Tuesday, March 20, 2012

संयोजकों/सह-संयोजकों/संगठक/अखिल भारतीय पदाधिकारियों की विशेष बैठक, 18-19 फरवरी 2012

दिनांकः 03 मार्च 2012

विषयः संयोजकों/सह-संयोजकों/संगठक/अखिल भारतीय पदाधिकारियों की विशेष बैठक, 18-19 फरवरी 2012, नई दिल्ली




मान्यवर,




दिनांक 18 फरवरी 2012 को प्रांतः 10ः30 बजे मंच के नई दिल्ली स्थित कार्यालय में संयोजकों/सह-संयोजकों/संगठक/अखिल भारतीय पदाधिकारियों की विशेष बैठक प्रारंभ हुई। श्री राजीव क्षीर सागर ने ‘‘भारत प्यारा, देश हमारा आगे बढ़ता जाता है’’ गीत प्रस्तुत किया।

मंच के राष्ट्रीय संयोजक श्री अरूण ओझा ने बैठक में चर्चा के लिए प्रमुख रूप से दो बिंदुओं पर बल दिया। 1. संगठन, 2. आंदोलन। श्री ओझा ने स्व. ठेंगड़ी जी का स्मरण करते हुए कहा कि सबको (संगठनों) को साथ मिलकर आजादी की यह दूसरी लड़ाई लड़नी होगी। उन्होंने कहा इसके लिए हमकों मंच रहने के साथ साथ सशक्त संगठनात्मक संरचना खड़ी करनी होगी। भले ही वह संरचना संगठन ना हो। इस पर भी हमें निर्णय करना है कि हमारी लघुतम संगठनात्मक ईकाई क्या हो?

श्री सरोज मित्रा ने कहा कि आंदोलन व कार्यक्रम करते रहने से मंच मजबूत होता है। इस कारण से हम थोडे समय में ही बहुत फैल गये। न्यूनतम ढ़ांचा तो जरूर होना चाहिए किंतु इसकी पहचान करके ही संगठन के बारे में विचार करना चाहिए। उन्होंने कहा कि जे.पी. आंदोलन का संगठन आज कहां है? राम जन्म भूमि आंदोलन से जुड़े करोड़ों नौजवान आज कहां है? आर्थिक विषयों पर जनआंदोलनों के कारण ही मंच की स्वीकृति समाज में बनी एवं बढ़ी है। ठेंगड़ी जी के विचारों के बारे में स्वदेशी पत्रिका एवं अन्य प्रकाशनों में अधिक से अधिक प्रकाशित किया जाना चाहिए।

श्री मुरलीधर राव ने कहा कि हम एक मंच है, संगठन नहीं है। समाज में हमारी प्रासंगिकता एवं ताकत हमारे विचार से ही है। जनता से जुड़े मुद्दों पर सबसे पहले सोचना, उन पर आवाज उठाना, नये विचारों को पैदा करना, ऐसे लोगों को जोड़ना, निरंतर गतिविधियां चलाते रहना, यह सब बातें भी मंच के कार्यकत्र्ताओं की रिपोर्टिंग का हिस्सा होनी चाहिए। उदाहरण के लिए तमिलनाडू में मंच का काम वहां के औद्योगिक संकूल के अध्ययन (ब्सनेजमते ेजनकल) के कारण व्यापक रूप से खड़ा हुआ। आंध्र प्रदेश में सप्ताहिक बाजारों का अध्ययन के कारण बड़ी मात्रा में वहां काम खड़ा होने की संभावना है। हाल ही में नई दिल्ली में मंच की अगवाई में एफ.डी.आई. के मुद्दे पर व्यापारियों के मंच पर सभी स्टेक हाॅलडर्स एकत्रित हुए तो एफ.डी.आई. की लड़ाई को भारी बल मिला। इसी प्रकार हमें विभिन्न किसान, मजदूर, मछुवारों, बुनकर, लघु उद्यमियों, युवाओं व अन्य संगठनों को भी एकत्रित करना होगा। इन बिंदुओं पर हमारे प्रांतों की क्या स्थिति है? इस पर भी विचार किया जाना चाहिए।

बैठक में व्यापक चर्चा के उपरांत यह निर्णय किया गया कि मंच की ग्रामीण क्षेत्रों में लघुतम संगठनात्मक ईकाई प्रखंड (क्मअमसवचउमदज ठसवबा) एवं शहरी क्षेत्रों में वार्ड को माना जायेगा।

संगठनात्मक स्थितिः प्रांतों की संगठनात्मक स्थिति के बारे में निम्नलिखित बिंदुओं पर कार्यकर्ताओं ने जानकारी प्रस्तुत की-

1. प्रांत टोली, 2. विभाग/जिला/प्रखंड टोली, 3. कार्यालय, 4. ट्रस्ट/सोसायटी, 5. बैंक खाता, 6. पूणकालीक कार्यकर्ता

केरल- श्री के.वी. बीजू, तमिलनाडू-श्री श्रीनिवासन, आंध्र प्रदेश-श्री अपाला प्रसाद, राजस्थान-श्री राजकुमार चतुर्वेदी, महाराष्ट्र-श्री अजय पत्की, गुजरात-श्री कश्मीरी लाल, मध्य प्रदेश-श्री जगत नारायण सिंह, छत्तीसगढ़-श्री मोहन पवार, उड़ीसा-श्री शत्रुघ्न तरई, बंगाल-श्री सुब्रत मंडल, कर्नाटक-श्री बी.जी. प्रदीप, झारखंड़-श्री राजेश उपाध्याय, बिहार-श्री दिलीप निराला, सिक्किम एवं असम-श्री अन्नदा पाणीग्रही, जम्मू कश्मीर-श्री पवन बडू, हिमाचल प्रदेश-श्री देशबंधु, पंजाब-श्री कृष्ण शर्मा, हरियाणा-श्री दीपक शर्मा ‘प्रदीप’, दिल्ली-श्री जितेन्द्र महाजन, अवध-श्री जनार्दन सिंह।

मंच के राष्ट्रीय संगठक श्री कश्मीरी लाल ने बताया कि कुल 665 जिलों में से 324 जिलें में मंच की सक्रिय ईकाईयां हैं एवं अन्य 91 जिलों में सक्रिय ईकाईयां तो नहीं है किंतु मंच की गतिविधियां चलती रहती है।

वृत्तः आंध्र मंे संपन्न हुई गतिविधियों के बारे में श्री राज महेंद्र रेड्डी, बिहार के बारे में श्री दिलीप निराला, मध्य प्रदेश में युवा मोर्चा की गतिविधियों के बारे में श्री देवेन्द्र विश्वकर्मा, उड़ीसा में वेदान्त यात्रा, विवेकानन्द जयंती, एफ.डी.आई. के विरोध में आयोजित बंद, विषय में श्री अन्नदा पाणीग्रही, झारखंड के 6 जिलों में एफ.डी.आई. पर भारत बंद, हस्ताक्षर अभियान, स्वदेशी मेला, परिवार सम्मेलन, 15 जिलों में गोष्ठी के संबंध में श्री राजेश उपाध्याय, पंजाब में 6 स्थानों पर एफ.डी.आई. पर कार्यक्रम, बाबू गेनू बलिदान दिवस के बारे में श्री कृष्ण शर्मा, छत्तीसगढ़ में ईस्ट इंडिया रथ निकालना एवं गिरफ्तारियों के बारे में श्री मोहन पंवार, केरल में कोका-कोला कंपनी का विरोध करते हुए श्री के.वी. बीजू की 8 दिन की जेल यात्रा के बारे में, 3 स्थानों पर एफ.डी.आई. कार्यक्रम के बारे में श्री जनार्दन, बंगाल में आलू किसानों के लिए 10 ब्लाॅकों में लड़ी गई लड़ाई के बारे में श्री सुब्रत मंडल, महाराष्ट्र में व्यापारी संगठन सी.ए.आई.टी. के साथ भीख मांगों यात्रा, बाबू गेनू बलिदान दिवस, स्वदेशी विषय पर माननीय सरकार्यवाह जी का उद्बोधन के बारे में श्री अजय पत्की, महिलाओं के क्षेत्र में प्रांत सम्मेलनों के बारे में श्रीमति रेणु पौराणिक, हिमाचल में बाबू गेनू बलिदान दिवस के बारे में श्री देशबंधु, भोपाल में आयोजित एफ.डी.आई. रैली एवं बाबू गेनू बलिदान दिवस के बारे में श्री अरविन्द खांडेकर, तमिलनाडू में एफ.डी.आई. यात्रा में 1 लाख लोगों से जनसंपर्क, 1 हजार व्यापारियों की जनसभा एवं 8 काॅलेजों में काले धन पर सेमिनार एवं एफ.डी.आई. पर श्री एस. गुरूमूर्ति, श्री शेखर स्वामी, श्री मोहन गुरूस्वामी के लेखों की पुस्तक प्रकाशित करने के बारे में श्री श्रीनिवासन ने जानकारी दी।

रिटेल में एफ.डी.आई. के मुद्दे पर राष्ट्रीय सम्मेलनः नई दिल्ली में 10 फरवरी 2012 को आयोजित राष्ट्रीय सम्मेलन की जानकारी देते हुए श्री दीपक शर्मा ‘प्रदीप’ ने बताया कि स्वदेशी जागरण मंच की पहल पर देश भर के 31 संगठनों (राजनेता, अर्थ शास्त्री, किसान, व्यापारी, ट्रांसपोर्ट, लघु उद्योग, हाॅकर्स, कंज्यूमर, मजदूर, सहकारी, ए.पी.एम.सी. एवं अन्य) ने इस कार्यक्रम को आयोजित किया। देश के 23 प्रांतों के 48 संगठनों से 900 राष्ट्रीय नेताओं ने इसमें भाग लिया। दिन भर चले इस सम्मेलन में डाॅ. मुरली मनोहर जोशी, सी.पी.एम. संसदीय दल के नेता श्री वासुदेव आचार्य, फारवर्ड ब्लाॅक के महामंत्री एवं सांसद श्री देवव्रत विश्वास, श्री मुरलीधर राव, भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष श्री नरेश टिकैत, भारतीय कृषक समाज के अध्यक्ष श्री कृष्णवीर चैधरी, किसान महापंचायत के अध्यक्ष श्री रामपाल जाट, भारतीय उद्योग व्यापार मंडल के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री श्याम बिहारी मिश्रा, कन्फडरेशन आॅफ आॅल इंडिया ट्रेडर्स के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री बी.सी. भरतिया, पूर्व केंद्रीय मंत्री श्री संजय पासवान, प्रख्यात अर्थशास्त्री श्री मोहन गुरूस्वामी, डाॅ. वंदना शिवा, अमूल के प्रबंध निदेशक श्री आर.एस. सोढी, कंज्यूमर फाॅरम से श्री बीजोन मिश्रा, ग्राहक पंचायत से श्री बी.एस. सचदेवा, आॅल इंडिया ट्रांसपोर्ट कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री प्रदीप सिंघल, राष्ट्रीय हाॅकर्स संघ के अध्यक्ष श्री शक्तिमान घोष, मजदूर संगठन से श्री पवन कुमार, किसान संघ से श्री प्रभाकर केलकर, लघु उद्योग संगठन से श्री पी.सी. कोशी, ए.पी.एम.सी. के श्री कीर्ति राणा सहित अनेक नेता उपस्थित थे।

इस संबंध में आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए 92 सदस्यों की राष्ट्रीय संयुक्त समिति की बैठक दिनांक 27 फरवरी 2012 को नई दिल्ली में हुई। इस बैठक में सर्वसम्मति से निम्नलिखित निर्णय लिए गए-

1. मार्च के महीने को देश भर में त्मजपंस क्मउवबतंबल डवदजी के रूप में मनाया जायेगा।

2. सभी राज्यों में मुख्यमंत्रियों, विधान सभा में नेता प्रतिपक्ष, सांसदों, सभी राजनैतिक दलों के नेताओं, प्रधानमंत्री, लोक सभा व राज्य सभा में नेता प्रतिपक्ष को एक पंक्ति का ‘‘हम रिटेल सेक्टर में विदेशी निवेश का कड़ा विरोध करते हैं तथा सरकार को चेतावनी देते है कि इस संबंध में वह अपने कदम आगे ना बढ़ाये।’’ यदि कोई प्रांत ज्ञापन की इस भाषा में कोई बदलाव करना चाहे तो कर सकते है। यह ज्ञापन सभी सेक्टरों (किसान, मजदूर, लघु उद्यमी, व्यापारी आदि-आदि) की ओर से अलग-अलग दिया जायेगा।

3. दिनांक 7 मार्च को एफ.डी.आई. की होली देश भर में गांव/शहरों में जलाई जायेगी।

4. दिनांक 16 मार्च को सभी जिला केन्द्रों पर एक दिन का धरना/उपवास आयोजित किया जायेगा।

5. दिनांक 23 मार्च (भगत सिंह, राजगुरू व सुखदेव बलिदान दिवस) को देश भर में 11 बजे घंटे घडियाल बजाये जायेंगे।

6. दिनांक 30 मार्च को गांधी जी की प्रतिमा के सामने अपने-अपने तरीकों से गांधीगिरि की जायेगी।

7. सभी राज्यों में राज्यस्तरीय सम्मेलन आयोजित किये जायेंगे।

विशेष उल्लेखः प्रख्यात चिंतक एवं विचारक श्री के.एन. गोविन्दाचार्य ने कहा कि देश में अनेक संगठन जनता से जुड़े हुए मुद्दों पर संघर्ष कर रहे है। स्वदेशी जागरण मंच के कार्यकर्ताओं को उन सबके साथ संवाद, सहयोग एवं समन्वय करके चलना होगा। हमें अपनी पहल पर यह ध्यान रखना होगा कि कहां-कहां, क्या-क्या चल रहा है। गंगा, गऊ, जल, जमीन, जंगल, जानवर, भ्रष्टाचार, भूमि अधिग्रहण आदि अनेक मुद्दों पर देश में सहमति और स्वीकृति बन रही है। भ्रष्टाचार से अकेले एक परिवहन विभाग में ही 2500 करोड़ का काला धन जनरेट हो रहा है।

