Resolution-2 (Madurai Sammelan
-H 13वां राष्ट्रीय सम्मेलन, 18,19,20 जनवरी 2019 (मदुरै, तमिलनाडू)
प्रस्ताव-2
भारत के हित में नहीं है आरसीईपी स्वदेशी जागरण मंच
रिजनल कंप्रिहेंसिव इकोनामिक पार्टनरशिप (आरसीईपी) यानि प्रस्तावित क्षेत्रीय विस्तृत आर्थिक साझेदारी समझौते के घटनाक्रमों को बहुत नजदीक से देख रहा है। अभी तक का भारत सरकार का रवैया इस समझौते की ओर सर्तकता से बढ़ने का रहा हैै। स्वदेशी जागरण मंच का राष्ट्रीय सम्मेलन यह मानता है कि आरसीपीए समझौता भारत के लिए एक बड़ा खतरा है और अवसर तो बिल्कुल नहीं है, जैसा सरकारी सूत्रों के हवाले से मीडिया में बताया जा रहा है। हालांकि 2012 से शुरू होकर अभी तक 24 वार्ताओं के दौर इस संदर्भ में हो चुके हैं लेकिन इन वार्ताओं में आगे नहीं बढ़ा जा सका, क्योंकि भारतीय वार्ताकारों ने विशेष तौर पर 2014 के बाद बड़ी सतर्कता से काम किया और आरसीईपी के अन्य सदस्य देशों के किसी भी दबाव में झुकने से इंकार कर दिया। भारत ही नहीं कई अन्य सदस्य देश भी आरसीपी समझौतों के प्रभाव के बारे में काफी आषंकित रहे हैं। आरसीईपी एक प्रस्तावित मुक्त व्यापार समझौता है जिसमें 16 देश शामिल है। इसमें 10 आसियान देश (इंडोनेशिया, मलेशिया, फिलीपींस, सिंगापुर, थाईलैंड, वियतनाम, लाओस, कंबोडिया) एवं जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, चीन और भारत आते है। इस समझौते की व्यापकता इस बात से समझी जा सकती है कि आरसीईपी के 16 सदस्य देशों में 3.4 अरब लोग रहते हैं, जो कुल वैश्विक जनसंख्या का 45 प्रतिषत है, इनकी सम्मिलित क्रय शक्ति समता के आधार पर जीडीपी 49.3 डॉलर है, जो विश्व की कुल जीडीपी का 39 प्रतिशत है और विश्व के कुल विदेशी व्यापार का 30 प्रतिषत इन मुल्कों द्वारा होता है। यानि कहा जा सकता है कि यदि यह आरसीईपी समझौता हो जाता है तो यह विश्व व्यापार संगठन समझौते के बाद, दुनिया का सबसे बड़ा मुक्त व्यापार समझौता हो जाएगा और दुनिया का सबसे बड़ा मुक्त व्यापार ब्लॉक बन जाएगा। बाजार पहुंच इस प्रस्तावित आरसीईपी समझौते के केंद्र में है। समझौते होने के बाद भारत को एक सदस्य देश होने के नाते अपने अन्य सदस्य देशों से अधिकांश आयातांे पर आयात शुल्क को षून्य पर लाना होगा। आरसीईपी के मूल प्रस्तावों के अनुसार भारत को अन्य सदस्य देशों से आयातों में से 90 से 92 प्रतिषत आयातित वस्तुओं पर आयात शुल्क षून्य करना होगा। हालांकि भारत ने भी कई प्रस्ताव इस समझौते के संदर्भ में दिये है, जिसमें तीन स्तरीय टैरिफ घटाने का भी प्रस्ताव है। इस तीन स्तरीय टैरिफ घटाने के प्रस्ताव के अनुसार पहला वर्तमान आसियान समझौते में शामिल देशों के लिए है। दूसरा उन देशों के लिए है, जिनके साथ भारत का मुक्त व्यापार समझौता पहले से ही है, यानि जापान और दक्षिण कोरिया तथा तीसरा उन देशों के लिए है जिनके साथ भारत का मुक्त व्यापार समझौता अभी नहीं है यानि न्यूजीलैंड, ऑस्ट्रेलिया और चीन। जानकारों के अनुसार