Friday, September 21, 2012

MERA lekh on FDI in Retail

विदेशी कपंनियों को खुदरा व्यापार में अनुमति देने के नुक्सान.


भारत सरकार द्वारा व्यापारियों, किसानों लघु उद्योगों, राजनैतिक दलों सहित विभिन्न वर्गों द्वारा भारी विरोध के बावजूद सितंबर 14, 2012 को खुदरा क्षेत्र में 51 प्रतिशत विदेशी निवेश को अनुमति देने से देश स्तब्ध रह गया है। यह सर्वविदित है कि इस विषय पर देश में तो क्या सरकार में भी मतैक्य नहीं है। सरकार का यह कृत्य किसी तर्क या औचित्य से विहीन है और बहुराष्ट्रीय कंपनियों और विदेशी ताकतों के प्रभाव में यह लिया गया कदम है। भारत सरकार पिछले लगभग 7 वर्षों से खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश खोलने के तमाम प्रयास करती रही है और इस क्रम में जनवरी 2006 में सरकार ने सिंगल ब्रांड खुदरा में बहुराष्ट्रीय कंपनियों को 51 प्रतिशत निवेश की अनुमति दी जिसे पिछले वर्ष बढाकर 100 प्रतिशत कर दिया गया है। साथ ही साथ केश एण्ड केरी के नाम पर और थोक व्यापार की आड़ में पहले से ही विदेशी कंपनियां मल्टी-ब्रांड खुदरा क्षेत्र में पहले से ही प्रवेश कर चुकी है।


सरकार द्वारा बहुराष्ट्रीय कंपनियों को मल्टी-ब्रांड खुदरा व्यापार में प्रवेश की अनुमति देने का मतलब है - वालमार्ट, टेस्को, केराफोर, स्पैंसर्स इत्यादि कंपनियों को आने की अनुमति। और यह छोटे व्यापारियों के लिए मौत का पैगाम है। सरकार का यह निर्णय खुदरा क्षेत्र में संलग्न 3.3 करोड़ लोगों और इसकी सहायक गतिविधियों में संलग्न 1.7 करोड़ लोगों के प्रति सवेदनहीनता का सीधा-सीधा प्रमाण है, जिनका अस्तित्व ही खतरे में पड़ चुका है। हमारे देश में छोटी बड़ी दुकानों का आकार 50-200 वर्ग फुट का होता है, जबकि वालमार्ट सरीखी कंपनियों के स्टोर लगभग 1 लाख वर्ग फुट के होते है। हमारे कई व्यापारियों के पास तो अपनी दुकान तक नहीं होती और वह अपना व्यवसाय पटरी, रेहड़ी अथवा खोमचा इत्यादि से चलाते है और तमाम प्रकार की समस्याओं और शोषण के शिकार होते हंै। किसी भी अन्य प्रकार के रोजगार के अवसर न होने के कारण वे खुदरा क्षेत्र से अपनी जीविका चलाते है। सरकार की ओर से भी उन्हें वित्त, विपणन अथवा भंडारण इत्यादि की कोई सुविधा नहीं होती। इन लोगों के पास रोजगार का कोई वैकल्पिक साधन भी नहीं है।
क्या किसानो व छोटे उद्योगों को इससे कोई लाभ होगा? बिलकुल नहीं!

इस समय सरकार 'फूट डालो राज करो' की नीति पर चलने क़ि कोशिश कर रही हे जिसके तहत खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश को किसानों व छोटे उद्यमियों के लिए लाभदायक होने का भ्रम फैलाया जा रहा है। यह वक्तव्य एकदम तथ्यों से परे हे. अमरीका जैसे शिखर देशों में जहाँ ‘वालमार्ट’ जैसे संगठित रिटेलर है, वहाँ के किसान सरकारी सब्सिडी पर ही जिंदा हैं। अगर किसानों की हालत वहाँ अच्छी होती तो वहाँ इतनी बड़ी मात्रा में सब्सिडी देने की क्या जरूरत थी ? ध्यान रहे, अमरीका में अब केवल सत्तर हज़ार किसान ही बचे हैं. यही नहीं वहां पिछले चोदह वर्षों में सर्वाधिक भुखमरी छाई हे. पूरे योरोप, जहाँ इन खुदरा कंपनियों का सर्वाधिक प्रभाव हे, प्रति मिनट एक किसान कृषि छोड़ रहा हे. फ़्रांस में केवल 2009 में किसानो की आमदनी 39 % घटी हे . समझ नहीं आता की ये विदेशी कंपनिया किसानो का भला भारत में कैसे करेंगी. वैसे भी इन रिटेल कम्पनियों का नारा हे - ईडीएलसी यानी ‘एवरी डे लो कास्ट’ अर्थात हर रोज कम लागत मूल्य करना । समझ में नहीं आता कि प्रचलित मूल्य से ज्यादा ये किसानों को क्यों देंगी ?

दूसरी तरफ किसानो को तभी लाभ हो सकता है जब उनके सामानों पर बोली लगाने वालों की ज्यादा संख्या हो। ये कंपनिया तो पहला काम ही प्रतियोगियों को बाहर करने का करती हे, और अपना एकाधिकार मंडी पर करती हे . भारतीय छोटे उद्योगों से तीस प्रतिशत माल खरीदने की बात भी बिलकुल बेबुनयाद हे. अंतर-राष्टीय समझोतों के अंतर्गत ऐसा करवा पाना किसी भी सरकार के बस में नहीं हे. तो ऐसे में श्री अन्ना हजारे का इस बारे में कथन बहुत सटीक लगता हैं, 'जब विदेशी कंपनिया आयेंगी तो वे सेवा करने नहीं बल्की मेवा खाने आयेगी'. अतः किसानो या छोटे उद्यमियों का उनसे भला कभी नहीं होगा .

