विकास के चक्र में गरीबी
प्रभात रंजन
पिछले कुछ समय में भूख से मौत की कई घटनाएं सामने आर्इं। ऐसी घटनाएं सामान्य तौर पर समाज के वंचित तबकों में ज्यादा होती हैं। ये घटनाएं इन योजनाओं की जमीनी हकीकत साबित करने के लिए पर्याप्त हैं। राशन कार्डों में फर्जीवाड़ा, मध्याह्न भोजन योजना में घोटाले, भोजन की खराब गुणवत्ता जैसी शिकायतें आम हैं और यह स्थिति उन क्षेत्रों में और भी भयावह हो जाती है जो पिछड़े हैं; जहां इस तरह की समस्याओं की कोई सुनवाई नहीं है। जनसत्ता August 22, 2018 5:21 AM पेट के सवाल का उत्तर हमें क्षणिक उपलब्धियों या अनुपलब्धियों में नहीं खोजना चाहिए, बल्कि इसे दीर्घकालीन शासकीय असफलताओं एवं त्रुटियों में निर्धारित किया जाना चाहिए। प्रभात रंजन सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के आधार पर मापी जाने वाली रैंकिंग में भारत दुनिया में एक बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है। लेकिन आर्थिक वृद्धि अनिवार्य रूप से विकास का निर्धारण नहीं करती है, परिणामस्वरूप मुख्य मानव विकास सूचकों- शिक्षा, जीवन प्रत्याशा और प्रति व्यक्ति आय में भारत की स्थिति चिंताजनक अवस्था में है। विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार दुनिया के लगभग सतहत्तर करोड़ गरीबों में सत्ताईस करोड़ भारत में हैं। हालांकि विश्व बैंक के आंकड़े हालात की गंभीरता का निरूपण करते हैं। इस प्रकार के किसी भी सांगठनिक सरकारी आंकड़े में यह बात गौर की जानी चाहिए कि ये आंकड़े एक सीमा रेखा के नीचे के लोगों की गणना करते हैं, लेकिन उस सीमा रेखा से मात्र कुछ ऊपर के लोग भी आर्थिक रूप से संपन्न नहीं होते। और तो और, वे गरीबों के लिए लागू की जाने वाली योजनाओं के लिए अपात्र भी हो जाते हैं। ऐसे में गरीबों का आंकड़ा कहीं ज्यादा होता है। इसलिए स्थिति और भी चिंताजनक हो जाती है। बेरोजगारी और दरिद्रता से उपजी क्षुधा और क्षुधा से उपजी क्षुधा-मृत्यु तक की चरम चिंताजनक स्थिति समाज के वंचित वर्गों के लिए एक अभिशाप है, जिसे झेलने के लिए हमारे देश की एक बड़ी आबादी अभिशप्त है।
आज भी हमारे देश की बहत्तर फीसद आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है। देश के सत्ताईस करोड़ लोगों में अस्सी फीसद गरीब गांवों में ही रहते हैं। भारत में गरीबी से संबंधित विश्व बैंक के आंकडे भी बताते हैं कि अनुसूचित जनजातियों में सर्वाधिक तैंतालीस फीसद लोग गरीब हैं। उसके बाद क्रमश: अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के लोग आते हैं, लेकिन अन्य वर्ग के लोगों में भी गरीबों का फीसद इक्कीस है, जो अपने आप में काफी चिंताजनक है। ऐसा नहीं है कि आजादी के बाद भारत में गरीबी उन्मूलन और रोजगार मुहैया कराने के लिए योजनाएं शुरू नहीं की गर्इं। निश्चित रूप से आजादी के बाद से अनाज