Wednesday, January 9, 2019

रोजगार का स्वदेशी पथ

Kashmiri Lal Fwd: Sh. Satish ji's book on Rojgar 
भूमिका: 
“कॉलेज के सब बच्चे चुप हैं, कागज की इक नाव ए चारों तरफ दरिया की भांति, फैली बेरोजगारी है।...“ राहत इंदौरी बेशक कोई अर्थशास्त्री या समाज शास्त्री नहीं, पर उसकी लिखी ये पंक्तियां समाज और अर्थव्यवस्था की दुखती रग, यानि बेरोजगारी की समस्या के बारे में बहुत कुछ कह जाती है। आपके हाथ में आई यह पुस्तिका सिर्फ बेरोजगारी रूपी बीमारी का एक्सरे रिपोर्ट ही नहीं है, बल्कि काफी कुछ इलाज भी लिखा है और नए रास्ते तलाशने को भी प्रेरित करती है।  पीछे देखा जाए तो देश के विकास और कल्याण के लिए 1951-52 में पंचवर्षीय योजनाओं को आरंभ किया गया था। योजना आरंभ करने के अवसर पर आचार्य विनोबा भावे ने कहा था कि किसी भी राष्ट्रीय योजना की पहली शर्त सबको रोजगार देना है। यदि योजना से सबको रोजगार नहीं मिलता, तो यह एकपक्षीय होगा, राष्ट्रीय नहीं। आचार्य भावे की आशंका सत्य सिद्ध हुई। प्रथम पंचवर्षीय योजनाकाल से ही बेरोजगारी घटने के स्थान पर निरंतर बढ़ती चली गयी। आज बेरोजगारी की समस्या एक विकराल रूप धारण कर चुकी है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने भी इसीलिए स्पष्ट कहा था कि जैसे पीने का पानी, सांस लेने के लिए हवा, एक नागरिक का मूलभूत अधिकार है, उसी प्रकार उचित रोजगार भी व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है। लगभग इसी से मिलती-जुलती बात सभी भारतीय महापुरुषों ने कही है। पर ध्यान रहे कि इन सभी ने रोजगार की बात कही है, सिर्फ नौकरी की नहीं कही!  प्रस्तुत पुस्तिका इसी बेरोजगारी की मूलभूत समस्या का निदान और उपाय सोचने के लिए मन और मस्तिष्क तैयार करती है। लेखक यायावर है, हमेशा घूमते रहते हैं, सुनते रहते है, इस बीच जो लोगों को समझ में आ जाये, ऐसे बिंदु सहेजते रहते है। उसी संकलन एवं मंथन से जो माखन निकला, उसे आपके सामने सरल व रोचक व विद्वतापूर्ण ढंग से लेखक ने प्रस्तुत किया है। हम जानते है कि पहला सवाल ये उठेगा कि अगर बेरोजगारी एक विकराल समस्या है तो इसका व्याप कितना बड़ा है? यानी आंकड़े क्या है? ऐसे सभी आंकड़े भी प्रस्तुत किये है। हम ये भी जानते है कि आंकड़े जब सरकारी गलियारों से परोसे जाते है, तो वो जानने-समझाने के लिए कम, और कुछ चीजें छुपाने के लिए ज्यादा होते है। लेकिन लेखक ने बड़े सटीक और स्पष्ट ढंग से बताया है कि रोजगार किस क्षेत्र से, कितना आता है और कहां-कहां कम रोशनी वाले स्थानों पर रोजगार के संभावित खजाने छिपे हुए हैं। साथ ही बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सफेद हाथी बहुत कम रोजगार देते है, और उन पर आधारित विकास का  मॉडल रोजगार-रहित मॉडल है। बस यही बात समझने की है कि हमें रोजगार प्राप्त करना है, तो विकास का माॅडल ही बदलना पड़ेगा।  वास्तविकता यह है कि लघु उद्योग, कुटीर उद्योग और कृषि में सुधार के बिना रोजगार सृजन नहीं हो सकता। यही अर्थव्यवस्था के छुपे खजाने हैं। समझना होगा कि एफडीआई एक मृग-मरीचिका है। इसलिए सरकारी नीतियों में बदल की जरूरत है, और समाज की बदली हुए सोच बहुत बड़ी क्रांति ला सकती है। 
कई बार लगता है कि बेरोजगारी की समस्या तो है ही, परंतु उससे भी ज्यादा रोजगार के बारे में प्रचलित सोच ज्यादा बड़ी समस्या है।  विशेष रूप से पढ़ी-लिखी युवा शक्ति, सरकारी और संगठित क्षेत्र में जॉब्स के पीछे भागती नज़र आती है। ‘मैं रोजगार देने वाला बनंू’, ये सोच बढ़ानी पड़ेगी। इसलिए यह एक समाज जागरण का भी विषय है। इस बात को कहकर छुट्टी नहीं पाई जा सकती कि यह एक ‘ग्लोबल फेनोमेनन’ है जैसा कि प्रायः पहले भ्रष्टाचार के बारे में जुमलेबाजी की जाती थी।  

 प्रस्तुत छोटी सी पुस्तिका कुछ ऐसे प्रसंगों को समेटे हुए है कि जो लोग नौकरी छोड़कर स्वरोजगार में गए और अत्यधिक सफल बने। वे रोजगार याचक नहीं, बल्कि प्रदाता बनें। ऐसे लोग समाज में प्रेरणा देते है, युवकों के लिए भी मार्गदर्शक बनते है। पाठकों से निवेदन है कि ऐसे प्रेरक उदाहरण सफल व्यक्तियों के आप भी भेजेंगे तो समाज के लिए उत्प्रेरक बनेंगे। ऐसा नहीं है कि “ये कहानी है, एक दिए और तूफान की’’....बल्कि ये समुद्र में बने दीप स्तंभों (light houses) की है, जो वास्तव में बने ही समुद्री थपेड़े सहने को है। झंझावातों में जहाजों को मार्ग दिखाने के लिए ही बने हैं। कहीं BTW के सतीराम यादव, जिसने फैजाबाद से दिल्ली आकर बिट्टू टिक्की वाला नाम से रेहड़ी से शुरूकर आज कैटरिंग का बड़ा ब्रांड बना है... और कहीं तमिलनाडू के एक अनपढ़, गरीब भरत द्वारा अण्डरगारमैण्टस के अब भारत के प्रसिद्ध ब्रांड VIKING उद्योग की गाथा इसी श्रेणी में आती है।  इस वर्ष जिन विषयों को हमने गहन रूप से लेना है, बेरोजगारी की समस्या, यह वहीं विषय है। 
आशा है कि ये पुस्तिका स्वदेशी कार्यकर्ताओं, समाज के अन्य लोगों के लिए भी मार्गदर्शिका बनेगी। रोजगार विषय को अभियान के नाते नहीं, बल्कि स्वदेशी विकास के माॅडल में बदल को प्रण और प्राण के नाते स्वीकार करेंगे, ऐसी आशा है। - कश्मीरी लाल
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मुख्य पुस्तिका
 रोजगार व स्वदेशी पथ रोजगारः युवा भारत की प्रथम आवश्य
