यह श्री सतीश कुमार जी व प्रोफेसर राजकुमार मित्तल जी द्वारा लिखी पुस्तक "पुनः बनाए भारत महान" का यूनिकोड स्वरूप है। लगभग 32 पृष्ठ की पुस्तिका में रोजगार सृजनके सभी महत्वपूर्ण पक्ष आ जाते हैं।
प्रस्तावना
स्वावलंबी भारत अभियानः पृष्ठभूमि
गत 23, 24, 25 सितंबर 2021 को स्वदेशी शोध संस्थान द्वारा ‘अर्थ-चिंतन 2021’ (तरंग माध्यम से) गोष्ठी का आयोजन हुआ। इस गोष्ठी में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह श्री मुकुंद जी, केंद्रीय मंत्री श्री नितिन गडकरी, श्री भूपेंद्र यादव, नीति आयोग के उपाध्यक्ष डॉ राजीव कुमार, नाबार्ड के चैयरमेन डॉ. जी.आर. चिन्ताला, मणिपाल ग्लोबल फाउंडेशन के चैयरमेन डॉ. टी.वी. मोहनदास पाई, अमूल के सी.एम.डी. श्री रूपेन्द्र सिंह सोढ़ी, प्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रो. नागेश्वर राव व प्रो. आशिमा गोयल, सॉफ्टवेयर कंपनी जोहो के श्रीधर वेम्बू, कनेरी मठ के स्वामी जी, पतंजलि आयुर्वेद के आचार्य बालकुष्णा, स्वदेशी जागरण मंच के प्रो. भगवती प्रकाश, सुंदरम जी, डॉ अश्वनी महाजन आदि ने सहभाग किया।
इसका प्रमुख विषय था - भारत को सन 2030 तक का आर्थिक लक्ष्य क्या रखना चाहिए और उन लक्ष्यों को प्राप्त करने का मार्ग क्या हो? सम्पूर्ण चिंतन मंथन अर्थ व रोजगार सृजन पर केंद्रित था! गोष्ठी में प्रमुख रूप से तीन विषयों के बारे में गहन चर्चा हुई। पहला, भारत को शून्य गरीबी रेखा (बीपीएल) तक कैसे लेकर आना, कितना शीघ्र यह कार्य हो सकता है? दूसरा, रोजगार सृजन, भारत की सबसे बड़ी आवश्यकता है, तो क्या 2030 तक भारत को पूर्ण रोजगारयुक्त देश बनाया जा सकता है? और स्वाभाविक रूप से तीसरा विषय था - भारत की आर्थिक संपन्नता का मापदंड, 2030 तक 10 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था हो सकता है (पर्यावरण संरक्षण करते हुए), जो अभी लगभग 3 ट्रिलियन डॉलर है।
स्वदेशी जागरण मंच ने इस प्रकार के विषयों पर अपने प्रारंभिक काल से ही चिंतन-मंथन किया है। वास्तव में तो गत 30 वर्षों के विभिन्न स्वदेशी अभियान, आंदोलन, जन-जागरण के कार्यक्रम हो या रचनात्मक कार्यक्रम, इन सबका अंतिम उद्देश्य एक ही है कि इस राष्ट्र को परमवैभव तक ले जाने हेतु जो आर्थिक स्वावलंबन आवश्यक है, उस मार्ग पर, कैसे आगे बढ़ा जाए। फिर उसे प्राप्त करने में, जो अवरोध हैं, (बहुराष्ट्रीय कंपनियां आदि) उन्हें कैसे दूर किया जाए। जो सहायक तत्व हैं उनको साथ लेकर कैसे आगे बढ़ा जाए।
वैसे इस विषय में राष्ट्र और स्वदेशी आंदोलन ठीक गति से बढ़ ही रहा था कि कोरोना महामारी ने विश्व और भारत में दस्तक दी। जिसके कारण कठोर बंद लगाने (स्वबाकवूद) अनिवार्य हो गए। किन्तु उसके कारण अर्थ और रोजगार का बड़ा नुकसान भी हुआ। जहां जीडीपी में ऐतिहासिक गिरावट आई वहाँ करोड़ों लोगों का रोजगार भी बुरी तरह प्रभावित हुआ। इन परिस्थितियों में स्वदेशी जागरण मंच ने देश को इस संकट से उभारने के लिए अनेक स्तरों पर चर्चा की, और अंततः उक्त तरंग संगोष्ठी का आयोजन किया।
इससे पूर्व भी फरवरी 2021 को आर्थिक समूह के छः संगठनों की कर्णावती में बैठक हुई। जिसमें यह निर्णय हुआ कि भारत को पूर्ण रोजगारयुक्त करने के लिए और अपने अन्य आर्थिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए एक व्यापक योजना व अभियान चलाना चाहिए।
अब रोजगार सृजन बहुत बड़ी व अलग प्रकार की चुनौती समाज के सामने है। सरकारें तो अपना प्रयत्न करेंगी ही, किंतु आर्थिक, सामाजिक व शैक्षिक संगठनों का भी स्वभाविक कर्त्तव्य है कि अपने छोटे-बड़े प्रयत्न प्रारंभ करें। इसलिए स्वावलंबन भारत अभियान के अंतर्गत यह प्रयत्न प्रारंभ हुए हैं।
