Monday, June 12, 2023

भारत @2047 सतीश जी पुणे

जब हम भारत 2047 की चर्चा करते हैं तो उसमें पहला बिंदु है-
*जनसंख्या संरचना*-----
2047 में हमारी जनसंख्या की संरचना डेमोग्राफी कैसी होनी चाहिए,? इस पर विचार करना आवश्यक है
कोई भी देश क्या होता है? विश्व में ऐसा कोई देश नहीं जहां जनसंख्या का निवास नहीं हो निर्जन या जन शून्यता के स्थान जैसे साइबेरिया स्वयं में अपने आप में कोई देश नहीं ।देश या राष्ट्र के निर्माण की प्रथम शर्त है -वहां की जनसंख्या- 
इस प्रकार जब किसी स्थान पर व्यक्ति या लोग रहते हैं तो वह एक समाज का निर्माण करते हैं और जब समाज एक निश्चित क्रम में आगे बढ़ता है तो उसका उस भूमि के साथ गहरा जुड़ाव बन जाता है वहां की घटनाएं वहां के जनमानस के साथ जुड़ती चली जाती है और लंबे समय तक वहां निवास करने के कारण वहां के समाज के कुछ सांस्कृतिक मूल्य एवं कुछ जीवन मूल्य विकसित होते हैं तो एक संस्कृति के आधार पर एक राष्ट्र का निर्माण होता है। हम हमारा राष्ट्र भारत 2047 में समृद्धि युक्त और ग़रीबी मुक्त चाहते हैं  तो उस समय की जनसंख्या संरचना कैसी हो? उस पर भी विचार करना आवश्यक है ,, डेमोग्राफी को समझने के लिए कुछ पिछले वर्षों का अध्ययन और उनके आंकड़े भी आवश्यक होते हैं।
1947 में जब भारत औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्र हो गया था परंतु औपनिवेशिक मानसिकता ने यहां एक ऐसा माइंडसेट एक नरेटीव बना दिया  कि भारत की जनसंख्या भारत के विकास के लिए सबसे बड़ी बाधक है ।भारत के 40 करोड़ की जनसंख्या  भारत के लिए एक बड़ा बोझ है।
हमें याद है 1950 के आसपास जब देश की जनसंख्या लगभग 40 करोड़ के आसपास थी तब विश्व के विकसित देशों के प्रमुख अर्थशास्त्री और यहां तक कि भारत के सभी प्रमुख राजनेता , अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री तक एक ही बात कहते थे कि यह बढ़ती हुई देश की जनसंख्या देश के विकास में सबसे बड़ी बाधक है इसलिए जनसंख्या नियंत्रण आवश्यक है,उस समय की सभी सरकारों ने जनसंख्या नियंत्रण के लिए निरंतर प्रयास भी किए।
इतनी बड़ी जनसंख्या का भरण पोषण करने में हमारा देश असमर्थ होगा परंतु हम देखते हैं कि तमाम अटकलों और जनसंख्या पर अध्ययन करने वाले समाजशास्त्रियों की आशंकाएं, सिद्धांत और धारणाएं धराशाई हो गई।
आज हम जब 140 करोड की आबादी हैं तब भी स्वयं की जनसंख्या के भरण-पोषण के साथ-साथ विश्व के अनेक देशों को चावल और गेहूं खिलाने में समर्थ हुए हैं। 
विश्व में  चावल का आज  जितना व्यापार होता है उसका 40% हिस्सा अकेले भारत का  है।
इस  बड़ी जनसंख्या ने वास्तव में अपने लिए ही नहीं विश्व के लिए अन्य देशों के लिए भी अन्न उत्पादन करके दिखाया है,इसलिए हम कहते हैं की बढी हुई जनसंख्या बोझ नहीं है, इस संबंध में जरा अपना दृष्टिकोण ठीक करने की आवश्यकता है श्री गुरु नानक देव जी ने कहा है,,,
 *"रब तुझ सों दूर नहीं, तेरा भी कसूर नहीं।*
 *देखने वाली आंखें जेडी ,ओंधे विच ही नूर नहीं"।।*
अर्थात जनसंख्या के प्रति देखने का हमारा दृष्टिकोण और नजरिया ठीक करना होगा।
लंबे समय तक चले एक विचित्र विमर्श के कारण साठ के दशक में भारत के  परिवारों में जब 5 से 6 बच्चे होते थे वह 1970 तक तीन बच्चों पर आ गए 1980 के दशक में 2 पर आ गए और वर्तमान में तो 1 बच्चे पर आ गए हैं। आपको ताज्जुब होगा कि भारत का फर्टिलिटी रेट वर्तमान में 2.0 पर आ गया है ,जो कि ठीक नहीं है।
 2.1 का फर्टिलिटी रेट तो वैश्विक मानक है। भारत के संदर्भ में यदि देखा जाए तो यह फर्टिलिटी रेट 2.2 होना चाहिए वर्तमान में भी इसमें बहुत अधिक विभिन्नता दिखाई देती है।
दक्षिण के राज्यों तमिलनाडु और केरल में तो यह है 1.8 रह गया है महाराष्ट्र में 1.7 रह गया है।यह स्थिति वास्तव में लम्बे समय की दृष्टि से खराब  स्थिति है। 
जापान का टीएफआर 1.3 रह गया है, लगभग चीन का भी यही हाल हो रहा है उनकी वन चाइल्ड पॉलिसी लगभग लगभग फेल हो गई है।
 हम आज जनसंख्या दृष्टि से विश्व में प्रथम स्थान पर ही नहीं बल्कि युवा जनसंख्या की दृष्टि से भी प्रथम है यदि 2047 में हम समृद्ध भारत का सपना देख रहे हैं तो उसकी पहली शर्त है ,देश की जनसंख्या युवा हो,  देश की जनसंख्या शिक्षित हो, योग्य हों और  
स्वस्थ हो, यह मूल इंडिकेटर हैं। 
हमारी युवा शक्ति विश्व में प्रथम स्थान पर है हमारी साक्षरता की दर भी लगातार बढ़ रही है परंतु हमारे बच्चों के स्वास्थ्य के आंकड़े जरा डरावने प्रतीत होते हैं तो हमें अपने बच्चों के स्वास्थ्य और शिक्षा के लिए 2047 के परिपेक्ष्य में  ठीक से योजना बनाने की आवश्यकता है हमारा युवा आईटी के क्षेत्र में बहुत अच्छे परिणाम दे रहा है हमारे युवाओं ने पिछले वर्ष $180 बिलियन के और सॉफ्टवेयर क्षेत्र में निर्यात किए हैं। कुछ ही वर्षों में हमारा यह निर्यात $1 ट्रिलियन के आसपास हो जाएगा। 
भारत विश्व का सिरमौर बनने जा रहा है तो उसकी पहली और सबसे बड़ी गारंटी हमारी योग्य, शिक्षित स्वस्थ, युवा शक्ति  है  और इसके लिए हमें हमारे डेमोग्राफी का स्तर कम से कम 2.2 तक आवश्यक रूप से बनाए रखना होगा ताकि निरंतर रूप से जनसंख्या संरचना में युवाओं की संख्या में वृद्धि होती रहे।

 भारत @ 2047 का दूसरा महत्वपूर्ण बिंदु है -*भारत को पूर्ण रोजगार युक्त',पर्यावरण हितैषी और एक उन्नत अर्थव्यवस्था बनना होगा*---
इस बिंदु के संदर्भ में बात करें तो आजकल कहा  जाने लगा की "अर्थशास्त्र इतिहास बनने वाला है "
यहां मैं उषा पटनायक की रिपोर्ट का उल्लेख करना बहुत जरूरी समझता हूं जिन्होंने अपने विस्तृत अध्ययन के आधार पर  यह रिपोर्ट प्रस्तुत की कि 1753 से लेकर 1935 तक के कालखंड में ईस्ट इंडिया कंपनी और अंग्रेजों के शासनकाल में लगभग 45 ट्रिलियन डॉलर की लूट इंग्लैंड ने भारत से की।
यह तथ्य अपने आप में स्पष्ट करता है कि हमारी अर्थव्यवस्था बहुत ही उन्नत स्तर पर रही थी।
भारत की उद्यमिता और भारत की जनता की जागरूकता का स्तर धीरे-धीरे बहुत जल्दी बढ़ने वाला है आज हम विश्व की पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुके हैं बहुत जल्द हम विश्व की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएंगे परंतु हमें केवल उन्नत और बड़ी अर्थव्यवस्था ही नहीं बनना है बल्कि समाज के अंतिम छोर पर स्थित व्यक्ति को रोजगार युक्त  भी करना है।
यह सबसे बड़ी चुनौती है चाहे वह लद्दाख का क्षेत्र हो चाहे पूर्वांचल का हो, चाहे केरल का हो, चाहे राजस्थान का युवा हो,,गलत शिक्षा नीति के चलते हमारे युवा वर्तमान में बेरोजगारी के शिकार हो रहे हैं।
2047 तक हमारी अर्थव्यवस्था उन्नत तो होगी ही पर साथ में सब को रोजगार प्रदान करने वाली भी होगी, 
उन्नत और रोजगार के साथ-साथ यह भी आवश्यक है कि यह पर्यावरण हितैषी भी हो।
 हम कभी भी संसाधनों और पर्यावरण के वृहद शोषक नहीं रहे हैं जैसे अमेरिका और यूरोप के देश सब कुछ समाप्त कर देना चाहते हैं‌,उसके  स्थान पर हम सदैव प्रकृति के संरक्षक और पोषक रहे हैं। हमारी भूमि, हमारे वन,हमारी जल संपदा का उपयोग आर्थिक दृष्टिकोण से तो हो ही परंतु हम विकास के लिए इस पश्चिमी सोच के विनाशवादी विचार के पक्षधर नहीं रहे।हमें आने वाली पीढ़ियों के लिए सतत (सस्टेनेबल) विकास के मार्ग को अपनाना होगा हालांकि इस बिंदु से संबंधित अभी कोई विशेष ब्लूप्रिंट  तैयार नहीं हुआ है परंतु शीघ्र ही इस पर विस्तार से चर्चा करने की आवश्यकता है, अध्ययन करने की आवश्यकता है ताकि हमारी अर्थव्यवस्था उन्नत विशाल रोजगार प्रदान करने वाली और साथ ही पर्यावरण हितैषी भी हो,,,

