‘मेड बाई इण्डिया’ से ही विकास सम्भव - कश्मीरी लाल. राष्ट्रीय संगठक, स्वदेशी जागरण मंच।
आज देश एक नयी अंगड़ाई ले रहा है। शेयर बाज़ार पिछले 6 मास में 35% तक छलांग लगा रहा था। महंगाई अपने निचले स्तर पर आयी है। आम आदमी का बैंको में नया खाता खोलने का आंकड़ा 13 करोड़ को पार कर गया है। कुछ मांह विश्व व्यापार संगठन के सामने किसानो को दी जाने वाली रियायतों के बारे में अडिग रह कर और अपनी बात मनवा कर भारत ने दिखा दिया है क़ि अब इसे अनावश्यक झुकाया नहीं जा सकता। मुद्रा बैंक, सुवर्ण बांड जैसी कई नीतियां लगातार प्रशंसा बटोर रही है। ऐसे में जरूरी है की देश के उत्पादन क्षेत्र के बारे में हम नए प्रकार से सोचे। गति के साथ साथ दिशा को भी कुछ मोड़ कर देखें। वर्तमान राजग सरकार को कई कमजोरियां यूपीए सरकार ने विरासत में दी हैं। शायद सबसे बड़ी कमजोरी है उत्पादन क्षेत्र में अत्यधिक खराब हालात का होना। मन्युफॅकचरिंग क्षेत्र की वृद्धि दर 0.1% तक गिर गयी। चीन से हर बड़ी चीज बनकर आने लगी है। सुई से लेकर सोलर ऊर्जा तक। दीवाली के पटाखों से बिजली बनाने वाले संयंत्र तक। इस कारण हमारे उद्योग धंधे गर्त में पहुंचने लगे, तकनीकी विकास थम गया, व्यापार घाटा आकाश को छूने लगा। अतः, मोदी सरकार ने जैसे ही इसकी चिंता करनी शुरू की तो सबको लगा की विकास की गाडी अब पटरी पर आरही है। लगा अब यह सरपट दौड़ेगी। प्रधानमन्त्री मोदी ने लालकिले की प्राचीर से आह्वान किया कि हम विनिर्माण को प्रोत्साहन देंगे - मेक इन इंडिया का नारा दिया - तो एकबार उत्साह छा गया। काफी लोग इस बात से कुप्पा है कि फ़ॅसबुक पर इस पेज हर तीन मिनिट में तीन नए दोस्त बन रहे है और कि लाखों लोगों ने इसको लाइक किया है।अपनी पीठ थपथपाने के कई और भी तरीके हो सकते है। लोगों को लग रहा है कि चीन के सामान के अंधाधुंध आयात को रोकना है तो भारत में मेक इन इंडिया को बुलंद करना एकमात्र उपाय है। मेक इन इंडिया के उदघोष से यहाँ तक हम भी काफी कुछ सहमत होते है।
परंतु अगर इस का मतलब विदेशी कंपनिया यहाँ आये, पैसा लगाये और मुनाफा ले उड़े तो बहुत खुश होने की बात नहीं है। इस प्रकार सेविदेशी कम्पनियो का आना ही तो प्रत्यक्ष विदेशी निवेश है। यही तो एक मृग मारीचिका थी जिसके चक्कर में दुनियां की कई अर्थव्यवस्थाएं डूबी हैं। आवारा विदेशी पूँजी कभी भी भरोसेमंद नहीं होती है। इसलिए क्यों न भारत की कंपनियों को निर्माण क्षेत्र में प्रोत्साहित किया जाये? देश का पैसा देश में रहेगा। इसी को हमने मेड बाय इंडिया कहा है।
