Thursday, May 14, 2015

फ़िल्म फायर इन ब्लड

फायर इन ब्लड फ़िल्म जो फार्मा उद्योग की लूट उजागर करती है

भूमिका : साल 1996 में वेस्टर्न फार्मास्युटिकल कंपनियों ने कम लागत वाली ऐंटि-एड्स ड्रग्स को अफ्रीकी देशों तक इरादतन पहुंचने नहीं दिया था, जिससे करीब एक करोड़ लोग बेमौत मारे गए। भारतीय फार्मा कंपनी सिप्ला ने बहुत अच्छी लेकिन बहुत सस्ती दवा बनाई तो बहुत अड़ंगे विदेशी बिग फार्मा ने लगाये। इसी विषय पर 2013 में बनी डाक्युमेंट्री फिल्म 'फायर इन द ब्लड' को कई अंतरराष्ट्रीय समारोहों में खूब सराहा गया है और पुरस्कृत भी किया गया है। उसका youtube का ये लिंक है :
https://www.google.co.in/url?sa=t&source=web&rct=j&ei=qHVVVZbwLIyIuATp44G4Cw&url=http://m.youtube.com/watch%3Fv%3DNqoUIhsnAns&ved=0CDUQuAIwCA&usg=AFQjCNEM2-OYH6-WV9AoGfboFbTMp8dAAw&sig2=Gm5WRHgLveu7Ahf6mFgd4w

आयरिश-पंजाबी राइटर-डायरेक्टर डिलन मोहन ग्रे की यह फिल्म सन डांस फिल्म फेस्टिवल के वर्ल्ड डाक्युमेंट्री कॉम्पीटिशन में चुनी जाने वाली पहली भारतीय डाक्युमेंट्री है। चार देशों में शूट की गई इस फिल्म को अब कई देशों के पॉलिसी मेकर्स को दिखाने की योजना है। मुझे लगता है कि भारत में श्री मोदी जी समेत अन्य मंत्रियो को जरूर देखनी चाहिए। नोवार्टिस के विरुद्ध ग्लिवेक और जर्मन की बायर्स के मुकाबले भारत ने जो 1लाख 66 रुपए की 6600 रूपए और 2 लाख 80 हज़ार के बदले मात्र 8000 रुपये की दवा बनाना इन विदेशी कंपनियो को बिलकुल बर्दाश्त नहीं होगा । इसके लिए वे हमारी सर्कार पर बहुत दवाव बनाये गी। अत हर कार्यकर्ता को इसे देखना चाहिए और समझना चाहिए। मैंने जंतर मंतर पर 5 मई 15 के जनसंसद के बाद श्री देविन्दर शर्मा से इस फ़िल्म बाबत बात छेड़ी तो उन्होंने कहा की डायरेक्टर ने ही उनको फ़िल्म भेजी थी और अच्छी लगी। सारी बात को हमने मात्र छ: बिंदुओं में समेटा है तो कृपया पूरा पढ़ लेवें।
1.  लूट का धंधा ही नहीं बल्कि मौत का फन्दा है ये पेटेंट:
एक बार जरा पूरा मामला समझ लेवें। पश्चिमी दवा कंपनियों की दवाओं, एकाधिकार और कपट की कहानी को सामने लाने वाली फिल्म ‘फायर इन द ब्लड’ के निर्देशक डिलन ग्रे ने पिछले दिनों लंदन के द गार्डियन अखबार के ऑनलाइन संस्करण में प्रकाशित लेख में कहा, ”बहुत साल पहले मैंने वह जानना शुरू किया जिसे मैं मानव इतिहास में सबसे बड़ा गुनाह मानता हूं। अफ्रीका और अन्य स्थानों पर लाखों लोग बड़ी निर्दयता से एड्स से मरने के लिए छोड़ दिए गए, जबकि पश्चिमी देशों की सरकारों और फार्मास्यूटिकल कंपनियों ने लोगों तक कम कीमत वाली दवाओं को पहुंचने नहीं दिया। …विकासशील देशों में जहां लोग दवाओं के लिए अपनी सामथ्र्य से बाहर खर्च करते हैं, स्थिति इससे भी बदतर है। फार्मास्यूटिकल कंपनियों के प्रतिनिधियों ने मुझे बताया कि (तुलनात्मक रूप से समृद्ध) दक्षिण अफ्रीका में वे अपने उत्पादों की कीमत बाजार के सबसे ऊपरी हिस्से श्रेष्ठ पांच प्रतिशत के हिसाब से लगाते हैं, जबकि भारत में उपभोक्ता आधार मात्र ऊपरी हिस्सा 1.5 प्रतिशत ही होगा। बाकी की जनसंख्या का कोई महत्त्व नहीं है। साथ ही दूसरी तरफ दवा कंपनियां दिन-रात मेहनत कर रही हैं कि वह भारत, ब्राजील और थाईलैंड जैसे देशों में बनाई जा रही कम कीमत की जेनेरिक दवाओं की आपूर्ति को काट सकें ताकि वे यह सुनिश्चित कर लें कि वे एक भी ऐसा उपभोक्ता नहीं खो रहे हैं जो उनकी गगनचुंबी कीमतों को अदा कर सकता है।
एचआईवी-एड्स के एक मरीज को एक साल के इलाज के लिए 12 हजार से 15 हजार डॉलर खर्च करने पड़ते थे। भारत की बड़ी जेनेरिक दवा निर्माता कंपनियों में से एक सिप्ला ने उच्च गुणवत्ता वाली एचआईवी-एड्स एंटीरेट्रोवाइरल दवाएं सस्ते में उपलब्ध कराकर विकासशील देशों, विशेषकर अफ्रीका में मरीजों में एक नई आशा जगाई। सिप्ला ने तीन एंटीरेट्रोवाइरल को मिलाकर एक गोली बनाई जिसका नाम ट्राइओम्यून है। इसके लिए मरीज को एक साल के इलाज के लिए 350 डॉलर देने पड़ते हैं। यानी प्रति दिन का एक डॉलर! अफ्रीका और अन्य विकासशील देशों में 85 प्रतिशत दवाएं भारतीय कंपनियों से जाती हैं। इन जेनेरिक दवाओं ने बहुत सारे लोगों का जीवन बचाया और बहुत सारे मरीजों की जीवन-प्रत्याशा को बढ़ाया। पूरी दुनिया में चार करोड़ लोग एड्स से पीडि़त हैं। इन मरीजों को सस्ती और उच्च गुणवत्ता वाली जेनेरिक दवाएं उपलब्ध होना जरूरी है, क्योंकि इन मरीजों में से अधिसंख्य के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों की दवाएं खरीदना असंभव है।

