Saturday, June 24, 2017

प्रयोग चंपारण: गांधी कथा

प्रयोग चंपारण: चंपारण की गांधी कथा अरविंद मोहन दिल्ली, 17 April 2017 गांधी ने किसानों के मन से शासन, गोरी चमड़ी और जेल वगैरह का डर किस तरह निकाला, इसके दो-तीन मजेदार किस्से जानने चाहिए. दादा कृपलानी को घोड़े की सवारी का शौक था और तब चंपारण में लोग स्थानीय सवारी के लिए घोड़ों का खूब इस्तेमाल करते थे. किसी दिन उन्होंने किसी स्थानीय साथी का घोड़ा लेकर अपना शौक पूरा करना चाहा. उन्हें तेज सवारी अच्छी लगती थी. सो, उन्होंने घोड़े को एड़ लगाई पर वह भड़क गया. उसने सवार को ही पटक दिया. दादा कृपलानी के घुटने छिल गए और चोट लगी. घोड़ा जब भड़ककर मुड़ा तो एक बुजुर्ग महिला भी डर कर भागी और गिर गई. लोगों ने दोनों को संभाला और कृपलानी जी ने अपना यह कार्यक्रम त्यागा. पर जिस समय यह घटना हुई उस समय स्थानीय पुलिस प्रमुख भी आसपास थे. उन्होंने कृपलानी पर शांति भंग करने का मुकदमा कर दिया जिसमें खुद चश्मदीद गवाह बन गए. नोटिस मिलने पर सब हैरान थे पर गांधी ने किसी वकील को उनकी पैरवी नहीं करने दी. कृपलानी जी को चालीस रुपए जुर्माना या पंद्रह दिन जेल की सजा हो गई. कृपलानी जुर्माना देने और आंदोलन मे शामिल बाकी वकील अपील करने की बात करने लगे. गांधी ने फिर उन्हें रोक दिया. उन्होंने कहा कि अभी चंपारण के लोग जेल जाने से काफी डरते हैं. कृपलानी जी जेल जाएंगे तो लोगों के मन में बैठा जेल का खौफ कम होगा. और इस प्रकार कृपलानी जी की पहली जेल यात्रा गांधी ने ही कराई. दूसरा मामला भी कम दिलचस्प नहीं है गांधी के समाधान के हिसाब से. हुआ यह कि जब किसान अपने ऊपर होने वाले जुल्मों की कहानी सत्याग्रह के कार्यकर्ताओं को सुना रहे थे और वे लोग जिरह के जरिए हर मुद्दे का स्पष्टीकरण भी करते चल रहे थे तब काफी गहमागहमी रहती थी. कई जगहों पर ये गवाहियां चलती थीं. एक खुफिया अधिकारी बार-बार इस जगह से उस जगह जाकर गवाही देने वाले रैयतों का नाम-पता नोट कर रहा था. गवाही देने वाले और लेने वाले दोनों ही यह जानकर परेशान थे क्योंकि बाद में बदले की कार्रवाई होने का अंदेशा था. पहले अक्सर ऐसा ही होता था. बाबू धरणीधर ने उस अधिकारी से कहा कि आप दूर रहें. इतना पास न आएं. गांधी से शिकायत हुई तो वे भी आए. अधिकारी ने कहा, यह हमारी ड्यूटी है. हम पास न जाएंगे तो सही जानकारी कैसे देंगे. फिर गांधी ने अपने लोगों से कहा कि जब आप बयान लेते हैं तो इतने रैयत घेरे बैठे रहते हैं. आप कोई चोरी का काम तो नहीं कर रहे हैं. जब इतने रैयतों के मौजूद रहने से आपको दिक्कत नहीं होती तो एक और आदमी के रहने से आप क्यों परेशान हैं. जो बात सबको मालूम होती है, इस बेचारे से क्यों छुपाई जाए. इनको भी रैयत ही समझिए. गांधी का इतना कहना था कि सब लोग हंस पड़े और अधिकारी पर मानो घड़ों पानी पड़ गया. वह अपना और शासन का रौब बढ़ाने आया था पर यहां रैयत बन गया. उसके बाद से कोई रैयत सिपाही-दारोगा-खुफिया पुलिस को देखकर डरता न था. पर गांधी सिर्फ इनडाइरेक्ट कम्युनिकेशन और अपने काम या संकेत से दूसरों तक बात पहुंचाने के ही उस्ताद न थे, वे सीधी बातचीत या लिखत-पढ़त में बातचीत के भी उतने ही बड़े माहिर थे. उनसे मिलने वालों में चंपारण वाले, बिहारी, भारतीय और बाहरी लोगों की छोड़िए, शासन में बैठा कोई भी गोरा और शोषण तथा