जन जागरण एवं प्रचार के बाद हमें अब दबाव और टकराव की तरफ भी बढ़ना है। इससे हमारी ताकत और धार बढ़ती है। इन्हीं चीजों को ध्यान में रखकर दिनांक 12,13, 14, मार्च 2012 को नई दिल्ली में धरना एवं उपवास करके यह मांग की जायेगी कि केंद्रीय बजट का 7 प्रतिशत हिस्सा सीधा ग्राम पंचायतों को दिया जाए तथा इसको खर्च करने का अधिकार, जवाबदारी व योजना का अधिकार, यह सभी ग्राम पंचायतों के पास ही रहे। देश भर में सभी राज्यों में स्वदेशी जुटान आयोजित करके मुद्दों एवं मूल्य के आधार पर सज्जन शक्ति को एकत्रित करना होगा। राष्ट्रीय स्वाभिमान, गायत्री परिवार, आर्ट आॅफ लिविंग, यूथ अगेंस्ट करप्शन, यूथ फाॅर डेमोकरेसी, ट्रांसपेरेंसी इंडिया एवं अन्य अनेक समूह इन मुद्दों पर काम कर रहे हैं। राजस्थान एवं बिहार में स्वदेशी जुटान का कार्यक्रम निश्चित हो चुका है।

महिला क्षेत्रः राष्ट्रीय महिला प्रमुख श्रीमति रेणु पौराणिक ने बताया कि 7 प्रांतों में महिला प्रमुखों को दायित्व दिया गया है। बंगाल, छत्तीसगढ़ एवं आंध्र प्रदेश ने अप्रैल 2012 तक एवं पंजाब ने मई 2012 तक महिला प्रमुख का नाम निश्चित करके सूचना देने की घोषणा की। शेष प्रांत भी शीघ्र ही प्रांत महिला प्रमुख का नाम निश्चित करके श्री सरोज मित्रा एवं श्रीमति रेणु पौराणिक को सूचित करेंगे।

राष्ट्रीय विचार वर्गः राष्ट्रीय विचार वर्गों की गुणवत्ता और अधिक बेहतर करने के लिए विस्तार से चर्चा के उपरांत निम्नलिखित बिंदुओं पर सहमति बनी-

1. विचार वर्गों की रिकार्डिंग हो तथा उनकी सी.डी. बनाई जाएं।

2. विचार वर्गों में पाॅवर प्वांईट प्रजेंटेशन की सुविधा रहे।

3. विचार वर्ग के सभी सत्रों के सारांश की पुस्तिका छपे।

4. वक्ताओं को विषय एवं कार्यक्रम की पूर्व में सूचना दी जाए।

5. विचार वर्ग की केंद्रीय समिति बनाई जाए।

6. सत्रों एवं पाठ्यक्रम पर पर्याप्त तैयारी की जाए।

7. सभी प्रांत विचार वर्गों में योग्य कार्यकर्ता को भेंजे तथा बाद में उन्हें दायित्व भी दे।

8. कुछ विषय राष्ट्रीय स्तर पर निश्चित किए गये (स्वदेशी विकास यात्रा, स्वदेशी जागरण मंच-त्वंक ।ीमंक, खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश, मुक्त व्यापार समझौतें, आर्थिक शब्दावली, वैश्विकरण के 20 वर्ष, चीन से चुनौतियां, रचनात्मक एवं सफल प्रयोग) ये सभी विषय विचार वर्गों में समान रहेंगे। इन विषयों की 5 पुस्तिकाएं पहले से ही सभी प्रांतों को भेज दी जायेगी। शेष विषय प्रांत अपनी सुविधा से निश्चित करेंगे।

राष्ट्रीय विचार वर्ग पूर्वी क्षेत्रः 6,7,8 जुलाई 2012 को बिहार के बोध गया में आयोजित किया जायेगा। इस विचार वर्ग के प्रमुख के रूप में श्री बिरंची नारायण पंडा, नियंत्रक श्री प्रणय राय एवं सह-नियंत्रक श्री अखिलेश (रिंकू जी) रहेंगे।

राष्ट्रीय विचार वर्ग पश्चिमी क्षेत्रः इसकी सूचना बाद में भेजी जायेगी।

राष्ट्रीय विचार वर्ग उत्तरी क्षेत्रः 1,2,3 जून 2012 को भीलवाडा (राजस्थान) में आयोजित किया जायेगा। इस संबंध में श्री भगीरथ चैधरी (9413369367), राजकुमार चतुर्वेदी (9928293381) सह-संयोजक राजस्थान से संपर्क करें।

राष्ट्रीय विचार वर्ग दक्षिणी क्षेत्रः यह विचार वर्ग तमिलनाडू में आयोजित किया जायेगा। शेष सूचना बाद में भेजी जायेगी।

राष्ट्रीय विचार वर्ग आयोजन समितिः राष्ट्रीय विचार वर्ग के लिए केंद्रीय स्तर पर निम्नलिखित समिति का गठन किया गया-

1. डाॅ. अश्वनी महाजन, नई दिल्ली 2. डाॅ. रणजीत सिंह, राजस्थान

3. श्री बी.जी. प्रदीप, कर्नाटक 4. श्री श्रीनिवासन, तमिलनाडू

5. श्री अजय पत्की, महाराष्ट्र 6. श्री विनोद कुमार सिंह, बिहार

7. श्री भोला नाथ मिश्रा, उत्तर प्रदेश

मुक्त व्यापार समझौतेः दक्षिण क्षेत्र सहसंयोजक श्री के.वी. बीजू ने बताया कि यूरोपिय संघ (म्न्) के साथ मुक्त व्यापार समझौतों के विषय में सरकार तेजी से आगे बढ़ रही है। इसके कारण लघु उद्योगों का क्षेत्र तो प्रभावित हो ही रहा है, साथ ही साथ कृषि क्षेत्र को इसके दुष्परिणाम भुगतने होंगे। उदाहरण के लिए यूरोपीय संघ में प्रति गाय के लिए 900 डाॅलर की सब्सिडी वार्षिक दी जाती है। ऐसी स्थिति में यदि विदेशों से दुग्ध उत्पादों का कर मुक्त आयात होगा तो ग्रामीण क्षेत्र के लोगों को दुग्ध एवं मवेशियों से होने वाली आमदनी पर गहरा प्रभाव पडे़गा। उन्होंने बताया कि आज ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों को होने वाली कुल आमदनी का 72 प्रतिशत ।दपउंस भ्नेइंदकंतल की आमदनी से ही प्राप्त होता है।

इस संबंध में साहित्य निर्माण, जन जागरण एवं आंदोलन के कार्य को आगे बढ़ाने के लिए केंद्रीय स्तर पर निम्नलिखित समिति का गठन किया गया। यह समिति सांसदों, मुख्यमंत्रियों एवं सभी स्टेक हाॅलडर्स से संपर्क करेंगी एवं राष्ट्रीय तथा प्रांत स्तर पर देश भर में कार्यक्रमों का आयोजन करेगी। डाॅ. अश्वनी महाजन ने कहा कि 15 दिनों (5 मार्च 2012) तक इस संबंध में एक पुस्तिका सभी प्रांतों को भेज दी जायेगी।

1. डाॅ. अश्वनी महाजन (प्रमुख)

2. श्री के.वी. बीजू, केरल (सहप्रमुख)

3. श्री रामनम्बी नारायण, तमिलनाडू (सदस्य)

4. श्री राजकुमार चतुर्वेदी, राजस्थान (सदस्य)

5. श्री शैलेन्द्र सेंगर, दिल्ली (सदस्य)

केंद्राशः श्री कृष्ण कुमार अठासिया ने राज्यों की ओर से भेजे जा रहे केंद्राश की जानकारी प्रस्तुत की। निम्नलिखित प्रांतों ने अपना केंद्राश भेजने की घोषणा की।

छत्तीसगढ़ - 25000 रू. (फरवरी तक), केरल-5000 रू. (फरवरी तक), बिहार-10000 रू. (राष्ट्रीय परिषद की बैठक तक), हिमाचल-5000 रू. (फरवरी तक), राजस्थान-25000 रू. (मार्च तक), तमिलनाडू-20000 रू. (मार्च तक), झारखंड-50000 रू. (मार्च तक), अवध-10000 रू. (राष्ट्रीय परिषद की बैठक तक), उड़ीसा-10000 रू. (राष्ट्रीय परिषद की बैठक तक), मध्य प्रदेश-10000 रू. (फरवरी तक), बंगाल-5000 रू. (फरवरी तक), पंजाब-चर्चा कर शीघ्र बतायेंगे, दिल्ली-चर्चा कर शीघ्र बतायेंगे।

सी.बी.एम.डी. एवं चैपालः गरीब महिलाओं को सहायता प्रदान करने के क्षेत्र में कार्य कर रही संस्था चैपाल के विषय में श्री भोलानाथ विज ने विस्तार से जानकारी देते हुए कहा कि सवा साल पहले 85 परिवारों की सहायता करके प्रारंभ किया गया यह प्रकल्प अब तक कुल 2300 परिवारों को सहायता प्रदान कर चुका है। इस संबंध में श्री मुरलीधर राव ने विस्तार से जानकारी देते हुए कहा कि छत्तीसगढ़, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, झारखंड में भी मार्च/अप्रैल 2012, तक ऐसे प्रकल्प प्रारंभ हो जायेंगे। इस संबंध में विस्तार से जानकारी के लिए रिपोर्ट प्रकाशित की जायेगी। श्री मुरलीधर राव ने कहा कि सी.बी.एम.डी. को व्यवस्थित रूप से चलाने एवं आगे बढ़ाने के लिए 24 मार्च को नई दिल्ली में बैठक आयोजित की गई है। इसमें देश के 40 शहरों से प्रतिनिधि भाग लेंगे। इस बैठक में सी.बी.एम.डी. की कार्य पद्वति, मानक, हिसाब-किताब, संगठनात्मक ढ़ांचा, शोध गतिविधियां सहित अनेक विषयों पर विस्तार से चर्चा होगी।

आगामी कार्यक्रमः 1. सभी प्रांतों ने अपने यहां भ्रष्टाचार एवं व्यवस्था परिवर्तन के मुद्दे पर स्वदेशी जुटान आयोजित करने हैं। इस संबंध में श्री दीपक शर्मा ‘प्रदीप’ सहयोग करेंगे। झारखंड में 7, 8 अप्रैल को, जमशेदपुर में जुटान आयोजित किया जायेगा। मध्य प्रदेश एवं राजस्थान प्रांत ने शीघ्र ही स्वदेशी जुटान आयोजित करने की घोषणा की।

2. चीन से चुनौतियां के मुद्दे पर सभी प्रांतों ने कार्यक्रम करने है।

3. एफ.डी.आई के मुद्दे पर नई दिल्ली में 10 फरवरी 2012 को आयोजित राष्ट्रीय सम्मेलन के आधार पर सभी राज्यों में सम्मेलन आयोजित करने है।

4. मुक्त व्यापार समझौते (थ्ज्।) के मुद्दे पर नई दिल्ली में सभी स्टेक होल्डर्स का राष्ट्रीय सम्मेलन दिनांक 28 अप्रैल 2012 को कार्यक्रम आयोजित किया जायेगा। डाॅ. अश्वनी महाजन इस मुद्दे पर कार्यक्रम आयोजित करने की चिंता करेंगे एवं दिनांक 5 मार्च तक सभी प्रांतों को पुस्तिका भेज देंगे। इसी के आधार पर प्रांतों में भी कार्यक्रम प्रारंभ करने है।

5. कृषि संबंधी विषयों पर कृषि काॅलेजों को जोड़ते हुए कार्यक्रम करने है, आर्थिक क्षेत्र के लोगों को जोड़ते हुए आर्थिक सम्मेलन करने हैं, गांवों के युवाओं को जोड़ते हुए कार्यक्रम आयोजित करने हैं।

6. राष्ट्रीय परिषद की बैठक दिनांक 19, 20 मई को आगरा, उत्तर प्रदेश में आयोजित की जायेगी।

7. बिहार, छत्तीसगढ़ प्रांत ने आर्थिक सम्मेलन शीघ्र ही आयोजित करने की घोषणा की।

8. बिहार, मध्य प्रदेश एवं उड़ीसा प्रांतों ने कृषि काॅलेजों को केंद्र बनाकर कृषि से संबंधित मुद्दे पर सम्मेलन करने की घोषणा की।

9. देवघर सम्मेलन में भूमि अधिग्रहण कानून के संबंध में विस्तृत रिपोर्ट तैयार करने की घोषणा की गई थी। डाॅ. अश्वनी महाजन शीघ्र ही इस संबंध में रिपोर्ट तैयार करके प्रस्तुत करेंगे।

10. प्रांत सम्मेलनः हरियाणा का प्रांत सम्मेलन 25 मार्च को पानीपत में, केरल का प्रांत सम्मेलन 9,10 जून को, कर्नाटक का प्रांत सम्मेलन अप्रैल में चित्रदुर्गा में, हिमाचल प्रदेश का प्रांत सम्मेलन मई में चिंतपूर्णी मे, पंजाब का प्रांत सम्मेलन अप्रैल में, बंगाल का प्रांत सम्मेलन 5,6 अप्रैल को कोलकत्ता में, बिहार का प्रांत सम्मेलन अगस्त में मुजफ्फरपुर में, उड़ीसा का प्रांत सम्मेलन 7,8 अप्रैल को राउरकेला में आयोजित किया जायेगा। राजस्थान का प्रांत सम्मेलन 8 अप्रैल की बैठक में निश्चित किया जायेगा। झारखंड का प्रांत सम्मेलन 2 अप्रैल की बैठक में निश्चित किया जायेगा। जम्मू का प्रांत सम्मेलन मई के बाद आयोजित किया जायेगा। मध्य प्रदेश का प्रांत सम्मेलन 28,29 जुलाई को आयोजित किया जायेगा। तमिलनाडू एवं छत्तीसगढ़ के प्रांत सम्मेलन की घोषणा शीघ्र ही कर दी जायेगी।

