Monday, December 9, 2019

बीज बम द्वारा दूसरी हरित क्रांति


काफी समय से स्वदेशी की महिला प्रमुख बीज बम या बीज गेंदों के बारे में स्वदेशी जागरण मंच के कार्यक्रमों में उत्साहपूर्वक जानकारी दे रही थी, परंतु जनसत्ता के इस लेख ने मेरी आँखें खोल दी है। पढ़ने लायक लेख है।
राजनीति: हरित क्रांति का नया कदम
बीज बमबारी एक प्रकार की हरित कृषि पद्धति है। इसके लिए जमीन पर औजारों का उपयोग आवश्यक नहीं है। इस तकनीक को दूसरे विश्व युद्ध के समय जापान में प्राकृतिक कृषि को प्रचारित और प्रसारित करने वाले मसानबु फ्यूकोंका ने पुनर्जीवन दिया, विशेषकर ज्वालामुखियों की मिट्टी वाले क्षेत्रों में।

वीरेंद्र कुमार पैन्यूली

जंगली जानवरों के बढ़ते आक्रमणों से आज उत्तराखंड के गांवों में रहना और खेती करना जोखिम भरा होता जा रहा है। अन्य पहाड़ी इलाकों में भी कमोबेश ऐसी स्थिति बनती दिख रही है। उत्तराखंड में इसके समाधान का एक रास्ता जन सहयोग से जंगलों में खाद्य शृंखला को सशक्त करना माना जा रहा है। इसके लिए कुछ समाजसेवी घूम-घूम कर लोगों को नदी-नालों के किनारे गांव, शहर, बस्तियों की सीमाओं पर, नजदीकी जंगलों में बीज बमों से बीज बमबारी करने को प्रेरित कर रहे हैं। उनके अभियान का नाम बीज बम अभियान है, जिसे वे खेल-खेल में पर्यावरण संरक्षण की मुहिम भी मानते हैं।

शुरुआत 2017 में खेतों और बस्तियों के समीपवर्ती जंगलों में फलों व सब्जियों के बीज बिखेरने से हुई थी, पर आशाजनक सफलता नहीं मिली थी। खुले बीजों को पक्षी, बंदर और कीड़े खाते या नष्ट कर देते थे। इससे सीख लेते हुए मिट्टी और गोबर को गूंथ कर बनाए गए गोलों में बीजों को रख कर तीन-चार दिन धूप में सुखाया गया। बाद में उन्हें जंगलों में रखा गया। नमी मिलते ही बीज अंकुरित होते दिखे। परिणाम संतोषप्रद लगे। यह तकनीक जन भागीदारी से ज्यादा से ज्यादा उपयोग में आए, इसलिए उन्होंने बीज गोलों को ऐसा नाम देना चाहा, जिससे इनकी उपादेयता के प्रति उत्सुकता जागृत हो। इन्हें बीज बम कहा जाने लगा। बीज बमों के छिड़काव में ज्यादा से ज्यादा भागीदारी बढ़ाने का औपचारिक बीज बम अभियान उत्तरकाशी में शुरू किया गया।

इस शुरुआत के बाद उत्तराखंड और अन्य राज्यों में पांच माह की बीज बम यात्राएं की गर्इं। वर्तमान में सहयोगी संस्थाओं के साथ उत्तराखंड और सात अन्य राज्यों में बीज बम अभियान सक्रिय हैं। साझा गतिविधि के तौर पर इस वर्ष जुलाई के आखिरी हफ्ते में उत्तराखंड और अन्य राज्यों में पांच सौ दो स्थानों पर बीज बम अभियान सप्ताह मानाया गया। इसमें लगभग नब्बे हजार छात्रों और ग्रामीणों ने भाग लिया। सप्ताह भर जंगलात विभाग, प्रशासन, शिक्षण संस्थाओं, छात्र-छात्राओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने निर्दिष्ट स्थलों पर बीज बमबारी में उत्साहजनक भागीदारी की। दो जिलों- उत्तरकाशी और देहरादून के जिलाधीशों ने स्वयं बच्चों के साथ बीज बम फेंकने में भागीदारी की। उल्लेखनीय है कि 2019 के पहले कुछ स्थानों पर बच्चों द्वारा स्कूलों के आसपास जो बीज बम डाले गए थे, उनसे उत्पादित सब्जी को मिड डे मिल में अतिरिक्त सब्जी के रूप में प्रयोग भी किया गया था।

इस अभियान को चलाने वाले द्वारिका प्रसाद सेमवाल के अनुभवों से सीख कर बीज बम अभियान में लोगों को यह नहीं पता था कि ऐसे प्रयोग द्वितीय विश्व युद्ध के समय ही जापान में शुरू हो गए थे। अब यह अमेरिका, फ्रांस, इग्लैंड, केन्या और स्वयं भारत में धारवाड़ में भी हो रहे थे। इनमें हेलीकॉप्टरों और जहाजों का भी उपयोग हो रहा है। यही नहीं, व्यावसायिक कंपनियां अब पैकेटों में भी उनकी तरह के बीज बम, बीज गेंदों के नाम से बेच रही हैं। केन्या में तो व्यावसायिक कंपनियां सत्तर लाख तक बीज गेंद बेचने का दावा करती हैं।

जहां मिस्र में भी सैकड़ों वर्षों से ऐसी पद्धति अपनाई जा रही थी, वहीं इक्कीसवीं शताब्दी में अमेरिका की नासा जैसी संस्था भी इसको लोकप्रिय बनाने में लगी है। वास्तव में उत्तराखंड में प्रचारित ये बीज बम बीज गेंद ही हैं। दुनिया भी इन्हें बीज गेंद ही कहती है। बीज गेंदें फेंकने को बीज बमबारी का नाम वर्षों से पश्चिम में दिया जाता रहा है। ‘सीड बांबिंग’ वह प्रक्रिया है, जिससे बीज गेंद फेंक कर जमीन पर वनस्पति प्रवेश कराने का प्रयास किया जाता है। विभिन्न नामों से चल रहे हरित अभियानों और वनीकरण में इस पद्धति का उपयोग होता रहा है। ऐसे ही एक अभियान का नाम रहा गुरिल्ला गार्डनिंगि। यह वनीकरण में बहुत उपयोगी साबित हुआ। केन्या में हवाई जहाज से भी सीड बांबिंग की गई।

बीज बमबारी एक प्रकार की हरित कृषि पद्धति है। इसके लिए जमीन पर औजारों का उपयोग आवश्यक नहीं है। इस तकनीक को दूसरे विश्व युद्ध के समय जापान में प्राकृतिक कृषि को प्रचारित और प्रसारित करने वाले मसानबु फ्यूकोंका ने पुनर्जीवन दिया, विशेषकर ज्वालामुखियों की मिट्टी वाले क्षेत्रों में। ज्वालामुखीय मृदा उपजाऊ होती थी।

बीज बम अभियान उत्तराखंड के दुर्गम क्षेत्रों के लिए अत्यंत उपयुक्त हैं। उत्तराखंड में जलागम विकास में भी इसे अपनाया जा सकता है। निस्संदेह इसमें बीजों का नुकसान होने की आशंका ज्यादा रहती है। इसमें उतनी ही पैदावार सफलता के लिए पचीस से पचास प्रतिशत ज्यादा बीज की आवश्यकता होती है। पर जो इस प्रक्रिया को लोकप्रिय बनाने की कोशिश में हैं, जैसे भारत में धारवाड़ में सैकड़ों किसान इस अभियान में भाग ले रहे हैं वे बीज गेंदों को कर्नाटक के जंगलों में फेंक रहे हैं। वे कहते हैं कि फेंके गए पचहत्तर प्रतिशत बीज गेंदों से पौधे निकल रहे हैं।

बीज बमबारी नदी किनारे के तटों में निर्मल गंगा अभियान के अंतर्गत भी की जा सकती हैै। बीज गेंदों के लिए अधिकांशतया स्थानीय परिवेश की मिट्टी का ही उपयोग होता है। मिट्टी तालाबों की सफाई या नहरों की सफाई से निकली भी हो सकती है। पर सूरज के ताप में सुखाने पर आवश्यक है कि बीज गेंदों की मिट्टी ठोस रहे, भरभुरी न हो जाए। मजबूती देने के लिए मिट्टी और ऊर्वरकों के साथ लिए कागज की लुगदी मिलाने का भी प्रयोग किया गया है, विशेषकर उन परिस्थितियों में जब बीज गेंदों को सख्त जमीन पर फेंका जाना हो। बीज गेंदों में अब ऐसा भी मिश्रण होता है, जिसकी निकलती गंध से बीजों के दुश्मन जीवजंतु भाग जाएं।

जंगलों में छिड़काव के लिए ऐसी बीज प्रजातियां चुनी जानी चाहिए, जिनमें पौध आदि की वहां जाकर देखभाल की जरूरत कम से कम पड़े। जिन प्रजातियों को हमने घरेलू बना दिया, खेतों में उगा रहे हैं, उन्हें ज्यादा देखभाल की जरूरत होती है। जैसे जंगली आम, जंगली आंवला, जंगली फूलों को जंगलों में न के बराबर देखभाल मिलती है। जिन फलों-फूलों के बीज अब वनों में फेंक रहे हैं, वे अगर जंगली ही हों तो सफलता का प्रतिशत बढ़ सकता है। वहां उन प्रजातियों की जरूरत है, जिनमें उद्यानिकी जैसे कार्य न करने हों। क्योंकि जंगलों में उस तरह के कार्यों को करना ज्यादा संभव न होगा। विदेशों में भी बीज गेदों में, जिनसे बमबारी करनी है, जंगली फूलों के बीज ही होते हैं।

इससे गरम होती धरती को ठंडा करने में मदद मिलेगी। ग्रीन हाउस गैसें कम की जा सकेंगी। गरम होती धरा को बचाने की लड़ाई को जल्दी से जल्दी लड़े जाने की अपरिहार्यता के कारण बीज बर्बादी की आशंकाओं के बावजूद इस पद्धति को संज्ञान और वरीयता में रखा ही जाना चाहिए। उत्तराखंड में तो पिघलते हिमनदों, बढ़ते भूस्खलनों को कम करने में वानस्पतिक आवरण बढ़ाने के लिए बीज बम अभियान निश्चित रूप से एक सार्थक पहल है।

अंतत: ऐसे अभियानों में जन सहयोग बहुत जरूरी है, आप कर्मचारी रख कर तो बीज बम नहीं फिंकवाएंगे। इसी तरह बीज बम भी विकेंद्रित स्तर पर ही तैयार करने होंगे। स्थानीय मौसम और परिवेश जान कर, जैसे बरसात कब होती है, कितनी होती है, पानी कितना टिकता है, तापमान कैसा और कितना रहता है, सूरज की रोशनी कितनी रहेगी, कब रहेगी, बीजों और बीज बमबारी का समय अगर तय किया जाएगा, तो सफलता की ज्यादा आशा है। क्योंकि बीजों की जड़ें कितनी तेजी से जमीन के भीतर घुस कर मौसम की विपरीत परिस्थितियों को झेल सकती हैं, इसका पूर्व आकलन भी अपेक्षित है।

14वीं राष्ट्रीय सभा, हरद्वार-उत्तराखंड


दिनांकः दिसंबर 6, 2019
विषयः 14वीं राष्ट्रीय सभा, हरद्वार-उत्तराखंड (29-30 नवंबर, 1 दिसंबर 2019) की कार्यवाही एवं लिए गए निर्णय

