Wednesday, April 1, 2015

Data to REMEBER part I

DATA TO REMEMBER.

 There are about 25 data entries in it

1. 10. Data to be remembered one...Environment, Poems jangal ka dastoor, 2. How many birds declined in last decades. 3. What says UNO 4. Vultures 5. Rivers and JK and UTTRAKHAND.
2. What is the data regarding women living alone in the world? Regarding divorce cases in the world, regarding mom less or dad less children, etc.
3. Regarding philanthropy of ban KI moon data, vis-a-vis consumerism data,
4. Regarding the data of multinational loot, inequality, etc. These too are provided bY BAN KI MOON

5. Regarding small scale industries etc.
6.

These numbers have not gone unquestioned. The work
List.
1. rupees vs. Dollar, inflation also imported.
1917-13, 1947-3.50, 1991-18 ,now62 so barrel 85 £ at 1947 295 now 5270.
2. Our share in the world GDP
1000-34, 1000-1500 32, 1700-24 , 1947 3.8, 1991-3.2, now 2.5, population 16.5 but (ppp basis 5)
3. Manufacturing growth rate. 1950s 5.9, 1991, 4.5,12-13 1.9, 13-14 negative
4. Envieonent companies.. Colorado , Richard heed, Algore ipcc, 1750-2013 (8) -90.63%, 1450 gigatonnes/ half25 yrs.
5. Unequally upper and lower,
1. Rupee vs. Dollar..our inflation is also imported...​विगत 23 वर्षों से इसके परिणाम स्वरूप हमारी मुद्रा की कीमत जो 1991 में 18 रुपये प्रति डालर थी, वह गिर कर 62 रुपये प्रति डालर हो गयी। इस प्रकार आज अमेरिका की मुद्रा ‘डालर’ की कीमत हमारी मुद्रा ‘रूपये’ की तुलना में 62 गुनी है। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि 1917 में पहला भारतीय रूपये का जो नोट छपा था उस समय 13 डाॅलर के बराबर एक भारतीय रुपया था और 1947 में जब हम स्वाधीन हुए, उस समय भी साढ़े तीन रुपये बराबर एक डाॅलर था, वहीं मनमोहन सिंह जी ने जब आर्थिक सुधार लागू किये तब 18 रुपये बराबर एक डाॅलर था और आज 62 रुपये बराबर एक डाॅलर है। क्रूड पैट्रोलियम का एक बैरल जो 85 डाॅलर प्रति बैरल है। यदि आज आजादी के समय की एक्सचेंज रेट होती तो आज एक बैरल के हमें मात्र 295 रूपये देने पड़ते, जिसके आज हमें 5270 रुपये देने पड़ रहे हैं। देश की सारी महँगाई जो है एक तरह से आज आयातित है, और हम अपने रुपये का जो अवमूल्यन करते रहे हैं उससे महँगाई बढ़ती रही है। two three other examples to be given.

1917-13, 1947-3.50, 1991-18 ,now62 so barrel 85 £ at 1947 295 now 5270.
2. Our share in the world GDP and present status: एंगस मेडिसन एक ब्रिटिश इकोनाॅमिक हिस्टोरियन हुये हंै, उनकी पिछले साल मृत्यु हो गई, उनको ओ.ई.सी.डी. देशों के समूह जिसमें सारे औद्योगिक देश आते है, अर्थात अमेरिका, यूरोप जापान कोरिया आदि देशों के इस संगठन ‘आर्गेनाइजेशन फार इकोनाॅमिक कोआॅपरेशन एण्ड डेवलपमेंट कंट्रीज’ ने कहा कि वे दुनिया का 2000 साल का आर्थिक इतिहास लिखंे। इस पर उन्होंने वल्र्ड इकोनाॅमिक हिस्ट्री: ए मैलेनियम पर्सपेक्टिव लिखा और वह जो मैलेनियम पर्सपेक्टिव उन्होंने लिखा उसमें उन्होंने कहा कि सन् शून्य ए.डी. से लेकर 1700 एडी तक अर्थात ईसा के जन्म से सन् 1700 ईस्वी तक भारत की अर्थव्यवस्था दुनिया में सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था थी। उनके अनुसार इस्वी सन् एक से 1000 ईस्वी तक भारत का दुनिया के जी.डी.पी. में 34 प्रतिशत हिस्सा या कन्ट्रीब्यूशन था। अमेरिका, यूरोप चीन सब पीछे थे। 1000 ईस्वी से 1500 ईस्वी के बीच विश्व के कुल उत्पादन में भारत का अंश 32 प्रतिशत था 1700 एडी में भी यह 24 प्रतिशत था। आज यदि हम देखें तो जब हम स्वाधीन हुए उस समय हमारा एक्सचेंज रेट के आधार पर विश्व के नामिनल जी.डी.पी. में योगदान 3.8 प्रतिशत था। मनमोहन सिंह जी ने जब आर्थिक सुधार लागू किये उस समय 3.2 प्रतिशत था और आज वो मात्र 2.5 प्रतिशत है। वल्र्ड जी.डी.पी. में हमारा अंश क्रय क्षमता साम्य (Purchasing power Parity) के आधार पर चाले 5 प्रतिशत अंष है, पर वह एक अलग अवधारणा है। उसे यहाँ छोड़ दीजिये, जो वल्र्ड का नामिनल जी.डी.पी है उसमें हमारी एक्सचेंज रेट के आधार पर यह हमारी स्थिति है। हम दुनिया की 16.5 प्रतिशत जनसंख्या है लेकिन विश्व के जी.डी.पी. में हमारा कुल योगदान 2.5 प्रतिशत है .

1000-34, 1000-1500 32, 1700-24 , 1947 3.8, 1991-3.2, now 2.5, population 16.5 but (ppp basis 5.

3. Examples of previous glory in science and technology and our downward trend in Manufacturing sector...1. हमारे पूर्व इतिहास पर और भी दृष्टि डाले तो अभी तमिलनाडु में कोडुमनाल नाम के स्थान पर एक उत्खनन हुआ है। पिछले 20-22 वर्षों में वहा पर एक पुरानी औद्योगिक नगरी निकली है। वहाँ पर विट्रीफाइड क्रुसीबल्स....उस औद्योगिक नगरी में स्टील बनाने के कारखाने भी निकले हैं, वस्त्र बनाने के कारखाने भी निकले है, वहाँ पुरातात्विक उत्खनन में रत्नों के संवर्धन के भी उद्यम निकले हैं और भी निकले हैं। यूरोप में पहली बार विट्रीफिकेशन का अभी विकास हुआ है। लेकिन, हमारे यहाँ वो तेइस सौ साल पुराने विट्रीफाइड क्रुसिबल्स निकले हैं अर्थात् हम उस समय विट्रीफिकेशन करते थे। वहाँ पर इजिप्ट के सिक्के भी निकले हैं तो रोम व थाईलैण्ड के भी सिक्के निकले हैं। अर्थात् तब हम अपने औद्योगिक उत्पाद विश्व भर में निर्यात करते थे। इसलिये वल्र्ड जी.डी.पी. में हमारा पिछले साल अर्थात् 2013-14 में हमारी मेन्यूफेक्चरिंग सेक्टर की ग्रोथ रेट (वार्षिक वृद्धि दर) ऋणात्मक अर्थात् नेगेटिव हो गई थी, ऐसा पहली बार हुआ आजादी के बाद 1950 के दशक में भी हमारी मैन्यूफेक्चरिंग सेक्टर की ग्रोथ रेट 5.9 प्रतिशत थी साठ के दशक में दो युद्ध होने के बाद भी हमारी मैन्यूफेक्चरिंग सेक्टर की ग्रोथ रेट 5.6 प्रतिशत थी और 1990-91 में जिस समय हमें बैंक आॅफ इंग्लैण्ड के पास सोना गिरवी रखना पड़ा था। उस समय भी हमारे मैन्युफेक्चरिंग सेक्टर की वृद्धि दर (ग्रोथ रेट) 4.5 प्रतिशत थी। हमारे आजादी के बाद के इतिहास मंे यह 4.5 प्रतिशत से नीचे कभी नहीं गई। लेकिन, 2012-13 हमारी उत्पादक उद्योगों की यह उत्पादन वृद्धि दर गिरकर 1.91 प्रतिशत और 2013-14 में ऋणात्मक या नेगेटिव हो गई। आज देश के पास सर्वाधिक युवा शक्ति हैं, और जो मेन्यूफेक्चरिंग सेक्टर है. देश में उत्पादक उद्योगों के हृास के कारण ही आज हम देखे तो देश के विदेश व्यापार में 150 अरब डाॅलर का घाटा है। आज हम सब प्रकार के उच्च प्रौद्योगिकी आधारित उत्पादों के मामले में आयातों पर निर्भर हो गये हैं.

Manufacturing rate. 1950s 5.9, 1991, 4.5,12-13 1.9, 13-14 negative

4. ENVIRONMENT/MNCs
पूरी दुनियां का जितना भी मनुष्य निर्मित प्रदूषण जो भय, भयानकता और भूकम्प तक का कारण जाना जाता है
1. वो मात्र दुनिया की 90 कंपनियो जिनके हेडकुआर्टर्स 43 देशों में फैले है, द्वारा 63% तक फेलाया जाता है। ये आंकड़ा हमने नहीं 8 साल के कठिन परिश्रम से कोलोराडो के अन्वेषक रिचर्ड हीड ने 2013 में एकत्र किया और IPCC के एलगोरे ने मान्यता दी।
2. दूसरी बात जो इसके साथ जोड़ी की बेशक आंकड़ा 1751 से 2013 तक का है परंतु कुल प्रदूषण यानि1450 गीगा टन का आधा तो केवल गत 25 वर्ष में ही इकठ्ठा हुआ है।
3. तीसरी बात बताई कि 7 को छोड़ शेष सभी 90 में से 83 तो एनर्जी सेक्टर यानि तेल गैस व कोयले की कंपनियां है और 7 सीमेंट की।
4. Chouthi और भी मजेदार बात बताई कि इन में से मुख्य कंपनियां जोकि अमरीका यूरोप और चीन आदि में केंद्रित है, वो ही दुनियां में चलने वाले प्रदूषण विरोधी आंदोलनों को फण्ड मुहैय्या कराती है! इस लिये इन आंदोलनों ने ही कई जंगलो को कटवाया है, कटवाने वालों को बचाया है और ईमानदार आंदोलन के नाते स्वदेशी जागरण मंच को हमेशा याद किया जायेगा - इस रास्ते पे जब कोई साया न पायेगा, ये आखिरी दरख्त बहुत याद आएगा!,
ham bade nahin hae, par phir bhee sabse bade hae,
jahan sab gir pade hae ham vahan khade hae.
Fs.90 companies caused 2/3 rd of world carbon emission.or of man-made global warming emissions

