Friday, May 22, 2020

आत्मनिर्भर भारत: कुछ लेख

भारत कैसे हो आत्मनिर्भर

के.पी. सिंह
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दो नये स्लोगन देश के नाम हालिया संबोधन के दौरान सामने आये हैं- आत्मनिर्भर भारत और लोकल-वोकल। उनमें भीड़ को तरंगित कर देने का कौशल है। इसलिए यह स्लोगन भी उनके पिछले नारों की तरह लोगों के दिल-दिमाग और जुबान पर चढ़ रहे हैं लेकिन जब नारे किसी गहरे चिंतन की उपज हों तो वे कालातीत सूक्त वाक्य बन जाते हैं। जैसे लोहिया जी का नारा- जिंदा कौमें पांच साल का इंतजार नहीं करतीं अन्यथा नारा मनोरंजन करके लोगों की स्मृति से विदा हो जाते हैं। ऐसा नहीं है कि आत्मनिर्भर भारत और लोकल-वोकल में कोई दम न हो। लेकिन कोई आह्वान हो तो उसे साकार रूप देने के लिए उद्घोषकर्ता के मन में सुचिंतित रूपरेखा होनी चाहिए। इसके अभाव के कारण ही मेक इंडिया का आह्वान अपनी सार्थकता नहीं ढूंढ़ पाया। प्रधानमंत्री के नये नारे भी ऐसे ही खिलवाड़ का शिकार न हो जायें।
आत्मनिर्भर भारत के मामले में सबसे बड़ी रुकावट क्या है- सदियों की गुलामी के कारण हमारे अंदर रची-बसी हीन भावना। आज स्थिति बदल गई है। दुनिया के सारे बड़े देशों में भारतीय नंबर एक हैं क्योंकि हर व्यवस्था में उनका प्रभुत्व है। चाहे बड़ी कंपनियों के सीईओ के मामले में हो या विकसित देशों की सरकारों के मामले में। फिर भी भारतीयों में अभी वह आत्मविश्वास नहीं आ पाया है, जिसकी जरूरत है। वह कोई पहल नहीं कर पा रहे जिसके पीछे सारी दुनिया चलने में गौरव महसूस करे। इससे तो गुलामी के दौर की स्थितियां बेहतर थीं। जब महात्मा गांधी जैसी शख्सियत ने जन्म लिया। अपने अधिकारों की लड़ाई के लिए दुनिया के किसी हिस्से में आज के समय कोई आंदोलन खड़ा होता है तो लोगों को महात्मा गांधी और उनका अहिंसक सत्याग्रह याद आता है। विज्ञान, उद्योग, कृषि, व्यापार किसी भी क्षेत्र मे मौलिक सृजन में भारतीय अपना नाम सामने नहीं ला पा रहे। अनुकरणवाद भारतीयों की पहचान बन गया है। पर निर्भरता इसकी अनिवार्य परिणति है। इससे उबरने के लिए कोई शुरुआत सोची जाये तो वह शिक्षा से होनी चाहिए। क्या इसपर ध्यान दिया जा रहा। आजादी की लड़ाई ने राष्ट्र नायकों में आत्म गौरव की भावना पैदा की थी क्योंकि अनुकरणवाद को झटके बिना अपने लक्ष्य के लिए उनमें मजबूत इच्छा शक्ति बन ही नहीं सकती थी। इसलिए अंग्रेजी में इंगलैंड के विद्वानों तक के कान काटने वाले राष्ट्र नायकों ने अपने कार्य व्यवहार के लिए राष्ट्रभाषा को अपनाया। जबकि इनमें से महात्मा गांधी सहित कई राष्ट्र नायक तो ऐसे थे जो राष्ट्रभाषा में अटकते रहते थे। आजादी की लड़ाई के बाद भी स्वप्न दृष्टा राजनीतिज्ञ देसी भाषाओं को पढ़ाई का माध्यम बनाने के लिए जोर देते रहे। अंग्रेजी के प्रोफेसर होकर भी राजेंद्र माथुर ने पत्रकारिता के लिए इसी के तहत हिंदी को चुना। आज जब यह सिलसिला मंजिल तक पहुंचना चाहिए था, शिक्षा नीति में विदेशी भाषा के सामने पूर्ण समर्पण किया जा चुका है। विज्ञान, प्राद्यौगिकी, व्यापार, विधि आदि में तरक्की के लिए अंतर्राष्ट्रीय संपर्क भाषा की मजबूरी जताकर यह किया गया लेकिन यह सारे तर्क कपटपूर्ण हैं। 