कता  प्रिय विद्यार्थी बहनों व भाईयों ! स्वदेशी जागरण मंच गत 26 वर्षों से देश के आर्थिक प्रहरी के रूप में काम करता आया है। इन 26 वर्षों में डब्ल्यूटीओ, एनराॅन, मछुआरों की समस्या, एफडीआई इन रिटेल, पशुधन बचाने जैसे अनेक प्रकार के अभियान, आंदोलन तथा आवश्यकतानुसार सरकार से संवाद करते हुए, यह आर्थिक अभियान आगे बढ़ता आया है। गत वर्ष चीन के द्वारा भारत के बाजार, भारत के उद्योग व भारत के रोजगार पर पड़ रहे विपरीत प्रभाव को रोकने के लिए एक व्यापक ‘राष्ट्रीय -सुरक्षा अभियान’ लिया गया। हम सब जानते हैं कि वह बहुत ही उत्तम विधि से सफलता की ओर बढ़ रहा है। इसी अभियान के दौरान ही यह स्पष्ट हो गया कि इस समय देश की जो सबसे बड़ी चुनौती है, वह है  रोजगार का क्षेत्र। अभी गत 26 जनवरी 2018 को राष्ट्रपति जी ने अपने अभिभाषण में भी देश की महती आवश्यकता रोजगार को ही बताया है। प्रधानमंत्री तो 2014 से 1 करोड़ प्रतिवर्ष रोजगार का वायदा करते ही आये हैं। इस वर्ष के बजट में भी इस विषय का बार-बार उल्लेख आया है। यहां तक कि मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रहमंयम ने भारत सरकार के लिए करणीय कार्य के पांच सूत्री कार्यक्रम (एजेंडा) में रोजगार को प्रथम स्थान पर रखा है। फिर इन्हीं दिनों इंडिया टुडे-MOTN व ABP News के CSDS-Lok Niti द्वारा किये गये दो बड़े सर्वेक्षण आये हैं। इनमें भ्रष्टाचार, महंगाई, आतंकवाद, सामाजिक भेदभाव, पर्यावरण व रोजगार के 6 विषयों पर भारत की राय ली गई। इन समस्याओं में से सर्वाधिक 28 व 29 प्रतिशत के साथ रोजगार को ही भारत की प्रमुख समस्या बताया गया। सामान्य काॅलेज, विश्वविद्यालयों के विद्यार्थियों से लेकर नीति आयोग के प्रमुख सदस्यों तक ने इस समय पर भारत की सर्वाेच्च आवश्यकता इस समस्या के समाधान को ही माना है। इसे ही हमें विस्तार से अध्ययन भी करना है व इसका समाधान भी करना है। दुनिया का युवा देश भारत भारत की युवा आबादी इस समय पर केवल भारत में ही नहीं, दुनिया में सर्वाधिक है। वैसे कुल भारत की आबादी जो कि इस समय पर 132.6 करोड़ है, वह दुनिया की कुल आबादी का 17.2 प्रतिशत है। कुल दुनिया के 204 देशों में से पिछले 141 देशों की आबादी, यह हमारे देश के बराबर है। यानि कि भारत अपने आप में एक विश्व है। किंतु अगर हम युवाओं के क्रम को भी देखें, तो भारत में इस समय पर युवा 35.6 करोड़ है। दूसरे नंबर पर चीन है-28.5 करोड़। फिर युवाओं की संख्या अफ्रीकन देशों में ही है। जबकि सारा यूरोप अब बूढ़ा हो चला है। यही नहीं जापान, कोरिया, आस्ट्रेलिया, यहां तक कि अमरीका भी बूढ़ा हो गया है। चीन ने 40 वर्ष पूर्व जो ‘वन चाईल्ड’ की नीति अपनाई थी, उसके कारण से वह भी अब तेजी से बड़ी आयु वाला देश होता जा रहा है। वास्तव में तो भारत व अफ्रीकी देश ही अगले 25-30 वर्षों तक युवा रहेंगे। अन्यथा विश्व के अन्य देश तो न्यूनतम युवाओं वाले देश बनते जा रहे हैं।  किंतु भारत द्वारा अपनी युवा शक्ति का, जो कि भारत का सबसे बड़ा वरदान बिन्दू है, ठीक ढ़ंग से उपयोग नहीं हो रहा। इन युवाओं को रोजगार देना भारत के लिए सबसे बड़ी आवश्यकता व सबसे बड़ी चुनौती है। इस समस्या का जब हम गहराई से विश्लेषण करते हैं तो यह ध्यान में आता है कि वास्तव में यह अधिक आबादी के कारण से नहीं है बल्कि गलत प्रकार के आर्थिक मॉडल को अपनाने के कारण से है। युवा व अधिक आबादी होने से तो भारत का उपभोग का स्तर अधिक रहता है, इससे हमारी अर्थव्यवस्था को गति ही मिलती है। आज भारत दुनिया की छठी बड़ी अर्थव्यवस्था हो गया है, उसमें एक कारण हमारी आबादी व युवा शक्ति भी है।  हजारों वर्षांे से भारत एक आर्थिक महाशक्ति एक बड़ा प्रश्न है कि क्या कभी भारत पूर्ण रोजगारयुक्त और बड़ी आर्थिक शक्ति रहा है? थोड़ा सा हम अपने इतिहास का अध्ययन करते हैं तो ध्यान में आता है कि भारत कम से कम गत दस हजार वर्षों से एक सुदृढ़ आर्थिक व्यवस्था रहा है। यह हम ही नहीं कह रहे, बल्कि ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के सीनियर प्रोफेसर रहे डाॅ. एंगस मेडिसन के द्वारा लिखित ‘मिलेनियम पर्सपेक्टिव’ (The World Economy: A Millennium Perspective) में इस बात को स्पष्ट रूप से बताया गया है। उसी को ही प्रोफेसर डॉ. दीपक नैय्यर (पूर्व वाइस चांसलर (VC) व बाद में हार्वड यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर) की पुस्तक 'Catch Up' में भी दोहराया गया है। इसमें स्पष्ट रूप से उल्लेख है कि भारत 1 ईस्वीं से 1000 ईस्वीं तक विश्व सकल घरेलू विनिर्माण (Manufacturing) में 31.1 प्रतिशत तक का हिस्सेदार रहा है। उसके बाद भी भारत का 1500 ई. तक दुनिया की जीडीपी में 28.6 प्रतिशत हिस्सा था और इस्लामिक, पुर्तगाल, फ्रांसीसी व अंग्रेजों के आगमन व भारतीय अर्थव्यवस्था को बर्बाद करने की प्रक्रिया तेज करने के बावजूद 1700 ई. में दुनिया की जीडीपी में योगदान 19.0 प्रतिशत व 1820 ई. में 12 प्रतिशत तक रह गया और उसके पश्चात इसी तरह घटता ही चला गया। और अंततः 1947 में जब अंग्रेज यहां से चले गये तो उस वर्ष भी भारत का हिस्सा 3.2 प्रतिशत था, जो आज केवल 2.2 प्रतिशत या इसके आसपास है।  सदा रोजगारयुक्त ही रहा है भारत! एक व्यवहारिक बात भी देखें। हमारी संस्कृत भाषा जो कि 700-800 वर्षों पूर्व तक भी भारत के जन सामान्य की भाषा थी, सबसे समृद्ध भाषा है। किंतु उसमें बेरोजगार व्यक्ति के लिए कोई पर्यायवाची शब्द ही नहीं है और उसका कारण यह है कि भारत के हजारों वर्षों के इतिहास में कभी कोई व्यक्ति रोजगारविहीन हो सकता है, बेरोजगार हो सकता है, यह कल्पना ही नहीं रही। सहज स्वाभाविक रूप से यह ध्यान में आएगा कि भारत एक उद्योग प्रधान देश रहा है। स्वतंत्रता के पश्चात विद्वानों ने यह उल्लेख किया कि भारत कृषि प्रधान देश था, किंतु सत्य यह है कि भारत उद्योग प्रधान देश था। यहां लघु उद्योग थे, कुटीर उद्योग थे, ग्रामीण आधारित उद्योग थे, पर्यावरण हितैषी उद्योग थे और परंपरागत उद्योगों के कारण से पिता का उद्योग पुत्र संभालता ही था। इसलिए वैद्य का लड़का वैद्य, कारीगर का लड़का कारीगर, सुनार का लड़का सुनार, अध्यापक का लड़का अध्यापक, सैनिक का लड़का सैनिक आदि होता ही था व क्षमतानुसार बढ़ता भी जाता था। इस अपनी पुरानी अर्थव्यवस्था के बारे में गांधी जी, दादा भाई नैरोजी व बाद में धर्मपाल ने विस्तार से लिखा भी है।  