मान्यवर,
उद्घाटन समारोहः स्वदेशी जागरण मंच की अखिल भारतीय राष्ट्रीय सभा प्रात 10.15 पर आचार्य श्री बालकृष्ण जी के करकमलों द्वारा दीप प्रज्वलन के साथ प्रारंभ हुई। इसके साक्षी बने श्री रूपेंद्र सिंह सोढ़ी (निदेशक अमूल इंडिया गुजरात) तथा डाॅ. रूप किशोर शास्त्री (उपकुलपति गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय हरिद्वार)
स्वदेशी जागरण मंच के अखिल भारतीय संयोजक श्री अरुण ओझा, संगठक श्री कश्मीरी लाल, सह संयोजकगण डॉ अश्वनी महाजन, श्री धनपतराम अग्रवाल, श्री आर सुंदरम, श्री अजय पत्की, अ.भा. महिला प्रमुख श्रीमती अमिता पत्की तथा विविध क्षेत्र के श्री पवन कुमार (भा.म. संघ), श्री रमाकांत भारद्वाज व श्री जितेन्द्र गुप्त (लघु उद्योग भारती), श्री लक्ष्मी नारायण भाला सहित कार्यक्रम के स्वागताध्यक्ष श्री विनोद चैधरी तथा संत स्वामी रूपेन्द्रानंद जी महाराज मंच को सुशोभित कर रहे थे।
मंच पर विराजमान अतिथियों का परिचय व संचालन डॉ. राजीव कुमार (क्षेत्र संयोजक उ.प्र.) ने किया।
आचार्य बालकृष्ण ने उद्बोधन का प्रारंभ भारत माता की जय से किया। उन्होंने कहा कि भारतीय संस्कृति विश्व कल्याणकारी है, वहीं पश्चिम के लोग भारत को बाजार मानते हैं इस बाजारवाद से लड़ाई का नाम है स्वदेशी। हम स्वदेशी संस्कृति के उपासक हैं। भारत का निर्माण भारत से होगा, इंडिया से नहीं। भारत से जुड़ा हुआ व्यक्ति- वह स्थानीय कारीगर (आर्टिज़न) हो या अन्य कार्य करने वाला, भारतीय संस्कृति और परंपरा से जुड़ा रहता है। देश में वर्तमान में 7 करोड़ से अधिक आर्टिज़न जो भारत की माटी से जुड़े हुए हैं और छोटे-छोटे उत्पाद बना रहे हैं। विदेशी कंपनियां इन लघु उद्यमों व उनके कारीगरों को समाप्त करना चाहती है। विदेशी कंपनियां अपने विज्ञापन के माध्यम से एक धारणा बना चुकी है कि विदेशी वस्तुएं ही श्रेष्ठ है जबकि ऐसा नहीं है। उन्होंने दंतकांति का उदाहरण दिया। उन्होंने कहा कि अमरीका में पिज्जा बर्गर के कारण हर दूसरा-तीसरा आदमी बीमार पड़ रहा है तथा कई बीमारियों से ग्रस्त है। अतः हमें अपनी खाद्यान्न श्रृंखला को बचाना चाहिए।
उन्होंने आयुर्वेद की महत्ता को प्रकट करते हुए कहा कि इस विषय की भारत में अभी 3 एक्स श्रेणी लैब (एक्सीलैंट क्लास) केवल हमारे पास है। इसका निर्माण करोड़ों रुपए लगाकर पतंजलि ने किया है। देश में 3 करोड से अधिक लोग एफएमजीसी में काम कर रहे हैं। उनको हमें वालमार्ट जैसी कंपनियों से बचाना है। आज देश में आयुर्वेद के प्रति सकारात्मक वातावरण बना है। सैकड़ों कंपनियां आंवला, एलोवेरा जैसे प्राकृतिक पेय का निर्माण कर रही हैं। यह स्वदेशी की जीत है।
श्री रूपेंद्र सोढ़ी (एमडी अमूल) ने 73 वर्षों के अमूल का इतिहास बताया। उन्होंने कहा कि वर्तमान में अमूल भारत की सबसे बड़ी एफएमसीजी बन गई है। अमूल व स्वदेशी के कारण देश दुग्ध उत्पादन में विश्व में नंबर 1 बन गया है। उन्होंने कहा विदेशी कंपनियां भारत में चैरिटी के लिए नहीं आती, अपितु वह पैसा कमाने आती है। भारत में विदेशी नेस्ले जैसी कंपनियां 8 से 10 प्रतिशत विज्ञापन पर खर्च करती है। जबकि अमूल मात्र 1 प्रतिशत विज्ञापन से ज्यादा खर्च नहीं करता। आरसैप की लड़ाई स्वदेशी जागरण मंच ने की और उसमें विजय प्राप्त की। उसकी बधाई देते हुए उन्होंने कहा कि हम स्वदेशी के साथ खड़े हैं। स्वदेशी को बढ़ाने के लिए हमें गुणवत्तापूर्ण स्थानीय उत्पाद एवं उत्पादक खड़े करने होंगे, तभी हम विदेशी कंपनियों को मात दे सकेंगे।
गुरुकुल कांगड़ी के माननीय कुलपति श्री रूपकिशोर शास्त्री ने कहा कि स्वदेशी की भावना एक सामाजिक संकल्प है। यह हमारे वेद, संस्कृति, भाषा, भूषा खानपान से जुड़ा है। उन्होंने खादी को पहनने का आग्रह किया। गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय में आयुर्वेदिक फार्मेसी खड़ी की है जो कि स्वदेशी रिसर्च पर आधारित है।
श्री अरुण ओझा ने सत्र 2018-19 में हुए स्वदेशी जागरण मंच के कार्यक्रमों को विस्तार से बताया। उन्होंने कहा कि हम सब कार्यकर्ताओं को आह्वान करते हैं कि आरसीईपी के विरोध में विजय को निरंतर बनाए रखना पड़ेगा। उन्होंने आरसीईपी पर सरकार द्वारा हस्ताक्षर न करने की भूरी-भूरी प्रशंसा की। उन्होंने प्रधानमंत्री को महाबली कहकर स्वागत किया। उन्होंने कहा कि श्रद्धेय दत्तोपंत ठेंगड़ी जी की जन्म शताब्दी में कार्यक्रम करने का आग्रह किया। कार्यक्रम में श्री विनोद चैधरी (स्वागताध्यक्ष) ने अपना उद्बोधन दिया तथा परम पूज्य सरसंघचालक जी द्वारा दिए गए उद्बोधन पर आधारित ‘दिशा बोध’ पुस्तक का विमोचन किया।
श्री भालाजी द्वारा भारतीय संविधान के ‘चित्रों की व्याख्या’ पुस्तक श्री अरुण ओझा को भेंट की। कार्यक्रम में धन्यवाद श्री रामकुमार चैधरी (सह संयोजक उत्तराखंड प्रांत) ने किया। इस प्रकार से उद्घाटन सत्र का समापन हुआ।
कार्यवृत्तः प्रथम सत्र के प्रारंभ में ही केरल, तमिलनाडू, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक व विदर्भ प्रांत का कार्यवृत्त हुआ। जिसमें उन्होंने गत 6 मास में हुए विशेष कार्यक्रम, अ.भा. अधिकारियों के प्रवास व दत्तोपंत ठेंगड़ी जन्मशताब्दी उद्घाटन कार्यक्रमों की विशेष रूप से जानकारी दी। इसके अतिरिक्त श्री सतीश कुमार ने ‘जैविक, प्राकृतिक-परंपरागत कृषि ही है लाभकारी’ इस विषय का भूमिका सहित प्रस्ताव वाचन किया। जिसका अंग्रेजी अनुवाद श्री दीपक शर्मा ने पढ़ा।
आर्थिक उपनिवेशवाद - प्रोफेसर भगवती प्रकाशः विश्व की बहुराष्ट्रीय कंपनियां, विकासोन्मुख बाजारों पर नियंत्रण करना चाहती हैं। आज अमेरिका की कुल आय 70 प्रतिशत विदेशों में बिक रहे उत्पादों पर निर्भर है। विदेशी कंपनियां चाहती है कि एफडीआई के साथ उनके लिए विदेशी बाजार (भारतीय) खुलें। आज देश में 70 प्रतिशत से अधिक टीवी, मोबाइल, कंप्यूटर, स्कूटर, सोलर उत्पाद विदेशी कंपनियों के बिक रहे हैं। डॉ भगवती प्रकाश ने बताया कि विश्व के विकसित देशों में बूढ़ों की संख्या बढ़ रही है। चीन में 24.1 करोड़ लोग 32 से 65 वर्ष के हंै। यूरोपीय देश में 20 से 30 प्रतिशत तथा उत्तरी अमेरिका में भी वृद्धों की संख्या बढ़ रही है। चीन अमेरिका एवं यूरोपीय कंपनियां, भारत में अपने उत्पादों को अधिक से अधिक बेचना चाहती है। क्योंकि भारत विश्व का सबसे बड़ा युवा बाजार है। हम सोचें कि देश में, विदेशी कंपनियों का बोलबाला रहा, तो देश के रोजगार समाप्त हो जाएंगे। देश में बहुराष्ट्रीय कंपनियां सांस्कृतिक प्रदूषण भी फैला रही है। 1990 के दशक में भारतीय परिवारों में 0.1 प्रतिशत विवाह विच्छेद होते थे। आज एक हजार परिवारों में 16 परिवारों में विवाह विच्छेद हो रहे हैं। देश में बहुराष्ट्रीय कंपनियां धारावाहिकों में विज्ञापन के माध्यम से परिवार तोड़ने के डायलॉग बनाकर प्रस्तुत करती है। माता बहनों को विज्ञापन के माध्यम से प्रस्तुत करती है। देश में बढ़ते विदेशी कंपनियों के प्रभाव के बारे में बताया कि देश के सीमेंट उत्पाद को छह कंपनियां नियंत्रण कर रही हैं। जिसमें फ्रेंच की लाफार्ज, स्विजरलैंड की कंपनियां प्रमुख है। आज मीडिया क्षेत्र में भी विदेशी कंपनियों का प्रभाव बढ़ गया है। जिसके कारण वह हमें क्या पढ़े, क्या देखें आदि पर भी निर्भर बना रही हैं। आज हमारी निर्माण प्रक्रिया से लेकर रसोई के उत्पाद विदेशी हो चुके हैं। हमें देश में बढ़ रही बेरोजगारी रोकनी है तो विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करना पड़ेगा। अभी-अभी देश में तीन लाख करोड़ के कारखानें, विदेशी कंपनियों ने खरीद लिए हैं तथा देश में एक करोड़ से अधिक एनर्जी मीटर विदेशी कंपनियां बना रही है। अतः हमें देश में बढ़ती बेरोजगारी को मिटाने के लिए स्वदेशी वस्तुओं एवं संस्कृति को अपनाना ही होगा तभी हम लोग एमएनसी का मुकाबला कर सकेंगे।
राज्यपाल श्रीमती बेबी रानी मौर्यः स्वदेशी जागरण मंच की 14वीं राष्ट्रीय सभा में उत्तराखंड राज्य की माननीय राज्यपाल महोदया श्रीमती बेबी रानी मौर्य ने देशभर से आए कार्यकर्ताओं को भारतीय संस्कृति एवं स्वदेशी अपनाने का आह्वान किया। उन्होंने उत्तराखंड की महिलाओं को कर्मशील बताया। उन्होंने बताया कि यहां की महिलाएं आचार, स्वेटर आदि बनाती है, समाज में कार्य करती है, जड़ी बूटियां खोजती है और कैंसर के इलाज की भी जड़ी बूटियां खोजी हैं। उन्होंने बताया कि हमारा स्वदेशी जागरण मंच एक ऐसा मंच है जो हमें हमारी संस्कृति की ओर लौटा रहा है। हम स्वदेशी के माध्यम से देश भक्ति का भाव जगा रहे हैं। उन्होंने बताया कि हमारी दिनचर्या बदल गई है जिसके कारण हमारी उम्र भी कम होती जा रही है। हमारे बहन-भाइयों में जो छुपी हुई प्रतिभाएं है वह कैसे बाहर आएं, उसके लिए हमें काम करना है। चीन हो या जापान, आज वह अपनी आर्थिक व्यवस्था के कारण मजबूत है। हमारा पर्यावरण लगातार प्रदूषित हो रहा है। यदि पर्यावरण को बचाना है तो वृक्ष जरूर लगाना है। प्लास्टिक का उपयोग बंद हो। जन्मदिन और विवाह के अवसर पर एक वृक्ष अवश्य लगवाएं। हमारे किसानों की आय दुगनी कैसे हो, इस और भी हमारा प्रयास हो।
कार्यवृत्तः द्वितीय सत्र के प्रारंभ में प. महाराष्ट्र, गुजरात, छत्तीसगढ़, महाकौशल, मालवा, मध्य भारत आदि प्रांतों का वृत्त कथन हुआ। डाॅ. अश्वनी महाजन ने वर्तमान के आर्थिक मुद्दों व आरसीईपी पर हुई विजय के बारे में विस्तार से बताया। प्रो. भगवती प्रकाश शर्मा ने ‘रोजगार भारतीय अर्थव्यवस्था का केंद्र बिंदू...’ इस विषय का भूमिका सहित वाचन किया।
डॉ अश्वनी महाजन (अखिल भारतीय सह संयोजक)ः ने स्वदेशी जागरण मंच के वर्तमान के मुख्य मुद्दों को कार्यकर्ताओं के सम्मुख ओजस्वी शैली में प्रस्तुत किया। मंच के गठन के साथ ही वर्तमान तक स्वदेशी जागरण मंच ने जिन मुद्दों के आधार पर संघर्ष किया, उसकी पहचान देश में दुनिया में अलग से बनी है। भारत ने डब्ल्यूटीओ का संगठित स्वरूप में मुद्दों के आधार पर विरोध किया। परिणामस्वरूप, कृषि व पेटेंट कानून के संबंध में वैश्विक शक्तियां बैकफुट पर आयी हैं और आज हमने आरसीईपी के संबंध में भारत में होने वाले खतरों के बारे में अखिल भारतीय स्तर पर ज्ञापन, संगोष्ठी के माध्यम से जनजागरण किया। जिससे भारत सरकार आरसीएपी समझौते से हट गई। चीन, जापान अब आरसीईपी के विवादित मुद्दों पर बात करने के लिए भारत से बार-बार आग्रह कर रहे हैं। यह स्वदेशी जागरण मंच की बहुत बड़ी जीत है।
उन्होंने बताया कि देश में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कई सलाहकार भारत सरकार के अधिकारियों को सलाह देते थे तथा तनख्वाह एमएनसी से लेते थे। उनको योजनापूर्वक ब्लैक लिस्ट (बाहर) किया गया। ई-कॉमर्स पर लड़ाई के बारे में भी बताया।
देश भर में अमेजन, फ्लिपकार्ट के विरूद्ध हमने आंदोलन किया। इनके कारण देश में बेरोजगारी फैल रही है। ये देश के धन को लूटने में लगी हैं। इस विषय को हम आंदोलन के द्वारा, विरोध प्रदर्शन द्वारा सरकार और जनता को जागृत कर रहे हैं। उन्होंने बताया कि एमएनसी रॉयल्टी और तकनीक के नाम पर देश से 20 अरब डालर वार्षिक लूट रही है। इसके लिए भारत सरकार को ज्ञापन दिया गया। बीटी बैंगन के लिए आंदोलन किया। उस पर यूपीए सरकार के समय से रोक है। आज एचडी, बीटी कॉटन, ग्लाईफोसेट कंपनी बेच रही हैं। अमेरिका में इस पर कई केस चल रहे हैं। इस कपास के बीजों के रसायन से कैंसर उत्पन्न हो रहा है। इस पर रोक लगाने के लिए हम आंदोलन करेंगे। देश में डिसइनवेस्टमेंट के नाम पर गलत निवेश की योजना बन रही है। उन्होंने कहा कि बीपीसीएल, एयर इंडिया को बेचने की योजना चल रही है। हम इसका विरोध करेंगे।
डाॅ. धनपत राम अग्रवाल- बौद्धिक संपदा अधिकार को समझने के लिए दो बातें आती है। पहली है बौद्धिक संपदा, यानि जो भी नई सोच या नई खोज जो हमारी बुद्धि में उपजी है और जैसे ही हम उसकी अभिव्यक्ति करते हैं तो वह हमारी बौद्धिक संपदा कहलाती है। यह अभिव्यक्ति किसी वैज्ञानिक अविष्कार के रूप में भी हो सकती है या फिर किसी कविता, संगीत, गीत अथवा चित्र के माध्यम से भी हो सकती है। अगर यह नई खोज आविष्कार वैज्ञानिक क्षेत्र से संबंधित होती है तो उसे कानून तौर पर पेटेंट के नाम से जाना जाता है या फिर अगर कविता, गीत, संगीत यानि किसी पेटेंट आदि के रूप में होती है तो उसे कॉपीराइट कहते हैं। इस तरह के आविष्कार या नई कला का वैज्ञानिक ढंग से रजिस्ट्रेशन करवा लिया जाता है तो उसे बौद्धिक संपदा अधिकार अथवा इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट (आईपीआर) कहते हैं।
आज के तकनीकी युग में बौद्धिक संपदा हमारे आर्थिक विकास में बहुत महत्व रखती है। हमारे देश में मानव संपदा दुनिया में सबसे सर्वोत्कृष्ट किस्म की है और जरूरत इस बात की है कि हम मानव संपदा को शिक्षण संस्थानों द्वारा अनुसंधान के आधार पर उसे बौद्धिक संपदा में परिवर्तित करें। अमेरिका और चीन बौद्धिक संपदा के बल पर दुनिया में अपना आर्थिक वर्चस्व बनाए हुए हैं। भारतवर्ष में भी हमारी सरकार ने 13 मई 2016 को जो बौद्धिक संपदा अधिकार नीति की घोषणा की है उसके तहत आने वाले वर्षों में भारत की आर्थिक शक्ति का कार्यकलाप बदलने वाला है। प्रत्येक स्कूल, कॉलेज एवं अन्य शिक्षण संस्थानों में गांव से लेकर शहरों तक हमारी बौद्धिक संपदा की पहचान एवं उसे विकसित करने के साधन जुटाकर भारत को बौद्धिक संपदा क्षेत्र में दुनिया के शीर्ष स्थान पर पहुंचाने की आवश्यकता है। हमने पेटेंट की लड़ाई विश्व व्यापार संगठन तथा बहुराष्ट्रीय कंपनियों से बहुत हिम्मत के साथ लड़ी है और वर्तमान में बौद्धिक संपदा कानून अंतरराष्ट्रीय स्तर पर है एवं हमारे राष्ट्र में तकनीक स्तर पर आर्थिक वृद्धि एवं समृद्धि के अनुकूल  है। स्वदेशी जागरण मंच ने इस बौद्धिक संपदा के आधार पर हमारे देश को एक वैभवशाली राष्ट्र बनाने के लिए जो जन जागरण अभियान छेड़ा है उसमें स्वदेशी तकनीकी के आधार पर स्वदेशी उत्पादों में गुणात्मकता ला सकते हैं और हम किसी भी बाहरी उत्पादों के साथ प्रतियोगात्मक बन सकेंगे ताकि न हमें भारी आयात पर निर्भर रहना पड़े और ना ही विदेशी विनियोजन की आवश्यकता होगी और ना ही बाहरी तकनीक पर निर्भर करना पड़ेगा। ऐसी अवस्था में हमारी बौद्धिक संपदा की ताकत हमारे रुपए की ताकत को भी अंतरराष्ट्रीय बाजार में मजबूत बनाएगी तथा हमारे देश की कुल सकल आय भी दुनिया में अग्रणी स्थान पर पहुंचेगी और हमारे करोड़ों देशवासियों के लिए रोजगार उपलब्ध होंगे।