Chevron, Exxon and BP among companies most responsible for climate change and some goverment ownedncompanies. since dawn of industrial age, 1750
link- http://www.theguardian.com/environment/2013/nov/20/90-companies-man-made-global-warming-emissions-climate-change?CMP=twt_gu

1750-2013 (8) -90.63%, 1450 gigatonnes/ half25 yrs

5. Unequally,दुनिया के ऊपर के 5वां हिस्सा जो अमीरों का है वो दुनियां का कुल 86% गुड्स एंड सर्विसेज निगलता है और नीचे का 5 % मात्र 1.3% । क्या विश्वास नहीं हो रहा तो बतादे ये आंकड़े UNO के सेक्रेटरी जेनेरल कोफ़ी अन्नान के दिए हुए है। Aadmi tune hee, inke pas 1.3 aur moto ke pas 86%,
1. अब थोडा और विस्तार से बता दे कि ये ऊपर के 5% पूरी दुनिया की खपत का 45 %मीट व मछली, 58% ऊर्जा का भक्षण करते है और 74% टेलीफोन लाइन, 84% कागज़ 87 % वाहन भी इसी के कब्जे में है।
2. अगर ये आंकड़े डरावने नहीं तो आगे बतादे कि दुनियां के सबसे बड़े तीन मात्र तीन अमीरो की परिसम्पतिया दुनिया के 48 गरीब देशों से ज्यादा है। तीसरा आंकड़ा और भी ज्यादा खतरनाक।
3. दुनिया के 225 सर्वाधिक अमीर व्यक्तियों जिनमे 60 केवल अमरीका के है उनके पास 1 ट्रिलियन डॉलर की सम्पति है जोकि दुनियां के 47 देशो नहीं कुल 47% नीचे की आबादी की वार्षिक आमदनी से ज्यादा है।
अदम गोंडवी की जुबानी
वो जिसके हाथ में छाले है पेरो में बिवाई है
उसी के दम से रौनक आपके बंगले में आयी है।
इधर इक दिन की आमदनी का औसत चवन्नी है
उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमायी है।
रोटी कितनी महंगी है ये वो औरत बताएगी
जिसने जिस्म गिरवी रखके ये कीमत चुकाई है।

6. We use to say that every country requires a unique model keeping in mind it's unique requirements. Guru has also outlined the same.
Paradigm shift

There is an unseen paradigm shift in this Budget. For the first time, an Indian government’s budget seems to focus on national effort as the core impetus for national development.
1. This is not surprising as the Cabinet resolution on NITI Aayog directs the national policymaking body “most importantly” to “adhere to the tenet that while incorporating positive influences from the world, no single model can be transplanted from outside into the Indian scenario. We need to find our own strategy for growth.”
2. Almost a decade back, Finance Ministers and Central Bank Governors of the G20 nations had declared that “there is no uniform development approach that fits all countries” and “each country should choose the development approaches and policies that suit its specific characteristics.”
3. Three years later, the World Bank conceded “we have learned the hard way that there is no one model that fits all.”
Yet, for a decade more, India followed the economic model of the West till the NITI Aayog decided to correct the course. The game-changing elements in this Budget are in line with NITI Aayog’s philosophy.

7. sme sector informal sector

The first expression of the India-centric approach is the innovative agenda to ‘fund the unfunded’ 58 million 5 crore and 80 Laius) micro and small businesses in the non-formal sector. This sector, according to the Credit Suisse Asia Pacific/India Equity Research report of July 2013, is unique to India. While in other countries the informal sector is largely illegal, in India, the report says, it is non-formal because government policies have not reached it.
2. These 58 million non-formal micro businesses generate millions of rural and semi-urban entrepreneurs and provide 128 million 12 crore 80 Laius, I.e. That almost 2:5 persons employed by one entrepreneur on average) jobs.
3. Two-thirds of these units are operated by Scheduled Castes, Scheduled Tribes and Other Backward Classes.
4. Yet, this Kamadhenu of job creation gets only 4 per cent of its credit needs from banks. The sector now borrows at usurious rates of interest of 120 per cent and beyond.
5.,While it is denied funds, the formal sector — which garnered some Rs.54 lakh crore since 1991 by way of foreign and domestic capital and loans — has added just a couple of million jobs in two decades.
6, All governments since liberalisation had expected these millions of units to die of euthanasia ( mercy killing) in market economics. But they have posted the fastest growth among all segments of the Indian economy. But economic policymaking in India continued to ignore them. 7. Mr. Modi is the first political leader to see the potential of this sector to drive up jobs. He also realised that the modern banking system is unsuited to fund this sector. In the last budget, the Modi government had announced a committee to structure a new financial architecture for this sector. The Reserve Bank of India reportedly opposed any new architecture. But this Budget has gone ahead and announced a new financial architecture, the Micro Units Development Refinance Agency (MUDRA), for the non-formal sector with a corpus of Rs.20,000 crore and budgetary support of Rs.3,000 crore for credit guarantee. MUDRA will come into existence by a separate law. This will fund the millions of entrepreneurs by an innovative financial architecture that will integrate the existing private financiers of small businesses as last-mile lenders. It is a completely indigenous, India-centric and innovative solution for the most job-intensive, yet totally credit-starved, segment of an economy unique to India.

9. Value of human body..dr. pratap Reddi of Appolo in his article on government health policy quotes Dr.Herald J.Morovtz of Yale university that if an artificial human body is to be produced it will cost 6000 lakh crore of dollars, which is 77 times more than the total GDP of the whole of the world. Other examples, kidney transplant, A eye. Etc.

10. How honest govt can save crores. Coal auction.
CAG Said it govt. Lost 1.86 lakh crores now govt has earned 1.76 lakh crores due to auction of 30 coal blocks and earned 1.76 lakh crores.
SC blocked 214 coal blocks. E auction.

11. Education worth. One data is from Australia how much govt. Lost due to attacks on india students. Second is from a research paper prepared by Tata institute of social sciences that our iiteans never produced any Nobel laureates.

12. Economic interesting data

1. How much has he sensex spurt in the last six months and how it has effectefd Modi?
A. 35 per cent, modi is not happy as it may be hot money t ojust
Romote certain shares of the companies. Now 11 % down.

2. How much GDP comimg from urban and RURAL areas?
A. 65 pc coming from urban centers While 65 pc resides in RURAL AREAS

3. What's the number in trade facilitation to global market in india?
A. India’s poor ranking in its foreign trade promotion policies explains our showing in inward FDI. In the World Economic Forum’s 2012 Global Enabling Trade Index, India figures in the bottom tier. On market access parameters in particular, it figures third from last on a list of 132 countries promises.
4. what is the percentage of de eloped countries from their earnings from IPR
A. 35% of USA and 39% of EU. Novartice, another NATCO, sowaldi 80,000 to 1000 rs.

13. RAILWAYS

आम आदमी रेल का टिकट ले भी ले तो उसे सीट की बात तो छोडि़ए,ठीक से खड़े होने अथवा गलियारे में बैठने की जगह भी नहीं मिलती। इस आपूर्ति के लिए ४५,००० डिब्बों की अतिरिक्त जरूरत है। जिससे हरेक रेल में अतिरिक्त डिब्बे जोड़े जा सकें। अतिरिक्त रेल लाइंने बिछाने के साथ इकहरी लाइनों का दोहरीकरण भी जरूरी है,जिससे रेलगाडि़यों की संख्या बढ़ाई जा सके। इन बुनियादी सुविधाओं को जमीन पर उतारने की बजाय हमारे यहां अहमदाबाद से मुबंई बुलेट ट्रेन चलाने की बात हो रही है। ज्ञात हो,साधारण यात्री गाडि़यों के लिए औसतन एक किलोमीटर लंबी पटरी बिछाने पर १० करोड़ रूपए प्रति किमी का खर्च आता है,जबकि द्रुत गति की बुलेट ट्रेन पर १०० करोड़ रूपय प्रति किमी का खर्च आएगा। जाहिर है,इन दो शहरों के बीच ५०० किमी पटरी बिछाने पर जितना खर्च आएगा,उतनी राशि में ५००० किमी लंबी पटरी बिछाई जा सकती है। जो २० करोड़ यात्रियों की आवाजाही का साधन बनेगी

