Saturday, June 1, 2019

लक्ष्य एक, आग्रह अनेक (ठेंगडी जी)

लक्ष्य एक आग्रह अनेक
1. एक बहुत अच्छा भाषण है जिसमें वे बताते हैं की एक लक्ष्य होने पर भी लोगों के विचार अलग-अलग हो सकते हैं। इसलिए घबराना नहीं चाहिए कि यहां झगड़ा हो गया है, या दो फाड़ हो गया।https://youtu.be/3tJ96OWf2Os
उपर्युक्त लिंक पर MANY EMPHASIS ONE MISSION शीर्षक से ये भाषण यूट्यूब पर सुनने लायक है।
1.1 उसके लिए वह संस्कृत के एक श्लोक का उच्चारण करते हैं ।
"कन्या  वरयते  रूपं  माता  वित्तं  पिता श्रुतम्  |
बान्धवाः कुलमिच्छन्ति मिष्ठान्ने इतरे जनाः ||"
भावार्थ -   विवाह सम्बन्ध स्थापित करते समय विवाह योग्य कन्या की वरीयता अपने भावी पति का रूप (सुन्दरता) होती है और उसकी माता की पसंद अपने दामाद का धनवान होना तथा पिता की पसंद उसका विद्वान और प्रसिद्ध होना होता है |रिष्तेदारों की इच्छा होती है कि विवाह सम्बन्ध किसी उच्च कुल में हो  और अन्य लोगों (बरातियों) की रुचि केवल बढिया स्वागत सत्कार और मिष्ठान (दावत) में होती है | )
(किसी कवि ने भी कहा है कि : -
दंपति रूपहि मातु धन पिता नाम विख्यात |
उत्तम कुल बान्धव चहें  भोजन चहे  बरात ||  ) 
इसी प्रकार सब संगठनों की सोच में अंतर हो सकता है, प्राथमिकता में भी अंतर हो सकता है, परंतु देश का हित सब चाहते हैं ।सबको साथ लेकर चलना चाहिए।
2. अगले उदाहरण में वे बताते है कि महाभारत युद्ध से पूर्व पांडवों में भी कई बातों को लेकर मतभेद रहते थे, स्वभाव, और प्रकृति के कारण, लेकिन परिवार इकट्ठा ही रहता है।
3. कई बार व्यक्ति का अपने से भी विरोध रहता है।एक नेता का उदाहरण वे देते है जो डायबिटिक है परंतु खाने पर नियंत्रण नहीं था। कैसे गाड़ी में लोग मिलने आते हैं तो एक व्यक्ति उनकी प्रिय मिठाई का डिब्बा लाता है, वे भड़कते हैं कि क्या मुझे मरना चाहते हैं मिठाई खिलाकर। लेकिन बाद में सारी खुद ही खा जाता है। इसलिए खुद का खुद से भी मतभेद हो सकता है यह कोई बड़ी बात नहीं है
4.  फिर उसके पश्चात वे बताते हैं की थोड़ी सी गड़बड़ी कोई कर दे तो उसको अनुशासनहीनता नहीं मानना चाहिए वास्तव में डिसिप्लिन शब्द मिलिट्री में से नहीं आया है यह तो डिसाइपल diciple  शब्द 'शिष्य' शब्द से आया है और शिष्य को समझाना गुरु का काम होता है जैसे-जैसे उसका समझदारी का स्तर बढ़ता है, अनुशासन करने का स्वभाव भी बढ़ता है ।
5. वे एनएसयूआई के एक नागपुर में हुए एक कुख्यात कार्यक्रम का जिक्र करते हैं जहां कांग्रेस की इस विद्यार्थी शाखा ने जिन जिन को बुलाया था वे रास्ते में बहुत उपद्रव, शरारत, वे मारपिटाई करते हुए आए थे। और उन डेलिगेट्स नेबस्थानीय प्रबंधकों को भी डट कर पीटा। जो व्यवस्था के प्रबंध प्रमुख थे ठेंगडी  जी के पुराने मित्र थे। ठेगड़ी जी ने उनसे पूछा की 'क्या हुआ'  यह तो मैंने अखबारों से पढ़ा है, परन्तु ऐसा 'क्यों हुआ'/ यह बताओ ? संक्षेप में उसने कहा कि जो लोग बाहर से आए थे वे अपने आप को लड़के का पिता मान रहे थे और प्रबंधकों को लड़की के पिता मान कर व्यवहार कर रहे थे।   इसपर ठेंगडीजी ने कहा यह हमारा सौभाग्य है यह हमारे संगठनों में सब लड़की के बाप ही होते हैं लड़के के बाप नहीं । और इसी के साथ वे अन्य उदाहरण भी देते हैं कि किस प्रकार दूसरे को समझाना हो तो अपने को लड़की का बाप माने दूसरे को लड़के का पिता माने तो बात जल्दी समझा सकता है। धीरज भी बना रहता है । सारांश में इसी प्रकार से जिसने समझाना है उसका दायित्व बहुत ज्यादा है। अनुशासन इसी समझदारी का नाम है।

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