विकास के चक्र में गरीबी
प्रभात रंजन
पिछले कुछ समय में भूख से मौत की कई घटनाएं सामने आर्इं। ऐसी घटनाएं सामान्य तौर पर समाज के वंचित तबकों में ज्यादा होती हैं। ये घटनाएं इन योजनाओं की जमीनी हकीकत साबित करने के लिए पर्याप्त हैं। राशन कार्डों में फर्जीवाड़ा, मध्याह्न भोजन योजना में घोटाले, भोजन की खराब गुणवत्ता जैसी शिकायतें आम हैं और यह स्थिति उन क्षेत्रों में और भी भयावह हो जाती है जो पिछड़े हैं; जहां इस तरह की समस्याओं की कोई सुनवाई नहीं है। जनसत्ता August 22, 2018 5:21 AM पेट के सवाल का उत्तर हमें क्षणिक उपलब्धियों या अनुपलब्धियों में नहीं खोजना चाहिए, बल्कि इसे दीर्घकालीन शासकीय असफलताओं एवं त्रुटियों में निर्धारित किया जाना चाहिए। प्रभात रंजन सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के आधार पर मापी जाने वाली रैंकिंग में भारत दुनिया में एक बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है। लेकिन आर्थिक वृद्धि अनिवार्य रूप से विकास का निर्धारण नहीं करती है, परिणामस्वरूप मुख्य मानव विकास सूचकों- शिक्षा, जीवन प्रत्याशा और प्रति व्यक्ति आय में भारत की स्थिति चिंताजनक अवस्था में है। विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार दुनिया के लगभग सतहत्तर करोड़ गरीबों में सत्ताईस करोड़ भारत में हैं। हालांकि विश्व बैंक के आंकड़े हालात की गंभीरता का निरूपण करते हैं। इस प्रकार के किसी भी सांगठनिक सरकारी आंकड़े में यह बात गौर की जानी चाहिए कि ये आंकड़े एक सीमा रेखा के नीचे के लोगों की गणना करते हैं, लेकिन उस सीमा रेखा से मात्र कुछ ऊपर के लोग भी आर्थिक रूप से संपन्न नहीं होते। और तो और, वे गरीबों के लिए लागू की जाने वाली योजनाओं के लिए अपात्र भी हो जाते हैं। ऐसे में गरीबों का आंकड़ा कहीं ज्यादा होता है। इसलिए स्थिति और भी चिंताजनक हो जाती है। बेरोजगारी और दरिद्रता से उपजी क्षुधा और क्षुधा से उपजी क्षुधा-मृत्यु तक की चरम चिंताजनक स्थिति समाज के वंचित वर्गों के लिए एक अभिशाप है, जिसे झेलने के लिए हमारे देश की एक बड़ी आबादी अभिशप्त है।
आज भी हमारे देश की बहत्तर फीसद आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है। देश के सत्ताईस करोड़ लोगों में अस्सी फीसद गरीब गांवों में ही रहते हैं। भारत में गरीबी से संबंधित विश्व बैंक के आंकडे भी बताते हैं कि अनुसूचित जनजातियों में सर्वाधिक तैंतालीस फीसद लोग गरीब हैं। उसके बाद क्रमश: अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के लोग आते हैं, लेकिन अन्य वर्ग के लोगों में भी गरीबों का फीसद इक्कीस है, जो अपने आप में काफी चिंताजनक है। ऐसा नहीं है कि आजादी के बाद भारत में गरीबी उन्मूलन और रोजगार मुहैया कराने के लिए योजनाएं शुरू नहीं की गर्इं। निश्चित रूप से आजादी के बाद से अनाज उत्पादन पांच गुना बढ़ा है। गरीबी रेखा से नीचे के तबके (भले ही यह आंकड़ा बहुत छोटा हो) का उत्थान भी हुआ, लेकिन इसके बावजूद आज सात दशक बाद भी आंकड़े भयावह तस्वीर सामने ला रहे हैं और इसमें भी ग्रामीण क्षेत्र ज्यादा ही वंचित हैं। यह स्थापित तथ्य है कि ग्रामीण क्षेत्रों में निचले स्तर पर भ्रष्टाचार के कारण सरकारी योजनाओं का लाभ जरूरतमंदों तक नहीं पहुंचता। भ्रष्टाचार एक सामाजिक-राजनीतिक रूप से