Saturday, February 19, 2022

व्यवस्था -परिवर्तन कैसे

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आदरणीय सरकार्यवाह जी, उपस्थित अन्य अधिकारी गण एवं अपने कार्यकर्ता भगिनी एवं बंधू 
जैसा हमें यह सरकर्यवाह जी ने कहा  हम यह परिवर्तन के लिए काम करते हैं और परिवर्तन के लिए काम करते हैं इसका मतलब परिवर्तन करना चाहिए इसमें हम सब एकमत हैं l  सबको एकमत बनाना है और परिवर्तन करना है परन्तु परिवर्तन किस चीज़ में करना है l तो सब कुछ जिस पद्धति से चल रहा है उसमें परिवर्तन करना है हैl  दुनिया जैसी है वैसी है उसमें परिवर्तन नहीं होता, वह भी व्यवस्था है ,लेकिन वह भगवान की बनाई प्रकृति की व्यवस्था है ;मनुष्य एक मर्यादा में उस में स्वतंत्र है परंतु वह उसकी सत्ता नहीं, वह एक अलग सत्ता है, जिसमें संप्रभु सारे लोग हैं l  वह हमको स्वतंत्रता देती है इसका मतलब हम उस पर हावी नहीं हो सकते, अभी होने जाएंगे तो उसकी मार पड़ती है l प्रकृति को जीतने की भाषा अब बंद हो गई है प्रकृति के साथ चलने की भाषा चल रही है l  दूसरी छोर पर हम लोग हैं हम परिवर्तन होना चाहिए इस इच्छा के होने के कारण अपने आप में कुछ परिवर्तन जरूर कर सकते हैं; कौन सा परिवर्तन करना है, कैसे करना है; यह सब सोचकर व्यक्तियों में परिवर्तन हो l  व्यक्तियों के परिवर्तन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा उसका परिवार होता है, उसका कुटुंब होता है , उस कुटुंब के वातावरण में भी परिवर्तन हो ताकि सब व्यक्तियों में उस परिवर्तन के संस्कार आएं और बहुत छोटी आयु से बढ़ते चले जाएं l  यह जो काम है वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ देखता है अपने घट नायकों के द्वारा वह मैदान पर जो संग है घर में चूल्हे तक पहुंचता है और हम उसको कहते हैं कि यह व्यक्ति निर्माण का काम है संघ की विचारधारा में जीने वाले व्यक्ति और परिवारों को तैयार करना यह संघ का काम है l उनके समाज अभिसरण से वातावरण बनता है, तो समाज अभिसरण करने वाले ;उनको बनाना यह संघ का काम है l  फिर दूसरी बात है कि सब को यह समझाना और सब से यह करवाना है तो समाज के परिवर्तन की बात आती है l तो पहले तो समाज का मन बदलना चाहिए और उसके बाद का  आचरण बदलना चाहिए l 
 तो यह काम गतिविधि करती है वह ऐसा कार्यक्रम लेकर समाज में जाति है की जिसके लिए सब का समर्थन है उसका विरोध करने वाला कोई नहीं l  और इसलिए कार्यक्रमों में सारा समाज साथ में आता है; कार्यक्रम इस प्रकार के हैं कि वह कार्यक्रम अगर करते चले जाते हैं लोग तो उनके जीवन में अपने आप परिवर्तन आता है, लेकिन गतिविधि का काम शुरू होने के बहुत पहले  संघ की शाखा के बाहर  जब संघ ने देखना प्रारंभ किया, तब जो काम शुरू हुए वह सब आज हम जिसको व्यवस्था परिवर्तन कहते हैं उसके काम थे क्योंकि जैसे प्रकृति भगवान की व्यवस्था से चलती है, हम - हमारी भी अपनी व्यवस्था रहती है यहां भोजन बनता है कुछ लोगों को मिर्ची कम चाहिए l  हमारी प्रत्येक की अलग अलग  व्यवस्था है मुझे जितनी मिर्ची चाहिए उतनी दत्ता जी को नहीं चाहिए; तो हम प्रयास करते हैं l  EXACT भी कर लेते हैं और प्रयास भी करते हैं l  संघ  के कार्यक्रमों में प्रत्येक की व्यवस्था रहती है, तो ऐसी छोटी मोटी बातें अपने अनुकूल हम बना लेते हैं क्योंकि हम अपनी व्यवस्था से चलते हैं l  हम अपने में परिवर्तन लाते हैं l तो अपनी व्यवस्था को कहां कितना लचीला और कहां कितना और जाना है यह सारा उस व्यक्ति निर्माण की प्रक्रिया में सीखते हैं l   ऐसे जो हमारा व्यापार दुनिया में सब के साथ चलता है जो सामूहिक व्यापार होता है सब कुछ मनुष्यता का और मानवता, यह जो होता है,   यह जिस पद्धति से होता है हम उस पद से चलते हैं, हम उसमे बैठते हैं l  ये जो व्यवस्थाएं हैं  व्यवस्थाएं होती हैं उसको अंग्रेजी में आर्डर कहते हैं मंनेर्ब कहते हैं सिस्टम कहते हैं l   तो व्यवस्था एक तंत्र होता है समाज अपनी व्यवस्था चलाने के लिए जो उपकरण उत्पन्न करता है उनके द्वारा समाज जैसे निर्देशित करता है वैसे समाज को चलाने के लिए पद्धतियां बनती हैं, वो तंत्र है वो तंत्र है l  तो वो तंत्र है उसमें परिवर्तन और  दूसरी तरफ  समाज की