंपरा गोरख की ऋणी है। जैसे पतंजलि के बिना भारत में योग की कोई संभावना न रह जाएगी; जैसे बुद्ध के बिना ध्यान की आधारशिला उखड जायेगी। जैसे कृष्ण के बिना प्रेम की अभिव्यक्ति को मार्ग न मिलेगा—ऐसे गोरख के बिना उस परम सत्य को पाने के लिए विधियों की मनुष्य के भीतर अंतर खोज के लिए उतना शायद किसी ने भी नहीं किया है। उन्होंने इतनी विधियां दी की अगर विधियों के हिसाब से सोचा जाए तो गोरख सबसे बड़े आविष्कारक है। इतने द्वार तोड़े मनुष्य के अंतरतम में जाने के लिए, इतने द्वार तोड़े कि लोग द्वारों में उलझ गये।
इसलिए हमारे पास एक शब्द चल पडा है—गोरख को तो लोग भूल गए—गोरखधंधा शब्द चल पडा है। उन्होंने इतनी विधियों दीं की लोग उलझ गये की कौन ठीक और कौन गलत, कौन सी करे और कौन सी न करे। अब कोई किसी चीज में उलझा हो तो हम कहते है, क्या गोरख धंधे में उलझ गया है।
गोरख के पास अपूर्व व्यक्तिव था, जैसे आइंस्टीन के पास व्यक्तित्व था। जगत के सत्य को खोजने के लिए जो पैने से पैने उपाय अल्बर्ट आइंस्टीन दे गया, उसके पहले किसी ने भी नहीं दिये थे। हां,अब उनका विकास हो सकता है, उन पर और धार रखी जा सकेगी। मगर जो प्रथम काम था वह आइंस्टीन ने किया है। जो पीछे आयेंगे वे नंबर दो होंगे। वे अब प्रथम नहीं हो सकते। राह पहली तो आइंस्टीन ने तोड़ी, अब इस राह को पक्का करनेवाले, मजबूत करने वाले मील के पत्थर लगाने वाले, सुंदर बनानेवाले, सुगम बनानेवाले बहुत लोंग आयेंगे। मगर आइंस्टीन की जगह अब कोर्इ भी नहीं ले सकता। ऐसी ही घटना अंतर जगत में गोरख के साथ घटी है।
लेकिन गोरख को लोग भूल गये, गोरख जिस खादन के हीरे है, वह तो अनगढ़ होता है, कच्चा होता है। अगर गोरख और कबीर बैठे हो तो तुम कबीर से प्रभावित होओगे,गोरख से नहीं। क्यो गोरख तो खादन से निकला हीरा है और कबीर—जिन पर जौहरियों ने खूब मेहनत की, जिन पर खूब छेनी चली है। जिनको खूब निखार दिया गया है।
यह तो तुम्हें पता है ना कि कोहिनूर हीरा जब पहली दफा मिला तो जिस आदमी को मिला था उसे पता भी नहीं था कि कोहिनूर है। उसने बच्चों को खेलने के लिए दे दिया था, समझकर की कोई रंगीन पत्थर है। गरीब आदमी था। उसके खेत से बहती एक छोटी से नदी की धार में कोहिनूर मिला था। महीनों उसके घर पडा रहा। कोहिनूर बच्चे खेलते रहे, फेंकते रहें इस कोने से उस कोने, आँगन में पडा रहा....।
तुम पहचान न पाते कोहिनूर को उसका वज़न तीन गुना था आज को कोहिनूर से। उस पर धार रखी गई, निखार किये गये काटे गए, उस के पहलु उभारे गये, लेकिन दाम करोड़ों गुना ज्यादा हो गया। क्योंकि गोरख तो अभी गोलकोंड़ा की खादन से निकले कोहिनूर हीरे है। कबीर पर धार रखी गई है। जौहरी ने मेहनत करी है....कबीर पहचाने जा सकते है।
गोरख का नाम भूल गए है। बुनियाद के पत्थर भूल जाते
राजनीतिक लोगों को अनावश्यक स्थान देना ग़लत
आजकल समाचारों में जिसप्रकार पूर्व मुख्यमंत्रियों के बंगले खाली करवाने पर उनका विधवा विलाप दिखाया जाता है, बड़े हैरानगी में डालता है। हम पूर्व राजनीति वालों को कितना अनावश्यक महत्व देते, उसके विपरीत संदीप वासलेकर नामक विद्वान कुछ विकसित देशों के पुराने राजनीतिज्ञ लोगो से तुलना करता है।स्वीडन की विदेश मंत्री और पूर्व राष्ट्रपति कालमी-रे एक लंबी विदेशयात्रा से लौटने पर मेट्रो में कोई सीट खाली न पाकर विकलांगो की खाली सीट पर बैठ जाती है, टिकट चेकर उसे उठने के लिए कह देती है! ध्यान रहे, उस सीट पर बैठने के लिए कोई विकलांग वहां नहीं था।...और..यहां..पूरा डिब्बा ही अधिकारी खाली करवा देते है नेता व उसके चेलों के लिए!