वरिष्ठ प्रचारक एवं स्वदेशी जागरण मंच की केंद्रीय कार्यसमिति के सदस्य श्री सरोज मित्र ने दत्तोपंत ठेंगड़ी के जीवन को विभिन्न उदाहरणों द्वारा कार्यकर्ताओं के समक्ष रखा। राष्ट्रऋषि दत्तोपंत ठेंगड़ी भारत के चिरंजीवी विकास हेतु चिंतनशील रहते थे। ठेंगड़ी जी ने इसके लिए विभिन्न क्षेत्रों में राष्ट्र निर्माण करने वाले संगठनों की स्थापना की। उन्होंने मजदूर संघ, किसानों के बीच में किसान संघ तथा देश स्वदेशी संस्कृति एवं अपनी क्षमता पर खड़ा हो, इसके लिए स्वदेशी जागरण मंच की स्थापना की। ठेंगडी जी जब रूस जाकर 1968 में लौटे, तो उन्होंने कोलकाता में घोषणा की, कि कम्युनिज्म रिवर्स गियर में आ चुका है। अर्थात कम्युनिज्म खत्म होने जा रहा है। वह दूरदृष्टा थे। कोलकाता में उनके साथ सुनील घोष (सुभाष चंद्र बोस के मित्र) मिले, तब घोष ने कहा कि ठेंगड़ी जी सुभाष चंद्र बोस से अधिक राष्ट्रीय चिंतक है।
ठेंगड़ी जी ने हयूमिनिज्म पर काम किया। वे मानव मात्र के कल्याण के लिए बात करते थे। इससे प्रभावित होकर  कम्युनिस्ट विचारक श्री डांगे ने भी उनकी प्रशंसा की, कि ठेंगड़ी जी बहुत श्रेष्ठ चिंतक है।
ठेंगड़ी जी ने 1975 में कटक में इंदिरा गांधी के बारे में कहा था कि इंदिरा गांधी की इमरजेंसी 16 महीने में समाप्त होगी। ऐसी दूरदृष्टि वाली बात की। माननीय श्री गुरु जी एवं ठेंगड़ी जी आपस में घंटों वार्ता करते थे, जिससे देश के विकास की नई नई संकल्पना के आधार पर कई संगठन खड़े हुए। जिससे आज देश में राष्ट्र प्रेमी भा.म.स., किसान संघ, स्व.जा.मंच जैसे अनके संगठन खड़े हैं।
1976 में उन्होंने रिवॉल्यूशन करके एक पुस्तक लिखी, जिसमें उन्होंने कहा कि आंदोलन कभी हिंसक नहीं होना चाहिए अर्थात शांतिपूर्ण आंदोलन के पक्षधर थे। वे कार्यकर्ता पर पूर्ण विश्वास करते थे और कार्यकर्ता की कोई गलती होने पर भी उत्तरदायित्व स्वयं लेते थे। श्री सरोज मित्र ने कहा कि हमें शताब्दी कार्यक्रमों के बाद एक घोषणा पत्र भी जारी करना चाहिए।
कार्यवृत्तः 30 नवंबर प्रातःकाल के पहले सत्र में ही चित्तौड़, जोधपुर, जयपुर, दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, हिमाचल व जम्मू कश्मीर प्रांत का कार्यवृत्त उनके प्रांत संयोजकों ने प्रस्तुत किया। ‘डेटा संप्रभुता-डिजिटल राष्ट्रवाद...’ के प्रस्ताव का वाचन डाॅ. अश्वनी महाजन ने भूमिका सहित किया तथा विकास की अवधारणा पर राष्ट्रीय संगठक श्री कश्मीरी लाल द्वारा उद्बोधन हुआ।
विकास की अवधारणाः अखिल भारतीय संगठक श्री कश्मीरी लाल ने कार्यकर्ताओं को माननीय दत्तोपंत ठेंगड़ी जी की जन्म शताब्दी हेतु वर्ष भर के लिए अपने को विषय के साथ तैयार रहने का आग्रह किया। उन्होंने कहा कि हमें विकास की अवधारणा पर स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय में विषय लेते समय दत्तोपंत ठेंगड़ी जी और भारत निर्माण तथा राष्ट्र की अवधारणा, जिसमें देश की समृद्धि का समुचित वर्णन हो, लेना चाहिए। अ.भा. संगठक ने आग्रह किया कि हमें दत्तोपंत ठेंगड़ी जी की पुस्तिका ‘विकास की अवधारणा’ को पढ़ना चाहिए। ठेंगड़ी जी आधुनिकीकरण के पक्षधर थे, पर वे कहते थे कि डवकमतदप्रंजपवद ूपजीवनज ूमेजमतदप्रंजपवद होना चाहिए। ठेंगड़ी जी कहते थे कि हम विदेशों की नकल न करें। हमारा विकास ‘गरीबी कैसे हटे’ इसके लिए हो।
ठेंगड़ी जी कहते थे कि वर्तमान में जो गरीबी है इसको हटाने के लिए नेता कहते हैं कि इसको योजना से हटाना पड़ेगा। परंतु ठेंगड़ी जी ने इसे हेतू एक पुस्तक दयाकृष्ण जी से लिखवाई, उनका शीर्षक था ‘योजनाबद्ध गरीबी’। ठेंगड़ी जी गरीबी के लिए कहते थे कि चवअमतजल पे दवज कमेचपजम चसंददपदह इनज इमबंनेम व िचसंददपदहण् उन्होंने खेती का उदाहरण देते हुए कहा कि विकास के कारण सर्वनाश नहीं होना चाहिए। उन्होंने कहा कि जब किसान के बेटे को गोबर से बदबू आने लगे तो समझो कि देश में अकाल पड़ने वाला है। जब देश के लोगों को देश की वस्तु से घृणा होने लगे तो समझो देश में महामंदी आने वाली है। उन्होंने इवान इलिच एवं हेरी ट्रूमैन का उदाहरण देते हुए बताया कि डेवलपमेंट शब्द का प्रयोग लूट की अर्थव्यवस्था से जुड़ा हुआ है। उन्होंने कहा कि श्री गोखले नाम के अर्थशास्त्री ने अपनी पुस्तक में लिखा कि अंग्रेजों ने भारत से 45 ट्रिलियन डालर लूटा है। वर्तमान भारतीय विदेश मंत्री श्री जयशंकर ने भी इस पर सहमति प्रकट की। देश के माननीय प्रधानमंत्री ने देश को 5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बनाने का संकल्प किया है। यह तभी संभव है जब देश में विकास अंत्योदय से शुरू हो। श्री कश्मीरी लाल ने कहा कि विकास के लिए 6 सूत्र जरूरी है। प्रथम, विकास की शुरुआत विकेंद्रीकरण से हो। द्वितीय, यह विकास गांव आधारित हो। गांव बचेगा तो देश बचेगा। महात्मा गांधी का उदाहरण देते हुए कहा कि महात्मा गांधी के ग्राम स्वराज की कल्पना गरीब वर्गो से प्रारंभ होती है। तृतीय, उन्होंने कहा रोजगार, विकास का आधार होना चाहिए, रोजगारविहीन विकास का कोई अर्थ नहीं। चैथा, पर्यावरण हितैषी। उन्होंने कहा कि भारत की परंपरा, प्रकृति पूजक है। माताएं बहनंे प्रातः उठते ही वृक्षों को जल चढ़ाते थी। अतः विकास पर्यावरण को सुरक्षित रखते हुए होना चाहिए। अंत में श्री कश्मीरी लाल ने कहा कि हमारे देश की परंपरा धर्माधिष्ठित विकास की रही है। अर्थात मानव मात्र के कल्याण का आधार चिरंजीवी विकास है। आपने एकात्म मानव विकास मात्र के विकास को सच्चा विकास बताया है। जिसमें मानवता बचेगी, प्रकृति बचेगी, पृथ्वी बचेगी, यही स्वदेशी का मूल मंत्र है। विकास की अवधारणा है।
आम सभाः 14वीं राष्ट्रीय सभा की स्वदेशी संदेश यात्रा के पश्चात आमसभा पर कार्यक्रम रहा। इसमें मुख्य अतिथि श्री सतपाल जी महाराज, केबिनेट मंत्री उत्तराखंड सरकार रहे। श्री मोहन जी गांववासी ने अध्यक्षीय उद्बोधन किया। कार्यक्रम में कर्नाटक प्रांत के सह संयोजक श्री एस.सी. पाटिल ने आरसीईपी में भू-राजनीति की बात कही। उन्होंने कहा कि आरसीईपी पर हस्ताक्षर न करके चीन की भू-राजनीति पर रोक लगाई है। कार्यक्रम में अनंदाशंकर पाणीग्रही ने कहा कि स्वदेशी आर्थिक आजादी की लड़ाई है। यह आम आदमी, अंतिम व्यक्ति की उन्नति का मार्ग है। डब्ल्यूटीओ व एमएनसी भारत के व्यक्ति को विकसित नहीं होने देना चाहती। इसलिए हमें इनके उत्पादों का बहिष्कार करना है। हम भारतीयता के स्वाबलंबी बनाने के लिए स्वदेशी आंदोलन चला रहे हैं। स्वदेशी का मतलब है स्वावलंबी भारत।
कार्यक्रम में स्वदेशी जागरण मंच की महिला प्रमुख श्रीमती अमिता पत्की ने महिलाओं का आह्वान करते हुए कहा कि हमें परिवार को संस्कारित करना है। वहां स्वदेशी का संकल्प करवाना है। उन्होंने कहा कि व्यक्तिगत संपर्क का संगठन में बहुत महत्व होता है। अतः हमें परिवारों में स्वदेशी का प्रसार करना चाहिए।
भारतीय मजदूर संघ के श्री पवन कुमार ने देश के पब्लिक सेक्टर में खड़े उद्योगों की बात करते हुए कहा कि भारत सरकार विदेशी कंपनियों को यह उद्योग न बेचें। पवन जी ने कहा कि कंाटेªक्ट रोजगार देश के व्यक्तियों की आर्थिक स्थिति खराब कर रही है, जिससे आर्थिक मंदी की संभावना बनती है।
सभा में अखिल भारतीय विचार विभाग प्रमुख श्री सतीश कुमार ने स्वदेशी आंदोलन को सांस्कृतिक उत्थान का मूलमंत्र बताया। उन्होंने कहा कि भारत आध्यात्मिक राष्ट्र है। भारत में स्वदेशी आंदोलन की शुरुआत 1850 में श्री राम सिंह कूका से लेकर 1920 में महात्मा गांधी के स्वदेशी (चरखे) आंदोलन के माध्यम से बढ़ता गया।
1991 में स्वदेशी आंदोलन मंच के नाम से राष्ट्रऋषि दत्तोपंत ठेंगड़ी जी ने शुरू किया जो गत 28 वर्षों में डब्ल्यूटीओ का विरोध, महाराष्ट्र में एनराॅन कंपनी के खिलाफ, 1998 में पशुधन बचाओ, समुद्री क्षेत्र में मछुआरों के रोजगार बचाने की नौका यात्रा, 2017 में चीनी वस्तुओं के बहिष्कार का आंदोलन, फिर एक लाख लोगों की दिल्ली में रैली, ई-काॅमर्स से रिटेल को हो रहे नुकसान पर जनजागरण, खुदरा व्यापार की लड़ाई के माध्यम से बढ़ता चला आया है। और अभी-अभी आरसीईपी पर सफल संघर्ष किया ही है। अंत में श्री सतीश कुमार ने कहा कि शताब्दी वर्ष में सारे देश व दुनिया में स्वदेशी आंदोलन फैलाकर हम ठेंगड़ी जी के सपनों को साकार करेंगे।
कार्यक्रम के मुख्य अतिथि श्री सतपाल जी महाराज ने स्वदेशी जागरण मंच की प्रशंसा करते हुए कहा कि स्वदेशी जागरण मंच भारत के आम नागरिक के विकास की बात कर रहा है। उन्होंने ई-कॉमर्स को देश के व्यापारियों के लिए घातक बताया और कहा कि हमें अपने व्यापारियों को बचाने के लिए  ई-कॉमर्स को रोकना होगा। श्री सतपाल जी महाराज ने कहा कि देश की अर्थव्यवस्था को बढ़ाने के लिए स्वदेशी इंस्फ्रास्ट्रक्चर बांड बनाकर एफडीआई काो आमंत्रित कर सकते हैं। महाराज ने कहा कि नई दिल्ली से बंग्लादेश, म्यांमार, थाईलैंड, सिंगापुर तक रेल मार्ग का विस्तार करना चाहिए। इन देशों के साथ व्यापार के माध्यम से मजबूती से जुड़ सकेगें। और भारत की अर्थव्यवस्था विश्व में मजबूत होगी। सतपाल महाराज ने कहा कि हमारे देश को आयुर्वेद, स्वदेशी तथा तीर्थाटन के माध्यम से विकसित करने का आह्वान किया व उस प्रांत की कई अच्छी योजनाओं की जानकारी दी।
कार्यवृत्तः अगले सत्र में उत्तराखंड, प.उ.प्र., अवध, पूर्वी उ.प्र., दोनों बिहार, झारखंड, उड़ीसा व बंगाल प्रांतों का कार्यवृत्त हुआ। इसके अतिरिक्त श्री सतीश कुमार ने देश भर में हुए श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी जन्मशताब्दी समारोह कार्यक्रमों की जानकारी दी। विशेषकर नागपुर में हुए 10 नवंबर को प्रथम अ.भा. उद्घाटन कार्यक्रम के बारे में बताया। उन्होंने कहा कि अ.भा. अध्यक्षा श्रीमती सुमित्रा महाजन ने उद्घाटन कार्यक्रम की अध्यक्षता की तथा पूज्य सरसंघचालक डाॅ. मोहनराव भागवत ने बहुत प्रेरणापद प्रसंग व विचार (ठेंगड़ी जी के संदर्भ में) प्रस्तुत किए।
दिल्ली में चल रहे माईक्रोफाईन्स के कार्यक्रम चैपाल की जानकारी भी दी गई। इसके द्वारा दिल्ली में ही सौ कार्यक्रम आयोजित हो चुके है, जिनके कारण दिल्ली की हजारों गरीब महिलाएं अपने बल पर अपना रोजगार चला रही हैं व परिवार का भरण-पोषण कर रही है। श्री भोलानाथ विज की अगुवाई में यह कार्यक्रम दिल्ली में पं. दीनदयाल उपाध्याय मार्ग पर स्थित स्वदेशी कार्यालय से सफलतापूर्वक चलाया जा रहा है। मंच श्री भोलानाथ विज व पूरी चैपाल टीम का अभिनंदन करता है।  
स्वदेशी जागरण मंच की आगामी कार्यदिशाः आगामी कार्यक्रम के लिए माननीय कश्मीरी लाल ने कहा कि हम अपने क्षेत्र में जाकर स्वदेशी के राजदूत के जैसे कार्य करें। परम पूज्य सरसंघचालक जी के विजयादशमी उत्सव पर दिए गए मार्गदर्शन पर प्रकाशित पुस्तक ‘दिशा बोध’ का सभी कार्यकर्ताओं को पढ़ने का आग्रह किया। उन्हें कार्यकर्ताओं से आह्वान किया कि दत्तोपंत ठेंगड़ी जी की जन्म शताब्दी पर हम सभी मिलकर ‘विकास की अवधारणा’ व राष्ट्र की अवधारणा पर ठंेगड़ी जी के विचारों का अध्ययन करें। हम 7 निम्न बिंदु ध्यान में रखकर कार्यकर्ताओं को संपर्क करें। ये बिंदू है- पत्रक, पत्रिका, प्रचार, प्रदर्शन, प्रवास, प्रबोधन और पैसा (धन संग्रह)।
आगामी कार्यक्रमों की जानकारी देने से पहले उन्होंने सभी कार्यकर्ताओं से आह्वान किया कि इस शताब्दी समारोह में न्यूनतम 15 दिन का समय स्वदेशी विस्तारक बनकर दें। आगामी कार्यक्रमों के लिए हमें क्या करना है, उसके लिए निम्न योजना का आग्रह किया।
1. 14वीं राष्ट्रीय सभा के प्रस्तावों को पढ़ना, पढ़ाना, समाचार पत्रों में देना।
2. प्रत्येक जिला केंद्रों पर ठेंगड़ी जी के जन्म शताब्दी के उद्घाटन कार्यक्रम करना।
3. जनवरी-फरवरी माह में विकास की अवधारणा पर महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों में संगोष्ठी करना, प्रबोधन करना।
4. 23 मार्च भगत सिंह के शहीदी दिवस पर युवाओं की रैलियां निकालना।
5. जून-जुलाई में राष्ट्रीय विचार वर्ग आयोजित करना। जिसमें प्रत्येक सहभागी, ठेंगड़ी जी का साहित्य अवश्य पढ़कर आयें।
6. 25 सितंबर से 2 अक्टूबर तक स्वदेशी सप्ताह में प्रत्येक जिल,े स्कूल और कालेजों में पत्रक वितरण करना और उद्बोधन भी देना। इस हेतु नए लोगों को जोड़ना।
7. प्रमुख स्तंभकार लेखकों को राष्ट्रऋषि दत्तोपंत ठेंगड़ी जी का साहित्य देना।
8. राज्य के अधिकारियों से संपर्क करना। ठेंगड़ी जी का साहित्य देना तथा सकारात्मक व्यक्तियों की सूची बनाना।
9. अपने घर में ठेंगड़ी जी का चित्र लगाकर जन्मशताब्दी का कार्यक्रम घर में करना तथा स्वदेशी संकल्पित परिवारों का निर्माण करना।
10. देश और दुनिया भर में फैले हुए स्वदेशी प्रेमी बंधु-बहनों को डिजिटल माध्यम से जोड़ने के लिए ‘जाॅइन स्वदेशी...’ प्रक्रिया खड़ी की जायेगी। जिसकी देखरेख श्री बलराम नंदवानी (अ.भा. सहविचार विभाग प्रमुख) करेंगे।