अन्यः मंच के संस्थापक संयोजक श्री एम.जी. बोकरे के छोटे भाई एवं मंच की राष्ट्रीय परिषद के सदस्य श्री दिवाकर बोकरे का निधन दिनांक 16 फरवरी 2012 को सायं 6.00 बजे पूना में हो गया था। उनके संबंध में श्री अजय पत्की ने विस्तार से बताया तथा सभा में 2 मिनट का मौन रखकर उनको श्रद्धांजलि अर्पित की गई।

राष्ट्रीय खुदरा सम्मेलन से मंच के संपर्क में आये श्री सतीश गर्ग (महामंत्री, कन्फडरेशन आॅफ आॅल इंडिया ट्रेडर्स) का परिचय श्री कश्मीरी लाल ने करवाया। देशी-विदेशी वस्तुओं की सूचि स्वदेशी पत्रिका के मार्च अंक में छप जाए, यह डाॅ. अश्वनी महाजन सुनिश्चित करेंगे।

समारोपः श्री अरूण ओझा ने बैठक का समारोप करते हुए कहा कि हम नये प्रयोग करे, हमारी सक्रियता बढ़े तथा आगामी राष्ट्रीय सभा में देश के 80 प्रतिशत जिलों से हम प्रतिनिधियों को ला पाने में सफल हों। आजादी की इस लड़ाई में स्वदेशी जागरण मंच एक सशक्त औजार बनें। इसी भावना से हम अपने काम में अधिक ताकत से लगे।

इसी के साथ यह बैठक संपन्न हो गई।

Thursday, March 8, 2012

TWENTY YEARS OF GLOBALISATION: A BOON OR A BANE

TWENTY YEARS OF GLOBALISATION: A BOON OR A BANE

Twenty Years of Globalization: Poverty, Hunger, Unemployment and Corruption
Government of India adopted new economic policy (NEP) in 1991. They termed this policy as a policy of liberalization, privatization and globalization (LPG). Though new economic policy claimed to be the policy of LPG(liberalisation,Privatisation and Globalisation) but in essence this policy was mainly the policy of globalization.
Globalization and its Advocacy
Globalization is the process of integrating various economies of the world without creating any hindrances in the free flow of goods and services, technology, capital and even labour or human capital. The term ‘globalization’ has, therefore, four parameters:
(i) Reduction of trade barriers to permit free flow of goods and services among nation-states;
(ii) Creation of environment in which free flow of capital can take place among nation-states;
(iii) Creation of environment, permitting free flow of technology; and
(iv) Last, but not the least, from the point of view of developing countries, creation of environment in which free movement of labour can take place in different countries of the world.
The advocates of globalization, more especially from developed countries, limit the definition of globalization to only three components, unhindered trade flows, capital flows and technology flows. They insist on developing countries to accept their definition of globalization and conduct the debate on globalization within the parameters set by them. However, several economists in the developing world believe that this definition is incomplete and in case the ultimate aim of globalization is to look upon the world as a ‘global’ village, then the fourth component, unrestricted movement of labour cannot he left out.
Advocacy of Globalization
Advocates of globalization support their defence of globalization on the following arguments:
(i) Globalization will promote direct foreign investment and, thus, it enables developing countries to raise capital without recourse to international indebtedness.
(ii) Globalization enables developing countries to make use of technology developed by advanced countries without investments in Research and Development.
(iii) Globalization widens the access of developing countries to export their produce in the developed countries. Simultaneously, it enables the consumers of developing countries to obtain quality consumer goods, especially consumer durables, at relatively much lower prices.
(iv) Globalization introduces faster diffusion of knowledge and thus enables developing countries to raise their level of production and productivity. It, therefore, generates the momentum to reach international standards of productivity.
(v) Globalization reduces costs of transport and communication. It also reduces tariffs and thus enlarges the share of foreign trade as a percentage of GDP.
In nutshell, globalization is considered as the engine of growth, technical advancement, raising productivity, enlarging employment and bringing about poverty reduction along with modernization.
Impact of Globalization on India – Growth amidst Deepening Poverty
In terms of standards of globalization, we find pace of globalization as per its definition, we have had a fast pace of globalization of Indian economy that is integration of Indian economy with the rest of the world. This is depicted from the data, which shows that exports increased from 5.8 per cent of GDP to 14.4 per cent of GDP between 1990-91 and 2010-11. Imports increased at a faster pace from 8.8 per cent of GDP in 1990-91 to 23.1 per cent of GDP. This resulted in an increase in Balance of Trade deficit from 3.0 per cent of GDP to 8.7 per cent of GDP. Foreign investment (FDI + FIIs) increased from US$ 103 million in 1990-91 to US$ 70,139 million. In the last ten years (2000-01) foreign investment was US$ 314.6 billion. The pace of foreign investment was so fast that India has increased from negligible in 2000-11 to nearly 3.4 per cent of total global FDI inflows as on date.
But the claims of advocates of globalization have not just been proved false; rather globalization has made life miserable for masses.
FACT SHEET 1: SHOCKING UNDERNOURISHMENT
Given the fact that contribution of primary sector in total GDP has declined from 33.53 percent in 1993-94 to 22.97 percent in 2004-05, how can we imagine any better position for poor living in rural areas. National Family Health Survey conducted by Ministry of Health and Family Welfare also supports the hypothesis that vast majority of population is still reeling under poverty. The survey says that 46 percent of all children are underweight and 38 percent are stunted (too short for their age) and 19 percent are wasted (too thin for their height). National Family Health Survey has been conducted for three times in these 15 years, conclude that some of these indicators have actually worsened over the years.
According to National Sample Survey Organisation, nutritional intake of India is declining. NSSO says that between1993-94 and 2004-05 calorie intake in both rural and urban India has declined by 4.9 and 2.5 percent respectively. Protein intake in rural areas is down by 5 percent. More than two-thirds of rural Indians and 70 percent in urban Indians are reporting that they don't get a full intake of 2,700 kilo calories, defined to be a minimum norm. The percentage of people reporting that they don't get two square meals a day is still relatively large. The levels of undernourishment and malnourishment continue to be shockingly high as per the NSSO data.
FACT SHEET 2: PACE OF POVERTY REDUCTION SLOWING DOWN
We witnessed a high rate of GDP growth in the post 1991 period, which is claimed to be a big argument in favour of economic reforms. But, even the most vocal supporter of economic reforms Montek Singh Ahluwalia also concedes that reforms have not resulted in desired level of poverty reduction and decline in poverty is less than what the government had perceived. His confession is supported by the findings of NSS 61st Round data, which clearly speaks out that in the post reform period the pace of poverty reduction has not only been much lower than the official assessments made after NSS 55th Round, it is also less than the actual pace of reduction recorded during 1970’s and 1980’s. Thus, it is ample clear that the high rate of growth of GDP recorded in the post reform period has not made lives better for poor in the same proportion. Rather, in the post reform period inequalities have accentuated as shown by higher ‘Gini Coefficient’ (a measure of inequality), which shows an increase in ‘Gini Coefficient’ from 28.6% in 1993-94 to 30.5% in 2004-05 for Rural India and an increase from 34.4% in 1993-94 to 37.6% in 2004-05 in Urban India. Most notable is the fact that it is a reversal of the trend seen in the previous decade (1983 to 1993-94). These figures imply that poor have less claim on growth and rich have taken the bulk of the benefits from the GDP growth. These figures are not only true for all India, but are applicable for almost all states except a few. If we go on riding this high growth- pro reform phenomenon, it is an alarming signal for times to come.
FACT SHEET 3: AGONY OF JOBLESS GROWTH
The paradox of galloping growth and with deepening poverty in the country is explained by the phenomenon of jobless growth. No doubt GDP is rising and rising at a fast pace, but no enough jobs are being created. This has resulted in rising rate of unemployment in the country both in the rural and the urban areas. We note rate of unemployment which was 7.3. percent in urban areas and 7.2 percent in rural areas (males) in the year 1999-2000 as per 55th round of NSSO, which increased to 7.5 percent and 8.0 percent in urban and rural areas respectively. Similar is the condition with regard to females where rate of unemployment increased from 9.4 percent and 7.0 percent in 1999-2000 year as per 55th round of NSSO to 11.6 percent and 8.7 percent in the years 2004-05 in the urban and rural areas respectively. Between 2004-05 and 2009-10 total addition in employment has been only 2 millions as per 66th Round of NSSO.
FACT SHEET 4: DETERIORATING QUALITY OF EMPLOYMENT
Recently NSSO released report of its 66th Round. According to the report, number of casual workers increased by 219 lakhs in five years; between 2004-05 and 2009-10. On the other hand self-employed workers, mostly farmers, small and cottage industrialists and merchants have shown a decrease in their number by 251 lakh. This increase in number of casual labour is much higher than the previous rounds.
Number of salaried workers increased by only 58 lakh between 2004-05 and 2009-10; which is less than half of increase in salaried workers between 1999-00 and 2004-05. We find that casual labour as a percentage of total workforce increased to38.6 percent in rural areas and 17.5percent in urban areas in 2009-10. This was only 35.0 percent and 15.1 percent in rural and urban areas respectively. in 2004-05. It is noticeable that in even in 1993-94 casual labour constituted 35.6 percent and 18.3 percent in rural and urban areas respectively. Thus there is only a marginal decline in casual labour between 1993-94 and 2004-05 in urban areas but that trend has also reversed in 2009-10. Needless to say that casualisation of labour implies decline in incomes of workers.
Low Wages of Casual Labour
NSSO categorizes three types of wage earners. Wages of casual labour are low is evident from the fact that wages of salaried workers in rural areas was Rs 232 per day while in urban areas it is Rs 365 per day; Casual labour hired by the private sector is only Rs 93 and Rs 122 for rural and urban areas respectively. Labour hired for public (government) works was Rs 98 and Rs 86 for males and females respectively. Wages for labour hired for MNREGA was only Rs 91 and Rs 87 for males and females respectively.
Advocates of globalization and new economic policy are not prepared to believe that this policy could be wrong. They always try to boast of high rate of economic growth. It may be important to note that maximum deterioration in the quality of employment took place during the period when rate of growth was highest. Rate of growth of GDP accelerated to 8.5 percent between 2004-05 and 2009-10 and this is the period during which pace of casualisation was higher than the earlier period. Rather casual employment had dropped earlier. Normally employment should increase with economic growth. There is unanimity among economists that economic growth being experienced today is actually jobless growth because growth of employment is not commensurate with GDP growth. Whatever growth in employment had been there was limited to growth of casual labour at the cost of self employment. Not only that employment is not growing fast, employment has been shifting from regular and self employment to casual employment. In fact, period between 2004-05 and 2009-10 has been a period of growth of low paid jobs. Thus whatever increase in employment had been there it was limited to low paid casual employment. If we look at the composition of GDP over the years, we get the answer. We understand that more than half been constantly declining and has come to a low of only 14.4 percent. Whereas other sectors of the economy have been growing at the rate of 8 to 12 percent agriculture is lagging behind with zero to three percent growth rate. Growth has been limited to only a few sectors especially in the corporate entities. Even in corporate sector only a limited number is engaged in high end jobs and rest are getting low paid jobs of guards, drivers, cleaners etc. and that too as a contract labour.
FACT SHEET 5: NO RELIEF FROM CORRUPTION DESPITE GROWTH IN GDP
Recently published report by Transparency International states that transparency index of India has come down from 3.5 to 3.3 and ranking of India in terms of transparency has come down to 87 in list of 178 country. This has been mainly attributed to corruption in organising Common Wealth Games.
Ironically, the world's most corrupt countries are poor ones. Generally in rich countries we find more transparency due to compliance with law & order. This implies that with development transparency (integrity) index goes up, as institutional frame work would be put in place with regard to compliance with law and order. But contrary to international experience, in India, despite growing national and per capita income, corruption index is also growing. Progress due to genius and hard working Indian’s is being eaten away by unscrupulous politicians and bureaucrats and thus benefits of the development are not fully reaching the general public. Countries wealth is being cornered by these elements.
Revenues also get to see phenomenal growth, thanks to growing production and incomes of rich. For example, the central government tax revenue which was only Rs.9390 crores in 1980-81 increased to Rs. 5,34, 000 crores in 2010-11, that is, 55 times in just 30 years. But non-tax revenue could increase by only 43 times in the same period. This could have increased much more had these scams not been there. Surprisingly public sector enterprises, which are blamed for their incompetence, are contributing much more to the exchequer. Telecom sector has been a house for the worst scandals, starting from former Union Communications Minister Sukh Ram to A. Raja, another Union Communication Minister

