उदारीकरण के दो दशकः कितना नफा, कितना नुकसान / लेखक- सुनील
नवम्बर 2, 2012 अफ़लातून अफलू द्वारा
बीसवीं सदी के आधुनिक भारत का इतिहास जब लिखा जाएगा, तो उसमें दो तारीखें महत्वपूर्ण मानी जाएगी। पहली है 15 अगस्त 1947, जब लंबे संघर्ष के बाद भारत अंग्रेजों की गुलामी से आजाद हुआ। दूसरी है मई 1991, जब आजाद भारत की सरकारों ने वापस देश को गुलाम और परावलंबी बनाने की नीतियों को अख्तियार करना शुरु किया। कहने को तो राजनीतिक रुप से देश आजाद रहा, किंतु उसकी नीतिया, योजनाए और कार्यक्रम विदेशी निर्देशों पर, विदेशी हितों के लिए संचालित होने लगे। बहुत तेजी से भारत की नीतियों, आर्थिक प्रशासनिक ढांचे और नियम कानूनों में बदलाव होने लगे।
तत्कालीन वित्तमंत्री मनमोहन सिंह अब देश के प्रधानमंत्री हैं। बीच में वे सरकार में नहीं थे, किंतु जो सरकारें आई, उन्होंने भी कमोबेश इन्हीं नीतियों को जारी रखा। देश के जागरुक लेाग, संगठन और जनआंदोलन इन नीतियों का विरोध करते रहे और इनके खतरनाक परिणामों की चेतावनी देते रहे। दूसरी ओर इन नीतियों के समर्थक कहते रहे कि देश की प्रगति और विकास के लिए यही एक रास्ता है। प्रगति के फायदे नीचे तक रिस कर जाएंगे और गरीब जनता की भी गरीबी दूर होगी। उनकी दलील यह भी है कि वैश्वीकरण के जमाने में हम दुनिया से अलग नहीं रह सकते और इसका कोई विकल्प नहीं है।
प्रारंभ में यह बहस सैद्धांतिक और अनुमानात्मक रही। दोनों पक्ष दलील देते रहे कि इनसे ऐसा होगा या वैसा होगा। हद से हद, दूसरे देशों के अनुभवों को बताया जाता रहा। किंतु अब तो भारत में इन नीतियों को दो दशक से ज्यादा हो चले है। एम पूरी पीढ़ी बीत चली है। किन्हीं नीतियों के या विकास के किसी रास्ते के, मूल्यांकन के लिए इतना वक्त काफी होता है। इन नीतियों वैश्वीकरण, भूमंडलीकरण, उदारीकरण, निजीकरण, मुक्त बाजार, आर्थिक सुधार, बाजारवाद, नवउदारवाद आदि विविध और कुछ हर तक भ्रामक नामों से पुकारा जाता है। वास्तव में यह वैश्विक पूंजीवाद का एक नया, ज्यादा आक्रामक और ज्यादा विध्वंसकारी दौर है। भारत में इसके अनुभव की समीक्षा का वक्त आ गया है। इन पर पूरे देश में खुलकर बहस चलना चाहिए। यह इसलिए भी जरुरी है कि भारत सरकार अभी तक के अनुभव की समीक्षा किए बगैर बड़ी तेजी से इन विनाशकारी सुधारों को आगे बढ़ा रही है। उनकी भाषा में यह ‘दूसरी पीढ़ी के सुधारों‘ पर चल रही है। तो आइए देखें कि भारत में इस तथाकथित उदारीकरण का रिपोर्ट कार्ड क्या रहा है ?
उपलब्धियां
सरसरी तौर पर पिछले दो दशकों में काफी प्रगति दिखाई देती है। राष्ट्रीय आय (जीडीपी) की सालाना वृद्धि दर पहले 2-3 फीसदी हुआ करती थी, जिसे अर्थशास्त्री मजाक में ‘हिन्दू वृद्धि दर‘ कहते है। किंतु इस अवधि में वह बढ़ते-बढ़ते 2005-06 से 2007-08 के बीच 9 से ऊपर पहंुच गई। इससे उत्साहित होकर भारत को चीन के साथ नई उभरती आर्थिक महाशक्ति का दरजा दिया जाने लगा। हालांकि बाद में यह वृद्धि दर उतरते-उतरते चालू साल में 6 से नीचे आ गई है।
1991 के संकट के समय भारत का विदेशी मुद्रा भंडार खाली हो गया था और भारत का सोना लंदन में गिरवी रखना पड़ा था। यह संकट दूर हुआ और भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में काफी बढोतरी हुई। भारत के निर्यात भी काफी बढ़े हैं। यदि विदेशी पूंजी निवेश को उपलब्धि माने, तो इस अवधि में वह भी काफी बढ़ा है। भारतीय कंपनियं अब दुनिया के अन्य देशों में जा रही है और वहां की कंपनियों को खरीद रही हैं, यानी वे भी बहुराष्ट्रीय बन रही हंै। दुनिया के चोटी के अमीरों की सूची में भारतीय नाम भी दिखाई देते हैं।