प्रतिनिधिगणः देश भर से विभिन्न राज्यों से निम्नलिखित स्वदेशी कार्यकर्ताओं ने भाग लिया - केरल-20, तेलंगाना-03, आंध्र प्रदेश-23, तमिलनाडू-08, कर्नाटक-25, विदर्भ-22, प. महाराष्ट्र-03, कोकण-02, गुजरात-39, मध्य भारत-47, महाकौशल-24, मालवा-23, छत्तीसगढ़-04, चित्तोड़-19, जोधपुर-30, जयपुर-38, जम्मू कश्मीर-25, पंजाब-15, हिमाचल प्रदेश-43, हरियाणा-60, दिल्ली-85, प.उ.प्र.-42, अवध-04, पूर्वी उ.प्र.-96, उत्तराख्ंाड-07, उड़ीसा-83, प. बंगाल-57, झारखंड-78, उ.बिहार-14, द.बिहार-40, सिक्किम-01, कुल-980

दायित्वः श्री आर.सुन्दरम जी अब स्वदेशी जागरण मंच के अखिल भारतीय संयोजक का दायित्व निभायेंगे तथा अभी तक अखिल भारतीय संयोजक श्री अरूण ओझा जी अब अखिल भारतीय सहसंयोजक रहेंगे। ऐसे ही आयुवृद्धि के कारण अब तक अ.भा. सहसंयोजक प्रो. बी.एम.कुमारस्वामी अब सिर्फ रा.प. सदस्य रहेंगे। राष्ट्रीय सभा में निम्नलिखित स्वदेशी कार्यकर्ताओं के दायित्व की भी घोषणा हुई -
- तमिलनाडू- श्री पी. पूमारन-मदुरै (विभाग संयोजक व रा.प. सदस्य)
- आंध्र प्रदेश- श्री कृष्णभगवान (सिर्फ प्रांत संपर्क प्रमुख रहेंगे)।
- कर्नाटक- अब से दो प्रांत रहेंगे 1. दक्षिण कर्नाटक, 2. उत्तर कर्नाटक, श्री जगदीश इन दोनों प्रांतों के संगठक व तेलंगाना के संपर्क प्रमुख रहेंगे।
श्री मंजूनाथ (प्रांत संयोजक-द. कर्नाटक), श्री विजय कृष्णा (प्रांत सहसंयोजक-द. कर्नाटक), श्री एस.सी. पाटिल (प्रांत संयोजक-उत्तर. कर्नाटक), श्री श्रीनिवास (प्रांत संपर्क प्रमुख, द. कर्नाटक), प्रो. सत्यनारायण (प्रांत सह विचार विभाग प्रमुख व रा.प. सदस्य)  
- मध्य भारत- श्री बाबूदास (केवल रा.प. सदस्य), श्रीकांत बुधोलिया (सह प्रांत संयोजक)
- महाकौशल- श्री संजीव डे (प्रांत संपर्क प्रमुख व रा.प. सदस्य)
- मालवा- श्री सुरेश बिजोलिया (सिर्फ रा.प. सदस्य), श्री हरिओम वर्मा (प्रांत संयोजक), श्री दिलीप चैहान (सह प्रांत संयोजक)
- राजस्थान क्षेत्रः डाॅ. सतीश आचार्य (क्षेत्र सह संयोजक, राज.),
- चित्तौड़ प्रांत- श्री पुरूषोत्तम शर्मा (प्रांत संयोजक), श्री महेश नवहाल (प्रांत सहसंयोजक), श्री राजेन्द्र शर्मा-कोटा (प्रांत सहसंयोजक)
- जयपुर प्रांत- श्री सुरेश खंडेलवाल (केवल रा.प. सदस्य)
- पंजाब- डाॅ. मनजीत बंसल (प्रांत संपर्क प्रमुख व रा.प. सदस्य), श्री अरविन्द (महानगर संयोजक व रा.प. सदस्य), श्री मधुर महाजन-चंडीगढ़ ( महानगर संयोजक व रा.प. सदस्य)
- हरियाणा- श्री अनिल कुमार-हिसार (विभाग संपर्क प्रमुख व रा.प. सदस्य)
- दिल्ली- श्री सुशील पांचाल (सिर्फ रा.प. सदस्य), श्री रविन्द्र सोलंकी (सिर्फ रा.प. सदस्य)
- अवध- डाॅ. मनोज अग्रवाल-लखनऊ (सह प्रांत संयोजक)
- पूर्वी उ.प्र.- श्री शारदानंद त्रिपाठी (प्रांत सह संघर्षवाहिनी प्रमुख)    
- उ. बिहार- श्री मणिकांत जालान (विचार विभाग प्रमुख, जिला बेगूसराय), श्री पवन कुमार (सह विचार विभाग प्रमुख, बेगूसराय)
- द. बिहार- श्री प्रवीण दूबे (प्रांत विचार विभाग प्रमुख व रा.प. सदस्य), श्री लाल बहादुर दुबे (सह प्रांत संयोजक)
- झारखंड- श्री पुतकर हैम्बर्ग (सिर्फ रा.प. सदस्य)
- बंगाल- डाॅ. समीर चटर्जी (प्रांत विचार विभाग प्रमुख व रा.प. सदस्य), डाॅ. भाग्योधर भट्टाचार्य (रा.प. सदस्य),
श्री अशोक पाल चैधरी (रा.प. सदस्य), श्रीमती दुलाली दसक (रा.प. सदस्य), श्री श्यामल कांतिधर (रा.प. सदस्य)
- सिक्किम- श्री शिरीष खाडे-नामची (सह प्रांत संयोजक)
- असम- श्री प्रशांत भोइयां अब सिर्फ राष्ट्रीय परिषद् सदस्य रहेगें।

विशेषः केंद्रीय टोली ने एक निर्णय द्वारा अ.भा. कार्यसमिति का पुनर्गठन किया है। इसलिए इसकी सूचना नये सिरे से भेजी जायेगी। जिन्हें इसकी सूचना मिले कृपया वे ही अपना आरक्षण 28-29 मार्च की कार्यसमिति बैठक दिल्ली हेतु करें।

समापन समारोहः समापन समारोह में अखिल भारतीय संयोजक श्री अरूण ओझा ने सभी कार्यकर्ताओं का अभिनंदन किया तथा हरद्वार की पवित्र धरती के पावन वातावरण में संपन्न अखिल भारतीय सभा के लिए उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश के कार्यकर्ता डाॅ. राजीव कुमार, श्री सुरेन्द्र सिंह, श्री रामकुमार सहित सभी कार्यकर्ताओं का आभार व अभिनंदन किया। स्वदेशी जागरण मंच की 28 वर्षाें की यात्रा के साक्षी श्री अरूण ओझा ने कहा कि भारत के आर्थिक क्षेत्र का स्वदेशी जागरण मंच का अखिल भारतीय संगठन सबसे बड़ा है। इस पर हमें गौरव है। यह कार्यकर्ताओं की तपस्या से हुआ है। भारत की परंपरा और पश्चिमी संस्कृति में अंतर बताते हुए कहा कि हम अंतिम व्यक्ति के विकास की चिंता करते है, वहीं पश्चिम के लोग सर्वोत्तम का चयन करते है। उन्होंने कहा कि हमारी लड़ाई आर्थिक साम्राज्यवाद के विरूद्ध है। देश में इसके कारण हमारी परिवार प्रणाली पर आक्रमण हो रहे हैं। परिवारों में पश्चिमी प्रभाव देखा जा रहा है व रहने का तरीका बदल रहा है। जिससे भारतीय संस्कृति पर काले बादल मंडरा रहे है। हमारी संस्कृति देश की आत्मा है और इस बचाना है। श्री घनश्याम दास बिडला के वाक्य को उद्धत करते हुए उन्होंने कहा कि भारत अपने आप में दुनिया का सबसे बड़ा बाजार है। हमें अपनी शक्ति पर खड़े होना है। आज दुनिया को भारत की जरूरत है। हम वनराज हैं। अपनी शक्ति को हम पहचानते है। हम सब इसको मिलकर नई ताकत के रूप में खड़ा करेंगे। जो नहीं हुए पूर्ण काम ....... पंक्ति के साथ ही सब कार्यकर्ताओं को बधाई देते हुए अपना उदबोधन समाप्त किया।
मंच पर प्रो. भगवती प्रकाश ने श्री अरूण ओझा के स्थान पर श्री आर. सुन्दरम को अखिल भारतीय संयोजक के नये दायित्व की घोषणा की। श्री आर. सुन्दरम ने अपने उद्बोधन में श्रद्धेय बाला साहब देवरस जी को उद्धत करते हुए कहा कि अपने पास यह देव दुर्लभ टोली है, जो समाज जीवन में परिवर्तन करेगी। उन्होंने अपने पूर्ववर्ती संयोजकों डाॅ. एम.जी. बोकरे, श्री पी.मुरलीधर राव, श्री अरूण ओझा के प्रयत्नों को स्मरण किया व प्रो. भगवती भगवती प्रकाश, श्री कश्मीरी लाल तथा अन्य महानुभवों को संबोधित होकर कहा कि इन सब लोगों का मार्गदर्शन लेते हुए पूज्य ठेंगड़ी जी की नीतियों के अनुसार स्वदेशी जागरण मंच को आगे बढ़ायेंगे। उन्होंने पूंजीवाद की चर्चा करते हुए कहा कि अनेक राष्ट्र इस विकास के मार्ग को अपना रहे हैं। पर स्वदेशी मार्ग इसको नहीं मानता। हमने आम आदमी की बात की है। डब्ल्यूटीओ के समान, आरसीईपी का भरपूर विरोध किया और हमें अंततः विजय मिली है। उन्होंने कहा कि आने वाले वर्ष भारत के अर्थिक क्षेत्र के लिए बड़े चुनौतिपूर्ण होंगे। मंच को इसके लिए तैयार रहना होगा। देश को 5 ट्रिलियन डाॅलर की अर्थव्यवस्था बनाने व रोजगार खड़ा करने हेतु व्यापक प्रयत्न भी करने होंगे। भारत में श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी जी के मार्ग पर चलते हुए हम राष्ट्र प्रथम, स्वदेशी प्रथम के सिद्धांत को अपनायेंगे। हम सबको भारत को एक महाशक्ति बनाने का संकल्प करना है। भारत माता की जय।
भवदीय