FACT SHEET 6: INFLATION AND RISING DEBT BURDEN
These scams have a direct connection with the common man's life. Lack of revenue compels the governments to go for deficit budget. In 2010-11Finance Minister planned for a fiscal deficit of nearly Rs. 4 trillions. Last year this deficit was more than Rs. 4 trillion. Such a big deficit, could be filled by government borrowing, which would increase the burden of debt on our future generations. If the government is unable to raise sufficient loans from the public(including financial institution), it has to borrow from RBI. RBI in turn would print more currency notes to finance this lending to the government. This would result in growth of money supply, which is the main cause of inflation today. Therefore it is simple one to one relationship between corruption and inflation. Had the government been able to take this amount of Rs.1.76 trillion to its kitty, scenario of price rise would have been different. Neither the government had to print additional notes nor would debt burden on future generations have increased so much.
Education and health for all still a distant dream
Some time back a law was enacted by the parliament in the name of Right to Education. It’s a known fact that as per Directive Principles of the State Policy, as enumerated in the Constitution of India the government was expected to provide for universal primary education. Even after 60 years of the promulgation of the Constitution, to implement Right to Education. This amount is only one sixth of the loss to the exchequer, due to only 2G scam.
Provision of health is the primary responsibility of the government. The government has even declared its objective to achieve health for all in Millenniun Development Goals (MDGs). But due to paucity of funds government has been taking its hands off from public health services and common man has been left to the mercy of private institutions. According to Union Budget 2010-11, a provision of only 23,530 crore has been kept for Public Health and Family Welfare. According to a rough estimate if the government spends an additional amount of Rs.30,000, reasonable health facilities may be provided for the common man. Today, 230 out of one lakh mothers die while giving birth to their child. 66 out one thousand children do not live on their 5th birthday. We can bring revolutionary changes in all these conditions, provided we win over corruption.
FACT SHEET 7: GROWTH IS ALSO NOT DUE TO GLOBALIZATION
If we are one of the fastest growing nations in the world it is not because of globalisation. If we have a look at the composition of GDP and its growth, it is dearly indicated that agriculture has been completely neglected under the influence of foreign investment. Government has reduced its expenditure on agriculture.
Budgetary allocation for agriculture has been reduced from 27 per cent in the pre globalisation era to only 6 per cent now. Contribution of agriculture has come down from more than 25 per cent to less only 14.4 per cent. Sector which has grown fastest, that is service sector, is mainly due to growth in IT, BPO sector etc. This at best can be attributed to technological factors and Indian genius. If India has emerged as a hub for medical tourism it is because of the excellent human resource in the field of medicine, surgery and other related fields. India has pushed the established centres far behind and made its position on the top on the basis of excellent service at competitive prices. No country whatsoever has ever willingly provided us with any technology with regard to space, nuclear sciences or others. It is our scientists who have made it possible. To conclude we can say nobody can stop India now to become a global superpower. What we require is a self confidence, consistent efforts to educate our people at all levels, build understanding that world needs us more than we need them.
20 years of liberalization: Prof. Bhagwati Prakash
said it is an illusion that the economy is moving forward. In fact 64 years after independence, the Government also like to “NAREGA” kind of 84 artificial employment schemes are being undertaken outdated. Foreign trade deficit which was 1.5 billion dollars is more than $ 125 billion today. The losses are 65 billion dollars of Indian origin. To cover the rest of amount our reliance is increasing on foreign investment because of this our country’s benefit as money going out to foreign countries. Tax collection and the GDP ratio are low that’s why the government having a lack of fund. As a result, goverment is not taking interest in people welfare schemes and passing the buck to companies whether they are schools, colleges, hospitals or roads or civil services. Our defense spending of GDP prior to 1991 was 4 per cent and today it is down 2.5 per cent while our neighbor China is spending 6 percent. Our total production of small enterprises has reduced and increased the foreign control over the entire production system.Increased imports and an export has declined. Small scale industries has said that they have to stop production due to 62% Chinese goods industry. Local industries were the first brand is now Menufeccring contract. Jmbidvsvhl Kmamsvcumdj bit because of all has stopped. C Kwaj example, in telecommunications, the government did not make headway with Pळ Jmbidvsvhl telecommunications equipment bought from foreign companies. ळcch 62 per cent in the services sector of the country. Many Thj to. Through foreign investment, it is getting ready to open. This picture is 20 years of liberalization, the government is hiding. (DR ASHWANI MAHAJAN)

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भूमंडलीकरण के 20 वर्ष गरीबी, भूख, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार


भूमंडलीकरण के 20 वर्ष गरीबी, भूख, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार




भारत सरकार द्वारा 1991 से प्रारंभ नई आर्थिक नीति, जिसे उदारीकरण, निजीकरण और वैष्वीकरण (एल.पी.जी.) के रूप में जाना जाता है, वास्तव में मुख्य रूप से यह वैष्वीकरण की ही नीति थी। वर्ष 2011 को इस नीति को प्रारंभ हुये 20 वर्ष हो चुके है, इस संबंध में पर्याप्त अनुभव, जानकारियां और आंकड़े उपलब्ध हैं कि इस नीति का भली-भांति मूल्यांकन किया जा सके।




वैष्वीकरण और इसकी वकालत

सिद्धांतिक रूप से वैष्वीकरण से अभिप्राय है, बिना कोई बाधा के दुनिया के विभिन्न अर्थव्यवस्थाओं को एकीकृत करते हुए वस्तुओं और सेवाओं, प्रौद्योगिकी, पूंजी और मानव संसाधनों का मुक्त प्रवाह। वैष्वीकरण एक षब्द है जिसे चार मापदंडों पर देखा जा सकता है -

1. व्यापार बाधाओं में कमी करते हुए विभिन्न राष्ट्रों के बीच वस्तुओं और सेवाओं के मुक्त प्रवाह की अनुमति।

2. विभिन्न राष्ट्रों के बीच पूंजी के मुक्त प्रवाह हेतु वातावरण का निर्माण।

3. प्रौद्योगिकी के मुक्त प्रवाह हेतु वातावरण का निर्माण।

4. अंतिम लेकिन, विषेषतौर पर विकासषील देषों के परिप्रेक्ष में सबसे महत्वपूर्ण, ऐसे वातावरण का निर्माण जिससे दुनिया के विभिन्न देषों के बीच में श्रम (मानव संसाधनों) का मुक्त प्रवाह संभव हो सके।

भूमंडलीकरण के पैरोकार, विषेषतौर पर विकसित देष, भूमंडलीकरण की परिभाषा को पहले तीन मापदंडों तक सीमित करने का प्रयास करते हैं। यानि वे चाहते है कि ऐसी नीतियां एवं वातावरण का निर्माण हो ताकि देषों के बीच बिना रोक-टोक वस्तुओं और सेवाओं का व्यापार हो सके एवं पूंजी और प्रौद्योगिकी का मुक्त प्रवाह हो सके। इसलिए वे भूमंडलीकरण की बहस में उनके द्वारा तय किये गये मापदंडों पर ही बात करना चाहते हैं। लेकिन विकासषील देषों के कई अर्थषास्त्री यह मानते हैं कि भूमंडलीकरण की यह परिभाषा अपूर्ण है और यदि भूमंडलीकरण का अंतिम उद्देष्य पूरी दुनिया को एक गांव के रूप में बदलने का है, तो इसमें अनिवार्य रूप से मानव संसाधनों यानि श्रम का अबाध प्रवाह षामिल होना चाहिए।

भूमंडलीकरण के पैरोकार, भूमंडलीकरण को कई तर्कों के आधार पर सही ठहराते हैं -

1. विकासषील देष अंतर्राष्ट्रीय ऋणग्रस्तता से बचते हुए प्रत्यक्ष विदेषी निवेष के माध्यम से पूंजी जुटा सकते हैं।

2. विकासषील देष अनुसंधान और विकास में निवेष किये बिना विकसित देषों से उन्नत प्रौद्योगिकी प्राप्त कर विकास कर सकते हैं।

3. विकासषील देषों के उपभोक्ता अपेक्षाकृत बहुत कम कीमतों पर उन्नत उपभोक्ता वस्तुओं खासतौर पर टिकाऊ उपभोक्ता वस्तुओं को मंगा कर उपयोग कर सकते हैं। साथ ही साथ विकासषील देषों के लिए एक अवसर भी मिलता है कि वे अपना सामान विकसित देषों में बेच सके।

4. भूमंडलीकरण के माध्यम से ज्ञान का तेजी से प्रसार संभव है, जिससे विकासषील देष अपने अर्थव्यस्था में उत्पादन और उत्पादकता का स्तर अंतर्राष्ट्रीय मानकों के आधार पर बढ़ा सकते हैं।

5. परिवहन एवं संचार लागत को कम करते हुए वैष्वीकरण अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को बढ़ावा देता है और इस कारण से सकल घरेलू उत्पादक के प्रतिषत के रूप में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में खासी वृद्धि संभव होती है।

यानि भूमंडीकरण के पैरोकारों की बात मानी जाए तो भूमंडलीकरण विकास का इंजन और आधुनिकीकरण का द्योतक है। प्रौद्योगिकी को उन्नत करने वाली, उत्पादकता को बढ़ाने वाली और इस माध्यम से रोजगार में वृद्धि करने वाली और गरीबी घटाने वाली प्रक्रिया है।




भूमंडलीकरण का प्रभाव: आर्थिक संवृद्धि के बीच गहराती गरीबी

वैष्वीकरण के समर्थकों के दावों का विभिन्न देषों में कई षोधकर्ताओं ने परीक्षण किया है। वैष्वीकरण की कड़ी आलोचना अर्थषास्त्र में 2001 में प्राप्त नोबेल पुरस्कार विजेता और विष्व बैंक के प्रमुख अर्थषास्त्री जोज़ेफ स्टिग्लिटज़ ने अपनी पुस्तक ‘‘वैष्वीकरण और इसकी निराषाएं’’ में प्रस्तुत की है। वैष्वीकरण के सामाजिक आयाम पर विष्व आयोग ने भी विष्व भर में वैष्वीकरण के अनुभव पर विचार किया है और कई चैंकाने वाले तथ्य प्रस्तुत किए हैं।




विष्व आयोग ने स्पष्ट षब्दों में उल्लेख किया- ‘‘वैष्वीकरण का मौजूदा मार्ग बदलना होगा। इससे बहुत थोड़े लोगों को लाभ होता है।’’




हम वैष्वीकरण को मानवीय कल्याण और स्वतंत्रता के विस्तार का साधन बनाना चाहते हैं और स्थानीय समुदायों के पास जहां वे निवास करते हैं, लोकतंत्र और विकास लाना चाहते हैं।




यदि वैष्वीकरण के मानको के आधार पर जांच की जाए तो कहा जा सकता है कि भारत वैष्वीकरण के रास्ते पर काफी आगे बढ़ा है। भारत के नीति निर्माताओं ने भारतीय अर्थव्यस्था को षेष दुनिया के साथ एकीकृत करने का काम खूब किया है। भारत का निर्यात जो 1990-91 में सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) का मात्र 8.5 था वर्ष 2010-11 तक बढ़कर जी.डी.पी. के 14.4 प्रतिषत तक बढ़ गया। साथ ही साथ आयात 1990-91 में जी.डी.पी. के 8.4 से बढ़ता हुआ वर्ष 2010-11 तक 23.1 प्रतिषत तक पहुंच गया। साथ ही साथ व्यापार घाटा जो पहले जी.डी.पी. का 3.0 प्रतिषत ही था वह बढ़ते हुए 8.7 प्रतिषत तक पहुंच गया। पिछले 10 वर्षों में भारत ने षेष दुनिया से 390 अरब डाॅलर का विदेषी निवेष (प्रत्यक्ष एवं संस्थागत दोनों मिलाकर) प्राप्त किया। विदेषी निवेष जो पूर्व में नगण्य होता था अब बढ़कर कुल वैष्विक प्रत्यक्ष विदेषी निवेष का 3.4 प्रतिषत तक पहुंच चुका है।




लेकिन वैष्वीकरण के पैरोकारों के वे तमाम तर्क कि इससे भारत के आम लोगों का जीवन स्तर सुधर जायेगा, नितांत रूप से झूठे साबित हुए हैं।




भूख और कुपोषण: गलत आर्थिक नीतियों के कारण षर्मसार है राष्ट्र

हाल ही में एक न्यास द्वारा प्रकाषित रिपोर्ट में कहा गया कि भारत में भयंकर गरीबी के चलते पांच वर्ष से कम आयु के 42 प्रतिषत बच्चे कुपोषण का षिकार हैं ओर वे अपनी आयु की तुलना में कम भार वाले हैं, 59 बच्चों प्रतिषत बच्चे अपनी आयु की तुलना में ठिगने हैं। हंगामा नामक इस न्यास का कहना है कि उनका निष्कर्ष 73000 गृहस्थों के 109093 बच्चों के सर्वेक्षण पर आधारित है। इस सर्वेक्षण रिपोर्ट के लोकापर्ण के अवसर पर प्रधानमंत्री ने कहा कि कुपोषण और भूख की स्थिति के मद्देनजर राष्ट्र षर्मसार है।




यह कोई पहला सर्वेक्षण नहीं

उपरोक्त सर्वेक्षण देष में भूख और कुपोषण के संदर्भ में कोई पहला सर्वेक्षण नहीं है। अंतर्राष्ट्रीय खाद्य अनुसंधान संस्थान द्वारा वैष्विक भूख सूचकांक तैयार किया जाता है, जिसके अनुसार भारत खतरनाक भूख की श्रेणी में है और अंतर्राष्ट्रीय क्रम में भारत 2008 में 66वें स्थान पर था। इस संस्थान के अनुसार भारत की स्थिति पाकिस्तान और बंगलादेष से भी बदतर है क्योंकि भारत का वैष्विक भूख सूचकांक 25.2 और पाकिस्तान और बंगलादेष का 21.7 और 23.7 आंका गया।