गुलामी में हीनता के साथ-साथ कई और कुंठाऐं पनपती हैं जो मानसिकता को बीमार बना देती हैं। भारतीय समाज ऐसी तमाम कुंठाओं का शिकार है। एक कुंठा है जलन की ग्रन्थि में अटके रहने की। जैसे कि उसे विदेशी विद्वता से जलन है। एक क्षण में वह बिना किसी तर्कसंगत मैरिट के उस दर्शन को खारिज कर देता है जिसको किसी विदेशी विद्वान ने प्रतिपादित किया हो इसके बावजूद कि भारतीय संस्कृति मूल रूप से वसुधैव कुटुंबकम की हिमायती है। वह चाहता है कि दुनिया के बड़े देश उसे मान-सम्मान से बसने का अवसर दें लेकिन अपने यहां वह इस नौबत पर विदेशी मूल के प्रति घृणा की इंतहा से नहीं चूकता। चुनाव में सिर्फ इस आधार पर किसी दल का मुरीद बन जाता है कि वह वंचितों को दिये गये विशेष अवसर को खत्म करने का चकमा देने और धर्मद्रोहियों को सबक सिखाने का भरोसा दिलाने मे सफल है। वह अपने से निचले पायदान पर खड़े लोगों पर अपना दबदबा खत्म नहीं करना चाहता। इसे पूरा करने के लिए उसे अपने ऊपर दोबारा विदेशी प्रभुत्व तक स्वीकार है। विदेशी भाषा की प्रभुता का समर्थन करने के पीछे यही कारक है। भद्र लोक प्रभुता की अपनी विरासत कायम रखने के लिए विदेशी भाषा की शरण में हैं। इसीलिए संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा का पैटर्न अब ऐसा बनाया गया है जिससे देसी भाषा का कोई अभ्यर्थी देश के सर्वोच्च प्रशासनिक सत्ता लोक में प्रवेश न कर पाये।
अब केवल भाषा की बात नहीं रह गई। भाजपा के सत्ता में आने से जो लोग कान्वेंट स्कूलों के दिन लदने के सपने देख रहे थे वे हतप्रभ हैं। इन कान्वेंट स्कूलों में शिक्षा नहीं दी जाती बल्कि कल्चर सिखाया जाता है। यह कल्चर यहां की जमीनी जरूरतों से जुड़ा कल्चर नहीं है। यह साहबी का आयातित कल्चर है। भाजपा वाले उद्धरण तो पौराणिक कहानियों के देते हैं जिनमें बताया जाता है कि चक्रवर्ती सम्राट तक अपने बच्चों को महल में गुरुओं को बुलाने की बजाय उनके गुरुकुलों में अपनी संतानों को पढ़ने भेजते थे। जहां कोई सांसारिक सुख की सुविधा नहीं होती थीं और राजा-रंक यानि कृष्ण और सुदामा एक साथ पढ़ते थे। क्या आयातित संस्कृति का गुलाम बनकर नई पीढ़ी आत्मनिर्भरता के लिए मुखातिब हो सकेगी।