दूसरा उदाहरण पूर्व स्विस प्रेजिडेंट जोसफ डैस का देता है जिनसे लेखक ने बात करनी थी । किसी रेस्तरां में खाली सीट न मिलने के कारण इधर से उधर घूमते रहे, अंत मे किनारे जाकर बात की। किसी न विशेष ध्यान नहीं दिया।
तीसरा उदाहरण वो कोरिया के पूर्व राष्ट्रपति रोहमून का देता है, जो अपने कार्यकाल की समाप्ति के बाद अपने गांव लौट गए थे। उन्हें पता चला कि उनकी पत्नी ने उनके कार्यकाल में उनके नाम का इस्तेमाल करते हुए एक बड़े औद्योगिक समूह को कोई फायदा पहुंचाया था। रोहमून इतने ईमानदार थे कि इस सूचना ने उन्हें व्यथित कर दिया और इसका प्रायश्चित करने के लिए उन्होंने पहाड़ी से छलांग लगाकर आत्महत्या कर लिया! जरा राहमून की जगह लालू यादव और पत्नी के नाम पर राबड़ी देवी लिख कर कहानी सोचिये?
चौथा उदाहरण वो भारतीय सांसदों के एक मालदीव जाने वाले प्रतिनिधि मंडल का दिया जिनके पास इकोनॉमी क्लास के हवाई जहाज के टिकट थे, और अफसरों ने आम नागरिक को बड़ी श्रेणी से हटा कर इन को बिठा दिया..... वासलेकर स्वयं इस ग्रुप के साथ थे यानिकि चश्मदीद गवाह थे।
पांचवी घटना अभी 2018 जून की है जो कि सोशल मीडिया पर हमारे जैसे देशों में खूब वायरल हुई पर वो डच प्रधानमंत्री से संबंधित है। एक महत्वपूर्ण मीटिंग में जाते समय उनके हाथ मे कॉफ़ी कप समेत फर्श पर बिखर गई। यहां तक तो आम बात है परंतु उन्होंने एक मोप यानी झाड़ू को उठाया और फर्श को अच्छी तरह साफ किया यहांतक के आस पास के फर्नीचर पर गिरी कॉफ़ी के धब्बों को रुमाल से अच्छी तरह पोछा। एक ज्यादा बड़ी बात अंत मे दिखाई दे रही थी वीडियो में कई वहाँ का सफाई स्टाफ चारों तरफ खड़ा था और हंसते हंसते तालियां बजा रहा था। यानि इतनी हिम्मत की विरासत उन सफाई कर्मचारियों को मिली थी कि वो प्रधानमंत्री के सामने खुल कर हंस सके। पहले भी साईकल चला कर राष्ट्रपति भवन जाते समय के चित्र इस व्यक्ति के मैने देखें हैं।
याद आते हैं दुष्यंत के वो शब्द:
रहनुमाओं की अदाओं पे फ़िदा है दुनियां,
इस बहकती हुई दुनिया को सम्हालो यारो।
कैसे आकाश में सुराख नहीं हो सकता,
एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो।
(ये सभी उदाहरण संदीप वासलेकर की पुस्तक "नए भारत का निर्माण" में उसने दिए हैं, बहुत से अन्य भी दिल छूने वाले उदाहरण दिए है, सिवाय अंतिम के जो उन्होंने अपने लेख में दिया है)
Saturday, June 2, 2018
संत नागार्जुन की जीवनी
संत नागार्जुन की जीवनी
पिछले दिनों मैं ओशो के महाकवि सुमित्रानंदन पंत से संवाद पढ़ रहा तब। भारत के धर्मकाश के 12 प्रमुख सितारे कौन से। ओशो ने राम का नाम नहीं लिया, पहला कृष्ण और बुध व महावीर के बाद सीधे नागार्जुन का नाम लिया। सच में दर्शन शास्त्र का विद्यार्थी जोन के बावजूद मुझे संत नागार्जुन का शून्यवादी के अतिरिक्त कोई चित्र नहीं उभर रहा था। जो सुना था वो बाबा नागार्जुन कवि के बारे ही सुना था। बाद में ओशो द्वारा बताया यह प्रसंग लिखा मिला तो अच्छा लगा, अतः शेयर कर रहा हूँ।