आधुनिक तकनालाजी में काफी प्रगति हुई है। देश में कम्प्यूटर, सूचना तकनालाजी, मोबाईल, और वाहन क्रांतियां हुई है। बंगलौर, हैदराबाद, पूना, गुड़गांव में इंटरनेट-कम्प्यूटर के केन्द्र विकसित हुए हैं, जिनमें रोजगार के नए अवसर पैदा हुए हैं। नए राजमार्ग और एक्सप्रेस मार्ग बने है, जिन पर कारें सौ से ऊपर की रफ्तार पर दौड़ सकती हैं। दिल्ली की मेट्रो रेल भी एक चमत्कार लगती हैं। नए कार्पोरेट अस्पताल बन गए हैं, जहां इलाज कराने के लिए दूसरे देशों से लोग आ रहे हैं और अब ‘रसायन पर्यटन‘ नाम एक नई चीज शुरु हो गई हैं। शिक्षा में भी प्रबंधन, इंजीनियरिंग, सूचना तकनालाजी, एविएशन आदि के कई तरह के नए संस्थान खुल गए हैं और नए अवसर पैदा हुए हैं।
किंतु इन लुभावने आंकड़ों और चमक-दमक के बीच जो सवाल रह जाता है वह यह कि देश के साधारण लोगों का क्या हुआ ? उनकी जिंदगी पर क्या असर पड़ा ? वही असली कसौटी होगी।
गरीबी और भूखमरी: कहां है रिसाव
कुछ समय पहले भारत सरकार ने अर्थशास्त्री अर्जुन सेनगुप्ता की अध्यक्षता में असंगठित क्षेत्र के बारे में एक आयोग गठित किया था। इस आयोग के एक बयान ने देश के प्रबुद्ध वर्ग को चैंका दिया था। वह यह कि देश के 78 फीसदी लोग 20रु. रोज से नीचे जीवनयापन करते हैं। इस आंकडे़ ने देश की प्रगति और विकास के दावों की पोल खोल दी और राष्ट्रीय आय की ऊंची वृद्धि दर के जश्न की हवा निकाल दी। सेनगुप्ता आयोग का यह आंकड़ा 2004-05 का था। किंतु उसके बाद तो मंहगाई से लोगों की हालत और खराब हुई है।
भारत सरकार और उसका योजना आयोग गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाली आबादी में लगातार कमी का दावा करता रहता है, उसकी भी असलियत सेनागुप्ता आयोग के इस कथन ने उजागर कर दी। इस बीच में कई विद्वानों ने बताया है कि गरीबी रेखा के निर्धारण और उसकी गणना में कितनी त्रुटियां हंै। पिछले वर्ष जब योजना आयोग ने सर्वोच्च न्यायालय को बताया कि वह गांवों में 26 रु. और शहरों में 32 रु. रोज से ज्यादा प्रति व्यक्ति खर्च करने वालों को गरीब नहीं मानता है, तब इस हास्यास्पद और दयनीय गरीबी रेखा पर देश में बवाल मचा। दरअसल जानबूझकर इतनी नीची और अव्यवहारिक गरीबी रेखा रखी गई है ताकि गरीबी में कमी और वैश्वीकरण की नीतियों को सफल बताया जा सके। गरीबी रेखा का उपयोग देश की साधारण अभावग्रस्त आबादी के बड़े हिस्से को बुनियादी सुविधाओं में सरकारी मदद से वंचित करने में भी किया जा रहा है, जिससे साधारण लोगों के कष्ट और बढ़े हैं।
भारत को आर्थिक महाशक्ति बताने वालों को यह भी देख लेना चाहिए कि प्रति व्यक्ति आय के हिसाब से दुनिया के देशों में भारत का स्थान लगातार बहुत नीचे 133 के आसपास बना हुआ है। ऊंची वृद्धि दर के बावजूद भारत दुनिया के निर्धनतम देशों में से एक है।
राष्ट्रीय आय और प्रति व्यक्ति आय के मौद्रिक आंकड़े पूरी हकीकत का बयान नहीं करते है। मानव विकास सूचकांक और अंतरराष्ट्रीय भूख सूचकांक में भी भारत का स्थान बहुत नीचे है। संख्या के हिसाब से दुनिया के सबसे ज्यादा भूखे, कुपोषित और अनपढ़ लोग भारत में ही रहते है। अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज और अमत्र्य सेन ने पिछले दिनों एक लेख (आउटलुक, 14 नवंबर 2011) में हमारा ध्यान कुछ दुखद तथ्यों की ओर आकर्षित किया है। कुपोषित कमजोर बच्चों का अनुपात पूरी दुनिया में भारत में सबसे ज्यादा है (43.5 फीसदी), अफ्रीका के अकालग्रस्त देशों से भी ज्यादा। दुनिया का एक भी देश ऐसा नहीं है, जिसकी हालत इस मामले में भारत से खराब हो। अफ्रीका के बाहर केवल चार देशों की बाल मृत्यु दर भारत से ज्यादा है और केवल पांच देशों की युवा महिला साक्षरता दर भारत से कम है। कई मामलों में हमारे पडोसी पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल की हालत हम से बेहतर है। क्या ये शरम से सिर झुकाने लायक हालात नहीं है ?