अनुकरणवाद की शिकार नस्लें हर कहीं अपनी जड़ें उखाड़ कर चलती हैं। उन परंपराओं को इन मनी प्लांटों ने अपने जीवन का हिस्सा बना लिया है जो इन पर ब्रेनवॉश के तहत लादी गई हैं। सर्दियों में आइस्क्रीम के काउंटर की डिमांड इस देश में अटपटी लगती है। जंक फूड तमाम नुकसान के बावजूद बच्चों के लिए अनिवार्य हो गये हैं। बुंदेलखंड जैसे इलाके में लोग सत्तू का स्वाद भूल चुके हैं। लोग विज्ञापनों और टीवी चैनलों से गाइड होते हैं। ऐसे शौकीन नकलचियों में चाइनीज सामान खूब खपता है तो आश्चर्य क्या है। स्वास्थ्य का जोखिम उठाकर भी फैशन की आदतें पोसी जा रही हैं। आत्मनिर्भर भारत तब बन सकता है जब हीन भावना से सभी कुंठाओं से भारतीय समाज को मुक्त किया जा सके। आत्मसम्मान को आत्माभिमान के स्तर तक ऊंचा उठाने की जरूरत है। स्वदेशी की कट्टरता भरने का समय है।
हाल के दशकों में गांवों से जो पलायन हुआ वह लोगों के लिए वरदान बन गया था। परंपरागत जीविका से लोग गांव में परिवार का पेट तक नहीं भर पा रहे थे। लड़के-लड़कियों की अच्छी पढ़ाई और शादी ब्याह की बात तो दूर है। महानगरों में पहुंचे तो वे दरिद्रता से मुक्त हुए और उनका जीवन स्तर ऊंचा उठा। इसलिए मजदूरों की घर वापसी को लेकर भाव प्रधान होकर सोचना अर्थ का अनर्थ करना है। यह सुनहरे संसार की वापसी की रूमानी कल्पना न होकर आनेवाली जटिल चुनौतियों की दस्तक है। जिनका भान करके यथार्थपरक मानसिकता का परिचय दिया जाना चाहिए। आत्मनिर्भर भारत की प्रासंगिकता इस दौर में ज्यादा महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि इसकी कवायद को पैर लगने से इन चुनौतियों से निपटने में आसानी होगी।
घर लौटे प्रवासियों की महिलाएं परंपरागत खानपान की सामग्री तैयार करने में माहिर हैं। अगर खानपान के संबंध में स्वदेशी का महत्व स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से लोगों की समझ में आ गया तो इनका व्यापार चल पड़ेगा। यही बात पहरावे, फर्नीचर, सजावट आदि जीवन की विभिन्न गतिविधियों के संबंध में है। व्यापार भी एक कला है लेकिन अंग्रेजों के समय जब भारतीय शिल्पकला को सुनियोजित ढंग से बर्बाद किया गया, हम इस मंत्र को भूल गये। गांवों के लोग अपने उत्पाद और अपनी सेवा में प्रचुर गुणवत्ता के बावजूद इसलिए कच्चे पड़ जाते हैं कि उन्हें पैकेजिंग, फिनिशिंग आदि का ज्ञान नहीं है। वे महानगरों में रहकर आये हैं, वहां उन्होंने व्यापार की कलाओं (सेंस) को आत्मसात किया होगा। अब जब परीक्षा का दौर है तो देखना है कि वे कितना खरा उतरते हैं।
कुल मिलाकर आत्मनिर्भरता और लोकल-वोकल को लेकर सुगठित समग्र दृष्टि होनी चाहिए। बेहतर होगा कि संघ के अनुसांगिक संगठनों से भी सरकार इस मामले में विचार विमर्श करे।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
2. गोविन्दाचार्य जी
*स्वदेशी की दिशा में बढ़ने का आज का तकाजा*
 
प्रवासी मजदूरों और असंगठित क्षेत्र के स्वरोजगारियों की घर-वापसी की अंतहीन व्यथा-कथा, उनका मौन विलाप पिछले 70 वर्षों की विकास यात्रा की कथा का ऑडिट रिपोर्ट है| बैलेंसशीट में प्रवासी मजदूरों और उनके समकक्ष लोग कम से कम 45 करोड़ लोग बैठते है| उनकी यात्रा संकल्प ने वर्तमान राजसत्ता व्यवस्था को अपने लिये अस्वीकृत कर लिया और अपने को भगवान् के हवाले कर निकल पड़े| *लॉकडाउन के पहले ही तीन, चार दिन लगाकर व्यवस्थित वापसी का इन्तजाम किया जा सकता था| दूसरे लॉकडाउन में इज्जतपूर्वक वापसी की व्यवस्था की जा सकती थी|*