कुपोषण के संदर्भ में भारत में स्वास्थ्य मंत्रालय के सहयोग से एक राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण समय-समय पर किया जाता है। इनके अनुसार देष में कुपोषण घटने की बजाय बढ़ रहा है। 1998-99 और 2005-06 के बीच में एनीमिया (खून की कमी) से पीडि़त बच्चों की संख्या 74.2 प्रतिषत से बढ़कर 78.9 प्रतिषत, विवाहित महिलाओं में एनीमिया का आपात 51.8 प्रतिषत से बढ़कर 56.2 प्रतिषत और गर्भवती महिलाओं में यह 49.7 प्रतिषत से 57.9 प्रतिषत तक पहुंच गया। इसमें कोई दो मत नहीं हो सकते कि एनीमिया का आपात सीधेतौर पर पोषण पर निर्भर करता है और एनीमिया का बढ़ता आपात देष में बढ़ते कुपोषण की कहानी बयान करता है।




यही नहीं अगर दूसरे मापदंड भी लें तो भी पोषण के संदर्भ में कोई बेहतर स्थिति दिखाई नहीं पड़ती। 2005-06 में 3 वर्ष से कम आयु के बच्चे जिनका भार कम पाया गया उनकी संख्या 40.4 प्रतिषत थी। 1998-99 में यह उससे थोड़ी अधिक 42.7 प्रतिषत थी। इसी आयु वर्ग में जो बच्चे अपनी आयु की तुलना में पतले थे उनकी संख्या 1998-99 में 19.7 प्रतिषत से बढ़कर 2005-06 में 22.9 प्रतिषत हो गई। मोटेतौर पर कहा जा सकता है कि पिछले डेढ़ दषक में पोषण के संदर्भ में कोई प्रगति नहीं हुई है, बल्कि कुपोषण में वृद्धि अवष्य दिखाई देती है। हाल ही में हुए सर्वेक्षण से यह बात और पुष्ट हो जाती है।




राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के द्वारा किये गये सर्वेक्षण भी देष में बढ़ते कुपोषण की ओर इंगित करते हैं। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के अनुसार वर्ष 1993-94 और 2004-05 के बीच ग्रामीण और षहरी दोनों क्षेत्रों में कैलोरी उपभोग क्रमषः 4.9 प्रतिषत और 2.5 प्रतिषत गिरा। ग्रामीण क्षेत्रों में प्रोटीन का उपभोग इस बीच 5 प्रतिषत घटा। 2004-05 में दो तिहाई ग्रामीण और 70 प्रतिषत षहरी भारतीयों ने यह बताया कि उन्हें 2700 कैलोरी नहीं मिलती। संगठन के आंकड़ों के अनुसार कुपोषण की स्थिति भयंकर पाई गई।




बढ़ती आर्थिक संवृद्धि और कुपोषण का विरोधाभास

आज हमारे देष के नीति निर्माता लगातार यह दावा कर रहें हैं कि देष आगे बढ़ रहा है। हमारी राष्ट्रीय आय 7 से लेकर 9 प्रतिषत की दर से बढ़ रही है। आज भारत आर्थिक ताकत के बल पर दुनिया में तीसरे पायदान पर खड़ा है। जाहिर है कि ऐसी स्थिति दुनिया में भारत का मानव विकास का रिपोर्ट कार्ड बेहतर नहीं कहा जा सकता। यही कारण है कि पिछले कई सालों से भारत मानव विकास की दृष्टि से विषेष आगे नहीं बढ़ पाया। वर्ष 2007 में भारत मानव विकास की दृष्टि से 134वें स्थान पर था और वर्ष 2011 में भी भारत का स्थान 134वां ही बना हुआ है। ऐसे में प्रष्न खड़ा होता है कि भारत में आम आदमी के कुपोषण की ऐसी स्थिति क्यों है ?




इस विरोधाभास को समझने के लिए हमें आर्थिक संवृद्धि की संरचना को समझना होगा। आर्थिक संवृद्धि का मतलब यह है कि हमारी जीडीपी में वृद्धि हो रही है। जीडीपी देष में उत्पादित होने वाली वस्तुओं और सेवाओं के मौद्रिक मूल्य को कहते हैं। पिछले दो दषकों में जीडीपी में होने वाली अधिकांष वृद्धि सेवाओं के क्षेत्र में हुई है। औद्योगिक क्षेत्र में भी आर्थिक संवृद्धि देखने को मिल रही है, लेकिन कृषि क्षेत्र में आर्थिक संवृद्धि की दर ऋणात्मक से 3-4 प्रतिषत के बीच देखने को मिलती है। इसका प्रभाव यह है कि कृषि जो 1980-81 में कृषि का जीडीपी में योगदान 38 प्रतिषत था, अब मात्र 14.3 प्रतिषत ही रह गया है। यह आंकड़े न केवल खाद्य पदार्थों की अपर्याप्त उपलब्धता की ओर इंगित करते हैं, बल्कि कृषि पर निर्भर 60 प्रतिषत जनसंख्या की आर्थिक विपन्नता की तरफ भी इषारा करते हैं। जाहिर है जब 60 प्रतिषत लोगों को केवल 14 प्रतिषत आय प्राप्त हो रही हो तो उनके कुपोषण का बढ़ना स्वभाविक ही है।




बढ़ती आर्थिक संवृद्धि के बीच गरीबी, भुखमरी और कुपोषण का यह नंगानाच देष के आर्थिक और सामाजिक ताने-बाने के लिए सही लक्षण नहीं है। नीति निर्माताओं को इस विषय पर विचार करना होगा। आज कुपोषण की इस स्थिति के लिए राष्ट्र षर्मसार है, लेकिन इसके दोषी देष के नीति निर्माताओं के अतिरिक्त कोई और नहीं।




गरीबी की कमी में धीमापन - देष ग्रस्ति है बहुआयामी गरीबी से

आजकल गरीबी की रेखा की सही परिभाषा देने की बात काफी चर्चा में है। देष की सरकार (योजना आयोग के माध्यम से) गरीबी की एक ऐसी परिभाषा दे रही है, जिसके अनुसार षहरी क्षेत्रों में 32 रूपये प्रतिदिन पाने वाला व्यक्ति गरीबी की रेखा से ऊपर माना जायेगा। प्रो. तेंदुलकर द्वारा गरीबी की रेखा की नई परिभाषा सुझाई गई और वर्ष 2004-05 में 37 प्रतिषत जनसंख्या को गरीबी की रेखा से नीचे माना गया। ध्यातव्य है कि इससे पहले तो योजना आयोग वर्ष 2004-05 में मात्र 27 प्रतिषत लोगों को ही गरीबी की रेखा से नीचे बता रहा था। इस परिभाषा में भुखमरी को ही गरीबी कहा गया था यानि जो व्यक्ति कैलोरी उपभोग के संदर्भ में भुखमरी से ऊपर था, वह गरीब नहीं माना गया। प्रो. तेंदुलकर द्वारा सुझाई गई परिभाषा में नई बात यह थी कि उसमें गरीब के उपभोग बंडल में षिक्षा और स्वास्थ्य भी आंषिक रूप से जोड़ने की बात कही गई। प्रो. तेंदुलकर की परिभाषा के अनुसार भी 2004-05 में षहरी क्षेत्रों में प्रतिदिन 19.5 रूपये पाने वाला गरीबी की रेखा से ऊपर माना गया।




षिक्षा और स्वास्थ्य का भी अभाव

इसी परिभाषा को आधार मानकर वर्तमान में 32 रूपये प्रतिदिन पाने वाले को गरीबी की रेखा से ऊपर माना गया। अभी हाल ही में योजना आयोग के मुख्य सलाहकार श्री प्रणव सेन ने कहा कि देष में अभाव और गरीबी के बारे में सरकार के विभिन्न विभागों द्वारा अलग-अलग प्रकार की परिभाषाएं इस्तेमाल की जाती है। लेकिन यदि हम वास्तविक धरातल पर देखें तो आज जनसंख्या का एक बड़ा भाग भुखमरी से पीडि़त है ही, मध्यम वर्ग का एक बड़ा हिस्सा षिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं के संदर्भ में आमतौर पर अभाव ग्रस्त है। षहरों और गांवों में रहने वाला आम आदमी आज अपने बच्चों को अच्छे स्तर की षिक्षा दिलाने में पूर्णतया अक्षम महसूस कर रहा है। उसी प्रकार बीमारी की स्थिति में इलाज के लिए वह आज अच्छे अस्पतालों में नहीं जा सकता। इस प्रकार षिक्षा और स्वास्थ्य के इन अभावों के चलते वह या तो षिक्षा और स्वास्थ्य सुरक्षा विहीन रहने को मोहताज है अथवा येन-केन-प्रकारेण उधार लेकर अपने बच्चों को पढ़ाने ओर अपने प्रियजनों के इलाज के लिए मजबूर है।




भूमंडलीकरण और निजीकरण के दौर में षिक्षा और स्वास्थ्य आज सबसे ज्यादा निजी हाथों में केन्द्रित होते जा रहे हैं। अधिकाधिक लाभ की संभावनाओं के कारण इस क्षेत्र में निजी निवेष तो हुआ है और सेवाओं का स्तर भी पहले से बेहतर हुआ है, लेकिन ये सेवाएं केवल उनके लिए हैं जो उनकी कीमत अदा कर सकते हैं। इसलिए गरीब भोजन के अभाव से ही नहीं बल्कि सरकार द्वारा षिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र से भी हाथ खींच लेने से भी षिक्षा और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत आवष्यकताओं के अभाव से भी पीडि़त है।




बहुआयामी गरीबी

ऐसे में संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम के द्वारा ‘बहुआयामी गरीबी सूचकांक’ विकसित किया गया है, जिसके अनुसार भोजन ही नहीं बल्कि षिक्षा, स्वास्थ्य, जीवन स्तर जिसमें बिजली, पेयजल, सफाई, ईंधन, परिसंपत्तियां इत्यादि षामिल हैं। यह बहुआयामी गरीबी सूचकांक (एम.पी.आई.) 104 देषों के 520 करोड़ लोगों के लिए बनाया गया है, जिसमें 170 करोड़ लोग गरीब माने गये हैं। भारत में जहां सरकारी परिभाषा के अनुसार मात्र 37 प्रतिषत लोग ही गरीबी की रेखा से नीचे माने गये हैं, इस व्यापक परिभाषा के अनुसार (वर्ष 2000 से 2008 के बीच) 53.5 प्रतिषत लोग गरीब माने गये हैं। इसके अतिरिक्त 16 प्रतिषत से भी अधिक लोग गरीबी के खतरे में हैं। एक अन्य महत्वपूर्ण बात यह है कि 37.5 प्रतिषत लोग षिक्षा के अभाव, 56.5 प्रतिषत स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव और 58.5 प्रतिषत लोग जीवन स्तर के अभावों से ग्रस्त माने गये हैं। बहुआयामी गरीबी सूचकांक की दृष्टि से भारत में यह सूचकांक 0.296 माना गया है, जबकि मानव विकास सूचकांक की दृष्टि से भारत से भी नीचे के कई देष गरीबी सूचकांक में भारत से भी कहीं बेहतर स्थिति में हैं। इसका अभिप्राय यह है कि मानव विकास सूचकांक भी वास्तव में बहुआयामी गरीबी को परिलक्षित नहीं करता है।




इससे यह निष्कर्ष नहीं निकालना चाहिए कि बहुआयामी गरीबी के संदर्भ में भारत में कोई प्रगति नहीं हुई है। वास्तव में हम देखते हैं कि षिक्षा के क्षेत्र में भारत ने खासी प्रगति की है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में 74 प्रतिषत लोग आज साक्षर हैं। पुरूषों में साक्षरता वर्ष 2001 में 75.3 से बढ़कर अब 82.14 प्रतिषत हो गई है। महिलाओं में भी साक्षरता 53.7 प्रतिषत से बढ़कर 65.5 प्रतिषत हो गई है। हालांकि स्वास्थ्य के सूचक के रूप में हमारे देष में प्रत्याषित आयु भी बढ़ी है, लेकिन जब हम स्वास्थ्य की सुविधाओं के संदर्भ में बात करें तो हमारी स्थिति अभी भी बहुत अच्छी नहीं है। वर्ष 2005-06 के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार 6 से 35 महीनों के आयु वर्ग के 79 प्रतिषत बच्चों में खून की कमी पाई गई और 15 से 49 वर्ष के आयु वर्ग में 56 प्रतिषत विवाहित महिलाओं में खून की कमी पाई गई। 38 प्रतिषत बच्चे अपनी आयु के हिसाब से ठिगने थे और 3 वर्ष के आयु से कम के 46 प्रतिषत बच्चे अपनी आयु के हिसाब से हल्के थे। 58 प्रतिषत लोग अभी भी पीने योग्य पानी के अभाव से ग्रस्त हैं।




बढ़ती असमानताएं

वर्ष 1990-91 से वर्ष 2009-10 के बीच राष्ट्रीय उत्पाद की वृद्धि दर औसत 7 प्रतिषत से भी अधिक रिकार्ड हुई। दसवीं पंचवर्षीय योजना में राष्ट्रीय उत्पाद की संवृद्धि दर 7.8 प्रतिषत की रही। लेकिन इसके साथ ही साथ देष में असमानताएं भी बढ़ी हैं। विषेषतौर पर जहां 1980-81 में कृषि का योगदान सकल देषीय उत्पाद में 38 प्रतिषत होता था, वह घट कर 2010-11 तक मात्र 14.2 प्रतिषत ही रह गया। ऐसे में हमारे पास एक चमकता भारत है, जिसमें आज 55 लोग ऐसे हैं जिनकी परिसम्पतियां 1 अरब डाॅलर से भी अधिक है, कुल 10-12 करोड़ लोगों का समृद्ध एवं मध्यम वर्ग है, जो विकास के तमाम लाभ उठा रहा है। दूसरी ओर लगभग 110 करोड़ वे गरीब लोग हैं, जो अपनी न्यूनतम आवष्यकताओं को भी पूरा नहीं कर पाते। देष में निगम क्षेत्र में संलग्न बड़े पूंजीपति और मैनेजर करोड़ों रूपये का पारिश्रमिक पाते है और लगभग 14 करोड़ मजदूर भूमिहीन आकस्मिक श्रमिक हैं, जो लगभग 100 रूपये या उससे कम की मजदूरी प्रतिदिन प्राप्त करते हैं।




