Friday, May 17, 2013

कुंभ मेला 2013 - जैसा मैंने देखा, सुना व पढ़ा

कुंभ मेला 2013
16, 17 फरवरी 2013 को प्रयागराज कुंभ के अवसर पर स्वदेशी जागरण मंच उत्तर प्रदेश की ओर से प्रांत का एक सम्मेलन आयोजित किया गया था। भारी या कहें तो भयानक वर्षा और अंधड़ के कारण ना तो अपेक्षित कार्यक्रम हो सका और ना ही संख्या जुट पायी। परंतु 2 दिन रहकर मुझे मेला देखने का अच्छा सुयोग्य मिला। एक दिन 1.00 बजे से लेकर रात्रि 8.00 बजे तक मैं स्थानीय वकील अनुराग पांडेय जी के साथ मेले में लगातार घुमता रहा। मुझे लगता है कि 15 से 20 किमी. का भ्रमण इस बीच हुआ। मैंने उनसे पूछा कि हमने कितना मेला देख पाए हैं, तो उनका सहज उत्तर था कि मात्र 15 से 20 प्रतिशत! इसी से मेले के आकार प्रकार का अंदाजा लग सकता है। पूरा दिन घूमने के बाद बहुत कुछ सीखने का मौका मिला। विशेषकर सरकार से ज्यादा स्थानीय संत महात्माओं के अपने शिविरों की विकेन्द्रित प्रबंध व्यवस्था, कल्पवासियों की स्वयं की भोजन व्यवस्था और श्रद्धापूर्वक देशी-विदेशी तीर्थयात्रियों की लाखों की संख्या। वहां पर 50 के लगभग हार्वड विश्वविद्यालय के शोधार्थि एवं प्राध्यापक लगभग एक माह के लिए शिविर की प्रबंध व्यवस्था देख रहे थे। ऐसे में एक दिन में मैं कितना समझ सकता था, मुझे भी संकोच हो रहा था। खैर, हमारे देश के उद्योग एवं व्यापार संबंधी प्रमुख संगठन एसोचेम ने अपनी प्रेस विज्ञप्ति में संभावना व्यक्त की है कि इस माह कुंभ में 1200 करोड़ रूपये की कमाई और 6 लाख लोगों को रोजगार मिलेगा। साथ की बताया कि असंगठित क्षेत्र को माह कुंभ से खासा फायदा होगा। उनका अनुमान है कि 15 जनवरी से 10 मार्च तक चलने वाले इस कुंभ में 10 लाख विदेशी पर्यटक आयेंगे और इलाहाबाद समेत उत्तर प्रदेश के होटलों में खाली जगह नहीं मिलेगी। इसी संस्था का मानना है कि राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय एयरलाईन्स के अलावा रेलवे की कमाई इस दौरान डेढ़ हजार करोड़ रूपये ज्यादा होगी। रेलवे प्रति यात्री 5 रू. अधिक वसूल रही है। होटल उद्योग में ही ढाई लाख लोगों को अप्रत्यक्ष रोजगार मिलेगा और चिकित्सा पर्यटन से 45 हजार और पर्यटन गाइड और दूभाषीय लगभग 45 हजार रोजगार पायेंगे। धार्मिक, सामाजिक लाभ जो होंगे सो होंगे ही, परंतु आर्थिक दृष्टि से कितनी बड़ी घटना है, इन आंकड़ों से अंदाजा लगाया जा सकता है।

कंुभ पर मार्क टुली ने अपनी पुस्तक ‘नो फुल स्टाप्स इन इंडिया’ में कहा है ‘‘दुनिया में कोई अन्य देश कुंभ मेले जैसा दृश्य नहीं प्रस्तुत कर सकता। यह सर्वाधिक बदनाम भारतीय प्रशासकों की विजय है। लेकिन उससे ज्यादा यह भारत के लोगों की विजय है। अंग्रेजी प्रेस इस विजय पर कैसे प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं ? अपरिहार्य रूप से, तिरस्कार के साथ। देश के सर्वाधिक प्रभावशाली दैनिक द टाईम्स आॅफ इंडिया ने एक लंबा लेख प्रकाशित किया। जिसमें ये वाक्य कई बार दोहराए गए थे। ‘अबस्क्यूअरिज्म रूल्ड दि रूट्स इन कुम्भ’ (कुंभ में रूढि़वाद ने बसेरा डाला), ‘रिलीसियस डोंगमा ओवरब्हेल्म्ड रीजन एट दी कुंभ (कुंभ में धार्मिक कर्मकाण्ड ने तर्क को पीछे धकेला) और ‘दि कुंभ आफ्टर आॅल रिमेंड ए मेअर स्पेक्टेकल विद इट्स मिलियन ह्यूज बट लिटिल सकस्टेन्स’ (कुंभ में लाखों की भीड़ उमड़ी मगर ठोस कुछ नहीं निकला)।’’