अनके प्रकार के विचार, योजनाएं इस परिप्रेक्ष्य में आये हैं। जैसे काम चाहने वालों को, काम देने वालों से मिलवाने का भी एक बड़ा काम है और फिर सब प्रकार के छोटे-बड़े कामों को, स्वरोजगार को, खड़ा करवाना, उनको सहयोग करवाना, उनका साहस बढ़ाना, आवश्यक मार्गदर्शन करना भी कार्य है।
रोजगार सृजन केंद्रों का जिलाशः निर्माण, इसका तंत्र बनेगा। क्योंकि जिला ही वास्तव में रोजगार सृजन के लिए सबसे व्यवहारिक इकाई सिद्ध होगी। इसके अतिरिक्त भी समाज की, विशेषकर युवाओं की मानसिकता परिवर्तन हेतु एक बड़ा जन-जागरूकता अभियान भी समय की आवश्यकता लगती है।
रोजगार की समस्या की पृष्ठभूमि, उसके विभिन्न आयाम और उसके समाधान के दृष्टिकोण को स्पष्ट रूप से समझना, यह अत्यंत आवश्यक है। गत 4 वर्षों में इस समस्या के समाधान के लिए स्वदेशी के कार्यकर्ताओं ने अनेक प्रकार के अध्ययन, चर्चाएं, गोष्ठियां व संपर्क किए हैं। इस विषय के विभिन्न तज्ञों से चर्चा करने के पश्चात जो निष्कर्ष निकले उन्हें लिखित रूप में प्रस्तुत करना चाहिए, यह विषय जब आया तब इस लेखन सामग्री के निर्माण की प्रक्रिया शुरू हुई, जो इस लघु पुस्तिका के माध्यम से प्रस्तुत है। आशा है कि रोजगार सृजन में लगे हुए और इस समस्या के समाधान हेतु चिंतन-मंथन करने वालों को यह निष्कर्ष सामग्री आवश्यक व उपयोगी लगेगी।
कुछ के मन में यह विषय आ सकता है कि प्रस्तुत पुस्तिका का नाम ‘पुनः बनाएं भारत महान’ क्यों रखा? वास्तव में हमने अपने युवाओं को केवल रोजगार ही नहीं देना, केवल उनकी आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति ही नहीं करना, बल्कि उन्हें भारत की इस समस्या के समाधान का अंग बनाते हुए भारत को पुनः प्रतिष्ठित करने की प्रक्रिया में लगाना है। वे भारत माता के ही पुत्र-पुत्रियां हैं, इसलिए इस देश को पुनः महान बनाना, यह इस नई पीढ़ी का प्रथम कर्त्तव्य भी है। इस विषय के माध्यम से उन्हें अपने इस कर्त्तव्य का स्मरण भी दिलाना है, इसलिए रोजगार विषय की पुस्तिका का नाम यही रखना उचित लगा।
त्रिस्तरीय रोजगार सृजन योजना
भारत को पूर्ण रोजगार युक्त करने के लिए त्रिस्तरीय योजना करनी होगी। पहला है, वर्तमान में चल रहे छोटे-छोटे रोजगार सृजन के प्रयोगों को सहयोग, प्रोत्साहन व संवर्धन करना। दूसरा है जिलानुसार रोजगार सृजन केंद्रों की स्थापना करना व तीसरा है अपने 37 करोड़ युवाओं की मानसिकता में परिवर्तन करना और केवल युवाओं में नहीं बल्कि संपूर्ण भारत की मानसिकता में परिवर्तन करना। उसके लिए एक देशव्यापी विशाल जन जागरण की आवश्यकता होगी।
1. स्वरोजगार को प्रोत्साहन, सहयोग
अभी देश भर में 6.25 करोड़ लघु कुटीर उद्योग हैं। इसके अतिरिक्त स्वरोजगारियों की संख्या भी करोड़ों में है। वास्तव में भारत का सर्वाधिक रोजगार तो यहीं से सृजन होता है। इस प्रकार के सब प्रकल्पों को, स्वरोजगारियों को प्रोत्साहन व सम्मान की आश्यकता रहती है, जिसे अभियान में लगे हुए सब कार्यकर्ताओं को पूर्ण करना होगा। उन्हें सहयोग देना होगा। उनकी छोटी-मोटी कठिनाईयों को सुनना व समाधान करने का प्रयत्न करना, एक बड़ा काम है। फिर अनेक स्थानों पर यह सुनने को आता है कि उद्योगों को काम करने वाले नहीं मिल रहे और बेरोजगार लोगों को कहां नौकरी मिल सकती है, यह पता नहीं। कई बार कौशल का भी अभाव रहता है। अतः हमें नौकरी चाहने वालों को, नौकरी देने वाले उद्योगों से मिलवाना होगा। उनके कौशल विकास पर ध्यान देना होगा। कौशल विकास केंद्रों से तालमेल कर यह किया जा सकता है। फिर नाई, धोबी, प्लम्बर, सिलाई, डिजाईन, मेकअप आदि सैकड़ों लघु कामों के प्रशिक्षण व स्वरोजगार की प्रवृत्ति को बढ़ावा देना। ऐसे प्रकल्पों को सर्वदूर प्रोत्साहन व समर्थन देना होगा।
2. तंत्र रचनाः जिला रोजगार सृजन केंद्र