उत्पादन पांच गुना बढ़ा है। गरीबी रेखा से नीचे के तबके (भले ही यह आंकड़ा बहुत छोटा हो) का उत्थान भी हुआ, लेकिन इसके बावजूद आज सात दशक बाद भी आंकड़े भयावह तस्वीर सामने ला रहे हैं और इसमें भी ग्रामीण क्षेत्र ज्यादा ही वंचित हैं। यह स्थापित तथ्य है कि ग्रामीण क्षेत्रों में निचले स्तर पर भ्रष्टाचार के कारण सरकारी योजनाओं का लाभ जरूरतमंदों तक नहीं पहुंचता। भ्रष्टाचार एक सामाजिक-राजनीतिक रूप से मान्य संस्थागत रूप ले चुका है। वर्तमान में ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार सृजन, गरीबी उन्मूलन और भोजन सुरक्षा के उद्देश्य से लागू सबसे वृहद योजनाओं में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना, अंत्योदय अन्न योजना, मध्याह्न भोजन योजना और अन्य कई योजनाओं से लक्षित वर्गों को लाभ पहुंचना तो शुरू हुआ है, लेकिन ये योजनाएं भोजन की समस्या को हल कर पाने में पूरी तरह सफल नहीं हो सकी हैं। इसका मूल कारण प्रशासनिक अक्षमता और भ्रष्टाचार प्रमुख है। ये योजनाएं भी दरअसल अफसरों-कर्मचारियों और बिचौलियों की सांठगांठ का शिकार होती चली गर्इं। पिछले कुछ समय में भूख से मौत की कई घटनाएं सामने आर्इं। ऐसी घटनाएं सामान्य तौर पर समाज के वंचित तबकों में ज्यादा होती हैं। ये घटनाएं इन योजनाओं की जमीनी हकीकत साबित करने के लिए पर्याप्त हैं। राशन कार्डों में फर्जीवाड़ा, मध्याह्न भोजन योजना में घोटाले, भोजन की खराब गुणवत्ता जैसी शिकायतें आम हैं और यह स्थिति उन क्षेत्रों में और भी भयावह हो जाती है जो पिछड़े हैं; जहां इस तरह की समस्याओं की कोई सुनवाई नहीं है। जिन लोगों को सबसे ज्यादा आवश्यकता होती है, वही लोग राजनीतिक-सांगठनिक शक्ति के अभाव में इन लाभों से वंचित रह जाते हैं। भारत में उदारीकरण के बाद के दौर में पिछड़े इलाकों में कुछ नए आयाम भी सामने आए हैं। भारतीय इतिहास के किसी भी काल के लिए यह मान्यता स्वीकार नहीं की जा सकती है कि ग्राम पूरी तरह से बंद आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था रहे हैं। परंतु उत्तर-वैश्वीकरण के काल में गांवों में उत्तरोत्तर पूंजी का चलन बढ़ा है। गांवों में भी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पादों का बाजार बनने लगा। ये परिवर्तन एक तरफ से जीवनस्तर में सुधार के रूप में तो दिखाए जा सकते हैं, लेकिन वहीं दूसरी तरफ ये गांवों में भी जीवनयापन के बढ़े हुए खर्च की ओर इंगित करते हैं। जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति में भी मुद्रा का पहले की अपेक्षा महत्त्व बढ़ गया है और इन सबका परिणाम यह हुआ है कि जीविकोपार्जन के लिए गांव से शहरों, महानगरों की ओर तेजी से पलायन हो रहा है। यह पलायन देश के पिछड़े राज्यों से ज्यादा समृद्ध राज्यों की ओर अल्पकालिक और दीर्घकालिक प्रवास के रूप में