सतीश कुमार
स्वदेशी जागरण मंच, दिल्ली

संलग्नः चारों प्रस्ताव 

प्रस्ताव -1
जैविक, प्राकृतिक-परंपरागत कृषि ही है लाभकारी
स्वदेशी जागरण मंच की राष्ट्रीय सभा ने भारत में कृषि की मौजूदा स्थिति और किसानों और ग्रामीण अर्थव्यवस्था की दुर्बल स्थिति पर गंभीर चिंता व्यक्त की।भारत की आत्मा अपने गांवों में निहित है। प्राचीन भारतीय गाँव आत्मनिर्भर थे, जिनमें कुशल समुदाय शामिल थे और सभी लोग आत्मनिर्भर थे। देश के भोजन का उत्पादन करने के अलावा उन्होंने शहरों को प्राथमिक और द्वितीयक उत्पादों की आपूर्ति की। शहर, गाँवों पर निर्भर थे और दुनिया भर में व्यापार और निर्यात किए जाने वाले इन सामानों और उत्पादों के प्राथमिक आपूर्ति के केंद्र थे, गांव। इसके परिणामस्वरूप भारत ‘सोने की चिड़िया’ कहलाया और दुनिया के कुल उत्पाद (जीडीपी) का 30 प्रतिशत से अधिक हिस्सा भारत का हो गया। दुर्भाग्य से, आज के गाँव पूरी तरह से बेरोजगारी की मार झेल रहे शहरों पर निर्भर हो गए हैं।
भारत में हरित क्रांति ने उच्च उपज देने वाली किस्मों, बीजों, सिंचाई, रासायनिक कीटनाशकों और उर्वरकों को अपनाने और मशीनीकरण के कारण पारंपरिक कृषि को एक औद्योगिक प्रणाली में बदल दिया। हालाँकि इसने खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि की और भारत को एक खाद्य अधिशेष राज्य बना दिया, लेकिन किसानों के लिए दीर्घकालिक सामाजिक और वित्तीय समस्याएं पैदा कर दीं। फसलों के लागत मूल्य में तेजी से वृद्धि हुई। पर नतीजा यह हुआ कि कृषि पर निर्भरता 1947 में 70 प्रतिशत से 44.8 प्रतिशत तक कम हो गई है, साथ ही साथ राष्ट्रीय सकल घरेलू उत्पाद में योगदान 49 से 14 प्रतिशत तक कम हो गया है। किसानों को संस्थागत फसल ऋण अब 11.68 लाख करोड़ रुपये है।
इस तरह के भारी इनपुट लगाने के बाद भी, कृषि उत्पादकता में स्थिरता आई है और कृषि क्षेत्र की वृद्धि आम तौर पर स्वीकृत 4 प्रतिशत के स्तर से भी कम 2.8 प्रतिशत है। आर्थिक सुधारों और वैश्वीकरण के कारण ग्रामीण आय में असमानताएँ हुई, जिससे संकट और बड़े पैमाने पर किसान आत्महत्याएँ करने लगे। एमएसपी वृद्धि ने आम तौर पर संपन्न किसानों को लाभान्वित किया और भंडारण एजेंसियों के साथ 50 मिलियन टन से अधिक खाद्यान्न की अभूतपूर्व मात्रा में वृद्धि की, परंतु इससे सब्सिडी का बोझ कई गुना बढ़ गया।
रासायनिक खेती ने हमारी मिट्टी, पानी, नदियों, हवा, भोजन और यहां तक कि मां के दूध में भी जहर घोल दिया है। कैंसर, हार्टअटैक, डायबिटीज, बीपी, मनोवैज्ञानिक विकार इत्यादि के खतरे वाले जीवन अब सामान्य हैं। कॉटन बेल्ट में ‘कैंसर ट्रेन’ रासायनिक खेती का उपहार है। महंगे कीटनाशकों और उर्वरकों के उपयोग ने न केवल खेती की लाभप्रदता को कम किया है, बल्कि राष्ट्र के लिए गंभीर स्वास्थ्य खतरे भी पैदा किए हैं।
उत्पादन की बढ़ती लागत ने 25 प्रतिशत छोटे किसानों को खेती से बाहर कर दिया और 31 प्रतिशत सीमांत किसान उत्पादकता में वृद्धि के बावजूद गरीबी रेखा से नीचे रह रहे हैं। रासायनिक खेती ने न केवल ग्रामीण अर्थव्यवस्था को चकनाचूर कर दिया, बल्कि गांवों से बड़े पैमाने पर पलायन के कारण रोजगार में कमी आई है। अकेले दस वर्षों में, शहरी आबादी 25.6 प्रतिशत से बढ़कर 30.2 प्रतिशत हो गई है।
भारत में हरित क्रांति के जनक डॉ। एम.एस. स्वामीनाथन ने इन दुष्परिणामों को स्वीकार किया और अनेक वैज्ञानिकों ने साबित किया है कि पारंपरिक कृषि उतनी अकुशल नहीं थी जितनी कि इसे बताया गया था। 1880 में नोबल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन और अकाल आयोग की रिपोर्टों से भी पारंपरिक खेती के कारण भारत में अक्सर अकाल कायम रहने का मिथक टूटा है।
पारंपरिक भारतीय कृषि प्रणाली ने बहु-स्तरित फसलों, मिट्टी के संवर्धन और उत्पाद मूल्य संवर्धन सहित व अधिक उत्पादन वाले इष्टतम मॉडल’ को अपनाया, जो पर्यावरण के साथ एक स्थिर संबंध भी स्थापित करती है। यह माॅडल खेती का सबसे वैज्ञानिक तरीका था, जो देशी गाय के आसपास विकसित और केंद्रित था, जिससे गाँव के सभी समुदायों को 100 प्रतिशत रोजगार भी मिलता था।
रासायनिक खेती के दुष्प्रभावों को दूर करने के लिए, स्वदेशी जागरण मंच ने स्वदेशी स्वावलंबन मॉडल का आहवान किया, जो कि भारत में 43 लाख से अधिक किसानों द्वारा 15 से अधिक पारंपरिक खेती के तरीकों का सफलतापूर्वक अभ्यास किया जा रहा है। महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में बड़े पैमाने पर प्राकृतिक खेती को सफलतापूर्वक अपनाना इस बात का प्रमाण है कि रासायनिक खेती की तुलना में उत्पादन वास्तव में बढ़ता है। ये भूमि अब ‘कीटनाशक मुक्त’ हैं और किसान की आय में कम से कम 25 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।
वैश्विक वैज्ञानिक सबूतों को स्पष्ट रूप से दोहराया गया है कि ‘जैविक खेती मौजूदा भूमि से 2050 तक 9 अरब की आबादी को सहजता से खिला सकती है’। इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च ऑन इंटरनेशनल इकोनॉमिक रिलेशंस द्वारा हाल ही में किए गए एक अध्ययन में पारंपरिक भारतीय कृषि की अप्रत्यक्ष रूप से पुष्टि की गई है, जो श्रेष्ठ प्राकृतिक उत्पादों की श्रेष्ठता है और भारत निर्यात व जैविक उत्पादों के लिए विश्व नेता के रूप में है। भारत सरकार ने विभिन्न प्राकृतिक व परंपरागत कृषि तकनीकों की सफलता और क्षमता का एहसास करते हुए रुपये के परिव्यय के साथ एक महत्वाकांक्षी ‘परंपरागत कृषि विकास योजना’ शुरू की। 4000 करोड़।
कुछ निहित स्वार्थों ने किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी का विरोध किया है कि यह मुद्रास्फीति को बढ़ाता है। विख्यात अर्थशास्त्रियों द्वारा हाल के कई अध्ययनों ने बड़े पैमाने पर वैज्ञानिक अध्ययन करके इस मिथक का भंडाफोड़ किया है।
स्वदेशी जागरण मंच भारत के नागरिकों से अपील करता है कि वे अपने कृषि को विदेशी कंपनियों के चंगुल से बचाने के लिए तरीकों और साधनों की तलाश करें, जो कि संकर/जीएम बीजों, रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों को बढ़ावा दे रहे हैं। किसानों को उचित मूल्य सुनिश्चित करने और विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के जहरीले जबड़े से भारतीय कृषि को मुक्त करने के लिए केंद्र सरकार भी अनुकूल नीतियों का मसौदा तैयार करे।
इसलिए यह आवश्यक है कि पारंपरिक भारतीय तरीके से कृषि को बढ़ावा देने के लिए योजनाएं हों, कृषि उत्पादों के मूल्य संवर्धन को सुनिश्चित किया जाए और एमएसपी में काफी वृद्धि की जाए ताकि कृषि क्षेत्र को तेजी से रिकवरी मोड पर लाया जा सके। स्वदेशी जागरण मंच की राष्ट्रीय सभा आम जनता और विभिन्न राज्य सरकारों व केंद्र सरकार से भी इस संबंध में उचित निर्णय लेने का अनुरोध करती है।


प्रस्ताव -2 
रोजगार भारतीय अर्थव्यवस्था व समाज जीवन का प्राणतत्व है, इसकी वृद्धि हेतु सरकार व समाज दोनों प्रयत्न करें।

भारत अनादिकाल से आर्थिक स्वावलम्बन-प्रधान एवं पूर्ण रोजगारयुक्त राष्ट्र रहा है। हमारी अधिकांश जनसंख्या अपने पारिवारिक व्यवसाय के माध्यम से आर्थिक समृद्धि व स्वावलम्बन के मार्ग पर अनवरत अग्रसर रही है और देश के ग्राम व नगर अपनी अधिकांश आवश्यकताओं के लिए स्वावलम्बी रहे है। उन्नत व विकेन्द्रित उत्पादन के आधार पर ही ईसापूर्व काल से ही भारत, विश्व का सबसे बड़ा उत्पादन व वस्तु निर्यात का केन्द्र रहा है। ब्रिटिश आर्थिक इतिहास लेखक एंगस मेडिसन के अनुसार भारतवर्ष 1500 तक विश्व के एक तिहाई उत्पादों के उत्पादन व निर्यात का वैश्विक उद्गम रहा है। देश के विकेन्द्रित उत्पादन तंत्र का सुदृढ़ आधार नष्ट होने और वैश्वीकरण में आयात उदारीकरण व विदेशी पूंजी निवेश प्रोत्साहन के कारण आज विश्व के विनिर्माणी उत्पादन में भारत का योगदान मात्र 3 प्रतिशत ही है। आज देश के सूक्ष्म, लघु, मध्यम एवं वृहद-स्तरीय उद्यमों में फैलती रूग्णता व उद्यमबंदी से देश में फैलती बेरोजगारी के कारण, कार्यशील आय की जनसंख्या की श्रम शक्ति में भागीदारी तक 50 प्रतिशत से भी न्यून हो गयी है।
देश में बेरोजगारी एवं संगठित क्षेत्र मे रोजगार सृजन में सतत गिरावट, अनौपचारिक क्षेत्र के संकुचन, संगठित क्षेत्र में रोजगार के घटते अवसरों के आलोक में आने वाले समय में युवाओं को वृहद स्तर पर अपना स्व-उद्यम स्थापित करने की पहल कर स्वयं रोजगार प्रदाता बनना होगा। देश में कई युवाओं द्वारा अध्ययनोपरान्त स्टार्ट-अप सहित विविध सफल उद्यमों, कृषि क्षेत्र में नई तरीकों के प्रयोगों की स्थापना प्रवृत्ति बढ़ भी रही है। लेकिन, स्वरोजगार, स्व-उद्यमों एवं स्टार्ट-अप्स सहित स्वदेशी पूंजी आधारित उद्यमों की स्थापना के लिए वांछित पारिस्थितिकी तंत्र एवं उचित वातावरण के अभाव में स्वरोजगार सहित सभी प्रकार के रोजगार सृजन में गंभीर गतिरोध भी दृष्टिगोचर होता है। कृषि के बाद रोजगार के सबसे बड़े आधार वस्त्रोद्योग से लेकर सौर ऊर्जा व इलेक्ट्रानिक्स पर्यंत विविध क्षेत्रों के उद्यमबंदी भी चिंताजनक है। उद्यमिता विकास की मुद्रा योजना व स्टार्ट-अप संवर्द्धन आदि की 50 से अधिक शासकीय योजनाओं का अधिकतम लाभ उठाते हुये युवाओं को वेतनकर्मी बनने की अपेक्षा अपना सफल व स्व-संचालित उपक्रम स्थापित कर प्रत्येक ग्राम, कस्बे, नगर व महानगर को नवस्थापित उद्यमों से युक्त करते हुये हर घर-द्वार को रोजगार सृजन का आधार बनाना होगा। स्टार्ट-अप इण्डिया व स्टैण्ड-अप इण्डिया की महत्वकांक्षी योजनाओं के उपरान्त भी इतने विशाल युवाओं वाले देश में आज भी मात्र 50,000 पंजीकृत स्टार्ट-अपस् हैं और आगामी पाँच वर्षों में भी सरकार इसमें 50,000 की ही वृद्धि की अपेक्षा कर रही हंै। इस गति से उद्यमिता विस्तार से देश की बेरोजगारी की समस्या का समाधान कठिन है। अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार देश की अर्थव्यवस्था 80 प्रतिशत अनौपचारिक क्षेत्रान्तर्गत व मात्र 6.5 प्रतिशत औपचारिक क्षेत्र में है। विगत 28 वर्षों में नव-उदारवादी नीतियों के अधीन विदेशी निवेश्कों व संगठित क्षेत्र को प्रदत्त लाखों करोड़ की राजकोषीय छूटों, सहायताओं, अनुदानों व उनके लिये घोषित विविध राजकोषीय पैकजों का 80 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या के योगक्षेम के मूल बने हुए आधार अनौपचारिक क्षेत्र को नहीं गया है। इसके विपरीत खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश, ई-कामर्स में विदेशी कम्पनियों के प्रवेश रोकड़ सहित व अल्परोकड़ उपयोग प्रोत्साहन योजनाओं आदि से स्वरोजगार क्षेत्र व अनौपचारिक क्षेत्र सर्वाधिक प्रभावित हुआ है।
स्वदेशी जागरण मंच सरकार से आग्रह करता है किः
1. देश के स्वरोजगाररत वर्गों की समस्याओं का निकट से अध्ययन कर उनके संरक्षण, समर्थन व सम्बल प्रदान करे। इस हेतु स्वरोजगार में संलग्न व्यक्तियों व परिवारों का विश्वसनीय और तथ्यात्मक डेटा बैंक व विस्तृत प्रतिवेदन भी विकसित करे। रोजगार निर्माण हेतु कोई नियामक भी बनाया जा सकता है।
2. स्वरोजगार को प्रभावित करने वाली आर्थिक नीतियों को उलटकर, उसे बढ़ावा देने की प्रभावी योजना लाये। स्वरोजगाररत एवं मुद्रा आदि ऋणों के पात्र लोगों को ऋण देने हेतु चयन बैंकांे पर छोड़ने के स्थान पर इच्छुक लोगों का स्वतंत्र पंजीयन, चयन व अनुशंसा करने की प्रक्रिया विकसित की जाये।
3. स्वरोजगाररत व अनौपचारिक क्षेत्र के उपक्रमों की सूचीयन, पंजीयन, विपणन व संवर्द्धन आदि के लिए ऐसा डिजिटल विनिमय ;क्पहपजंस म्गबींदहमद्ध विकसित करे जिस पर उनकी वस्तुओं व सेवाओं का लाभ पूर्ण विपणन हो सके।
मंच का आग्रह है कि सरकार स्व-उद्यम व स्टार्ट-अप सहित सभी प्रकार के स्वरोजगार में संलग्न वर्गों जिसमें फेरीवाले, रिक्शा वाले, कुम्हार, बढ़ई, चर्मकार, हस्तशिल्पी, टिफिन सेवा प्रदाता, सौन्दर्य विशेषज्ञ (ब्युटिशियन) आदि सभी स्वरोजगाररत वर्गों के सूचीयन, संवर्द्धन एवं उनके उचित योगक्षेम की वृहद स्तर पर आयोजन कर इसका अविलम्ब क्रियान्वयन करे।
मंच समाज से भी आग्रह करता है कि -
— युवा वर्ग सहित सभी श्रेणीयों के समाजजन विविध प्रकार के स्व-उद्यम व स्वरोजगार के अवसरों का उपयोग कर न केवल अपने रोजगार का सृजन करें, वरन अन्य भी रोजगार खोजने वाले अधिकतम लोगों के लिए रोजगार प्रदाता बनें। श्ॅम ूपसस दवज इम रवइेममामतए ूम ूपसस इम रवइ चतवअपकमतश् यह विचार देश भर के युवाओं का प्रेरक-दिशा बोध हो, इस हेतु जनजागरण करना होगा।
— स्थानीय व स्वदेशी की खरादो का आग्रह भी रोजगार, लघु व स्थानीय उद्योगों को बढ़ायेगा व रोजगार बढ़ेगा।
— कृषि उत्पादों का मूल्य संवर्धन कर बेचना, व कृषि की सहायक गतिविधियां (गौ, पशुपालन, मधुमक्खी, मुर्गी पालन आदि) भी ग्रामीण क्षेत्र की आय व रोजगार बढ़ाती है।

मंच सभी कार्यकत्र्ताओं का भी आवाहन करता है कि सभी शिक्षण संस्थानों, स्थानीय स्व-उद्यम संकुलों और सम्पूर्ण समाज में स्व-उद्यम व स्वरोजगार की प्रेरणा जगायें और उद्यम उष्मायन केन्द्रांे अर्थात इनक्यूबेशन सहित उद्यमिता विकास की गातिविधियों उद्यमिता विकास अभ्यास वर्गों आदि के माध्यम से समाज को व्यापक स्तर पर स्वरोजगार की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा एवं अधिकतम सहकार प्रदान करंे।

प्रस्ताव -3
डेटा संप्रभुता-डेटा स्थानीयकरण-डिजिटल राष्ट्रवादः समय की मांग
डेटा चैथी औद्योगिक क्रांति का नया आधार है और यदि डेटा को प्रोसेस करते हैं तो इसमें एक तेज एल्गोरिथम के साथ वह करने की क्षमता है, जिसकी मानव अभी तक कल्पना भी नहीं कर पाया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि यह सत्ता के लिए एक कच्चा माल है, प्रभाव बढ़ाने का स्रोत है और मानवता को नियंत्रित करने का एक माध्यम है। जब वैश्विक शक्तियां इस डेटा को कब्जाने के लिए पूरी कोशिश कर रहे हैं, भारत जो दुनिया की आबादी का छठा हिस्सा; इंटरनेट उपभोक्ताओं का पांचवां हिस्सा है, चुप नहीं बैठ सकता।
भारत को न केवल देश में इक्ट्ठा किए डेटा के स्वामित्व की ही नहीं, बल्कि देश की भौगोलिक सीमाओं के अंतर्गत डेटा की गणना करने के अधिकार की भी आवश्यकता है। डेटा व्यवहार को समझने और व्यवहार को प्रभावित करने के साथ-साथ कुशल रोजगार और उद्यमशीलता के अवसरों के सृजन की कुंजी है। यह भविष्य है, यह वर्तमान है और देश को इस अवसर को पाने के लिए जागना होगा।
यदि हम अपने आस-पास देखें तो रोबोट आधारित उत्पादन और मशीन लर्निंग के लिए डेटा एक कुंजी है, जो मैन्युफैक्चरिंग और सेवा क्षेत्र को आकार दे रही है। ई-काॅमर्स फर्में और प्लेटफार्म डिजिटल अर्थव्यवस्था में डेटा को नियंत्रित कर रहे हैं और इसके माध्यम से वे एकाधिकारिक लाभ उठा रहे हैं। बड़ा प्रश्न यह है कि क्या हम अपने ही आचरणों और उपक्रमों के व्यवहार और समाधान जानने के लिए डाॅलरों या यूरो में भुगतान कर सकते हैं? चैथी औद्योगिक क्रांति या डिजिटल औद्योगिक क्रांति की सफलता डेटा तक पहुंच पर निर्भर करती है।
विकस