दरअसल पिछले दो दशकों में भारत में पहले से मौजूद गैरबराबरी और तेजी से बढी है। जो समृद्धि दिखाई दे रही है, वह थोड़े से लोगों के लिए है। राष्ट्रीय आय की वृद्धि मुट्ठी भर लोगों के हाथ मंे जा रही है। अमीर और उच्च मध्यम वर्ग के लोग अमीर बनते जा रहे है। बाकी लोग या तो अपनी जगह हैं या कई मायनों में बदतर होते जा रहे हैं। अमीर-गरीब की बढ़ती खाई के अलावा गांव-शहर, खेती-गैरखेती की खाई तथा क्षेत्रीय गैरबराबरी और सामाजिक गैरबराबरी भी बढ़ी है। इस बढ़ती गैरबराबरी के कारण समाज में असंतोष, तनाव, झगड़ों और अपराधों में भी बढ़ोतरी हो रही है।
रोजगारशून्य विकास
राष्ट्रीय आय की वृद्धि का आम लोगों की बेहतरी में न बदलने का एक प्रमुख कारण है कि यह रोजगार रहित वृद्धि है। नए रोजगार कम पैदा हो रहे हैं और पुराने रोजगार तथा आजीविका के पारंपरिक स्त्रोत ज्यादा नष्ट हो रहे हैं। कम्प्यूटर-इंटरनेट के नए रोजगारों की संख्या बहुत सीमित है और अमरीका-यूरोप की मंदी के साथ उनमें भी संकट पैदा हो रहा है। रोजगार का संकट मुख्य रुप से निम्न कारणों से गंभीर हुआ है-
1. बढ़ता मशीनीकरण और स्वचालन। श्रमप्रधान की जगह पूंजी प्रधान तकनालाजी को बढ़ावा। दुनिया के बाजार में प्रतिस्पर्धा के लिए इसे जरुरी माना जा रहा है।
2. वैश्वीकरण के दौर में कई बड़े कारखानों (जैसे कपड़ा मिलें), छोटे उद्योगों, ग्रामोद्योगों और पारंपरिक धंधों का विनाश। इसमें खुले आयात और विदेशी माल की डम्पिंग ने भी योगदान किया।
3. भूमि से विस्थापन। जंगल, नदियों और पर्यावरण के प्रभावों ने भी लोगों की अजीविका को प्रभावित किया है।
रोजगार के मामले में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन यह हुआ है कि कंपनियों ने अब स्थायी मजदूर व कर्मचारी रखना कम कर दिया है और वे अस्थायी, दैनिक मजदूरी पर या ठेके पर (ठेकेदार के मारफत) मजदूर रखने लगी हैं या काम का आउटसोर्सिंग करने लगी है। इससे उनकी श्रम लागतों में काफी बचत हो रही हैं। सरकार ने भी श्रम कानूनों को शिथिल कर इस नाम पर इसे बढ़ावा दिया है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारतीय माल प्रतिस्पर्धी बन सकेगा, निर्यात बढे़गा और भारत में विदेशी पंूजी आकर्षित होगी। किंतु इसका मतलब है कि वास्तविक मजदूरी कम हो रही है और श्रम का शोषण बढ़ रहा है। भारत के मजदूर आंदोलन ने लंबे संघर्ष के बाद जो चीजें हासिल की थी, वे खतम हो रही हैं और भारत पीछे जा रहा है।
सरकारी क्षेत्र में भी निजी कंपनियों की इन शोषणकारी चालों की नकल की जा रही है। जैस अब पुराने स्थायी शिक्षकों की जगह पैरा-शिक्षक लगाए जाते हैं, जिनका वेतन एक-चैथाई होता है। कई बार उन्हें न्यूनतम मजदूरी भी नहीं दी जाती ।
यह भी गौरतलब है कि औद्योगीकरण के प्रयासों के छः दशक और उदारीकरण के दो दशक बाद भी भारत की कुल श्रम शक्ति का 7 फीसदी से भी कम संगठित क्षेत्र में है। (संगठित क्षेत्र में वे पंजीकृत उद्यम, फर्म या कंपनियां शामिल होते है जिनमें दस या ज्यादा लोग काम करते हैं।) बाकी पूरी आबादी असंगठित क्षेत्र में हैं जिनमें किसान, पशुपालन, मछुआरे, खेतीहर मजदूर, हम्माल, घरेलू नौकर, असंगठित मजदूर, फेरीवाले, दुकानदार आदि है। इनमें डाॅक्टरों, वकीलों और मध्यम व बड़े व्यापारियों को छोड़ दें (जो कि करीब 5 फीसदी होंगे), तो बाकी की हालत खराब है। भारत की बहुसंख्यक आबादी की बेहतरी और इस कथित विकास में भागीदारी कब और कैसे होगी ? क्या यह एक मृग-मरीचिका नहीं है ?
खेती का अभूतपूर्व संकट
इस देश के बहुसंख्यक लोग आज भी खेती और कुदरत से जुडे कामों में लगे हैं, किंतु राष्ट्रीय आय में उनका हिस्सा लगातार कम होता जा रहा है। खेती और उससे जुड़े पेशों (पशुपालन, मछली, वानिकी) का कुल राष्ट्रीय आय में हिस्सा 1950-51 में 53.1 फीसदी था, जो 1990-91 में घटकर 29.6 और 2011-12 में 13.9 रह गया। दूसरी तरफ देश की आबादी का 58 फीसदी अभी भी इनमें लगा है। इसका मतलब है कि भारत में गांवों में रहने वाली विशाल आबादी वंचित-शोषित हो रही है।
उदारीकरण-वैश्वीकरण की नीतियां कई तरह से भारतीय खेती और किसानों के हितों के खिलाफ साबित हुई हैं-
1. अनुदान कम करने, विनियंत्रण और निजीकरण के कारण खेती में प्रयोग होने वाले आदान (डीजल, बिजली, खाद, बीज, पानी आदि) महंगे हुए हैं।