14. FDI
यहाँ पर इसके केवल 2 ही उदाहरण उद्धत कर देना पर्याप्त है। उदाहरणार्थ वर्ष 1999 के पूर्व देश में सारा सीमेन्ट भारतीय स्वदेशी उद्यम बनाते थे। देश में निर्माण कार्यों में उछाल आने की आशा में यूरोप के छह बडे़ सीमेन्ट उत्पादकों ने दक्षिण पूर्व एशिया के कोरिया आदि देशोें से सस्ती सीमेन्ट भेज कर प्रारंभ कर हमारे देश में स्थानीय सीमेन्ट उत्पादकों को दबाब में लाकर उनको उद्यम बिक्री को बाध्य करके आज हमारी आधी से अधिक सीमेण्ट उत्पादन क्षमता पर कब्जा कर लिया है।. उदाहरणार्थ आज टाटा के टिस्को के सीमेन्ट के कारखाने हो या एसीसी व गुजरात अम्बुजा आदि के यूरोपीय कम्पनियों लाफार्ज व डाॅलसिम द्वारा अधिग्रहण के बाद आज देश की दो तिहाई सीमेन्ट उत्पादन क्षमता यूरोपिय सीमेन्ट उत्पादकों के स्वामित्व व नियंत्रण में गयी है। अर्थात् विदेशी कम्पनियां भारत में ‘‘मेक इन’’ कर रही हैं।
8 aaज शीतल पेय जैसे अनेक उपभोक्ता उत्पादों के 70-80 प्रतिशत तक बाजार कोक-पेप्सी के हाथों टूथ पेस्ट व जूते पाॅलिश सदृश अनेक उपभोक्ता उत्पादों में 85-90 प्रतिशत बाजार एवं स्वचालित वाहनों से लेकर टीवी, फ्रीज, ऐसी, सीमेन्ट आदि टिकाऊ उपभोक्ता उत्पादों में 65-70 प्रतिशत बाजार विदेशी कम्पनियों के नियंत्रण में है।
15. 9. Soft drinks - sad saga
उत्पादन तंत्र का दो तिहाई आज विदेशियों के नियंत्रण में चला गया। उदाहरण के लिए हमारे देश में साफ्ट ड्रिंक्स के करीब पचास-साठ ब्रांड्स विभु, सुनौला, थम्स अप, लिम्का, कैम्पा कोला बहुत सारे पूरे देश भर में अनेक ब्रांड थे और अब दो विदेशी ब्राण्ड ही बच गये सारी साफ्ट ड्रिंक्स कम्पनियाँ या तो बंद हो गई या विदेशियों द्वारा अधिग्रहीत (टेकओवर) कर ली गई। जैसे पारले प्रोडक्ट का साफ्ट ड्रिंक का जो 600 करोड़ रुपये वार्षिक का साफ्ट ड्रिंक्स का व्यवसाय था, वह कारोबार कोको कोला ने अधिग्रहित (टेकओवर) किया। पार्ले प्रोडक्ट्स के शीतल पेय व्यवसाय के अधिग्रहण की इस कहानी को बताने से थोड़ा सा समय ज्यादा लगेगा।
A. लेकिन, इससे यह स्पष्ट होगा कि भारत में उत्पादन के नाम पर 1990 के दशक में चलते हुये उद्यमों को अधिग्रहीत करने का षड़यंत्र था। कान्सपिरेन्सी किस तरह की होती रही है। जब कोका कोला कम्पनी आई तो उसमें सबसे पहले पारले प्रोडक्ट्स लगेगा थम्स अप लिम्का के बॉटल बाजार से गायब होनी शुरू हो गयी। दुकानदारों को पार्ले के ब्राण्डों के खाली क्रेट के बदले कोका कोला के भरे क्रेट मिलने लग गये।
B. उस समय शीतल पेय काँच की बोतलों में आता था जो बॉटल मेन्यूफेक्चरर था। पारले प्रोडक्ट्स के बाॅटल निर्माता को भी अनुबन्धित कर लिया कि हम तुमसे इतनी बोतल खरीदेंगे शर्त यह है कि इस अवधि में तुम किसी दूसरे के लिए बोतल नहीं बनाओगे। अब पार्ले प्रबन्धन को लगा कि हमारी बोतल मार्केट से वापस री-सरकुलेट होकर नहीं आ रही है कि उनको धोकर वापस भरें, तब अपने मेन्युफेक्चरर को कहा कि इतनी बोतल बना दो तो उसने कहा नहीं अब तो मैं टाई-अप हूँ, मैं नहीं करूँगा।
C. इसके अतिरिक्त हाइवे पर व अन्यत्र रेस्टोरेण्टों को भी अनुबन्धित कर लिया कि जैसे मान लो बनारस से दिल्ली तक हाइवे पर आपने उस समय देखा होगा कि जो ढाँबे वाले या रेस्टोरेंट वाले होते थे उनको एक छोटा फ्रिज मुफ्त देती थी कम्पनी और कहती थी अपना पूरा परिसर हमारे ब्राण्ड के नाम से पेंट करवा लो और एक या दो साल तक किसी दूसरे का साफ्ट ड्रिंक नहीं रखना तो यह फ्रिज मुफ्त देंगे यानी कि बाजार पर अपना एकाधिकार करना।
D. जैसा मैंने पूर्व में कहा कि हमारे यहाँ इनकम टैक्स रेट बहुत ऊंची थी, पूंजी निर्माण कठिन था। किसी भी कम्पनी का सार्वजनिक निर्गम (Public Issue of Shares) आता तो पूंजी निर्गमन नियन्त्रक अनुमोदन आवश्यक था। इसलिये हिन्दुस्तान में किसी भी कम्पनी में प्रवर्तकों (Promoters) के शेयर 10-20 प्रतिशत ही होते थे। 40 प्रतिशत के करीब शेयर्स फाइनेन्शियल इन्स्टीट्यूूशन्स के पास होते थे। उन दिनों ऐसे भी समाचार थे कि शेयर बाजार से पार्ले के शेयर कुछ कोका कोला कम्पनी ने खरीदने प्रारम्भ किये थे। इसलिये पार्ले के मालिकों को लगा कि कहीं ऐसा ना हो कि वो 10-12 प्रतिशत शेयर स्टाक मार्केट से खरीद कर उसका हास्टाइल टेकओवर (बलात अधिग्रहण) न हो जाए। ऐसे में पार्ले कम्पनी पूरी हाथ से निकल सकती थी, इसलिए 600 करोड़ के टर्नओवर वाली कम्पनी जिसके थम्स अप, लिम्का जैसे अत्यन्त लोकप्रिय ब्राण्ड थे बिक गयी.

16. OUR OLD SCIENCE AS MYTH. MANJUL BHARGAVA
भारतीय मूल के कैनेडियन-अमरीकन गणितज्ञ हैं 40 वर्षीय मंजुल भार्गव। गत वर्ष 2014 में उन्हें गणित के क्षेत्र का नोबल पुरस्कार कहलाने वाला फील्ड्स मेडल पुरस्कार प्रदान किया गया। मंजुल की शिक्षा-दीक्षा कुछ हटकर हुई। उन्होंने अपने नाना से संस्कृत सीखी और भारतीय गणित की प्राचीन परंपरा का गहरा अध्ययन किया। कुछ माह पहले दिए गए एक साक्षात्कार में वे कहते हैं, 'जब मैं बड़ा हो रहा था तो मुझे महान गुरुओं को पढ़ने का अवसर मिला। इनमें पाणिनी, पिंगल और हेमचंद्र जैसे महान भाषा वैज्ञानिक और कवि तथा आर्यभट्ट, भास्कर और ब्रह्मगुप्त जैसे महान गणितज्ञ शामिल हैं। इनके काम में गणित की महान खोजें छिपी हुई हैं, जिन्होंने मुझ जैसे युवा गणितज्ञ को गहराई से प्रभावित किया। पिंगल, हेमचंद्र और ब्रह्मगुप्त का प्रभाव मेरे काम में देखा जा सकता है। अपने नाना से मैने जाना कि किस प्रकार वे महान गणितज्ञ स्वयं को गणितशास्त्री न मान कर कवि समझते थे।'

मंजुल ने आधुनिक गणित को काफी कुछ दिया है। साथ ही जर्मन गणितज्ञ कार्ल फैड्रिक गॉस के काम से सामने आई दो सौ साल पुरानी गणितीय उलझन को सुलझाया है। लेकिन मंजुल का कहना है कि उन्हें इसकी दिशा 628 ई. के भारतीय गणितज्ञ ब्रह्मगुप्त के संस्कृत ग्रंथ से मिली है। अर्थात् परंपरा ने प्रतिभा को राह दिखाई।

लेकिन सबकी समझ मंजुल भार्गव की तरह नहीं होती। कुछ लोगों की समझ पर पूर्वाग्रहों के ताले जड़े होते हैं। मैंने एक भिखारी के बारे में सुना था जिसके मरने पर जब उस स्थान को खोदा गया जहां बैठ कर वह भीख मांगता था तो वहां से बहुत सारा धन निकला। कुछ लोगों को अपने घर का कुंआ नहीं पड़ोस का पोखर ही ज्यादा अच्छा लगता है और कुछ लोग सत्य को अपने वाद के जंगले में कैद रखना चाहते हैं। 3 जनवरी, 2015 को 102वीं भारतीय विज्ञान कांग्रेस का उद्घाटन करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 'मेक इन इंडिया' पर अपने विचार रखे और प्रेरणा स्वरूप प्राचीन भारतीय विज्ञान के कुछ प्रसंगों, परिकल्पनाओं पर प्रकाश डाला। आयोजन के दूसरे दिन कुछ विषय विशेषज्ञों ने प्राचीन भारतीय विज्ञान पर अपनी प्रस्तुतियां दीं। इस आयोजन के एक सदी पुराने इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ था।
17. WTO AND SUBSIDIES WAR.,.
Thursday, 28 August 2014
धर्मेंद्रपाल सिंह
जनसत्ता 28 अगस्त, 2014 : 1. अपने खाद्य सुरक्षा अधिकार की रक्षा के लिए भारत के कड़े रुख के कारण विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के आका अमीर देश भले नाराज हों,
लेकिन अब हमारे समर्थन में कुछ देश और संगठन खुल कर सामने आए हैं। पहले पड़ोसी चीन ने समर्थन दिया और अब संयुक्त राष्ट्र के इंटरनेशनल फंड फॉर एग्रीकल्चर डेवलपमेंट (आइएफएडी) के अध्यक्ष ने भारत के पक्ष में पैरवी की है। आइएफएडी अध्यक्ष के अनुसार किसी भी राष्ट्र के लिए अन्य देशों में रोजगार के अवसर सृजित करने से ज्यादा महत्त्वपूर्ण काम अपनी जनता को खाद्य सुरक्षा प्रदान करना है। भारत भी यही चाहता है।।