भी अपनी व्यवस्था रहती है हम देखते हैं ; अभी हमारे देश में प्रजातंत्र है तो कई प्रकार के कानून बन गए हैं लेकिन लोग कभी पालन करते हैं कभी नहीं करते l   तो करोना मैं ही देखिए पहले और दूसरे लोग इतना डरते थे सब नियमों का पालन करते थे अब आ गया है लेकिन लोग अभी तक उसने गंभीर नहीं दिख रहे हैं नियम तो हैं अपनी जगह पर तो समाज का भी अपना दायित्व होता है l  समाज ने जिस को बताया है इस तंत्र से हमको चलाओ उसका भी कितना मानना है नहीं मानना है वह समाज तय करता है, कानून है छुआछूत विरोधी कानून है लेकिन छुआछूत की घटनाएं घटती हैं मालूम तो है लोगों को कानून है और पकड़े गए तो सजा होगी फिर भी अपने मन की करते हैं l  तो समाज की की भी एक व्यवस्था होती है और तंत्र की भी एक व्यवस्था होती है दोनों व्यवस्थाओं में परिवर्तन लाने का काम करना पडता  है l  हम अपने में परिवर्तन तो वह भी प्रयास करना ही पड़ता है तपस्या करनी पड़ती है शाखा की साधना करनी पड़ती है परंतु वह हमने तय किया है हम स्वेच्छा से उस प्रक्रिया में जाते हैं l  समाज का हम विश्वास प्राप्त करते हैं समाज हमें अच्छा मानने लगता है हम जो करते हैं वह ठीक है हमारे पीछे चलेंगे तो ठोकर नहीं लगेगी इतना विश्वास जब होता है तो समाज अपना मन बदलता है और हमारे अनुसार चलता है  लेकिन व्यवस्था नाम की चीज जो है समाज की वह तंत्र की है वह बहुत वर्षों से विमूढ़ हुई है उसकी आदत पड़ गई है और इसलिए उसको बदलना जरा ज्यादा कठिन होता है l  वह तब बदलती है जब सारा समाज चाहता है उसको बदलना, उसी का दबाव होता है l  इसीलिए व्यवस्था परिवर्तन का काम कुल मिलाकर यह परिवर्तन में एक तिहाई का काम है; एक तिहाई अपने परिवार को अपने आचरण को बदलना,  एक तिहाई समाज के मन को समाज के नित्य व्यव्हार को बदलना l  अब तक व्यवस्था में जो चीज चलती है समाज में और तंत्र में उनको बदलना; यह एक तिहाई काम सब विविध संगठन, उसको करने के लिए उस  उस क्षेत्र में गए और कुछ कुछ किया भी है करते भी हैं अब जैसे 1972 के उर्वी के अधिवेशन में हिंदू समाज के सब सब संप्रदायों के आचार्यों ने आकर घोषणा कर दी कि हिंदू समाज में छुआछूत का कोई आधार नहीं है सब हिंदू सगे भाई हैं कोई हिंदू पतित नहीं है, नीचा नहीं है और सभी हिंदुओं की रक्षा करना प्रत्येक हिंदू का कर्तव्य है मेरा भी;  व्यवस्था तो उन्होंने बदल दी परंतु उससे पहले समाज का मन नहीं बदला तो परिवर्तन नहीं आया कि ऐसे ऐसे बदलेगा तो देश में देश व्यवस्था आगे नहीं है जहां जाएं हिंदू समाज ऐसे कार्यक्रम करता है कि छुआछूत मिटाना है तो  आजकल उसमें यह संत महात्मा भी समय देते हैं अपने तरफ से भी ऐसे कार्यक्रम करते हैं l  तो  विश्व हिंदू परिषद ने उस दिशा में एक कदम बढ़ाया,  एक प्रयास तो हुआ ,ऐसे ही कई मामलों में अपने प्रत्येक संगठन ने इस दिशा में परिवर्तन के लिए कुछ ना कुछ प्रयास किया है परंतु यह ऊपर दिखने वाली कुछ बातों को हमने बदला है l 

अभी तक हम उसी स्थिति में नहीं थे कि व्यवस्था परिवर्तन करेंगे ऐसी इच्छा अपने मन में उत्पन्न हो वह शक्ति हमारे में नहीं थी l  अब समाज में हम सबको मिलकर जो स्थान बना है जो मन बना है हमारे प्रति जो विश्वास जगह है तो अब हम को गंभीरतापूर्वक इस कार्य को भी हाथ लेना पड़ेगा इस पर बारीकी से विचार करना होगा l  तो व्यवस्था को बदलना व्यवस्था को बदलना व्यवस्था में क्या होता है कोई व्यवस्था जैसी है वैसी क्यों होती है l  पहली बात है हर एक समाज की अपनी एक प्रकृति होती है और वैसे उसकी व्यवस्था होती है प्रकृति के विपरीत व्यवस्था रही तो समाज —------पर जायेगा l  तो कुछ व्यवस्था चल नहीं पाती और चल गई उसके अंदर समाज घुटन महसूस करता है l  हर समाज की व्यवस्था एक अधिष्ठान पर होती है वह  वह अधिष्ठान उस समाज का अपना अधिष्ठान होता है l  तो हमारे समाज की व्यवस्था किस  अधिष्ठान पर है हमारे समाज के अधिष्ठान पर होनी चाहिए वह अधिष्ठान कौन सा है उसका उल्लेख कहां होना चाहिए l6  हम हिंदुत्व को जिस दृष्टि से देखते हैं वह हमारा अधिष्ठान है हमारी व्यवस्थाओं में भी है वही अधिष्ठान होना चाहिए और हमारे हर कार्यक्रम में कहीं ना कहीं बाद स्थान प्रकट तो होता ही है l  तो हम