इस प्रकार देष में व्याप्त असमानताओं के चलते 100 करोड़ से अधिक लोग वर्तमान में उपलब्ध निजी क्षेत्र में उच्च षिक्षा के अवसरों से पूर्णतया वंचित हैं। यही नहीं सरकार द्वारा उच्च षिक्षा से हाथ खींचने और सरकारी षिक्षण संस्थाओं में भी स्वपोषित कोर्स षुरू होने के कारण गरीब सरकारी क्षेत्र की षिक्षा सेवाओं से भी वंचित है। दूसरी ओर देष में स्वास्थ्य के क्षेत्र में निजी संस्थाओं के माध्यम से होने वाले विकास का भी गरीबों के लिए कोई मतलब नहीं है, क्योंकि वे उनके लिए कीमत अदा कर पाने में असमर्थ है। दूसरी ओर सरकारी अस्पतालों में इलाज की अपर्याप्त सुविधाएं गरीब को बिना इलाज दम तोड़ने को विवष कर रही हैं। अपने प्रियजनों का इलाज कराने के लिए गरीब अपने पास जो थोड़ी-बहुत सम्पत्ति होती है, उसे भी बेचने को विवष हो रहा है और गरीबी की रेखा के नीचे धकेला जा रहा है। गरीबी उन्नमूलन के सरकारी उपाय तभी सार्थक हो सकते हैं, जब अभावों के इन तमाम प्रकारों को भली-भांति समझकर गरीब आदमी का जीवन स्तर सुधारने का प्रयास हो।




बढ़ती बेरोजगारी की पीड़ा

एक तरफ तेजी से होते आर्थिक संवृद्धि और दूसरी ओर गहराती गरीबी का विरोधाभास रोजगार विहीन विकास के कारण है। यह सही है की जी.डी.पी. बढ़ रही है और तेजी से बढ़ रही है, लेकिन साथ ही साथ रोजगार के अवसर नहीं बढ़ रहे। देष में ग्रामीण और षहरी दोनों क्षेत्रों में बेरोजगारी लगातार बढ़ी है। 1999-2000 में राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के 55वें दौर के आंकड़े के अनुसार पुरूषों में षहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी की दर क्रमषः 7.3 प्रतिषत और 7.2 प्रतिषत थी और महिलाओं में यह क्रमषः 9.4 प्रतिषत और 7.0 प्रतिषत थी। यह 61वें दौर तक आते-आते 2004-05 में बढ़कर पुरूषों में क्रमषः 7.5 प्रतिषत और 8.0 प्रतिषत और महिलाओं में क्रमषः 11.6 प्रतिषत और 8.7 प्रतिषत पहुंच गई।




राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के 66वें दौर के आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2004-05 से 2009-10 के बीच 5 वर्षों में कुल 20 लाख रोजगार के अवसर ही जुटाये जा सके। यह तो आंकड़ों का खेल था कि तब भी सरकार ने बेरोजगारी की दर घटी हुई दिखाई।




घटिया होता रोजगार

कुछ समय पहले राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन ने अपने 66वें सर्वेक्षण दौर की रिपोर्ट जारी की है। इस रिपोर्ट में एक अत्यंत चिंताजनक बात सामने आई है, और वह है रोजगार में बढ़ती आकस्मिकता या यूं कहें कि अस्थिरता। नमूना सर्वेक्षण संगठन समय-समय पर रोजगार और बेरोजगारी से संबंधित रिपोर्ट प्रस्तुत करता है। हाल की रिपोर्ट के अनुसार 2004-05 और 2009-10 के बीच आकस्मिक श्रमिकों की संख्या में 219 लाख की वृद्धि हुई। पिछले दौर की तुलना में यह वृद्धि काफी ज्यादा है। स्थायी यानि वेतन पाने वाले श्रमिकों की बात कहें तो 2009-10 के दौर में यह वृद्धि पूर्व से आधी यानि मात्र 58 लाख की ही थी। स्वरोजगार युक्त श्रमिकों जिसमें अधिकतर किसान, लघु और कुटीर उद्योगपति और व्यापारी आते हैं; की संख्या में 251 लाख की कमी दर्ज की गई है।




इस बात में कोई संदेह नहीं है कि जब आकस्मिक रोजगार वाले श्रमिकों की संख्या में वृद्धि होती है तो रोजगार का स्तर घटता है और श्रमिकों के जीवन स्तर में कमी आती है। प्रतिषत आधार पर देखें तो पाते हैं कि 1993-94 में ग्रामीण क्षेत्रों में आकस्मिक रोजगार केवल 35.6 प्रतिषत और षहरी क्षेत्रों में 18.3 प्रतिषत था। 2009-10 में यह ग्रामीण क्षेत्रों में 38.6 प्रतिषत पहुंच गया और षहरी क्षेत्रों में यह 17.5 प्रतिषत रहा। 2004-05 की तुलना में 2009-10 में ग्रामीण और षहरी दोनों क्षेत्रों में आकस्मिकता वाला रोजगार तेजी से बढ़ा है। गौरतलब है कि यह प्रतिषत 2004-05 में ग्रामीण और षहरी क्षेत्रों में क्रमषः 35.0 और 15.1 प्रतिषत ही था।




नई आर्थिक नीति और भूमंडलीकरण के पैरोकार तो यह मानने के लिए कभी तैयार ही नहीं होते कि इस आर्थिक नीति में कुछ गलत भी हो सकता है। वे तो लगातार बढ़ती आर्थिक संवृद्धि का दंभ भरते हैं। गौरतलब है कि रोजगार में घटियापन उन्हीं वर्षों में सबसे ज्यादा बढ़ा जब आर्थिक संवृद्धि सबसे ज्यादा तेज थी। 2004-05 और 2009-10 में आर्थिक संवृद्धि की दर औसत रूप में 8 से 9 प्रतिषत रही, जबकि पूर्व के वर्षों में वह उससे कहीं कम थी। लेकिन पूर्व के वर्षों में आकस्मिक रोजगार घटा था। आम तौर पर माना जाता है कि आर्थिक संवृद्धि के साथ रोजगार भी बढ़ता है। लेकिन वर्तमान आर्थिक संवृद्धि अभी तक रोजगार विहीन आर्थिक संवृद्धि ही मानी जाती है, क्योंकि इसमें जी0डी0पी0 तो बढ़ी लेकिन रोजगार नहीं। पिछले पांच वर्षों में रोजगार में पहले से थोड़ी ज्यादा वृद्धि देखने को मिली, लेकिन वह रोजगार स्तरीय रोजगार नहीं था। वास्तव में इस कालखण्ड में कम मजदूरी वाला आकस्मिक रोजगार ही बढ़ा। यदि हम इस आर्थिक संवृद्धि की तस्वीर देखते हैं तो इस बात का उत्तर साथ ही साथ मिल जाता है। इस आर्थिक संवृद्धि में हमारी आधी से अधिक आबादी, जो कृषि पर निर्भर करती है, की कोई भागीदारी नहीं थी। जबकि अर्थव्यवस्था के दूसरे क्षेत्रों में 8 से 12 प्रतिषत की वृद्धि दर्ज की गई, कृषि की स्थिति षोचनीय ही बनी रही और उसमें मात्र षून्य से तीन प्रतिषत (औसतन 2 प्रतिषत) संवृद्धि दर्ज की गई।




साथ ही साथ अर्थव्यवस्था के षेष क्षेत्रों में भी आर्थिक संवृद्धि संगठित क्षेत्रों और कारपोरेट क्षेत्र तक ही सीमित रही। पूंजीपतियों का लाभ और कुछ खास लोगों के वेतन बढ़े लेकिन बहुसंख्यक लोगों का रोजगार का स्तर या तो बढ़ नही पाया या घट गया।




आकस्मिकता का मतलब

आकस्मिक रोजगार वह रोजगार होता है, जहां श्रमिकों को काम में स्थायीत्व और अन्य सुविधाओं का अभाव होता है। ठेकेदारी व्यवस्था में काम करने वाले अधिकतर श्रमिक जो गार्ड, सफाई कर्मचारी, ड्राईवर इत्यादि के नाते काम करते हैं, वे सभी इसी श्रेणी में आते हैं। आकस्मिक रोजगार घटिया इसलिए माना जाता है क्योंकि स्थायी कर्मचारियों की अपेक्षा आकस्मिक श्रमिकों की मजदूरी कम होती है और इसमें वृद्धि भी कम होती है। हम देखते हैं कि हमारे आस-पास ठेकेदारी व्यवस्था के अंतर्गत काम करने वाले गार्ड, सफाई कर्मचारी इत्यादि अत्यंत अमानवीय परिस्थितियों में काम करते हैं और उनका वेतन भी गुजारे लायक वेतन से कहीं कम होता है। इन्हें मजदूरी के अतिरिक्त कुछ और भत्ते इत्यादि भी नहीं मिलते।







दूसरी ओर वेतनभोगी स्थायी मजदूरों को बोनस, मकान, किराया भत्ता, दवाई और इलाज के लिये खर्च, मुफ्त टेलीफोन, यातायात भत्ता/कार इत्यादि तमाम प्रकार की सुविधायें मिलती हैं अथवा इन सुविधायों के बाजार मूल्य के आधार पर भरपाई होती है।




आकस्मिक श्रमिकों की निम्न मजदूरी

जिस मजदूरी पर आकस्मिक श्रमिकों का गुजारा चलता है वह भी बहुत ही निम्न स्तर की होती है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार तीन प्रकार के अस्थायी मजदूरों के लिये अलग-अलग मजदूरी की गणना की गई है। षहरी क्षेत्रों में स्थायी कर्मचारियों की मजदूरी औसत 365 रूपये और ग्रामीण क्षेत्रों में यह 232 रूपये आंकी गई है। जबकि निजी क्षेत्र के कार्यों के लिये भाड़े पर लिये गये आकस्मिक मजदूरों की मजदूरी षहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में क्रमषः 122 रूपये और 93 रूपये ही है।




महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के अलावा ग्रामीण क्षेत्रों में यह मजदूरी पुरूषों के लिये 98 रूपये और महिलाओं के लिये 86 रूपये थी। रोजगार गारंटी योजना और सरकारी प्रकल्पों पर भाड़े पर लिये गये मजदूरों की मजदूरी क्रमषः पुरूषों और महिलाओं के लिये मात्र 91 रूपये और 87 रूपये आंकी गई है।




इसके अतिरिक्त यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि दिहाड़ीदार मजदूरों को वर्ष भर काम नहीं मिलता। ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत भी काम तो केवल 100 ही दिन मिल पाता है। षेष मजदूरों को तो उतना भी काम नसीब नहीं होता। वेतनभोगी मजदूरों से काम के दिनों में एक चैथाई से एक तिहाई ही मजदूरी और वास्तव में वर्ष भर में मात्र 100 दिनों से भी कम रोजगार की स्थिति, देष में इन मजदूरों की बदतर स्थिति बयान करती है।




नई आर्थिक नीति है दोषी

इसके साथ मजदूरों में बढ़ती आकस्मिकता और अस्थायीत्व अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है। वास्तव में नई आर्थिक नीति के चलते कृषि, लघु और कुटीर उद्योगों में स्वरोजगार घट रहा है। इसके साथ सरकारों द्वारा किसानों की भूमि का जबरन अधिग्रहण, किसान से उसका परंपरागत रोजगार छीन रहा है। ऐसे में स्वरोजगार युक्त श्रमिकों में मात्र 5 वर्षों में 251 लाख की कमी और उन स्वरोजगार युक्त लोगों का आकस्मिक श्रमिक के रूप में बदलाव, देष में आम मजदूर और किसान की बदहाली की ओर इषारा कर रहा है।




नई आर्थिक नीति के पैरोकारों को विचार करना होगा कि केवल जी0डी0पी0 आधरित आर्थिक संवृद्धि से आम आदमी के जीवन में सुधार नहीं हो सकता। लेकिन जब इस जी0डी0पी0 को बढ़ाने की कवायद में आम आदमी गरीबी की ओर जा रहा हो, तो उस नीति का परित्याग कर जनोन्मुखी आर्थिक नीति बनानी होगी। कृषि, लघु उद्योग और अन्य स्वरोजगार प्रदान करने वाले क्षेत्रों का विकास और बचाव ही एकमात्र उपाय है।




सरकार पर बढ़ता कर्ज

अभी हाल ही में ग्रीस समेत यूरोपीय समुदाय के कई देष बढ़ते सरकारी कर्ज के चलते अपनी संप्रभुता को खोने का दंष सह रहे हैं। हाल ही में ग्रीस की संसद द्वारा यूरोपीय समुदाय के 130 अरब यूरो के सहायता पैकेज की षर्त के अनुसार कटौती प्रस्तावों को पारित किया है। ग्रीस की जनता के भारी विरोध के बावजूद, ग्रीस को आर्थिक संकट से उबारने के लिए उठाया गया यह कदम वर्तमान परिस्थितियों में सही ठहराया जा सकता है, लेकिन जिस प्रकार से ग्रीस को कटौती के लिए बाहरी ताकतों द्वारा मजबूत किया जा रहा है, वह ग्रीस के संप्रभुता के खतरे की ओर सीधा इषारा कर रहा है। इसी प्रकार से इटली, पुर्तगाल सहित कुछ अन्य देष भी इसी प्रकार के संप्रभुता के संकट से जूझ रहे हैं।