यहाँ श्री अरुण जेटली का तर्क समझाने लायक हे. उनका कथन हे क़ि विदेशी निवेश आने का पहला नुक्सान दुकानदार को नहीं बल्कि भारत के छोटे उद्योग चलाने वालों को होगा. भारत ने पहले ही चीन जैसे देशों के मुकाबले अपने देश में औदोयोगिक ढांचा खड़ा करने का प्रयास नहीं किया हे. इस लिए अब ये कंपनिया चीन का सस्ता माल हमारे मार्केट में भर देंगी. सरकार बोलती हे क़ि ३०% सामान इन कम्पन्यो को भारतीय उद्योगपतियों से खरीदना अनिवार्य कर दिया गया हे. ये अस्संभव सी बात हे. केवल मात्र उनसे बिल ही लिया जायेगा. आज अमरीकी चुनाव में बहुत बड़ा मुद्दा यही हे क़ि वालमार्ट अकेला चीन के कुल उत्पादन का २१ प्रतिशत सामान खरीदता हे, इस लिए अमरीका में स्थानीय उद्योग बंद हो रहे हे. अगर अमरीका जैसे देश के साथ वहां का बड़ा रिटेलर वाल-मार्ट ये दुर्गती कर रहा हे तो भारत क़ि क्या बिसात हे.

क्या आम आदमी को सस्ता सामान और रोजगार मिले गा? असंभव!

ऐसे ही आम व्यक्ति अर्थात उपभोक्ता को भी बहुत बड़ा नुक्सान होगा। तीसरे, यदि सारे आपूर्ति के स्रोत विदेशी कम्पनियों के हाथ आ गये तो देश की सुरक्षा को भी बड़ा खतरा है। इन विदेशी खुदरा कंपनियों द्वारा रोजगार के नए अवसर उपलब्ध कराने की बात भी सचाई से कोसो दूर हे. इस सन्दर्भ में एक उदाहरण पर्याप्त होगा. गत दो वर्षों में टेस्को और सेंसबरी जैसी खुदरा कंपनियों ने क्रमशः ग्यारह और तेरह हज़ार नए रोजगार देने का दावा किया था इंग्लैंड में. पर हकीकत ये हे की क्रमशः 726 रोजगार दिए टेस्को ने और सेंसबरी ने पहले से नौकरी में लगे सोलह सो लोगो को भी हटा दिया. यही हाल कमोबेश सभी बड़ी रिटेलर कंपनियों का हे. उन्होंने कहा कि थाईलैंड, म्यामांर, व फिलीपींस जैसे राष्ट्र अपनी इस नीति को बदलने को मजबूर हुए हैं तथा अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा तक अपनी जनता से छोटी दुकानों से सामान खरीदने की अपील कर रहे उधर, भारत सरकार इसको अनुमति दे रही है थोड़े समय तो ये कंपनिया किसी देश में सस्ता माल बेचती हैं और एक साल तक घटा उठाने के लिए तेयारी करके आती हे. बाद में जब स्थानीय प्रतियोगिता समाप्त हो जाती हे और ये कंपनिया आपस में तालमेल करके कीमतों को बहुत ऊँची ले जाती हैं. तब उपभोगता करेगा भी तो क्या करेगा.
ये किसानो के लिए भक्षक, छोटे उद्योगों के नश्तक और आम जनता के लिए जहरीले तक्षक हे.

ऐसे में सरकार के अत्यंत गैरजिमेदाराना कृत्य के लिए स्वदेशी जागरण मंच गहरा रोष व्यक्त करता है। गौरतलब है कि मल्टी-ब्रांड संसदीय समिति ने सरकार को खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश न खोलने की सिफारिश की थी। संसदीय समिति की सिफारिशों को दरकिनार करते हुए, सरकार द्वारा विदेशी कंपनियों को खुदरा क्षेत्र में अनुमति देने का निर्णय संसदीय लोकतंत्र का भी अपमान है। सरकार का यह कृत्य संसद के प्रति उसकी अवमानना और विदेशी भक्ति का प्रतीक है।


सरकार द्वारा खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश की अनुमति आम आदमी के प्रति सरकार की संवेदनहीनता के विरोध में स्वदेशी जागरण मंच ने देश भर में धरना, प्रदर्शन और पुतला दहन सहित सभी लोकतांत्रिक उपायों के माध्यम से आंदोलन छेडने का निर्णय लिया है। हम सभी जानते हैं क़ि सरकार ने पहले भी इसी प्रकार का तुगलकी निर्णय लिया था और एक दिसंबर २०११ के देश-व्यापी बंद के कारण सरकार ने इस विषय को ठन्डे बसते में डालने का निर्णय लिया था. सरकार ने ये भी आश्वासन दिया था क़ि आगे जब भी अभी इस पर कोई निर्णय लिया जाये गा, वो सबकी सहमती से लिया जायेगा. इसबार सरकार के सहयोगी दल सरेआम चिल्ला चिल्ला कर कह रहे हैं क़ि हमारे से कोई सलाह नहीं ली गयी. अब जब उन्होंने सहयोगियों से ही नहीं पूछा तो विपक्ष या देशवासियों के बारे में तो क्या कहा जायेगा.
स्वदेशी जागरण मंच सरकार से पुनः आग्रह करता है कि आम आदमी के प्रति संवेदनहीनता का त्याग करते हुए खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश के अपने निर्णय को वापिस ले।

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