संपूर्ण विश्व को एक ही का आविष्कार मानते हैं इसलिए विविधता से हमारा कोई झगड़ा नहीं है व्यवस्था को हम स्वीकार करते हैं सम्मानित करते हैं विविध होने से हम अलग नहीं होते और विविध होने के बावजूद अपनी अपनी व्यवस्था को सुरक्षित सम्मानित रखते हुए उसको विकसित करते हुए ही हम हम एक राष्ट्र एक समाज के नाते चल सकते हैं और अपने दायरे को इतना विस्तारित करते हैं कि उसमें सारी मानवता का सारी दुनिया का समावेश हो सके l  यह हमारे समाज का दार्शनिक अधिष्ठान है यह हमारे पूर्वजों ने प्रत्यक्ष देखा है, किया है और इसके आधार पर हमारे समाज के विचार की सारी दिशा खड़ी है l  हमारी कोई भी व्यवस्था बनेगी तो उसके मूल में यह दर्शन जाएगा आज हम जिस व्यवस्था में चल रहे हैं उसके नीचे दर्शन क्या है,  दर्शन हम जानते हैं कि वह अपना दर्शन नहीं है क्योंकि वह विविधता में एकता को नहीं देखता वह अलग ही मानता है अलग करके ही देखता है उसके कारण उसमें अधूरापन है सब चीजों को अलग-अलग चलाता है लेकिन चीजें अलग अलग होकर चल नहीं सकती साथ चलना पड़ता है साथ चलने के लिए एक आधार नहीं है जोड़ने वाला कुछ नहीं है  विविध होने से अलग होता है; इसलिए जोड़ने के लिए कृत्रिम में बंद है चाहिए और बंधन के लिए दंड चाहिए बंधन में किसी को चलाना है तो बंधन ज्यादा दिन चल नहीं सकते और अगर चलाना है तो दंड चाहिए l तो फिर सत्ता अलग हो जाती है, व्यवस्था अलग हो जाती है, जनता अलग हो जाती है और इनके आपस के संघर्षों से गाड़ी आगे जाती है| तो फिर अपने चुने हुए प्रतिनिधि के सांसद होने के बावजूद भी उसके खिलाफ हम आंदोलन करते हैं और ये प्रजातंत्र में तो होना ही है, तो संघर्ष में शांति कहां से मिलेगी,  ये सब प्रश्न आते हैं | अब हमारे देश में उसी आधार पर जो व्यवस्था बनी है वो चल रही है | उन में हम को ये समझना पड़ेगा क्योंकि हमको उसी व्यवस्था में चलना पड़ने वाला है और कुछ दशक तो चलना ही पड़ने वाला ही है|  और संपूर्ण समाज को एक अनुशासित ढंग से चलाने के दायित्व के कारण हमलोग उस विपरीत व्यवस्था का भी अनुशासन मान कर चलते हैं| तो ये नहीं मानना चाहिए कि वह हमारे स्वत्व का पूर्ण प्रगटिकरण है|  उसमें कोई परिवर्तन की आवश्यकता; यानि वो पूर्णतः हमारे जीवन के अनुकूल है, ऐसा मानने की कोई गुंजाइश नहीं है, क्योंकि नहीं है | तो परिवर्तन का जब विचार करेंगे हम तो उसका विचार ध्यान में रखेंगे हम|  उसके कारण अभी जो व्यवस्था है उसमे क्या क्या बदलाव आया है, अध्यक्षता  के कारण|  वो अपने स्व -प्रकृति के पूर्ण विपरीत जाता है तो उस विपरितताओं को ठीक करने के क्या उपाय हैं? उन विपरीतताओं को हम कैसे समझ सकते हैं ये सब सोचना पड़ेगा |  लेकिन अधिष्ठान एक व्यवस्था का होता है, उसके कारण व्यवस्था जैसे बनती है वैसे रहती है| वो एक व्यवस्था की रचना को, व्यवस्था के स्वरुप को, प्रभावित करने वाला फैक्टर है|  वैसे ही दूसरा है कि उस अधिष्ठान के कारण प्रत्येक समाज का अपना एक ध्येय भी होता है, तो हमारी विशेषता अधिष्ठान के कारण हमारे समाज का एक विशिष्ट ध्येय बनाये | हम जबतक उस ध्येय पर चलेंगे तब तक हम हम रहेंगे, नहीं तो हमारी प्रगति नहीं होगी | हमारी सुविधाएँ बढ़ सकती है, हमारा वलिष्ठ बढ़ सकता है लेकिन हम हम नहीं कहलायेंगे | जैसे बन्दर मनुष्य नहीं है फिर भी अगर साईकल चलाता है तो आश्चयजनक बात है, बन्दर की कदर तो करनी पड़ेगी, तो लोग टिकट निकाल कर सर्कस देखने जाते हैं लेकिन बन्दर का बंदरपन मनुष्य जैसा साईकल चलाने में नहीं है , न   उसकी जीवन की कोई प्रतिष्ठा उसमे है | शेर बकरी के साथ खाता है ये टिकट निकाल कर देखने का विषय है,शेर की प्रतिष्ठा का विषय नहीं है| तो हम,अगर इस अधिष्ठान पर जीवित समाज है तो हमारा एक अपना उद्देश्य बनता है | (एतद देश  प्रसूतस्य . .........