सामने आया है। लेकिन इसका बुरा असर यह होता है कि जिन क्षेत्रों से रोजगार के लिए बड़े पैमाने पर पलायन होता है वहां निश्चित रूप से घरेलू स्तर पर उत्पन्न किए जाने वाले भोज्य पदार्थों जैसे डेयरी उत्पादों और अन्य स्थानीय पारंपरिक खाद्य पदार्थों के उत्पादन की मात्रा घटती है। गांवों से शहरों की ओर पलायन की प्रक्रिया ऐतिहासिक काल से ही एक मान्य मानवीय प्रवृति रही है। हालांकि इसके कारण भिन्न-भिन्न रहे हैं। सामान्य तौर पर रोजगार के उद्देश्य से किया जाने वाला पलायन कम विकसित क्षेत्रों से ज्यादा विकसित क्षेत्रों की ओर होता है। पिछले महीने राजधानी दिल्ली में हुई तीन बच्चों की भूख से मौत यह इंगित करने के लिए पर्याप्त है कि नगरों की ओर पलायन भी पेट के सवाल को हल करने में बहुत कारगर नहीं है। यद्यपि यह देश के पिछड़े क्षेत्रों में एक महत्त्वपूर्ण जीवन-साधन विधि है। जीवनयापन का मूल्य नगरों में गांवों की अपेक्षा कहीं ज्यादा है, अत: स्वाभाविक तौर पर एक निम्न आय वाले व्यक्ति अथवा उसके परिवार का जीवनयापन दोयम स्तर का ही होगा। पेट का सवाल तो सबसे मौलिक सवाल है ही, लेकिन यह दोयमता भोजन से लेकर शिक्षा तक जीवन के हरेक पहलू को नकारात्मक रूप से प्रभावित करती है और अंतत: राष्ट्र के भविष्य को भी। आंकड़े बताते हैं कि 1961 की जनगणना के अठारह फीसद की तुलना में 2011 की जनगणना में भारत की शहरी आबादी अट्ठाईस फीसद हो गई है। इसका बड़ा कारण रोजगार की तलाश में नगरों की ओर किया जाने वाला पलायन है। भारत में सामान्य तौर पर नगरों के नियोजन की प्रवृत्ति नहीं पाई जाती और न ही ये नगर औद्योगिक रूप से इतने विकसित हैं कि बाहर से आने वालों को रोजगार उपलब्ध करा सकें। अत: इन नगरों में भी रोजी-रोटी और बेहतर जीवन की तलाश में आने वाले लोग स्वयं को तथा अपने परिवार को संतोषजनक जीवन प्रदान कर सकने में असमर्थ हैं और यहां अनियमित मजदूरों के रूप में काम करने के लिए तथा गैर स्वास्थ्पूर्ण जीवन-पद्धति के लिए बाध्य होते हैं। इसके अलावा सामाजिक सुरक्षा भी इनके लिए बड़ी चुनौती बन जाती है। इसलिए पेट के सवाल का उत्तर हमें क्षणिक उपलब्धियों या अनुपलब्धियों में नहीं खोजना चाहिए, बल्कि इसे दीर्घकालीन शासकीय असफलताओं एवं त्रुटियों में निर्धारित किया जाना चाहिए। इसके समाधान के लिए व्यापक एवं दीर्घकालीन योजना की आवश्यकता है, जिसमें नगरों में पर्याप्त रोजगार साधन और सभी के लिए न्यूनतम जीवन सुविधाएं उपलब्ध कराने के साथ यह भी जरूरी है कि ग्रामीण जीवन के सभी पक्षों का संतुलित विकास किया जाए। एक सशक्त और समृद्ध ग्रामीण-नगरीय सातत्यता स्थापित करने पर जोर होना चाहिए, जिसमें प्रशासनिक अक्षमता और भ्रष्टाचार को मिटा कर सरकारी योजनाओं के सक्षम और सफल कार्यान्वयन को सुनिश्चित करके वंचित वर्गों को विकास की प्रक्रिया में शामिल किया