लूट का प्रतीक बन गए निलहों में शायद ही कोई होगा जो उनसे प्रभावित न हुआ हो. और वे बुराई से नफरत करते थे, बुरे आदमी से नहीं, यह बात कदम-कदम पर दिखती है. लगभग सारे ही अधिकारी गांधी से बातचीत करके प्रभावित लगते थे और अक्सर उनके सधे तर्क भी उनको गांधी के पक्ष में कर देते थे. इसलिए सिर्फ एक अदालती लड़ाई जीतने का मामला न था, गांधी ने जिस तेजी से सरकारी जांच आयोग बनवाने में सफलता पाई, उसकी जांच में चंपारण की खेती-किसानी के हर पहलू को अकेले ढंग से रखा और जो-जो चीजें पाना चाहते थे, उन पर सर्वसम्मत सिफारिशों वाली रिपोर्ट तैयार कराके मनवा ली. यह साधारण कौशल का काम न था. उन्होंने किस तरह मूल सिद्धांतों पर अडिग रहते हुए छोटे-छोटे मसलों पर निलहों की जिद को मानकर यह हासिल किया, इसकी चर्चा पहले की जा चुकी है. पर उनको भी यह लग गया था कि नील तो विदा हो रही फसल है, असल मामला निलहों और गोरों की विदाई का संदेश देने का है और वह इस आयोग से और उसकी सिफारिशों के आधार पर आए शासकीय आदेश से हासिल हो गया. दो-तीन साल में चंपारण में नील-निलहों और फैक्टरियों-जिरातों का सारा खेल इतिहास की चीज बन गए. गांधी वकील भी थे और उन्हें कानून की बहुत बारीक समझ थी. अपने मुकदमे में जिस तरह से उन्होंने पूरे अंग्रेजी शासन तंत्र को पटखनी दी, वह साधारण समझ की चीज नहीं है. सरकारी वकीलों की टोली और मजिस्ट्रेट समेत सारे लोगों को कुछ सूझा ही नहीं जब गांधी ने अपना लिखित छोटा बयान पढ़ा. और सीधे मुकदमा उठाने और जांच में सहयोग देने का वायदा करने के अलावा शासन को और रास्ता नहीं सूझा. बाद में गांधी ने इस सहयोग का भी पर्याप्त सांकेतिक लाभ लिया. गांधी ने निषेधाज्ञा का उल्लंघन करके और गिरफ्तार करके पेश होने पर मजिस्ट्रेट के सामने अपना गुनाह कबूला और सजा भुगतने पर हामी भरी. बाद में जब गांधी ने अपना काम शुरू किया तो प्रशासन ने उनसे पूछा कि आपको क्या सहयोग चाहिए तो गांधी ने कहा कि एक मेज और दो कुर्सियां. इस पर शासन के अधिकारी ने कहा कि हमारा एक आदमी भी आपके साथ रहेगा, तो गांधी ने उस पर आपत्ति करने या यह आदमी कौन होगा, यह पूछे बिना कह दिया कि उसके लिए आपको एक और कुर्सी देनी होगी. सहमति के बाद हुकूमत ने तीन कुर्सियां और एक मेज बैलगाड़ी में लदवा कर गांधी के पास भेजवा दिए. और गांधी भी इस सहयोग को ठुकराने की जगह उन सब जगहों पर प्रदर्शित करते रहे जहां वे जाते थे. वे जहां पहुंचते थे, इन चार फर्नीचरों वाली बैलगाड़ी वहां जाती थी. ...पर गांधी को अदालती कामकाज और कानून की सीमाओं का भी पता था सो अपनी तरफ से उन्होंने कभी अदालत का दरवाजा नहीं खटखटाया और न ही अपने साथ के नामी वकीलों को ऐसा करने दिया. वे उनकी सेवाएं किरानी (मुंशी) के तौर पर ही लेते रहे. बल्कि जब शरहबेशी के मामलों में लोमराज सिन्हा समेत कुछ लोग हार-जीत के अदालती खेल में लगे रहे और पहले से चल रहे इस मुकदमे में ब्रजकिशोर प्रसाद भी जुटे थे, तब भी गांधी ने उस या उस तरह के मुकदमे पर भरोसा करने की जगह शरहबेशी का सिर्फ चार आना पैसा ही वापस करने जैसा समझौता कर लिया क्योंकि उनको साफ लगता था कि ऐसे 75,000 मुकदमे कौन किसान लड़ेगा, कितनों के पास अदालत की लड़ाई लडऩे का खर्च होगा और किस मामले में अदालत क्या रुख लेकर गाड़ी पटरी से उतार दे, इसका भरोसा मुश्किल है.