मैं तुम्हें नागार्जुन के जीवन से एक प्रसंग बताता हूं। भारत ने जो महान गुरु पैदा किए हैं, नागर्जुन उनमें से एक थे। वे बुद्ध, महावीर और कृष्ण की क्षमता रखते थे। और नागार्जुन एक दुर्लभ प्रतिभा थी। सच तो यह है कि बौद्धिक तल पर सारी दुनिया में वे अतुलनीयहैं। ऐसी तीक्ष्ण और प्रगाढ़ प्रतिभा कभी-कभी घटित होती है। नागार्जुन एक नगर से गुजर रहे थे। वह राजधानी है। और नागार्जुन सदा नग्न रहते थे। उस राज्य की रानी को नागार्जुन के प्रति बहुत प्रेम था, बहुत श्रद्धा थी, बहुत भक्ति थी। नागार्जुन भोजन मांगने राजमहल आए। उनके हाथ में लकड़ी का भिक्षापात्र था। रानी ने उनसे कहा कि आप कृपा कर मुझे यह भिक्षापात्र दे दें। मैं इसे आपकी भेंट समझूंगी और इसकी जगह मैंने आपके लिए दूसरा भिक्षापात्र निर्मित कराया है।नागार्जुन ने भेंट स्वीकार कर ली। दूसरा भिक्षापात्र सोने का बना था और उसमें बहुमूल्य रत्न जड़े हुए थे। वह बहुत कीमती था। लेकिन नागार्जुन ने कुछ नहीं कहा।सामान्यतः कोई संन्यासी उसे नहीं लेता, वह कहता कि मैं सोना नहीं छूता हूं। लेकिन नागार्जुन ने उसे ले लिया। अगर सच में सोना मिट्टी है तो भेद क्या करना? नागार्जुन ने उसे ले लिया। रानी को यह बात अच्छी नहीं लगी। उसने सोचा कि इतने बड़े संत हैं, उन्हें इनकार करना चाहिए था। स्वयं नग्न रहते हैं, पास में कुछ संग्रह नहीं रखते, फिर उन्होंने इतना कीमती भिक्षापात्र कैसे स्वीकार किया! और अगर नागार्जुन इनकार करते तो रानी उन पर लेने के लिए जोर डालती और तब उसे अच्छा लगता। लेकिन नागार्जुन उसे लेकर चले गए।एक चोर ने नगर से उन्हें गुजरते हुए देखा। उसने सोचा कि यह आदमी ऐसा बहुमूल्य भिक्षापात्र अपने पास नहीं रख सकेगा, कोई न कोई जरूर इसकी चोरी कर लेगा। एक नंगा आदमी कैसे उसकी रक्षा कर सकता है? और वह चोर नागार्जुन के पीछे हो लिया।नागार्जुन नगर के बाहर एक मठ में रहते थे और अकेले रहते थे। वह मठ जीर्ण-शीर्ण था। नागार्जुन उसके भीतर गए। उन्होंने अपने पीछे आते हुए इस आदमी की पदचाप सुनी। वे समझ गए कि वह किस लिए पीछे-पीछे आ रहा है, वह मेरे लिए नहीं इस भिक्षापात्र के लिए आ रहा है। अन्यथा इस जरा-जीर्ण मठ में कौन आता! नागार्जुन मठ के अंदर गए और चोर बाहर दीवार के पीछे खड़ा हो गया। यह देखकर कि चोर बाहर ताक में खड़ा है, नागार्जुन ने भिक्षापात्र को दरवाजे से बाहर फेंक दिया। चोर तो चकित रह गया, उसको कुछ समझ में नहीं आया। यह कैसा आदमी है! नंगा है, इसके पास इतना कीमती पात्र है और यह उसे बाहर फेंक देता है!तो चोर ने नागार्जुन से कहा कि क्या मैं अंदर आ सकता हूं, क्योंकि मुझे एक प्रश्न पूछना है। नागार्जुन ने कहा कि मैंने पात्र को इसीलिए बाहर फेंक दिया कि तुम अंदर आ सको। मैं अभी अपनी दोपहर की नींद लेने जा रहा हूं। तुम भिक्षापात्र लेने अंदर आते, लेकिन मुझसे तुम्हारी मुलाकात नहीं होती। तुम अंदर आ जाओ।चोर अंदर गया। उसने पूछा कि ऐसी बहुमूल्य वस्तु को आपने फेंक कैसे दिया? मैं चोरहूं। लेकिन आप ऐसे संत हैं कि आपसे मैं झूठ नहीं बोल सकता। मैं चोर हूं। नागार्जुन ने कहा कि चिंता मत करो, हर कोई चोर है। तुम अपनी बात निःसंकोच कहो। फिजूल की बातों में वक्त मत खराब करो।