हम सब जानते हैं कि गत 800-900 वर्षों से भारत लगातार इस्लामिक विदेशी आक्रांताओं से और बाद के लगभग 200 से 300 वर्षों तक अंग्रेजों के साथ लड़ता रहा है। इस सारे समयकाल में हमारी जहां पर शैक्षणिक, सामाजिक, संस्कार व्यवस्थायें टूट गई। उसमें सबसे अधिक कठिनाई हुई कि हमारा आर्थिक व्यवस्था तंत्र टूट गया। अंग्रेजांे के कारण से हमारे ग्रामीण उद्योग, लघु उद्योग, कुटीर उद्योग, बड़े उद्योग बंद हो गए या उन्होंने तहस-नहस कर डाले। शिक्षण व्यवस्था को तहस नहस कर डाला। किंतु यह भी सत्य है कि हमें अपने को स्वतंत्रता के पश्चात जैसी पहल करनी चाहिए थी, उसमें कमी रह गई। इस विषय पर सारे देश में वर्तमान परिप्रेक्ष्य में नये चिंतन व व्यापक चर्चा की आवश्यकता है, ताकि देश फिर से पूर्णतया रोजगारयुक्त बन सके। विकास के पथ पर भारत आज जब हम अपने रोजगार के विषय पर ध्यान करते हैं तो यह बात ध्यान में आती है कि इस समय पर सारे विश्व की तुलना में भारत की अर्थव्यवस्था का जो स्तर है वह सामान्यता ठीक है, अच्छा है। जैसे दुनिया भर में जो मापदंड माना जाता है सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का, उसमें भारत इस समय 7 प्रतिशत से अधिक की वार्षिक दर से बढ़ रहा है, जो कि दुनिया के सभी देशों में सर्वोच्च है। इस समय पर हम 2.6 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था हो गए हैं और अनेक शोध इस समय बता रहे हैं कि हम 2018 में ही दुनिया की पांचवी बड़ी अर्थव्यवस्था हो जाएंगे और 2028 तक तो हम तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनने जा रहे हैं। इस समय अमरीका की अर्थव्यवस्था 17.6 ट्रिलियन डालर, चीन 12.1, जापान 6.2, जर्मनी 3.5, फ्रांस व इंग्लैंड 2.9 ट्रिलियन डालर ही हमसे आगे है।  
  1. United States (GDP: 20.49 trillion)
  2. China (GDP: 13.4 trillion)
  3. Japan: (GDP: 4.97 trillion)
  4. Germany: (GDP: 4.00 trillion)
  5. United Kingdom: (GDP: 2.83 trillion)
  6. France: (GDP: 2.78 trillion)
  7. India: (GDP: 2.72 trillion)
  8. Italy: (GDP: 2.07 trillion)
  9. Brazil: (GDP: 1.87 trillion)
  10. Canada: (GDP: 1.71 trillion)
 इस समय पर महंगाई काबू में है, लगभग 4.2 प्रतिशत वृद्धि दर तक की है जो कि सामान्यतया नियंत्रण में मानी जाती है। देश में राजनैतिक, सामाजिक स्थिरता है। आतंकवाद अथवा हिंसक तत्व काबू में है। रूपया 63.70 पैसे पर है जो कि मजबूत होता जा रहा है। बजट घाटा, यह अंतर्राष्ट्रीय मानक 3.0 प्रतिशत (जीडीपी का) के निकट (3.5 प्रतिशत) है। हमारा विदेशी मुद्रा भंडार 410 बिलियन डालर पार कर चुका है। स्टाॅक एक्सचेंज मार्किट भी ठीक है। यानि आर्थिक दृश्य ठीक-ठाक है। किंतु इसमें सबसे अधिक विषय आता है कि हमारे यहां पर इस आर्थिक वृद्धि में से भी रोजगार नहीं पैदा हो रहा। कुछ लोगों का कहना है कि यह रोजगारविहीन (jobless growth) है, किंतु कुछ लोग कहते हैं कि नहीं, इसका स्वरुप बदल रहा है। किंतु देश की बेरोजगारी इतनी भी ज्यादा नहीं है। नीति आयोग के उपाध्यक्ष का कहना है कि रोजगार से बड़ा मुद्दा गुणवत्तापूर्ण रोजगार यानि वर्ष भर के और सुरक्षित रोजगार का है।  गत चार वर्षों में सरकार ने इस दृष्टि से अनेक प्रयत्न किये भी है। जिसमें छोटे, लघु व कुटीर कार्यों के लिए सस्ते लोन की व्यवस्था अर्थात मुद्रा योजना, एक बड़ा प्रयत्न है। इसी तरह युवकों को तकनीकी प्रशिक्षिण की व्यापक योजना ‘स्किल इंडिया’ भी शुरू की गई है। इसी तरीके से स्टैंडअप, स्टार्ट अप, डिजिटल इंडिया जैसी योजनाओं के माध्यम से भी रोजगार पैदा करने के प्रयत्न हो रहे हैं। फिर भी लगभग 10.2 लाख युवक प्रतिमास जॉब मार्केट में आ जाते हैं। भारत को 1 वर्ष में 1.4 करोड़ रोजगार चाहिए। इसके लिए भगीरथ प्रयत्न करने होंगे। अभी, हमारा रोजगार आता कहां से है? आगे की योजना करने से पूर्व जरा एक नजर इस बात पर भी लगाएं कि अभी तक का रोजगार आ कहां से रहा है? तो ध्यान में आएगा कि हमारा कृषि क्षेत्र 40 से 48 प्रतिशत रोजगार दे रहा है। वहीं पर मैन्युफैक्चरिंग में से केवल 26 से 30 प्रतिशत रोजगार आ रहा है, यह लघु उद्योगों से लेकर कॉर्पोरेट तक का है। सर्विस सेक्टर, जो भारत में भी तेजी से बढ़ रहा है, यह 28 से 32 प्रतिशत तक का रोजगार देता है। इस समय पर भारत में कुल वर्क फोर्स अर्थात 18 वर्ष से लेकर 65 वर्ष तक की आयु वाले 49.6 करोड़ लोग है।  उधर सभी 29 प्रदेश सरकारों व भारत सरकार की नौकरियां, चपरासी से लेकर प्रधानमंत्री तक, की गणना की गई। इसमें अर्ध सरकारी या पीएसयू, बड़े उद्योगों का संगठित क्षेत्र, जिसे काॅरपोरेट सेक्टर कहते है, चाहे फिर भारतीय कंपनी हो या बाहर की, यह सब मिलाकर 3 करोड़ 42 लाख 60 हजार लोगों को ही रोजगार दे रहे हैं, अर्थात इन सबका मिलाकर रोजगार में योगदान 7 प्रतिशत से अधिक नहीं है। किंतु फिर भी 93 प्रतिशत लोग भारत के अपनी बुद्धि, अपनी पूंजी, अपनी मेहनत व अपना जोखिम, के आधार पर अपना रोजगार स्वयं विकसित कर रहे हैं।  अभी कुछ दिन पूर्व नीति आयोग के उपाध्यक्ष डाॅ. राजीव कुमार ने रोजगार के कुल आकलन के बारे में एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। यदि नीति आयोग के इस दृष्टिकोण को भी मानें, जिसमें 10 से अधिक कामगारों युक्त उद्योगों की संख्या भी शामिल कर ली जाए, यद्यपि इनमें बहुत से केजुअल व दिहाड़ीदार लेबर होती है, यानि कि अस्थायी व अप्रशिक्षित कामगार को मिला लें तो भी यह आंकड़ा 10 करोड़ तक पहुंचता है। अर्थात कुल लेबर फोर्स का 20 प्रतिशत। तब भी 80 प्रतिशत यह स्वरोजगार व कृषि वाला असंगठित कार्यबल का ही क्षेत्र है। तो यह ध्यान में करना होगा कि 80 प्रतिशत भारत जो अपना रोजगार स्वयं से निकाल रहा है, वह कृषि व उससे जुड़ी हुई प्रक्रियाएं, रिटेल, स्वरोजगार आदि ही है।  संगठित क्षेत्र का रोजगार में योगदान टेक्सटाइल के क्षेत्र में जो कि जीडीपी में 4 प्रतिशत का योगदान करता है, इससे 4.9 करोड़ लोग रोजगार पाते हैं। इंफ्रास्ट्रक्चर, कंस्ट्रक्शन में जीडीपी का योगदान तो 24 प्रतिशत है, परंतु वहां 3.6 करोड़ लोगों को ही रोजगार मिलता है। एक बड़ा सेक्टर रिटेल का है, जहां पर 4 करोड़ लोगों को रोजगार मिल रहा है, जीडीपी में रिटेल का योगदान 10 प्रतिशत है। फिर जनरल मैनुफैक्चरिंग जो कि जीडीपी में 17 प्रतिशत का योगदान कर रहा है, किंतु वहां रोजगार 3 करोड़ ही हैं। इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी के क्षेत्र का जीडीपी में योगदान 7.7 प्रतिशत है, जबकि वहां पर केवल 37 लाख लोग रोजगार पाते हैं। बैंकिंग का क्षेत्र जिसका जीडीपी में हिस्सा 7 प्रतिशत हैं, किंतु रोजगार 15 लाख लोगों को ही दे पाता है। इसी तरह रियल एस्टेट, जीडीपी में 9.0 प्रतिशत, किंतु 15 लाख लोग उसमें रोजगार पाते हैं।  