रोजगार सृजन में पांच संकल्पों पर जनजागरण के अतिरिक्त दूसरा बड़ा कार्य है, प्रत्यक्ष युवाओं को रोजगार व उद्यमिता के लिए प्रशिक्षित करना। जिसके लिए भारत में जिला रोजगार सृजन केंद्रों की स्थापना, एक सफल प्रयोग के नाते से विकसित हो रहा है।
जैसे कि हमने पहले भी अध्ययन किया है कि विकेंद्रीकरण व उद्यमिता यह सुदृढ़ अर्थव्यवस्था व रोजगार सृजन के लिए आवश्यक तत्व हैं। इसकी प्रत्यक्ष प्रक्रिया का केंद्र होगा, जिला रोजगार सृजन केंद्र। यह जिला केंद्र, किसी भी विश्वविद्यालय अथवा महाविद्यालय के साथ मिलकर चलाया जा सकता है। इस केंद्र में युवाओं को सब प्रकार की जानकारियां, वहीं पर ही मिलने की सुविधा का प्रबंध हो। उन्हें नए उद्यम स्थापित करने में किस प्रकार की चुनौती आ सकती है और उनका समाधान क्या हो सकता है, इसका प्रशिक्षण होना चाहिए। उन्हें सरकारी नौकरियों व रोज़गार संबंधी सब प्रकार की योजनाओं की सूचनाओं व जानकारियों की व्यवस्था होनी चाहिए। सब प्रकार की देश और विदेश में निकलने वाली नौकरियां व रोजगार की प्रक्रियाओं के बारे में इस एक स्थान पर सूचनाएं मिलने की व्यवस्था हो। उन्हें अर्न व्हाईल लर्न की प्रक्रिया में जाने के लिए प्रेरणा व प्रशिक्षण भी यहीं से मिले। इसका संचालन महाविद्यालय व संगठन के कार्यकर्ता मिलकर कर सकते हैं। एक प्रमुख के साथ 6-7 लोगों की टोली इसका संचालन करे।
जिले की आवश्यकता, संसाधन, युवा शक्ति का स्वभाव,उनके शिक्षा व कौशल विकास की स्थिति, वहां की इंडस्ट्री आदि का सटीक अध्ययन व नियोजन करने में यह केंद्र एक बड़ी भूमिका निभा सकता है। इसलिए प्रत्येक जिले में एक रोजगार सृजन केंद्र की स्थापना करना और वहां से ही सब प्रकार की रोजगार सृजन की योजना करना, यह एक सफल प्रयोग के नाते से उभरकर आ रहा है।
भारत के सभी 739 जिलों पर इस प्रकार के केंद्र बनने व सफलता से चलने के बाद इसे ब्लॉक स्तर पर भी स्थापित करने का विचार किया जा सकता है। कुल मिलाकर एक तंत्र ऐसा अवश्य विकसित हो जो स्थानीय स्तर पर ही रोजगार व अर्थ सृजन की समस्या का समाधान कर सके।
3 युवा करें सोच में परिवर्तन:
स्वावलंबी भारत अभियानः पृष्ठभूमि
गत 23, 24, 25 सितंबर 2021 को स्वदेशी शोध संस्थान द्वारा ‘अर्थ-चिंतन 2021’ (तरंग माध्यम से) गोष्ठी का आयोजन हुआ। इस गोष्ठी में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह श्री मुकुंद जी, केंद्रीय मंत्री श्री नितिन गडकरी, श्री भूपेंद्र यादव, नीति आयोग के उपाध्यक्ष डॉ राजीव कुमार, नाबार्ड के चैयरमेन डॉ. जी.आर. चिन्ताला, मणिपाल ग्लोबल फाउंडेशन के चैयरमेन डॉ. टी.वी. मोहनदास पाई, अमूल के सी.एम.डी. श्री रूपेन्द्र सिंह सोढ़ी, प्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रो. नागेश्वर राव व प्रो. आशिमा गोयल, सॉफ्टवेयर कंपनी जोहो के श्रीधर वेम्बू, कनेरी मठ के स्वामी जी, पतंजलि आयुर्वेद के आचार्य बालकुष्णा, स्वदेशी जागरण मंच के प्रो. भगवती प्रकाश, सुंदरम जी, डॉ अश्वनी महाजन आदि ने सहभाग किया।
इसका प्रमुख विषय था - भारत को सन 2030 तक का आर्थिक लक्ष्य क्या रखना चाहिए और उन लक्ष्यों को प्राप्त करने का मार्ग क्या हो? सम्पूर्ण चिंतन मंथन अर्थ व रोजगार सृजन पर केंद्रित था! गोष्ठी में प्रमुख रूप से तीन विषयों के बारे में गहन चर्चा हुई। पहला, भारत को शून्य गरीबी रेखा (बीपीएल) तक कैसे लेकर आना, कितना शीघ्र यह कार्य हो सकता है? दूसरा, रोजगार सृजन, भारत की सबसे बड़ी आवश्यकता है, तो क्या 2030 तक भारत को पूर्ण रोजगारयुक्त देश बनाया जा सकता है? और स्वाभाविक रूप से तीसरा विषय था - भारत की आर्थिक संपन्नता का मापदंड, 2030 तक 10 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था हो सकता है (पर्यावरण संरक्षण करते हुए), जो अभी लगभग 3 ट्रिलियन डॉलर है।