असंगठित क्षेत्र में ही देश मे 45 करोड़ खाते है| उनमे से 5 करोड़ वापस आने थे| उसमे से प्रदेश के अन्दर तो लोग जैसे-तैसे वापस आ सके| फिर भी करोड़ों लोग फंस गये|
प्रदेश के बाहर से लौटने वालो के प्रति कड़ाई बढती गई| *बहुत देर हुई यह समझने में कि ऐसे संकट में घर वापस जाने की इच्छा उचित एवं स्वाभाविक है, रोकने की बजाय व्यवस्थाएं की जानी चाहिये थी जो नहीं हो सकी| फलतः आज का दारुण दृश्य दिख रहा है| यह दृश्य  Man Made या  State Made है| देश के प्रभु वर्ग ने Cattle Class को भगवान भरोसे छोड़ दिया|* *समाज ने एक सीमा तक साथ दिया|* 
*ये मजदूर किसी शौकिया हिच हाइकिंग या ट्रेकिंग के नहीं अपने शरीर और प्राणों को जोड़े रखने की कवायद मे लगे है!* अभी तक 2 लाख मजदूरों को उत्तरप्रदेश में वापस किया गया है इसमे 10 दिन लगे| 20 लाख मजदूरों की वापसी मे तो 50 दिन लग जायेंगे| *अभी बचे पैसे ख़तम हो चले हैं, काम धंधा बंद है, कोरोना का डर अलग से है तो वे अब मरता क्या न करता की मनस्थिति मे चल पड़े हैं|* असंगठित क्षेत्र के कितने लोग कहाँ फंसे है इसका अंदाज ही लगाया जा रहा है| इसमे भी केंद्र, राज्य सरकारें राजनीति खेल रही हैं|
सत्ता तंत्र पर राहत के लिये निर्भरता, भारतीय समाज व्यवस्था मे अधिक से अधिक पूरक व्यवस्था हो सकती है| समाधान कारक नहीं| पूज्य श्री विनोबा भावे ने कहा था-असरकारी काम के लिये काम (अ)सरकारी होना चाहिये|
कई जगहों पर मजदूरों, कारीगरों, सीमांत किसानों के साथ घरवापसी के दौर मे ढोरों के समान व्यवहार हुआ|
*घर वापसी की जद्दो-जहद मे लगे लाखों मजदूर और स्वरोजगारों का काफिला हमसे सवाल कर रहा है कि क्या 75 वर्ष की भारत की विकास का इतना ही उनके हिस्से पड़ना वाजिब था या वे अधिक के हकदार हैं| वे हाशिये पर कब? कैसे? किन कारणों से पड़ गये या डाल दिये गये है! क्या कोई इन प्रश्नों का उत्तर देगा? या कोई इसके लिये अपनी जिम्मेदारी को स्वीकार करता है? अन्यथा इतनी लंबी-चौड़ी राज्य का उपादेयता किन के लिये रह जाती है? उनकी सुध लेने को सरकार और समाज दोनों को युद्ध स्तर पर इन 45 करोड़ लोगों को प्राथमिकता देनी होगी| भारतीय मजदूर संघ सरीखे समाज के सक्रिय समूहों से संवाद कर साथ लेना होगा| इस क्रम मे सभी को यह ध्यान रखना है कि सभ्य समाज में राज्य व्यवस्था की स्थापना के पीछे प्रस्थापना है कि राज्यवस्था उनके बचाव के लिये सृजित हुई है जो खुद का बचाव न कर सकें| *State is created to protect those who can not Protect themselves*.
सम्पूर्ण राज्य व्यवस्था को इसी कसौटी पर कसना प. दीनदयाल जी के विचारों की अनुपालना की शुरुआत होगी| 
*देश बनाता कौन महान्* !