Thursday, June 15, 2017

दुर्लभ मृदा तत्व, रोचक तथ्य

आपके स्मार्ट फ़ोन, टीवी, इलेक्ट्रॉनिक कार, जीपीएस, एक्सरे मशीन और एंटीएयरक्राफ्ट मिसाइल में ऐसी क्या चीज है जो सब में पाई जाती है, या कॉमन है? दुर्लभ खनिज।
दुर्लभ खनिज ऐसे 17 केमिकल पदार्थ होते हैं जो पृथ्वी की भीतरी परतों में दबे पड़े हुए हैं। इनका अत्यधिक उपयोग इंसानों द्वारा विभिन्न प्रकार के उत्पादों में किया जाता है। वर्तमान जीवनशैली इन्हीं खनिजों पर आधारित है। यदि ये न हो तो मोबाइल ईंट के बराबर और आपका टीवी फ्रिज के बराबर और आगे अंदाजा लगा लीजिये।
परंतु इस इतनी महत्वपूर्ण चीज का आज 97 प्रतिशत सप्लायर एक देश है, चीन!यद्यपि इस समय दुनिया में 99 बिलियन टन ये दुर्लभ खनिज जाए और उसमें से 36 बिलियन टन अर्थात 30%केवल चीन में पाए जाते। ओह! और अगर चीन इसे देना बंद करदे तो,,, उसने एक बार ऐसा कर भी दिया था। बात जुदा है एक बार तो दुनिया ने चीन को झुका लिया पर हमेशा नहीं।

Friday, June 9, 2017

स्वदेशी कार्यपद्धति,

स्वदेशी का कार्यकर्ता, व्यवहार एवं कार्यपद्धति
कार्यकर्ता के चार गुण
1. समझ, समझा सके, समय दे सकता हे, समर्पण
2. व्यवहार:
जोड़ने वाला, सकारात्मक, योजनापूर्वक, या व्यवस्थित, सादगीपूर्ण।
कार्यपद्धति:
मंचीय व्यवस्था, या गुरिल्ला युद्ध प्रणाली
,टीम वर्किंग,
रेस्पॉन्सिव कोऑपरेशन विथ गवर्नमेंट, तथा राजनीती से समानांतर,

ये कार्यपद्धति भी हमारी धीरे धीरे इवॉल्व हुई है, यानी विकसित हुई है।
कुछ बातें तो 22 नवम्बर 91 को ही दो दिवसीय बैठक में ही तय हुई है
1. मंच है संस्था नहीं। विधिवत सेना एवं छापेमार टुकड़ी की तुलना।
2. सरकार कोई भी हो उससे व्यवहार कैसा, यानी रेस्पॉन्सिव कोऑपरेशन। मतलब अगर सुन रही है, रिस्पांस दे रही है तो हमारा भी सकारात्मक प्रतिक्रिया और आहार सुन ही नहीं रही है तो हमारे भी धरने आंदोलन में बढ़ोतरी करना।मायने मुरासोली मारन ने सुनी तो दोहा में हमारा भी रवैया सहयोगात्मक। लेकिन बार बार बात करने पर भी कोई जन सुनवाई नहीं तो रामलीला मैदान पर एफडीआई के मामले में भाजपा सरकार के खिलाफ धरना दिया। कभी wto में अच्छी प्रस्तुति पर सन्मान किया, जरूरत पड़ी तो भूमिअधिग्रहण के खिलाफ जंतर मंतर पर विशाल प्रदर्शन भी किया।
तीन कामों : रचनात्मक, अन्वेषणात्मक, एवं प्रचारात्मक में से रचनात्मक तो ओने लाइफ न मिशन का काम, के एवायं चक्कर में न पड़ना बल्कि प्रचारात्मक में ज्यादा रखना ।