चोर ने कहा कि कभी-कभी आप जैसे व्यक्ति को देखकर मेरे मन में भी कामना उठती है कि काश, इस स्थिति को मैं भी उपलब्ध होता! लेकिन चोर हूं और यह स्थिति मेरे लिए असंभव है। लेकिन मेरी आशा और प्रार्थना रहेगी कि किसी दिन मैं भी ऐसी कीमती चीज फेंक सकूं। बड़ी कृपा होगी यदि आप मुझे उपदेश करें। मैं अनेक संतों के पास गया हूं। वे मुझे जानते हैं, क्योंकि मैं एक नामी चोर हूं। वे सब यही कहते हैं कि तुम पहले अपने धंधे को छोड़ो, तभी तुम्हें ध्यान में गति मिल सकती है। लेकिन यह मेरे लिए असाध्य मालूम होता है, मैं चोरी का धंधा छोड़ नहीं सकता। क्या मेरे लिए ध्याननहीं है?नागार्जुन ने उत्तर में कहा कि अगर कोई कहता है कि पहले चोरी छोड़ो और तब ध्यान करो, तो उसे ध्यान के बारे में कुछ भी पता नहीं है। ध्यान और चोरी के बीच संबंध क्या है? कोई संबंध नहीं है। तुम जो भी करते हो किए जाओ। और मैं तुम्हें विधि देता हूं, तुम उसका प्रयोग करो। तो चोर ने कहा कि ऐसा लगता है कि आपके साथ मेरा तालमेल बैठ सकता है। क्या सच ही मैं अपना धंधा जारी रख सकता हूं? कृपया जल्दी अपनी विधि बताएं।नागार्जुन ने कहा, तुम सिर्फ होश रखो, बोध बढ़ाओ। जब चोरी करने जाओ तो उसके प्रति भी सजग रहो, होशपूर्ण रहो। जब सेंध लगाओ तब जानते रहो कि मैं सेंध लगा रहा हूं, पूरे होश में रहो। जब खजाने से कुछ निकालो तब भी जागरूक रहो, होश के साथ निकालो। तुम क्या करते हो इससे मुझे लेना-देना नहीं है, लेकिन जो भी करो बोधपूर्वक करो। और पंद्रह दिन बाद मेरे पास आना। लेकिन यदि इस विधि का अभ्यास न कर सको तो मत आना। पंद्रह दिन निरंतर अभ्यास करो। जो भी जी में आए करो, लेकिन पूरे सजग होकर करो।चोर तीसरे ही दिन वापिस आया और उसने नागार्जुन से कहा, पंद्रह दिन का समय बहुत है, मैं आज ही आ गया। आप बड़े चालाक आदमी मालूम होते हैं। आपने ऐसी विधि बताई कि मेरा धंधा चलना मुश्किल है। पूरा होश रखकर मैं चोरी नहीं कर सकता हूं। पिछली तीनरातों से मैं राजमहल जा रहा हूं। मैं खजाने तक गया, उसे खोल भी लिया। मेरे सामने बहुमूल्य हीरे-जवाहरात थे, लेकिन मैं तभी पूरी तरह सजग हो गया। और सजग होते ही मैं बुद्ध की मूर्ति की तरह हो गया, मैं कुछ भी नहीं कर सका। मेरे हाथों ने हिलने से इनकार कर दिया और सारा खजाना व्यर्थ मालूम पड़ने लगा। तीन रातों से मैं लौट-लौटकर राजमहल जाता हूं। समझ में नहीं आता कि मैं क्या करूं! आपने तो कहा था कि इस विधि में धंधा छोड़ने की शर्त नहीं है, लेकिन ऐसा लगता है कि विधि में ही कोई छिपी प्रक्रिया है। नागार्जुन ने कहा, दुबारा मेरे पास मत आना। अब चुनाव तुम्हें करना है। अगर चोरी जारी रखना चाहते हो तो ध्यान को भूल जाओ। और अगर ध्यान चाहते हो तो चोरी को भूल जाओ। चुनाव तुम्हें करना है।चोर ने कहा, आपने तो मुझे बड़े धर्म संकट में डाल दिया। इन तीन दिनों में मैंने जाना कि मेरे भी आत्मा है, और जब मैं राजमहल में कुछ चोरी किए बिना वापिस आया तो पहली दफा मुझे लगा कि मैं सम्राट हूं, चोर नहीं। ये तीन दिन इतने आनंदपूर्ण रहे हैं कि मैं अब ध्यान नहीं छोड़ सकता। आपने मेरे साथ चालाकी की। अब आप मुझे दीक्षा दें और अपना शिष्य बना लें। और अधिक प्रयोग की जरूरत नहीं है, तीन दिन काफी हैं।कुछ भी विषय हो, यदि तुम सजग रहो तो सब कुछ ध्यान बन जाता है। तादात्म्य को जागरूक होकर प्रयोग में लाओ, तब वह ध्यान बन जाएगा। बेहोशी में किया गया तादात्म्य पाप है। ओशो Posted 12th July 2015 by vishal rastogi View comments Loading