जाए, ताकि देश से बेरोजगारी, भूख और क्षुधा-मृत्यु जैसे सामाजिक-आर्थिक कलंकों से हम मुक्ति पा सकें। Hindi News से जुड़े अपडेट और व्यूज लगातार हासिल करने के लिए हमारे साथ फेसबुक पेज और ट्विटर हैंडल के साथ गूगल प्लस पर जुड़ें और डाउनलोड करें Hindi News App NEXT PROMOTED STORIES Create a designer finish for your home with the right house paint colours from Nerolac nerolac.com Exclusive: In Conversation With Huma Qureshi Who Talks About Her Love For Pink Floyd And More LiveInStyle In Conversation With Boman Irani Who Discloses His Love For Dancing, Hatred For Loud Music, And More LiveInStyle.com Top 10 Bollywood Stars Who Run Successful Businesses CriticsUnion Recommended by जनसत्ता मे खोजे Search हिंदीதமிழ்বাংলাമലയാളം मराठीENGLISH मुखपृष्ठ ख़बरें बजट राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय व्यापार खेल क्रिकेट फ़ुटबॉल राज्य ब्लॉग मनोरंजन जीवन-शैली हेल्थ जुर्म यूटिलिटी न्यूज एजुकेशन जॉब ट्रेंडिंग ऑटो टेक्नोलॉजी फोटो वीडियो क्विज राशिफल आस्था हास्य-व्यंग्य कला और साहित्य © 2018 The Indian Express Pvt. 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Sunday, August 26, 2018
विकास चक्र में गरीबी
नदियां बिफरें नहीं तो क्या करें
नदियां बिफरें नहीं तो क्या करें
जब नगरीकरण का जुनून जागा तो हमने इन छोटी नदियों के प्रवाह के मार्ग में इतनी नई बस्तियां बना दीं कि नदी के पानी को निकलने के लिए इस या उस मोड़ पर जद्दोजहद करनी ही होती है। उधर, नदियों के पेटे में जम गए प्रदूषण ने बचे-खुचे प्रवाह स्थल को इतना उथला कर दिया कि कोई भी नदी जब नदी होकर बहना चाहती है तो लोगों को उसके प्रवाह में रौद्र रूप ही नजर आता है। जनसत्ता August 15, 2018 5:28 AM अंधाधुंध विकास ने नदियों के साथ बहुत छल किया है। लेकिन अभी भी यदि हम स्थितियों की भयावहता को समझें तो सभ्यता के सतौल को बिखरने से बचा सकते हैं। अतुल कनक इस बार वर्षा ऋतु के प्रारंभ से ही देश के विविध हिस्सों में नदियों ने रौद्र रूप दिखाना शुरू कर दिया। देश के विविध राज्यों में अब तक छह सौ से अधिक लोग जलप्लावन के शिकार हो गए हैं। निश्चित रूप से कुछ हिस्सों में अतिवृष्टि बाढ़ का कारण बनी है, लेकिन सच यह भी है कि नदियों के पेटे में बस गई बस्तियों ने भी बाढ़ की विभीषिका को बढ़ाया है। गंगा के किनारे जो तिबारियां कभी नदी के घाट का हिस्सा हुआ करती थीं, उनमें भी यदि परिवार रहने लगें तो उसे नदी का प्रकोप कैसे कहा जा सकता है! एक कमजोर मनुष्य भी अपने घर की मर्यादा पर किसी का अतिक्रमण नहीं सहन कर पाता, तो फिर नदियों से हम यह कैसे अपेक्षा कर सकते हैं कि जब उनका दिन आएगा तो विकास के नाम पर अपने साथ हुए बुरे बर्ताव को भूल जाएंगी? किसी भी बस्ती में जलप्लावन होना दुख का विषय है, लेकिन हमने तो विकास के नाम पर ऐसी स्थिति प्राप्त कर ली है कि ‘बाढ़ की संभावनाएं सामने हैं/ और नदियों के किनारे घर बने हैं।’