तीसरा महत्वपूर्ण बिंदु है 
*अजेय भारत -सुरक्षित भारत*---
भारत को 2047 तक अपने स्वयं के लिए सर्वोच्च स्तर का उच्च सुरक्षा तंत्र चाहिए। सन् 1947 के बाद से  देश में सुरक्षा संबंधी और सीमाओं से संबंधित विषय की सदैव उपेक्षा की गई है।
इतिहास हमें बताता है कि कलिंग युद्ध के बाद अशोक ने अहिंसा का मार्ग अपना लिया।
पहली, दूसरी, तीसरी शताब्दी से ही उस कालखंड के अन्य सभी शासकों ने भी सैन्य सुरक्षा के इस पक्ष को भुला दिया कुछ लोगों ने अहिंसा के नाम पर बौद्ध धर्म अपना लिया और कुछ जैन मतावलंबी हो गए। इसके चलते जब 712 ईसवी में मोहम्मद बिन कासिम ने भारत पर आक्रमण किया तो विश्व का यह विशाल देश और उसके शासक प्रतिकार करने की स्थिति में नहीं रहे,हम देखते हैं कि 1193 ईस्वी में पृथ्वीराज चौहान जब तराइन का युद्ध हारा तो हमारी स्थिति और विकट हो गई 
सुरक्षा की उपेक्षा के कारण ही उन्नत अर्थव्यवस्था होने के बावजूद भी हम पहले मुगलों के और फिर बाद में अंग्रेजों के गुलाम बन गए। 
इसलिए इतिहास के इन तथ्यों से सबक लेते हुए यदि हमें 2047 में विश्व की प्रथम स्तर की अर्थव्यवस्था उन्नत और रोजगार युक्त अर्थव्यवस्था का लक्ष्य हासिल करना है तो हमें उच्च स्तरीय सुरक्षा तंत्र चाहिए।  
आज अमेरिका व चीन में छह प्रकार की सेनाएं हैं जिनमें जल, थल,नभ, रॉकेट ,आर्मी और स्पेस आर्मी सम्मिलित है परंतु हम अभी भी परंपरागत रूप से सेनाओं के तीनों विभागों के अंतर्गत ही चल रहे हैं हालांकि अग्निवीर योजना देश की सेनाओं को युवा बनाए रखने का प्रशंसनीय प्रयास है।
एक अनुमान है कि 2030 तक भारत सुरक्षा तंत्रों का निर्यातक देश बनेगा हालांकि वर्तमान सरकार ने इस दिशा में तथा सेना के आधुनिकीकरण का निरंतर प्रयास किया है परंतु हम कब तक रूस, जापान, जर्मनी और अमेरिका से  लड़ाकू विमान राइफल्स, टैंक या अन्य  युद्ध सामग्री के आयात पर निर्भर रहेंगे।
अपने सुरक्षा तंत्र को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए अजेय और सुरक्षित भारत का निर्माण आज की प्रथम आवश्यकता है‌।

चौथा महत्वपूर्ण बिंदु है -
*विज्ञान और तकनीकी का विकास (साइंस एंड टेक्नोलॉजीकल डेवलपमेंट)*----
अपने देश की अर्थव्यवस्था को उन्नत करते समय हमें यह विचार करना होगा कि आज यूरोप इतना अमीर कैसे है? अमेरिका विकसित है तो इनके मूल में क्या है? 
हम इतिहास की घटनाओं को देखेंगे तो ध्यान में आएगा के सत्रवीं में शताब्दी में वहां औद्योगिक क्रांति हुई , वह तो ठीक है परंतु इंग्लैंड और यूरोप के देशों ने दुनिया भर में जो लूट मचाई और वहां से जो सारे संसाधनों को अपने स्वयं के देश में लाकर एकत्र कर दिया उसके आधार पर तथा विज्ञान और तकनीकी का तेजी से विकास करते हुए  ये देश विकसित देश बन गये।
 आज अमेरिका की कुल जीडीपी का लगभग 34% (आई.पी.आर )बौद्धिक संपदा अधिकार से आ रहा है,
क्यों ?
क्योंकि वह विकास और अनुसंधान (रिसर्च एंड डेवलपमेंट R&D) के आधार पर मजबूत है। 
 आज दुनिया भर में गूगल, फेसबुक, एप्पल, इंटरनेट आदि के माध्यम से अपने देशों के लिए आय प्राप्त कर रहे हैं। 
अमेरिका के बाद यूरोप में जर्मनी और फ्रांस आते हैं चाहे बिजली हो, रेल हो या अन्य आधुनिक तकनीक हों सब की सब यूरोप और अमेरिका की देन मानी जाती है।
हमने कभी इस विषय पर ध्यान ही नहीं दिया हमारे औद्योगिक और व्यापारिक घरानें हो या सरकारें रही हो किसी ने भी रिसर्च एंड डेवलपमेंट (R&D)के विषय पर कभी भी गंभीरता से विचार नहीं किया।
नतीजा हमें नवीन तकनीक और अनुसंधान के लिए सदैव विदेशों की ओर ताकना पड़ता है।
 इसलिए भारत को विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में तेजी से आगे बढ़ना होगा क्योंकि आज अर्थ का उत्पादन और विश्व को देने के लिए यही दो क्षेत्र ऐसे हैं जिनमें हम अपनी धाक जमा सकते हैं।
 आज जापान, जर्मनी सबसे विकसित देश है क्षेत्रफल और जनसंख्या के मामले में भारत से बहुत पीछे हैं परंतु रिसर्च डेवलपमेंट के मामले में आज विश्व में अग्रणीय है  तो 2047 के स्वर्णिम भारत के स्वप्न का चौथा स्तंभ विज्ञान और तकनीकी का होगा जिसे हमें बहुत तेजी के साथ आगे बढ़ कर इसे पूर्ण करना होगा।

भारत @ 2047 का पांचवां और अंतिम बिंदु है 
*वैश्विक दृष्टिकोण और भारतीय जीवन मूल्य*---
उपरोक्त वर्णित किए गए 4 बिंदुओं के बारे में तो विश्व स्तर के कई राजनेता' विचारक' राष्ट्रवादी चिंतक अवश्य सोचते होंगे परंतु इस पांचवें बिंदु "वैश्विक दृष्टिकोण और जीवन मूल्यों " के बारे में नहीं सोचते हैं।
इस तथ्य और बिंदु पर विचार करने की कोई सोचता है तो वह इस देश का चाणक्य हो सकता है-
पंडित दीनदयाल उपाध्याय हो सकता है-
कोई दत्तोपंत ठेंगड़ी हो सकता है- 
या उसकी विचारधारा से निकले शिष्य सोच सकते हैं।
आप इस दुनिया को क्या देने वाले हैं-? हमारे जीवन मूल्य कैसे हैं-? 
अपने परिवार को ,अपने समाज को, देश को और विश्व को देखने का दृष्टिकोण कैसा है-? यह वैश्विक भाव और जीवन मूल्य विश्व में केवल 140 करोड़ भारतीयों के पास है। 
हमने सदैव से कहा है -"वसुधैव कुटुंबकम' 
 इसी बात को ठेंगड़ी जी कहते थे कि *"पश्चिम के लोग सोचते हैं विश्व एक बाजार है ,जबकि हम भारतीय कहते हैं विश्व एक परिवार है"*
 अगर परिवार भाव का दृष्टिकोण रहता है तो विश्व में युद्धों से बचा जा सकता है।
आज विचार करें रूस और यूक्रेन का युद्ध क्यों हो रहा है? इसके मूल में तो संसाधनों पर कब्जा करने का भाव छिपा है क्योंकि बाजार का भाव रहता है तो परस्पर प्रतिस्पर्धा होनी ही है।
गला काट प्रतिस्पर्धा बाजार का मूल भाव है परंतु परिवार में इसके विपरीत विचार होता है सब स्नेह सूत्र और सहयोग के भाव से चलते हैं।
अभी तो भारत में भी परिवारों पर पश्चिमी सभ्यता और पश्चिमी विचार का दुष्प्रभाव दिखाई देने लगा है, इस संदर्भ में देखेंगे तो अमेरिका के परिवारों की क्या स्थिति है?
 आज वहां डायवर्स दर 72% के आसपास है तो हमारे जीवन मूल्य,हमारे परिवार का भाव, उदार दृष्टिकोण हम विश्व को दे सकते हैं,, आज विश्व को इसकी आवश्यकता है।
 हमने विश्व को बौद्ध धर्म दिया जिसका प्रसार चीन और जापान तक गया परंतु हमने कभी भी किसी देश पर आक्रमण कर उसकी भूमि और संसाधन नहीं हड़पे  हमने सेना भी नहीं भेजी।
आज अमेरिका ने 27 देशों में चीन ने 12 देशों में सेना भेज रखी है।
हम दुनिया में योग लेकर गए ,आयुर्वेद लेकर गए, पंचगव्य लेकर गए और प्राकृतिक खेती, जहर मुक्त खेती दे रहे हैं। यही हमारी ताकत है ।
पहली ,दूसरी और तीसरी शताब्दी में हम सनातन हिंदू संस्कृति के मूल्यों का प्रसार करने के लिए हम पूर्वी और पश्चिमी देशों में गए अभी भी इन मूल्यों को आधुनिक और वैज्ञानिक आधार पर लेकर जाएंगे, इस आधार पर विश्व में सबसे बड़ा फैलाव हमारा है,लगभग डेढ़ करोड़ भारतीय मूल के लोग भारत में आर्थिक उन्नति की दृष्टि से पैसा तो भेजते ही हैं परंतु वे अपने-अपने देशों में हमारी संस्कृति और जीवन मूल्यों के ब्रांड एंबेसडर भी है।
*इस प्रकार ऐसे पांच बिंदुओं के आधार पर भारत @2047 की चर्चा प्रारंभ की है*-
*"वादे -वादे जायते तत्त्व बोधा"*
 विचार करते-करते सत्य का दर्शन करना।
हम सागर मंथन करने वाले लोग हैं,यह अभी प्रारंभ में विचार के लिए कुछ सूत्र है, कुछ बिंदु है जिनके आधार पर हम परम वैभव का लक्ष्य हासिल कर सकते हैं।
संपूर्ण विश्व भारत की प्रतीक्षा कर रहा है।
यह भारत का नैतिक और  दैविक दायित्व भी है कि विश्व का पथ प्रदर्शक बने ‌।
अनंत शुभकामनाओ सहित 
जय भारत, जय हिंद ,जय स्वदेशी