संस्कृत मंत्र ) ज्यादा बताने की जरुरत नहीं है हमको पता है | विवेकानंद जी ने कहा है कि भारत में पूरी दुनिया का राजा बनने के लिए नही जन्मे तो सेवा के लिए तुम्हारा जनना है | तो हम उस उद्देश्य को ध्यान में रखकर जब चलते हैं तब हम हम बनते हैं  हैं और हमारी प्रतिष्ठा हमारी कीर्ति सबकुछ हमारा दुनिया में बढ़ता है| तो वो अगर हमारा लक्ष्य है तो उसके अनुसार हमारा पथ बनेगा ,उसके अनुसार हमारी योजना बनेगी| बहुत बहुत साल पहले हमको सब कहते थे कि देखो शाखा इतने साल से चल रही है कुछ नहीं हुआ और शिवसेना ने हिंदुत्व उठाया और जहाँ शिवसेना मालूम नहीं वहां भी उनके नाम के वोट लगते हैं तो हम ऐसा कुछ क्यों नहीं करते ? अरे भाई शिवसेना को जहां जाना है उसके लिए  उनकी एक व्यवस्था है ,हमको वहां नहीं जाना है| हमको दूसरी जगह जाना है तो हमारी व्यवस्था 15 दिन में अपना नाम गली-गली में चमकाने की नहीं है| उनका अनुसरण करके हम अपने काम को नहीं कर सकते | तो इसलिए हमारे राष्ट्र का जीवन उद्देश्य क्या है इसके लिए अनुकूल व्यवस्था है कि नहीं ऐसा देखते हैं तब भी आज की व्यवस्था हमको ऐसी नहीं दिखती | उसमे आवश्यकता है काम करने की। तीसरी बात है कि ये सब होने के बाद लोगों को अपने राष्ट्रीय ध्येय की ओर बढ़ना है, अपने आध्यात्मिक अधिष्ठान पर खड़ा होना ठीक बात है लेकिन उसके लिए तो उसके शरीर मे बुद्धि को चलाना है तो उनका भौतिक जीवन इसको वो चला सकें ऐसा समझ तो होना चाहिए। तो सब व्यक्तियों को ज्ञान पूर्ण व्यवहार के साथ, सब प्रकार की स्वतंत्रता देते हुए, लेकिन कर्तव्य के प्रति प्रतिबद्ध बनाते हुए चला सकने वाली व्यवस्था अभी  हैं क्या? आज की स्थिति में नहीं हैं। उसको लाया जा सकता है। ये तो हमारी अपनी व्यवस्था होती तो भी इसका परीक्षण बार बार करना पड़ता क्युकी हमारी अपनी क्षमता को और उस व्यवस्था की क्षमता है। और दूसरी बात समय का भी परिणाम होता है। तो कई व्यवस्थाएं बनी, उन्होंने अपना काम किया, आज वो जीर्ण बन गयी तो उनको थोड़ा बदलना आवश्यक है, उनको थोड़ा दूसरी तरह से ढालना आवश्यक है अथवा उसको बाजू हटाकर दूसरी व्यवस्था लाना आवश्यक है, ऐसा होता ही है। तो इस प्रकार से समय के प्रवाह मे व्यवस्था जीर्ण हो गयी, इसको बदलना है, इसमे तो सुधार करना है ये भी सोचना पड़ेगा। और तीसरी बात है कि व्यवस्था में गलती भी हो गयी, रचना ही हमने गलत बना ली तो उसको सुधारना भी बनता है। 
तो ये चार प्रकार से हर व्यवस्था में परिवर्तन आवश्यक होता है, समाज के भी और तंत्र के भी। आज तंत्र की व्यवस्था विदेशी प्रवाह से बनी है। समाज की हमारी व्यवस्था हजारों वर्षों से चलती आयी है, दोनों में इन चारो कारणों से परिवर्तन की आवश्यकता है। आप अध्ययन करके देखिए, समयावधि का बंधन है नहीं तो एक-एक पर और बोला जा सकता है परंतु मूल अधिष्ठान में गड़बड़, स्वार्थ आ गया बीच में, अपने ध्येय का विस्मरण हुआ इसलिए  स्वार्थ प्रबल हो गए। समय के मार्ग के कारण पुरानी जीर्ण-शीर्ण हो गयी, बदली नहीं, इसलिए भी, और मूल में रचना ही गलत बनायी इसलिए भी, ये चारो प्रकार के दोष आज की प्रचलित व्यवस्था में तंत्र में भी और सामाजिक व्यवस्था में भी मिलते हैं। ये सब क्या है कैसा है सोचकर इसका  परिवर्तन करना है। तो व्यवस्था का एक विचार होता है उसको भी ठीक करना पड़ेगा। उस विचार के अनुसार व्यवस्था की एक रचना अपने को करनी है, उसको भी ठीक करना पड़ेगा। और रचना के साथ-साथ उसको अमल करने का एक तरीका होता है उसको भी ठीक करना पड़ेगा। ये सब करते हैं तो फिर वो परिवर्तन बुढ़ा होता है। और ये सारी व्यवस्था जो है वो कोई भी  व्यवस्था चलती है तो उसमें मानवीयता होनी चाहिए। उसमे प्रकृति के साथ अपने समाज के देश के अनुकृत हो और स्वतंत्रता भी दिखनी चाहिए। व्यवस्था बंधन नहीं होनी चाहिए। व्यवस्था में बरतने से आनंद का अनुभव होना चाहिए, सुख का अनुभव होना  चाहिए सुरक्षितता का अनुभव होना चाहिए। कुछ लोगों के लिए व्यवस्था,आनंद देती है, सुख देती है सुरक्षा देती है और वो करने के लिए उसी समय उसी समाज के दूसरे लोगों को दबाती है, दुख देती है, गुलाम बनाती है। ऐसी व्यवस्था नहीं चाहिए। ये सारा देख के और व्यवस्था हमारे देश की कैसी होनी चाहिए इसका चिंतन होना है। स्वतंत्र होने के बाद अपना संविधान बनाते समय जो गहन विचार मंथन हुआ उसमें कुछ बातों का तो ऐसे विचार किया गया, कुछ बातों का नहीं हुआ। और इसलिए उन कमियों को कैसे पूरा किया जाए कब पूरा किया जाये ये सारा सोचना पड़ेगा। और ये करने के लिए हमको देखना पड़ता है कि व्यवस्था का ढांचा क्या है उसको समझना पड़ता