2. कृषि उपज के दाम आम तौर पर लागत-वृद्धि के अनुपात में नहीं बढ़े हैं। कृषि उपज का व्यापार खुला करने और और खुले आयात के कारण भी दाम कम बने रहते हंै। जैसे खाद्य तेलों के आयात से देश में किसानों को तिलहन फसलों के समुचित दाम नहीं मिल पाते हैं। दूसरी ओर, निर्यात फसलों को बढ़ावा दिया जा रहा है, जिनमें कुछ समय तक अच्छे दाम मिलते हैं, किंतु अचानक अंतरराष्ट्रीय बाजार में दाम गिरने से किसानों को नुकसान भी हुआ है। उदारीकरण की नीति के तहत सरकार समर्थन मूल्य पर खरीदी की व्यवस्था धीरे-धीरे खतम करना चाहती है। यदि यह हुआ तो भारतीय किसान पूरी तरह अंतरराष्ट्रीय बाजार और निजी कंपनियों के चंगुल में आ जाएगा और बरबाद हो जाएगा। चीनी उद्योग के विनियंत्रण की रंगराजन समिति की हालिया रपट में राज्य सरकारें गन्ने के लिए जो समर्थन मूल्य घोषित करती है, उसे खतम करने की सिफारिश की गई है।
3. हरित क्रांति की गलत तकनालाजी के दुष्परिणाम इस अवधि में सामने आए हैं। भूजल नीचे जा रहा है, मिट्टी की उर्वरता कम हो रही है, कीट-प्रकोप बढता जा रहा है। विभिन्न फसलों की पैदावार-वृद्धि में ठहराव आ गया है और किसानों को उतनी ही पैदावार लेने के लिए अब ज्यादा खाद और कीटनाशक दवाईयों का इस्तेमाल करना पड रहा है। इस बुनियादी गलती को दुरुस्त करने के बजाय सरकार उसी दिशा में और आगे बढ़ने की कोशिश कर रही है और ‘दूसरी हरित क्रांति‘ की बात कर रही है। इसी के तहत जीन-मिश्रित बीजों को लाया जा रहा है, जिसके दुष्परिणाम और ज्यादा भयानक एवं दीर्घकालीन हो सकते हैं। नयी हरित क्रांति पूरी तरह कंपनियों के द्वारा संचालित होने वाली है।
4. खेती का स्वावलंबन पूरी तरह समाप्त करके उसे बाजार-केन्द्रित, बाजार-आधारित और बाजार निर्भर बनाया जा रहा है। इस बाजार को भी अंतरराष्ट्रीय बाजार से जोड़ा जा रहा है। इससे खेती में जोखिम बहुत बढ़ गया है।
5. मौसम और मानसून के पुराने जोखिम के साथ खेती में कई नए तरह के जोखिम जुड़ते जा रहे हैं। एक, आदानों (पानी, बिजली, खाद, बीज, कर्ज) की आपूर्ति का जोखिम समय पर न मिलना, पर्याप्त मात्रा में न मिलना, उचित गुणवत्ता का न मिलना। दो, तकनालाजी का जोखिम कीट प्रकोप, नए बीजों का ज्यादा नाजुक होना। तीन, बाजार का जोखिम- उपज की कीमत गिर जाना, समर्थन मूल्य पर खरीदी न होना। इतने सारे जोखिमों के आगे आधी-अधूरी फसल बीमा योजनाएं नाकाफी साबित हो रही हैं।
6. खेती के हर पहलू में देशी विदेशी कंपनियों की घुसपैठ हुई है और उनका नियंत्रण एवं वर्चस्व बढ़ा है। कॉन्ट्रेक्ट खेती, बीजों का पेटेन्ट जैसा कानून, कृषि उपज मंडी कानूनों में बदलाव, और अब खुदरा व्यापार में विदेशी कंपनियों को इजाजत ने इस का रास्ता साफ किया है। जमीन मालिकी, बीज आपूर्ति, खाद आपूर्ति, कीटनाशक आपूर्ति, विपणन, भंडारण, प्रसंस्करण आदि हर क्षेत्र में कंपनियां आ रही हैं और छा रही हैं। भारत के किसानों, भारत की खेती और खाद्य-आपूर्ति के नजरिये से यह खतरनाक है।
7. बडे़ पैमाने पर, सीधे अधिग्रहण करके या बाजार के जरिये, जमीन किसानों के हाथ से निकल रही है और खेती के बाहर जा रही है। जमीन एक सीमित संसाधन है और इसे बढ़ाया नहीं जा सकता। वर्ष 1992-93 से 2002-03 के दौरान देश की कुल खेती की जमीन 12.5 करोड हेक्टेयर से घटकर 10.7 करोड़ हेक्टेयर रह गई। इस तरह महज दस बरस की अवधि में 1.8 करोड़ हेक्टेयर जमीन खेती से निकलकर दीगर उपयोग में चली गई। यही बात पानी के बाबत भी हो रही है। बड़े पैमाने पर नदियों, बांधों, नहरों, व तालाबो का पानी तथा जमीन के नीचे का पानी औद्योगिक और शहरी प्रयोजन के लिए लिया जा रहा है, जिससे खेती के लिए पानी का संकट पैदा हो रहा है।
इन सब का मिला-जुला नतीजा यह हो रहा है कि भारतीय खेती और खेती से जुडे़ समुदाय जबरदस्त मुसीबत में है। बड़े पैमाने पर किसानों की आत्महत्याएं इसका एक लक्षण है। वर्ष 1995 से लेकर 2011 तक खुद सरकार के आंकड़ों के मुताबिक 2 लाख 70 हजार से ज्यादा किसान खुदकुशी कर चुके हैं। इस अवधि में हर साल औसतन करीब 16 हजार किसानों ने आत्महत्या की है। यानी रोज 44 किसान देश के किसी कोने में आत्महत्या करते हैं। यह एक अभूतपूर्व संकट है।
यह भी गौरतलब है कि सबसे ज्यादा संख्या में किसान आत्महत्याएं महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश और कर्नाटक में हो रही हैं। पंजाब और गुजरात में भी काफी किसान आत्महत्याएं हुई हैं। ये वो राज्य है, जहां की खेती काफी बाजार आधारित, उन्नत और खुशहाल मानी जाती है, जहां विश्व बैंक काफी मेहरबान है और जहां खेती में कंपनियों की काफी घुसपैठ है। बीटी कपास के नए जीन-मिश्रित बीजों को बहुत सफल, फायदेमंद और लोकप्रिय बताया जा रहा है। किंतु महाराष्ट्र और आंध्रप्रदेश के कपास इलाके में बड़ी तादाद में किसानों की आत्महत्याएं बदस्तूर जारी हैं।