Thursday, June 1, 2017

ओबोर: चीन की विस्तारवादी खुराफ़ात

1. चीन का कहना कुछ करना कुछ:
किसी ने कहा है कि अगर झूठ बोलना हो तो इतने जोर से बोलो की सच भी अपने पर शक करने लगे। इसको समझने के लिए चीन से कोई ज्यादा पुख्ता उदाहरण नहीं हो सकता है। बेजिंग में ‘वन बेल्ट वन रोड’ (ओबीओआर) के दो दिनी शिखर सम्मेलन की शुरुआत करते हुए चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने कहा कि ‘सभी देशों को एक-दूसरे की संप्रभुता, गरिमा और क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करना चाहिए।’ शी का यह वक्तव्य चीन की कथनी और करनी में फर्क का ही एक नमूना है, क्योंकि ओबीओआर चीन के विस्तारवादी मंसूबे की देन है।  इस शिखर सम्मेलन में अमेरिका, रूस, तुर्की, विएतनाम, दक्षिण कोरिया, फिलीपीन्स, इंडोनेशिया, श्रीलंका, पाकिस्तान, नेपाल, लाओस और म्यांमा समेत साठ से अधिक देशों ने हिस्सा लिया। चीन ने भारत को भी आमंत्रित किया था, लेकिन चीन पहले से ही अस्सी अरब डॉलर की लगात से चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) के निर्माण में लगा है, जिसे भारत अपनी संप्रभुता पर हमला मान रहा है। इसीलिए भारत ने इस सम्मेलन में हिस्सा नहीं लिया। इस गलियारे का बड़ा हिस्सा पाक अधिकृत कश्मीर से गुजरेगा, जिसे भारत अपना भूभाग मानता है।
शी जिनपिंग ने 2013 में कजाकिस्तान और इंडोनेशिया की यात्राओं के दौरान सिल्क रोड आर्थिक गलियारा और इक्कीसवीं सदी के मैरी टाइम , यानी समुद्री सिल्क रोड बनाने के प्रस्ताव रखे थे। इन प्रस्तावों के तहत तीन महाद्वीपों के पैंसठ देशों को सड़क, रेल और समुद्री मार्गों से जोड़ने की योजना है। इन परियोजनाओं पर अब तक चीन साठ अरब डॉलर खर्च कर चुका है। ओबीओआर को मूर्त रूप देने के लिए चीन को यह सुनहरा अवसर दिख रहा है। क्योंकि डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका को संरक्षणवाद की ओर ले जा रहे हैं। ब्रिटेन ने यूरोपीय संघ से बाहर आकर आर्थिक उदारवाद से पीछा छुड़ाने के संकेत दे दिए हैं। जर्मनी में दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद का उभार दिख रहा है। ऐसे में चीन भूमंडलीकृत अर्थव्यवस्था में खाली हुए स्थान को भरने के लिए उतावला है।

2. भारत चीन का भुक्तभोगी है, इसलिए बाकि देशो को चेता रहा है:
एक कहावत है कि चूहेदानी में गुलगुले मुफ्त । खैर, चीन फंसाने के लिये मुफ्त नहीं बल्कि सस्ते  उधार पर देता है।
चीन ने 1962 में भारत पर आक्रमण किया और चालीस हजार वर्ग किलोमीटर जमीन हड़प ली। भारत ने सम्मेलन का बहिष्कार करते हुए कहा कि चीन अंतरराष्ट्रीय नियमों, कानूनों, पारदर्शिता और देशों की संप्रभुता को किनारे रख वैश्विक हितों पर कुठाराघात करने में लगा है। साथ ही भारत ने उन परियोजनाओं को लेकर भी चिंता जताई है जो कई देशों में चीन ने शुरू तो कीं, लेकिन जब लाभ होता दिखाई नहीं दिया तो हाथ खींच लिये। वहां लगातार  चीन के  खिलाफ आंदोलन चल रहे हैं। ऐसे में कई देश चीन के कर्जे के चंगुल में तो फंसे ही, अधूरी पड़ी परियोजनाओं के कारण पर्यावरण की हानि भी इन देशों को उठानी पड़ी। इसे अंग्रेजी में 'डेब्ट ट्रैप' या कर्ज के चक्रव्यूह में फँसाना कह सकते है।