मान्य संस्थागत रूप ले चुका है। वर्तमान में ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार सृजन, गरीबी उन्मूलन और भोजन सुरक्षा के उद्देश्य से लागू सबसे वृहद योजनाओं में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना, अंत्योदय अन्न योजना, मध्याह्न भोजन योजना और अन्य कई योजनाओं से लक्षित वर्गों को लाभ पहुंचना तो शुरू हुआ है, लेकिन ये योजनाएं भोजन की समस्या को हल कर पाने में पूरी तरह सफल नहीं हो सकी हैं। इसका मूल कारण प्रशासनिक अक्षमता और भ्रष्टाचार प्रमुख है। ये योजनाएं भी दरअसल अफसरों-कर्मचारियों और बिचौलियों की सांठगांठ का शिकार होती चली गर्इं। पिछले कुछ समय में भूख से मौत की कई घटनाएं सामने आर्इं। ऐसी घटनाएं सामान्य तौर पर समाज के वंचित तबकों में ज्यादा होती हैं। ये घटनाएं इन योजनाओं की जमीनी हकीकत साबित करने के लिए पर्याप्त हैं। राशन कार्डों में फर्जीवाड़ा, मध्याह्न भोजन योजना में घोटाले, भोजन की खराब गुणवत्ता जैसी शिकायतें आम हैं और यह स्थिति उन क्षेत्रों में और भी भयावह हो जाती है जो पिछड़े हैं; जहां इस तरह की समस्याओं की कोई सुनवाई नहीं है। जिन लोगों को सबसे ज्यादा आवश्यकता होती है, वही लोग राजनीतिक-सांगठनिक शक्ति के अभाव में इन लाभों से वंचित रह जाते हैं। भारत में उदारीकरण के बाद के दौर में पिछड़े इलाकों में कुछ नए आयाम भी सामने आए हैं। भारतीय इतिहास के किसी भी काल के लिए यह मान्यता स्वीकार नहीं की जा सकती है कि ग्राम पूरी तरह से बंद आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था रहे हैं। परंतु उत्तर-वैश्वीकरण के काल में गांवों में उत्तरोत्तर पूंजी का चलन बढ़ा है। गांवों में भी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पादों का बाजार बनने लगा। ये परिवर्तन एक तरफ से जीवनस्तर में सुधार के रूप में तो दिखाए जा सकते हैं, लेकिन वहीं दूसरी तरफ ये गांवों में भी जीवनयापन के बढ़े हुए खर्च की ओर इंगित करते हैं। जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति में भी मुद्रा का पहले की अपेक्षा महत्त्व बढ़ गया है और इन सबका परिणाम यह हुआ है कि जीविकोपार्जन के लिए गांव से शहरों, महानगरों की ओर तेजी से पलायन हो रहा है। यह पलायन देश के पिछड़े राज्यों से ज्यादा समृद्ध राज्यों की ओर अल्पकालिक और दीर्घकालिक प्रवास के रूप में सामने आया है। लेकिन इसका बुरा असर यह होता है कि जिन क्षेत्रों से रोजगार के लिए बड़े पैमाने पर पलायन होता है वहां निश्चित रूप से घरेलू स्तर पर उत्पन्न किए जाने वाले भोज्य पदार्थों जैसे डेयरी उत्पादों और अन्य स्थानीय पारंपरिक खाद्य पदार्थों के उत्पादन की मात्रा घटती है। गांवों से शहरों की ओर पलायन की प्रक्रिया ऐतिहासिक काल से ही एक मान्य मानवीय प्रवृति रही है। हालांकि इसके कारण भिन्न-भिन्न रहे हैं। सामान्य तौर पर रोजगार के उद्देश्य से किया जाने वाला पलायन कम विकसित क्षेत्रों से ज्यादा विकसित क्षेत्रों की ओर होता है। पिछले महीने राजधानी दिल्ली में हुई तीन बच्चों की भूख से मौत यह इंगित करने के लिए पर्याप्त है कि नगरों की ओर पलायन भी पेट के सवाल को हल करने में बहुत कारगर नहीं है। यद्यपि यह देश के पिछड़े क्षेत्रों में एक महत्त्वपूर्ण जीवन-साधन विधि है। जीवनयापन का मूल्य नगरों में