भारत में दवा कंपनियो द्वारा अमानवीय 'मानव-परीक्षण'
१. बहुत ही दुःख विषय क़ि बात है क़ि केंद्रीय सरकार अभी तक कोई भी ड्राफ्ट , इन दानवी दवा कंपनियो के प्रभाव के कारण, ऐसे नियमो का नहीं ला पायी हे जिस से क़ि दवा के इंसान पर प्रयोग करने पर उचित मुआवाज दिलाया जा सके. ध्यान रहे पिछले चार सालों से हर सप्ताह दस लोग मध्यमान रूप से इन परीक्षणों के कारण मौत के मुंह में धकेले जा रहे हे.
२. इन नियमो के अभाव में मामला यहाँ तक जा पहुंचा हे क़ि कुल ऐसे २०३१ मौतों में से केवल २२ को ही मुआवजा दिलाया जा सका हे. इतना भी तब जब क़ि पिछले साल श्रीमती मेनका गाँधी क़ि अध्यक्षता में सांसदों क़ि संयुक्त समिती ने मामले क़ि गहरे से छानबीन कर इन कंपनियों को मजबूर किया. दुःख क़ि बात हे क़ि ये करने के बावजूद भी ऐसे पीड़ित परिवारों को प्रति परिवार केवल डेढ़ से आधी लाख रुपये तक ही मुआवजा दिलाया जा सका हे. दस कंपनियों ने केवल ५२.३३ लाख क़ि राशि ही मुआवजे के तौर पर वितरित क़ि, और वो भी केवल २२ परिवारों को जबकि केवल २०१०-११ में ऐसे मामलो में ४३२ मौतें हुई हे.
इसके इलावा जो मौतें पिछले तीन साल में हुई उनके मुआवजे के तो अभी कोई बात ही नहीं चली हे. ध्यान रहे क़ि गत तीन सालों में क्रमशः २८८, 637 एवं ६८८ मौतें चिन्हित क़ि जा चुकी हे. ये जानकारी दृग कंट्रोलर ऑफ़ इंडिया ने सूचना के अधिकार के मातहत दी हे..
३. अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संसथान दिल्ली (AIMS ) में भी दवा परीक्षण के कारण 49 बच्चे मृत्यु को प्राप्त हो चुके हे. क्रूरत क़ि हद यहाँ देखें. एक साल से कम उम्र के दो बच्चों को वो दवाई का सेवन कार्यय गया तजुर्बा करने के लिए जो क़ि सोलह साल से कम के बच्चे को कानूनी रूप से दी ही नहीं जा सकती. दवा का नाम बताते चलें - Olmestran व Valastran नामक ये दवाएं ब्लड प्रेशर कम करने के लिए प्रयुक्त होती हे, और बच्चों पर इनका इस्तेमाल क्रिमिनल अपराध ही कहा जायेगा. इतना ही नहीं तो ये दवाएं काफी पुरानी हे और इनका पेटेंट का समाया भी जा चूका हे. संक्षेप में कहें तो तीस महीनो के दरम्यान बियालीस परीक्षण कुल मिला कर चार हजार एक सो बियालिस (४१४२) बच्चों पर हो चुके हे दिल्ली के एम्स में सन २००६ से और इनमें से दो हज़ार सात सो अठाईस (२७२८) बच्चे एक साल से कम उम्र के थे. सामान्यता जिन बच्चों पर ये परीक्षण हुए वे अति गरीब और अनपद परिवारों के थे. गरीबी और अनपढ़ता से इससे बड़ा कोई क्रूर मजाक हो सकता हे क्या?
४. ऐसे मरीज जिन पर परीक्षण के कारण स्थाई रूप से कोई चोट आयी हो , उनकी संख्या तो इससे बहुत जियादा हे. हैरानी क़ि बात हे क़ि हमारे ड्रग कंट्रोलर के पास न तो कई ऐसा आंकड़ा हे और न ही इन एथिक कमेटियों के खिलाफ कोई एक्शन लिए गए हो, उसकी कोई जानकारी इकठी क़ि गयी हे. यही कारन हे क़ि धीरे धीरे दुनिया क़ि सब बड़ी दवा कंपनिया भारत क़ि और दवा परीक्षण के लिए रुख कर रही हे हे क्योंकि यहाँ और दुनिया के मुकाबले कल बीस से चालीस प्रतिशत ही खर्च उठाना पढता हे.
५. इसके लिए सरकार द्वारा तेयारी क़ि अवस्था में ' The Drug & cosmetics (3rd Amendment Rules 2011 जिसे जनता की चर्चा के लिए नवम्बर १८, २०११ को जारी किया गया हे, इन बड़ी दवा कंपनियों के दबाव के चलते आगे नहीं बढाया गया हे. इसमें प्रावधान हे क़ि परीक्षण के चलते यदि मरीज क़ि मौत होती हे हे तो इन कंपनियों को तीस दिनों में या तो सिद्ध करना होगा क़ि ये मौत उनके परीक्षण के कारण नहीं हुई और या उनको साठ दिनों के भीतर मुआवजा देना होगा. ये कंपनिया इस बात के पीछे लगी हे क़ि सिद्ध करने का काम कंपनी का न हो हो कर मरीज के परिवार क होना चाहिए. हम समझ सकते हे क़ि वो गरीब परिवार तो कभी ये सिद्ध करने का खर्च ही उठा नहीं पाए गा क़ि मौत परीक्षण के कारन हुई हे और ये कंपनिया साफ़ छूट जाएँगी.
६. सारकार को प्रायोजित मीडिया के दबाव में भी नहीं आना चाहिए जो ये सिद्ध करने का कुत्सित प्रयास करेगा के मेनका गाँधी क़ि समित्ती के कारण कंपनियों का परीक्षण और मुआवजा हाल में घटा हे. इंसान क़ि जिंदगी से ये खिलवाड़ यदा शिग्र रोकना चाहिए और क़ानून जल्दी पास होना चाहिए.
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