3. चीन के शिकार 6 देशों की परिस्थिति समझनी चाहिए: 
पहला है श्रीलंका जहां चीन की आर्थिक मदद से हम्बनटोटा बंदरगाह बन रहा था, लेकिन चीन ने काम पूरा नहीं किया। इस वजह से श्रीलंका आठ अरब डॉलर कर्ज के शिकंजे में आ गया है। अफ्रीकी देशों में भी ऐसी कई परियोजनाएं अधूरी पड़ी हैं जिनमें चीन ने पूंजी निवेश किया था। इन देशों में पर्यावरण की तो काफी हानि हुई ही, जो लोग पहले से ही वंचित थे उन्हें और संकट में डाल दिया गया। लाओस और म्यांमा ने कुछ साझा परियोजनाओं पर फिर से विचार करने का आग्रह किया है। चीन द्वारा बेलग्रेड और बुडापेस्ट के बीच रेल मार्ग बनाया जा रहा है। इसमें बड़े पैमाने पर हुई शिकायतों की जांच यूरोपीय संघ कर रहा है। यही हश्र कालांतर में सीपीईसी का भी हो सकता है, क्योंकि चीन के साथ पाकिस्तान जो आर्थिक गलियारा बना रहा है, वह ओबीओआर का हिस्सा है। दरअसल, पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था में चीनी कंपनियों का दखल लगातार बढ़ रहा है, वहीं दूसरी तरफ पाकिस्तान चीन से ऊंची ब्याज दरों पर कर्ज भी ले रहा है। इसलिए चीन के नाजायज दखल को मानना भी पाकिस्तान की मजबूरी बनती जा रही है। पाकिस्तान ने 1963 में पाक अधिकृत कश्मीर का 5180 वर्ग किमी क्षेत्र चीन को भेंट कर दिया था। तब से चीन पाक का मददगार हो गया। चीन ने इस क्षेत्र में कुछ सालों के भीतर ही अस्सी अरब डॉलर का पूंजी निवेश किया है। यहां से वह अरब सागर पहुंचने के जुगाड़ में जुट गया है। इसी क्षेत्र में चीन ने सीधे इस्लामाबाद पहुंचने के लिए काराकोरम सड़क मार्ग भी तैयार कर लिया है। इस दखल के बाद चीन पीओके को पाकिस्तान का हिस्सा भी मानने लगा है।