जातक कथाओं में एक प्रसंग आता है। वर्षा ऋतु के ठीक पहले गौतम बुद्ध एक ऐसे गांव में पहुंचे जिस गांव के किनारे एक नदी थी और अक्सर बरसात के मौसम में उस नदी में बाढ़ आ जाया करती थी। बुद्ध जिस किसान के यहां रुके, वह अतिथि की तेजस्विता से उत्साहित हो गया और उसने बुद्ध को बताया कि इस बार बारिश के पहले ही उसने अपनी झोंपड़ी का छप्पर ठीक कर लिया है और अपनी जरूरत का पर्याप्त सामान एकत्र कर लिया है। इसलिए चाहे तेज बारिश हो या नदी में बाढ़ आए, उसे कोई चिंता नहीं है। बुद्ध मुस्कुरा कर बोले कि उन्होंने भी काल की नदी में बाढ़ आने के पहले अपने कर्मों का छप्पर ठीक कर लिया है और पर्याप्त मात्रा में चित्त शुद्धि एकत्र कर ली है, इसलिए उन्हें भी अब कोई चिंता नहीं है। दोनों अपने-अपने प्रसंगों में अपनी-अपनी प्राथमिकताओं को दर्शा रहे थे, लेकिन यह प्रसंग इतनी आवश्यकता तो रेखांकित करता ही है कि हम मानसून के पहले बरसात के स्वागत की पूरी तैयारी कर लें। बरसात की तैयारी का आशय है कि हम जल प्रवाह के रास्तों को निर्बाध करें। पानी अपने प्रवाह का रास्ता अपवाद स्वरूप ही बदलता है। लेकिन हमने तो विकास के नाम पर सीमेंट और कंक्रीट के जंगल इस तरह खड़े कर दिए कि पानी के प्रवाह के रास्ते को ही अवरुद्ध कर दिया। देश भर में छोटी-छोटी नदियां किसी क्षेत्र के लिए न केवल जल संचित करती थीं, बल्कि भूजल स्तर को बनाए रखने में मदद भी करती थीं। इनमें मुंबई की नीरी नदी, कोटा की मंदाकिनी नदी, जयपुर की द्रव्यवती नदी जैसे कितने ही नाम लिए जा सकते हैं। लेकिन जब नगरीकरण का जुनून जागा तो हमने इन छोटी नदियों के प्रवाह के मार्ग में इतनी नई बस्तियां बना दीं कि नदी के पानी को निकलने के लिए इस या उस मोड़ पर जद्दोजहद करनी ही होती है। उधर, नदियों के पेटे में जम गए प्रदूषण ने बचे-खुचे प्रवाह स्थल को इतना उथला कर दिया कि कोई भी नदी जब नदी होकर बहना चाहती है तो लोगों को उसके प्रवाह में रौद्र रूप ही नजर आता है। न्यूजीलैंड की एक अदालत ने कुछ दिन पूर्व नदियों को सप्राण अस्तित्व (लीविंग एंटिटी) अर्थात जीवित इकाई माना था। उत्तराखंड उच्च न्यायालय के एक खंडपीठ ने भी एक मामले की सुनवाई के दौरान गंगा और यमुना जैसी नदियों को जीवित इकाई मानते हुए फैसला सुनाया कि संविधान द्वारा व्यक्तियों को प्रदत्त अधिकार नदियों के प्रकरण में भी अक्षुण्ण रहेंगे और नदियों के पानी को प्रदूषित करने वालों के खिलाफ समुचित कार्रवाई होगी। नदियों के पक्ष में माननीय न्यायालयों ने अपने निर्णय भले ही अभी सुनाए हों, लेकिन हम भारतीय तो सदियों से नदियों को देवी रूप में पूजते