स्वदेशी जागरण मंच ने इस प्रकार के विषयों पर अपने प्रारंभिक काल से ही चिंतन-मंथन किया है। वास्तव में तो गत 30 वर्षों के विभिन्न स्वदेशी अभियान, आंदोलन, जन-जागरण के कार्यक्रम हो या रचनात्मक कार्यक्रम, इन सबका अंतिम उद्देश्य एक ही है कि इस राष्ट्र को परमवैभव तक ले जाने हेतु जो आर्थिक स्वावलंबन आवश्यक है, उस मार्ग पर, कैसे आगे बढ़ा जाए। फिर उसे प्राप्त करने में, जो अवरोध हैं, (बहुराष्ट्रीय कंपनियां आदि) उन्हें कैसे दूर किया जाए। जो सहायक तत्व हैं उनको साथ लेकर कैसे आगे बढ़ा जाए।
वैसे इस विषय में राष्ट्र और स्वदेशी आंदोलन ठीक गति से बढ़ ही रहा था कि कोरोना महामारी ने विश्व और भारत में दस्तक दी। जिसके कारण कठोर बंद लगाने (स्वबाकवूद) अनिवार्य हो गए। किन्तु उसके कारण अर्थ और रोजगार का बड़ा नुकसान भी हुआ। जहां जीडीपी में ऐतिहासिक गिरावट आई वहाँ करोड़ों लोगों का रोजगार भी बुरी तरह प्रभावित हुआ। इन परिस्थितियों में स्वदेशी जागरण मंच ने देश को इस संकट से उभारने के लिए अनेक स्तरों पर चर्चा की, और अंततः उक्त तरंग संगोष्ठी का आयोजन किया।
इससे पूर्व भी फरवरी 2021 को आर्थिक समूह के छः संगठनों की कर्णावती में बैठक हुई। जिसमें यह निर्णय हुआ कि भारत को पूर्ण रोजगारयुक्त करने के लिए और अपने अन्य आर्थिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए एक व्यापक योजना व अभियान चलाना चाहिए।
अब रोजगार सृजन बहुत बड़ी व अलग प्रकार की चुनौती समाज के सामने है। सरकारें तो अपना प्रयत्न करेंगी ही, किंतु आर्थिक, सामाजिक व शैक्षिक संगठनों का भी स्वभाविक कर्त्तव्य है कि अपने छोटे-बड़े प्रयत्न प्रारंभ करें। इसलिए स्वावलंबन भारत अभियान के अंतर्गत यह प्रयत्न प्रारंभ हुए हैं।
अनके प्रकार के विचार, योजनाएं इस परिप्रेक्ष्य में आये हैं। जैसे काम चाहने वालों को, काम देने वालों से मिलवाने का भी एक बड़ा काम है और फिर सब प्रकार के छोटे-बड़े कामों को, स्वरोजगार को, खड़ा करवाना, उनको सहयोग करवाना, उनका साहस बढ़ाना, आवश्यक मार्गदर्शन करना भी कार्य है।
रोजगार सृजन केंद्रों का जिलाशः निर्माण, इसका तंत्र बनेगा। क्योंकि जिला ही वास्तव में रोजगार सृजन के लिए सबसे व्यवहारिक इकाई सिद्ध होगी। इसके अतिरिक्त भी समाज की, विशेषकर युवाओं की मानसिकता परिवर्तन हेतु एक बड़ा जन-जागरूकता अभियान भी समय की आवश्यकता लगती है।
रोजगार की समस्या की पृष्ठभूमि, उसके विभिन्न आयाम और उसके समाधान के दृष्टिकोण को स्पष्ट रूप से समझना, यह अत्यंत आवश्यक है। गत 4 वर्षों में इस समस्या के समाधान के लिए स्वदेशी के कार्यकर्ताओं ने अनेक प्रकार के अध्ययन, चर्चाएं, गोष्ठियां व संपर्क किए हैं। इस विषय के विभिन्न तज्ञों से चर्चा करने के पश्चात जो निष्कर्ष निकले उन्हें लिखित रूप में प्रस्तुत करना चाहिए, यह विषय जब आया तब इस लेखन सामग्री के निर्माण की प्रक्रिया शुरू हुई, जो इस लघु पुस्तिका के माध्यम से प्रस्तुत है। आशा है कि रोजगार सृजन में लगे हुए और इस समस्या के समाधान हेतु चिंतन-मंथन करने वालों को यह निष्कर्ष सामग्री आवश्यक व उपयोगी लगेगी।
कुछ के मन में यह विषय आ सकता है कि प्रस्तुत पुस्तिका का नाम ‘पुनः बनाएं भारत महान’ क्यों रखा? वास्तव में हमने अपने युवाओं को केवल रोजगार ही नहीं देना, केवल उनकी आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति ही नहीं करना, बल्कि उन्हें भारत की इस समस्या के समाधान का अंग बनाते हुए भारत को पुनः प्रतिष्ठित करने की प्रक्रिया में लगाना है। वे भारत माता के ही पुत्र-पुत्रियां हैं, इसलिए इस देश को पुनः महान बनाना, यह इस नई पीढ़ी का प्रथम कर्त्तव्य भी है। इस विषय के माध्यम से उन्हें अपने इस कर्त्तव्य का स्मरण भी दिलाना है, इसलिए रोजगार विषय की पुस्तिका का नाम यही रखना उचित लगा।