Friday, March 24, 2023

farma frauds फार्मा फ़्रॉड्स

लोग मर रहे थे, दवा कंपनियां साजिश रच रही थीं:नेताओं की लॉबिंग पर 3700 करोड़ खर्च किए, जान से खेलती रही हैं ।लेखक: अनुराग आनंद


फिर से कोरोना हमारे दरवाजे पर खड़ा है। नया वैरिएंट ओमिक्रॉन पहले से भी 5 गुना तेजी से फैल रहा है। एक्सपर्ट कह रहे हैं कि जनवरी में तीसरी लहर आ रही है, लेकिन हाय रे पैसे कमाने की भूख। जब आप अपनों को बचाने के लिए अस्पताल-अस्पताल, बेड-बेड, दवाई-दवाई ठोकरें खा रहे थे; तभी कुछ बिजनेस टायकून नेताओं पर अरबों रुपए उड़ा रहे थे, ताकि नेता उन्हें दवाई और कोरोना वैक्सीन पर बिजनेस करने दें।

आइए आपको इस कहानी की परत दर परत बताते हैं। बताते हैं कि कैसे इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी के नाम पर वैक्सीन बनाने का अधिकार कुछ कंपनियों तक सीमित रखा गया। बाद में उन कपंनियों को वैक्सीन बनाने का ठेका मिला जो पहले लोगों की जान के साथ खेलती रही हैं और अरबों रुपए का जुर्माना भर चुकी हैं। ये वैक्सीन कंपनियां हैं फाइजर और जॉनसन एंड जॉनसन। इनके अलावा 3 फार्मा कंपनियां भी ऐसी ही बेईमानी के लिए बदनाम हैं।

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भारत इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी की लिस्ट से वैक्सीन को बाहर कराना चाहता था

ये बात 24 फरवरी 2021 की है। आपको ये महीना याद है? कोरोना दिन दूनी और रात चौगुनी रफ्तार से फैल रहा था। दुनिया वैक्सीन के लिए त्राहिमाम-त्राहिमाम कर रही थी। भारत और साउथ अफ्रीका विश्व व्यापार संगठन, यानी WTO के पास गए थे। ये प्रस्ताव लेकर कि मेडिकल की दुनिया के इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी वाले नियमों में थोड़ी ढील मिल जाती तो वैक्सीन बनाने में देरी न होती।

भारत का प्रस्ताव पास न हो जाए इसलिए नेताओं की लॉबिंग में खर्च हुए अरबों रुपए

डाउन टु अर्थ में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, इस प्रस्ताव को रोकने के लिए अमेरिकी फार्मा कंपनियों के संगठन ‘द फार्मास्यूटिकल रिसर्च एंड मैन्युफैक्चरिंग ऑफ अमेरिका’ ने महज कुछ दिनों में 50 मिलियन डॉलर, यानी करीब 3 हजार 700 करोड़ रुपए से अधिक नेताओं पर और लॉबिंग में खर्च कर दिए। यही नहीं दवा कंपनियों की मजबूत लॉबिंग की वजह से भारत का यह प्रस्ताव लागू नहीं हो पाया। 


प्रस्ताव पास हो जाता तो गरीब देशों को मिल गया होता बड़ा फायदा

WTO ने अगर ये प्रपोजल उसी वक्त पास कर दिया होता तो इसका सीधा फायदा विकासशील और कमजोर देशों को मिल गया होता। इसका सीधा गणित यह है कि वैक्सीन के इंटेलेक्चुअल प्राॅपर्टी की लिस्ट से बाहर आते ही ट्रॉयल कर चुकीं सभी कंपनियों को फॉर्मूला दूसरे देशों के साथ शेयर करना पड़ता। फिर सभी देश अपने लोगों के लिए खुद से वैक्सीन तैयार कर चुके होते। गरीब देशों में भी सभी लोगों को वैक्सीन देना आसान होता।

आइए अब बात कर लेते हैं, उन फर्मा कंपनियों की भी जिन्हें वैक्सीन बनाने का ठेका मिला-

1. फाइजर: लोगों की जिंदगी ताक पर रखकर दवा बेचने के जुर्म में जुर्माना

कोरोना वैक्सीन बनाने वाली कंपनी फाइजर और इसकी सहायक कंपनी फर्माशिया एंड अपजॉन ने लोगों की जिंदगी ताक पर रखकर गलत तरीके से बेक्स्ट्रा दवा को बाजार में उतार दिया था। जब लोगों ने इसके बारे में शिकायत की तो 2005 में इस दवा को कंपनी ने वापस ले लिया था।
1. ग्लैक्सोस्मिथक्लाइन (जीएसके): लोगों की जान से खेलने के लिए 3 अरब डॉलर का जुर्माना

दवा कंपनी का नाम ‘ग्लैक्सोस्मिथक्लाइन (जीएसके)’ है। इस कंपनी पर आरोप था कि बिना सही से जांचे-परखे पैक्सिल और वेलब्यूट्रिन जैसी दवाओं को लेकर ‘ग्लैक्सोस्मिथक्लाइन (जीएसके)’ ने फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (FDA) को गलत रिपोर्ट दी।

यही नहीं, कंपनी ने इन दवाओं का गलत प्रचार भी किया। सरकार को कीमत के बारे में गलत जानकारी दी गई। इस मामले में कंपनी से 3 अरब डॉलर जुर्माने के तौर पर लिया गया। यह अब तक के इतिहास में किसी दवा कंपनी से वसूला गया सबसे अधिक जुर्माना है।

2. टाकेडा: 8000 मामलों को एक साथ 2.4 बिलयन डॉलर जुर्माना देकर निपटाया

दुनिया की बड़ी दवा कंपनी टाकेडा को अपने किए के लिए 2.4 बिलियन डॉलर का जुर्माना चुकाना पड़ा है। टाकेडा पर आरोप था कि कंपनी ने ब्लड शुगर दवा ‘पियोग्लिटाजोन’ के बुरे प्रभावों को बताए बिना दवा का धड़ल्ले से प्रचार और बिक्री की। FDA ने 1999 में इस दवा के बुरे प्रभावों को बताते हुए इसे बेचने की परमिशन दी थी, लेकिन कंपनी ने इसके जोखिमों को छिपाकर इसे बेचा। जब लोगों और राज्यों ने इसके खिलाफ शिकायत की तो कंपनी को इस मामले में भारी भरकम जुर्माना देना पड़ा।

 
3. फार्मा कंपनी एबॉट लेबोरेटरीज: दवा कुछ और बनाई, बेच दी किसी और कंपनी के नाम पर

2012 में एबॉट लेबोरेटरीज नाम की एक इंटरनेशनल दवा कंपनी को भी गलत तरह से दवा बेचने के आरोप में जुर्माना भरना पड़ा था। फार्मास्युटिकल टेक्नोलॉजी के मुताबिक, कंपनी ने डेपाकोट नाम की दवा को गैरकानूनी तरीके से बेचा था। इस दवा से लोगों पर पड़ने वाले बुरे प्रभाव के बारे में भी कंपनी ने जानकारी नहीं दी थी।

ऐसे में जब लोगों ने इसके बुरे प्रभाव को लेकर सरकारी संस्था में शिकायत की तो कंपनी को 1.4 बिलयन डॉलर का जुर्माना भरना पड़ा था। FDA ने इस दवा को तीन बीमारियों मिर्गी के दौरे, माइग्रेन और बाइपोलर डिसऑर्डर में बेचने का आदेश दिया था, जबकि कंपनी इस दवा को डिमेंशिया, डिप्रेशन और एंजाइटी पेशेंट को भी बेचने लगी। इससे लोगों के स्वास्थ पर बुरा असर पड़ा और शिकायत मिलने पर कंपनी पर कार्रवाई की गई