हुए उन्हें जीवंत इकाई ही मानते आए हैं। यही कारण है कि प्राचीनकाल में दिन की शुरुआत ही नदियों की वंदना से हुआ करती थी। नदियों को हम मां के रूप में पूजने के हिमायती रहे हैं। परंपरागत भारतीय ज्योतिष तो यह तक मानता है कि किसी व्यक्ति की जन्मकुंडली का चौथा स्थान बहते पानी, मां और सुख का कारक होता है। बहता पानी- यानी नदी। इसका अर्थ हमारा परंपरागत ज्योतिष नदियों के संरक्षण को सुख का कारक मानता है। ज्योतिष की एक चर्चित पद्धति है- लाल किताब ज्योतिष। लाल किताब ज्योतिष के अनुसार यदि किसी व्यक्ति पर मातृ-ऋण होता है तो वह अपने घर की गंदगी को बहते पानी में फेंकता है। आज जिस तरह से समूचे शहर की गंदगी नालों के माध्यम से नदियों में फेंकी जा रही है, उसे देख कर सवाल उठ सकता है कि क्या सारा समाज ही मातृ ऋण का सताया हुआ है? नदियों की पीड़ा को समझने में हमने अभी भी दुविधा दिखाई तो हो सकता है कि फिर हमें कुछ समझने का मौका ही न मिले। याद करिए, जब महाभारत का युद्ध प्रारंभ हुआ था, लगभग उसी क्षण दिव्य कही जाने वाली नदी सरस्वती ने अपने को समेटना शुरू कर दिया था। आज हम भले ही उपग्रह चित्रों के माध्यम से सरस्वती के प्रवाह के मार्ग को जान लेने के अनगिनत दावे करें, लेकिन जिस नदी के किनारे वेद ऋचाओं का प्रणयन हुआ- वह नदी अपने समय के सबसे विकराल युद्ध के साक्ष्य में बहती हुई मानो पथरा ही गई। नदी तो मां होती है ना, और कोई भी मां यह कब सहन कर सकती है कि उसकी संतानें परस्पर युद्ध करके एक दूसरे का खून बहाएं। इंग्लैंड के डेवोम प्रांत में एक नदी के किनारे बिकलेघ का किला है। मध्ययुग में वहां राजसत्ता की प्राप्ति के लिए भीषण युद्ध हुआ और आक्रमणकारियों ने युवा राजकुमार को जिंदा काट कर नदी में फेंक दिया। काल ने इसके बाद मनुष्य की स्मृतियों पर अनेक आवरण चढ़ा दिए, लेकिन नदी अभी भी उस दर्द से कराह उठती है। कहते हैं कि हर साल उसी तारीख को, जब एक युवा राजकुमार का सिर काट कर नदी में फेंका गया था, नदी का एक हिस्सा लाल हो जाता है- जिसे देखने के लिए बड़ी संख्या में पर्यटक भी वहां पहुंचते हैं। हिंसा के दंश से लाल हुआ एक नदी का हृदय पर्यटकों के कौतूहल का विषय हो सकता है, लेकिन संवेदनशील लोगों के लिए तो हर नदी के अस्तित्व को बचाना, हर नदी के दर्द को समझना उनके सरोकारों की प्रमुखता में होना चाहिए। अंधाधुंध विकास ने नदियों के साथ बहुत छल किया है। लेकिन अभी भी यदि हम स्थितियों की भयावहता को समझें तो सभ्यता के सतौल को बिखरने से बचा सकते हैं। पंजाब में बाबा बलबीर सिंह सिचेवाल ने ऐसा कर भी दिखाया है। लुधियाना जिले में एक नदी थी कालीबेई। इस नदी का ऐतिहासिक और सामाजिक ही नहीं, सांस्कृतिक महत्त्व भी था। मान्यता है कि गुरुनानक देव ने इसी नदी में स्नान करते हुए शबद रचना की थी। लेकिन समय और समाज की उपेक्षा