2. भारत के लिए खाद्य सुरक्षा कानून कितना जरूरी है, यह जानने के लिए विश्व भूख सूचकांक (ग्लोबल हंगर इंडेक्स) पर दृष्टि डालना जरूरी है। इसके अनुसार भूख के मोर्चे पर जिन उन्नीस देशों की स्थिति अब भी चिंताजनक है उनमें भारत एक है। रिपोर्ट में कुपोषण की शिकार आबादी, पांच साल से कम आयु के औसत वजन से कम बच्चों की संख्या और बाल मृत्यु दर (पांच साल से कम आयु) के आधार पर दुनिया के एक सौ बीस देशों का ‘हंगर इंडेक्स’ तैयार किया गया और जो देश बीस से 29.9 अंक के बीच में आए उनकी स्थिति चिंताजनक मानी गई है। भारत 21.3 अंक के साथ पड़ोसी पाकिस्तान (19.3), बांग्लादेश (19.4) और चीन (5.5) से भी पीछे है। शिक्षा के अभाव, बढ़ती सामाजिक-आर्थिक खाई और महिलाओं की बदतर स्थिति के कारण भारत में विशाल कंगाल (गरीबी रेखा से नीचे) आबादी है।
इसीलिए भारत ने डब्ल्यूटीओ की जिनेवा बैठक में कड़ा रुख अपनाया, जिससे अमेरिका, यूरोपीय देश और आस्ट्रेलिया बिलबिलाए हुए हैं।
3. भारत ने बैठक में साफ कर दिया कि जब तक उसे अपनी गरीब जनता की खाद्य सुरक्षा की गारंटी नहीं मिलेगी तब तक वह व्यापार संवर्धन समझौते (टीएफए) को लागू नहीं होने देगा। मनमोहन सिंह सरकार ने पिछले साल संसद में खाद्य सुरक्षा कानून पारित किया था, जो देश की लगभग अस्सी करोड़ आबादी को सस्ता अनाज मुहैया करने की गारंटी देता है।
इस कानून के अंतर्गत जरूरतमंद लोगों को तीन रुपए किलो की दर पर चावल, दो रुपए किलो गेहंू और एक रुपया किलो के हिसाब से मोटे अनाज (बाजरा, ज्वार आदि ) प्रदान करना सरकार की जिम्मेदारी है। नया कानून लागू हो जाने पर सरकार को करोड़ों रुपए की सबसिडी देनी पड़ रही है। इस साल के बजट में वित्तमंत्री अरुण जेटली ने खाद्य सुरक्षा कानून लागू करने के लिए एक सौ पचास लाख करोड़ रुपए का प्रावधान रखा है।
4. डब्ल्यूटीओ के कृषि करार (एओए) के अनुसार किसी भी देश का सबसिडी बिल उसकी कुल कृषि पैदावार का दस प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकता। पिछले साल बाली (इंडोनेशिया) की डब्ल्यूटीओ बैठक में भारत ने जब इस दस फीसद पाबंदी का प्रबल विरोध किया तो उसे चार साल तक की छूट दे दी गई। छूट के बदले अमीर देशों ने इस वर्ष 31 जुलाई से टीएफए लागू करने की शर्त रखी थी। टीएफए पर अमल का सबसे ज्यादा लाभ अमीर देशों को होगा, इसलिए वे इसे जल्दी से जल्दी लागू कराना चाहते हैं। भारत की मांग है कि टीएफए लागू करने से पहले कृषि सबसिडी विवाद का स्थायी हल खोजा जाना चाहिए। उसे डर है कि टीएफए लागू हो जाने से उसके हाथ बंध जाएंगे। चार साल की छूट खत्म हो जाने के बाद अमीर देश दस फीसद खाद्य सबसिडी की शर्त उस पर थोप देंगे।
5. दुनिया में आज दो तरह की खाद्यान्न सबसिडी चालू है। पहली सबसिडी किसानों को दी जाती है। यह सरकार द्वारा सस्ता उर्वरक और बिजली-पानी मुहैया कराने और न्यूनतम फसल खरीद मूल्य तय करने के रूप में दी जाती है। दूसरी सबसिडी उपभोक्ताओं को मिलती है।
राशन की दुकानों से मिलने वाला सस्ता गेहूं-चावल इस श्रेणी में आता है। भारत में दोनों तरह की सबसिडी दी जा रही है और उसका सबसिडी बिल कुल खाद्यान्न उपज के दस प्रतिशत से अधिक है। डब्ल्यूटीओ समझौते के अनुसार अगर कोई देश करार का उल्लंघन करता है तो उसे अपना खाद्यान्न भंडार अंतरराष्ट्रीय निगरानी में लाना पड़ेगा। प्रतिबंधों की मार झेलनी पड़ेगी, सो अलग। भारत ऐसे इकतरफा नियमों का विरोध कर रहा है।
6. डब्ल्यूटीओ का कोई भी समझौता सदस्य देशों की सर्वानुमति से लागू हो सकता है। विकसित देश भारत पर आरोप लगा रहे हैं कि विश्व व्यापार के सरलीकरण के लिए जरूरी टीएफए की राह में वह रोड़े अटका रहा है। भारत के नकारात्मक रवैए के कारण उनके निर्यात को भारी नुकसान पहुंचेगा। उनका मानना है कि टीएफए लागू हो जाने से विश्व व्यापार में दस खरब डॉलर की वृद्धि होगी और 2.1 करोड़ लोगों को रोजगार मिलेगा।
7. सच यह है कि अमेरिका और यूरोपीय देश अभी तक मंदी की मार से पूरी तरह उबर नहीं पाए हैं। अपना माल बेचने के लिए उन्हें भारत, चीन, दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील जैसे विकासशील देशों के विशाल बाजार की दरकार है। टीएफए लागू हो जाने से करों की दरें कम होंगी और खर्चे घटेंगे। इससे दुनिया की मंडियों में उनका माल कम कीमत पर मिलेगा।
भारत और उसके समर्थक विकासशील देशों का मत है कि बड़े देशों को रास आने वाले टीएफए पर अमल से पहले उन्हें अपनी जनता को खाद्य सुरक्षा प्रदान करने का अधिकार दिया जाना चाहिए।
8. हिंदुस्तान पर बाली में बनी सहमति से पलट जाने का आरोप लगाने वाले अमीर देश यह भूल जाते
हैं कि अपना हित साधने के लिए उन्होंने 2005-2006, 2008-2009 और 2013 में कैसे-कैसे अड़ंगे लगाए थे। विश्व बिरादरी की भावनाओं की उपेक्षा कर अमेरिका आज भी अपने किसानों को हर साल बीस अरब डॉलर (बारह खरब रुपए) की सबसिडी देता है और इसी के बूते खाद्यान्न निर्यात कर पाता है।
9. Inclusive growth... आंकड़े गवाह हैं कि देश की 17.5 फीसद आबादी कुपोषण की शिकार है और चालीस प्रतिशत बच्चों का वजन औसत से कम है। बाल मृत्यु दर भी 6.1 फीसद है। अर्थशास्त्रियों के अनुसार अगर कोई सरकार ‘इंक्लूसिव ग्रोथ’ मॉडल को ईमानदारी से अपनाए तो विकास दर में जितने फीसद वृद्धि होगी उसकी आधी दर से कुपोषण में कमी आएगी। उदाहरण के लिए, अगर विकास दर में चार प्रतिशत के हिसाब से बढ़ोतरी होती है तो कुपोषण दो प्रतिशत के हिसाब से कम होना चाहिए। हमारे देश में 1990-2005 के बीच औसत विकास दर 4.2 प्रतिशत रही, लेकिन इस दौरान कुपोषण में कमी आई महज 0.65 फीसद। इसका अर्थ यही है कि खुली अर्थव्यवस्था अपनाने का लाभ गरीब और कमजोर वर्ग को न के बराबर मिला है।
आज जहां एक ओर करोड़ों लोगों को दो जून की रोटी नसीब नहीं है, वहीं दूसरी तरफ बेवजह खाकर मोटे हो रहे लोगों का बढ़ता आंकड़ा देश और दुनिया में गरीबों-अमीरों के बीच चौड़ी होती खाई को उजागर करता है।
IMP . फिलहाल पूरी दुनिया में कुपोषण के शिकार अस्सी करोड़ लोग हैं, जबकि मोटापे की शिकार आबादी एक अरब है। भारत में भी संपन्न तबके में वजन बढ़ने का चलन एक महामारी बन चुका है। ....दूसरी तरफ देश में अरबपतियों की संख्या में लगातार हुआ इजाफा हमारे नीति निर्माताओं की पोल खोलता है। ग्लोबल वैल्थ रिपोर्ट के अनुसार भारत में अभी छियासठ हजार अरबपति हैं और 2018 आते-आते उनकी संख्या बढ़ कर 3.02 लाख हो जाएगी। देश में अरबपतियों की संख्या में इजाफे की रफ्तार छियासठ प्रतिशत है, जो अमेरिका (41 प्रतिशत), फ्रांस (46 प्रतिशत), जर्मनी 46% ( और आस्ट्रेलिया (48 प्रतिशत) से भी अधिक, ब्रिटेन (55 प्रतिशत) vah india 66%.

10. खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) के अनुसार दुनिया में खाद्यान्न की भरपूर पैदावार होने से पिछले साल गेहूं के मूल्य में सोलह प्रतिशत, चावल में तेईस प्रतिशत और मक्का में पैंतीस प्रतिशत कमी आई थी। तब मानसून की मेहरबानी से भारत में भी खाद्यान्न की पैदावार बढ़ी। ऐसे में प्रश्न उठता है कि जब देश और दुनिया में खाद्यान्न की कोई कमी नहीं है फिर कुपोषण की शिकार आबादी कम क्यों नहीं हो रही?
हाल ही में आई पुस्तक ‘फीडिंग इंडिया: लाइवलीहुड, एंटाइटेलमेंट ऐंड कैपैबिलिट’ में इसका उत्तर खोजा जा सकता है। पुस्तक के लेखकों के अनुसार समस्या पैदावार की नहीं, बल्कि पैदावार जरूरतमंदों तक पहुंचाने से जुड़ी है।
खाद्य सुरक्षा विधेयक के पैमाने पर इसे कस कर देखने से भी कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आते हैं। न्यूनतम खरीद मूल्य के तहत सरकार को गेहूं की कीमत औसत चौदह रुपए प्रति किलो पड़ती है। इसमें परिवहन, मंडी कर, भंडारण, अनाज बोरों में भरने, कमीशन, प्रशासनिक खर्च और ब्याज को जोड़ दिया जाए तो लागत लगभग दोगुना हो जाती है। सरकार के अनुसार भ्रष्टाचार और कालाबाजारी के कारण राशन का तीस से चालीस प्रतिशत अनाज जनता तक पहुंच ही नहीं पाता है। अगर इस चोरी को भी जोड़ दिया जाए तो लागत आंकड़ा और ऊपर हो जाएगा।
घोर गरीबी के कारण देश की लगभग एक चौथाई जनता बीमारी, बेरोजगारी और अकाल का मामूली-सा झटका झेलने की स्थिति में भी नहीं है। समस्त सरकारी दावों के बावजूद करोड़ों गरीबोें को विकास की मुख्यधारा से जोड़ा नहीं जा सका है।
11. दूसरी तरफ देश में अरबपतियों की संख्या में लगातार हुआ इजाफा हमारे नीति निर्माताओं की पोल खोलता है। ग्लोबल वैल्थ रिपोर्ट के अनुसार भारत में अभी छियासठ हजार अरबपति हैं और 2018 आते-आते उनकी संख्या बढ़ कर 3.02 लाख हो जाएगी। देश में अरबपतियों की संख्या में इजाफे की रफ्तार छियासठ प्रतिशत है, जो अमेरिका (41 प्रतिशत), फ्रांस (46 प्रतिशत), जर्मनी (46 प्रतिशत), ब्रिटेन (55 प्रतिशत) और आस्ट्रेलिया (48 प्रतिशत) से भी अधिक है।
डब्ल्यूटीओ को लगता है कि भारत के खाद्य सुरक्षा कानून से दुनिया के अनाज बाजार में अस्थिरता आएगी और अंतत: खाद्यान्न की कीमतों में भारी उतार-चढ़ाव होगा। सवा अरब की आबादी का पेट भरने के लिए भारत को भारी मात्रा में गेहंू-चावल और अन्य खाद्यान्न की आवश्यकता है। फिलहाल खाद्यान्न के मोर्चे पर देश आत्मनिर्भर है, लेकिन भविष्य में सूखे या बाढ़ से अगर पैदावार घट गई तो भारत को भारी मात्रा में गेहूं-चावल आयात करना पड़ेगा। निश्चय ही तब अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमतें आसमान छूने लगेंगी। लेकिन इस लचर तर्क को स्वीकार नहीं किया जा सकता।
12. किसी भी देश की सरकार की पहली जिम्मेदारी अपनी जनता के प्रति होती है और जनता के भोजन का इंतजाम करना उसका उत्तरदायित्व है। इस उत्तरदायित्व पर सवाल उठाने का अधिकार किसी देश या अंतरराष्ट्रीय संगठन को नहीं दिया जा सकता।
भारत का मानना है कि डब्ल्यूटीओ के अधिकतर नियम खुली अर्थव्यवस्था के पैरोकार विकसित देशों के हित में हैं। अपने बाजार को विस्तार देने के लिए वे दुनिया के गरीब मुल्कों को बलि का बकरा बनाना चाहते हैं। लेकिन कोई भी विकासशील या गरीब देश अपने हितों की अनदेखी नहीं कर सकता। भारत ने बलि का बकरा बनने से इनकार कर बहुत अच्छा काम किया है।
18,19,....
20. Excellence in technology : साऊथ काॅलिफोर्निया विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग प्रमुख डाॅ. बॅरेन ने टेक्नालाॅजी के विकास का आदश्र बताया। उन्होंने कहा कि हम टेक्नालाॅजी को उस अवस्था तक ले जाना चाहते हैं जब बड़े से बड़े कारखाने दो कर्मचारियों के भरोंसे हम चला सकेंगे, एक कुत्ता और एक आदमी। सारी मशीनरी आदमी तो मालिक साहब के बटन दबाने के बाद चलती ही रहेगी। इसकें कोई शरारती आदमी आकर बाधा न करें इसलिए एक अच्छा अल्सेशियन कुत्ता रखेंगे और कुत्ते को दिन भर खिलाने-पिलाने के लिए एक आदमी रखेंगे। इन दो कर्मचारियों के भरोंसे हम बड़े से बड़ा कारखाना चलायेंगे। यह इनका आदर्श हो रहा है।

21. Common bird species such as sparrow and skylark facing decline in Europe
Some rarer birds have grown in number over last 30 years due to conservation efforts while some well known species have fallen
यूरोप: 30 साल में 42 करोड़ पक्षी घटे
3 नवंबर 2014. पिछले 30 सालों में यूरोप में पक्षियों की संख्या आश्चर्यजनक तरीक़े से घटी है.
विज्ञान से जुड़ी पत्रिका 'इकोलॉजी लेटर्स' में छपे अध्ययन में अनुमान लगाया गया है कि यूरोप में पिछले तीन दशकों में लगभग 42 करोड़ पक्षी कम हुए हैं.
पत्रिका के मुताबिक़ खेती के आधुनिक तौर-तरीक़ों और पक्षियों के प्राकृतिक आवास को होने वाले नुक़सान के कारण ऐसा हुआ है.
अध्ययन के अनुसार मैना skylark और गोरैया sparrow सहित पक्षियों की आबादी में क़रीब 90 फ़ीसदी कमी आई है.
क़ुदरती आवास

ख़ास दुर्लभ प्रजाती के पक्षियों की संख्या में हाल के वर्षों में इज़ाफ़ा भी हुआ है. इसे पक्षियों के सरंक्षण से जुड़े प्रयासों का परिणाम माना जा रहा है.
अध्ययन में शामिल और पक्षियों की सुरक्षा के लिए काम करने वाली रॉयल सोसायटी के रिचर्ड ग्रेगोरी का कहना है, "यूरोप के पक्षियों की ये चेतावनी है. इससे साफ़ है कि हम जिन तरीक़ों से पर्यावरण का संरक्षण कर रहे हैं वे पक्षियों की कई प्रजातियों के लिए नुक़सानदेह हैं."
वैज्ञानिकों के मुताबिक़ पक्षियों की संख्या में कमी से मानव समाज को कई तरह के नुक़सान हो सकते हैं.
उन्होंने बताया, "इस समस्या से निजात पाने के लिए हमें सभी पक्षियों और उनके क़ुदरती आवास के संरक्षण और क़ानूनी सुरक्षा की व्यवस्था ज़रूरी है."
पक्षियों की आबादी से जुड़े इस आकलन में 25 देशों में यूरोपीय पक्षियों की 144 प्रजातियों को शामिल किया गया है.


लंदन। एक अध्ययन के अनुसार यूरोप में पिछले 30 साल में 42 करोड़ पक्षी कम हुए हैं। इनमें से 10 फीसदी बहुतायत और आम तौर पर पाए जाने वाले पक्षी गौरेया, मैना, चकवा, भूरे तीतर आदि हैं। वैज्ञानिकों का विश्वास है कि इनकी संख्या कम होने की वजह खेती के आधुनिक तौर-तरीकों का होना और पक्षियों के प्राकृतिक आवास को होने वाली क्षति है।
Kuchh log apane ko mehdood bana lete hain, jeene ko to ji lete hain, magar chidiya ghee nahin anti unki chat par, kambakht jo munh pher ke kha lete hain.
वैज्ञानिकों ने 24 देशों में यूरोपीय पक्षियों की 144 प्रजातियों पर किए एक अध्ययन से यह निष्कर्ष निकाला है। अध्ययन से यह भी पता चला है कि ऎसा नहीं है कि पक्षियों की संख्या सिर्फ कम ही हुई है। खास दुर्लभ प्रजाति के पक्षियों जैसे बाज, विशेष प्रजाति का कौआ, गिद्ध, सारस, रॉबिन (एक प्रकार का पक्षी, जिसकी छाती लाल होती है), श्यामा पक्षी आदि की संख्या में हाल के साल में इजाफा भी हुआ है। यह पक्षियों के संरक्षण से जुड़े प्रयासों का परिणाम है। ( shayad yahi Hal saman ka ghee hae, samanya vyakti jahan preshan hae, kuch ameer manviya prajatiya phalpool rahee haein. Sheer chavani have, vahan lakho
इधर इक दिन की आमदनी का औसत चवन्नी है
उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमायी है।
रोटी कितनी महंगी है ये वो औरत बताएगी
जिसने जिस्म गिरवी रखके ये कीमत चुकाई.
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Azeen Ghorayshi
The Guardian, Sunday 2 November 2014 16.08
A skylark, one of the 144 species looked at in the study. The skylark population has fallen by 46% since 1980.
Bird populations across Europe have decreased by over 420 million in the past 30 years, according to a study that brings together the results of scientific surveys in 25 countries While some rarer species have seen an increase in numbers due to concerted conservation efforts, more common species across Europe are facing a steep decline.

Some of the birds that have suffered the most alarming declines are the most well known species including the house sparrow which has fallen in number by 147m or 62%, the starling ( maina) (53%) and skylark (46%).

The study looked at 144 species across Europe between 1980 and 2009. Dividing the species up into four groups, from extremely rare to most common, analysts found that a small number of common species declined by over 350 million –over 80% of the total population decline of birds in that time period overall. Rarer birds, in contrast, increased by over 21,000 in the same time period.

The results indicate that efforts at conserving rarer species seem to be having an impact but may be too narrow an approach, possibly at the expense of more common species.

“The focus up to this point has very much been on conserving rare species,” says the lead author, Richard Inger, from the University of Exeter. “That’s what it should be, in many ways, but the issue there is that if you’re not careful, you can spend all of your conservation dollars on just protecting the rare things. You can take your eye off the ball, if you will.”

Birds which increased over the course of the study include the blackcap (up 114%), common chiffchaff (up 76%) and wren (56%).

A male blackcap. Photograph: Andrew Darrington/Alamy
The issue is complicated by the fact that conserving rare bird species is relatively easy in comparison to more widespread efforts required to conserve common ones.

“If the species is very localised, there may be very strong conservation measures,” says Graham Madge, a spokesman for the Royal Society for the Preservation of Birds, which collaborated on the study. “Whereas for a species like the skylark, which will occur in most countries across Europe, it’s much harder to bring in a rescue measure because it requires the rollout of broad, landscape-scale conservation measures.”
Reasons.
The most commonly cited reason for this vast decline in bird species is agricultural intensification which has squeezed out areas that birds need for feeding and nesting.

But Inger emphasises that this can’t be seen as the only problem. “People have tended to concentrate on farmland, but some of these species that don’t use farmland habitats at all are also declining. It’s a sign of wider scale environmental issues, such as increases in urbanisation, and the only way we’re going to protect these widespread species is a more holistic approach to how we manage the environment in general.”

Benefits of birds, tota maina ki kahani to purani purani ho gayi,Nevertheless, Madge and Inger agree that wildlife-friendly farming schemes like the UK’s will be necessary to focus conservation efforts beyond token rarer species. But the repercussions extend beyond just bird biodiversity, as birds play vital roles in ecosystem processes such as decomposition, pest control, pollination, and seed dispersal. Since common species exist in higher numbers, they play a bigger role in maintaining the ecosystem as well.