पुनः बनाएं भारत महान
भारत की अर्थ व रोजगार की स्थितिः एक सिंहावलोकन
किसी भी व्यक्ति अथवा समाज की प्राथमिक आवश्यकता होती है - उसकी आर्थिक आवश्यकताएं। मनुष्य जीवित रहने के लिए आवश्यक रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा और स्वास्थ्य तो चाहता ही है किंतु इसके अतिरिक्त भी कुछ चाहता है। उसकी इच्छा व आकांक्षा वैभव संपन्न, ऐश्वर्ययुक्त जीवन जीने की होती ही है। उसके लिए वह सब प्रकार के प्रयत्न करता है। वह अपने आर्थिक लक्ष्य तय करता है, फिर उन लक्ष्यों को प्राप्त करने की वह योजनाएं बनाता है। फिर उन योजनाओं को क्रियान्वित करने के लिए सब प्रकार के प्रयत्न करता है।
जो बात व्यक्ति पर लागू होती है, वही बात समाज और राष्ट्र पर भी लागू होती है। समाज व-राष्ट्र की भी इच्छा, आकांक्षाएं रहती हैं। भारत की इच्छा केवल आर्थिक संपन्न राष्ट्र नहीं, अपितु उसके बड़े आध्यात्मिक लक्ष्य भी हैं। किंतु लगभग 1000 वर्ष के स्वातंत्र्य संघर्ष के कारण से भारत अपनी आधारभूत सुविधाएं भी जुटाने में सक्षम नहीं रहा। कभी विश्व की सबसे संपन्न अर्थव्यवस्था रहने के उपरांत भी 1947 में भारत में अत्यंत दुर्बल व निराशाजनक परिदृश्य था। भारत की गरीबी रेखा 72 प्रतिशत तक पहुंची हुई थी, जिसका अर्थ है केवल 28 प्रतिशत लोग ही जीवनयापन करने की आवश्यक सुविधाओं का जुटान कर पा रहे थे। फिर निरक्षरता भी लगभग 75 प्रतिशत तक थी। भोजन की भी स्थिति अत्यंत दयनीय बनी हुई थी। यहां तक कि दो समय के भोजन हेतु अन्न भी देश नहीं उपजा पा रहा था। हमें गेहूं, चावल आयात करना पड़ता था। अमेरिका से उन्हीं की शर्तों पर पीएल-480 जैसे शर्मनाक समझौते करने पड़ रहे थे और 60 के दशक में तो तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी को जनता से अपील करनी पड़ी कि वे सोमवार रात्रि का भोजन त्यागें, ताकि जिनको एक समय पर भी भोजन नहीं मिल रहा, ऐसे लोगों को सहयोग किया जा सके।
इसका एक कारण यह था कि देश ने जो विकास का मॉडल अपनाया वह देश की अपेक्षा, इच्छा और वास्तविकता के अनुरूप नहीं था। यह समाजवादी अर्थव्यवस्था का मॉडल, जिसे महालनोविस मॉडल भी कहते थे, वास्तव में साम्यवाद से प्रेरित था। रूस की अर्थव्यवस्था इसका प्रेरक व आदर्श मॉडल था। किंतु हम सब जानते हैं कि 1989-1990 आते-आते रूस में ही यह मॉडल फेल हो गया, तो भारत में तो होना ही था। स्थिति इतनी गंभीर हुई कि भारत को 1991 में, प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के रहते, अपना लगभग 66 टन सोना अंतरराष्ट्रीय बैंकों में गिरवी रखना पड़ा।
किंतु 1991-92 में जब भारत ने अपनी विषम आर्थिक स्थिति से निकलने का प्रयास किया और अपनी नई आर्थिक नीतियां अपनानी शुरू की, तो वह भी भारत की प्रकृति, इच्छाओं, अपेक्षाओं के अनुकूल न होकर मार्केट इकोनामी का मॉडल था, पूंजीवादी मॉडल था, अमेरिका व यूरोप की अर्थव्यवस्थाओं का प्रतिमान ही जिसके प्रेरणा स्त्रोत थे। तब दत्तोपंत ठेंगड़ी जी ने, जिन्होंने इस देश को भारतीय मजदूर संघ और भारतीय किसान संघ जैसे बड़े संगठन दिए थे, उन्होंने ही इस प्रतिमान को चुनौती देते हुए स्वदेशी जागरण मंच का गठन किया। भारत की अर्थव्यवस्था उसकी प्रकृति व अपेक्षाओं के अनुरूप बने, बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मकड़जाल से सुरक्षित रहे, इसलिए उन्होंने विभिन्न प्रकार के आंदोलन व जनजागरण के कार्यक्रम लिये। आज उसी स्वदेशी जागरण मंच व सहयोगी अर्थ समूह के संगठनों ने रोजगार सृजन हेतु एक व्यापक पहल की है, नाम है-स्वावलंबी भारत अभियान।
विश्व की सबसे प्राचीन व समृद्ध अर्थव्यवस्था रहा है भारत