*कारीगर, मजदूर, किसान
ब. अपने प्रधानमंत्री आदरणीय नरेंद्र जी ने  स्वदेशी के तत्वों का समर्थन किया है और स्वावलंबी राष्ट्रीय जीवन के बारे में आग्रह किया है ! स्वदेशी का तत्व जमीन, जल, जंगल,  जानवर, जीविका और जीवन परिवार से अभिन्न रूप से जुड़ा है और स्वदेशी का तत्व केवल देश में बने वस्तुओं का उपयोग करने तक सीमित नहीं है बल्कि भाषा, भूषा, भोजन, भवन, भेषज और भजन को अपने अंदर समेटता है ! भारतीय संदर्भ में स्वदेशी के ही समान महत्वपूर्ण सिक्के का पहलू है-विकेंद्रीकरण स्वदेशी और विकेंद्रीकरण के मेल से ही भारत में अहिंसक समृद्धि आ सकती है और धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चारों पुरुषार्थो को सिद्ध किया जा सकता है! स्वदेशी का अर्थ विदेशी उद्योगपति की जगह भारतीय उद्योगपति को प्रतिस्थापित करना ही उद्देश्य नहीं है बल्कि भारतीय संदर्भ में 1991 में ही स्वदेशी का तकाजा घोषित किया जा चुका है वह है, 
*चाहत से देशी*-अर्थात एक 15-20 KM में प्रकृति से उत्पन्न वस्तुओं का सेवन
 *जरूरत से स्वदेशी*- अर्थात देश में देश के लोगों के द्वारा देशी संसाधन का उपयोग करते हुए स्वामित्व के गौरव के साथ आर्थिक व्यवस्था से जुड़ना ! 
*मजबूरी में विदेशी*- अर्थात मजबूरी में विदेशी चीजों का इस्तेमाल और मजबूरी कम होती चले इसका बुद्धिपुरस्तर प्रयास ही आगे की सही दिशा होगी !
भारत विविधतापूर्ण देश है ! लगभग दुनिया के क्षेत्रफल का 2% भारत है, लेकिन दुनिया के जैवविविधता की 16% किस्में भारत में उपलब्ध है ! औषधीय वनस्पतियों का तो कहना ही क्या ! भारत में 127 भू-पर्यावरणीय कृषि क्षेत्र है ! इस कारण 40% से भी ज्यादा नस्लें गोवंश की पाई जाती हैं ! भारत की दुनिया में विशेषता है- गौमाता और गंगाजी! स्वदेशी के तत्वज्ञान के अनुकूल सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक व्यवस्थाएं गढ़ने का समय आया है ! इसमें समाज और सरकार दोनों को अपनी भूमिका निभाना है !इन पहलुओं पर आगे चर्चा की जाएगी !

3. 1. Inspiring words of Sri Aurobindo

"It is for the Dharma and by the Dharma that India exists."
"The Sanatana Dharma is life itself; it is a thing that has not so much to be believed as lived."
4. हमें लोगों को पहले की तरह समझाना चाहिए कि प्रायः तीन कसौटियां स्वदेशी विदेशी की हैं। पहली की कंपनी का मुख्य कारखाना भारत में हो, दूसरे HQ भारत में हो, क्योंकि रॉयल्टी उसी देश।में जताई जी जहार्न मुख्यालय होता है और तीसरे मालिक भारत का हो यानी उसके 51% से ज्यादा शेयर कंपनी के हों। ये तीनो बाते होनी चाहिये। कार्बन, i phone, jio के फ़ोन भारतीय हैं, कोका कोला, पेप्सी भले ही हमारे यहां तैयार हित।है तो भी विदेशी।
2. चीन से भागकर कुछ कंपनियां भारत आती हैं तो शरण देनी चाहिए परंतु वे अपना माल एक्सपोर्ट करें, व रॉयलिटी का अधिकांश हिस्सा यहीं रखे, आदि कुछ शर्तें लेकिन लगानी चाहिए, ऐसा हमने स्टैंड लिया है।
3. बहुत बारीक बातों से समाज व्यवहार नहीं करता, लोग स्वदेशी का महत्व समझे, छोटे दुकानदार का महत्व समझे तो जितना हो सकेगा ऐमज़ॉन, फ्लिपकार्ट, अलीबाबा से बचेंगे, जरूरत पड़ने पर लोकल ecommerce कंपनी से जुड़ाव महसूस करेगा। योग, आयुर्वेद, संस्कृत, रामायण, महाभारत से जुड़ाव महसूस करेगा, बस बहुत बड़ा काम हो जाएगा। कोरोना के कारण लोगों को समझ आया है, सरसंघचालक जी के मार्गदर्शन से पूरे संघ परिवार की भावना बढ़ी है, श्री मोदी जी के be vocal for local कहने से आम नागरिक में स्वदेशी सोच बढ़ी है। पूज्य ठेंगड़ी जी यही कहते थे। उसका वातावरण बहुत अच्छा बना है या नहीं? यदि हाँ, ट्यो इसे आगे बढ़ाना पड़ेगा। बस यह अपना फोकस होना चाहिए।
महेंद्र जी आप दोनों की जोड़ी से बहुत उम्मीद है हमें। पहले विभाग में और फिर आसपास स्वदेशी की अलख जगाने का काम करना है। ज्यादा समय देना पड़ेगा, और अध्ययन करना होगा सभी को। 
5. 