है। व्यवस्था लागू करने के लिए जो रचनाएं बनी है वो रचनाएं क्या हैं कैसी हैं वो अपना काम ठीक करने वाली हैं कि नहीं हैं ये देखना पड़ता है। करने वालों को इस व्यवस्था को क्यू चलाना है कैसे चलाना है, इसका पूरा ज्ञान है कि नहीं, उनके मन में इस देश के प्रति, समाज के प्रति लगाव, उनके भले के लिए इस व्यवस्था का उपयोग करने की एक निष्ठा उनके मन में हमने पैदा किए हैं कि नहीं। वंचित समाज़ के अधिकारों को वापस में लाना, उनको सशक्तता और सारे समाज की बराबरी मे लाने के लिए आरक्षण बना, व्यवस्था बनी। व्यवस्था अच्छी थी लेकिन जिनके हाथ मे आयी उन्होंने उसका उपयोग अपनी राजनीति के लिए किया तो विषमता भी गयी नहीं, दुर्वस्था भी गई नहीं और उल्टे उस समय जो समझदारी के साथ सारे समाज ने मिलकर उसको स्वीकार किया था अब उसके विरोधी भी बहुत भरे हैं समाज में और जिनके लिए वह बना वह जातीयता पर हैं। समस्या तो नहीं सुलझी। तो उसका उपयोग करने वालों के मन मे ये बात पड़ता है कि नहीं, जुड़ती है कि नहीं निष्ठा है कि नहीं और उनके करने की शैली वैसी है कि नहीं - स्किल डेवलपमेंट, अच्छे उद्देश्य से, और उत्साह से किया, लेकिन देश का प्लानिंग एक जगह बैठ कर किया और उसको लागू किया तो उपयोगी नहीं है। हमलोग काम कर रहे हैं और हम जान रहे हैं। हमने एक-एक जगह, एक एक जिले का प्लान बनाया, वहाँ की जो स्किल की आवश्यक्ता थी उसका ट्रेनिंग किया तो फटाफट काम होने लगा क्युकी काम वही है लेकिन उसको डाउन टू टॉप ऐसा प्लानिंग करते हुए कहा। सीधा नीचे से लेते कि कहाँ क्या क्या चाहिए और वैसे एक विकेन्द्रित प्रशिक्षण का माॅडल बनाते तो ये ज्यादा जल्दी होता। तो करने की शैली क्या है, करने की पद्धति क्या है इसपर भी निर्भर करता है ये हमको देखना है और ये देखने के लिए हमको अब तैयारी करनी है। क्युकी व्यवस्थायें प्रत्येक विषय की है। हमारे पास विषय अलग अलग हैं इसके पहले 17 हुआ। किसलिए हमारा संगठन चला? क्रीड़ा के क्षेत्र में क्रीड़ा की भारतीय दृष्टि के आधार पर क्रीड़ा संस्कृति को स्थापित करना, इसलिए क्रीड़ा आज भी चली है। उस समय जब इन व्यवस्थाओं को देखेंगे उसका परीक्षण करेंगे कि क्या रखना है क्या नहीं रखना है इसके बारे में कुछ एक सहमति बनाएंगे संगठन के अंदर, तथाकथित संघ परिवार के अन्दर, भारतीय समाज के अंदर इस प्रकार जाएगी। तो पहले तो एक देखने की बात हमारी यह है कि व्यवस्था परिवर्तन का हमारा काम है। ये हम सब लोगों का अंश बढ़ता है कि नहीं? इमरजेंसी में एक बात आया है :-
"पथ का अंतिम लक्ष्य नहीं है, सिंहासन चढ़ते जाना।
सब समाज को लिए साथ में, आगे है बढ़ते जाना।।" 
ठीक है उस समय हम इमरजेंसी से बाहर निकले थे और पहली बार सत्ता आयी थी तो हमारी संस्कृति सत्ता में पहली बार हमने देखी केंद्र की सत्ता में तो उस समय उस गीत को गाते थे तो मन में यही आता था कि अटल जी की वाणी केंद्र सरकार में है तो अंतिम लक्ष्य नहीं है ऐसा उनको भी कहना है लेकिन ये केवल राजनीतिक दल को कहने की बात नहीं है। हम अपना प्रत्येक संगठन अपने अपने कार्यक्षेत्र में सत्ताधीश बनने तो जा ही रहा है। अगर मजदूरों के लिए कुछ करना है तो केंद्र में सत्ता अपने लोगों की है तो ठीक ही है। नहीं भी होती तो भी केंद्र सरकार को मजदूर संघ को बुलाकर ही बात करनी पड़ती। तो हर क्षेत्र में हम लोग आगे  अग्रणी बनने जा रहे हैं तो उस क्षेत्र के बारे में कुछ भी करना है तो तंत्र को भी हमको भागीदार बनाएं बिना आगे नहीं बढ़ते नहीं बनेगा। तो हम भी वहाँ सत्ताधीश हो गए तो हमने जीत लिया, हम विजेता बन गए, हम वहाँ सर्वश्रेष्ठ हो गए। यहां काम समाप्त नहीं होता, यहां काम शुरू होता है क्योंकि हम एक दृष्टि लेकर चल रहे हैं, एक विशेष प्रकार का देश बनाना है। जिस प्रकार की दृष्टि लेकर हम चले हैं उस प्रकार की तंत्र व्यवस्थायें ये सब 100% अनुकूल नहीं है। तो बेकार है फेंक दो ऐसा मैं नहीं कहता लेकिन उस लेकिन उसमें एडॉप्टेशन या चेंज, दोनों पद्धति से उनको देखना पड़ेगा। लेने लायक भी बहुत हैं परन्तु जैसा समाज हम चाहते हैं, जैसा अपने कार्यक्षेत्र का सारा रख रखाव हम चाहते हैं, जैसे अपने कार्य क्षेत्र में जिनके लिए हम काम करते हैं उनकी स्थिति हम चाहते