भारत को कहा गया है कि वह अपने प्रस्तावों में बदलाव कर और टैरिफ को ज्यादा वस्तुओं के लिए घटाने हेतु सहमति दें। औद्योगिक वस्तुओं के संदर्भ में भारत को चीन से एक बड़ी चुनौती है। भारत के लगभग आधा व्यापार घाटा चीन के कारण है, यदि 74 प्रतिषत वस्तुओं पर भी आयात शुल्क घटाने हेतु हामी भरता है (जो वर्तमान में भारत का प्रस्ताव है) तो भी चीन के साथ भारत का व्यापार घाटा कई गुना बढ़ सकता है। यही नहीं, यह भारत के मैन्युफैक्चरिंग ग्रोथ की संभावनाओं के लिए खतरा उत्पन्न करते हुए भारत के लोगों के अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लग सकता है। मुक्त व्यपापार समझौतों के संदर्भ में भारत का अनुभव बहुत उत्साहवर्धक नहीं रहा है, खासतौर पर इस क्षेत्र में। जब से भारत ने आसियान देशों के साथ मुक्त व्यापार समझौता किया है, इन देशों के साथ हमारा व्यापार घाटा वर्ष 2009-10 में 7.7 अरब डॉलर से बढ़ता हुआ 2017-18 तक 13 अरब डालर तक पहुंच गया चुका है। इस कालखंड में मलेशिया और इंडोनेशिया जैसे मुल्कों से आयात 2 से 3 गुना बढ़ चुका है। लगभग यही अनुमान जापान और दक्षिण कोरिया के साथ भी रहा है, जहां हमारा व्यापार घाटा दुगने से ज्यादा हो चुका है। आज जब हमारा व्यापार घाटा अपनी चरम सीमा पर पहुंच रहा है। भारत के लिए अधिक आयात शुल्क रहित बाजार पहुंच की अनुमति देना देषहित में नहीं है। ऐसा करते हुए अपने उधोगों को बंद करने के लिए बाध्य कर देंगे। हमें नहीं भूलना चाहिए कि गेहूं, डेयरी उत्पादन और मांस उत्पादनों में ऑस्ट्रेलिया की प्रतिस्पर्धा शक्ति और वैश्विक डेयरी निर्यातक के नाते न्यूजीलैंड की भूमिका के मद्देनजर, हम इस समझौते के बाद भारतीय कृषि और डेयरी क्षेत्रों को पूरी तरह से दयनीय स्थिति में पहुंचा देंगे। भारत सरकार के वार्ताकारों का इस समझौते के संदर्भ में एक मात्र तर्क यह है कि हम अन्य सदस्य देशों से सेवाओं के व्यापार के बारे में कुछ रियायतें पा सकते हैं, जहां भारत का कुछ आक्रामक हित है। हालांकि यह बताया जा रहा है कि भारत को सेवाओं में उदारीकरण से कुछ लाभ हो सकता है, लेकिन इस संदर्भ में हमारा अभी तक का अनुभव बहुत उत्साहवर्धक नहीं है। जहां एक और भारत ने आसियान देशों के साथ अन्य देशों से आने वाले पेषेवरों के संदर्भ में खुले द्वार की नीति अपनाई हुई है, लेकिन अन्य देशों ने तमाम प्रकार के घरेलू नियम बनाए हुए हैं, जिनके कारण से भारतीय पेशेवरों को वहां रोजगार पाना संभव नहीं है। साथ ही साथ यदि आरसीईपी समझौता संपन्न हो जाता है तो कई संदर्भ में भारत सरकार के लिए नीति बनाने के विकल्प समाप्त हो सकते हैं। भारत को सेवाओं के संबंध में घरेलू विनिमय के बारे में ऐसे प्रावधानों को स्वीकार करने के लिए कहा जा रहा है, जिसके कारण केंद्र सरकार ही नहीं, राज्य सरकारों और स्थानीय निकायों के पास भी नीति निर्माण के विकल्प सीमित हो जाएंगे। साथ ही साथ ऐसे संकेत हैं कि जापान और दक्षिण कोरिया के प्रस्ताव हैं