भारत विश्व का सबसे प्राचीन देश ही नहीं, बल्कि सर्वाधिक आर्थिक संपन्न देश भी रहा है। केवल रामायण और महाभारत काल से ही नहीं अपितु सिकंदर से लेकर सातवीं शताब्दी में प्रारंभ हुए विदेशी आक्रमण और बाद में तुर्क, मुगल, पठानों के बाद डच, पुर्तगाली, फ्रांसीसी व अंततोगत्वा अंग्रेजों के भारत पर आक्रमण करने का भी सबसे प्रमुख कारण भारत की आर्थिक संपन्नता ही रही है। भारत कितना आर्थिक संपन्न रहा है, इसका वर्णन विदेश मंत्री जयशंकर व सांसद शशि थरूर ने किया है। मूलतः अर्थशास्त्री उत्सा पटनायक ने अपने व्यापक शोध के पश्चात यह सिद्ध किया कि अंग्रेज अपने 200 वर्षों के काल में ही भारत से न्यूनतम 45 ट्रिलियन डॉलर मूल्य के सोना-चांदी व अन्य धन दौलत लूटकर ले गए। विश्व बैंक के एक अध्ययन, जिसका नेतृत्व प्रोफेसर एंगस मेडिसन ने किया है, संपूर्ण विश्व में चर्चा का विषय बना हुआ है। उन्होंने अपने प्रसिद्ध शोध ग्रंथ ‘मिलेनियम पर्सपेक्टिव, ए 2000 ईयर इकोनामिक हिस्ट्री ऑफ वर्ल्ड’ में स्पष्ट किया है कि प्रथम शताब्दी से लेकर 1500 सन् तक विश्व में जो भी उत्पादन होता था, उसका लगभग 32 प्रतिशत अकेले भारत से ही होता था।
लगातार विदेशी आक्रमणों व अंग्रेजों के भारत आगमन तथा लूट के कारण से एक सुदृढ़, विकेंद्रित, ग्रामोद्योग आधारित अर्थव्यवस्था लड़खड़ाने लगी, जो 1720 में 18 प्रतिशत और 1820 में 12 प्रतिशत और अंततोगत्वा 1947 में 2 प्रतिशत से नीचे की रह गई थी।
भारत की आर्थिक संपन्नता के साक्ष्य केवल इतिहास में ही नहीं, वर्तमान में भी उपलब्ध हो रहे हैं। जब त्रिवेंद्रम के तिरुअनंतपुरम मंदिर, जिसके सात तहखानों में आकूत संपदा होने का विषय आया, और सर्वोच्च न्यायालय के एक आदेश से उनमें से पांच खोले गए, तो उन पांच तहखानों में ही कोई सवा लाख करोड रुपए के हीरे चांदी मिले। यही नहीं, हमारे वर्तमान के अमृतसर के स्वर्ण मंदिर, दुर्गियाना मंदिर हो या फिर अन्य मंदिर, सब इस तथ्य के साक्षी हैं कि भारत कभी एक अत्यंत संपन्न व वैभवशाली अर्थव्यवस्था रहा है। यही नहीं, ॅवतसक ळवसक ब्वनदबपस की एक स्टडी के अनुसार भारतीय परिवारों में सर्वाधिक सोना उपलब्ध है जो विश्व की किसी भी अर्थव्यवस्था से अधिक है। इस स्टडी के अनुसार वर्ष 2019 में भारत में 24 से 25 हजार टन तक सोना परिवारों में ही उपलब्ध है, जिसकी बाजार कीमत 1.5 ट्रिलियन डालर है, जो भारत की जीडीपी का 45 प्रतिशत से अधिक है।
पूर्ण रोजगारयुक्त ही रहा है भारत
केवल आर्थिक रूप से संपन्न ही नहीं रहा, भारत, बल्कि उसकी यह विशेषता भी रही है कि वह पूर्ण रोजगारयुक्त रहा है। भारत की अर्थव्यवस्था का प्रकार ही ऐसा था कि प्रत्येक युवा स्वतःर्स्फूत और उत्पादन की प्रक्रिया में जाता ही था। इसलिए प्राचीन भारत में बेरोजगारी शब्द तक किसी ने नहीं सुना था। इसका अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है कि भारत की सबसे प्राचीन व समृद्ध भाषा संस्कृत में बेरोजगारी के लिए कोई पर्यायवाची शब्द तक नहीं है। ऐसा क्यों है?, क्योंकि प्राचीन भारत में कोई बेरोजगार हो सकता है, इसकी कल्पना तक भी नहीं थी। प्रत्येक व्यवसाय, उद्योग अथवा कृषि में लोग सहज स्वभाविक रूप से जाते ही थे। युवा अपने परिवार के अथवा समुदाय के व्यवसाय में छोटी आयु से प्रशिक्षण भी प्राप्त करता था व अपनी आजीविका भी अर्जित करने लग जाता था।
भारत पर 712 ईसवी में पहला बड़ा विदेशी आक्रमण मुहम्मद बिन कासिम ने किया, और उसके बाद एक के बाद एक आक्रांता, चाहे वे तुर्क हों, मुगल हों या पठान भारत की अथाह धनसंपदा को लूटने में लगे रहे। भारत लगातार संघर्ष करता रहा। किन्तु किसी अखिल भारतीय ठोस नेतृत्व के अभाव में विदेशियों को पूरी तरह परास्त नहीं कर पाया।