2. खोज कम षडयंत्र ज्यादा:

दवाओं की इतनी अधिक कीमत के मामले में बहुष्ट्रीय कंपनियों का तर्क है कि वह दवा की खोज और उसके विकास में बहुत अधिक निवेश करते हैं और अपने फार्मूले पर वह इसलिए भी अधिकार चाहते हैं ताकि वे आने वाले समय में अपनी गुणवत्ता को बढ़ा सकें। पर शोध और विकास में बहुत अधिक धन खर्च करने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों का तर्क पूरी तरह निराधार है। इस मामले में हुए अध्ययन बताते हैं कि दवा अनुसंधान के लिए जो वैश्विक फंडिंग है उसमें से 84 फीसदी पूंजी सरकारों और सार्वजनिक स्रोतों से आती है। जबकि फार्मास्यूटिकल कंपनियां 12 प्रतिशत ही पूंजी लगाती हैं। उल्टा ये कंपनियां औसतन 19 गुना अधिक पैसा मार्केटिंग पर खर्च करती हैं। अपने राजस्व का 1.3 प्रतिशत पैसा ही ये कंपनियां मूल अनुसंधान पर खर्च करती हैं।

3. खोज तो वास्तव में गरीब देशों ने की थी पर नहीं किया था दस्तावेजीकरण:

दरअसल, व्यापार संबंधी बौद्धिक संपदा अधिकारों के प्रसार के बाद पेटेंट बड़ा मुनाफा कमाने का एक खतरनाक हथियार बन गया है। जबकि हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि प्राकृतिक दुनिया से संबंधित ज्ञान का एक बहुत बड़ा हिस्सा जो आज मानव के पास है उसमें कई सदियों के दौरान देशज और स्थानीय लोगों के प्रयासों का योगदान रहा है। देशज लोगों ने जो आविष्कार और खोजें की उन पर स्वामित्व का दावा नहीं किया। हालांकि हाल के दशकों में व्यापार संबंधी बौद्धिक संपदा के अधिकारों (ट्रिप्स) के परिणामस्वरूप देशज और स्थानीय लोगों के अधिकारों का उल्लंघन हुआ है। ट्रिप्स जीव रूपों और ट्रांस नेशनल कॉरपोरेशनों की गतिविधियों, जो जैविक संसाधनों (इस प्रक्रिया को जैव संभावना के नाम से जाना जाता है) पर आधारित उत्पादों के व्यावसायीकरण में शामिल हैं, को पेटेंट करने की इजाजत देता है। ट्रांस नेशनल कॉरपोरेशन जिन बहुत सारे ‘आविष्कारों’ को करने का दावा करते हैं, वह ज्ञान पहले से मौजूद रहा है, लेकिन जिसका दस्तावेजीकरण नहीं किया गया था। यह मौखिक तौर पर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को मिलता रहा है। यह सामूहिक ज्ञान है, इस पर स्वामित्व का अधिकार नहीं किया गया। देशज लोग इस तरह के ज्ञान के व्यावसायीकरण को पसंद नहीं करते थे। असली आविष्कारक इसे लोकहित में इस्तेमाल करते थे। बौद्धिक संपदा दौर के प्रसार के साथ पिछले कुछ सालों में देशज और स्थानीय लोगों के अधिकारों का उल्लंघन हुआ है। ट्रिप्स समझौते, जो जीवाणु, सूक्ष्म जीव विज्ञान प्रक्रियाओं और साथ ही वनस्पतियों की किस्मों के पेटेंट के लिए रास्ता उपलब्ध कराता है, ने पिछले कुछ वर्षों में पेटेंट के प्रसार के लिए अवसर उपलब्ध कराया है। ट्रांस नेशनल कॉरपोरेशनों ने देशज और स्थानीय लोगों के परंपरागत ज्ञान को स्वयं द्वारा किए गए ‘आविष्कारों’ का दावा करके पेटेंट कराने की कोशिश की है
लेखक का मत है कि असल में, सरकारें ऐसी कंडीशन रखती हैं जिससे आवश्यक दवाओं पर राज्य की मोनोपोली हो जाती है। फार्मा कंपनियों का दबाव और लॉबीइंग भी एक वजह है, लेकिन उनका मकसद बस अपना मुनाफा बढ़ाना होता है। जबकि इन कंपनियों की तुलना में सरकारों से तो यह उम्मीद की ही जाती है कि वे जनहित के बारे में सोचें और उसे प्राथमिकता दें। न केवल अपने देश के नागरिकों के लिए बल्कि वैश्विक परिप्रेक्ष्य में भी। सुनने में यह जरूर आदर्शवादी लग सकता है, लेकिन मोनोपोली प्राइसिंग पर आधारित प्रचलित पेटेंट सिस्टम गवर्नेंस के मूल सिद्धांतों के बिल्कुल उलट है। समस्या की जड़ मोनोपोली में है, जिसके लिए सरकार को ही जिम्मेवारी है।.

4.  तथाकथित ह्यूमन एक्टिविस्ट बिलकुल चुप रहे:
उसका कहना है कि यह फिल्म केवल एचआईवी/एड्स के बारे में नहीं है। हैरानी की बात यह थी कि वे लाखों लोग अमीर देशों में काम कर रहे एड्स एक्टिविस्टों के लिए भी मायने नहीं रखते थे। किसी ने उनकी परवाह नहीं की। जब किसी बीमारी के इलाज के लिए प्रभावी दवा दुनिया के किसी कोने में मौजूद है, तब भी उसके अभाव में लोग बेमौत क्यों मारे जाएं? हमें ध्यान रखना होगा कि इस तरह का भयानक हादसा फिर कभी न दोहराया जाए।
5. कुछ शांति के मसीह भी है:
निर्माता का कहना है कि इस कहानी में प्रेजिडेंट क्लिंटन का रोल बेहद महत्वपूर्ण है। ऐंटिरेट्रोवायरल ड्रग्स (एआरवीज) की कीमत को नीचे लाने में क्लिंटन फाउंडेशन का रोल अहम रहा है। इतना ही नहीं, हाई-क्वालिटी व कम कीमत वाली इंडियन जेनेरिक एआरवीज को पहचान दिलाने में भी क्लिंटन की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। इसके अतिरिक्त स्थानीय नेता और डेसमंड टूटू और नोबेल विजेता अर्थशास्त्री जोसफ स्टिग्लिट्ज़ जैसे लोग बेशक देरी से ही सही लेकिन डट कर इसके विरुद्ध बोले। ऐसे मानवता के मसीहों के आगे बहुत बड़े रोल मॉडल की जरूरत है।

6. हमें क्या करना है:
  छटा मुद्दा है कि कुछ सालों से पेटेंट के मुद्दे पर भारत की लड़ाई सही दिशा में है। सचाई तो यह है कि साल 1970 में अपने पेटेंट लॉ के बदलने के बाद से भारत हाई-क्वॉलिटी व अपेक्षाकृत कम कीमतों वाली दवाओं को दुनिया के कई कोनों में सप्लाई कर रहा है। इस लड़ाई में कई रुकावटों के बावजूद, भारत सरकार इस क्षेत्र में दुनिया के कई कोनों में प्रशंसा हासिल कर रही है। वेस्टर्न गवर्नमेंट्स की तरफ से भारत पर काफी दबाव है। समय आ गया है कि भारतीय नागरिक भी इस समस्या के बारे में जानें और समझें। साउथ अफ्रीका में ये कंपनियां तब पीछे हटी थी जब आम आदमियों ने एक बहुत बड़ा आंदोलन छेड़ा था। आज स्वदेशी जसग्रं मंच भारत में इस लड़ाई को इसी कैनवास पर ले जाना चाहता है। कृपया राय अपनी जरूर दे।



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