Thursday, January 19, 2023

स्वामी विवेकानंद

श्री कश्मीरी लाल जी -* (1340 शब्द)
                                            *कश्मीरी लाल जी स्वदेशी जागरण मंच के अखिल भारतीय संगठक हैं और कार्यक्रम में द्वितीय सत्र के मुख्य वक्ता थे*   स्वामी जी की 6 बातें सीखने लायक: (1)स्वास्थ्य पर ध्यान, (2) एकाग्रता व ध्यान का महत्व, (3)साहस व आत्मविश्वास, (4)सेवा का महत्व, (5)हिंदुत्व का अभिमान व (6)संगठन कौशल्य। 
............
उन्होंने मंच पर आते ही कहा की प्यारे विद्यार्थियों मैं एक प्रश्न आपसे पूछता हू, अब एक प्रश्न का उत्तर आपको देना है और भाई सोच करके देना है क्योंकि आपने काफी देर से सुना है स्वामी विवेकानंद जी के बारे में।  अपनी पढ़ाई के दौरान आपने पढ़ा है  कि किस प्रकार का भाषण उन्होंने दिया  आपने सुना है कि वह व्यक्ति जिसे कोई वहां जानता नहीं था| उस विद्यार्थी के लिए उस 30 साल के युवा के लिए जो वहां भाषण देने आता है उसके 5 शब्दों  के बोलने पर 2 मिनट लगातार तालियां बजती है|  11 सितम्बर 1893 की प्रथम पार्लियामेंट ऑफ रिलीजन शिकागो में, आप सब जानते हैं कि वह दो शब्द क्या थे, जिस पर तालियां बजी -*

*मेरे प्यारे बहनों और भाइयों,*
*यही वे पांच शब्द थे|*
*बिल्कुल यही शब्द थे 
*2. और दूसरा प्रश्न मैं आपसे करना चाहूंगा  और वह आपको हिला देगा  कि जब अमेरिका के सारे अखबार स्वामी विवेकानंद जी की प्रशंसा में भरे हुए थे, सभी समाचार पत्रों ने कहा कि कल जब 7000 या 4000 ऑडियंस थी, कल जब सैकड़ों की तादाद में  वक्ता थे उनमें सबसे बढ़िया भाषण हुआ वह स्वामी विवेकानंद का हुआ| जब यह सब समाचार पत्रों में छपा होगा तब आप सोचिए कि भारत में उनके साथ रहने वाले उनके  साथी थे जो कठिन तपस्या करते थे,  जो गुरु के एक ही स्थान पर रहते थे तो वह कितनी खुशी मना रहे होंगे, कहां खुशी मना रहे होंगे ऐसा आप सोच सकते हो क्या ?*
*आपको लगेगा कि उस दिन बहुत सारा जश्न मनाया जा रहा होगा, उनके साथी तालियां पीट रहे होंगे*
*ऐसा है कि नहीं है कि उनका एक साथी अचानक दुनिया में बहुत प्रसिद्ध हो गया, उनके बाकी लोग कितने प्रसन्न हुए होंगे यहआप सोच सकते हो लेकिन उत्तर आपको निराश करेगा कि कोई प्रसन्नता नहीं थी, कोई बधाई नहीं दे रहा था  कोई एक दूसरे को कह ही नहीं रहा था कि कमाल हो गया,*
*कारण य़ह था कि  15 दिन तक उनके साथियों को यह ही नहीं पता चला कि  जिस व्यक्ति का भाषण हो रहा है विवेकानंद, यह वही हमारा दोस्त है जिनको हम नरेंद्रदत्त के नाम से जानते हैं, यह विवेकानंद वही हमारा मित्र है यह कोई और नहीं जानता था।*
*अब आप सोच सकते हैं कि जो घटनाएं दुनियाँ में होती हैं वह सोच समझकर नहीं होती है, अचानक भी कभी-कभी होती हैं  और अपने जीवन के अंदर भी ऐसी कोई घटना आए  उसके लिए भी हमें तैयार रहना चाहिए|*
3. *स्वामी विवेकानंद जी ने उससे पहले कभी इतनी ज्यादा संख्या के सामने भाषण नहीं दिया था, और वहां अंग्रेजी में भाषण दिया जाना था जो की श्रेष्ठ अंग्रेजी थी और उसका उच्चारण बिल्कुल यूरोपवासियों जैसा था। मात्र 473 शब्दों की थी* ऐसी बात इंग्लैंड के सभी प्रसिद्ध अखबारों में छपी थी।  *उनके विद्यालयों में अंग्रेजी में कभी उच्च अंक नहीं आए , ना ही संस्कृत में अच्छी अंक आये थे। इसलिए अगर आप कहीं पढ़ाई में कमजोर हों या अंकत्तालिकाओं ने श्रेष्ठ प्रदर्शन नहीं कर पाएं तो ये मत सोचना की आप अंग्रेजी नहीं बोल सकते , आप जीवन में उच्चता के शिखर पे नहीं जा सकते या आप देश समाज को प्रभावित नहीं कर सकते। विवेकानंद जी का जीवन इसी निराशा में से आशा की और बढ़ने का संदेश देता हे।* 
4. *स्वामी विवेकानंद जी सबसे ज्यादा स्वास्थ्य और खेलो की महत्व देते थे। उन्होंने कहा की आज गीता पढ़ने से अधिक शारीरिक रूप से मजबूत ओर स्वस्थ होना अधिक आवश्यक है।* *वो कहते थे की जो युवा लोहे जेसी मजबूत भुजाओं वाला नही होगा वो न तो भगवान श्री कृष्ण की गीता को पढ़ पाएगा, ना समझ पाएगा और न उस ज्ञान की रक्षा ही कर पाएगा। आपने देखा होगा की उनका शरीर कितना बलवान और सुंदर था , वो कितने बलिष्ट थे। जब वो। अमेरिका धर्म संसद में भाग लेने गए तब वहां कोई परिचित नहीं होने के कारण सड़क के पास खुले में सोए, तब उन्होंने कहा था कि अगर मेरा शरीर मजबूत नहीं होता तो में वही मर चुका होता। उन्होंने मोटे अनाज की रोटी पानी में भिगो कर खाई तथा इसी परिस्थितियों में भी अपना समय व्यतीत किया।* इस लिये युवाओं को अपने स्वास्थ्य पर बहुत ध्यान देने की जरूरत है। 
5. एकाग्रता व ध्यान:  
*स्वामी जी से सीखने वाली सबसे महत्वपूर्ण बात जो हे वो हे, एकाग्रता। ये गुण उन्होंने बचपन से ही प्राप्त कर लिया था। एक बार बचपन में खेल खेल में ध्यान लगाया। तब उनके साथी थोड़ी देर में उठ गए , और बालक नरेंद्र को ध्यान से हटाए की कोशिश करने लगे। इतनी देर में वह सांप आ गया, बालक चिल्लाने लगे ! सांप आ गया , सांप आ गया। लेकिन नरेंद्र पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। जब वो ध्यान से बाहर आए तब उनके साथियों ने बताया की यहां थोड़ी देर पहले सांप आ गया था। तब उन्होंने कहा की में तो ध्यान लगा रहा था , और बिना कारण से कोई जीव कभी किसी को हानि नहीं पहुंचाता है ये हमे ध्यान रखना चाहिए।* 
*स्वामी विवेकानंद जी के बचपन की याद करने की क्षमता और तेज बुद्धिमता के कईं उदाहरण हैं।* *एक बार वो अमेरिका में किसी पुस्तकालय में गए और वह से  2,3 पुस्तकें पढ़ने के लिए ली, अगले दिन उन्होंने वो वापस कर दी।* *तब पुस्तकालय प्रभारी ने पूछा की क्या तुम्हे पुस्तकें पसंद नहीं आयी, तब उन्होंने कहा की पुस्तक तो अच्छी थी।* *फिर उन्होंने पूछा की क्या तुम्हे पुस्तक पढ़ने का समय नहीं मिला और कहीं जा रहे हो इसलिए वापस कर रहे हो, तो उन्होंने कहा की मुझे पढ़ने के लिए पर्याप्त समय मिला।* *तो क्या तुम पढ़ नहीं पाए , तो स्वामी जी ने कहा की मेने सब पढ़ ली। तो पुस्तकालय प्रभारी ने कहा की मेने अपने जीवन काल में आजतक किसी को इतनी बड़ी पुस्तक इतने कम समय में पूरी पढ़ के वापस करते हुए नहीं देखा।* *तब उन्होंने कहा की आप किसी भी पृष्ठ से कोई वाक्य पूछ लीजिए तब आपको विश्वास हो जायेगा। तब उन्होंने अलग अलग पृष्ठों से कुछ बातें पूछी जो स्वामी जी ने यथावत बता दी।* *इस घटना से सभी आश्चर्यचकित हो गए और जब उनसे पूछा गया की क्या इतने कम समय में इतनी बड़ी पुस्तक पढ़ना संभव हे। तब स्वामी जी ने कहा की ये संभव हे, उच्च एकाग्रता व अभ्यास से।*  *इसी तरह मेने एकाग्रता और ध्यान से मेरी बुद्धि , मन और मस्तिष्क को इस प्रकार साध लिया है की मैं एक बार देखते ही उस पुस्तक या लेख को याद कर लेता हूं।* *हमे भी हमारे मन को एकाग्र और मन को संयमित करने की तथा स्वामी विवेकानंद जी से प्रेरणा प्राप्त करने की आवश्यकता हे। इस कार्यक्रम से जाने के बाद उनकी जीवनी या किसी न किसी पुस्तक को अवश्य अध्ययन करें*
*3. आत्मविश्वास: साहस: 
*स्वामी विवेकानंद जी ने एक अत्यंत महत्वपूर्ण बात कही थी की , नास्तिक वो नहीं हे जो कहता हो की में ईश्वर पर  विश्वास नहीं करता , जबकि नास्तिक वो हे जो खुद पर विश्वास नहीं करता।* *आत्मविश्वास सबसे बड़ी पूंजी है।*
*आज हमे जो मनुष्य जीवन और जो शरीर मिला हे ये अमूल्य है। अगर इसका वैज्ञानिक या चिकित्सकीय आंकलन किया जाए तो एक जीते जागते मानव शरीर का मूल्य इतना अधिक हे की इसे कृतिम रुप से बनाया जाना संभव नहीं है। अपोलो अस्पताल के प्रमुख डॉ प्रताप रेड्डी ने ने इसे 60 ट्रिलियन डॉलर का नोशनली बताया। यह अमूल्य है।इसलिए इस शरीर को स्वस्थ रखें और इसका उपयोग मानव जाति के कल्याण के लिए करें।* *स्वामी विवेकानंद जी जब देश में भुखमरी, अशिक्षा, अनाथ और स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित लोगों को देखते थे तो बहुत दुखी होते थे। हमे इन सबको ध्यान में रखकर अपने जीवन को अपने अपने कार्यक्षेत्र में पुरुषार्थ करते हुए भारत माता की ओर मानवता सेवा मे लग जाएं।*
* *सबसे अधिक आवश्यकता है की भारत का युवा स्वरोजगार के माध्यम से स्वावलंबी बने और देश के युवाओं को नई दिशा , नया रोजगार प्रदान करें और आत्मविश्वास के साथ आत्मनिर्भर भारत बनाने में सहयोग करें और स्वामी विवेकानंद जी के स्वप्न को साकार करें।*