ओपिनियनस्वदेशी और स्वावलंबन के हिमायती जार्ज फर्नांडीस
By अनिल हेगड़े
Updated Date Wed, Jun 3, 2020, 3:32 AM IST
अनिल हेगड़े, जार्ज के सहयोगी व समाजवादी कार्यकर्ता
आज जब कोरोना काल में भारत में आत्मनिर्भरता, देशी उद्योगों के संरक्षण, पलायन आदि पर बहस चल रही है, उस दिशा में आज से 90 साल पहले जन्मे महान समाजवादी नेता जॉर्ज फर्नांडीस के विचार और उनके द्वारा लिये गये फैसले आज और ज्यादा प्रासंगिक दिख रहे हैं. साल 1977 में मोरारजी देसाई सरकार में उद्योग मंत्री रहे जॉर्ज फर्नांडीस ने रोजगार की तलाश में मजदूरों के गांवों से शहर की ओर हो रहे पलायन को रोकने के लिये गांधी जी और डॉ लोहिया के विचारों को ध्यान में रखते हुए नयी उद्योग नीति घोषित की थी. इसके मुताबिक प्रवासी मजदूरों को अन्य प्रदेशों में शोषण रोकने के लिए कानून बनवाया.

देशी पूंजी, पलायन रोकना, विदेशी कंपनियों के मुकाबले में नवजात देशी उद्योगों का संरक्षण, अधिक रोजगार सृजन से देश को स्वाबलंबी और आत्मनिर्भर बनाना उनकी प्राथमिकता थी. इसके लिए कोका-कोला और आइबीएम को बाहर का रास्ता दिखाया गया. तब इसका विरोध भी हुआ, लेकिन इससे देशी कंपनियां बाजार में आयीं और लाखों की संख्या में रोजगार सृजन हुआ. साल 1991 में जब बीज और दवाई की बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने ट्रिप्स का प्रारूप लिखा और अपने एकाधिकार के लिए अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और वर्ल्ड बैंक पर दबाव बनाकर भारत में नयी आर्थिक नीति लागू कराया, तो जॉर्ज फर्नांडीस ने उसका तीखा विरोध किया.


उनका मानना था कि यह मजदूर और किसान विरोधी नीति है. तब उन्हें लगा था कि यह मामला एक दिन के देशव्यापी हड़ताल से सुलझनेवाला नहीं है. इसी कारण उनके द्वारा 2008 तक समाजवादी अभियान के तहत लगातार हर रोज गैट समझौता विरोधी गिरफ्तारी अभियान चलता रहा. फरवरी, 1993 में दुनिया की सबसे बड़ी अनाज कंपनी कारगिल को केंद्र सरकार ने नमक बनाने के लिए गुजरात के कांडला बंदरगाह के निकट 15 हजार एकड़ जमीन देने का फैसला किया.