एनर्जी (पावर) एक ऐसा क्षेत्र है जिसका रोजगार का मूल्यांकन करना सहज सरल नहीं हो रहा। किंतु बड़े ध्यान में बात आने वाली है कि प्रदेश व केंद्र सरकारों की एक बड़ी शक्ति सरकारी, अर्ध सरकारी, बड़े उद्योगों के संगठित क्षेत्रों में लगती है। जबकि चाहिए यह कि उनकी 93 प्रतिशत शक्ति 93 प्रतिशत रोजगार देने वाले कृषि व अन्य असंगठित क्षेत्र में लगनी चाहिए।  एक और बात ध्यान में रखने वाली है। वह यह कि इस समय पर दुनिया में तकनीक परिवर्तन आज तक की सबसे तीव्रतम दर पर है। हर 10-12 साल बाद नौकरियों के प्रकार बदल जाते हैं, क्योंकि तकनीक बदल जाती है। आॅनलाईन-कॉमर्स, रोबोटिक्स व आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जैसी नई चुनौतिया आ रही हैं। जब हम स्वदेशी विकास मॉडल (रोजगार केंद्रित) इसकी योजना करेंगे तो उस समय पर हमें इन चुनौतियों का भी ध्यान रखना होगा। जैसे- आईटी रेवोलुशन से अमेरिका के बाद सबसे अधिक लाभ भारत को हुआ था। ऐसे ही इन क्षेत्रों में भी हम कर सकते हैं क्या, यह विचारणीय विषय है।  कृषि क्षेत्रः सर्वाधिक महत्व का विषय भारत के पास 14.8 करोड़ हेक्टेयर भूमि है जो कि दुनिया में सर्वाधिक कृषि योग्य भूमि है। चीन, रूस, अमेरिका इनके क्षेत्रफल भारत से 2 गुना, 3 गुना, 5 गुना होते हुए भी कृषि योग्य भूमि हमारे पास ही सर्वाधिक है। किसान की आय को वर्ष 2025 तक दोगुना करना होगा, तभी हम गांव से शहर की ओर पलायन रोक सकेंगे। क्योंकि यह क्षेत्र सबसे अधिक रोजगार देता है। किंतु किसान की आय तो बहुत ही कम है। वह संतोषकारक नहीं है। फिर भारत में जोत (प्रति किसान कृषि भूमि) का स्तर बहुत छोटा होने के कारण किसान की कठिनाईयां और अधिक बढ़ जाती हैं। हमें फसल की लागत कम करनी होगी, इसके लिए जीरो बजट नेचुरल फार्मिंग या अन्य प्रकार के तरीके ढूंढने होंगे। उसी तरीके से फसल का मूल्य संवर्धन (वैल्यू एडिशन) करना होगा जिससे किसान को न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) की आवश्यकता ही ना पड़े। किसान इससे आगे निकलकर अपनी फसल को 3 गुना दाम पर बेचने की प्रक्रिया सोचे। उदाहरण के तौर पर, किसान जब अपना गेहूं बेचता है तो उसे 1680 रुपए समर्थन मूल्य के हिसाब से ही पैसा मिलता है, उसमें भी मंडी का व अन्य प्रकार के खर्चे काटने पर उसको 1500 रुपए क्विंटल से अधिक का दाम घर में नहीं पड़ता। जबकि उसी गेहूं को कारगिल आदि कंपनियां पैकिंग कर 34 रूपये किलो तक में भी बेचती है। यदि हमारे किसान यह निर्णय कर लें कि वह अपनी फसल के गेहूं को दलिया, आटे, बिस्कुट या अन्य किसी उत्पाद प्रक्रिया में डालकर ही बेचेंगे तो उनकी आय में तेजी से बढ़ोत्तरी होगी, इसी को मूल्य संवर्धन कहते हैं। इसके लिए सरकार से सहयोग लेकर और मंडी की तथा मार्केटिंग की व्यवस्था करनी होगी, किंतु यह एक तरीका हो सकता है। इसी प्रकार से और क्या-क्या हो सकता है, यह देश की 2.5 लाख पंचायतों में लोग बैठकर सोचंे। कुल मिलाकर मुख्य बात यह है कि कृषि की लागत कम हो और मूल्य संवर्धन करके उसकी कीमत किसान को अधिक मिले। यह यदि हो गया तो फिर उसको बैंक लोन माफ करने या इस प्रकार की राहत देने की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। वह स्वयं अपने पैरों पर खड़ा होगा और गांव से शहर की तरफ पलायन भी रूकेगा। अन्य अभी क्या-क्या हो सकता है, यह किसान संघ अथवा अन्य किसान, कृषि के जानकार लोग योजना कर सकते हैं।  रोजगार का बड़ा क्षेत्र है- लघु, कुटीर व घरेलू उद्योग कृषि के बाद दूसरा बड़ा रोजगार का क्षेत्र है- लघु, कुटीर एवं घरेलू उद्योग। परंतु इन पर विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों व चाइनीज कंपनियों की मार पड़ने के कारण से यह आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं। जब लक्ष्य रोजगार हो ही गया तो हमें उपायों पर भी विचार करना होगा। इनमें सबसे प्रमुख वह है, जो स्वदेशी जागरण मंच सदा कहता रहा हैं कि घरेलू व अन्य सामान्य वस्तुओं में, शून्य तकनीक वाले क्षेत्र में, एफएमसीजी (fast moving consumer goods) क्षेत्र में, किसी भी प्रकार की बहुराष्ट्रीय कंपनियां अथवा चाइनीज कंपनियों को नहीं रहना चाहिए। यहां तक कि भारत की भी बड़ी कंपनियों से इस क्षेत्र को मुक्त रखना चाहिए। हमें सारे देश में ‘केवल स्वदेशी’ यह अभियान चलाना चाहिए। ताकि देश के लोग सामान्य उपभोक्ता वस्तुओं के क्षेत्र में, घर परिवार की वस्तुओं में केवल स्वदेशी और वह भी लघु एवं कुटीर उद्योगों की बनी हुई ही प्रयोग करें। आज से कुछ वर्ष पहले तक देश में 1430 वस्तुएं ऐसी थी जो कि लघु व कुटीर उद्योगों (SME Sector) के लिए सुरक्षित थी, किंतु धीरे-धीरे करके इन बहुराष्ट्रीय, विदेशी, बड़ी कंपनियों के दबाव में विभिन्न सरकारें यह सूची खत्म करती गईं और इसके कारण से गांवों, छोटे-कस्बों में बनने वाले घरेलू उत्पाद की ईकाईयां बंद होती गई। परिणामस्वरूप बेरोजगारी बढ़ती चली गई। केवल बहुराष्ट्रीय व बाहरी कंपनियां ही नहीं बल्कि भारत के बड़े उद्योग समूहों को रिटेल के क्षेत्र में काम करने की खुली छूट दे दी गई। उदाहरण के तौर पर- रिटेल की दुकान भी अब रिलायंस चलाता है, नमक Tata बनाता है, तेल ऐसे ही कोई बड़ी कंपनी बनाती है। इसी तरीके से हमारे साबुन, तेल, शीतल पेय आदि उद्योगों पर यूनिलीवर, लक्स, पेप्सी-कोकाकोला जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियां का कब्जा है। स्वाभाविक है कि उनका मुकाबला छोटे व कुटीर उद्योग, दुकानदार नहीं कर पाते। जिससे वे शीघ्र ही बंद हो जाते हैं और रोजगार के अवसर और कम हो जाते हैं। अतः इन 1430 वस्तुओं को लघु एवं कुटीर उद्योगों के लिए आरक्षित कर देना चाहिए। इसके लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियां, अंतर्राष्ट्रीय मानक अथवा विदेशी निवेश का क्या होगा, इससे घबराने की आवश्यकता नहीं। एक उदाहरण देखें, अमेरिका के अंदर डोनाल्ड ट्रंप राष्ट्रपति बने, वह अमेरिका के युवकों को दिये इसी आश्वासन पर ही बने कि वह उनके लिए रोजगार जुटाएंगे। मेक्सिको के सामने दीवार खड़ी करेंगे। क्योंकि मेक्सिको से बड़ी मात्रा में बेरोजगार लोग अमरीका में आकर स्थानीय लोगों के रोजगार के अवसर कम कर देते हैं। इसी तरह ट्रंप ने कहा कि चीन की करेंसी मैनीपुलेशन को रोकेंगे और चीन से होने वाले 350 बिलियन डालर वार्षिक घाटे को तेजी से कम करेंगे। यहां तक कि ट्रंप ने यह भी कहा कि भारत के एच1बी वीजा पर रोक लगाएंगे। अमरीका इस दिशा में तेजी से कदम बढ़ा भी रहा है।  राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपने यहां रोजगार वृद्धि व व्यापार घाटे को कम करने के लिए अनेक कड़े कदम उठाये हैं। यहां तक कि अमेरिका द्वारा ही प्रारंभ की गई टीपीपी की संधि, जिसमें दुनिया की 42 प्रतिशत GDP के देश आते थे उसको राष्ट्रपति बनने के एक महीने में ही निरस्त कर दिया। उन्होंने सारी दुनिया के राष्ट्राध्यक्षों द्वारा स्वीकार किया गया सीओपी2 (पेरिस जलवायु समझौता), उससे बाहर हो जाने की घोषणा कर दी। उन्होंने भारत जैसे मित्र देश की भी परवाह न करते हुए एच1बी वीजा पर सख्त नियम बनाने शुरू कर दिए हैं। केवल एक ही उद्देश्य डोनाल्ड ट्रंप ने अपने सामने रखा है, और वह है-अमेरिका के लोगों को रोजगार देना, अमेरिका की समृद्धि। अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी, एजेंसियां, बहुराष्ट्रीय कंपनियां क्या कहती हैं, इसकी उन्होंने परवाह नहीं की। यदि डोनाल्ड ट्रंप अपने देश में ऐसा कर सकते हैं तो भारत को क्यों नहीं करना चाहिए। यदि 1430 की सूची को फिर से आरक्षित कर देने से भारत में लघु एवं कुटीर उद्योग बढ़ता हो और उससे लाखों रोजगार फिर से बढ़ते हो, तो हमें अवश्य ही इस विषय पर ना केवल विचार करना चाहिए बल्कि इसके लिए व्यापक जनसमर्थन भी जुटाना चाहिए।  बाई अमेरिकन एक्ट की तरह बने भारत में भी कानून हमें जानकारी रहनी चाहिए कि अमेरिका में एक ‘बाई अमेरिकन एक्ट 1933’ बना हुआ है। जिसके अनुसार अमेरिकी सरकार जो भी खरीदती है उसका एक बड़ा भाग अमेरिकी कंपनियों से खरीदना अनिवार्य होता है। गत वर्षों में अमरीका ने इस एक्ट के अंदर आने वाली वस्तुओं की सूचि को लगातार बढ़ाया है यानि इस कानून को कड़ा किया है। अपने यहां के उद्योगों व व्यापार क्षेत्रों को मजबूत करने के लिए ऐसा किया है। कुछ ऐसा ही फ्रांस के राष्ट्रपति डी. विलेपां ने जब फ्रांस की डायरी कंपनी बिकने लगी तो उसका राष्ट्रीयकरण कर दिया इंग्लैंड की जनता द्वारा तो अपने रोजगार व आर्थिक हितांे के लिए यूरोप यूनियन से बाहर आना (Brexit) स्वीकार किया। अर्थात हर देश को अपने हितानुसार नीतियां स्वीकार या बहिष्कार करते हैं। फिर हमें क्यों नहीं इस प्रकार की संरक्षणवादी प्रक्रिया का उपयोग कर अपने रोजगार व समृद्धि को बढ़ाने की सोचनी चाहिए। किंतु हमारे यहां के अर्थशास्त्रियों के एक वर्ग का कैसा मति भ्रम है कि अभी पिछले बजट में जब भारत सरकार ने कोई 40 वस्तुओं पर आयात शुल्क बढ़ाया तो उसे ही संरक्षणवादी (Protectionism) कह, इसे नकारात्मक रूप से प्रचारित करना शुरू किया। जबकि गत 25 वर्षों में भारत ने लघु व कुटीर उद्योगों के लिए संरक्षित वस्तुओं की सूचि को धीरे-धीरे करके समाप्त किया है। जबकि अमरीका की तरह हमें इसको और बढ़ाना चाहिए था।  हमें संपूर्ण देश में अलग-अलग विद्या (Artican based cluster) वाले कुटीर उद्योग समूहों की श्रंृखला प्रक्रिया को पुनर्जीवित करना होगा। यथा फिरोजाबाद का कांच-चूड़ी उद्योग, अलीगढ़ का ताला, आगरा-कानपुर का जूता... आदि। यह ग्रामीण क्षेत्रों में भी हो सकते हंै।  हमारे यहां पर भी अमरीका के ‘बाय अमेरिकन एक्ट 1933’ के समानांतर ‘जीएफआर कानून’ है। इस जीएफआर कानून में अभी दो वर्ष पूर्व ही यह अनिवार्य किया गया है कि 50 लाख तक की खरीद, भारतीय कंपनियों द्वारा हो। अब उसे बढ़ाकर 80 प्रतिशत तक भारतीय खरीद करना होगा और उसमें भी 80 प्र्रतिशत लघु एवं मध्यम उद्योगों (एसएमई) से खरीदा जाए, ऐसी व्यवस्था हमें जीएफआर के अंतर्गत बनानी होगी। तभी भारत के उद्योग व निर्माण (Manufacturing) को प्रोत्साहन मिलेगा तथा स्वाभाविक ही है कि रोजगार भी बढ़ेगा। मेड बाई भारत, मेक इन इंडिया आदि के विचार तभी ठीक से फलीभूत हो पायेंगे। उद्यमिता ही है रोजगार का राजमार्ग एक सबसे बड़ा कार्य जो हमें करना होगा, वह है-अपने युवकों के अंदर उद्यमिता (Entrepreneurship) की भावना को जागृत करना। अभी इस समय पर सारे देश के युवकों में एक विचार चलता रहता है कि जैसे ही हम ग्रेजुएशन अथवा पोस्ट ग्रेजुएशन करके निकलेंगे तो हमें सरकारी नौकरी मिले तो सबसे अच्छी बात है, नहीं तो प्राइवेट नौकरी करनी है। नौकरियां सीमित हैं इससे अधिक निकल नहीं सकती। यदि हम उन्हें विद्यार्थीकाल में ही इस बात के लिए प्रेरित करें कि वह नौकरी मांगेंगे नहीं, नौकरी देने वाले बनेंगे। यानि 'Don't be Job seeker, Be job provider' यह उद्घोष लेकर यदि एक बड़ा जन जागरण अभियान चलाया जाये तो इस देश में युवकों के अंदर उद्यमिता की भावना को भरपूर तरीके से जागृत किया जा सकता है। जिससे सारे देश के अंदर नौकरियां देने वाले लाखों युवा खड़े हो जायेंगे। मैंने अनेक स्थानों पर BTW यानि बिट्टू टिक्की वाले का उदाहरण दिया है। वह अयोध्या के पास एक छोटे से गांव में बच्चों को ट्यूशन पढ़ाकर गुजारा करने वाले सतीराम यादव की कहानी है। उसको दोस्तों ने कहा कि दिल्ली जाकर कुछ काम करो, तो वह दिल्ली आ गया। पैसा भी बहुत नहीं था। क्या करें, उसने रानीबाग में एक रेहडी लगा ली, टिक्की गोलगप्पे की। धीरे-धीरे उसका काम चला, तो उसने गांव से अपने भतीजे को भी बुला लिया। फिर इन्होंने मिलकर साल भर बाद धीरे-धीरे एक दुकान खरीद ली और फिर किसी ने उनको बताया तो इन्होंने कैटरिंग का काम शुरु किया। दिल्ली में छोटी मोटी पार्टियों में सामान देना शुरु किया और एक लंबी प्रक्रिया के बाद आज लगभग 25 वर्ष बाद BTW केवल दिल्ली ही नहीं, बल्कि उत्तर भारत का कैटरिंग क्षेत्र का बड़ा ब्रांड बन गया है। लगभग 1200 लोग उसके यहां पर रोजगार प्राप्त कर रहे हैं, यानि पूर्वी उत्तर प्रदेश के गांव का एक युवक दिल्ली आकर 1200 लोगों को रोजगार देता है, कोई इंजीनियरिंग, पीएचडी नहीं किया हुआ था। न कोई बड़े संपन्न परिवार का या प्रशिक्षित था, पर उसकी दृढ़ इच्छाशक्ति व उद्यमिता में विश्वास से आज वह इतनी बड़ी स्थिति में पहुंच गया है। यह है एंटरप्रेन्योरशिप का एक उदाहरण। तमिलनाडू के viking उद्योग की भी कुछ ऐसी ही कहानी है। जिसमें एक बहुत कम पढ़ा लिखा युवक अपनी दादी के प्रोत्साहन व सहयोग से बार-बार विफल होने के बावजूद अंडर-गारमेंट के बड़े ब्रांड व उद्योग-व्यापार को अंततः स्थापित करने में सफल हुआ। भारत में ऐसे सैंकड़ों उदाहरण यहां-वहां देखने को मिल रहे हैं। इस प्रक्रिया को सारे देश में एक जन आंदोलन जैसा खड़ा करना होगा।  