सेवाओं की लूट
भारत की राष्ट्रीय आय में जो तेज वृद्धि पिछले सालों में दिखाई दी है, वह लगभग पूरी की पूरी खेती या उद्योग से न होकर, तथाकथित सेवा क्षेत्र से आई है। भारत का सेवा क्षेत्र पिछले बरसों में दस से पंद्रह फीसदी दर से बढ़ रहा है। भारत की राष्ट्रीय आय में खेती का हिस्सा घट रहा है, तो उसकी जगह उद्योग न लेकर सेवाएं ही ले रही हैं। राष्ट्रीय आय में उद्योग का हिस्सा 1950-51 में 16.6 फीसदी, 1990-91 में 27.7 और 2011-12 में 27.0 फीसदी था। यानी पहले तो कुछ बढ़ रहा था , किंतु पिछले दो दशकों में तो स्थिर है या कम हुआ है। दूसरी ओर, सेवाओं का हिस्सा 1950-51 में 30.3 फीसदी था, 1990-91 में 42.7 हुआ और 2011-12 में 59 हो गया।
यह दुनिया के मौजूदा अमीर देशों के अनुभव से अलग है। वहां तीव्र औ़द्योगीकरण के चलते पहले उद्योगों का हिस्सा बढ़ा और बाद के तीसरे चरण में सेवाओं का अनुपात बढ़ा। भारत ने एक तरह से बीच वाले चरण को बायपास कर लिया है। यूरोप-अमरीका-जापान में औद्योगिकरण से जो रोजगार पैदा हुए और लोगों का जीवन-स्तर ऊंचा हुआ, भारत में वह नहीं हुआ है। यह मानना चाहिए कि भारत जैसे हाशिये के देशों में पूंजीवादी विकास इसी तरह होगा, क्योंकि भारत के पास लूटने के लिए बाहरी उपनिवेश नहीं है और आंतरिक उपनिवेश की एक सीमा है।
खेती-उद्योग का विकास न होकर महज सेवाओं के विस्तार से भारतीय अर्थव्यवस्था में गहरे असंतुलन पैदा हुए है। सही मायने में उत्पादन और मूल्य-सृजन खेती और उद्योग में ही होता है तथा अर्थव्यवस्था का आधार उनसे ही बनता व बढता है। सेवाएं तो खेती-उद्योग से पैदा हुए धन का ही पुनर्बंटवारा करती है। कह सकते है कि वे मूलतः परजीवी होती है। एक पेड़ पर ज्यादा परजीवी लताएं हो जाएंगी, तो वे पेड़ को ही सुखा देगी। यही हालत भारतीय अर्थव्यवस्था की हो रही है।
सेवाओं में तेजी से बढती हुई एक सेवा है वित्तीय सेवाएं। इनमें बैंक, बीमा, चिटफंड, माईक्रो फाईनेन्स, म्युचुअल फंड, शेयर व्यवसाय, वायदा कारोबार, लॉटरी सेवाएं आदि शामिल है। सेवाओं के परजीवी चरित्र का यह बढ़िया उदाहरण है। कोई मेहनत न करके, केवल लेनदेन, ब्याज और सौदों से इनमें जमकर कमाई की जाती है। इनकी गतिविधियों का बडा हिस्सा सट्टा जैसा होता है, जिनमें कीमतों में उतार-चढ़ाव का अनुमान लगाकर सौदे किए जाते है और कमाई की जाती है। किंतु इसके चलते छोटे निवेशक कई बार बरबाद हो जाते हैं, बड़े खिलाडियों में बाजार को किसी तरह प्रभावित करके बड़ा हाथ मारने की प्रवृति बढ़ती है, मंहगाई बढती है और अर्थव्यवस्था को अस्थिर करने का खतरा बढ़ता है। इनसे एक कृत्रिम और भ्रामक तेजी भी दिखाई दे सकती है। किंतु इसके बुलबुले फूटने पर गहरा संकट आ सकता है जैसा कि अमरीका-यूरोप में 2008 में आया है।
अभाव और महंगाई
आम तौर पर किसानों और उपभोक्ताओं के हितों को एक-दूसरे के खिलाफ बता कर पेश किया जाता है और दलील के रुप में इस्तेमाल भी किया जाता है। किसानों को दाम कम देना हो तो महंगाई बढ़ने का डर दिखाया जाता है। महंगाई के जवाब में कहा जाता है कि यह तो किसानों को बेहतर दाम देने के कारण आई है। किंतु उदारीकरण के इस दौर की सच्चाई यह है कि किसान भी मुसीबत में फंसे है और आम जनता को भी भीषण महंगाई को झेलना पड़ रहा है।
पिछले पांच-छः बरस से भारत की जनता पर महंगाई की जबरदस्त मार पड़ रही है। यह मूलतः भारतीय विकास नीति और अर्थनीति की बुनियादी त्रुटियों और गलत प्राथमिकताओं का नतीजा है। इसे निम्नानुसार देखा जा सकता है-
1. खेती की उपेक्षा, जमीन का ट्रांसफर, खाद्य-स्वावलंबन लक्ष्य के त्याग और निर्यात खेती के कारण देश में खाद्य पदार्थों का अभाव पैदा हुआ है। देश में बढ़ते अनाज उत्पादन के आंकड़े तो उपलब्धि के बतौर पेश किए जाते है, किंतु यह नहीं बताया जाता कि प्रति व्यक्ति अनाज उपलब्धता में 1991 के बाद से भारी गिरावट आई है। 1961 में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन अनाज उपलब्धता 399.7 ग्राम थी, जो बढ़कर 1991 में 468.5 ग्राम हो गई थीं किंतु उसके बाद से गिरते हुए यह 2010 में 407 ग्राम पर पहुंच गई है। एक तरह से हम वापस पचास-साठ के दशक के अकालों व अभावों वाले वक्त में वापस पहुंच रहे हंै। दालें तो हरित क्रांति और आधुनिक विकास का सबसे ज्यादा शिकार हुई है। प्रति व्यक्ति दाल उपलब्धता पिछले पचास सालों में लगातार गिरती रही है। प्रति व्यक्ति प्रतिदिन दाल उपलब्धता 1961 में 69 ग्राम थी, जो घटते हुए 1991 में 41.6 ग्राम और 2010 में 31.6 ग्राम रह गई।