हैं, उसके लिए वो तंत्र वो व्यवस्था पूर्णतः अनुकूल नहीं है। और इसलिए हमारे मन का सब कुछ हम कर नहीं सकते हैं, ये तो हम सब जानते हैं। अपने लोग हैं सत्ता में फिर भी नहीं हो सकता। क्युकी इस व्यवस्था ने उनके हाथ पैर बांधे हैं। उनको उसके नियमों के अनुसार चलना पड़ता है और वो विपरीत है। तो बहुत पहले दत्तोपंत जी ने मजदूर संघ के एक अधिवेशन मे कहा था कि हमारी स्थिति ऐसी है कि "Square peg in a round hole" हमारे पास चौकोर खूँटी है वो गाड़नी है, लेकिन जो छेद बने हैं वो गोल है। तो पहले हमको उन खूँटीयों को उन्हीं छेद में गाड़ कर उन छेदों को चौकोर बनाने का काम पहले करना पड़ेगा। यही व्यवस्था परिवर्तन है। तो वो व्यवस्था परिवर्तन करने के लिए उसी व्यवस्था में से हमको श्रेष्ठ बनना है। उस मुकाम पर हम अब पहुंच रहे हैं और रहेंगे उस मुकाम पर कुछ दिन में। तो अपना काम ये बनता है। उस मुकाम पर पहुंचने के बाद हम ये सारी बातें कर सकते हैं, उसके पहले नहीं कर सकते, लेकिन उसकी तैयारी उसके बहुत पहले से करनी चाहिए। अभी भी देर नहीं हुई है। अभी भी शुरू कर सकते हैं अगर नहीं की होगी तो। कई के तो हमको चिंतन मिला है, तो मजदूर क्षेत्र की व्यवस्था के लिए हमको एक उत्तम दर्शन दत्तोपंत जी के चिंतन में से, दीनदयाल जी के चिंतन मे से मिला है। जहां इतना विस्तृत और एक एक पक्ष ठीक किया हुआ नहीं मिला है वहाँ दिशा तो सार्वजनिक क्षेत्रों में मिली है। हमारे पास हिन्दू ब्यूरो आर्ट्स है, हमारे पास एकात्म मानव दर्शन है, हमारे पास भारतीय किसान नीति है। हमारे पास दर्शन है पर दर्शन का अध्ययन है क्या? आपने तो किया होगा लेकिन इसके पीछे जब शक्ति लगनी है तो वह व्यक्ति की शक्ति नहीं होगी, वो सम्मति शक्ति होगी। तो संगठन में इसका प्रबोधन ठीक से हुआ है क्या? हमारा एक बौद्ध का काम कर रहा है अर्थात एक खंड का काम करने वाला राजनीतिक क्षेत्र का प्रमुख, एक जिले का मजदूर संघ का कार्यकर्ता, एक जिले में किसान संघ का अध्यक्ष, संस्कार भारती के जिले के पदाधिकारी, कम से कम जिला स्तर तक के कार्यकर्ता हमारे, उनके दृष्टि में हमारी पूर्णतया और स्पष्ट दृष्टि है कि नहीं? तत्वदर्शन ही तत्व का तर्क आदि-आदि सबके दिमाग में आना मुश्किल है लेकिन जैसे संघ के प्रत्येक स्वयंसेवकों को कहेंगे हिन्दुस्तान का हिन्दू राष्ट्र कैसे है बताओ? ऐसे कहेंगे तो सब नहीं बता सकते लेकिन शाखा में बालक स्वयंसेवक भी, अगर आपने जाकर कहा कि हिंदुस्तान हिन्दू राष्ट्र नहीं है तो वह कहेगा कि नहीं ये हम नहीं मानते और हिंदुस्तान हिन्दू राष्ट्र है।यानी क्या है वो नहीं बताता लेकिन उसका पक्का है कि मैं संघ का हूं तो  हिन्दू राष्ट्र को मानता हू। ऐसी ये अपने दर्शन के कुछ बातें पक्की है कि वहां है। तो एक तो एक व्यवस्था की इन सारी बातों का चिंतन अपने यहां हुआ है और हमको इसमें परिवर्तन क्या करना है इसकी एक दृष्टि बनी है, सहमति बनी है और नीचे तक के हमारे कार्यकर्ताओं का प्रबोधन उसके बारे में हुआ है । स्थिति यही है क्योंकि व्यवस्था जब परिवर्तन करेगी तो आज हम जिन इश्यूज को लेकर चल रहे हैं और मानवों को लेकर चल रहे हैं वो सबके सब तब तक टिकेगी या पूरी होगी, ऐसा नहीं, कुछ बातों को हमको वापस भी लेना पड़ सकता है। 
हम परिवर्तन समाज की भलाई के लिए कर रहे हैं। परिवर्तन एक वर्ग के लिए नहीं कर रहे। हमारी दृष्टि समग्र है। जैसे कहा अभी मजदूर संघ का बताते समय कि राष्ट्रहित, उद्योग हित और मजदूर हित। हमारी एक विशेष दृष्टि है। बाकी मजदूर यूनियन भी है, वो उद्योग हित और राष्ट्र हित की चिंता नहीं करते, मजदूर हित पहले, ऐसा वो कहते हैं। हम पहले बात भी नहीं करते या साथ में, तो समग्रता से परिवर्तन की बात जब सोचते हैं तब आज हम अपने कार्यक्रमों के लिए जिन बातों को घोंट घोंट कर हम तैयार कर रहे हैं सब उसको शायद कुछ दिन रुकना पड़ता है अथवा पीछे भी लेना पड़ सकता है। कल परिवर्तन के परिप्रेक्ष्य में बात आएगी। अब ये तब हो सकता है जब अपने कार्यकर्ताओं के मन में कुछ बातें जाएगी। ये अनुशासन में रहता है। नहीं तो दृष्ट ऐसा खड़ा हो जाता कि इन लोगों ने छोड़ दिया कुछ तो फिर उसकी प्रतिक्रिया होती है, तो फिर फूट पड़ती है। और