*स्वामी विवेकानंद जी का जीवन इतना प्रासंगिक और इतना आदर्शपूर्ण रहा हे की उनके किसी भी एक प्रसंग , एक घटना या एक वाक्य को ध्येय बना कर आप और भारत का हर युवा विवेकानंद जी के मार्ग पर चल कर इस देश और अपने व्यक्तित्व को महानता के शिखर पर ले जा सकते हैं।*

Thursday, December 22, 2022

Lessons of Leadership by BALU SUBRAMANIAN

Chapter 6 
Being a Complete Leader
काफी लोग जीवन के व्यवसायिक क्षेत्र में सफल होते हैं, लेकिन परिवारीमें असफल। लीडर को हर दृष्टि से सफल होना चाहिए।
1. वह एक सरकारी अधिकारी के साथ बातचीत का विवरण देता है जिसमें वह बताता है कि उसने जीवन में दो अधिकारियों के साथ काम किया जो के अपने काम में बहुत ही सफल थे परंतु दोनों ही व्यक्तिगत जीवन के अंदर या  पारिवारिक जीवन के अंदर बहुत ही असफल थे।  और उन्होंने कई बार डायवोर्स वगैरा भी झेले हैं.  हम जानते हैं के ऐसे उदाहरण हम भी दे सकते हैं अपने आसपास के जीवन से। निष्कर्ष यह है यद्यपि हम मानते हैं कि व्यापारिक या व्यवसायिक जीवन में सफल होना लीडर का लक्षण है परंतु यह सफलता पारिवारिक जीवन में भी होनी चाहिए।
2. पूर्ण नेतृत्व की कहानी इस बात से प्रारंभ होती है कि जब हम सोचते हैं कि दिन का कितना समय किस पर लगाना चाहिए और क्या हमारी यह सोच तो नहीं है कि हम अपनी व्यवसायिक उपलब्धियों के लिए अन्य व्यक्तियों की आवश्यकता है भूल जाते हैं। क्या हम अपना कीमती समय अपने मित्रों रिश्तेदारों साथियों में बिताते हैं, जो कि हमारे व्यवसायिक साथी नहीं है और सबसे बड़ी बात वह कहते हैं क्या हम अपने लिए भी समय निकालते हैं।
3.  इसका भी प्राय यह नहीं है कि हमें हर चीज पर समान समय लगाना है परंतु हमें अपने शरीर का मन का बुद्धि का और आत्मा के विकास इन चारों आयामों पर अपना ध्यान देना चाहिए। दिल में व्यायाम ठीक समय पर खाना,  मेडिटेशन और ज्ञान के लिए अपनी भूख जगाना आदि भी आवश्यक है। इन सबके लिए एक संतुलित है दिनचर्या बनाना आवश्यक है जिसमें योग के लिए परिवार के लिए मित्रों के लिए और अपने कामों के लिए समय हो। अगर एक व्यवस्था काम नहीं करती हैं तो हमें दूसरी तरह की कर लेनी चाहिए। 
4. जब हम एक पूर्ण जीवन जीना शुरू करेंगे तो हम समझ पाएंगे कि किस चीज पर इतना समय देने से शक्ति लगाने से और कितनी पूंजी लगाने से कैसा रिजल्ट मिलता है।
5.  बाद में वह निष्कर्ष निकालता है की सफलता का मतलब केवल व्यवसायिक या अपने काम में सफलता से नहीं है बल्कि यह अपने काम में घर में आस-पड़ोस में और विशेष रूप से अपने पर समय लगाने का तरीका है।
(अगर व्यक्तिगत रूप से देखें तो हम भी काम के बोझ में कितने कार्यकर्ताओं की उपेक्षा करते हैं आस-पड़ोस की उपेक्षा करते हैं और अब तक के मित्रों की उपेक्षा करते हैं इसलिए समय का विभाजन आवश्यक है। यह पहली बार है कि लेखक ने नकारात्मक उदाहरण दिया है, वरना सकारात्मक हिंदेते हैं। ऐसे उदाहरण ढूंढना भी शायद जरूरी है।I)

Thursday, November 17, 2022

Need for indian research vivekanand and Tata

Jamshedji Nusserwanji Tata was once, travelling to Germany.

As he stood there, at the door of his First Class Cabin in the Steam-liner, he noticed a lot of activity on the lower decks of the Ship. 

On enquiring,
he learnt that a great Indian Saint Shri Swami Vivekananda was on board the same ship.

Out of genuine respect and curiosity J.N. Tata decided to pay a visit to the great saint.

Swami Vivekananda had of-course heard about the respected industrialist.

As the conversation grew J.N. Tata explained that he was on his way to Germany.

 "I have with me sacks of soil : From various parts of India. I am taking these samples of soil to Germany.

I wish to know if Iron can be extracted profitably from any of these districts." said J.N. Tata to the Saint.

To which Swami Vivekananda replied, "Well, Sir, Even if these sacks contain Iron-rich soil, do you honestly believe that the Germans will tell you the TRUTH???

You must understand that No / NONE of the European Nations wish to see a Strong / Steel-Rich / Economically Independent India.

The soil is probably rich in Iron-ore but the sad truth is all you will get from your enquiries across Europe is
Disbelief and Pessimistic reactions."

Needless to say, having interacted with several Europeans J.N. Tata knew this to be true. Swami Vivekananda continued,

*"Why don't you start an excellent / up-to-date Research Facility and College here in India???*

Why don't you train some good Indian Youngsters to identify soil and conduct these tests and find ways of profitably extracting metals???

It may seem like a wasteful, burdensome expenditure right now.

But in the long run- It will save you many trips to Europe and you can have the assurance of knowing the Truth quickly- rather than taking multiple opinions due to Doubt".

As he could clearly sense J.N. Tata's mood was in acquiescence he further elaborated,

 "Seek an audience with the Maharaja of Mysore H.R.H. Wodeyar. Though a subordinate of the British, he will definitely help you in every way he can............

.....H.R.H. Wodeyar has been generous enough to sponsor my own trip to Chicago to attend the Parliament of Religions".

As soon as he returned to India, J.N. Tata headed straight for Mysore.

And indeed H.R.H. Chamraja Wodeyar did Not disappoint him.

The King granted 370 acres of land for the setting up of the Research Facility and College
that J.N. Tata had envisioned and it
was named,

*THE INDIAN INSTITUTE OF SCIENCE*

**When Two Great Brains Interact, They Come out with solutions for the Nation and for Generations to get benefitted. 

Thank you Sri Tata and Swami Vivekananda. 

One of the greatest contributions by them in India. 

Thank you
🙏

Sunday, August 21, 2022

गुरुदक्षिणा

कोई पांच अच्छी कहानियां और साथ में अच्छा आंकड़े 

1. नंबर 1 देने का महत्व और विवेकानंद और आयल किंग की कहानी आज के समय में कौन कितना दान दे रहा है और सीएसआर आदि की बातें और हमें भी अपना धन देना। संघ परम्परा, गुरुदक्षिणा का इतिहास।
2. Swatantrata 75 में बाकी लोगों की गुरु दक्षिणा कैसे करवाना उनको कैसे जोड़ना और समय दान के लिए अपनी तैयारी है यह अंतिम हो एक बिंदु या तीसरा दिन दो स्वदेशी के बारे में आज का महत्व aaspaas success story ko dhundhna purn Viram 


चौथा बिंदु गुरु पूजा उसका महत्व। शरीर का व समय का महत्व देने का। स्वामी दयानंद की कथा। अंधे को एक घण्टा आंख, मरणोपरांत आंख व शरीर देह दान। एक घण्टा प्रतिदिन समय दान।
गुरु के विषय में जितना कहा जाए उतना ही कम साबित होता है। गुरु ही वह पहली कड़ी है जो ईश्वर से हमें जोड़ती है। माता को प्रथम गुरु माना गया है , माता ही जगत में बालक का परिचय कराती है। अपने बालक में संस्कार का बीजारोपण माता के द्वारा ही संभव है। अतः उन्हें गुरु का दर्जा दिया जाना लाजमी है।

माता के उपरांत गुरु का विशेष महत्व होता है , क्योंकि गुरु अपने शिष्य में उन सभी आवश्यक तथ्यों का भंडार करता है जिसके कारण वह सत्य – असत्य , मिथ्या आदि में फर्क कर पाता है। गुरु के माध्यम से ही ब्रह्मा के दर्शन होते हैं , गुरु ही ईश्वर का परिचय कराता है। अतः गुरु ईश्वर से पहले पूजनीय है बिना गुरु के ज्ञान यह सब संभव नहीं हो पाता है।