Thursday, November 21, 2019

Gandhi's Views on Swadeshi/Khadi

Gandhi's Views on Swadeshi/Khadi Selections from Gandhiji's writings and speeches to explain his view on Swadeshi/Khadi. GANDHI PHILOSOPHYGANDHI'S VIEWS ON SWADESHI/KHADI : DEFINITION OF SWADESHI GANDHI PHILOSOPHY On Swadeshi/Khadi Definition of Swadeshi Meaning of Swadeshi Further Reading (Complete Book available online) From The Mind of Mahatma Gandhi Back to the Village All-Round Village Service The Gospel of the Charkha Panchayat Raj Cow Protection Definition of Swadeshi After much thinking I have arrived at a definition of Swadeshi that, perhaps, best illustrates my meaning. Swadeshi is that spirit in us which restricts us to the use and service of our immediate surroundings to the exclusion of the more remote. Thus, as for religion, in order to satisfy the requirements of the definition, I must restrict myself to my ancestral religion. That is the use of my immediate religious surrounding. If I find it defective, I should serve it by purging it of its defects. In the domain of politics, I should make use of the indigenous institutions and serve them by curing them of their proved defects. In that of economics, I should use only things that are produced by my immediate neighbours and serve those industries by making them efficient and complete where they might be found wanting. It is suggested that such Swadeshi, if reduced to practice, will lead to the millennium, because we do not expect quite to reach it within our times, so may we not abandon Swadeshi even though it may not be fully attained for generations to come. Three Branches of Swadeshi Let us briefly examine the three branches of Swadeshi as sketched above. Hinduism has become a conservative religion and, therefore, a mighty force because of the Swadeshi spirit underlying it. It is the most tolerant because it is non-proselytizing, and it is as capable of expansion today as it has been found to be in the past. It has succeeded not in driving out, as I think it has been erroneously held, but in absorbing Buddhism. By reason of the Swadeshi spirit, a Hindu refuses to change his religion not necessarily because he considers it to be the best, but because he knows that he can complement it by introducing reforms. And what I have said about Hinduism is, I suppose, true of the other great faiths of the world, only it is held that it is specially so in the case of Hinduism. Indigenous Institutions Following out the Swadeshi spirit, I observe the indigenous institutions and the village Panchayats hold me. India is really a republican country, and it is because it is that, that it has survived every shock hitherto delivered. Princes and potentates, whether they were Indian born or foreigners, have hardly touched the vast masses, except for collecting revenue. The latter, in their turn, seem to have rendered unto Caesar what was Caesar's and for the rest have done much as they have liked. The vast organization of caste answered not only the religious wants of the community, but it answered to its political needs. The villagers managed their internal affairs through the caste system, and through it they dealt with any oppression from the ruling power or powers. It is not possible to deny of a nation that was capable of producing from the caste system its wonderful power of organization. One had but to attend the great Kumbh Mela at Hardwar last year to know how skilful that organization must have been which, without any seeming effort, was able effectively to cater for more than a billion pilgrims. Yet, it is the fashion to say that we lack organizing ability. This is true, I fear, to a certain extent, of those who have been nurtured in the new traditions. A Terrible Handicap We have laboured under a terrible handicap owing to an almost fatal departure from the Swadeshi spirit. We, the educated classes, have received our education through a foreign tongue. We have, therefore, not reacted upon the masses. We want to represent the masses, but we fail. They recognize us not much more than they recognize the English officers. Their hearts are an open book to neither. Their aspirations are not ours. Hence, there is a break. And you witness not in reality failure to organize but want of correspondence between the representative and the represented. If, during the last fifty years, we had been educated through the vernaculars, our elders and our servants and our neighbours would have partaken of our knowledge; the discoveries of a Bose or a Ray would have been household treasures, as are the Ramayana and the Mahabharata. As it is, so far as the masses are concerned, those great discoveries might as well have been made by foreigners. Had instruction in all the branches of learning been given through the vernaculars, I make bold to say that they would have been enriched wonderfully. The question of village sanitation, etc., would have been solved long ago. The village Panchayats would be now a living force in a special way, and India would almost be enjoying self-government suited to its requirements. The Cause of Our Poverty And, now for the last division of Swadeshi. Much of the deep poverty of the masses is due to the ruinous departure from Swadeshi in the economic and industrial life. If not an article of commerce had been brought from outside India, she would be today a land flowing with milk and honey!1 But that was not to be. We were greedy, and so was England. The connection between England and India was based clearly upon an error. But she does not remain in India in error. It is her declared policy that India is to be sheld in trust for her people. If this is true, Lancashire must stand aside. And if the Swadeshi doctrine is a sound doctrine, Lancashire can stand aside without hurt, though it may sustain a shock for the time being. I think of Swadeshi not as a boycott movement undertaken by way of revenge. I conceive it as a religious principle to be followed by all. I am no economist, but I have read some treatises which show that England could easily become a self-sustained country, growing all the produce she needs. This may be an utterly ridiculous proposition, and perhaps the best proof that it cannot be true, is that England is one of the largest importers in the world. But India cannot live for Lancashire or any other country before she is able to live for herself. And she can live for herself only if she produces and is helped to produce everything for her requirements within her own borders. She need not be, she ought not to be, drawn into the vortex of mad and ruinous competition which breeds fratricide, jealousy and many other evils. But who is to stop her great millionaires from entering into the world competition? Certainly, not legislation. Force of public opinion, proper education, however, can do a great deal in the desired direction. The hand-loom industry is in a dying condition. I took special care, during my wanderings last year, to see as many weavers as possible, and my heart ached to find how they had lost, how families had retired from this once flourishing and honourable occupation. 1. "Had we not abandoned Swadeshi, we need not have been in the present fallen state. If we would get rid of the economic slavery, we must manufacture our own cloth and, at the present moment, only by hand-spinning and hand-weaving." - Mahatma: Vol. II, p.21. Our Duty If we follow the Swadeshi doctrine, it would be your duty and mine to find out neighbours who can supply our wants and to teach them to supply them where they do not know how to proceed, assuming that there are neighbours who are in want of healthy occupation. Then every village of India will almost be a self-supporting and self-contained unit, exchanging only such necessary commodities with other villages where they are not locally producible. This may all sound nonsensical. Well, India is a country of nonsense. It is nonsensical to parch one's throat with thirst when a kindly Mohammedan is ready to offer pure water to drink. And yet thousands of Hindus would rather die of thirst than drink water from a Mohammedan household. These nonsensical men can also, once they are convinced that their religion demands that should wear garments manufactured in India only and eat food only grown in India, decline to wear any other clothing or eat any other food. Lord Curzon set the fashion for tea-drinking. And that pernicious drug now bids fair to overwhelm the nation. It has already undermined the digestive apparatus of hundreds of thousands of men and women and constitutes as additional tax upon their slender purses. Lord Hardinge can set the fashion for Swadeshi, and almost the whole of India will forswear foreign goods. There is a verse in the Bhagvad Gita which, freely rendered, means masses follow the classes. It is easy to undo the evil if the thinking portion of the community were to take the Swadeshi vow, even though it may for a time cause considerable inconvenience. I hate legislative interference in any department of life. At best, it is the lesser evil. But I would tolerate, welcome, indeed plead for a stiff protective duty upon foreign goods. Natal, a British colony, protected its sugar by taxing the sugar that came from another British colony, Mauritius. England has sinned against India by forcing free trade upon her. It may have been food for her, but it has been poison for this country.1 1. "We are too much obsessed by the glamour of the West. We forget that what may be perfectly good for certain conditions in the West is not necessarily good for certain other, and often diametrically opposite, conditions in the East. Free trade, which may have been good enough for England, would certainly have ruined Germany. Germany prospered only because her thinkers, instead of slavishly following, England took note of the special conditions of their own land, and devised economics suited to them." - Young India: May 12, 1927 A Religious Discipline It has often been urged that India cannot adopt Swadeshi in the economic life at any rate. Those who advance this objection do not look upon Swadeshi as a rule of life. With them it is a mere patriotic effort not to be made if if involved any self-denial. Swadeshi, as defined here, is a religious discipline to be undergone in utter disregard of the physical discomfort it may cause to individuals. Under its spell, the deprivation of a pin or a needle, because these are not manufactured in India, need cause no terror. A Swadeshist will learn to do without hundreds of things which today he considers necessary. Moreover, those who dismiss Swadeshi from their minds by arguing the impossible, forget that Swadeshi, after all, is a goal to be reached by steady effort. And we would be making for the goal even if we confined Swadeshi to a given set of articles, allowing ourselves as a temporary measure to use such things as might not be procurable in the country. Not a Selfish Doctrine There now remains for me to consider one more objection that has been raised against Swadeshi. The objectors consider it to be a most selfish doctrine without any warrant in the civilized code of morality. With them to practise Swadeshi is to revert to barbarism. I cannot enter into a detailed analysis of the proposition. But I would urge that Swadeshi is the only doctrine consistent with the law of humility and love. It is arrogance to think of launching out to serve the whole of India when I am hardly able to serve even my own family. It were better to concentrate my effort upon the family and consider that through them I was serving the whole nation and, if you will, the whole of humanity. This is humility and it is love. The motive will determine the quality of the act. I may serve my family regardless of the sufferings I may cause to others. As, for instance, I may accept an employment which enables me to extort money from people. I enrich myself thereby and then satisfy many unlawful demands of the family. Here I am neither serving the family nor the State. Or, I may recognize that God has given me hands and feet only to work with for my sustenance and for that of those who may be dependent upon me. I would then at once simplify my life and that of those whom I can directly reach. In this instance, I would have served the family without causing injury to anyone else. Supposing that everyone followed this mode of life, we should have at once an ideal state. All will not reach that state at the same time. But those of us who, realizing its truth, enforce it in practice, will clearly anticipate and accelerate the coming of that happy day. Under this plan of life, in seeming to serve India to the exclusion of every other country, I do not harm any other country. My patriotism is both exclusive and inclusive!1 It is exclusive in the sense that in all humility I confine my attention to the land of my birth, but it is inclusive in the sense that my service is not of a competitive or antagonistic nature. Sic utere tuo ut alienum non laedas is not merely a legal maxim, but it is a grand doctrine of life.2 It is the key to a proper practice of Ahimsa or love. It is for you, the custodians of a great faith, to set the fashion and show by your preaching, sanctified by practice, that patriotism based on hatred "killeth" and that patriotism based on love "giveth life". From an address at the Missionary Conference, Madras, on Feb.14, 1916. - Speeches & Writings of M. Gandhi: P.336 "My patriotism is not an exclusive thing. It is all embracing and I should reject that patriotism which sought to mount upon the distress or exploitation of other nationalities. The conception of my patriotism is nothing if it is not always, in every case without exception, consistent with the broadest good of humanity at large." - Young India: April 4, 1929 "My nationalism, fierce though it is, is not exclusive, is not devised to harm any nation or individual. Legal maxims are not so legal as they are moral. I believe in the external truth of 'sic utere tuo ut alienum non laedas'. (Use thy own property so as not to injure thy neighbour's)." - Young India: March 26, 1931.  Remembering Gandhi Assassination of Gandhi Tributes to Gandhi Gandhi's Human Touch Gandhi Poster Exhibition Send Gandhi Greetings Gandhi Books Read Gandhi Books Online Download PDF Books Download EPUB/MOBI Books Gandhi Literature Collected Works of M. Gandhi Selected Works of M.Gandhi Selected Letters Famous Speeches Gandhi Resources Gandhi Centres/Institutions Museums/Ashrams/Libraries Gandhi Tourist Places Resource Persons Related Websites Copyright © 2015 SEVAGRAM ASHRAM. All rights reserved. Developed and maintain by Bombay Sarvodaya Mandal | Sitemap You are visitor no. to our website since 2013 BACK TO TOP

Wednesday, November 20, 2019

विकास की अवधारणा, लेखक श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी।

अनुवाद के अंत में मूल अंग्रेजी रूप भी दिया गया है।
विकास की अवधारणा
श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी
अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद
43वां राष्ट्रीय अधिवेशन, चेन्नई।
25 से 28 ,1997
विकास की अवधारणा
यह एक सामान्य मिथ्या धारणा है कि विकास की अवधारणा हाल ही की है, और यह द्वितीय विश्व युद्ध के बाद प्रारंभ की गई। हालांकि यह सच है कि प्रगति के विचार, जिसे विकास का पर्याय माना गया, के पहले प्रसिद्ध प्रणेता एक फ्रांसीसी दार्शनिक काॅन्डोरसेट (Condorcet) (1743-94) थे। लेकिन सच्चाई यह है कि विकास का विचार उतना ही पुराना है, जितनी मानव की सोच की प्रक्रिया पुरानी है। डार्विन ने अपने सिद्धांत के माध्यम से पता लगाया कि इस ग्रह में जीवन के प्रारंभ से ही विकास की प्रक्रिया शुरू हो गई थी।