“This was a bit of a wake-up call really,” says Inger. “We knew we were going to see a big decline in bird populations, but to see how big that number really was and how focused the declines were on this small number of common species was really very surprising.”
21. पर्यावरण को लेकर कब जागेंगे हम?
bhaskar news|Nov 04, 2014, 05:37AM IST

“वैज्ञानिकों ने अपनी बात कह दी है। उनके संदेश में कोई अस्पष्टता नहीं है। नेताओं को अब अवश्य कदम उठाने चाहिए। समय हमारे साथ नहीं है”- यह बात संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की-मून ने जलवायु परिवर्तन पर वैज्ञानिकों की ताजा रिपोर्ट जारी करते हुए कही। क्या अगले महीने पेरू के शहर लीमा में जलवायु परिवर्तन रोकने की नई संधि पर बातचीत के लिए इकट्ठे होने वाले नेता इस भावना से कदम उठाएंगे? 1990 के बाद से इंटर गवर्नमेंटल पैनल की आई पांचवीं रिपोर्ट का संदेश यही है कि ऐसा नहीं हुआ तो दुनिया उस मुकाम पर पहुंच जाएगी, जहां इनसान के पास सिर्फ भाग्य के भरोसे रहने के अलावा कोई चारा नहीं बचेगा। दरअसल, वैज्ञानिकों ने अपनी ताजा रिपोर्ट में जितनी सख्त भाषा का इस्तेमाल किया है, वैसा उन्होंने पहले कभी नहीं किया। अपने निष्कर्षों को उन्होंने इस बार अधिक जोर देकर कहा है। याद दिलाया है कि वातावरण और समुद्र का तापमान बढ़ने, वैश्विक जलचक्र में परिवर्तन, हिमखंडों में ह्रास और समुद्र का औसत जलस्तर बढ़ने की घटनाएं सच्ची हैं और इनका कारण मानव गतिविधियां हैं। ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में पर्याप्त कटौती नहीं हुई, तो इन परिघटनाओं को रोका नहीं जा सकेगा, बल्कि इनके परिणामस्वरूप दुनिया को अनाज की कमी, लोगों के पलायन, समुद्र तटीय शहरों और द्वीपों के डूबने, वन तथा पशुओं के व्यापक विनाश आदि जैसी समस्याओं से जूझना पड़ सकता है। एकमात्र उपाय यही है कि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती हो। इसके लिए धन चाहिए, जो खर्च करने के लिए न तो विभिन्न देशों की सरकारें तैयार हैं और न ही बड़ी कंपनियां, इसीलिए वैज्ञानिकों ने कहा है कि लीमा में बजट पर सहमति नहीं बनी तो जलवायु परिवर्तन रोकने की तमाम बातें निरर्थक रहेंगी। यही सवाल आज दुनिया के सामने है। क्या जिन देशों ने धरती के वातावरण को जितना गंदा किया है, उसकी सफाई के लिए वे उतना त्याग करने को तैयार हैं? ऐसा करने पर 22 वर्ष पहले सिद्धांत रूप में सहमति बनी थी, लेकिन अपने स्वार्थ में अंधे धनी देश और समृद्ध वर्ग अपनी जिम्मेदारियों से बचते रहे। अब खतरा सिर पर आ गया है, तब वे क्या करते हैं, यह जल्द ही जाहिर होगा। उन्हें समझना होगा कि समय गुजरने के साथ लागत बढ़ती ही जाएगी।
22. International data and Indian scenario
अब भारत की विषम आर्थिक स्थिति 1990-91 के बीच पैदा हुई। जब असल ही पूरी तरह विफल हो गया, तो नकल को तो होना ही था। भारत भी 1947-48 से लेकर अब तक लगभग 40 साल तक इसी साम्यवादी-समाजवादी व्यवस्था के चलते अपने आपको चैपट कर बैठा। 1990 आते-आते भारत भी दिवालियापन के कगार पर आ पहुंचा। 1990 में जब चार महीनें के लिए देश में चन्द्रशेखर सरकार बनी, तो भारत की हालत इतनी खराब थी कि अपना भुगतान संतुलन का चन्दा भी पूरा करना कठिन हो गया। विदेशों से, विश्व बैंक एवं अंतर्राष्ट्रीय मौद्रिक कोष से जो उधार ले रखा था, उसका ब्याज भी चुकाना संभव नहीं हो रहा था। अंतत भारत सरकार को 67 टन सोना इंग्लैण्ड (20 tonnes) तथा स्विटजरलैंड 47 tonnes,to raise £600 million, between 21 may to 31 may 1991 jolting the country out of economic slumber. Isi ke saath hee chandershekhar ki sarkar giri aur narsingharao PM aur Dr. Manmohan singh FM bane, rsshtr ke naam Sandesh me naye PM ne kana ki there is no alternative to liberalisation. क बैंकों के पास गिरवी रखना पड़ा। व्यक्ति अपने घर का सोना-चांदी कब गिरवीं रखता है? जब उसके सारे संसाधन समाप्त प्रायः हो जाते हैं। भारत का हाल भी यही हुआ। सोना गिरवी रखने से थोड़ी बहुत राहत मिली, किन्तु आगेे क्या किया जाए? यह यक्ष प्रश्न था। तुरन्त चुनाव हुए - मई-जून 1991 मंे। श्री नरसिंह राव के नेतृत्व मंे कांग्रेस ने कुछ अन्य दलों के सहयोग से सरकार बनाई। श्री नरसिंह राव ने तत्कालिक वित्त सचिव डाॅ. मनमोहन सिंह से पूछा कि भारत को इस आर्थिक गर्त से निकालने का कोई मार्ग है क्या? डाॅ. मनमोहन सिंह के हामी भरने पर उन्हें वित्त सचिव से वित्तमंत्री बना दिया। डाॅ. मनमोहन सिंह ने आते ही इस दिशा में 180 डिग्री का परिवर्तन किया। देश को अमेरिकी पूंजीवादी माॅडल
1990-91 - 67 tonnes ( 20 E+47 Sw)

23. लेकिन अमेरिका में इन दिनों अमेरिकी समृद्धि की बात नहीं हो रही। यू-ट्यूब पर आप देख सकते हैं कि वहां इन दिनों उन विश्लेषकों की धूम है जो यह कह रहे हैं कि विश्व का सबसे समृद्ध देश होने के बावजूद अमेरिका में सबसे विकट गरीबी के दर्शन किए जा सकते हैं।
A. तीस करोड़ की आबादी वाले अमेरिका में पांच करोड़ अमेरिकियों को दो समय का भोजन उपलब्ध नहीं है। उनकी आमदनी दो डॉलर प्रतिदिन से भी कम है और उन्हें नाममात्र की मिलने वाली सरकारी सहायता न मिले तो उनका जीवन दूभर हो जाए। आधी अमेरिकी आबादी निर्धनता में जी रही है, अपनी न्यून आय से वे हारी-बीमारी या किसी आपात-स्थिति के लिए कुछ बचा सकने में समर्थ नहीं हैं।
B. अमेरिका में 1970 के बाद से ऐसी नौकरियों की संख्या लगातार घटती रही है जिनकी आय उन्हें मध्यवर्ग में पहुंचा सकती है। मध्यवर्ग सिकुड़ता जा रहा है और ऐसी रही-सही नौकरियों पर भी भारतीय या चीनी पकड़ बढ़ाते जा रहे हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा इस पर चिंता जता चुके हैं। कई अमेरिकी राजनेता बाहरी लोगों को काम सौंपा जाना बंद करवाना चाहते हैं। पर समस्या यह है कि ऐसे लोग ही अमेरिकी अर्थव्यवस्था को गतिशील बनाए हुए हैं।
C. बाहर से आने वाले लोगों के कारण अमेरिका का जन-भूगोल बदलता जा रहा है। 1980 में अस्सी प्रतिशत अमेरिकी यूरोपीय मूल के गोरे थे। अब उनकी संख्या घट कर तिरसठ प्रतिशत रह गई और 2060 तक उसके घट कर चौवालीस प्रतिशत रह जाने की आशंका है। इसका राजनीतिक प्रभाव आप बराक ओबामा के राष्ट्रपति बनने में देख सकते हैं। कहते हैं कि वे अश्वेत अमेरिकियों के समर्थन से ही जीते हैं।

D. 1%has20. Upper 10 has 40%?अमेरिका में एक तरफ गरीबी बढ़ रही है तो दूसरी तरफ अमीरी भी बढ़ रही है। दुनिया के सबसे अधिक अरबपति अमेरिका में ही हैं और उनकी संख्या और समृद्धि दोनों बढ़ते जा रहे हैं। आर्थिक विश्लेषकों के अनुसार, अमेरिका की एक प्रतिशत आबादी के पास अमेरिका की कुल संपत्ति का बीस प्रतिशत है और ऊपर की लगभग दस प्रतिशत आबादी के पास लगभग चालीस प्रतिशत। कुछ विश्लेषकों ने कहा है कि अब्राहम लिंकन के समय के अमेरिका में गुलामी की प्रथा समाप्त किए जाने से पहले भी उतनी विषमता नहीं थी जितनी आज है। अमेरिका में 1970 के बाद से श्रमिकों की मजदूरी नहीं बढ़ी। 2008 के बाद से उनकी मजदूरी में चालीस प्रतिशत कटौती हो चुकी है। यह बात कम लोग जानते हैं कि पूंजीवादी अमेरिका में मजदूरों के लिए यूरोप जैसे हितकारी प्रावधान नहीं हैं। वहां उन्हें बीमारी आदि के लिए भी कोई सवेतन छुट्टियां नहीं मिलतीं। उन्हें हारी-बीमारी के लिए कोई चिकित्सकीय सुविधाएं भी नहीं हैं, जबकि चिकित्सा बहुत महंगी है।

c. इस दुरवस्था ने अमेरिकी बौद्धिक जगत के एक छोटे-से वर्ग में आत्मनिरीक्षण की प्रवृत्ति पैदा की है। पिछले दिनों दर्जनों ऐसी बहुचर्चित पुस्तकें छपी हैं जिनमें अमेरिकी इतिहास के भीषण अपराध वर्णित हैं। उनमें बताया गया है कि किस तरह पहले मुख्यत: स्पेन और फिर ब्रिटेन से सोना खोजने वालों की बाढ़ अमेरिका आई थी। कोलंबस के अमेरिका पहुंचने तक वहां स्थानीय निवासियों की दस करोड़ से अधिक आबादी थी और पशुओं तथा वनस्पतियों की प्रचुरता और बहुलता। यूरोपियों की लोभजन्य क्रूरता ने थोड़े ही समय में इन सबको नष्ट कर दिया। इससे पहले मनुष्य के इतिहास में इतनी बड़ी क्रूर हिंसा का उदाहरण शायद ही रहा हो।

D. जब स्थानीय आबादी हिंसा और रोगों की भेंट चढ़ गई तो अफ्रीका से गुलामों का आयात आरंभ हुआ। इस घृणित व्यापार ने अफ्रीकी महाद्वीप को स्वस्थ्य और योग्य आबादी सेवंचित कर दिया था। 1619 में पहली बार बीस अफ्रीकी गुलाम अमेरिका पहुंचे थे। उसके बाद ढाई सौ वर्ष तक लाखों की संख्या में अफ्रीका से लाए गए गुलाम सब तरह के अत्याचार सहते हुए गोरे अमेरिकियों को संपन्न बनाने में जुटे रहे।