कि विश्व व्यापार संगठन में संपन्न टिप्स व्यापार संबंधी बौद्धिक संपदा अधिकार समझौते से आगे बढ़कर बौद्धिक संपदा के संदर्भ में प्रतिबद्धता इस समझौते में हो, जिसे ‘टिप्स-प्लस’ कहा गया है। इन प्रावधानों के अनुसार फार्मा कंपनियों के पेटेंट सामान्य 20 वर्ष से आगे बढ़ाना और ‘डाटा एक्लूसिविटी’ आदि से प्रतिस्पर्धा सीमित हो जायेगी। ये प्रावधान और इनके साथ-साथ अन्य प्रस्तावति प्रावधान, जन स्वास्थ्य के संदर्भ में अन्य चिंता का विषय है, क्योंकि दवाईयों की सर्वसुलभता पर इसका प्रभाव पड़ सकता है। बौद्विक संपदा अध्याय में भारत को कहा जा रहा है कि वह नई पादप किस्मों के अंतरराष्ट्रीय संघ (यूपीओवी) 1991 समझौते को स्वीकार कर ले, जिससे हमारे किसानों की बीज उत्पादन, रखरखाव, विनिमय और बिक्री की संभावना ही समाप्त हो जाएगी। इसलिए इस प्रस्ताव को सिरे से नकारने की जरूरत है, क्योंकि यदि यूपीओवी 1991 को अपनाने वाले किसी भी समझौते पर हामी भरी जाती है तो यह भारतीय किसानों की रोजी रोटी को समाप्त करने वाला होगा। हमने देखा है कि वैष्विक निवेश समझौतों से कंपनियों के हाथ में सरकारों पर मुकदमा दायर करने की ताकत आ जाती है अब वे सरकारों को कंपनियों को विनिमय करने की क्षमता को चुनौती देने लगती है। इसके कारण न केवल मुआवजा देने में भारी राजस्व का नुकसान होता है बल्कि सरकार के पास नीति बदलने की संभावना भी नहीं बचती। भारत सरकार को आदर्श द्विपक्षीय निवेश समझौते के प्रारूप पर अडिग रहना चाहिए और अपने नीतिगत विकल्पों को क्षरित करने वाले किसी भी प्रस्ताव को नहीं मानना चाहिए। यह भी सुना जा रहा है कि भारत सरकार ई-कॉमर्स के अध्याय में कुछ प्रावधानों पर सहमति देने वाली है। भारत डिजिटल अर्थव्यवस्था में कदम रख रहा है। इस समझौते का डिजिटल अर्थव्यवस्था में नीतिगत और विनिमय की संभावनाओं पर विपरीत असर पड़ेगा। यह भारी भूल होगी। आज जब ई-कॉमर्स और डिजिटल अर्थव्यवस्था की नीति पर देष में बहस चल रही है और इस दिशा में स्पष्ट नीति के बारे में विचार चल रहा है, हमें किसी अंतरराष्ट्रीय समझौते पर हामी भर कर अपने हाथ बांधने नहीं देना चाहिए। हम पहले से ही देख रहे हैं कि बड़ी ई-कॉमर्स और डिजिटल कंपनियां एकाधिकार शक्ति के बलबूते कैसे भारत का शोषण कर रही है, उनके एकाधिकारी ताकत को बढ़ाना किसी भी हाल में सही नहीं है। स्वदेशी जागरण मंच का मानना है कि आरसीईपी भारत के लोगों के हित में नहीं है। अर्थव्यवस्था का कोई क्षेत्र अथवा वर्ग इस समझौते से लाभान्वित होने वाला नहीं है। 2019 के चुनाव होने के नाते भी भारत सरकार के लिए समझौते पर सहमति देना अथवा आरसीईपी सदस्य देशों को कोई रियायत देना घातक हो सकता है। मंच का राष्ट्रीय सम्मेलन सरकार से आग्रह करता है कि राष्ट्रीय हितों, विशेष तौर पर मैन्युफैक्चरिंग, किसान, डेयरी और जन स्वास्थ्य संरक्षण के मद्देनजर आरसीपी वार्ताओं में आगे न बढ़े।
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