कबीर भी कहते हैं –

सतगुरु की महिमा अनंत , अनंत किया उपकार

लोचन अनंत उघारिया , अनंत दिखावण हार। ।

अतः गुरु की महिमा अपार है जिसके माध्यम से हमारे अंदर के नेत्र जागृत होते हैं , जिसके कारण हम अनंत देख सकते हैं। बालक को बिना गुरु के ज्ञान संभव नहीं है इसका उदाहरण आप किसी भी काल में अवतरित हुए महापुरुषों को देख सकते हैं।

स्वयं राम , कृष्ण और यहां तक कि एकलव्य जैसा एक आदिवासी बालक भी गुरु के बिना ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाया।  अतः ज्ञान प्राप्ति का माध्यम गुरु ही है।

 

जीवन में गुरु का महत्व –
प्राचीनकाल के एक गुरु अपने आश्रम को लेकर बहुत चिंतित थे। गुरु वृद्ध हो चले थे और अब शेष जीवन हिमालय में ही बिताना चाहते थे, लेकिन उन्हें यह चिंता सताए जा रही थी कि मेरी जगह कौन योग्य उत्तराधिकारी हो, जो आश्रम को ठीक तरह से संचालित कर सके।

उस आश्रम में दो योग्य शिष्य थे और दोनों ही गुरु को प्रिय थे। दोनों को गुरु ने बुलाया और कहा- शिष्यों मैं तीर्थ पर जा रहा हूँ और गुरुदक्षिणा के रूप में तुमसे बस इतना ही माँगता हूँ कि यह दो मुट्ठी गेहूँ है। एक-एक मुट्ठी तुम दोनों अपने पास संभालकर रखो और जब मैं आऊँ तो मुझे यह दो मुठ्ठी गेहूँ वापस करना है। जो शिष्य मुझे अपने गेहूँ सुरक्षित वापस कर देगा, मैं उसे ही इस गुरुकुल का गुरु नियुक्त करूँगा। दोनों शिष्यों ने गुरु की आज्ञा को शिरोधार्य रखा और गु
गुरु के बिना यह जीवन सुना और निरर्थक है , गुरु के मार्गदर्शन से ही बालक अपने अंदर समाहित गुणों को बाहर निकाल पाता है और बाहरी दुनिया को जान पाता है , इसके बिना यह सब संभव नहीं है। गुरु ही एक माध्यम है जिसके द्वारा बालक अपने अंतर्ज्ञान को बाहर निकालता है और जगत सत्य और मिथ्या आदि में फर्क कर पाता है। इसी के माध्यम से वह सत्य – असत्य को पहचान पाता है।
कहानियां
1. 
एक शिष्य गुरु को भगवान मानता था। उसने तो गुरु के दिए हुए एक मुट्ठी गेहूँ को पुट्टल बाँधकर एक आलिए में सुरक्षित रख दिए और रोज उसकी पूजा करने लगा। दूसरा शिष्य जो गुरु को ज्ञान का देवता मानता था उसने उन एक मुट्ठी गेहूँ को ले जाकर गुरुकुल के पीछे खेत में बो दिए।

कुछ महीनों बाद जब गुरु आए तो उन्होंने जो शिष्य गुरु को भगवान मानता था उससे अपने एक मुट्ठी गेहूँ माँगे। उस शिष्य ने गुरु को ले जाकर आलिए में रखी गेहूँ की पुट्टल बताई जिसकी वह रोज पूजा करता था। गुरु ने देखा कि उस पुट्टल के गेहूँ सड़ चुके हैं और अब वे किसी काम के नहीं रहे। तब गुरु ने उस शिष्य को जो गुरु को ज्ञान का देवता मानता था उससे अपने गेहूँ दिखाने के लिए कहा। उसने गुरु को आश्रम के पीछे ले जाकर कहा- गुरुदेव यह लहलहाती जो फसल देख रहे हैं यही आपके एक मुट्ठी गेहूँ हैं और मुझे क्षमा करें कि जो गेहूँ आप दे गए थे वही गेहूँ मैं दे नहीं सकता।

लहलहाती फसल को देखकर गुरु का चित्त प्रसन्न हो गया और उन्होंने कहा जो शिष्य गुरु के ज्ञान को फैलाता है, बाँटता है वही श्रेष्ठ उत्तराधिकारी होने का पात्र है। मूलतः गुरु के प्रति सच्ची दक्षिणा यही है। सामान्य अर्थ में गुरुदक्षिणा का अर्थ पारितोषिक के रूप में लिया जाता है, किंतु गुरुदक्षिणा का वास्तविक अर्थ कहीं ज्यादा व्यापक है। महज पारितोषिक नहीं।

गुरुदक्षिणा का अर्थ है कि गुरु से प्राप्त की गई शिक्षा एवं ज्ञान का प्रचार-प्रसार व उसका सही उपयोग कर जनकल्याण में लगाएँ। मूलतः गुरुदक्षिणा का अर्थ शिष्य की परीक्षा के संदर्भ में भी लिया जाता है। गुरुदक्षिणा गुरु के प्रति सम्मान व समर्पण भाव है। गुरु के प्रति सही दक्षिणा यही है कि गुरु अब चाहता है कि तुम खुद गुरु बनो

Thursday, August 4, 2022

स्वतन्त्रता आंदोलन व स्वदेशी की भूमिका

स्वतन्त्रता आंदोलन व स्वदेशी की भूमिका

यद्यपि स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव की मुख्य रूपरेखा सरकार द्वारा बनाई गई है परंतु समाज के विभिन्न संगठन भी जोरशोर से इस अवसर को मनाने की तैयारी कर रहे हैं। 
परन्तु हमारा मानना है कि  यह समय इस बात का मूल्यांकन करने का भी है कि इस आजादी की लड़ाई में स्वदेशी का क्या महत्व रहा  है। और आज जिस प्रकार से विशाल बहुराष्ट्रीय कंपनियां व औपनिवेशिक मानसिकता वाले देश भारत कैसे विकासशील देशों का शोषण नित नए ढंग से कर रहे हैं, यह आज बड़ी चुनोती है। अतः हमारे लिये इस विषय की बहुत बड़ी प्रासंगिकता आज भी है। वैसे भी भारत के संविधान के भाग 4 क में हमारे मूलभूत कर्तव्यों में से एक बताया गया है कि " हम राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले  उच्च आदर्शों को अपने हृदय में स्थान दें एवं उनका पालन करें।" अतः यह हमारा मूलभूत दायित्व है। 


 'स्वदेशी'  भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन का एक महत्वपूर्ण आन्दोलन, सफल रणनीति व दर्शन का था। 'स्वदेशी' का अर्थ है - 'अपने देश का'। इस रणनीति का  लक्ष्य ब्रिटेन में बने माल का बहिष्कार करना तथा भारत में बने माल का अधिकाधिक प्रयोग करके साम्राज्यवादी ब्रिटेन को आर्थिक हानि पहुँचाना व भारत के लोगों के लिये रोजगार सृजन करना था। यह ब्रितानी शासन को उखाड़ फेंकने और भारत की समग्र आर्थिक व्यवस्था के विकास के लिए अपनाया गया साधन था।
  
एक आम सहमति है कि स्वदेशी आंदोलन स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्वपूर्ण आंदोलन था जिसने भारत को आजादी दिलाने में बड़ी भूमिका ​निभाई थी।  परन्तु ज्यादातर लोग आज़ादी के  आंदोलन में स्वदेशी की भूमिका की शुरूआत करने का श्रेय गांधी जी को देते हैं। यह सर्वज्ञात है कि उन्होंने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार और खादी आदि को प्रचारित करने में लंबा संघर्ष किया। परन्तु  गाँधीजी ने ही सबसे पहले  स्वदेशी आंदोलन चलाया, यह कहना पूरा सत्य नहीं।  हम जानते हैं कि दक्षिण अफ्रीका से लौटकर गांधी जी का भारत में 1915 में  पदार्पण हुआ।  उससे पूर्व ही बहुत बड़ा स्वदेशी आंदोलन फल-फूल एवं यशस्वी हो चुका था।  इसको  बंग-भंग विरोधी आंदोलन कहते है। लाल-बल-पल का त्रिशूल इसका नेतृत्व कर रहा था।  यह  स्वदेशी आंदोलन 1905 से 1911 तक चला। 
अतः काफी लोगों का मानना है की यह पहला स्वदेशी आंदोलन था। परन्तु यह भी पूर्ण सत्य नहीं लगता क्योंकि इससे पूर्व भी कई स्वदेशी आंदोलनों की अत्यधिक सशक्त लहरें  चली थी। पंजाब में कूका आंदोलन (1871-72), ऋषि दयानन्द का आर्यसमाजी आंदोलन (1875), आदि-आदि। इस लिये कुछ लोग मानते हैं कि 1857 की लड़ाई भी स्वदेशी आधार को लेकर थी। 

इसलिये हम भारत में स्वदेशी आंदोलन को तीन हिस्सों में बांट सकते हैं। पहला अट्ठारह सौ सत्तावन से सन उन्नीस सौ  तक। दूसरा भाग 1903 से 1911 तक यानी बंगाल विभाजन विरोधी आंदोलन। और तीसरा 1915 से प्रारंभ होकर के 1947 की आजादी तक का आंदोलन जिसमें गांधी जी की बड़ी भूमिका रही। आइए इन तीनों भागों का अलग-अलग वर्णन करते हुए देखें कि आज भी इन आंदोलनों से वर्तमान संदर्भ में क्या प्रेरणा ली जा सकती है।
भाग एक: 1857 का स्वदेशी आंदोलन: 