यूरोप का इतिहास देखें तो ग्रीक शहरों के शुरूआती काल के दौरान, सुकरात, प्लेटो और अरस्तु का क्या लक्ष्य थे? हालांकि देश काल और परिस्थितियों के अनुसार प्रयासों की प्रकृति बदलती रही, लेकिन परिस्थितियों की जरूरतों के अनुसार विकास के लिए प्रयास कभी नहीं रूके। सम्पूर्ण परिदृश्य पर यदि सरसरी दृष्टि डालें तो देखते हैं कि प्राचीन रोम से लेकर प्राचीन ग्रीस तक, मध्यकाल, इतालवी पुनर्जागरण, जर्मन सुधार, भौगोलिक खोजों और विदेशों में विस्तार, पश्चिमी यूरोप में राष्ट्रों का उदय, वैज्ञानिक क्रांति और प्रबुद्धता, लोकतांत्रिक क्रांतियों का काल और क्रांति के बाद का यूरोप, और 1945 के बाद का यूरोप - ये सभी निरंतर विकास के प्रयासों के उदाहरण हैं। हर कालखंड में हम महान मानवतावादी विचारकों को देखतें हैं जिनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य विकास ही था, चाहे यह विशेष पारिभाषिक शब्द चलन में नहीं था। विभिन्न धर्मों एवं ‘वादों’ के प्रणेताओं को किससे प्रेरणा मिलती थी? ई.पू. 509 की रोमन क्रांति से आधुनिक विद्रोहों तक, सभी क्रांतियों की प्रेरणा के बारे में, चे गुएवारा और फ्रायर ने स्पष्ट किया है। क्रांतिकारियों की मौलिक प्रेरणा समान थी। समान उद्देश्यों को दृष्टि में रखते हुए प्रजातंत्र के समर्थकों ने विभिन्न यूरोपीय देशों में संवैधानिक संघर्ष शुरू किया। आश्चर्यजनक सच्चाई है कि चाहे सामान्यतः सम्राट स्वकेन्द्रित और जनविरोधी होते थे, उनमें से कुछ ने यह सुनिश्चित करने के लिए विशेष प्रयास किए कि उनकी प्रजा उस प्रक्रिया में, जिसे आज ‘विकास’ कहते हैं, से लाभांवित हो सके। पीटर महान, फ्रेडेरिक महान और चाल्र्स महान (चाल्र्समैग्ने) ऐसे प्रबुद्ध शासक रहे।
संक्षेप में कह सकते हैं कि विकास एक पारिभाषिक शब्द चाहे जून 1945 के बाद चलन में आया, लेकिन इसका मूल विचार जीवन जितना ही पुराना है।
पश्चिमी सोच के साथ कठिनाई यह है कि यह हमेशा भागों में बटी हुई और खंडित रही है। हमारी सोच सदैव एकात्म एवं समग्र रही है। पश्चिम को हमेशा लगता है कि आर्थिक समस्याओं का समाधान सदैव अर्थशास्त्र के अध्ययन के माध्यम से और राजनीतिक समस्याओं का समाधान राजनीतिक विज्ञान के अध्ययन से ही हो सकता है। यह एकतरफा सोच है। किसी आर्थिक समस्या का सही निदान और उसको ठीक करने के उपयुक्त उपायों का विचार, विभिन्न गैर आर्थिक कारकों को साथ में संज्ञान में लिए बिना नहीं हो सकता। चाहे वह राजनीतिक, सामाजिक अथवा सांस्कृतिक क्षेत्र हो, यह बात सभी क्षेत्रों पर लागू होती है। आर्थिक समस्याओं में गैर आर्थिक कारकों के संज्ञान के महत्व को कम नहीं आंका जा सकता। उदाहरण के लिए ‘सामाजिक कारकों’ के बारे में एलटी हाॅबहाउस (Hobhouse)  निम्न टिप्पणी करते हैं।
यदि हम संपूर्ण सामाजिक कारक को हटा दें और हमें मलबे में उसकी रक्षित संपत्ति और अर्जित ज्ञान के साथ, लेकिन एक नग्न व्यक्ति जो कंद-मूल, बेर और लूट पर आश्रित व्यक्ति राॅबिन्सन क्रूसो मिलेंगे। मानव कल्याण पर विचार करते समय, गेर-आर्थिक भौतिकवादी कारकों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। उदाहरण के लिए इस देश की भौगोलिक स्थित, इसकी जलवायु, नदियां, पहाड़, प्राकृतिक बंदरगाह, शांति और सुरक्षा, या देश के प्राकृतिक संसाधन जैसे भूमि, जल, जंगल, खनिज संसाधन, कृषि क्षमता (दूसरे देशों में सामान्य विकास), आदि।
इसलिए गैर आर्थिक भौतिक कारकों जिनका मौद्रिक आंकलन नहीं हो सकता, की भी इस संदर्भ में अपनी एक भूमिका है।
लेकिन यही सबकुछ नहीं है। डेविड मारकोड राइट अपनी पुस्तक ‘ओपन सीक्रेट आॅफ इक्नाॅमिक ग्रोथ’ (1957) में कहते हैं कि ‘‘आर्थिक संवृद्धि को लाने वाले मौलिक कारक, गैर आर्थिक और गैर भौतिक स्वरूप के होते हैं। यह वो आत्मा है जो शरीर का निर्माण करती है।’’
पश्चिमी और हिन्दू दोनों प्रकार के विचारों के बीच इस बड़े अंतर को संज्ञान में लेना आवश्यक है।
पश्चिमी
हिन्दू
1. भागों में बटी हुई सोच - एकात्म सोच
2. मनुष्य- मात्र एक भौतिक जीव ही नहीं बल्कि
 मनुष्य- एक शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक-आध्यात्मिक अस्तित्व
3.अर्थ और काम की गुलामी नहीं बल्कि
पुरूषार्थ चतुष्टयम् की ओर प्रयास
4. समाज स्वकेन्द्रित व्यक्तियों का एक क्लब नहीं बल्कि एक समाज एक ऐसा शरीर जिसमें सभी मनुष्य उसके भाग हों
5. स्व की खुशी, बल्कि सब की खुशी
6. परिग्रह, नहीं अपरिग्रह (गैर आधिपत्य)
7. लाभ का उद्देश्य, नहीं बल्किसेवा का उद्देश्य
8. उपभोक्तावाद नहीं बल्कि, संयमित उपभोग
9. शोषण, नहीं अंत्योदय
10. दूसरों के कर्तव्य और अपने अधिकारों के प्रति सजगता, बल्कि अपने कर्तव्यों और दूसरों के अधिकारों के प्रति सजगता
11. अल्पता का भाव, नहीं बल्कि उत्पादन की प्रचुरता
12. विभिन्न उपकरणों’ के माध्यम से एकाधिकारिक पूंजीवाद नहीं अपितु 
बाजारों में हेरफेर बिना मुक्त प्रतिस्पर्धा **
13. मजदूरी रोजगार केंद्रित आर्थिक सिद्धांत
नहीं, बल्कि स्वरोजगार केंद्रित आर्थिक सिद्धांत
14. सर्वहारा की लगातार बढ़ती फौज
नहीं बल्कि लगातार बढ़ता विश्वकर्मा (स्वरोजगार) क्षेत्र
15.लगातार बढ़ती असमानताएं नहीं बल्कि 
गुणवत्ता के साथ समानता एवं बराबरी की ओर बढ़ना
16.प्रकृति का बलात्कार नहीं बल्कि प्रकृति माता का दोहन
17. व्यक्ति, समाज एवं प्रकृति के बीच निरंतर संघर्ष नहीं बल्कि व्यक्ति, समाज और प्रकृति के बीच पूर्ण सामंजस्य
**’ उदाहरण के लिए एजेंटो, ब्रांडों, काॅपी राईट, ट्रेड मार्क, लाईसेंस, कोटा, संरक्षणात्मक आयात शुल्क, कार्टेल, एकत्रीकरण, ट्रस्ट, होल्डिंग कंपनियां या अंतरनिगमीय निदेशक मंडल, अंतरनिगमीय निवेश इत्यादि।
_______
ये दोनों पूर्णतया अलग विचार हैं। प्रत्येक समाज ‘सभी लो या सभी छोड़ो’ के आधार पर इन दोनों में से चयन करने के लिए स्वतंत्र है।
संयुक्त राष्ट्र ने पहली बार इस समस्या का संज्ञान 1951 में एक रिपोर्ट द्वारा लिया, जिसमें अल्पविकसित देशों के विकास के बारे में सोचा गया था। इस प्रकार से यह एक बड़ा मील का पत्थर था। संयुक्त राष्ट्र की इस रिपोर्ट को तैयार करने में डाॅ. डी.आर. गाडगिल जुड़े हुए थे।
डाॅ. गाडगिल को इस समस्या का सही ज्ञान था। दुर्भाग्य से इस विषय में स्वछंद पश्चिमी विचार से अभिभूत पंडित नेहरू सदैव की भांति विकास के बारे में पश्चिमी विचार के प्रभाव में आ गये। दुर्भाग्य से डाॅ. गाडगिल पंडित नेहरू को अपनी इस जमीन से जुड़ी विचार प्रक्रिया के बारे में राजी नहीं कर पाये।
विकास का अर्थशास्त्र, कई अवधारणाओं को संवृद्धि या ग्रोथ के सिद्धांतों से लेता है। दुर्भाग्य से हमारे अर्थशास्त्री पश्चिमी पद्धतियों का अंधानुकरण करते हैं। वे हमारी परिस्थितियों के अुनरूप संवृद्धि सिद्धांत विकसित करने में सक्षम हैं। लेकिन वे स्वयं की सोच न मानने की हठ पर अड़े हुए हैं। वे पश्चिमी सिद्धांतों से इतने अभीभूत हैं कि जब वे किसी एक सिद्धांत से विमुख हो जाते हैं तो वे स्वयं की बुद्धि का उपयोग किये बिना, पश्चिम के किसी दूसरे सिद्धांत की खोज में दौड़ने लगते हैं। वे स्वीकार कर सकते हैं कि माक्र्स के साथ-साथ जे.एस. मिल, रिचर्ड और माल्थस सभी पुराने हो गये हैं। वे चाहे वर्तमान परिस्थितियों में अल्फ्रेड माशर्ल, विकसेल, गुनार, मार्यडल और केन्स की प्रासंगिकता के बार में संदेहशील हो सकते हैं, लेकिन वे अपनी स्वतंत्र सोच विकसित करने के लिए तैयार नहीं है। इसके बजाए वे प्रो. राॅस्टौ के आर्थिक संवृद्धि के पांच स्तरों की चर्चा में व्यस्त हो जाते हैं कि क्या हम आर्थिक संवृद्धि के तीसरे स्तर ‘उड़ान’ पर पहुंच गये हैं ताकि हम चैथे स्तर ‘परिपक्वता’ की ओर जा सकते हैं, जिससे पांचवें स्तर ‘उच्च उपभोग’ की ओर अग्रसर हो सकें।

 हम वही पश्चिमी संवृद्धि के माॅडलों का अनुकरण कर रहे हैं, चाहे पश्चिमी देशों के लोग उनकी अनुपयुक्तता को समझ रहे हैं। उदाहरण के लिए पिछले वर्ष संयुक्त राष्ट्र की मानव विकास पर रिपोर्ट ने स्वीकार किया है कि हमने अभी तक जो संवृद्धि हासिल की है वह रोजगारविहीन संवृद्धि है, निर्दयी संवृद्धि है, हिसंक संवृद्धि है और भविष्यविहीन संवृद्धि है।
लेकिन रिपोर्ट के प्रकाशित होेन के तुरंत बाद ही संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम के अध्यक्ष जिनके मार्गदर्शन में वह रिपोर्ट लिखी गई थी, को त्याग पत्र देने को कहा गया और इस वर्ष प्रकाशित होने वाली रिपोर्ट में इन बातों का कोई जिक्र भी नहीं है।
लेकिन उनका यह शतुरमुर्ग जैसा रवैया केवल यही दर्शाता है कि उनके संवृद्धि के माॅडल असफल हो चुके हैं। उनके विकास के माॅडलों के असफल होने के प्रमुख कारण क्या रहे?
उनका उद्देश्य कुछ लोगों के लिए भौतिक समृद्धि है, सभी के लिए खुशी नहीं। कुछ लोगों के लिए ही अधिकतम लाभ। स्वभाविक रूप से उनके मापदंड शुद्ध रूप से भौतिक हैं- जीडीपी, जीएनपी, राष्ट्रीय संपदा, राष्ट्रीय आय, भुगतान शेष स्थिति इत्यादि। लेकिन वे मुद्रा स्फीति और बेरोजगारी समस्याओं के बारे में रत्ती भर भी चिंतित नहीं है।
क्या यह शुद्ध भौतिक अवधारणा प्र्याप्त है? क्या यह उन कुछ लोगों के लिए भी खुशी ला सकते हैं, जो उनके पक्षकार हैं। एक व्यक्ति की खुशी में उसकी हर स्तर की खुशी शामिल होती है - भौतिक, मानसिक, बौद्धिक और अध्यात्मिक। भौतिक समृद्धि से भौतिक सुख प्राप्त हो सकता है, हालांकि वह भी संदिग्ध है। मानसिक, बौद्धिक और अध्यात्मिक सुख भौतिकता के अधिकार क्षेत्र से परे है, तो विकास क्या 80 प्रतिशत लोगों की कीमत पर, कुछ लोगों के भौतिक समृद्धि के लिए होगा। भौतिकता के विचार से भी कुछ मुल्कों की प्रधानता वाले गैट वार्ताओं के प्रावधान से यह अवधारणा कपटपूर्ण हो गई है।
पहले चरण में क्यों इस एकतरफा अवधारणा को विकास मान लिया गया? बहाना यह दिया गया कि व्यक्ति की गैर भौतिक खुशी को मुद्रा के मानक के रूप में मापना संभव नहीं है। यह तो घोड़े के आगे गाड़ी रखने के समान है। भौतिक संवृद्धि के सूचकांकों का इस संदर्भ में कोई महत्व नहीं है। लेकिन इसके लिए अलग प्रकार की कार्यपद्धति हो सकती है, और यह हमारे देश में पतांजली जैसे विचारकों द्वारा वैज्ञानिक रूप से विकसित की गई है। हमारा मानवीय विकास के संदर्भ में संतुलित एवं व्यापक दृष्टिकोण रहा है, जो क्षम रूप से मानवीय खुशी की ओर लेकर के जाता है।
भौतिक संवृद्धि (समुत्कर्ष) के साथ अध्यात्मिक उत्थान (नि:श्रेष्यस), दोनों एक सिक्के के दो पहलू हैं और दोनों को मिलाकर महर्षि व्यास द्वारा प्रभाव घोषित किया गया।

प्रभावार्थे हि  भूतानां धर्मं प्रवचनं कृतम् ।
यः स्यात् प्रभावसंयुक्तः स धर्मः इति निश्चयः।।