इसी प्रकार स्वरोजगार के लिए भारत सरकार और कुछ प्रदेश सरकारों ने भी विभिन्न योजनाएं बहुत अच्छी चलाई हैं। उदाहरण के तौर पर मुद्रा, स्टार्ट-अप, स्टैंड-अप, स्किल इंडिया आदि। किंतु जन जागरूकता और जन सहभागिता के अभाव के कारण वह अपने निश्चित लक्ष्यों को प्राप्त नहीं कर पा रही हैं। यदि अपने जन जागरूकता में इसको एक विषय बनाएं तो बहुत सी योजनाएं ऐसी हैं जो प्रदेशों अथवा केंद्र सरकार में हैं, जिनका उपयोग करके हमारे युवा बेरोजगारी की समस्या को दूर कर सकते हैं।  नये उभरते क्षेत्र-समृद्धि व रोजगार के साधन एक और विचार भी है, नए उभरते क्षेत्र। जिसे आजकल सनराइज क्षेत्र कहते हैं। अभी तक ना तो समाज ने, ना ही प्रदेश व केंद्र सरकारों ने उस पर बहुत ध्यान दिया है। उदाहरण के तौर पर, योग। योग, तन-मन की स्वस्थता के लिए है ही, किंतु आज वह सारी दुनिया में 90 बिलियन (अरब) डॉलर की इंडस्ट्री हो गया है। खेद की बात यह है कि उसमें से 35 बिलियन डॉलर का व्यापार अकेले अमेरिका कर रहा है। योग हमारा, हमारे ऋषि-मुनियों का दिया हुआ, किंतु आज उससे कमाई व रोजगार पैदा करने में अमेरिका आगे हो गया है। यहां तक कि नाईक, एडिडास इन कंपनियों की सामान्य सेल गिरी है। किंतु योग के आसन, योग की एसेसरी, एप्रेन से उन्होंने उसकी भरपाई की है। यदि हम इसको एक नए व्यवसाय के रूप में विकसित करें, तो इसमें कुछ वैसी ही संभावना है जैसी 1995 से 2005 के बीच में आईटी क्षेत्र के कारण से भारत की समृद्धि व रोजगार के द्वार खुले थे। परंतु हम तो ......‘मलयागिरि की भामिनी, चंदन देत जलाए’ की कहावत के अनुसार योग का ठीक से आर्थिक उपयोग नहीं कर रहे। केवल भारत में ही नहीं दुनियाभर में हम योग, योग की शिक्षा-शिक्षक, योग से संबंधित बाकी वस्तुओं का निर्यात करके बड़ी मात्रा में रोजगार व समृद्धि पैदा कर सकते हैं।  इसी प्रकार से पंचगव्य, यानि गाय से उत्पन्न दूध, दही, घी, पनीर, गोबर, मूत्र आदि का विषय भी है। पंचगव्य में अभी किसी और ने बहुत काम नहीं किया है, किंतु पंचगव्य की वस्तुओं का मानक तंत्र (Standardisation) विकसित करके यदि ठीक मार्केटिंग की जाए तो एक बड़ा क्षेत्र समृद्धि व रोजगार का पंचगव्य में से भी निकलेगा। यही बात आयुर्वेदिक औषधियों के निर्माण व निर्यात के बारे में भी कही जा सकती है। क्योंकि भारत दुनिया में 11 प्रतिशत की दवाओं के निर्यात के साथ इस क्षेत्र का अग्रणी देश माना जाता है। तेजी से बढ़ता भारत के रोजगार का साधन-पर्यटन पर्यटन (Tourism) का क्षेत्र ऐसा है जिसमें भारत में इस समय पर दुनिया के किसी भी देश से अधिक संभावनाएं हैं। वर्तमान में भी यह जीडीपी में 7 प्रतिशत तक का योगदान कर रहा है। और विभिन्न सर्वेक्षण बता रहे हैं कि भारत में आगामी वर्षों में इसकी वृद्धि दर 15 प्रतिशत तक होगी। इस वर्ष भी हमारे यहां रिकार्ड एक करोड़ विदेशी आये हैं। स्विटजरलैंड व यूरोप के कई देशों की मुख्य आय ही विदेशी पर्यटन से है। फिर भारत तो प्राचीनतम देश होने के कारण से यहां तो अपार संभावनाएं हैं ही। अतः यदि हम ठीक से टूरिज्म के क्षेत्र का दोहन करने में समर्थ हुए तो निश्चित रुप से हम यह पर्यटक संख्या 5 करोड़ तक ले जा सकते हैं। इससे ना केवल बड़ी मात्रा में भारत, भारत की संस्कृति, भारत की ऐतिहासिक धरोहर का ज्ञान हम दुनिया को दे सकेंगे, बल्कि अपने देश के लिए बड़ी मात्रा में अर्थ व रोजगार भी पैदा कर सकेंगे।  ऊर्जा के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनना ही होगा दुनिया के तेल उत्पादक देश चाहे वो मध्य-पूर्व एशिया (Middle East Asia) के हो, रूस, अमरीका हो, या कुछ अफ्रीकन, वे पेट्रोलियम उत्पाद के दम पर सारी दुनिया की संपत्ति अपनी तरफ खींचते हैं। यदि हमारे हर घर के ऊपर सौर ऊर्जा, यानि सोलर पैनल लगे हो, तो हमें जितनी बिजली चाहिए, वह हम अपने घरों पर ही पैदा कर सकते हैं। यहां पर यह ध्यान में रखने वाली बात है कि गत कुछ वर्षों में भारत सरकार ने मेगा सोलर पार्कों के लिए बड़ी विदेशी कंपनियों को अनुमति दी है, उसके कारण से आज भारत में कोई 12 गीगा वाट बिजली पैदा हो रही है। किंतु भारत जैसे देश में जहां पर जमीन बहुत कम है, वहां पर हमें रूफटॉप पर ही इस प्रक्रिया को केंद्रित करना चाहिए। इसके केंद्रीकरण होने व ट्रांसमिशन में भी बहुत अधिक विद्युत हानि होने से यह खर्चीली हो जाती है।  विकेंद्रीकरण, इस शब्द को ध्यान में रखा तो हमें सौर ऊर्जा में रूफटॉप सबसे उत्तम विकल्प ध्यान में आएगा। इसी प्रकार से गोबर गैस व अन्य बायोमास के क्षेत्र में, देश भर में कुछ प्रयोग सफल हुए, कुछ नहीं भी हुए, किंतु हमें इस पर एकाग्र करना होगा और बायोमास क्षेत्र को यदि हम सफल बनाने में कामयाब हो गए, तो ग्रामीण भारत में ऊर्जा के क्षेत्र में किसी प्रकार की कमी नहीं रहेगी। ऊर्जा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता तो बढ़ेगी ही। पवन ऊर्जा व कचरा ऊर्जा (Waste to Power) भी इसी प्रकार की ऊर्जा हैं। कुल मिलाकर हमारा लक्ष्य होना चाहिए कि हम दुनिया से जो प्रतिवर्ष 92 बिलियन डॉलर (अर्थात 5796 अरब रूपये) का तेल और गैस आयात करते हैं जो कि हमारे कुल आयात का लगभग 25 प्रतिशत है, उसको जितनी जल्दी हम कम करेंगे, अपने देश का पैसा अपने देश में रोकने में हम कामयाब होंगे। इस दृष्टि से दिल्ली की जामिया मिलिया यूनिवर्सिटी का अच्छा उदाहरण है कि वहां सब कुछ रूफटाॅफ सौर ऊर्जा से ही चलता है और उन्होंने उसके लिए कुछ भी खर्च नहीं किया, सस्ती बिजली स्वयं व कंपनी के लिए पैदा कर रहे हैं। मोहाली का एयरपोर्ट भी सौर ऊर्जा चालित है। हमें निश्चित रूप से ऊर्जा के वैकल्पिक भारतीय व पर्यावरण हितैषी केंद्र खोजने ही होंगे। पवन ऊर्जा, बायोमास, सौर ऊर्जा आदि उसी प्रक्रिया के ही