1857   के विद्रोह का एक प्रमुख कारण कंपनी द्वारा भारतीयों का आर्थिक शोषण भी था। कंपनी की नीतियों ने भारत की पारम्परिक अर्थव्यवस्था को पूरी तरह से समाप्त कर दिया था। इन नीतियों के कारण बहुत से किसान, कारीगर, श्रमिक और कलाकार कंगाल हो गये। इनके साथ साथ जमींदारों और बड़े किसानों की स्थिति भी बदतर हो गयी। सन १८१३ में कंपनी ने एक तरफा मुक्त व्यापार की नीति अपना ली इसके अन्तर्गत ब्रितानी व्यापारियों को आयात करने की पूरी छूट मिल गयी, परम्परागत तकनीक से बनी हुई भारतीय वस्तुएं इसके सामने टिक नहीं सकी और भारतीय शहरी हस्तशिल्प व्यापार को अकल्पनीय क्षति हुई।



रेल सेवा के आने के साथ ग्रामीण क्षेत्र के लघु उद्यम भी नष्ट हो गये। रेल सेवा ने ब्रितानी व्यापारियों को दूरदराज के गावों तक पहुँच दे दी। सबसे अधिक क्षति कपड़ा उद्योग (कपास और रेशम) को हुई। इसके साथ लोहा व्यापार, बर्तन, कांच, कागज, धातु, बन्दूक, जहाज और रंगरेजी के उद्योगों को भी बहुत क्षति हुई। १८ वीं और १९ वीं शताब्दी में ब्रिटेन और यूरोप में आयात कर और अनेक रोकों के चलते भारतीय निर्यात समाप्त हो गया। पारम्परिक उद्योगों के नष्ट होने और साथ साथ आधुनिक उद्योगों का विकास न होने की कारण यह स्थिति और भी विषम हो गयी। साधारण जनता के पास खेती के अलावा कोई और साधन नहीं बचा।

खेती करने वाले किसानो की हालत भी खराब थी। ब्रितानी शासन के प्रारम्भ में किसानों को जमीदारों की दया पर छोड़ दिया गया, जिन्होने लगान को बहुत बढा़ दिया और बेगार तथा अन्य तरीकों से किसानो का शोषण करना प्रारम्भ कर दिया। कंपनी ने खेती के सुधार पर बहुत कम खर्च किया और अधिकतर लगान कंपनी के खर्चों को पूरा करने में प्रयोग होता था। फसल के खराब होने की दशा में किसानो को साहूकार अधिक ब्याज पर कर्जा देते थे और अनपढ़ किसानो को कई तरीकों से ठगते थे। ब्रितानी कानून व्यवस्था के अन्तर्गत भूमि हस्तांतरण वैध हो जाने के कारण किसानों को अपनी भूमि से भी हाथ धोना पड़ता था। इन समस्याओं के कारण समाज के हर वर्ग में असंतोष व्याप्त था। उसी का परिणाम था यह पहला आज़ादी का आंदोलन।  भारत में स्वदेशी का पहले-पहल नारा बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय ने "वंगदर्शन" के  1872 ई. में ही विज्ञानसभा का प्रस्ताव रखते हुए दिया था। उन्होंने कहा था-"जो विज्ञान स्वदेशी होने पर हमारा दास होता, वह विदेशी होने के कारण हमारा प्रभु बन बैठा है, हम लोग दिन ब दिन साधनहीन होते जा रहे हैं। अतिथिशाला में आजीवन रहनेवाले अतिथि की तरह हम लोग प्रभु के आश्रम में पड़े हैं, यह भारतभूमि भारतीयों के लिए भी एक विराट अतिथिशाला बन गई है।"

इसके बाद भोलानाथ चन्द्र ने 1874 में शम्भुचन्द्र मुखोपाध्याय द्वारा प्रवर्तित "मुखर्जीज़ मैग्जीन" में स्वदेशी का नारा दिया था। उन्होंने लिखा था-

किसी प्रकार का शारीरिक बलप्रयोग न करके राजानुगत्य अस्वीकार न करते हुए तथा किसी नए कानून के लिए प्रार्थना न करते हुए भी हम अपनी पूर्वसम्पदा लौटा सकते हैं। जहाँ स्थिति चरम में पहुँच जाए, वहाँ एकमात्र नहीं तो सबसे अधिक कारगर अस्त्र नैतिक शत्रुता होगी। इस अस्त्र को अपनाना कोई अपराध नहीं है। आइए हम सब लोग यह संकल्प करें कि विदेशी वस्तु नहीं खरीदेंगे। हमें हर समय यह स्मरण रखना चाहिए कि भारत की उन्नति भारतीयों के द्वारा ही सम्भव है।
जुलाई, सन १९०३ की सरस्वती पत्रिका में 'स्वदेशी वस्त्र का स्वीकार' शीर्षक से एक कविता छपी। रचनाकार का नाम नहीं था किन्तु वर्ष भर के अंकों की सूची से ज्ञात होता है कि वह पत्रिका के सम्पादक महावीर प्रसाद द्विवेदी की रचना थी। कविता का कुछ अंश उद्दृत है-
"विदेशी वस्त्र हम क्यों ले रहे हैं?
वृथा धन देश का क्यों दे रहे हैं?
न सूझै है अरे भारत भिखारी!
गई है हाय तेरी बुद्धि मारी!
हजारों लोग भूखों मर रहे हैं;
पड़े वे आज या कल कर रहे हैं।
इधर तू मंजु मलमल ढ़ूढता है!
न इससे और बढ़कर मूढ़ता है।"
यद्यपि यह स्वतंत्रता का प्रथम युद्ध असफल हुआ परन्तु स्वदेशी भाव लगातार बढ़ता गया।

भाग दो--- बंग-भंग विरोधी आंदोलन: 
प्रायः स्वदेशी आन्दोलन विशेषकर उस आन्दोलन को कहते हैं जो बंग-भंग के विरोध में न केवल बंगाल अपितु पूरे ब्रिटिश भारत में चला। इसका मुख्य उद्देश्य अपने देश की वस्तुओं को अपनाना और दूसरे देश की वस्तु का बहिष्कार करना था।  

'स्वदेशी' का विचार कांग्रेस के जन्म से पहले ही दे दिया गया था। जब 1905 ई. में बंग-भंग हुआ, तब स्वदेशी का नारा जोरों से अपनाया गया। उसी वर्ष कांग्रेस ने भी इसके पक्ष में मत प्रकट किया। देशी पूँजीपति उस समय मिलें खोल रहे थे, इसलिए स्वदेशी आन्दोलन उनके लिए बड़ा ही लाभदायक सिद्ध हुआ।

इन्हीं दिनों जापान ने रूस पर विजय प्राप्त की। उसका असर सारे पूर्वी देशों पर हुआ। भारत में बंग-भंग के विरोध में सभाएँ तो हो ही रही थीं। अब विदेशी वस्तु बहिष्कार आन्दोलन ने भी बल पकड़ा। वंदे मातरम् इस युग का महामन्त्र बना। 1906 के 14 और 15 अप्रैल को स्वदेशी आन्दोलन के गढ़ वारीसाल में बंगीय प्रादेशिक सम्मेलन होने का निश्चय हुआ। यद्यपि इस समय वारीसाल में बहुत कुछ दुर्भिक्ष की हालत थी, फिर भी जनता ने अपने नेता अश्विनी कुमार दत्त आदि को धन जन से इस सम्मेलन के लिए सहायता दी। उन दिनों सार्वजनिक रूप से "वन्दे मातरम्" का नारा लगाना गैर कानूनी बन चुका था और कई युवकों को नारा लगाने पर बेंत लगाने के अलावा अन्य सजाएँ भी मिली थीं। जिला प्रशासन ने स्वागतसमिति पर यह शर्त लगाई कि प्रतिनिधियों का स्वागत करते समय किसी हालत में "वन्दे मातरम्" का नारा नहीं लगाया जायेगा। स्वागत समिति ने इसे मान लिया। किन्तु उग्र दल ने इसे स्वीकार नहीं किया। जो लोग "वन्दे मातरम्" का नारा नहीं लगा रहे थे, वे भी उसका बैज लगाए हुए थे। ज्यों ही प्रतिनिधि सभास्थल में जाने को निकले त्यों ही उन पर पुलिस टूट पड़ी और लाठियों की वर्षा होने लगी। सुरेन्द्र नाथ बनर्जी गिरफ्तार कर लिए गए। उन पर 200 रुपया जुर्माना हुआ। वह जुर्माना देकर सभास्थल पहुँचे। सभा में पहले ही पुलिस के अत्याचारों की कहानी सुनाई गई। पहले दिन किसी तरह अधिवेशन हुआ, पर अगले दिन पुलिस कप्तान ने आकर कहा कि यदि "वन्दे मातरम्" का नारा लगाया गया तो सभा बन्द कर दी जायेगी। लोग इस पर राजी नहीं हुए, इसलिए अधिवेशन यहीं समाप्त हो गया। पर उससे जनता में और जोश बढ़ा।

इसी आन्दोलन के दौरान विदेशी वस्त्रों की दुकानों पर पिकेटिंग शुरू हुई। अनुशीलन समितियाँ बनीं जो गोरी सरकार द्वारा दबाये जाने के कारण क्रान्तिकारी समितियों में परिणत हो गयीं। अरविन्द के छोटे भाई वरिन्द्रकुमार घोष ने बंगाल में क्रांतिकारी दल  स्थापित किया। इसी दल की ओर से खुदीराम बोस ने जज किंग्सफोर्ड के धोखे में कैनेडी परिवार को मार डाला, कन्हाईलाल ने जेल के अन्दर मुखबिर नरेन्द्र गोसाई को मारा और अन्त में वारीद्र स्वयं अलीपुर षड्यन्त्र में गिरफ्तार हुए। उनको तथा तथा उनके साथियों को लम्बी सजाएँ हुईं।
यह सुनते ही पूरा बंगाल आक्रोश में जल उठा। इसके विरोध में न केवल राजनेता अपितु बच्चे, बूढ़े, महिला, पुरुष सब सड़कों पर उतर आये।  राष्ट्रीय नेताओं ने लोगों से विदेशी वस्त्रों एवं वस्तुओं के बहिष्कार की अपील की। जनसभाओं में एक वर्ष तक सभी सार्वजनिक पर्वों पर होने वाले उत्सव स्थगित कर राष्ट्रीय शोक मनाने की अपील की जाने लगीं।