ने इस छोटी-सी, लेकिन पवित्र नदी को भी एक नाले में बदल दिया। बलबीर सिंह सिचेवाल ने इस नदी की सफाई का संकल्प लिया और प्रयासों में जुट गए। धीरे-धीरे उनकी मुहिम को दूसरे लोगों का भी समर्थन मिला और कालीबेई में फिर स्वच्छ जल लहलहाने लगा। कालीबेई का उदाहरण साबित करता है कि मन में चेतना और संकल्प हो तो नदियों को प्रदूषण से मुक्त किया जा सकता है। वरना, ऐसा न हो कि सभ्यता के प्रारंभ से ही मानव जीवन की संभावनाओं को संवारने वाली नदियां मनुष्य के स्वार्थी आचरण को देख कर सरस्वती की तरह लुप्त होने लगें। यदि ऐसा हुआ तो शायद भविष्य हमें नदियों की दुर्दशा की अनदेखी करने के अपराध के लिए कभी क्षमा नहीं करेगा।
Tuesday, August 14, 2018
संघर्ष वाहिनी कार्यशाला भाग 2
4. भारत में हुए प्रमुख आन्दोलन :
1 सविनय अवज्ञा आन्दोलन( नमक आन्दोलन – 12 मार्च 1930 दाण्डी मार्च - सफल।
2 असहयोग आन्दोलन सितम्बर 1920 से फरवरी 1922 - जलियाँवाला बाग कांड।
3 वारडोली सत्याग्रह 1928 - नील की खेती और कर के विरूद्ध - सफल।
4 भारत छोड़ो आन्दोलन, अगस्त 1942 - विफल।
5 केन्द्र सरकार की तानाशाही के विरूद्ध छात्र आन्दोलन, 1974 - सफल।
स्वदेशी जागरण मंच देश की आर्थिक स्वावलंबन] तत्कालिकरूप से GATT एवं WTO के खिलाफ चलने वाला एक आंदोलन है। जुलाई 1991 में भारत सरकार के वित्तमंत्री मनमोहन सिंह ने नईआर्थीक नीति की घोषणा संसद में किया। उसके पश्चात स्वदेशीजागरण मंच का गठन 22 नवंम्बर 1991 को हुआ। केन्द्र सरकार नेअप्रेल 1994 में WTO के समझौते पर हस्ताक्षर कर दिया। 1 जनवरी 1995 से WTO समझौता लागु हो गया। नई आर्थिक निति की घोषणाके समय से स्वदेशी जागरण मंच पुरे देश में आन्दोलन चला रहा है।हमारे आन्दोलन को अनेक मोर्चां पर सफलता मिली है। जिसके कारणआज WTO मरणासन्न की स्थिति में पहुंच गया है। परन्तु हमें इसआन्दोलन में पूरी सफलता प्राप्त करने के लिए अपने आन्दोलन कोऔर तेज करना होगा। स्वदेशी जागरण मंच वर्तमान में देश की सुरक्षा,शिक्षा, व्यापार, रोजगार, संस्कृति पर हो रहे आक्रमण के खिलाफवैचारिक एवं अहिंसात्मक संघर्ष के तरीके से लगातार आंदोलनरत है।
5. स्थानीय मुद्दे एवं सफलता की गाथा
क. विषय
ख. प्रभावित लोग एवं क्षेत्र
ग. जनभावना कैसी थी एवं हमलोगों ने उसकोकैसे प्रस्तुत किया
घ. कार्यक्रम की रचना एवं इसमें जनभागीदारी
ड. नेतृत्व, समिति एवं समन्वय
च. कानूनी लड़ाई
छ. परिणाम - वर्तमान स्थिति
6. आंदोलनधर्मी कार्यकर्ता और कार्यक्रम
कार्यकर्ता :
क. कार्यकर्ता के लक्षण
ख. सामूहिक निर्णय
ग. नेतृत्व
घ. समन्वयक
ड. कार्यक्रम रचना की कला
च. सामूहिक दृष्टि
कार्यक्रम:
क. प्रभावित लोगों की अधिकतम भागीदारी युक्तकार्यक्रम
ख. प्रभावित क्षेत्रानुसार कार्यक्रम
ग. क्रमवार कार्यक्रम नीचे से उपर
घ. कार्यक्रम के बीच समय का अंतराल
च. जागरणात्मक एवं विरोधात्मक