सवाल पैदा होता है कि ऐसा क्यों हो रहा है, आखिर संप्रभुता के संकट के कारण क्या हैं ? ग्रीस, इटली, पुर्तगाल और जर्मनी सरीखे यूरोपीय देषों में सरकारों के बढ़ते खर्च और उसके कारण लिए जा रहे कर्ज के कारण सरकार को कर्ज वापसी में होने वाली कठिनाई और संभावित कोताही ने इन देषों के लिए संप्रभुता का संकट खड़ा कर दिया है। मात्र 130 अरब यूरो के सहायता पैकेज के लिए ग्रीस की सरकार को यूरोपीय समुदाय की षर्तों के अनुसार अपनी आर्थिक नीतियां बदलनी पड़ रही हैं। अत्यंत जरूरी सामाजिक सुरक्षा संबंधी खर्चों में भी कटौती की जा रही है। कमोबेष इस प्रकार के संकट से जूझ रहे अन्य यूरोपीय देषों में भी संप्रभुता के संकट के बादल मंडरा रहे हैं।




कर्ज के भंवर में फंसता भारत

हाल ही में रिजर्व बैंक के गर्वनर ने चेतावनी दी है कि यदि राजकोषीय घाटे को रोकने के कारगर कदम नहीं उठाये गये तो भारत भी कर्ज के भंवर में फंस सकता है। भारत में केन्द्रीय सरकार का कर्ज अब जीडीपी के 65 प्रतिषत तक पहुंच चुका है। उभरती अर्थव्यवस्थाओं में हमारा कर्ज-जीडीपी अनुपात हंगरी के बाद सबसे अधिक है। वर्ष 2011-12 में बजट अनुमानों के अनुसार केन्द्र सरकार का राजकोषीय घाटा 4.13 लाख करोड़ रूपये था। कहा जा रहा है कि वास्तव में यह घाटा इससे कहीं अधिक रहेगा। इस घाटे की आंषिक रूप से पूर्ति रिजर्व बैंक से उधार लेते हुए नये नोट छाप कर की जायेगी, लेकिन इस घाटे की अधिकतम भरपाई पूर्व के अनुसार अतिरिक्त ऋण जुटाकर ही की जायेगी। केन्द्र सरकार पर कुल कर्ज 2002-03 में मात्र 15.59 लाख करोड़ से बढ़ते हुए 2011-12 तक 43.53 लाख करोड़ रूपये हो चुका है। इसके अतिरिक्त 18.2 लाख करोड़ रूपये का कर्ज राज्य सरकारों पर है। वर्ष 2011-12 के बजट में केन्द्र सरकार को मात्र ब्याज की अदायगी में 2.68 लाख करोड़ रूपये खर्च करने पड़े। यदि केन्द्र सरकार का कर्ज इसी प्रकार से बढ़ता गया तो हर बार टैक्सों से होने वाली प्राप्तियों का एक बड़ा हिस्सा ब्याज की अदायगी में ही चला जायेगा। ऐसे में सरकार के पास षिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सामाजिक सेवाओं पर खर्च करने के लिए धन नहीं बचेगा और हर बार इन खर्चों की पूर्ति के लिए सरकार को और ज्यादा ऋण लेने पड़ेंगे।




अपने ही संकल्पों को पूरा नहीं कर पाई सरकार

कुछ वर्ष पूर्व सरकार ने एफ.आर.बी.एम. कानून पास करते हुए स्वयं पर यह अंकुष लगाया था कि राजकोषीय घाटे को कम करते हुए उसे तीन वर्षों में 2.5 प्रतिषत तक लाया जाएगा, लेकिन सरकार अपने इस संकल्प पर अडिग न रह सकी और अपने ही संकल्प की धज्जियां उड़ाते हुए वर्ष 2008-09 में राजकोषीय घाटे को लगभग 7 प्रतिषत तक पहुंचा दिया गया। सरकार ने इसके लिए यह तर्क दिया कि वैष्विक मंदी से उबरने के लिए सरकार को एक ओर करों में छूट देनी पड़ी और दूसरी ओर सरकारी व्यय बढ़ाना पड़ा। वित्त मंत्री का कहना है कि सरकार एफ.आर.बी.एम. एक्ट के अनुरूप अपने राजकोषीय घाटे को कम करके उसे 2.5 प्रतिषत पर लाने के लिए संकल्पित है। लेकिन वर्ष 2011-12 में भी राजकोषीय घाटा जीडीपी का लगभग 6 प्रतिषत रहने का अनुमान है। यदि राज्य सरकारों का राजकोषीय घाटा भी इसमें जोड़ दिया जाए तो कुल राजकोषीय घाटा जीडीपी का 10 प्रतिषत हो जाता है। स्वभाविक है कि बड़े राजकोषीय घाटे देष को कर्ज के बड़े भंवर की ओर धकेल रहे हैं।




विदेषी कर्ज और उभरते खतरे

देष पर विदेषी कर्ज भी लगातार बढ़ता जा रहा है। 2005 में विदेषी कर्ज जो मात्र 134 अरब डालर ही था, वह बढ़ता हुआ 2011 में 306 अरब डालर तक पहुंच गया। हाल ही के वर्षों में न केवल विदेषी कर्ज में भारी वृद्धि हुई है, बल्कि कुल विदेषी कर्ज में लघुकालिन विदेषी कर्ज 2006-07 में 20 प्रतिषत से बढ़ता हुआ हाल ही में 40 प्रतिषत तक पहुंच गया है। इसके चलते हमारा विदेषी मुद्रा भंडार जो मात्र 293 अरब डालर का है, उसका अधिकांष हिस्सा इस लघुकालिन विदेषी कर्ज को चुकाने में ही खर्च हो सकता है। ऐसे में अन्य मुद्राओं की तुलना में रूपया और भी ज्यादा कमजोर हो सकता है। बढते विदेषी कर्ज और खासतौर पर लघुकालिन विदेषी कर्ज का मुख्य कारण हमारा बढ़ता व्यापार घाटा है। लगातार बढ़ते व्यापार घाटे के कारण हमारी सेवाओं के बड़े निर्यात और प्रवासी भारत द्वारा भेजे जा रहे अपार धन के बावजूद हमारा भुगतान षेष का घाटा लगातार बढ़ता हुआ वर्ष 2010-11 में 130.5 अरब डालर तक पहुंच गया है। भुगतान षेष का यह घाटा देष पर विदेषी कर्ज बढ़ाने का बड़ा सबब बन रहा है।




आर्थिक नीतियों में जरूरी हैं बड़े बदलाव

पिछले वर्षों में सरकारों की लोकलुभावन नीतियों के चलते सरकारी बजट में अनुषासनहीनता लगातार बढती जा रही है। हमारी सरकारों द्वारा अपनाई जाने वाली भूमंडलीकरण की नीतियों के कारण पूंजी प्रधान तकनीकों का उपयोग तो बढ़ा ही है, विदेषों से बढ़ते आयातों के कारण देष में लघु और कुटीर उद्योगों में रोजगार के अवसर भी कम हुए हैं। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन द्वारा प्रकाषित 66वें दौर की रिपोर्ट के अनुसार देष में स्वरोजगार 2004-05 और 2009-10 के बीच 251 लाख घटा और उसके स्थान पर आकस्मिक रोजगार 220 लाख बढ़ा। ऐसे में घटते रोजगार के अवसर सरकार को नरेगा जैसी रोजगार गारंटी योजनाएं चलाने के लिए बाध्य करती है, जिन पर हर वर्ष 40 हजार करोड़ रूपये से भी अधिक का खर्च आता है। सरकार द्वारा कृषि की अनदेखी के चलते किसानों की घटती आमदनियां और उनपर बढ़ता कर्ज का बोझ सरकार को कर्ज माफी की योजना लाने के लिए प्रेरित करता है। लेकिन ये ऐसे गैर जरूरी सरकारी खर्च हैं जिनसे रोजगार प्रधान और कृषि विकास की आर्थिक नीतियों के माध्यम से बचा जा सकता है। साथ ही साथ सरकारों को फिजूल खर्ची से बचते हुए अपने खर्चों पर अंकुष लगाना होगा। नीतियों के सही मिश्रण से ही कर्ज के इस भंवर से बचा जा सकता है।




अर्थव्यवस्था के कुप्रबंधन से त्रस्त आम आदमी

2009 में आम चुनाव से पहले यूपीए । सरकार ने पेट्रोल की कीमतों में 9 रूपये की कमी थी, लेकिन जैसे ही चुनाव संपन्न हुए, उसके कुछ ही समय बाद दो किष्तों में पेट्रोल का दाम उससे ज्यादा बढ़ा दिया गया। 2010 में पेट्रोल की कीमतें कई बार बढ़ाई गई। पहले से भारी मुद्रा स्फीति की मार झेल रहा आदमी सरकार की इस नीति से बिल्कुल असहाय सा हो गया है। 15 सितम्बर 2011 को पेट्रोलियम कंपनियों ने पेट्रोल की कीमत फिर से 3 रूपये बढ़ा दी और दिल्ली में पेट्रोल लगभग 67 रूपये प्रति लीटर हो गया। इससे दो माह पूर्व ही कंपनियों ने रसोई गैस पर 50 रूपये प्रति सिलेण्डर, डीजल पर 3 रूपये और कैरोसिन पर 2 रूपये प्रति लीटर बढ़ोतरी की थी। ध्यातव्य है कि जुलाई 2010 में दिल्ली में पेट्रोल 43 रूपये प्रति लीटर बिकता था। इसी प्रकार डीजल और रसोई गैस भी अभी से बहुत सस्ती थी। हालांकि पेट्रोलियम पदार्थों का बढ़ना कोई नई बात नही है। नया यह है कि पहले ये कीमतें सरकारी नियंत्रण में थी लेकिन जून 2010 से ये बाजारी नियंत्रण में चली गई।




16 सितम्बर 2011 को भारतीय रिजर्व बैंक ने मार्च 2010 से लगातार 12वीं बार रेपोरेट और रिवर्स रेपोरेट में 0.25 प्रतिषत की वृद्धि करते हुए उसे क्रमषः 8.25 प्रतिषत और 7.25 प्रतिषत कर दिया है। भारतीय रिजर्व बैंक का कहना है कि यह कदम लगातार बढ़ती महंगाई के मद्देनजर उठाया गया है। रेपोरेट वह ब्याज दर होती है, जिस पर बैंक रिजर्व बैंक से उधार लेते हैं। रिवर्स रेपोरेट वह ब्याज दर होती है, जिस पर बैंक अपना पैसा रिजर्व बैंक के पास जमा करते हैं।




भारतीय रिजर्व बैंक के द्वारा मात्र 17 से भी कम महीनों में 12 बार ब्याज दरों में बढ़ोत्तरी सीधे तौर पर संकुचनवादी मौद्रिक नीति मानी जा सकती है। सामान्यतौर पर माना जाता है कि महंगाई का प्रमुख कारण मांग में वृद्धि होता है। वस्तुओं की कम उपलब्धता और बढ़ती मांग कीमतों पर दबाव बनाती है, इसलिए रिजर्व बैंक परंपरागत तौर पर ब्याज दरों में वृद्धि कर कीमतों को षांत करने का प्रयास करता है। लेकिन विडंबना यह है कि इतने कम समय में ब्याज दरों में भारी वृद्धि के बावजूद कीमत वृद्धि थमने का नाम नहीं ले रही और अगस्त माह तक आते-आते पिछले वर्ष की तुलना में महंगाई 9.78 प्रतिषत तक बढ़ गई। खाद्य पदार्थों में यह वृद्धि लगभग 10 से 13 प्रतिषत के बीच बनी हुई है। लेकिन रिजर्व बैंक की मृग-मिरीचिका का कोई अंत नहीं है।




नीची ब्याज दरों के कारण विकास को मिली गति

यदि पिछले 12 वर्षों का हिसाब देखें तो पाते हैं कि कृषि की विकास दर कम होने के बावजूद अन्य क्षेत्रों में आमदनियां बढ़ी और अर्थव्यवस्था की सकल संवृद्धि दर 6.5 से 9 प्रतिषत के बीच रही। इसका सबसे बड़ा कारण यह था कि इस दषक के पहले 6-7 वर्षों तक कीमतों में वृद्धि को काफी हद तक काबू में रखा जा सका। कीमतों में अपेक्षित नियंत्रण के चलते ब्याज दरें घटने लगी। हालांकि घटती ब्याज दरों ने एक ऐसे वर्ग, जो ब्याज की आय पर आधारित था, को प्रभावित तो किया, लेकिन घटती ब्याज दरों ने देष में घरों, कारों, अन्य उपभोक्ता वस्तुओं इत्यादि की मांग में अभूतपूर्व वृद्धि की। कम ब्याज दरों के चलते सरकार द्वारा अपने पूर्व में लिए गए ऋणों पर ब्याज अदायगी पर भी अनुकूल असर पड़ा। हाऊसिंग, इन्फ्रास्ट्रक्चर और अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों में तेजी से विकास होना षुरू हुआ और देष दुनिया की सबसे तेज बढ़ने वाली अर्थव्यवस्थाओं में चीन के बाद दूसरे स्थान पर आ गया। यानि कहा जा सकता है कि भारत की आर्थिक संवृद्धि की गाथा में ब्याज दरों के घटने की एक प्रमुख भूमिका रही है।




ब्याज दरों में वृद्धि का मध्यम वर्ग के लिए मतलब

आज बढ़ती आमदनियों के युग में मध्यम वर्ग, विषषतौर पर मध्यम वर्गीय युवा अपने जीवन स्तर को ऊंचा उठाने की जुगत में रहता है। ऐसे में अच्छा और अपना घर, कार अथवा मोटर साईकिल और जीवन का अन्य साजो समान खरीदने के लिए वह बैंकों से उधार लेता है और उसे किष्तों यानि ईएमआई से चुकाता है। पष्चिमी देषों से आई इस पद्धति से जीवन स्तर तो बेहतर हुआ, लेकिन आम आदमी की देनदारियां भी बढ़ गई। यह देनदारियां सामान्यतः स्थिर ब्याज दर पर आधारित नहीं होती। बढ़ते ब्याज दर से ईएमआई भी बढ़ जाती है। ऐसे में मध्यम वर्ग की ईएमआई बढ़ते जाने से रोजमर्रा के लिए उसके पास आमदनी बहुत कम बचती है।