इन अपीलों का व्यापक असर हुआ। पंडितों ने विदेशी वस्त्र पहनने वाले वर-वधुओं के विवाह कराने से हाथ पीछे खींच लिया। नाइयों ने विदेशी वस्तुओं के प्रेमियों के बाल काटने और धोबियों ने उनके कपड़े धोने से मना कर दिया। इससे विदेशी सामान की बिक्री बहुत घट गयी। उसे प्रयोग करने वालों को हीन दृष्टि से देखा जाने लगा। ‘मारवाड़ी चैम्बर ऑफ कॉमर्स’ ने ‘मेनचेस्टर चैम्बर ऑफ कॉमर्स’ को तार भेजा कि शासन पर दबाव डालकर इस निर्णय को वापस कराइये, अन्यथा यहाँ आपका माल बेचना असंभव हो जाएगा।

योजना के क्रियान्वयन का दिन 16 अक्तूबर, 1905 पूरे बंगाल में शोक पर्व के रूप में मनाया गया। रवीन्द्रनाथ टैगोर तथा अन्य प्रबुद्ध लोगों ने आग्रह किया कि इस दिन सब नागरिक गंगा या निकट की किसी भी नदी में स्नान कर एक दूसरे के हाथ में राखी बाँधें। इसके साथ वे संकल्प लें कि जब तक यह काला आदेश वापस नहीं लिया जाता, वे चैन से नहीं बैठेंगे।

16 अक्तूबर को बंगाल के सभी लोग सुबह जल्दी ही सड़कों पर आ गये। वे प्रभात फेरी निकालते और कीर्तन करते हुए नदी तटों पर गये। स्नान कर सबने एक दूसरे को पीले सूत की राखी बाँधी और आन्दोलन का मन्त्र गीत वन्दे मातरम् गाया। स्त्रियों ने बंगलक्ष्मी व्रत रखा। छह साल तक आन्दोलन चलता रहा। हजारों लोग जेल गये; पर कदम पीछे नहीं हटाये। महाराष्ट्र में बाल गंगाधर तिलक, पंजाब में लाला लाजपतराय व बंगाल के बिपिन चंद्र पल (लाल, बाल, पाल) की त्रिमूर्ति  ने इस आग को पूरे देश में सुलगा दिया।

इससे लन्दन में बैठे अंग्रेज शासक घबरा गये। ब्रिटिश सम्राट जार्ज पंचम ने 11 दिसम्बर, 1912 को दिल्ली में दरबार कर यह आदेश वापस ले लिया। इतना ही नहीं उन्होंने वायसराय लार्ड कर्जन को वापस बुलाकर उसके बदले लार्ड हार्डिंग को भारत भेज दिया। इस प्रकार स्वदेशी राखी के धागों से उत्पन्न एकता ने इस आन्दोलन को सफल बनाया।
दिल्ली दरबार (1911) में बंग-भंग रद्द कर दिया गया, पर स्वदेशी आन्दोलन नहीं रुका। अपितु वह स्वतन्त्रता आन्दोलन में परिणत हो गया। बताते चले कि इस आंदोलन की शताब्दी पर 2005 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने पूरे देश में इस बंग-भंग विरोधी आंदोलन की शताब्दी कार्यक्रम को देश के कोने-कोने में मनाया और वर्तमान में इसकी प्रासंगिकता से अवगत करवाया। 

 1920 से 1945 का युग :-
 महात्मा गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में रहते हुए ही 1909 में हिन्द स्वराज पुस्तक लिख कर मेनचेस्टर आदि के बने कपड़े का विरोध शुरू कर दिया था। लगे हाथ बताते चले कि 2009 ने स्वदेशी जागरण मंच ने सौ से अधिक स्थानों पर हिन्द स्वराज पुस्तक की शताब्दी के उपलक्ष्य में अच्छे कार्यक्रम सम्पन्न किये थे। 1915 में जब वे भारत लौटे तो उन्होंने इस को आगे बढ़ाया। गांधी स्वदेशी आंदोलन के केन्द्र बिन्दु हो बन गए। उन्होंने स्वदेशी को  स्वराज की आत्मा भी कहा था। महात्मा गांधी को औपनिवेशिक सत्ता के विरुद्ध संघर्ष करने वाले योद्धा के रूप में देखा जाता है लेकिन गहराई से देखें तो उन्होंने न केवल स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ी बल्कि उन्होंने हर समय भारतीय सभ्यता को श्रेष्ठता दिलाने का प्रयास भी किया और विश्व व्यवस्था के सामने भारतीय सभ्यता का प्रतिनिधित्व भी किया था। पश्चिमी सभ्यता के वर्चस्व वाले उस युग में गांधी जी ने भारतीय सभ्यता को श्रेष्ठ बताते हुए उसे पूरी दुनिया के लिए एक विकल्प के रूप में पेश किया ।  रामधारी सिंह दिनकर ने उनके बारे में लिखा थाः‘
‘एक देश में बांध संकुचित करो न इसको, गांधी का कर्त्तव्य क्षेत्र, दिक् नहीं, काल है.

उन्होंने एक के बाद एक आंदोलन प्रारम्भ किये परन्तु सबकी जड़ में स्वदेशी था। नमक आंदोलन, खेड़ा सत्‍याग्रह, चंपारण सत्‍याग्रह, असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन, भारत छोड़ो आंदोलन के बल पर भारत को आजाद कराने में अहम भूमिका निभाई। गांधी जी के अनुसार-

“स्वदेशी का तात्पर्य उस भावना से है जो हमें अपने आसपास में निर्मित वस्तुओ के उपयोग तक से है। यह बाहर की वस्तुओ के प्रयोग का निषेध करता है। स्वदेशी एक धर्म है, एक कर्तव्य है जो हमें पैतृक धर्म की सीमा में अनुबंधित करता है। अगर इसमें कोई दोष है तो इसे सुधारना चाहिए। राजनीति के क्षेत्र में केवल स्वदेशी संस्थाओ के प्रयोग से है तथा उसमे जो खामियां हैं उसे हटाकर उसके उपयोग से है। आर्थिक क्षेत्र में उन्ही वस्तुओ के उपयोग से है जो आसपास में निर्मित होती हैं,तथा पडोस में बनने वाली वस्तुओ की गुणवत्ता में सुधार व उपयोग से है|" 

संघ व स्वदेशी: स्वतन्त्रता आंदोलन में स्वदेशी की भूमिका में कुछ लोगों व संस्थायों के योगदान को उतना स्थान नहीं मिला जितना अपेक्षित था। उनमें गिनती करनी हो तो सबसे पहले वीर सावरकर जी का नाम आता है। कॉलेज से स्वदेशी के मुद्दे को लेकर वे निकले गए, और विदेशी वस्तुओं की होली जलाने में उनका महती योगदान को जानबूझ कर भुलाने का प्रयास हुआ। 1930 में स्वदेशी को लेकर शहीद हुए बालक बाबू गेनू सईद का वर्णन भी कम होता है, यद्यपि स्वदेशी को लेकर शहीद होने वाले वे इकलौते वीरपुरुष थे। इसी प्रकार से स्वदेशी विज्ञान को बढ़ाने वाले वैज्ञानिक जगदीश प्रसाद बसु से लेकर प्रफुल्ल चंद्र राय भी और अधिक प्रचार प्रसार के हकदार हैं। इसी प्रकार से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के निर्माता डॉ हेडगेवार का योगदान बहुत बड़ा रहा जिसकी ज्यादा चर्चा अपेक्षित है। राष्ट्राय स्वाहा नामक पुस्तक में  पत्रकार मोरेश्वर गणेश तपस्वी ने विस्तार से डॉ हेडगेवार जी के स्वदेशी के लिए योगदान की चर्चा है।  जिसमें कहा गया है वह है कि यह बहुत पहले से है कि डॉ. Hedgewar इस पर जोर दिया. म. न. वंहाड पांडेय की लिखी आधारभूत पुस्तक 'संघ कार्यपद्धति का विकास 'एक पुस्तक है जो भारत भर में द्वितीय वर्ष संघ शिक्षा वार्गा के लिए जा रहा स्वयंसेवकों के लिए निर्धारित है । इसके एक अध्याय ( पृष्ठ 81 पेज से प्राम्भ) पर शीर्षक  "स्वदेशी का व्रत" की अवधारणा में विस्तार से वर्णन है कि संघ के स्वयंसेवकों के लिए स्वदेशी के क्या  महत्व है। कई रोचक उदाहरणों से उसमें समझाया गया है कि राष्ट्रजीवन में स्वदेशी का क्या योगदान है। 
अंत में दो इतिहासकारों की टिप्पणियों को उद्धरित करना जरूरी समझता हूं: 
आरसी मजूमदार का मत था कि स्वदेशी आंदोलन ने राष्ट्रीय आंदोलन के दायरे को 'सिद्धांत से पूर्ण व्यावहारिकता' की ओर ले आया।
आधुनिक इतिहासकार सुमित सरकार ने कहा कि स्वदेशी आंदोलन की उल्लेखनीय विशेषताओं में से एक 'लोगों के जीवन को आकार देना' था जो 1947 तक निर्देशित था