केंद्र है, यह हम हमेशा ध्यान में रखें। शिक्षा व चिकित्सा है समाज का दायित्व इसी नाते से अगर हम ध्यान में करेंगे कि सरकार को कुछ काम करने वाले हैं, कुछ काम समाज को करने वाले हैं, अर्थात सामाजिक, धार्मिक, शैक्षणिक संस्थाओं को और बहुत से काम जन जागरण के माध्यम से सामान्य जनता को करने हैं। एक विषय है चिकित्सा क्षेत्र का। ऐसा अनुमान कुछ शोध में आया है कि गत 10 वर्षों में 25 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा से निकलकर बाहर आये, किंतु इसी समय में 16 प्रतिशत लोग केवल स्वास्थ्य कारणों से वापिस गरीबी रेखा (बीपीएल) से नीचे चले गये। यदि हम एक विचार पर कार्य करें कि भारत के धार्मिक संस्थान, मंदिर, गुरुद्वारे, व अन्य केंद्र अपने साथ कम-से-कम एक बड़ा प्राथमिक चिकित्सा केंद्र चलाएं, ताकि देश भर की प्राथमिक चिकित्सा के क्षेत्र में कम से कम सरकार अथवा व्यवसायिक संस्थानों पर भारत की गरीब जनता की निर्भरता समाप्त हो। उसके अलावा भी देश भर में बड़े धार्मिक संस्थान मिलकर बड़े हॉस्पिटल भी चला सकते हैं। अभी कुछ मात्रा में चला भी रहे हैं। उदाहरण के तौर पर वैष्णो देवी ट्रस्ट, जम्मू अमृतसर का स्वर्ण मंदिर-गुरुद्वारा, व तिरुपति मंदिर आदि बड़ी मात्रा में ऐसे चिकित्सा के संस्थान चला भी रहे हैं। श्री श्री रविशंकर, बाबा रामदेव, जग्गी वासुदेव, सत्य सांईबाबा, राधास्वामी अथवा कई अन्य संत पुरुष भी चिकित्सा के क्षेत्र में कार्य कर ही रहे हैं। यदि इसको एक जन-आंदोलन बनाया जाए तो देश की चिकित्सा क्षेत्र, जो कि भारत में परंपरागत रूप से सेवा का क्षेत्र ही माना जाता था, उसमें इन धार्मिक संस्थानों के प्रवेश से व्यवसायीकरण समाप्त होगा। भारत की गरीब व सामान्य जनता को चिकित्सा के क्षेत्र में एक बड़ी राहत, इनके कारण से मिल सकेगी।  यही कुछ बात हम शिक्षा के क्षेत्र में भी कर सकते हैं। प्राथमिक चिकित्सा के साथ-साथ प्राथमिक शिक्षा भी। यह भारत की सामाजिक संस्थाओं अनिवासी भारतियों (NRI), औद्योगिक-सामाजिक दायित्व कोष (CSR) इत्यादि के माध्यम से हो। भारत में कभी भी शिक्षा व चिकित्सा, यह ना तो सरकार के हाथ में रहे हैं, ना ही व्यावसायिक संस्थानों या आज की भाषा में कहें मार्केट या कंपनियों के हाथों। इसलिए यदि सरकारों के करने के साथ-साथ हमारे सामाजिक संगठन भी आगे आएं तो देशभर का कम-से-कम प्राथमिक शिक्षा का क्षेत्र पूरी तरह से सब वर्गों, विशेषकर निम्न आयवर्ग के लिए सहायक हो सकेगा। आवश्यकता होने पर सरकार अथवा कमर्शियल आर्गेनाईजेशन सहयोग कर सकते हैं। ऐसा एक वातावरण हमें बनाना होगा।  पर्यावरण हितैषी रहा है भारतीय विकास माॅडल एक विषय पर्यावरण का भी है। यद्यपि दुनिया भर में जो प्रदूषण होता है, उसका सर्वाधिक चीन के द्वारा होता है 23 प्रतिशत। उसके बाद अमेरिका का नंबर है, 17 प्रतिशत। भारत तो केवल 4.5 प्रतिशत ही फैलाता है। जबकि भारत की आबादी दुनिया की आबादी का 17.6 प्रतिशत है, किंतु इस विषय में भारत की अपनी एक सोच है। हमारा विकास का मॉडल पर्यावरण हितैषी है। इसलिए हमें पर्यावरण के विषय में विशेष जिम्मेवारी भी निभानी होगी। किंतु इसे संगठित रूप से अथवा सरकारों पर ना छोड़ते हुए यदि एक अभियान लिया जाए कि भारत का हर व्यक्ति अपने जन्मदिन पर एक पेड़ लगायेगा अर्थात 132 करोड़ आबादी हर वर्ष यह कार्य करेगी, तो निश्चित रुप से बिना कोई बहुत बड़े संसाधन जुटाए, देश में करोड़ों पेड़ लगेंगे तथा उनकी सुरक्षा भी स्वभाविक रुप से वह व्यक्ति करेंगे।  बहुत से एनजीओ, स्वयंसेवी संगठन ऐसा कर भी रहे हैं। ऐसे ही नदियों को बचाने का विषय हो, अथवा स्वच्छता का या फिर भारतीय जीवन मूल्यों का प्रचार-प्रसार। प्रत्येक देश का दुनिया के लिए एक संदेश होता है। भारत की परिवार व्यवस्था अथवा अन्य नैतिक जीवन मूल्य, इनका देशभर में प्रसार-प्रचार करना यह भी रोजगारयुक्त स्वदेशी विकास मॉडल का अभिन्न हिस्सा होंगे। जब हम स्कूलों, कॉलेजों, गांवों, व बस्तियों में जाएं तो इन विषयों पर भी स्वाभाविक रूप से चर्चा करें। कुछ महापुरुषों के प्रेरणादायक वाक्य हमेशा हमारा मार्गदर्शन करते ही हैं। उदाहरण के तौर पर पंडित दीनदयाल जी का प्रमुख वाक्य ‘स्वदेशी व विकेंद्रीकरण ही भारत की आर्थिक समस्याओं के समाधान का मार्ग है’ं। इसी तरह उन्होंने कहा था ‘हर हाथ को काम, हर खेत को पानी, यह भारत की योजनाओं का आधार बिंदु होना चाहिए’। राष्ट्ऱऋषि दत्तोपंत ठेंगड़ी कहा करते थे ‘सरकार नहीं, समाज रचना के केंद्र में जन संगठन होने चाहिए, तभी लोकतंत्र ठीक से कार्य करता है’। लोगों का स्तर, जन जागरूकता का स्तर, हमें खड़ा करना होगा, जिसका प्रभाव प्रदेश व केंद्र की सरकारों व उनकी नीतियों  पर पड़ेगा ही।  चीन का जो अभियान गत वर्ष स्वदेशी जागरण मंच ने लिया, उसमें देखा कि कैसे जन जागरूकता के कारण से केंद्र सरकार भी अपनी योजना बदलने को तैयार हो जाती है। विनोबा भावे जी कहा करते थे ‘जो अ-सरकारी है, वही असरकारी है’। इस रोजगार केंद्रित स्वदेशी विकास मॉडल के लिए विभिन्न प्रकार के जन-जागरूकता के कार्यक्रमों की रचना करनी चाहिए। समाज एकत्र होकर चिंतन करे, चर्चा करे और प्रबुद्ध वर्ग सामान्य जनता का मार्गदर्शन भी करे। इस दृष्टि से देश के अर्थशास्त्री, संपूर्ण देश के धार्मिक, सामाजिक संस्थाओं के अगुआ विचार करें, चिंतन करें और देश को पूर्णतया रोजगारयुक्त करते हुए एक विकसित भारत, एक सुरक्षित भारत, एक शक्तिशाली भारत, दुनिया को मार्ग दिखाने वाला भारत बनाने का संकल्प करें। इस चिंतन और उसके क्रियान्वन के लिए संपूर्ण देश में एक व्यापक चर्चा व कार्यक्रमों की रचना सोचनी चाहिए। हम सब लोग इस दिशा में विचार करें और एक बड़े राष्ट्रीय यज्ञ में उतरने के लिए तैयारी करें, इस समय पर इतना कहना ही पर्याप्त होगा।
 रोजगार समस्या-समाधान 10 बिंदुओं में 
1. भारत के विभिन्न सर्वेक्षण, गांव के सरपंच से लेकर प्रधानमंत्री तक, सबका मानना है कि भाारत की सर्वोच्च आवश्यकता ‘रोजगार’ है। क्यांेकि भारत दुनिया का 35.6 करोड़ युवा आबादी के साथ पहला देश है। हमारी आबादी दुनिया की 17.6 प्रतिशत है, दुनिया के 204 देशों में से निचले 141 देशों की आबादी के बराबर। भारत अपने आपमें एक विश्व।