फिर 15वीं-16वीं शताब्दी से जो लगातार विदेशी आक्रांता आये, विशेषकर अंग्रेजों ने न केवल भारत से आर्थिक लूटपाट नृशंस तरीके अपनाकर की, अपितु उन्होंने भारत के अर्थतंत्र को, अर्थव्यवस्था के विभिन्न मार्गों को ही अस्त-व्यस्त व तहस-नहस कर दिया। अपना स्थाई शासन यहां स्थापित करने के लिए उन्होंने अंग्रेजी बोलना और ऐसे लोगों को नौकरी देने की प्रक्रिया को अपनाया व उसे प्रतिष्ठित किया। कृषि को दुर्लक्ष किया। कृषि आधारित उद्योगों को तहस-नहस किया। जिसका परिणाम यह हुआ कि एक अत्यंत संपन्न व पूर्ण रोजगारयुक्त अर्थव्यवस्था-भारत, 1947 में आर्थिक रूप से विपन्न और बेरोजगारी से बुरी तरह पीड़ित, प्रताड़ित देश बनकर रह गया। जहां अनपढ़ता, अव्यवस्था व सब प्रकार की न्यूनताएँ ही शेष रह गईं। हमारे यहां पर कहावत चलती थी, ‘उत्तम खेती, मध्यम व्यापार, निम्न चाकरी’। किंतु अंग्रेजों ने इस प्रक्रिया को ठीक उलट दिया और उत्तम नौकरी, मध्यम व्यापार, निम्न खेती की अवधारणा हमारे युवाओं में और समाज में ऐसे घर कर गई कि आज भी वह मानसिकता भारतीय समाज को लगातार कठिनाई में डाल रही है, आर्थिक परेशानी व बेरोजगारी का कारण बनी हुई है।
स्वतंत्रता के बाद भी स्वावलंबन नहीं
1947 में जब भारत स्वतंत्र हुआ तो भारत ने वाम-विचार प्रेरित रूसी अर्थव्यवस्था के मॉडल को अपनाया। यह मॉडल जिसे भारत में महालनोविस मॉडल भी कहा जाता है वह लगभग 1947 से लेकर 1990 तक चला। किंतु इस सारे कालखंड में सरकार नियंत्रित बड़ी-बड़ी परियोजनाएं व उद्योग ही अर्थव्यवस्था का आधार रहे। भारत जैसे देश में यह विकास का मॉडल बिल्कुल भी उपयुक्त नहीं था और उसका परिणाम यह हुआ कि छोटे रेडियो के लाइसेंस से लेकर रेडियो बनाने तक के लाइसेंस लेने पड़ते थे, जिसे सामान्य भाषा में कोटा परमिट राज भी कहा जाता है। इस सबका परिणाम यह हुआ कि भारत में न किसी प्रकार का कोई विकास हुआ, न अर्थ का सृजन और न ही रोजगार निर्माण। केवल और केवल गरीबी, भुखमरी और बेरोजगारी ही बढ़ती रही। रुपए का अवमूल्यन हुआ। जो रुपया 1917 में 13 डालर के बराबर था व 1947-48 में प्रति डॉलर 3.30 रू. था, वह 1990 आते-आते 18 रू. तक और 1991-92 में तो प्रति डॉलर 34 रू. पर पहुंच गया, जो आज लूढकता हुआ 73-74 रू. प्रति डॉलर पर आया हुआ है। इस युग में भारत की आर्थिक स्थिति का उपहास करते हुए अनेक वैश्विक अर्थशास्त्री इस विकास दर को ‘हिंदू ग्रोथ रेट’ भी कहते रहे। हां! 1991 के पश्चात से जो भारत में ग्लोबलाइजेशन, प्राइवेटाइजेशन व लिबरलाइजेशन सिद्धांत आधारित नई आर्थिक नीतियां बनाई तथा वैश्विक संस्थाओं व अर्थव्यवस्था से अपने को जोड़ा, उसका एक परिणाम यह तो अवश्य हुआ कि भारत आर्थिक मंदी में से बाहर निकल आया। विकास दर (जीडीपी) बढ़ी। सड़कें, रेल, वायुयान बढ़े, भौतिक विकास हुआ।
21वीं शताब्दी में आर्थिक महाशक्ति की ओर भारत
आज भारत में गरीबी रेखा से नीचे रह रहे लोगों का प्रतिशत जो 1947 में 71-72 प्रतिशत तक था, अब लगभग 20.8 रह गया है जो कि अभिनंदनीय है। परमिट कोटा लाइसेंस राज अब नहीं है। इसके कारण से प्रतिस्पर्धा का युग है। फिर भारत की युवा शक्ति व अंतर्निहित प्रतिभा के कारण से भारत ने तेजी से अपने आर्थिक पग, गत 30 वर्षों में भरने शुरू किए और आज परिणाम है कि भारत लगभग 3 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बन चुका है। आज भारत की विकास दर लगभग 9.5 प्रतिशत है जो कि विश्व में सर्वाधिक है।