दूध, अंडे, मांस और मछली के उत्पादन में जरुर भारी बढ़ोतरी दिखाई देती है। ‘श्वेत क्रांति‘ की बदौलत आज भारत दुनिया का सबसे बड़ा दुग्ध-उत्पादक देश बन गया है। किंतु इसमें भी वही दिक्कतें हैं, जो हरित क्रांति में है। पूंजी-प्रधान तकनालाजी, भारी लागतों, रसायनों व पानी के भारी उपयोग, बाजार पर निर्भरता और देशी नस्लों के नाश के साथ यह क्रांति आई है और कितने दिन चल पाएगी, यह देखना होगा। दूध उत्पादन में बढ़ोतरी का एक हिस्सा कागजी भी होगा यानी जो दूध पहले घर में और गांव में खप जाता था और आंकड़ों में नहीं आता था, वह अब शहर और बाजार में आने लगा। यानी दूध का संग्रह बढ़ा है, और उतना उत्पादन नहीं। इसी के साथ इस दूध का बढता हुआ हिस्सा आईसक्रीम, पनीर, मक्खन, घी, मिठाईयों व चाकलेटों के रुप में अमीरों के उपभोग में जा रहा है। इसी कारण दूध ज्यादा पैदा होने पर भी सस्ता नहीं हुआ है। एक हद तक गांव के गरीब और उनके बच्चे दूध से वंचित हुए है। अब वे चाय से ही काम चलाते हैं। यही समस्या मांस-मछली-अंडे के आधुनिक उत्पादन के साथ भी है। डेयरी फार्मों, मुर्गी फार्मों, मशीनीकृत बूचड़खानों और सघन मछली फार्मों वाले आधुनिक पशुपालन के साथ कई गंभीर आर्थिक, सामाजिक एवं पर्यावरणीय समस्याएं पैदा हो रही हंै। बर्ड फ्लू, स्वाईन फ्लू, मेड काऊ डिजीज, एन्थे्रेक्स जैसे नई महामारियां इसी की देन है।
2. गैरबराबरी बढ़ने, कुछ लोगों के हाथ में काफी पैसा आने, उपभोक्तावादी संस्कृति और विलासिता को बढ़ावा देने से देश के संसाधनों (मौद्रिक, प्राकृतिक और श्रम संसाधन) का ज्यादा हिस्सा अब विलासितापूर्ण उत्पादन-उपभोग में जा रहा है। फिजूलखर्च और बरबादी बढ़ रहे हैं। इससे जरुरी चीजों का उत्पादन और आपूर्ति प्रभावित हो रही है।
3. वायदा कारोबार और खुले आयात-निर्यात ने भी देश में महंगाई बढाई है। कई उद्योगों में विलय-अधिग्रहण के चलते एकाधिकारी वर्चस्व बढा है, जिससे कीमतों पर चंद कंपनियों का नियंत्रण हो गया। नई नीतियों से देश को प्रतिस्पर्धा के फायदे मिलेंगे, यह दलील दी जाती थी। किंतु असलियत में उल्टा हुआ है। खुदरा व्यापार में विदेशी कंपनियों के आने से भी यही होगा।
4. जो सेवाएं और वस्तुएं पहले सरकार मुफ्त या सस्ती मुहया कराती थी, नई नीति के तहत उन्हें या तो मंहगा किया जा रहा है या निजीकरण करके बाजार के हवाले किया जा रहा है। इनमें राशन, किरोसीन, डीजल, पेट्रोल, रसेाई गैस, पेयजल, बिजली, सफाई, सड़क (टोलटेक्स), बस और रेल किराया, शिक्षा, इलाज आदि को देखा जा सकता है। कुल महंगाई में इनका काफी बड़ा हिस्सा है जो कीमत सूचकांक के सरकारी आंकड़ों में पूरी तरह दिखाई नहीं होता। दवा व्यवसाय में जितना ज्यादा मार्जिन और मुनाफा है, वह नई व्यवस्था में नीहित लूट का एक उदाहरण है।
शिक्षा और सेहत में मुनाफाखोरी
देश में भले ही नामी कार्पोरेट अस्पताल और उच्च शिक्षण संस्थान खुल गए हों, देश के साधारण लोगों के लिए उनके दरवाजे बंद हैं। वे बहुत महंगे हैं। नई सोच के तहत शिक्षा और इलाज की सरकारी व्यवस्था को जानबूझकर उपेक्षित किया गया है और बिगाड़ा गया है ताकि इनके बाजार को बढ़ावा मिले। शिक्षा-चिकित्सा के बढ़ते निजी क्षेत्र और उसकी महंगी सेवाओं से राष्ट्रीय आय की वृद्धि दर बढ़ाने में तो मदद मिली हैं, किंतु वे साधारण जनता की पहुंच से बाहर हुई है और उनकी लूट बढ़ी है। चिकित्सा में मुनाफाखोरी एक विकृति है जो पिछले बरसों में काफी तेजी से बढ़ी है।
प्राकृतिक संसाधनों की लूट, पर्यावरण का क्षय
विकास के नाम पर जल, जंगल, जमीन, खनिज आदि को कंपनियों के हाथों में सस्ते दामों पर लुटाने का सिलसिला इस दौर में तेज हुआ है। राष्ट्रीय आय की वृद्धि दर को तेज करने और पूंजी निवेश के लिए देशी-विदेशी कंपनियों को ललचाने के लिए यह जरुरी माना गया। यह पागलपन इतना बढ़ गया है कि हम लोह अयस्क जैसे खनिजों को सीधा निर्यात कर रहे है। यहा उसका इस्पात बनाते और इस्पात से दूसरा सामान बनाते तो यहां के लोगों को रोजगार मिलता और यहां की आमदनी बढ़ती। पोस्को जैसी विवादास्पद परियोजनाओं में विदेशी कंपनियों को सीधे लौह अयस्क निर्यात करने की छूट दी गई है। इस तरह हम अंतरराष्ट्रीय व्यापार के औपनिवेशिक युग में पहुंच रहे हैं, जिसमें उपनिवेशों से कच्चा माल जाता था और साम्राज्यवादी देशों से तैयार माल आता था।