परिवर्तन होने के पहले ही हम टूट जाते हैं। इसलिए इस मजबूती को हमने उत्पन्न किया है कि नहीं? आखिर ये तो चिंतन और प्रबोधन के स्तर पर है कि इसके आधार पर हमने कुछ प्रयोग किए हैं। उन प्रयोगों के प्रतिमान खड़े किए हैं परन्तु बहुत और करना बाकी है। हमारे हित के व्यवहार में भी हम इस प्रकार के आचरण से, व्यवहार से हम पा सकते हैं वो सब कुछ जिसको पाने का आश्वासन आज की ये व्यवस्था देती है। प्राप्त तो नहीं हुआ। होगा नहीं ऐसा भी लगता है आजकल परंतु नया जो हम कुछ बताएंगे उस से वो प्राप्त होता है कि नहीं। ये स्पष्ट हो जाए जनता के सामने, इतनी मात्रा में ये  हमको मानक खड़े करने की जरूरत है। अभी है लेकिन प्रमाण करो, उसके पीछे उद्यम करना है, उसके पीछे प्रयास करना है। हम अपने संगठन को विजय यात्रा पर अग्रसर करने के बाद भी उन्हीं कार्यों और उन्हीं बातों में फंसे। वो चालू तो रखने पड़ेंगे, उनको बंद करके काम नहीं चलेगा। पहला इंजन शुरू किया, वो अपनी फ्लाइट लेंड होकर, वो डाॅक में लगने तक चालू तो रखने पड़ेंगे परंतु नए इंजन भी शुरू करने पड़ेंगे। उसके तरफ हमारा ध्यान है कि नहीं, हमारा बल भी बढ़ा दिया कि हम कर सकते हैं। पहले हम मुट्ठी भर लोग थे तो कुछ बातें की और आज हम गमले भर लोग हैं तो और भी बातें कर सकते हैं। और उस से ये ताकत बढ़ेगी तो हम सब कुछ कर सकेंगे। परंतु इस दिशा मे हमारी गतिविधि क्या है? और हम जो प्रतिमान स्थापित करते हैं वो समाज में प्रचलित हो इसका भी प्रयास करना पड़ता है। अब जैविक खेती के ग्राम विकास के द्वारा कई प्रतिमान खड़े होते हैं, वहाँ रुके नहीं वो लोग। अब इसका प्रयोग करने वाले सबको साथ लेकर दिन दूना रात चौगुना अपना ये गति बढ़ाकर, सर्वत्र  ये प्रचलित हो, ऐसा प्रयास कर रहे हैं। करना ही पड़ेगा। ये जब करते हैं और इसको जब समाज में ले जाते हैं यानी चिंतन अपना चलता है। चिंतन में हम स्पष्ट हो गए तो चिंतन के साथ साथ समाज के साथ संवत करना, समाज में भी उसको स्पष्ट करने की जरूरत है। अपने कार्यकर्ताओं का प्रबोधन क्या है - समाज में उस विचार का प्रचार करना, उसको ठीक  से समझा देना। अपने हमने प्रयोग बनाये हैं, समाज में सेवा करने वाले विकल्प खड़े किए उसके आधार पर। अपने हमने प्रतिमानक खड़े किए, उन प्रतिमानकों में प्रशिक्षित करने के लिए संगठन खड़े किए और इसका प्रचलन समाज में बढ़ाने का काम हमने किया है। तो स्वाभाविक है कि  समाज उसके लाभों को जब देखेगा तब उसका दबाव बढ़ेगा, कि भाई इसको व्यवस्था में लाओ ताकि दबाव बढ़े। ये दबाव काम करेगा लेकिन ये सारी बातें जब हम करेंगे तब ये व्यवस्था परिवर्तन होगा। तो हमको ये विचार करना पड़ेगा कि व्यवस्था परिवर्तन के चिंतन का हमारा आज का स्तर क्या है, प्रमाण क्या है, कितना बारीकी से कितना आगे तक हमने विचार किया है? तबसे तो हम नहीं बच सकेंगे क्योंकि कुछ बातें तो जब प्रसंग आता है तभी करनी होती है, तब जैसी करनी पड़ती है वैसी ही करनी होती है। अभी जैसा मैंने कहा कि विचार और उद्देश्य, ये तो दो हैं जिससे व्यवस्था बनती है लेकिन समय की आवश्यकता, ये भी उस व्यवस्था को निर्धारित करती है। और इसलिए एक आदर्श चित्र वैसे के वैसे लागू नहीं होता है। एक आदर्श दिशा और एक मोटा - मोटी विचार लेकर हम जब उसको अमल में लाते हैं तो फिर कुछ बातें समाज को ध्यान में रखकर, समय को ध्यान में रख कर हमको करनी पड़ती है। कुछ बातें बदलनी भी पड़ती है। जैसे अनेक इशूज हैं - अब मजदूर संघ जितना काम कर रहा है लेकिन एक नई परिस्थिति मजदूर संघ सामना उनका कर रहा है। सोच भी रहे हैं उसके बारे में कि अब लेबर यूनियन ही अपने आप में रिडनडेंट होने जा रही है। अब……… का विचार हम करेंगे लेकिन कितनी ही बातें ऐसी हो जाएगी, अब .......... का ज़माना आएगा तो क्या चलेगा पता नहीं, अब इसमे आजतक हम शाश्वत बातें लेकर चल रहे वो तो वैसी की वैसी रहेगी, वो त्रिकालाबाधित है, वो नहीं बदलेगी लेकिन उसके आधार पर और कुछ…… हम चले थे। हो सकता है उसमें से हमको कुछ बदलनी पड़े। हमने कभी अपनी बातों में, और ये LGBT वगैरह जैसी बातों का विचार तो किया नहीं, और करने के आज भी हमारे ऊपर छोड़ दिया जाए तो हम नहीं करेंगे लेकिन अब समाज पूछता है