E. अकेले अठारहवीं शताब्दी में साठ से सत्तर लाख अफ्रीकी गुलाम बना कर अमेरिका लाए गए थे। फिर जब तंबाकू के खेत बरबाद हो गए और उतरी प्रांतों में खड़े हो रहे कपड़ा उद्योग को मजदूरों की आवश्यकता हुई तो गुलामी की प्रथा समाप्त करने का नारा लगा। 1870 में उन्हें नागरिक बना कर वोट का अधिकार दे दिया गया, लेकिन आज भी अफ्रीकी मूल के अमेरिकी सबसे निम्न स्तर पर ही जी रहे हैं।

F. अमेरिका दुनिया भर में नागरिक अधिकारों का अलम्बरदार बना घूमता है। लेकिन अफ्रीकी मूल के लोगों को नागरिकता मिलने के सौ वर्ष बाद तक उन्हें गोरों के साथ बस में यात्रा करने, रेस्तरां में खाना खाने या स्कूल में पढ़ने की मनाही थी। 1960 में रंगभेद के विरुद्ध जो आंदोलन छिड़ा उसने ही कुछ हद तक उन्हें ये अधिकार दिलवाए। आज भी अगर अमेरिकी श्रमिक सब सुविधाओं से वंचित हैं तो इसका कारण पूंजीवाद से अधिक भेद-भाव ही है, क्योंकि अधिकांश श्रमिक आबादी अफ्रीकी मूल के या हिस्पानी लोगों की है। अमेरिकी जेलों में भी उन्हीं की बहुसंख्या है। अमेरिकी कानूनों में अमेरिकी नागरिकों को सब तरह के भेदभाव से बचाने का आश्वासन है और ऐसे मामले सामने आने पर सख्ती भी बरती जाती है। लेकिन गोरे अमेरिकी स्वाभाववश उनके मार्ग में बाधाएं खड़ी किए रहते हैं और वे एक स्तर से ऊपर उठने में सफल नहीं हो पाते। इसका विषाद ही उन्हें अपराध और आक्रामकता की ओर धकेलता है।

G. Insecurity..एक शताब्दी तक शक्तिऔर समृद्धि में विश्व के शिखर पर रहने के बावजूद अमेरिकियों में अपने भविष्य के प्रति आश्वस्ति या स्वभाव की स्थिरता नहीं आ पाई। पहले उन्हें रूस और साम्यवाद संसार के लिए सबसे बड़ा खतरा दिखाई देता था। जापान की तेज आर्थिक प्रगति ने भी बहुत-से अमेरिकियों को इस आशंका से भर दिया था कि कहीं जापान की समृद्धि अमेरिका को पीछे न छोड़ दे। इस आशंका में उन्होंने चीन को आगे बढ़ाना आरंभ किया और अब उन्हें डर सताने लगा है कि देर-सबेर चीन विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने वाला है और वह उनके वर्चस्व को समाप्त कर सकता है। इस आशंका ने उन्हें भारत की ओर आशा से देखने के लिए प्रेरित किया है। वास्तव में विश्व का आर्थिक ढांचा कुछ ऐसा है कि जब तक कोई और देश अपनी समृद्धि से अंतरराष्ट्रीय पूंजी का प्रवाह अपनी ओर नहीं मोड़ लेता, अमेरिका शिखर पर बना रहेगा।

H. आज अमेरिका की समृद्धि वास्तविक कम, वायवी अधिक है। 1900 से 1970 तक अमेरिकी अर्थव्यवस्था का स्वर्णिम दौर था। 1970 के बाद अपने यहां के प्रदूषण को कम करने और कई दूसरे कारणों से अमेरिका ने अपना विनिर्माण उद्योग अन्य देशों तथा चीन की ओर खिसका दिया। उसके बाद अमेरिका निर्माता की जगह आयातक देश हो गया। इससे व्यापारिक घाटा हुआ।

I. लेकिन अपनी बहुराष्ट्रीय कंपनियों और व्यापारिक तंत्र के बल पर अमेरिका अपना वर्चस्व बनाए रहा और जर्मनी, जापान और बाद में चीन की बचत-पूंजी अमेरिकी बाजार में पहुंच कर अमेरिकी अर्थव्यवस्था को टिकाए रही। अमेरिकी विश्लेषकों का मानना है कि इस वित्तीय जोड़-तोड़ से छोटी अवधि में तो अपना वर्चस्व बनाए रखा जा सकता है, लंबी अवधि में नहीं। अब तक वर्चस्व बनाए रखने के लिए अमेरिका पहले उद्योग से व्यापार पर आश्रित हुआ, फिर व्यापार से वित्त पर आश्रित हो गया। आधी शताब्दी पहले तक वह संसार का सबसे बड़ा निर्माता देश था, आज वह सबसे बड़ा उपभोक्ता देश है। इस परिवर्तन से अमेरिकियों की तकनीकी कुशलता में क्षति हुई है, जो उत्पादन तंत्र के नित नवीनीकरण के लिए आवश्यक होती है। क्योंकि उसी के सहारे आप लंबे समय तक बाजार में टिक सकते हैं।

J. Army.यह ढोल की पोल केवल अमेरिकी अर्थव्यवस्था की विशेषता नहीं है। अमेरिकी सामरिक शक्ति में भी ऐसी ही ढोल की पोल है। अब तक अमेरिकियों ने अपने शौर्य के बल पर कोई युद्ध नहीं जीता, अपने संहारक हथियारों के बदल पर विरोधियों को झुकने के लिए विवश किया है। हिरोशिमा और नागासाकी पर आणविक हथियारों का दुरुपयोग एक ऐसा कलंक है जो उसके माथे पर हमेशा बना रहेगा। वे न विएतनामियों का मनोबल डिगा पाए, न अफगानिस्तान से विजय होकर निकले। इराक में सद्दाम हुसैन के शासन को उन्होंने अपने उन्नत हथियारों के बल पर ध्वस्त कर दिया, पर अब उनसे आइएसआइएस से उलझते नहीं बन रहा। अमेरिकी सेना सीधी लंबी लड़ाई नहीं लड़ सकती। लंबी अवधि में हथियार नहीं, शौर्य ही काम आता है। अमेरिका औरों से नहीं, अपने नागरिकों से भी इतना आशंकित रहता है कि उसने अपने आप को एक पुलिस स्टेट में बदल दिया है।।
24.
नोवार्टिस , पेटेंट कानून और जनस्वास्थ्य - नॉवरेतिस बनाम भारत सरकार, Nexawar vs. NATCO PHARMA

स्विटजरलैंड की एक दवा कंपनी नॉवरेतिस और भारत सरकार के बीच सुप्रीम कोर्ट में आजकल एक मुकदमा चल रहा है। ए पेटेंट प्रदान नहीं कर रही। इसके चलते यह कंपनी अपनी बनाई हुई दवा पर एकाधिकार नहीं रख सकती। कंपनी का कहना है कि यह विषय उसके लिए इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि उसके द्वारा दवा के शोध और विकास पर किया गया खर्च वसूल नहीं हो सकेगा। नॉवरेतिस कंपनी ने पहली बार वर्ष २००६ में भारत सरकार के खिलाफ अपनी इस दवा जिसका नाम उसने 'इमैटिनिब' रखा है, को पेटेंट देने से मना कर दिया था। भारत सरकार का यह कहना था कि इस दवा को बनाने में कंपनी ने कोई नया तत्व इजाद नहीं किया और पहले से बनी दवा में मात्र कुछ परिवर्तन किए हैं। भारत के पेटेंट कानून के प्रावधान ३-डी के अनुसार पुरानी दवा में मात्र कुछ हल्के बदलाव करके कोई कंपनी नया पेटेंट प्राप्त नहीं कर सकती। इसलिए भारत सरकार ने इस दवा के लिए पेटेंट प्रदान न करके कोई गलती नहीं की है। मद्रास हाई कोर्ट ने इस मुकदमें में यह फैसला दिया कि कंपनी को इस दवा पर पेटेंट नहीं देना सही है।

B. देश की आजादी के बाद सभी संबंद्ध पक्षों से विचार विमर्श और देशव्यापी चर्चाओं के आधार पर एक पेटेंट कानून बनाया गया, जो था भारतीय पेटेंट अधिनियम, १९७०। गौरतलब है कि इस पेटेंट कानून के आधार पर देश में दवा उद्योग का विकास बहुत तेजी से हुआ। अनिवार्य लाइसेंसिंग और प्रोसेस पेटेंट व्यवस्था और पेटेंट की लघु अवधि, इस पेटेंट कानून की कुछ खास बातें थी। देश में दवा उद्योग का इस कदर विकास हुआ कि भारत दवाओं के क्षेत्र में दुनिया का सिरमौर देश बन गया। भारत इस बात पर गर्व करता है कि भारत में एलोपैथिक दवाईयां दुनिया में सबसे सस्ती है। भारत का दवा उद्योग केवल देद्गा के लोगों के लिए ही दवा उपलब्ध नहीं कराता बल्कि दुनिया के अधिकतम विकासद्गाील देद्गा भी अपनी दवा की आवद्गयकताओं के लिए भारत पर निर्भर करते है।
भारत दुनिया का मूल्य की दृष्टि से चौथा और मात्रा की दृष्टि से तीसरा सबसे बड़ा दवा उत्पादक देद्गा है। आज भारत २०० से अधिक देद्गाों को दवा निर्यात करता है और वैद्गिवक स्तर की सस्ती जैनरिक दवायें दुनिया को भेजता है।

भारत द्वारा विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यू.टी.ओ.) के समझौतों पर हस्ताक्षर करने के बाद, उसकी शर्तों के अनुसार देश के पेटेंट कानून में १ जनवरी २००५ से संशोधन किये गये। उसके बाद देश का पेटेंट कानून काफी हद तक बदल गया। प्रक्रिया (प्रोसेस) पेटेंट के बजाय अब उत्पाद (प्रोडक्ट) पेटेंट व्यवस्था लागू कर दी गई, सरकार द्वारा अनिवार्य लाइसेंस दिये जाने के अधिकार पर अंकुश लगा दिया गया और पेटेंट की अवधि को बढ ा दिया गया।
*देश के जन स्वास्थ्य पर संभावित खतरों के मद्देनजर, सरकार द्वारा पेटेंट व्यवस्था को बदलने के विरोध में जन आन्दोलनों और विशेषज्ञों के भारी विरोध के कारण पेटेंट कानून में किये जा रहे कई संशोधनों को सरकार को वापिस लेना पड ा। सदाबहार (एवरग्रीन) नहीं कर सकती।