निर्यात पर जोर का मतलब है कि हम अपने संसाधनों का उपयोग देश की सधाराण गरीब जनता के लिए न करके विदेशों के अमीरों की सेवा में कर रहे हैं। प्राकृतिक संसाधन सीमित हैं, इसलिए विदेशीयों की सेवा में उनको खतम या बरबाद करना और ज्यादा अक्षम्य है। उदाहरण के लिए, बासमती चावल के निर्यात का मतलब देश के पानी का निर्यात है।
प्राकृतिक संसाधनों के बढ़ते अंधाधुंध उपयोग और हस्तांतरण का मतलब उन समुदायों को उजाडना और बेदखल करना है, जिनकी जिंदगी प्रकृति से जुड़ी है। पिछले दो दशकों में जमीन से विस्थापन की बाढ़ आ गई है और इससे प्रभावित होने वालों में आदिवासी तथा गैरआदिवासी किसान दोनों हैं। इसी तरह किसानों से पानी छीनकर कंपनियों को दिया जा रहा है। इससे देश में नये संघर्ष पैदा हो रहे हैं। सिंगुर, नंदीग्राम, कलिंगनगर, पोस्को, नियमगिरि, हिराकुंड, सरदार सरोवर, ओंकारोश्वर, इंदिरा सागर, यमुना एक्सपे्रसवे, जैतापुर, कुडनकुलम, फतहपुर, श्रीकाकुलम जैसी एक लंबी सूची है।
प्राकृतिक संसाधनों की इस बंदरबाट ने देश में बड़े-बड़े घोटालों को जन्म दिया है। कोयला घोटाला इसका ताजा उदाहरण है जो इस देश का अभी तक का सबसे बड़ा घोटाला है।
इस दौर में प्रदूषण और पर्यावरण विनाश की दर भी तेज हुई है। नदियों, भूजल, मिट्टी, हवा, भोजन सबमें तेजी से जहर घूलता जा रहा है। कचरा एक बहुत बडी समस्या बनकर उभरा है। वाहन क्रांति के साथ ट्रैफिक जाम, वायु-प्रदूषण और शोर-प्रदूषण की जबरदस्त समस्या सामने आई है। जंगलों के विनाश और जैविक विविधता के नाश की गति बढ़ी है। यह एक बड़ी कीमत है जो हम और हमसे ज्यादा हमारी भावी पीढ़िया चुकाने वाली है। राष्ट्रीय आय की गणना में इसका कोई हिसाब नहीं होता है।
घटता स्वावलंबन, बढ़ता विदेशी वर्चस्व
इस दौर में गांव का और देश का स्वावलंबन तेजी से खतम हुआ है। कई मामलों में (जैसे खाद्य तेल या रेल का इंजन) हमने काफी मेहनत से देश को स्वावलंबी बनाया था, अब वापस विदेशों से आयात, विदेशी कंपनियों और विदेशी तकनालाजी पर निर्भर हो गये हैं। स्वावलंबन का लक्ष्य ही छोड दिया गया है। अर्थव्यवस्था और जीवन के करीब-करीब हर क्षेत्र में विदेशी कंपनियों की घुसपैठ हुई है और कई क्षेत्रों में उन्होंने अपना वर्चस्व कायम कर लिया है। यह एक खतरनाक स्थिति है।
विदेशी पूंजी भारत मंे आई है किंतु इसकी काफी कीमत चुकानी पड़ रही है। इसके लिए भारत सरकार को अपने कई कायदे-कानून बदलने पड़े हैं ( जैसे पेटेन्ट कानून, विदेशी मुद्रा नियमन कानून, एमआरटीपी एक्ट आदि), मुनाफे और लूट की इजाजत देनी पड़ी है, कर-चोरी और कर-वंचन को अनदेखा करना पड़ा है (जैस मारीशस मार्ग)। विदेशी पूंजी, खास तौर पर शेयर बाजार में लगने वाली, चाहे जब वापस लौटने की धमकी देने लगती है। भारत सरकार एक तरह से उनकी बंधक बन गई है। इन विदेशी कंपनियों के हितों को बढ़ाने के लिए कई बार विदेशी सरकारें भी दबाव बनाती हैं।
भारत के निर्यात बढ़े है, तो आयात उससे ज्यादा बढे़ हैं। इस पूरी अवधि में भारत का विदेश व्यापार घाटे में रहा है और यह घाटा बढ़ता जा रहा है। भुगतान संतुलन का संकट घना हो रहा है। भारत इस घाटे को विदेशों में बसे भारतीयों द्वारा भेजी धनराशि, विदेशी कर्ज ओर विदेशी पूंजी से पूरा करता रहा था। किंतु अब इन स्त्रोतों के सूखने तथा व्यापार घाटा ज्यादा होने से इस को पूरा करने का कोई तरीका नहीं बचा है। नतीजतन विदेशी मुदा्र भंडार खाली होने लगा है। हम वापस 1991 की हालात की ओर जाने लगे हैं। डॉलर और दूसरी विदेशी मुद्राओं के मुकाबले रुपया लुढक रहा है। पिछले डेढ़ साल में डाॅलर की कीमत 45 रु. से बढ़कर 55 के करीब हो गई है, जबकि वर्ष 1991 मे डाॅलर करीब 16 रु. का था। डालर के मुकाबले रुपया लुढ़क रहा है। पिछले डेढ़ साल में डालर की कीमत 45 रु. से बढकर 55 के करीब हो गई। जबकि वर्ष 1991 में डालर करीब 16 रु. का था। डालर की कीमत बढ़ने और रुपए की कीमत गिरने का मतलब विदेशियों की क्रयशक्ति बढ़ना तथा भारत की लूट बढ़ना है।
विदेश नीति, रक्षा, उर्जा जैसे क्षेत्रों में भी भारत की स्वतंत्रता, संप्रभुता और स्वावलंबन पर समझौता किया जाने लगा है। एक वक्त था जब भारत गुटनिरपेक्ष आंदोलन का नेता था। अब वह अमरीका का पिछलग्गू बनता जा रहा है। भारत-अमरीका परमाणु करार इसका एक उदाहरण है तो ईरान के साथ गैस पाईप लाईन में आगा-पीछा करना और संयुक्त राष्ट्र संघ में ईरान के मसले पर अमरीका के प्रस्ताव पर वोट देना दूसरा उदाहरण है। फिलीस्तीन के मुद्दे पर पहले भारत की स्पष्ट लाईन थी और वह इजराइल की खुलकर आलोचना करता था। अब उसने इजराइल के साथ दोस्ती कर ली है। अमरीका के साथ संयुक्त सैनिक अभ्यास भी शुरु हो गए है, जो पहले नहीं होते थे।