छ. कानूनी विषय
ज. बौद्धिक एवं प्रचार
7. संघर्षवाहिनी की कार्य पद्धति
1. अ0भा0 टोली
इस टोली में अ.भा. संघर्षवाहिनी प्रमुख के अलावे देश मेंसफलतापूर्वक आंदोलन चलाने वाले प्रमुख कार्यकर्ता,चिंतक, लेखक, पत्रकार, वकील इत्यादि। टोली में 5-10तक कुल संख्या होनी चाहिए। साल में दो बैठक होनीचाहिए। इस बैठक में राष्ट्रीय स्तर की समस्याओं पर विचारविमर्श राष्ट्रीय स्तर पर आंदोलन की रूपरेखा तय करनातथा राष्ट्रीय सम्मेलन, राष्ट्रीय सभा तथा राष्ट्रीय परिषद कीबैठक में इसकी घोषणा करना। साल में एक बारसंघर्षवाहिनी की राष्ट्रीय परिषद् की बैठक आयोजित करन,इस बैठक में देशभर में चलने वाले आंदोलन की समीक्षाकरना, इस बैठक मे अ.भा. टोली, प्रांतीय टोली, प्रांतीयसंचालन समिति, जिला संघर्षवाहिनी प्रमुख को बुलाना।
2. प्रांतीय टोली
प्रांत संघर्षवाहिनी प्रमुख के अलावे प्रांत स्तर पर आंदोलनचलाने वाले प्रमुख कार्यकर्ता, चिंतक, लेखक, पत्रकार,वकील इत्यादि। टोली की कुल संख्या 5-10 तक होनीचाहिए।
3. प्रांतीय संचालन समिति
प्रांत टोली$जिला संघर्षवाहिनी प्रमुख-सह प्रमुख
प्रांतीय संचालन समिति की साल में एक बैठक होनीचाहिए। इस बैठक में प्रांतीय स्तर की समस्याओं परआंदोलन की रूपरेखा तैयार करना है। प्रांत सम्मेलन मेंआंदोलन की घोषणा करना।
4. जिला टोली
जिला संघर्षवाहिनी प्रमुख-सह प्रमुख के अलावे आंदोलनचलाने वाले प्रमुख कार्यकर्ता, लेखक, पत्रकार, वकीलइत्यादि।
5. जिला संचालन समिति
प्रांतीय टोली, नगर संघर्षवाहिनी प्रमुख-सह प्रमुख,समविचारी संगठनों के दो-दो प्रतिनिधि, किसान, व्यापारी,मजदूर तथा अन्य कर्मचारी संगठनों के दो-दो प्रतिनिधि,विद्यार्थी संगठन।
साल में तीन बार संचालन समिति की बैठक, बैठक मेंचलने वाले आंदोलन की समीक्षा करना तथा नये विषयों परआंदोलन की रूपरेखा तैयार करना। आंदोलन चलाने केलिए अलग-अलग संचालन समिति गठिथ करना।
विषयवार आंदोलन के संचालन समिति में, जिसविषय पर आंदोलन चलाना है, उससे प्रभावित क्षेत्र केसंगठनों के प्रतिनिधियों को शामिल करना। संयोजकसहसंयोजक$प्रचार प्रमुख$कोष संग्रह समिति कार्यक्रम,प्रमुख इत्यादि।
सभी समितियों में स्वदेशी जागरण मंच केपदाधिकारी स्थाई आमंत्रित सदस्य होंगे। आंदोलन में जमाहोनेवाले राशि स्व.जा.म. के खाता में जमा होगा।
आंदोलन के लिए स्थानीय मुद्दे का चयन करना एवंआंदोलन संचालन करने वाली समिति की बैठकआवश्यकतानुसार करनी चाहिए। आंदोलन के लिए मोर्चाका गठन करना। आंदोलन पूर्ण होने पर आंदोलन समितिको भंग कर देना है।
विषय
1. स्वदेशी जागरण मंच का परिचय एवं आंदोलनका इतिहास
2. आंदोलन का स्वरूप, क्यां और कैसे
3. संघर्षवाहिनी का स्वरूप एवं कार्य पद्धति
4. आंदोलन में प्रचार की भूमिका
5. स्थानीय मुद्दे एवं सफलता की गाथा
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