तो कुछ ना कुछ बताना पड़ता है। तो एक नई बात हो गयी। पहले अगर हम इसके बारे में बोलते तो लोग ऐसा करते है, हम पर गंगा जल छिड़कते। बात तो ठीक ही है परंतु समय अब ऐसा आ गया है कि कुछ बातों के बारे में, नए बातों के बारे में हमको बोलना पड़ेगा। अपने…. से बोलना पड़ेगा। नीति बढ़ाने वाली बात नहीं बोलनी पड़ेगी, लेकिन बोलनी तो पड़ेगी। हाँ इस व्यवस्था से जाकर हम हावी हो जाएंगे तब हम इस वातावरण को बदलेंगे वो बात अलग है। ऐसे अनेक बातों का सामना करके हम जा रहे हैं….. चिंतन हमारे आधार पर। होता है कि नहीं, ऐसा सतत चिंतन करने वाला, अपने कार्यकर्ताओं में, क्युकी हमारे यहां थिंक टैंक अलग और करने वाले अलग, ऐसा नहीं होता। हम सब लोग जो संगठन का नेतृत्व करने वाले हैं उनको ही वैचारिक दिशा में विचार करना पड़ता है और करना चाहिए। इसके…….. जो ऐसी स्थिति है। कार्यकर्ताओं के प्रबोधन के प्रशिक्षण की कैसी स्थिति है। आज के भी हम सबको मिलकर करने के पीछे सामाजिक समरसता का विषय सबका है, स्वदेशी का विषय हम सबका है। भारतीय शक्ति जागरण में समाज में महिलाओं का स्थान, प्रबोधन, सशक्तिकरण की सारी बातें सब संगठनों की है। ऐसे कई विषय हैं। अपने आप में संगठन का विषय है तो कुछ का अच्छा प्रशिक्षण हो रहा है। उसका प्रत्यक्ष होने के नाते हमारी प्रवीणता होना ठीक है परंतु आखिर ये जिस समाज के परिवर्तन के लिए चल रहा है उसके कुछ ऐसे विषय है जो हमारे साथ तय है - प्रबोधन हो रहा है कि नहीं? हमारा पूर्व दिव्य बहुत उदार भव्य था। ठीक है! लेकिन आज समय बहुत बदल गया है तो उसमें जो शाश्वत है वो लाकर उसी के आधार पर कुछ रचना हमको देनी पड़ेगी तब प्रबोधन हमारा शाश्वत होगा। इस दृष्टि से प्रबोधन, प्रयोग, प्रतिमान, प्रचलन, इस सबके स्थिति अगले सत्र में आपको जो समूचा विचार करना है, इन बातों का विचार करना है। और ये जिस मात्रा में है उस मात्रा को बढ़ा कर पर्याप्त करना और साथ-साथ धीरे-धीरे अब समाज का हम  विश्वासपात्र बने हैं, हमारी बात को समाज अब मानता है और बहुत संगठनों के रहने पर करने की भी उसकी तैयारी है, ऐसी भी स्थिति आयी है। तो हम इसको समाज मे कैसे ले जाएंगे, समाज से संवाद कैसे करेंगे, समाज में प्रचार कैसे करेंगे, विकल्प कौन से देंगे, संस्थान और जगह कौन सी बनेंगी और समाज में इस प्रचलन के कारण अपने आप दबाव बढ़ेगा, ये बात होगी ही। बहुत कम बातों के लिए आंदोलन करना पड़ेगा (आंदोलन फिर भी करना पड़ेगा लेकिन बहुत कम बातों के लिए करना पड़ेगा)। एक बार प्रचलित हो गया तो अपने आप हो जाएगा।
 इसलिए व्यवस्था परिवर्तन का समय हमारे हाथ में आ गया है। बात तो ये बहुत पहले से चल रही है। व्यवस्था परिवर्तन का ये शब्द हमारे लिए नया नहीं है। यानी हम संघ में सीख गये थे तब से हम इसको सुन रहे हैं। लेकिन व्यवस्था परिवर्तन पर चर्चा करते तब कोई फायदा नहीं था। अब उस स्थिति में आ गए है और समाज हमसे अपेक्षा कर रहा है, तो हमारी तैयारी क्या है इस दृष्टि से? इसलिए एक अभी जो मैंने आपके सामने रखा वो मेरा लाउड थिंकिंग नहीं है लेकिन अब इस काम को हाथ लगाना है तो इसका बहुत बारीकी से सब दृष्टि से विचार करके हमको आगे जाना पड़ेगा क्योंकि अब हम जो इसमें करेंगे उसके अपने समाज और देश पर लंबे परिणाम होंगे। और आज जैसे हम लोग भी कभी-कभी और निंदा करते हैं कि उनके करने से ऐसा हो गया, उन्होंने ऐसा किया इसलिए आज ऐसा है, और ये सब गलतियाँ उनकी है, वैसे 50 साल के बाद हमारे बारे में लोग न कहें कि इन्होंने हमारा सत्यानाश किया। उल्टा कहें कि वो जो करके गए उसके अच्छे फल आज हमको मिल रहे। ऐसा अगर होना है तो इतने बारीकी से इन सब पहलुओं का विचार करते हुए अपने संगठन को उसके लिए Well equipped, well- trained, ऐसा बनाते हुए समाज में भी हमको इसका कुछ-कुछ खड़ा करते हुए समाज को साथ लेकर आगे बढ़ना पड़ेगा। इसलिए मैंने एक विषय आपकी चिंतन के लिए आपके सामने रखा है। अब आपकी चिंतन के बाद, प्रयोग के बाद इस पर निष्कर्ष निकिलेंगे। निकालेंगे तब पता चलेगा t उसके अनुसार हमलोग चलेंगे।
(यह सरसंघचालक जी के भाषण की प्रति है जिसे श्री सुरेंद्रन जी ने भेजा है।)


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