गांवों की अपेक्षा कहीं ज्यादा है, अत: स्वाभाविक तौर पर एक निम्न आय वाले व्यक्ति अथवा उसके परिवार का जीवनयापन दोयम स्तर का ही होगा। पेट का सवाल तो सबसे मौलिक सवाल है ही, लेकिन यह दोयमता भोजन से लेकर शिक्षा तक जीवन के हरेक पहलू को नकारात्मक रूप से प्रभावित करती है और अंतत: राष्ट्र के भविष्य को भी। आंकड़े बताते हैं कि 1961 की जनगणना के अठारह फीसद की तुलना में 2011 की जनगणना में भारत की शहरी आबादी अट्ठाईस फीसद हो गई है। इसका बड़ा कारण रोजगार की तलाश में नगरों की ओर किया जाने वाला पलायन है। भारत में सामान्य तौर पर नगरों के नियोजन की प्रवृत्ति नहीं पाई जाती और न ही ये नगर औद्योगिक रूप से इतने विकसित हैं कि बाहर से आने वालों को रोजगार उपलब्ध करा सकें। अत: इन नगरों में भी रोजी-रोटी और बेहतर जीवन की तलाश में आने वाले लोग स्वयं को तथा अपने परिवार को संतोषजनक जीवन प्रदान कर सकने में असमर्थ हैं और यहां अनियमित मजदूरों के रूप में काम करने के लिए तथा गैर स्वास्थ्पूर्ण जीवन-पद्धति के लिए बाध्य होते हैं। इसके अलावा सामाजिक सुरक्षा भी इनके लिए बड़ी चुनौती बन जाती है। इसलिए पेट के सवाल का उत्तर हमें क्षणिक उपलब्धियों या अनुपलब्धियों में नहीं खोजना चाहिए, बल्कि इसे दीर्घकालीन शासकीय असफलताओं एवं त्रुटियों में निर्धारित किया जाना चाहिए। इसके समाधान के लिए व्यापक एवं दीर्घकालीन योजना की आवश्यकता है, जिसमें नगरों में पर्याप्त रोजगार साधन और सभी के लिए न्यूनतम जीवन सुविधाएं उपलब्ध कराने के साथ यह भी जरूरी है कि ग्रामीण जीवन के सभी पक्षों का संतुलित विकास किया जाए। एक सशक्त और समृद्ध ग्रामीण-नगरीय सातत्यता स्थापित करने पर जोर होना चाहिए, जिसमें प्रशासनिक अक्षमता और भ्रष्टाचार को मिटा कर सरकारी योजनाओं के सक्षम और सफल कार्यान्वयन को सुनिश्चित करके वंचित वर्गों को विकास की प्रक्रिया में शामिल किया जाए, ताकि देश से बेरोजगारी, भूख और क्षुधा-मृत्यु जैसे सामाजिक-आर्थिक कलंकों से हम मुक्ति पा सकें। Hindi News से जुड़े अपडेट और व्यूज लगातार हासिल करने के लिए हमारे साथ फेसबुक पेज और ट्विटर हैंडल के साथ गूगल प्लस पर जुड़ें और डाउनलोड करें Hindi News App NEXT PROMOTED STORIES Create a designer finish for your home with the right house paint colours from Nerolac nerolac.com Exclusive: In Conversation With Huma Qureshi Who Talks About Her Love For Pink Floyd And More LiveInStyle In Conversation With Boman Irani Who Discloses His Love For Dancing, Hatred For Loud Music, And More LiveInStyle.com Top 10 Bollywood Stars Who Run Successful Businesses CriticsUnion Recommended by जनसत्ता मे खोजे Search हिंदीதமிழ்বাংলাമലയാളം मराठीENGLISH मुखपृष्ठ ख़बरें बजट राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय व्यापार खेल क्रिकेट फ़ुटबॉल राज्य ब्लॉग मनोरंजन जीवन-शैली हेल्थ जुर्म यूटिलिटी न्यूज एजुकेशन जॉब ट्रेंडिंग ऑटो टेक्नोलॉजी फोटो वीडियो क्विज राशिफल आस्था हास्य-व्यंग्य कला और साहित्य © 2018 The Indian Express Pvt. 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Sunday, August 26, 2018
विकास चक्र में गरीबी
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