पेट्रोलियम पदार्थों की कीमत और आदमी

सरकार का यह तर्क है कि तेल कंपनियों के बढ़ते घाटे के मद्देनजर पेट्रेलियम पदार्थों की कीमतों का बढ़ाना अवष्यांभावी है। लेकिन हमें यह भी समझना चाहिए कि पेट्रोलियम पदार्थ उपभोग का मात्र एक पदार्थ नहीं है। यह यातायात, उद्योग आदि के लिए एक कच्चा माल भी है। जाहिर है कि किसी भी उद्योग के कच्चे माल की कीमतों में वृद्धि होने पर उस उद्योग द्वारा उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं की कीमतें भी बढ़ जाती है। यानि बसों और यातायात के अन्य साधनों के किराये तो बढ़ेंगे ही साथ ही साथ वस्तुओं की उत्पादन लागत बढ़ने के कारण उनकी कीमतों में भी वृद्धि होगी।




पेट्रोलियम कंपनियों को घाटे का झूठ

पहले सरकार आम व्यक्ति की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए पेट्रोलियम कीमतों को निर्धारित करती थी और पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतें वर्ष में एक या दो बार से ज्यादा नहीं बढ़ाई जाती थी। और कभी कभी तो कच्चे तेल की कीमतों में कमी के चले पेट्रोलियम कीमत को कम भी किया गया। सरकार कीमतों को स्थिर रखने के लिए बजट में भारी प्रावधान करते हुए पेट्रोलियम कंपनियों को कोई बहुत बड़ी सहायता भी नहीं दे रही थी। पेट्रोलियम कंपनियों को यह निर्देष था कि वे घाटा होने की स्थिति में ‘आॅयल बांड’ निर्गमित करके उससे अपने घाटे की भरपाई करें। सब जानते है कि अंतराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतें लगातार एक जैसी नहीं रहती, कभी कीमतें बढ़ती है तो कभी कीमतें बहुत कम हो जाती है। पिछले एक वर्ष में अंतराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतें 64 डाॅलर प्रति बैरल से लेकर 90 डाॅलर प्रति बैरल तक रिकाॅर्ड की गई। यदि पिछले 2 वर्षों का हिसाब लें तो अंतराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की न्यूनतम कीमत 34.57 डाॅलर प्रति बैरल रिकाॅर्ड की गई। इसलिए पेट्रोलियम कंपनियों को पुरानी व्यवस्था यानि कीमतों पर सरकारी नियंत्रण में भी कोई नुकसान नहीं होता था। यदि इन कंपनियों का हिसाब-किताब देखें तो वर्ष 2008-09 में ओ.एन.जी.सी को 16041 करोड़ रूपये, ‘गैल’ को 2814 करोड़ रूपये, इंडियन आॅयल को 2570 करोड़ रूपये और आॅयल इंडिया को 2166 करोड़ रूपये का लाभ हुआ। वर्ष 2009-10 में यह लाभ और ज्यादा बढ़ता हुआ क्रमषः 16745 करोड़ रूपये, 3139 करोड़ रूपये, 10321 करोड़ रूपये और 2611 करोड़ रूपये हो गया। इन दोनों वर्षों में पुरानी व्यवस्था लागू थी। इसके अलावा एक अन्य रोचक बात यह है कि 217 सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठानों द्वारा जो 92593 करोड़ रूपये का लाभ हुआ, उसमें मात्र तेल कंपनियों द्वारा ही 32857 करोड़ रूपये का लाभ हुआ। यानि कुल लाभ का 36 प्रतिषत मात्र पेट्रोलियम कंपनियों से ही प्राप्त हुआ। यानि पेट्रोलियम कंपनियों के नुकसान का तर्क सीधे तौर पर गलत सिद्ध होता है। एक अन्य महत्वपूर्ण बात यह है कि पेट्रोलियम पदार्थों पर करों से केन्द्र और राज्य सरकारों को लगभग 2 लाख करोड़ रूपये का राजस्व भी प्राप्त होता है। ऐसे में यदि पेट्रोलियम पदार्थों के वितरण में थोड़ा बहुत नुकसान भी हो तो भी सरकारें अपने इस राजस्व में से उसकी भरपाई आसानी से कर सकती हैं और सामान्य जन को महंगाई के इस आक्रमण से बचा सकती हैं।




महंगी होती दवाईयां

देष की 1978 में घोषित दवा नीति के अनुसार विदेषी कंपनियों के कार्यकलापों पर कुछ अंकुष लगाये गये थे और भारतीय कंपनियों को वरीयता देने का प्रावधान भी उसमें षामिल था। 1979 के दवा मूल्य नियंत्रण आदेष के अनुसार 347 दवाईयों पर कीमत नियंत्रण का प्रावधान लागू था। लेकिन हाल ही के वर्षों में विदेषी कंपनियों द्वारा भारतीय कंपनियों के अधिग्रहण के बाद इन प्रावधानों को कुंद किया जा रहा है और अब देष का दवा मूल्य नियंत्रण आदेष केवल 76 दवाओं तक ही सीमित है और इस कारण से आम आदमी को दवाईयो की अधिक कीमतें तो देनी ही पड़ रही हैं, साथ ही साथ दवाईयों के गैर जरूरी मिश्रण भी अब बढ़ते जा रहे हैं। पिछले कुछ समय से बड़ी भारतीय दवा कंपनियों का विदेषी कंपनियों द्वारा तेजी से अधिग्रहण किया जा रहा है। कुछ वर्ष पूर्व देष की सबसे बड़ी दवा कंपनी ‘रैनबैक्सी’ को जापान की एक कंपनी ‘डाइची सैन्क्यो’ द्वारा खरीद लिया गया। उसके बाद ‘मैट्रिक्स लैबोरेटरी’ को अमेरिकी कंपनी ‘माइलन’, ‘डाबर फार्मा’ को सिंगापुर की कंपनी ‘फ्रैसीनियस कैबी’, ‘षांता बायटैक’ को फ्रांस की कंपनी ‘सैनोफी एवेंतीस’ और ‘औरचिड कैमिक्लस’ को अमेरिका की ‘हौसपीरा’ और ‘पीरामल हैल्थ’ केयर को अमेरिका की ही ‘एबट लैबोरेटरी’ द्वारा अधिग्रहित कर लिया गया। इसके अतिरिक्त कई भारतीय कंपनियों के विदेषी कंपनियों के साथ संयुक्त उपक्रम और अन्य समझौते भी हो रहे हैं। जैसे- ‘डाॅ. रेडिज़’ के साथ ‘जीएसके’ का; ‘फाइजर’ का तीन कंपनियों के साथ; एबट का ‘कैडिला हेल्थ केयर’ के साथ और ‘एस्ट्रा जैनेका’ का ‘टोरेंट’ के साथ समझौता हुआ है। ऐसे में एक बड़ा खतरा आ खड़ा हुआ है कि कहीं देष का सारा दवा उद्योग विदेषी कंपनियों के हाथ मे न चला जाए। इसके कारण देष में दवाईयां और ज्यादा महंगी होगी और आम आदमी के पहुंच से बाहर हो जायेंगी।




लेकिन षायद नीति-निर्माताओं की प्राथमिकता में आम आदमी नहीं है। जिस प्रकार से महंगाई बढ़ रही है लगता है कि सरकार का उस पर कोई अंकुष नहीं रह गया है। सरकार द्वारा कृषि की अनदेखी करने के कारण खाद्य पदार्थों की कीमतें तो लगातार बढ़ ही रही हैं। बढ़ते ब्याज की अदायगी, बढ़ते सरकारी ऋण और सरकारी घाटे को पूरा करने के लिए लगातार मुद्रा की पूर्ति में वृद्धि महंगाई की आग में घी डालने का काम कर रही है। ऐसे में ब्याज दरों में अंधा-धुंध वृद्धि देष के विकास की गति को थाम सकती है। अर्थव्यवस्था के कुप्रबंधन की यह पराकाष्ठा कही जा सकती है। जरूरी है कि सरकार महंगाई को रोकने में ब्याज दरों को बढ़ाने के अतिरिक्त और उपाय सोचे और पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों की बाजारी नियंत्रण की व्यवस्था को समाप्त करते हुए सरकारी नियंत्रण की नीति को पुनः प्रभावी करे।




कुप्रबंधन बनाम सुप्रबंधन

स्पष्ट है कि पिछले कुछ वर्षों से यूपीए सरकार के द्वारा जो आर्थिक नीतियां अपनाई जा रही हैं, उससे महंगाई तो बढ़ी ही है साथ ही विकास की संभावनाएं भी उत्तरोत्तर कम हो रही हैं। आम आदमी केवल खाने-पीने की वस्तुओं की महंगाई से नहीं बल्कि पेट्रोल, डीजल और गैस की भयंकर रूप से बढ़ती कीमतों से भी त्रस्त हैं। एनडीए सरकार के समय से घटती ब्याज दरों के कारण जिन लोगों कम ईएमआई के आर्कषण में घर और अन्य साजो समान खरीदे, अब बढ़ती हुई ईएमआई के कारण परेषान हैं। कम ब्याज के कारण देष का इन्फ्रास्ट्रक्चर जो तेजी से विकास कर रहा था, अब थम सा गया है। अब नई सड़कों का निर्माण लगभग रूक गया है और जो एयरपोर्ट इत्यादि नये बन भी रहे हैं, भारी उपयोग षुल्क के कारण आम आदमी को सुविधा के बजाय बढ़ते वायु यातायात के किरायों के रूप में मुष्किल का सबब बन गये हैं।




विकास की ऊंची दर के लिए जरूरी है कि ब्याज दरों को नीचा रखा जाए। लेकिन बढ़ती महंगाई के दौर में यह बात मुष्किल हो जाती है। एक ओर तो रिजर्व बैंक को महंगाई पर काबू करने के लिए ब्याज दरों में वृद्धि करनी पड़ती है, तो दूसरी ओर ब्याज अर्जित करने वाले वर्ग को बचत करने और उसे बैंकों के पास जमा करने हेतु प्रेरित करने के लिए ब्याज दर को महंगाई की दर से ऊंचा रखना पड़ता है। इसलिए देष में आर्थिक संवृद्धि की दर को तेज करने के लिए ब्याज दरों को घटाना जरूरी है और ब्याज दरों को घटाने के लिए महंगाई पर काबू पाना जरूरी है।




देष का दवा उद्योग हो अथवा खुदरा व्यापार अथवा खनिज भंडार सभी विदेषियों को सौंपे जा रहे हैं। विदेषी निवेष आधारित विकास के पैरोकार आम आदमी की कठिनाईयों के प्रति पूर्णतया संवेदनहीन हो चुके हैं। भारी भ्रष्टाचार और अर्थव्यवस्था के कुप्रबंधन के मद्देनजर एक देषभक्त और ईमानदार सरकार की भारी आवष्यकता है। यदि खेती पर ध्यान देते हुए खाद्य वस्तुओं की आपूर्ति बढ़ा दी जाए, पेट्रोलियम कंपनियो पर अंकुष लगाते हुए पेट्रो कीमतों पर नियंत्रण हो और महंगाई पर काबू रखते हुए ब्याज दरों को नीचा रखा जाए तो भारत कहीं बेहतर ढंग से विकास के रास्ते पर चल सकता है। दुनिया में भारत ही एक ऐसा देष है जो अपने विकास के लिए दुनिया के दूसरे मुल्कों से मांग पर आश्रित नहीं है। हमारी अभी तक की आर्थिक संवृद्धि घरेलू मांग से पोषित है। ऐसे में जब अमेरिका और यूरोप के देष आर्थिक दृष्टि से कमजोर हो रहे हैं, जिसके चलते चीन के निर्यातों की मांग घट रही है। यदि हम अपनी अर्थव्यवस्था का प्रबंधन ठीक प्रकार से कर सके तो भारत प्रगति की राह पर निरंतर बढ़ता जायेगा। सरकार को विदेषी निवेष के मोह को त्यागते हुए देष की प्रज्ञा और युवाओं के कौषल पर विष्वास दिखाते हुए अर्थव्यवस्था को एक नई दिषा देनी होगी।




अभी भी दूर है सबके लिए षिक्षा और स्वास्थ्य का लक्ष्य

कुछ समय पहले संसद में षिक्षा के अधिकार का कानून पारित किया गया था। सर्वविदित है कि संविधान में राज्य की नीति के निदेषक सिद्धांतों में सरकार से यह अपेक्षा की गई थी कि वह सभी को प्राथमिक प्रदान करने का कार्य करें। दुर्भाग्य का विषय है कि संविधान के लागू होने के 60 वर्ष बाद भी षिक्षा का अधिकार लागू नहीं हो सका। षिक्षा के अधिकार के कानून को लागू करने के लिए मात्र 30 हजार करोड़ रूपये की जरूरत है, जो 2-जी घोटाले में हजम की गई रकम का मात्र छठा हिस्सा है।




स्वास्थ्य सुविधाओं को उपलब्ध कराना सरकार की प्राथमिक जिम्मेवारी है। सहस्राताब्दी विकास लक्ष्यों में सबके लिए स्वास्थ्य का लक्ष्य बताया गया है। दुर्भाग्य का विषय है कि धन की कमी के चलते सरकार स्वास्थ्य सेवाओं से मुख मोड़ रही है। वर्ष 2011-12 के बजट के अनुसार स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए मात्र 23560
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