 2. इस समय 7.2 प्रतिशत विकास दर के साथ दुनिया में सबसे आगे। 2.6 ट्रिलियन डालर की अर्थव्यस्था के साथ दुनिया में सातवें स्थान पर। 2028 तक अमरीका, चीन के बाद भारत होगा। महंगाई, बजट घाटा सब काबू में। 410 बिलियन डालर का फाॅरेन एक्सचेंज रिजर्व यानि रोजगार को छोड़कर बाकि मापदंड ठीक। 
 3. अभी हमारा रोजगार का 44-45 प्रतिशत हिस्सा कृषि क्षेत्र से आता है। लगभग 27-28 प्रतिशत विभिन्न स्तर की मैन्यूफैक्चरिंग से व 29-30 प्रतिशत सर्विस सेक्टर से आता है। भारत की कुल लेवर फोर्स इस समय 49.6 करोड़ है।

 4. कुल प्रांतों व केंद्रीय सरकारों की नौकरियां, अर्द्धसरकारी व बड़ा उद्योग जगत मिलाकर 3 करोड़ 42 लाख 60 हजार है। अर्थात केवल 7 प्रतिशत ही संगठित क्षेत्र की नौकरियां हैं। बाकि 93 प्रतिशत तो कृषि, रिटेल व स्वरोजगार का असंगठित क्षेत्र ही है। 
5. भारत के पास 14.8 करोड़ हैक्टेयर कृषि भूमि है, जो दुनिया में सर्वाधिक है। लगभग 21-22 करोड़ लोग कृषि व अन्य गतिविधियों जैसे पशुपालन, मछली पालन, बागवानी आदि में लगे रहते हैं। किंतु उनकी आय कम होने से वे शहरों की तरफ पलायन करते हैं। उनकी आय को 2025 तक तिगुना करने से 44-45 प्रतिशत रोजगार स्थिर हो जायेगा।

 6. लघु व कुटीर उद्योग, क्योंकि दूसरा बड़ा रोजगार का क्षेत्र है, वहां 1430 वस्तुओं की आरक्षित निर्माण का विलोप होने से समस्याएं बढ़ गई है, उसे बहाल करना चाहिए। घर-परिवार में केवल स्वदेशी खरीद से भी बहुत फर्क पड़ेगा।

 7. जैसा कि अमरीका में बाय ‘अमेरिकन एक्ट 1933’ बनाया गया है, जिसके अंतर्गत अमरीका सरकार की खरीदी व प्रोजेक्टों में अमरीकन कंपनियों को प्राथमिकता देना अनिवार्य है, उसी तरह भारत में भी जीएफआर (General Financial Rules) है। किंतु अभी यह बहुत कमजोर है। इसके अंतर्गत सरकार की 80 प्रतिशत खरीद भारतीय कंपनियों, विशेषकर लघु उद्योगों द्वारा अनिवार्य किया जाना चाहिए। 
8. उद्यमिता व स्वरोजगार, यह भारत जैसे देश के लिए रोजगार का राजमार्ग है। हमारे युवाओं का उद्यमिता के अनुरूप DNA (स्वभाव) है, वह परिश्रमी है। अतः 'Don't be job seeker, Be job provider' सबका दिशा सूचक विचार बनना चाहिए। 

9. शिक्षा व स्वास्थ्य में रोजगार व समृद्धि के आधार स्तंभ हैं। इनमें सरकारों के साथ-साथ समाजसेवी संस्थाओं, धार्मिक संस्थानों व व्यक्तियों, CSR, NRI फंड आदि को सेवाभाव से प्राथमिक शिक्षा व स्वास्थ्य में निवेश करना चाहिए। जिससे सबको अच्छी शिक्षा व चिकित्सा सेवा सस्ते में उपलब्ध हो। अभी हर 10 वर्ष में 25 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा से बाहर आते हैं, किंतु केवल स्वास्थ्य कारणों से 16 प्रतिशत लोग वापिस गरीबी रेखा से नीचे चले जाते हैं। 

10. भारत को पर्यटन, योग, पंचगव्य, सौर ऊर्जा व अन्य वैकल्पिक ऊर्जा, स्वच्छता व पर्यावरण पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। ये Sun rise areas हैं, रोजगार व समृद्धि के। 
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 मेरा हो मन स्वदेशी, मेरा हो तन स्वदेशी 
 मेरा हो मन स्वदेशी, मेरा हो तन स्वदेशी ! 
मर जाऊं तो भी मेरा - होए कफन स्वदेशी !! 

 चट्टान टूट जाए, तूफ़ाँ घुमड़ के आए ! 
गर मौत भी पुकारे, तो भी लक्ष्य हो स्वदेशी !!
 मेरा हो मन स्वदेशी, मेरा हो तन स्वदेशी... 

 जो गाँव में बना हो, और गाँव में खपा हो ! 
जो गाँव को हँसाए , जो गांव को बसाए ! 
वह काम है स्वदेशी, वह नाम है स्वदेशी !! 
मेरा हो मन स्वदेशी, मेरा हो तन स्वदेशी... 

 जो हाथ से बना हो, या गरीब से लिया हो ! 
जिसमें स्नेह भरा हो, वह चीज है स्वदेशी !! 
मेरा हो मन स्वदेशी, मेरा हो तन स्वदेशी... 
 मानव का धर्म क्या है, मानव का दर्द जाने ! 
जो करे मनुष्यता की, रक्षा वही स्वदेशी !!
 मेरा हो मन स्वदेशी, मेरा हो तन स्वदेशी... 

 करें शक्ति का विभाजन, मिटें पूँजी का ये शासन ! बने गाँव स्वावलम्बी, वह नीति है स्वदेशी !!  मे
रा हो मन स्वदेशी, मेरा हो तन स्वदेशी ... त
न में बसन स्वदेशी, मन में लगन स्वदेशी ! 
फिर हो भवन - भवन में, विस्तार हो स्वदेशी !!

 मेरा हो मन स्वदेशी, मेरा हो तन स्वदेशी, 
मर जाऊं तो भी मेरा - होए कफन स्वदेशी...
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 रोजगार सृजन हेतु समाज द्वारा  करणीय पांच कार्य
1. क्यूंकि सर्वाधिक रोजगार लघु, कुटीर व मध्यम उद्योगों से प्राप्त होता है, अतः हम सबको चाहिए कि घर-परिवार, दुकान, दफ्तर में प्रयोग होने वाली प्रत्येक वस्तुएं ‘केवल स्वदेशी उत्पाद’ ही खरीदें। बहुराष्ट्रीय व बाहरी कंपनियां तो केवल हमारे देश का पैसा व रोजगार ही बाहर ले जाती है। शून्य तकनीक व रोजमर्रा की जरूरत वाली सब वस्तुएं भारतीय कंपनियां पर्याप्त मात्रा व उचित मूल्य पर बनाती ही है। 
2. ग्रामीण क्षेत्रों में अपने बंधु कृषि का लागत मूल्य कम करने के विविध उपाय जैसे शून्य बजट खेती, नेचुरल खेती, गौमूत्र, केंचुआ खाद आदि करने चाहिए। कृषि क्षेत्र में मूल्य संवर्द्धन की प्रक्रिया व किसान की आय को तिगुना करने हेतु एफपीओ (Farmer Producers Organisation) को मजबूत करना व तैयार माल की बिक्री तथा सुविधाओं हेतु मार्किट प्लेस व साधन तंत्र तेजी से विकसित करना। इस हेतु जन-जागरण भी करें।
 3. उद्यमिता, यह युवकों की सोच बनें। अतः 'Don't be job secker, be job provider' के उद्घोष वाक्य को हर विद्यालय/महाविद्यालय/विश्वविद्यालय में प्रचलित करने व उस अनुरूप प्रेरक सफल गाथाओं की चर्चा करने की प्रक्रिया सब तरफ खड़ी करना। 
4. सामाजिक व धार्मिक संगठनों/व्यक्तियों को प्राथमिक शिक्षा एवं प्राथमिक चिकित्सा हेतु आगे आना चाहिए। मंदिरों, गुरूद्वारों, सेवा ट्रस्टों, एनआरआई, सीएसआर आदि का प्रयोग निम्न आयवर्ग की शिक्षा व चिकित्सा हेतु होना चाहिए।
 5. स्किल इंडिया, स्टेंड-अप इंडिया, स्टार्ट-अप, डिजिटल इंडिया आदि योजनाएं रोजगार सृजन के लिए अच्छा प्रयास है। परंतु ऐसी योजनाओं के सफल क्रियान्वयन हेतु समाज की पूर्ण सहभागिता को सुनिश्चित करने वाले कदम उठाने की पहल करना। -- 

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