" जीवों की भौतिक एवं आध्यात्मिक प्रगति के लिए धर्म का आचरण बताया जाता है। भौतिक एवं आध्यात्मिक प्रगति के साथ जो होना चाहिए, वह वास्तव में धर्म है।"
विभिन्न मंचों पर विचारकों ने इस विषय का व्यवहार किया है। यहां यह कहना पर्याप्त है कि सदियों के अनुभव के बाद हमारी कार्यप्रणाली आजमायी और परखी हुई है। इसलिए यह मान्य नहीं है कि जो मुद्रा के रूप में मापा नहीं जा सकता, उसे विकास की परिभाषा में शामिल नहीं किया जाना चाहिए।
वास्तविकता यह है कि आज विकास की परिभाषा को अंतर्राष्ट्रीय षड्यंत्रकारियों द्वारा अपने कुटिल इरादों को आगे बढ़ाने के लिए उपयोग किया जा रहा है। इस फरेब को स्वदेशी जागरण मंच द्वारा निर्णायक रूप से उजागर किया गया है। इसलिए बिना विस्तार में जाए, आईए यह जानें कि संबद्ध देशों पर ‘विकास’ का प्रभाव किस प्रकार से हो सकता है।
हर संस्कृति का अपना एक माॅडल होता है। अन्य सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से लाए गए या निहित विदेशी स्वार्थी तत्वों द्वारा थोपे गए विकास का माॅडल विनाशकारी हो सकता है।  ‘टूवर्डस ए हिस्ट्री आॅफ निड्स’, ‘मेडिकल नेमेसिस’, ‘टूल्स फाॅर काॅनविविएलिइटी' एवम  'डिस्कूलिंग सोसाईटी’ आदि पुस्तकों के रचयिता ईवान इलीच, विकास के मिथ्क के अपने मैक्सिको के अनुभव को बयान करते हैं। वे मैक्सिको के लिए विकास का क्या मतलब है, को जहां विकास की योजनाएं बनती है, और जहां उसके कार्यान्वयन की समीक्षा होती है, के नजरिए से नहीं देखते, न ही वे अफसरशाही एवं तकनीशियनों द्वारा बनाए गए सांख्यिकीय और सैद्धांतिक सूचकांको के आधार पर विकास के सबूतों के आधार पर विकास का आंकलन करते हैं, बल्कि वे इसे इस नजरिए देखतें हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों एवं स्लमों में रहने वाले गरीबों की पारंपरिक कौशल एवं जीवनयापन के साधानों, आत्मनिर्भरता के ह्रास और समुदायों के सम्मान एवं एकजुटता, प्रकृति की लूट, पारंपरिक वातावरण से विस्थापन, बेरोजगारी, प्रकृति का विनाश, आत्मनिर्भर समुदायों से विस्थापन करते हुए नकद अर्थव्यवस्था में बदलाव, सांस्कृतिक जड़ों से उखाड़ और राजनीति में भ्रष्टाचार आदि के कारण ग्रामीण एवं स्लमों में रहने वाले गरीबों के जीवन पर प्रभाव के नजरिए से देखते हैं। विकास जिसका उन समुदायों जो उस विकास के लाभार्थियों के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, के उद्देश्यों एवं परिस्थितियों के साथ कोई संबंध नहीं हैं, उसके .................. के लिए दी जाने वाली कीमत है।
वे व्यंग्य से समीक्षा करते हैं:
विकास एक अजीव परिभाषा है जिसे आजकल हाउसिंग प्रोजेक्ट, सोच प्रक्रिया के तर्कसंगत क्रम, बच्चे के मस्तिष्क के विकास या किशोरों के स्तनों के निर्माण के लिए इस्तेमाल किया गया। लेकिन विकास कम से कम एक चीज की ओर संकेत करता है, एक व्यक्ति की स्पष्ट अकथनीय, अशोभनीय स्थिति से पलायन की क्षमता, जिसे ‘सबडेसारोल्लो (subdesarollo)’ या अल्प विकास कहते है, जिसकी खोज हैरी ट्रूमैन ने 10 जनवरी 1949 को थी।
जिस प्रकार से इस शब्द को स्वीकार्यता मिले, एसी शायद ही किसी को मिली हो और यह परिभाषा अदम्य अफसरशाही के लिए परिणामकारी बन गई।
एवं पुनः,
‘एक ऐसे मार्ग की ओर बढ़ना जिसे दूसरे बेहतर जानते है, एक ऐसे लक्ष्य की ओर अग्रसर जो दूसरे पा चुके हैं, एकतरफा गली पर दौड़ का मतलब विकास माना जाने लगा। पर्यावरण, एकजुटता, पारंपरिक मान्यताओं और रीति-रिवाजों का ह्रास और लगातार बदलती विशेषज्ञों की सलाहों को विकास कहते हैं, विकास लोगों को अमीरी का झांसा देते हुए बहुसंख्यकों के लिए उनकी गरीबी के निरंतर आधुनिकीकरण का नाम है।’
निष्कर्ष में ईवान इलिच कहते हैं, ‘..
" The time has come to recognise development itself as a malignant myth whose pursuit threatens those with whom I live in Mexico. The "crisis" in Mexico enables us to dismantle development as a goal"
उनके कथन भविष्यवाणी थे, जो आने वाली घटनाओं से साबित हो गया।
‘साउथ’ दस्तावेज, जो डाॅ. मनमोहन सिंह, जो उसके तुरंत बाद स्मृति भृंश का शिकार हो गये थे, की देखरेख में तैसार किया गया था, को चुनौती देते हुए नवीनतम प्रौद्योगिकी के बेरोजगारी की समस्या पर प्रभाव, यूरोपीय समुदाय की समिति की रिपोर्ट, चीन और जापान द्वारा अमरीका के कुछ कदमों पर प्रतिघात, जर्मन मजदूरों द्वारा ‘सामाजिक धारा’ के खिलाफ अंादोलन, अमरीका के साथ समझौते से बाहर आने की मांग के साथ फ्रांसीसी किसानों का विद्रोह, उत्तरी अमरीकी देशों द्वारा ‘माफटा’ का विरोध और मैक्सिको के किसानों का इसके विरोध में सशस्त्र आंदोलन, जिस पार्टी की सरकार ने यह समझौता किया था उसका चुनावों में सूपड़ा साफ और नव निुयक्त प्रधानमंत्री का इस समझौते पर पुनर्वार्ता के लिए अमरीकी राष्ट्रपति क्लिंटन को पत्र, अमरीका के उपभोक्ता आंदोलन के नेता मिस्टर नादिर और मजदूर नेताओं द्वारा चेतावनी, जनवरी 20-21 को डेनवर में आयोजित ‘दी अदर इक्नाॅमिक सम्मिट’ का प्रस्ताव और नवंबर 3-4, 1997 को मलेशियाई प्रधानमंत्री मेहथ मोहम्मद के सोरथ नेतृत्व में आयोजित क्वॉल्लंपुर के जी-15 सम्मेलन में पारित प्रस्ताव - यह सब इवान इलिच के विकास की अवधारणा के संदर्भ में लिये गये - को सही सिद्ध करते हैं।
The Concept of Development is an article written by Shri  DATTOPANT THENGADI ji and was delivered at Chennai in 1997 at 43rd National Conference of ABVP. 
A VERY, VERY IMPORTANT DOCUMENT, IS WORTH READING. 
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There is a general misconception that the concept of Development is a recent one. and that this phenomenon was initiated only after the end ofthe second world-war. True. the first most renowned advocate of the idea of progress’', which was synonymous with development’ was one French Philosopher Condorcet.(1743-94). But. in fact the idea of development is as old as the process of human thinking. What Darwin traced through his theory was the process of development right from the beginning of life on this planet.
Take the case of European history. What were Socrates, Plato and Aristotle aiming a t during the earliest period of Greek city states9 Efforts for development were never discontinued through out the his­ torical period, though the nature of efforts differed from time to time and country to country, according to the differing demands of the situations, Have a cursory glance at the entire canvass, from ancient Greece through ancient Rome, the middle ages, Italian Renaissance, German reformation, geographical discoveries and overseas expan­ sion . rise of nation states in Western Europe, Scientific revolution and enlightenment, age of democratic revolutions and post revolu­ tionary Europe, to the post 1945 Europe . During every period we come across great humanitarian thinkers whose sole object of life was Development” - though this specific term was not in vogue. Then what inspired the founders of various religions and “Ism’s”?. Cheguevara and Friar have spelt out the motivation behind all revolutions-right from the Roman Revolution of 509 BC to modern
coups. Original motivation of the revolutionaries was the same. With the same object in view, the advocates of democracy launched constitutional struggles in the different European countries. A sur- ^isuigfect is that though monarchs in general were self-centred and anti-people, some of them took great pains to ensure that their sub­ jects benefited by the process which we now term as Development”.
These enlightened despots were Peter the Great, Frederick the Great, Fredrick the Great and Charles the Great ( Charlesmagne)
In brief, the term development might have gained or given currency after June 1945. but the under lying idea is as old as life itself.
The difficulty with western thinking is that it is always compartmentalized, fragmentary. Ours is always integrate^ holis­ tic. They feel that solutions to economic problems can be found through the study of economics, to political problems through the study of political science and so on. This is lopsided thinking.  With­ out taking simultaneously into consideration the various non-eco- nomic factors, it is impossible to have correct diagnoses of any eco­ nomic malady' and to think of the appropriate remedial measures. This holds good about all other fields- whether political of social or cultural. The importance of non-economic factors in the ccnsidera- tion of economic problems cannot be minimised. For example, L.T. Hobhouse has the following remark about “Social factor”.
Take away the whole social factor and we have got Robinson Crusoe, with his salvage from wreck and his acquired knowledge, but the naked salvage living on roots, berries and vermin* While considering human welfare, the non -economic materialistic factors cannot be ignored. For example geographical position of this eoun- try, it s climate, rivers, mountains, natural harbours, peace and secu­ rity, or natural resources of the country such as land, water, forests, mineral resources, agricultural potentialities, (general development in other countries), etc.,
Thus non-economic materialistic footers not amenable to money measurement have also a role to play in this respect.
But that is not all. In his ‘open secret of economic growth’ (1957) David Macrod Wright observed:
 "The fundamental factors making for economic growth are non-economic and non-materialistic in character. It is the spirit itself that builds the body."
It is necessary to take into consideration the drastic differences between the two approaches, the Western and Hindu.

WESTERN v/s  HINDU DEVELOPMENT PARADIGMS
1. compartmentalised thinking v/s integrated thinking,
2. Man - a mere material being v/s Man-a physical, mental, intellectual-spiritual being,
3. Subservience to Artha-Kama v/s Drive towards Purushartha chathushtayam
4. Society, a club if self-centred individuals v/s. Society . a body with all individuals therein as its limbs
5. Happiness for oneself v/s. Happiness for All
6. Acquisitiveness v/s. ‘Aparigraha’ (Non-possession)
7. Profit-motive v/s service motive
8. Consumerism v/s Restrained consumption
9. Exploitation v/s Antoydaya, wellbeing of last man
10. Rights-Oriented consciousness of outers duties v/s. Duty-oriented consciousness of others rights
11. Contrived scarcities v/s Abundance of production 
12. Monopoly capitalism through various devices v/s Free competition without manipulated markets **
13. Economic theories centred round wage-employment v/s Economic theories centred round self- employment **
14.  An ever increasing army of proletariat v/sThe ever increasing sector of VIshva karma (Self-employment)
15. Ever  widening disparities v/s Movement towards equitability and equality with quality
16. The Rape of Nature v/s. The milking of Mother Nature
17. Constant conflict between individual,  society and the Nature v/s The complete harmony between an individual, society and nature.
**For example, agents, brands, copyrights, trade names, licences, quotas, protective tariff, cartels, pools, trusts, holding companies, or intercorporate boards of directors, intercorporate investments, etc.,
These are entirely different paradigms. Everv society is free to choose its own mode on ‘Take all, or Leave all’ basis.
The United nations took cognisance of this problem first in its
1951 report dealing with the problems ofdevelopment of the under­
developed countries. It was a major landmark in this respect.
Dr.D.R. Gadgil was associated with the preparation of that UN Re­ port.
Dr. Gadgil had correct perception of the problem, Unfortunately, the Western thinking on the subject became wayward, and Pandit Nehru, as usual, came under the influence of the West. Dr Gadgil could not persuade Pt.Nehru to his line of thinking which was of the earth, earthly.
Development Economics has appropriated many concepts from Growth Theories'’ Unfortunately, our economists are blindly fol­ lowingthewesternpatterns. Theyarecapableofworkingoutgrowth theories suited to our conditions. But they stubbornly refuse to con­
duct self-thinking. They are so enamoured of western theorists that if they get disillusioned by one theory, they will, instead of using their own intellect, rush in search of some other western theory which theycancatchholdof. They may accept that Marx as well as  Adam Smith, J.S.Mill, Richards and Malthus have become outdated. They may be sceptic about the relevance of Alfred Marshall, Wicksell, Gunner Myrdal and Keynes, to the present day conditions. But they will refuse to conduct their own independent thinking. Instead they will feel homely with the five stages of Economic Growth enumerated by Prof.Rastow and get busy in discussing whether we have reached his third, take off stage’ so as to pass over to his fourth ‘Drive to Maturity , leading to the stage of high mass consumption.
We are following Western models of growth, while Westerners themselves are progressively realising their futility. For example the last year’s UN. Report on Human Development frankly states that what they have achieved so far wasjobless growth’, ‘ruthless growth, violent (peaceless) growth’and ‘futureless growth’.
But immediately after the Report was published, the chairman of the U.N.D.P under whose guidance the Report was prepared, was asked to quit his post, and the Report published this year does not touch this subject with a pair of ton.
But this ostrich-like attitude has only highlighted the failure of their growth models. What particular factors have been responsible for their failure?
Their object is material prosperity of a few, not happiness for all, Profit-maximisation of fewer and fewer persons. Naturally, their parameters are purely materialistic G.D.R, G.N.P. national wealth, national income, per capita income, balance of payment position etc. They are least concerned about the problems like inflation or unemployment.
Is this purely materialistic concept adequate? Can it ensure happiness for even the few' who are its clients ? Happiness of an individual includes happiness at all levels, physical, mental, intellectual and spiritual. Material Prosperity may lead to physical hap­ piness- though this is also doubtful. The mental, the intellectual, the spiritual are beyond its jurisdiction. So 'development' for what material prosperity of a few at the cost of 80% people in the world . Even from purely materialistic pint of view, this term has become fraudulent after the arrangement of GATT negotiations, like hegemonism parading under the banner of globalisation.
In the first phase, why this lopsided concept has been ac­ cepted as “development"? The excuse given is the non physical as­ pects of human happiness are not amenable to measurement by mon­ etary standards. This is putting the cart before the house. The indi­ ces that are being used in the context of material prosperity may not be useful in this context. But there can be different methodology, and it was developed, scientifically in our country by thinkers led by Patanjali. We had a balanced and comprehensive view of human development leading to perfect human happiness.
Material prosperity (samutkarasha )coupled with spiritual el­evation (nisreyas), both being the two facets of the same coin, together were termed as prabhav by Maharshi Vyasa who declared,
Prabhavarthahi bhootanam Dharma pravachanam kritam
Yat syat prabhav samyukthah sa dharma ithi nischayaha
Tor the material and spiritual progress of the beings, dhanna was narrated. What is accompanied by the material and spiritual progress, that indeed is Dharma.

This subject has been dealt with at length by different thinkers at different forums. Here suffice it to say that our methodology has been tried and tested and found to be perfect after the expe­ rience of centuries. Therefore, the lame excuse that whatever is not amenable to money measurement should not be included in the defi­ nition of ‘development’ is not tenable.
Coming to brass tacks, the term ‘development’ is being
today used by global conspirators to promote their nefarious designs.
This fraud has been conclusively exposed from the forum of Swadeshi
jagaran manch. Therefore, without going into the details, let us find
out what type of impact ‘development’ can have on the concerned countries.
Every culture has its own model. The model of de­ velopment brought over from another cultural setting, or imposed by alien vested interests, can be disastrous. Ivan Illicit, the famous au­ thor of ‘Towards a history of needs’ . ‘Medical nemeses’, ‘Tools for conviviality and De-schooling Society’, narrates his Mexican expe­ rience of the development myth “. He looks at what development has meant to Mexico, not from the summit where plans of develop­ ment are prepared, and where implementation is reviewed, not from the statistics and theoretical indices that the bureaucracy and the technicians offer as evidence of “development” but the impact it has had on the life of the poor in the rural areas and slums erosion of means of subsistence and traditional skills, loss of self-reliance and dignity and solidarity of communities, spoliation of nature, displace­ ment from traditional environments, unemployment, bull-dozing of nature, displacement from traditional self-reliant communities into the cash economy, cultural rootlessness, and corruption in politics.
He asks whether this is development. This is the price that is being paid for a blue print of development that has no relation to the condi­ tion and goals of the communities that are described as the beneficiaries of development.
Sarcastically, he observes
"Development is an oozy term that is currently used for
housing project, for the logical sequence of thought, for the awaken­
ing of child s mind or the building of a teenager’s breasts. But 'development'
always connotes at least one thing; a person’s ability to
escape from a vague, unspeakable, undignified condition called ‘sub-
desarollo’ or under-development, invented by Harry Truman on 10 January, 1949.
Seldom has a term been accepted all around the world, like this word, on the day it was coined. It became a term to spawn irrepressible bureaucracies”.
And, again,
“Development means to have startedf on a road that others know better, to be on the way towards a goal that others have reached, to race up a one-way street. Development means the sacrifice of environments, solidarities, traditional interpretations and customs, to ever changing expert-advice. Development promises enrichment^ and for the overwhelming majority, has alwavs meant the progres­ sive modernization of their poverty”. '
In conclusion Ivan Illich says, “ The time has come to recognize development itself as the malignant myth whose pursuit threatens those among whom I live in Mexico. The “crisis” in Mexico enables us to dismantle development as a goal.”
That his remarks were prophetic has been proved by sub­ sequent events. *
The challenge to the South’ document prepared under the guid­ ance of Dr.Manmohan Singh, who suffered from amnesia immediately  afterwards, the report of the committee appointed by European community on the impact of latest technology on the unemployment problem, the rebuff given by China and Japan to certain U.S. moves, agitation of German workers against the ‘Social clause’, revolt of th
French peasants demanding that their government should withdraw its signature from the agreement with USA, resentment of North American countries against NAFTA, armed rising of Mexican peasants against it the rout in Canadian elections of a ruling party that has signed the agreement, and a letter by the newly elected prime minister to president Clinton that Canada demands renegotiation on the same agreement, the warnings Mr.Nadir, the head of the U S consumer movement and the U.S labour leaders; the resolution of ‘The other Economic Summit1, Conference held at Denver on June 20-21 and the resolution passed by the G15 Conference held at Kualalumpur on Nov. 3-4,1997, under the able guidance of Malaysian Mahathir Mohammed, all these vindicate the stand taken by lllich on the concept of development.


Kashmiri Lal, Shiv Shakti Mandir, RK Puram sector 8 M
New Delhi 110022.