नॉवरेतिस बनाम भारत सरकार मुकदमे के मायने

भारत में कई अन्य कंपनियां 'ग्लीवैंक' नामक इस दवा को बनाती हैं। यह दवा बल्ड कैंसर के मरीजों के लिए अत्यधिक कारगर दवा है। ऐसा माना जाता है कि देश में हर वर्ष बल्ड कैंसर के २० हजार नये मरीज बनते हैं। नॉवरेतिस कंपनी अपनी बनाई गई इस दवा के लिए लगभग १ लाख २० हजार रूपये प्रतिमाह वसूलती है। जबकि यही दवा भारतीय कंपनियों द्वारा मात्र १० हजार रूपये प्रतिमाह की कीमत पर बेची जाती है। यदि इस दवा के उत्पादन पर किसी एक कंपनी का एकाधिकार हो जायेगा तो गरीब मरीजों द्वारा दवा नहीं खरीद सकने के कारण उन्हें मौत की नींद सोना पड़ सकता है।


A. MSF.यही कारण है कि आजकल नॉवरेतीस के इस मुकदमें के खिलाफ दुनिया भर में एक मुहिम छिड ी हुई है और स्थान-स्थान पर कैपचर नॉवरेतीस के नाम पर चल रहे इस आंदोलन के तहत नॉवरेतीस के कार्यालयों पर प्रदर्शनकारी अपना कब्जा जमा रहे हैं। दुनिया भर के जन स्वास्थ्य की रक्षा हेतु बने संगठन इस मुकदमें के मद्देनजर भारत सरकार पर नॉवरेतीस के सामने न झुकने के लिए दबाव बना रहे हैं
b. BROWN FIELD INVESTMENT, ।पिछले एक दद्गाक में लगभग ९ अरब डॉलर का विदेद्गाी निवेद्गा दवा उद्योग में प्राप्त हुआ, जिसमें से ४.७३ अरब डॉलर स्थापित दवा कंपनियों को अधिग्रहित करने के लिए आये। इसको व्यवसायिक भाषा में ब्राउन फील्ड निवेद्गा कहा जाता है। वर्तमान नियमों के अनुसार दवा उद्योग में नये निवेद्गा और स्थापित भारतीय कंपनियों के अधिग्रहण दोनों में १०० प्रतिद्गात निवेद्गा बिना किसी अनुमति के बेरोकटोक आने का प्रावधान है। इस बात का लाभ उठाते हुए बड ी विदेद्गाी बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियां भारतीय कंपनियों की सस्ते दामों पर दवा बनाने की क्षमता से लालायित होकर इन कंपनियों को ही खरीदती जा रही हैं। १९९८-९९ में जहां दस बड ी दवा कंपनियों में से एक (ग्लैक्सो स्मिथ क्लाइन) विदेद्गाी थी, आज उनकी संखया बढ कर तीन हो गई है (रैनबैक्सी, ग्लैक्सो और पीरामल)। ऐसे में देद्गा का दवा उद्योग संकट में पड ता देख स्वास्थ्य मंत्रालय ने सरकार से गुहार लगायी कि इस प्रकार के अधिग्रहणों पर रोक लगाई जाए। स्वास्थ्य मंत्रालय का कहना है कि यदि इसे नहीं रोका गया तो बड ी कंपनियां एकाधिकार स्थापित करते हुए कार्टेल बना लेंगी और इससे सरकार की सस्ती दवाईयां उपलब्ध कराने के प्रयास को भारी धक्का लगेगा।

जिस भारतीय पटेंट एक्ट के सेक्शन तीन (डी) को हटवाने का कुत्सित प्रयास ये कंपनिया कर रही हे, उसके कारण केवल एक दवाई ही नहीं बल्कि और भी हजारों दवायों की पहुँच गरीबो से दूर हो जायेगी. अभी नेक्सावार नामक दवाई की कीमत तो विदेशी कंपनिया तीन हज़ार तीन सो गुना जियादा ले रही हे और भारत के एक साहसी और इमानदार पटेंट ऑफिसर श्री कुरियन ने इसके खिलाफ भी भारतीय कंपनी को सस्ती दवा बनाने का कम्पलसरी लायसेंस दिया हे. उसके खिलाफ भी जर्मन की बायर कंपनी कोर्ट में जा सकती हे. Nexawar case March 8, 2013 The Intellectual Property Appellate Board order upholding the compulsory licence granted to Natco Pharma to produce a generic version of Nexavar, or Sorafenib, a cancer drug patented by Bayer Corporation, is a strong endorsement of lawful action taken in public interest. Access to essential medicines is fundamental to the human right to live.
The phenomenon is graphically illustrated by the Nexavar case: the patented and generic equivalent are priced at Rs. 2.8 lakh and Rs. 8,800 respectively for one month's dosage, a staggering differential. Although the licence given in the Natco case resulted in voluntary price cuts on other cancer drugs by some companies, several key branded drugs remain unaffordable in India
**Natco Pharma vs. Bayer Corpn. German, Nexawar/Sorafenib, cancermdrug, March 8, 2013, 2.88-8800 One month dosage', Shri Curien, The intellectual Property Appalet Board, compulsory licence

25. पर हम बीमा क्षेत्र में अभी तक के विदेशी निवश के अनुभव को देखें तो सरकार का तर्क सही नहीं दिखाई देता। क्लेम निपटारादेश में दो प्रकार की कंपनियां जीवन बीमा के क्षेत्र में काम करती हैं। एक है सरकारी क्षेत्र में भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी) और दूसरा निजी कंपनियां। इनमें एक निजी कंपनी को छोड़कर शेष 22 कंपनियों में 26 प्रतिशत की विदेशी भागीदारी है।
A. हम देखते हैं कि 2012-13 में निजी कंपनियों ने जीवन बीमा के 7.85 प्रतिशत क्लेम निरस्त कर दिए, जबकि एलआईसी ने मात्र 1.2 प्रतिशत क्लेम ही निरस्त किए थे। यही कारण है कि सामान्यतया जनता निजी कंपनियों को पसंद नहीं करती।
B. 2012-13 तक 23 निजी जीवन बीमा कंपनियों ने कुल 74.05 लाख (16.76 प्रतिशत) पॉलिसियां ही जारी की थीं, जबकि एलआईसी ने 367.8 लाख पॉलिसियां (83.24 प्रतिशत) जारी की थीं। यानी अपने अस्तित्व में आने के 13 साल के बाद भी विदेशी भागीदारी वाली कंपनियां देश की जनता में विश्वास पैदा नहीं कर पाई हैं।
C. जब्ती अनुपात'इरडाÓ की वार्षिक रिपोर्ट 2012-13 के अनुसार उस वर्ष निजी कंपनियों के व्यवसाय में 7 प्रतिशत की गिरावट आई पर उनके द्वारा पूर्व में जारी 35.3 लाख पालिसियों की राशि या तो उन्होंने जब्त कर ली या वे पालिसियां कालबाहृी (लैप्स) हो गईं। इन पालिसियों की बीमित राशि 82,061 करोड़ रुपये थी। एक बड़ी निजी बीमा कंपनी में तो यह जब्ती और लैप्स अनुपात 61.3 प्रतिशत था। उधर सरकारी क्षेत्र की एलआईसी में यह जब्ती और लैप्स अनुपात मात्र 5.6 प्रतिशत ही था।
D.अमीरों पर रहता है ध्यानविदेशी निवेश से विस्तार का तर्क वहीं ध्वस्त हो जाता है, जब हम देखते हैं कि एलआईसी के 44 प्रतिशत कार्यालय ग्रामीण और अर्ध शहरी क्षेत्रों में हैं, जबकि निजी कंपनियों के मात्र 28 प्रतिशत कार्यालय ही वहां हैं। सरकार का यह तर्क कि बीमा में विदेशी निवेश बढ़ाने से गरीबों तक बीमा का लाभ पहुंचेगा, सही नहीं है।
निजी कंपनियां अमीरों पर ही ज्यादा ध्यान केन्द्रित करती हैं। यह इस बात से पता चलता है कि 2012-e. 13 में निजी कंपनियों द्वारा जारी पालिसियों पर औसत प्रथम वर्ष प्रीमियम 41,525 रुपए था जबकि एलआईसी का यह प्रीमियम मात्र 20,830 रु. था।
F. बीमा का बढ़ता बोझजबसे विदेशी निवेश वाली कंपनियां देश में आई हैं, स्वास्थ्य बीमा के प्रीमियम का बोझ भी बढ़ता जा रहा है। 4 सदस्यों के परिवार की 3 लाख रुपए की मेडिक्लेम पालिसी की लागत जो पहले करीब 4000 रुपए सालाना थी, अब इन कंपनियों की मनमानी के कारण 11000 रु. सालाना हो गई है। बीमा कंपनियों का कहना है कि ऐसा क्लेम का अनुपात बढऩे के कारण हो रहा है। उधर, सभी वाहन रखने वालों को वाहन का थर्ड पार्टी बीमा कराना पड़ता है।
जब निजी कंपनियां बीमा में नहीं थीं, तब कार का थर्ड पार्टी बीमा मात्र 160 रु. में होता था। अभी वह बीमा उससे 10 गुना ज्यादा में होता है। लगभग सभी प्रकार के बीमा में प्रीमियम बढ़ता ही जा रहा है।
सरकार का यह कहना कि बीमा क्षेत्र में निवेश न होने के कारण विकास नहीं हो पा रहा है, यह सही नहीं है। एलआईसी न केवल अच्छा लाभ कमा रही है बल्कि हाल ही में उसने 1635 करोड़ रु. का डिविडेंड चैक भी वित्तमंत्री को सौंपा था। चिंता का विषय यह है कि जिन कंपनियों को आने का न्यौता दिया जा रहा है वे स्वयं दिवालियेपन की कगार पर हैं।
दुनिया की सबसे बड़ी अमरीकी बीमा कंपनी एआईजी 2008 में लगभग दिवालिया घोषित हो गई थी, तब अमरीका सरकार द्वारा 182 अरब डॉलर की सहायता पैकेज से उसे बचाया गया था।

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