घोटालों और भ्रष्टाचार के नए कीर्तिमान
पहले यह कहा जाता था कि भ्रष्टाचार का कारण अर्थव्यवस्था में सरकार का अत्यधिक हस्तक्षेप-नियंत्रण और ‘परमिट-लाईसेन्स राज‘ है। सरकार हट जाएगी, तो यह कम हो जाएगा। निजीकरण और विनियंत्रण के पक्ष में माहौल भी इस आधार पर बनाया गया। किंतु दो दशक बाद हम पाते हैं कि भ्रष्टाचार कम होने के बजाय बढ़ गया है। बड़े-बडे़ घोटाले सामने आ रहे हैं और घोटालों के नए रिकार्ड कायम हो रहे हैं।
1991 के पहले का सबसे बड़ा और सबसे चर्चित घोटाला बोफोर्स घोटाला था, जिसने केंद्र की सरकार को पलट दिया था। इस घोटाले में बोफोर्स तोपों के सौदे में कमीशनखोरी का आरोप लगा था, जिसकी राशि करीब 50-60 करोड़ रु. होगी। किंतु 1991 में नयी नीतियां लागू होने के एक साल बाद ही हर्षद मेहता वाला शेयर-प्रतिभूति घोटाला हुआ, जिसमें 5000 से 10000 करोड़ रु. तक की हेरा-फेरी का आरोप लगा। उसके बाद तो यह सिलसिला बढ़ता गया। अब तो घोटालों की बाढ़ आ गई है। जो बड़े घोटाले सामने आए है, उनमें राष्ट्रमंडल खेल घोटाला करीब 80,000 रु., 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाला 176000 करोड़ रु. ओर कोयला घोटाला 186000 करोड़ रु. को होने का अनुमान है। यानी हमने घोटालों में कितनी जबरदस्त प्रगति की और कहां से कहां पहुंच गए!
दरअसल निजीकरण, विनियंत्रण और विनिवेश ने भ्रष्टाचार के नए रास्ते खोले हैं। जिस सरकारी उद्यम में पहले आपूर्ति और खरीदी में कमीशखोरी होती थी, उस पूरे उद्यम (या उसके शेयरों) को बेचने में एकमुश्त बड़ी दलाली और कमीशनखोरी होने लगी। प्राकृतिक संसाधनों (जमीन, पानी, खनिज, तरंगे यानी स्पेक्ट्रम आदि) की जिस लूट को विकास और निवेश-प्रोत्साहन के नाम पर बढ़ावा दिया गया, उससे भी बड़े-बड़े घोटालों को जन्म दिया।
यह भी देखा जा सकता है कि सत्ता में बैठे नेताओं-अफसरों ने जनहित-देशहित के खिलाफ होने के बावजूद नई नीतियों को अपनाया और आगे बढाया, क्योंकि इनमें उन्हें बड़े रुप में निजी फायदे नजर आ रहे थे। नीति और नीयत दोनों मे खोट का यह अद्भुत मेल था।
समाजिक -सांस्कृतिक विकृतियां
राष्ट्रीय आय की वृद्धि दर बढ़ाने के लिए और अर्थव्यवस्था को एक बनावटी तेजी देने के लिए सरकार ने गैरबराबरी (कुछ लोगों के हाथ में धन, आमदनी और क्रयशक्ति का केंद्रीकरण) तथा उपभोक्ता संस्कृति को काफी प्रोत्साहन दिया। उन्मुक्त बाजारवाद के साथ मिलकर इसने कई तरह के तनावों और विकृतियों को बढाया। पैसा और मुनाफा आज का भगवान हो गया है जिसकी चारों तरफ पूजा हो रही है। नैतिक मूल्यों, भाईचारा, सामूहिकता, सादगी, बराबरी आदि सब को इसकी वेदी पर बलि चढाया जा रहा है । शिक्षा, चिकित्सा, मीडिया,राजनीति, धर्म, कला, खेल, संस्कृति सब बाजारु बनते जा रहे हैं और गिरावट के शिकार हो रहे हैं। यह एक चैतरफा गिरावट है।
मूलतः ये पूंजीवाद की विकृतियां है। वैश्वीकरण-उदारीकरण के इस दौर ने इन विकृतियों को भयानक रुप से बढाया, फैलाया तथा उग्र बनाया है।
लोकतंत्र का हनन
इस दौर में विदेशी प्रभावों और दबावों के आगे इस विशाल लोकतंत्र की जनता की आवाज गौण होती जा रही है। कंपनियों को रिझाने और बुलाने में लगी सरकारें जनता की तरफ से आंख मूंद लेती है। मिसाल के लिए 1994 में डंकल मसौदे पर दस्तखत करने जैसे काफी बड़े फैसले के पहले भारत सरकार ने देश की जनता तो दूर, संसद से भी मंजूरी लेने की जरुरत नहीं समझी। फैसले के बाद जाकर सरकार ने ससंद को सूचना दी और चर्चा कराई।
देश में एक तरह से ‘कंपनी राज‘ कायम होता जा रहा है। कंपनियों द्वारा संसद में विश्वास मत और मंत्रियों के चयन को प्रभावित करने के मामले सामने आ रहे हैं।
एक और तरीके से लोकतंत्र का नुकसान हो रहा है। बढ़ती घोर गैरबराबरी से कुछ लोगों के हाथ में विशाल पैसा आ रहा है। चुनावों में इसे पानी की तरह बहाया जाता है और मतदाताओं को प्रभावित किया जाता है। इस मामले में अब चुनाव स्वतंत्र नहीं रह गए हैं। पैसे का उपयोग टिकिटों के बंटवारे और लोकसभा, विधानसभा, नगरनिगम, नगरपालिका, पंचायतों में समर्थन जुटाने और जनप्रतिनिधियों को खरीदने में भी जमकर होने लगा है।
(यह अधूरा है- सुनील)
लेखक : सुनील ,राष्ट्रीय उपाध्यक्ष,समाजवादी जनपरिषद
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