रेगिस्तान में मृग को दूर पानी का आभास होता है । इस लालच में पोखर के पानी को छोड़ आगे, और आगे अंधाधुंध भागता है ।और ...अंत में प्यास में दम तोड़ देता है। कहते हैं शिकारियों के तीर से कम लेकिन मृगमारिचिका के कारण ज्यादा मृग आजतक मरे है। पता नहीं ये कहावत कितना सच्ची है या मात्र किवदंती। परन्तु विदेशी पूँजी की मृगतृष्णा में जरूर अधिकान्श विकासशील देशों की अर्थव्यवस्थाएं दिवालिया हुई है - यह नतीजा पक्का है। एशियाई टाइगर कही जाने वाली अर्थव्यवस्थाओं की पोस्ट मार्टम रिपोर्ट भी यही कहती है। जरा आंकड़ो पर दृष्टी डालें तो बात और ज्यादा समझ आएगी।
2012-13 में भारत में 26 अरब डॉलर का विदेशी निवेश हुआ और 31.7 अरब डॉलर बाहर निकल गया। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के वेतन, मुख्यालय खर्च, व्याज, मुनाफाआदि की मदो में ये राशि बाहर रिस गयी। भारत को क्या मिला इस मेक इन इंडिया से। झूठे आश्वासन, घोटाले और भोपाल गैस जैसीत्रासदी! क्या आगे भी हम यही चाहते है? ग्लोबल फिनेंशल इंटीग्रिटी के आंकड़ो को देखें तो पूरी दुनिया में इसी तरह की लूट इन बहुराष्ट्रीय कपनियों ने की है। 2010 में पूरे विश्व् के विकासशील देशो में 506 अरब डॉलर का विदेशी निवेश प्राप्त हुआ। थोडा पीछे का आंकड़ा देखेगे तो पोल खुल जायेगी। 2006 में सारे विकासशील देशो में 858 अरब डॉलर गैर कानूनी ढंग से इन बहुराष्टीय कंपनियों ने बाहर निकाला था। सो मतलब साफ़ है। किसी गरीब को एक बोतल खून देने की घोषणा करना और उल्टा उसी मरीज का डेढ़ दो बोतल खून निकाल लेना। बस यही है बहुराष्ट्रिय कंपनियो के तथाकथित रक्तदान शिविर का टोटका! बात यहीं ख़त्म नहीं होती! बेहोश गरीब का अंगूठा लगवा लेते है 'अंगदान' के फ़ार्म पर । डिसइनवेस्टमेंट और अधिग्रहण, सच में देखें तो बीमार उद्योगों का यही अंगदान है। इस पुस्तिका में आप अनेको ऐसे अधिग्रहण काण्ड सविस्तार पाये गे और चौक जायेंगे मेड इन इंडिया की यह क्रूर सच्चाई जानकार!
इस पुस्तिका में डॉ भगवती हमें मुख्यतः चार खुलासे सविस्तार बताये गे। 60 से ज्यादा शीतल पेय बनाने वाले नामी ब्रांड किस तरह दो विदेशी दैत्यों पेप्सी-कोला द्वारा कपटपूर्ण ढंग से निगल लिए गए। केलविनटर जैसे फ्रिज बनाने वाली कंपनी के विदेशी कंपनी द्वारा अधिग्रहण के क्या नतीजे हुए, भारत में केवल पेंचकस तकनीक का ही काम बाकी बचा है। सीमेंट उद्योग का दिल दहलाने वाला विदेशी अधिग्रहण कैसे हुआ की गुजरात अम्बुजा, ए सी सी आदि कंपनियों के नाम ही भारतीय बचे है, बाकि तो सब कुछ विदेशी कंपनियों का कब्ज़ा है। ऐसे ही आईसक्रीम 'क्वालिटी' का अधिग्रहण भी चोंकाने वाला है। श्री भगवती आगे जो बताते है वो और खौफनाक है। मैड काऊ सरीखी बीमारियो के भारत में आयात भी इसी प्रक्रिया का अंग है। वे बताएँगे की इन विदेशी कंपनियों द्वारा हमारी जीवन शैली, राजनीतिक व्यवस्था आदि सबको प्रदूषित किया जाता है। ये सब खतरे 'मेक इन इंडिया' द्वारा संक्रमित होते है। जहरीली फसल से इसकी खरपतवार और भी खराब है।