श्री लालकृष्ण अड़वाणी अपने ब्लाॅग में लिखते है कि टुली इलाहाबाद जोकि प्रयाग के नाम से प्रसिद्ध है, गए तो वह एक पूर्व सांसद संत बख्शसिंह के यहां ठहरे। वह एक अन्य कांग्रेसजन श्री वी.पी. सिंह जो प्रधानमंत्री राजीव गांधी के विरूद्ध विद्रोह के बाद में प्रधानमंत्री (1989-90) बने, के भाई थे। धर्म और सेकुलरिज्म के बारे में संत बख्शसिंह से बातचीत करते हुए मार्क टुली ने कहा कि जब इतने लाख लोग कुंभ मेले में आते हैं, तो क्या कुछ बुद्धिजीवियों की इस आशंका की पुष्टि नहीं होती कि ऐसे धार्मिक मेले हिन्दू कट्टरपन की तरफ ले जायेंगे ?
संत बख्शसिंह द्वारा इसका दिया गया जवाब न केवल दिलचस्प है अपितु शिक्षाप्रद भी है। मार्क टुली की पुस्तक से मैं यहा उद्धत कर रहा हूं।
‘‘देखो, तुम अच्छी तरह से जानते हो कि यहां स्नान करने वालों में से अधिकांश जाने के बाद कांग्रेस या मेरे भाई के जनता दल जैसे सेकुलर दलों को वोट करेंगे, तो सेकुलरिज्म को खतरे का सवाल कहां उठता है? वास्तव में, सेकुलरिज्म को लेकर बहस एक पश्चिमी बहस है, क्योंकि आपके देशों में धर्म तर्कों और विज्ञान को प्रतिबंधित करता है। हमारे यहां बहस कभी भी धर्म बनाम अधर्म नहीं रही - यह तो आपके यहां से आई है।’’
इस वार्तालाप को उद्त करते हुए मार्क टुली ने ‘‘आक्रमक सेकुलरिज्म’’ की तीखी आलोचना की और इसे ‘‘एक ऐसा व्यर्थ वर्ग जो धार्मिक लोगों के प्रति बड़ा अपराध करता है’’ निरूपित किया।

इतिहासः वैसे तो प्रचलित कथानुसार देव-दानवों द्वारा सागर मंथन के बाद अमृत कुंभ का निकलना और दानवों का उसे लेकर भागना और मार्ग में अमृत की बूंदों का चार स्थानों पर गिरना और उन्हीं स्थानों पर कुंभ मेले का इतिहास माना जाता है। हम जानते है कि ये चार स्थान प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक है। और प्रति 3 वर्ष क्रमानुसार इन पर अर्धकुंभ और 12वें वर्ष पूर्णकुंभ मनाया जाता है। मुझे भी इस बार तीसरी बार कुंभ में रहने का अवसर प्राप्त हुआ। सुप्रसिद्ध इतिहासकार जदुनाथ सरकार का कहना है कि 12वीं शताब्दी से पहले कुंभ का कोई लिखित वर्णन नहीं मिलता है। परंतु किसी विदेशी द्वारा पहला कंुभ का वर्णन ह्वेनसांग (आजकल ग्नंद्रंदह) नामक चीनी यात्री का प्राप्त होता है। जिसने भारत में 629 से 645 ई. में राजा हर्षवर्धन के समय भ्रमण किया। एक बात जो बहुत अजीबो-गरीब लगती है वो है - धार्मिक कर्मकांड़ों में नागा साधूओं द्वारा शस्त्र-अस्त्र का प्रदर्शन। मुगल बादशाह बाबर के पूर्वज तेमुर की आत्मकथा में वर्णन आता है कि उसने 1394 ई. में हरिद्वार के कुंभ में हजारों तीर्थयात्रियों एवं साधूओं की निर्मम कत्लेआम किया। उसके पश्चात ही नागा साधूओं को शस्त्र धारण करना पड़ा। परंतु रामानंदी समप्रदाय ने 1713 ई. में जयुपर के समीप गाल्ता नामक स्थान पर शस्त्र धारण करने का निर्णय लिया और सवाई माधोपुर का नाम भी इससे ही जुड़ा है।
1892 के इम्पीरियल गजेटियर आॅफ इंडिया में वर्णित है कि 1892 ई. के हरिद्वार के कुंभ में भयानक हैजा की माहमारी फैल गई। और सरकार को जबरदस्त प्रबंध करने पड़े। इसी प्रकार 1903 ई. में 4 लाख लोगों की उपस्थिति दर्ज है।’’
मार्क ट्वेन नामक विदेशी इतिहासकार का 1895 ई. में कुंभ में आना हुआ। वह लिखता है ‘‘यह अद्भुत है, आस्था की शक्ति जिसके द्वारा लोगों का समुद्र-बूढ़े व कमजोर, तरूण व बाल, बिना भय संकोच और शिकायत के इतनी लंबी यात्राएं करके यहां पहुंचते हैं। या तो ये प्रेम के कारण होती है अथवा भय के कारण, मैं नहीं जानता। प्रेरणा चाहे कुछ भी रही हो, परंतु जो कार्य इसमें से पैदा होता है, वह कल्पना से बाहर है। और हम जैसे ठंडे, गौरे लोगों के लिए तो अद्भुत ही है।’’
एक प्रसिद्ध पुस्तक एक योगी की कथा में परमहंस योगानंद ने लिखा है कि पहली बार मुझे अपने गुरु युक्तेश्वर महाअवतार बाबा जी के दर्शन 1894 ई. के प्रयाग के कुंभ पर ही हुए।
2010 ई. के कुंभ में मेरे सामने ही भगदड मचने से लगभग एक दर्जन लोगों की मृत्यु हो गई। नासिक के कुंभ में (27 जुलाई से 7 सितंबर 2003 ई.) में भी भगदड़ के कारण 39 यात्रियों की मृत्यु हो गई थी। जो कारण ध्यान आया वह था कि एक साधु ने चांदी के सिक्के जनसैलाब में फेकने शुरू किए और फिर मची भगदड़ और दुर्घटना। दुर्भाग्य से इस बार भी 10 फरवरी 2013 को प्रयाग के रेलवे स्टेशन पर 36 लोगों के मारे जाने का समाचार है।

भाग 1
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