यही नहीं, चीन ने भारत की सीमा पर हाइवे बनाने की राह में आखिरी बाधा भी पार कर ली है। उसने समुद्र तल से 3750 मीटर की ऊंचाई पर बर्फ से ढंके गैलोंग्ला पर्वत पर तैंतीस किमी लंबी सुरंग बना कर इस बाधा को दूर कर दिया है। यह सड़क सामरिक नजरिए से बेहद महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि तिब्बत में मोशुओ काउंटी भारत के अरुणाचल का अंतिम छोर है। अभी तक यहां कोई सड़क मार्ग नहीं था। जबकि गिलगित-बल्तिस्तान के लोग इस पूरी परियोजना को शक की निगाह से देख रहे हैं।
वर्ष 1999 में चीन ने मालदीव के मराओ द्वीप को गोपनीय ढंग से लीज पर लिया था। वह इसका उपयोग निगरानी अड््डे के रूप में गुपचुप करता रहा। वर्ष 2001 में चीन के प्रधानमंत्री झू रांन्गजी ने मालदीव की यात्रा की, तब दुनिया को पता चला कि चीन ने मराओ द्वीप लीज पर ले रखा है और वह इसका इस्तेमाल निगरानी अड््डे के रूप में कर रहा है। इसी तरह चीन ने दक्षिणी श्रीलंका के हम्बनटोटा बंदरगाह पर एक डीप वाटर पोर्ट बना रखा है। यह क्षेत्र श्रीलंका के पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे के चुनावी क्षेत्र का हिस्सा है। भारतीय रणनीतिक क्षेत्र के हिसाब से यह बंदरगाह बेहद महत्त्वपूर्ण है। यहां से भारत के व्यापारिक और नौसैनिक पोतों की आवाजाही बनी रहती है। बाग्ंलादेश के चटगांव बंदरगाह के विस्तार के लिए चीन करीब 46,675 करोड़ रुपए खर्च कर रहा है। इस बंदरगाह से बांग्लादेश का नब्बे प्रतिशत व्यापार होता है। यहां चीनी युद्धपोतों की मौजदूगी भी बनी रहती है। भारत की कंपनी ने म्यांमा में बंदरगाह का निर्माण किया था, लेकिन इसका फायदा चीन उठा रहा है। चीन यहां एक तेल और गैस पाइपलाइन बिछा रहा है, जो सितवे गैस क्षेत्र से चीन तक तेल व गैस पहुंचाने का काम करेगी। विडंबना यह है कि दक्षिण कोरिया, विएतनाम, फिलीपीन्स और इंडोनेशिया का चीन से दक्षिण चीन सागर विवाद के चलते तनाव बना हुआ है, बावजूद चीन की आर्थिक ताकत के आगे ये देश नतमस्तक दिख रहे हैं।
ओबीओआर के तहत छह आर्थिक गलियारे, अंतरराष्ट्रीय रेलवे लाइन, सड़क और जल मार्ग विकसित किए जाने हैं। चीन ने इनमें 14.5 अरब डॉलर पूंजी निवेश की घोषणा की है। इसके साथ ही एशियन इन्फ्रास्ट्रक्चर इनवेस्टमेंट बैंक से भी पूंजी निवेश कराया जाएगा। इस बैंक में सबसे ज्यादा पूंजी चीन की है। चीन तमाम देशों को स्वप्न दिखा रहा है कि यदि ये कार्य पूरे हो जाएंगे तो एशिया से लेकर यूरोप तक बिना किसी बाधा के व्यापार हो सकेगा। भूटान को छोड़ भारत के सभी पड़ोसी देशों ने ओबीओआर शिखर सम्मेलन में हिस्सा लिया। भारत के लिए यह चिंता की बात है। यदि ओबीओआर का चीन का सपना पूरा होता है तो इन देशों के बाजार चीनी उत्पादों से पट जाएंगे। यही नहीं, इन देशों की सरकारें चीन से महंगी ब्याज दर पर कर्ज लेने को मजबूर हो सकती हैं। फिर ये देश चीन के सामरिक हित साधने को भी विवश हो जाएंगे। ऐसे में भारत को अपने आर्थिक व सामरिक हितों को लेकर बहुत सचेत रहना होगा। हालांकि ओआरओबी की राह आसान नहीं है। क्योंकि यह योजना जितनी बड़ी है, इसकी राह उतनी ही दुर्गम भी है। कई देशों के आपसी तनाव भी बाधा बन सकते हैं। अमेरिका से चीन की होड़ और दक्षिण चीन सागर विवाद का असर भी दिखाई देगा। लिहाजा, ओबीओआर के भविष्य को लेकर अभी कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी, ऐसा प्रमोद भार्गव का कहना है, जिसके लेख को आधार बना कर मैंने यह लिखा है। इसबार के इंडिया टुडे ने भी इसी ओबोर के विषय पर अपनी आवरण कथा तैयार की है।
दूसरी और अमरीका  जापान आदि देश मिलकर एक वैकल्पिक सिल्क रुट पर काम कर रहे है, और भारत की भागीदारी उसमे बताई जा रही है। इससे पहले भी श्रीमोदी स्पाइस रूट की और मौसम रूट की चर्चा निकाल चुके हैं। इसलिए भारत हिम्मत दिखता है तो खोने के लिए कुछ नहीं, पाने को बहुत कुछ है।