श्री भगवती जहाँ मेक इन इंडिया के खतरे गिना रहे है वहीं मेड बाय इंडिया के लाभ भी सूझा रहे है। चीन ने किस प्रकार वहां की कम्पनियो को प्रोत्साहित करने के लिए विदेशी तकनीक तक को भी नहीं घुसने दिया। क्योंकि डी वी डी पलयेर्स की सारी रॉयल्टी अमरीका को जाती थी तो चीन ने नयी तकनीक ई वी वी ई को विकसित किया, और अब वहां डी वी डी नहीं बिकती। सर्वदूर प्रयुक्त होने वाली अमरीकी ऑपरेटिंग सिस्टम विंडोज को उसने छोड़ कर अपना चीन निर्मित सिस्टम विकसित कर लिया है। वैसे भी हम जानते है कि चीन ने अपनी धरती पर फेसबुक की जगह टेंसेन्ट, गूगल की जगह बेयदु, फ्लिपकार्ट,अमेजोंन की जगह अलीबाबा को विकसित किया हूआ है। आज भारत की अर्थव्यवस्था का डिजिटल प्रचार का 80% लाभ विदेशी कंपनियां ले जाती है। व्हॉट्स एप आदि के कमाने का फंडा यही है।
अगर इन बातो को ध्यान रख कर चलते है तो भारत के पास बहुत बड़ा फलक है कमाने के लिए। श्री भगवती बताते है कि दुनिया भर में विकसित देशों की सब सरकार ते टेक्नो राष्ट्रवाद के नाम पर अपनी बड़ी कंपनियो का अधिग्रहण हर्गिज नहीं होने देती चाहे इसे रोकने के लिए वहां की संसद में बिल पास करवाना पड़े। और ऐसा बहुत देशों में हो चुका है।
अंत में - कुछ भारत के सफल प्रयोगों का उदाहरण देते हुये वे विषय को एक आशा भरी ऊंचाई पर छोड़ते है। लेखक की विशेषता है की वे एक ओर छोटे छोटे उदाहरण देकर वे बड़े सरल ढंग से सामान्य आदमी को इस स्वदेशी विचार से जोड़ते है। दूसरी ऒर वे नए नए आंकड़े और तथ्य देकर बुद्धिजीवियो को भी झकझोरते है। पुस्तक को पढ़ते हुए आप पाएंगे की यह किसी की आलोचना नहीं है। किसी की नीयत पर शक नहीं बल्कि नीतियों की बेझिझक शल्य चिकित्सा है। अगर कोई निशाने पर है तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों की मक्कारियां है जो अपनी पैसे की भूख के लिये भोले भाले देशों पर पासा फेंकती है। उदारीकरण बन गया उधारीकरण । निजीकरण निजी कारणों से होता है। भूमंडलीकरण ने दुनिया का भूमंडिकरण कर दिया। वैश्विक परिवार को बाजार बना दिया। 1991 से चली वैश्वीकरण की उपर्युक्त तीन शब्दों की प्रक्रिया दुनियां के गरीब देशों को लूट की क्रिया बन गयी। सारांश में लेखक चाहते है कि अनावश्यक एवं बेलगाम आयातों पर अंकुश लगाते हुए देश के विकेन्द्रित उत्पादन तन्त्र का सशक्तिकरण करते हुए, विदेशी निवेश पर आधारित उत्पादन की नीति के स्थान पर देश में अनुसंधान व विकास (आर एण्ड डी) के माध्यम से वांछित प्रौद्योगिकी के विकास से भारतीय उत्पादों एवं ब्राण्डों के देश-विदेश में स्थापित करना वास्तविक उन्नति का रास्ता है। यही मेड बाई इंडिया है। आशा है पुस्तक अपने उद्देश्य में जरूर सफल होगी। KASHMIRILALKAMAIL@GMAIL. COM
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