इसके खिलाफ जॉर्ज फर्नांडीस ने लोकसभा में आक्रमक भूमिका निभायी और उस साल 19 मई से कांडला में सत्याग्रह शुरू किया, जो चार महीने चला. इस सत्याग्रह में देशभर से सत्याग्रहियों ने रोज गिरफ्तारी दी. गांधीनगर उच्च न्यायालय में जनहित याचिका पर जॉर्ज ने बिना कोई वकील रखे खुद ही बहस की. सुनवाई के दिन 27 सितंबर, 1993 को कारगिल ने अपना प्रस्ताव वापस ले लिया. इससे इस सत्याग्रह को ऐतिहासिक जीत मिली. इस जीत से जार्ज उत्साहित थे.
गैट समझौते के विरुद्ध एक मार्च, 1994 को संसद के सामने समाजवादी अभियान की तरफ से सत्याग्रह शुरू हुआ. यह सत्याग्रह 14 सालों तक हर रोज चलता रहा. सत्याग्रह के लिए सत्याग्रही रोज तीन-चार घंटे संसद मार्ग में जमा होते थे. सत्याग्रह के दौरान वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय के नेतृत्व में दिल्ली के करीब डेढ़ सौ पत्रकारों ने गिरफ्तारी दी थी. इस आंदोलन में समाज के हर वर्ग का साथ मिला. इस लड़ाई में सिद्धराज डड्डा, विनोद मिश्रा, नीतीश कुमार और शरद राव जॉर्ज के आह्वान पर धनबाद में 28 मई 1994 को एक साथ मंच पर उपस्थित हुए. यूपीए-2 के समय उसी सरकार के मंत्री जयराम रमेश, संसदीय स्थायी समिति, सोपोरी समिति, सुप्रीम कोर्ट की तकनीकी समिति ने जीएम फसल पर रोक लगायी. तब तक जॉर्ज जीवित थे, लेकिन बहुत समय से बीमार थे.
तसल्ली की बात है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जीएम फसलों को बिहार में नहीं आने देने का वादा किया है और शराबबंदी लागू करके मुख्य रूप से किसान-मजदूरों के परिवारों को राहत देने का काम किया है, जो जॉर्ज को अति प्रिय था. साल 1998 से 2004 की अवधि में जॉज रक्षा मंत्री रहे. अपने अनुभव से बताते थे कि ‘हार्वर्ड, ऑक्सफोर्ड, आइएमएफ, वर्ल्ड बैंक के अर्थशास्त्री बेरोजगारी का कोई समाधान नहीं ढूंढ पाये. वे मानते थे कि चरखा गांधी जी के आत्मनिर्भरता का प्रतीक है और आत्मनिर्भरता स्वदेशी से ही संभव है.
जॉर्ज चाहते थे देशप्रेमी लोग स्वदेशी अभियान के साथ चीन में मानवाधिकार उल्लंघन के विरुद्ध अभियान चलायें. वे बताते थे कि वहां के बाल श्रमिक, जबरिया श्रम का फायदा उठाकर चीन सस्ता माल भारत और दुनिया में बेचता है. भारत के छोटे उद्योग इस कारण प्रतिस्पर्धा नहीं कर पा रहे हैं. शुद्ध खादी का इस्तेमाल कार्यकर्ता या देशप्रेमी को स्वयं की प्रेरणा से ही करना पड़ेगा. देशी बीज बचाने से बीज पर विदेशी कंपनियों का एकाधिकार होना रुक सकता है.
हर दल के कार्यकर्ता अगर अपने जीवन शैली में थोड़ा बदलाव लाकर साल में दो जोड़ा शुद्ध खादी हैंडलूम और दस्तकारी चीज खरीदें, तब रोजगार बढ़ेगा. गांव से शहर की ओर पलायन कम होगा. इसके लिये किसी सरकार की अनुमति जरूरी नहीं है. बेरोजगारी और पर्यावरण की चिंता रखनेवाले लोग यह कर सकते हैं. कोरोना काल में यदि हम ऐसा कर सकें, तो यह जॉर्ज फर्नांडीस के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी.
(यह लेखक के निजी विचार है)
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