आज भारत में प्रतिदिन 36 किलोमीटर सड़कें बन रही हैं। देश में एक्सप्रेस-वे और विश्वस्तरीय सड़कें, यह एक उपलब्धि है। यही नहीं भारत ने गैर पेट्रोलियम, बिजली उत्पादन में तब विश्व रिकॉर्ड स्थापित किया, जब नॉन फॉसिल फ्यूल का 40 प्रतिशत उत्पादन, जो 2030 तक करना था, उसे 2021 में ही प्राप्त कर लिया है। भारत का प्रत्येक गांव बिजलीयुक्त हो चुका है। ईंधन मुक्त भोजन बनाने की प्रक्रिया (गैस सिलेंडर) 80 प्रतिशत घरों में पहुंच गई है। शौचालय 85 प्रतिशत घरों में हो गए हैं। गत 7 वर्षों में ही 44 करोड़ बैंक खाते जीरो बैलेंस वाले खोले गए। भारत का कृषि निर्यात 2 लाख करोड़ रूपये पार कर गया है। आज विश्व का 40 प्रतिशत चावल निर्यात अकेले भारत से होता है। गेंहू उत्पादन में भी भारत दूसरे क्रमांक पर है। दुग्ध उत्पादन में तो किसी भी देश से आगे है भारत। भारत को विश्व की फार्मेसी भी कहा जाने लगा है, क्योंकि दवाइयां विशेषकर जेनेरिक औषधियों का 20 प्रतिशत निर्माण भारत में ही हो रहा है। कोरोना संकट से भारत जितनी कुशलता से निपटा है उसकी चर्चा सारे विश्व में हो रही है। विश्व की दो तिहाई वेक्सीन भारत में बनती है। कोरोना की 10 करोड़ वेक्सीन लगाने में अमेरिका ने 38 दिन लिए, चीन ने 42, किन्तु भारत ने 34 दिन। किसी एक दिन का रिकॉर्ड भी भारत के नाम है, जब प्रधानमंत्री जी के जन्मदिन पर 2.65 करोड़ वेक्सीन एक ही दिन में लगाई गईं। इतनी तो विश्व के 110 देशों की आबादी भी नहीं।
इस सारे का आशय यह है कि भारत इस समय अपनी मजबूत स्थिती के साथ आर्थिक शक्ति बनने की और अग्रसर है, किंतु बेरोजगारी का एक यक्ष प्रश्न उसके सामने अभी भी है।
भारत की वर्तमान की सर्वोच्च आवश्यकता है रोजगार
अभी-अभी उत्तर प्रदेश चुनावों के लिए हुए सर्वेक्षण में एबीपी न्यूज़ में एक बड़े सर्वेक्षण के आधार पर यह बताया है कि वहां के लोगों को चुनाव के लिए सबसे पहला आवश्यक मुद्दा लगता है रोजगार का। उससे पूर्व इंडिया टुडे द्वारा कराया गया सर्वे भी यही बता रहा था, यही नहीं किसी भी एजेंसी द्वारा किए गए सर्वेक्षण से यह स्पष्ट है कि भारत के युवाओं की ही नहीं संपूर्ण समाज की अपेक्षा है भारत शीघ्र ही रोजगार युक्त हो। आप कहीं पर भी चले जाइए लोग रोजगार के बारे में बात करते मिल जाएंगे। गांव देहात हो अथवा किसी बड़े नगर का महाविद्यालय या विश्वविद्यालय इस बात को सभी महसूस करते हैं कि यह सबसे बड़ी चुनौती है, जिससे भारत को अब पार पाना ही होगा। कुछ अर्थशास्त्रियों का कहना है कि भारत के अनेक हिस्सों में लेबर मिलती ही नहीं, इंडस्ट्री को। अल्प मात्रा में यह सत्य भी है, देश के कुछ हिस्सों में या इंडस्ट्री समूह (क्लस्टर) में यह बात सत्य हो सकती है, किंतु संपूर्ण देश के नाते से तो बेरोजगारी बड़ी चुनौती है ही।
आज स्नातक, स्नातकोत्तर या इंजीनियरिंग करने के बाद भी मुश्किल से 12-15 हजार तक की नौकरी मिलती है। राजनीतिक दलों के घोषणापत्र हों, एनएसएसओ के सर्वेक्षण हो या सीएमआईई का हर 15 दिन में आता हुआ (डाटा) आंकड़े, भारत में इस समय पर चरम पर पहुंची बेरोजगारी को दर्शा रहे हैं। नये सर्वेक्षण में स्नातक व ऊपर के युवाओं में 19 प्रतिशत तक बेरोजगारी हैं।
कोरोना महामारी से बेरोजगारी और बढ़ गई
कोरोना महामारी के कारण से यह समस्या और भी विकराल हुई है। यद्यपि यह सत्य है कि गत छह-सात महीनों में भारत ने आर्थिक दृष्टि से काफी प्रगति कर ली है और नए रोजगार भी सृजन हुए हैं, किंतु भारत के आकार प्रकार को देखते हुए यह ऊंट के मुंह में जीरा ही है। इसलिए भारत के सामान्य जन से लेकर नीति निर्माताओं को, विद्यार्थियों से लेकर शोध करने वाले प्रबंधकों को, इंडस्ट्री से लेकर किसानों तक को, इस विषय में चिंतन मंथन करना अनिवार्य है कि कैसे इस बेरोजगारी की समस्या से बाहर आया जाए। यद्यपि बेरोजगारी वैश्विक है। यूरोप, अमेरिका और चीन तक में यह अलग-अलग मात्रा में रहती है किंतु भारत में इस समय पर कुल कार्य बल (वर्क फोर्स) का लगभग 7 प्रतिशत का बेरोजगार होना, यह भयावह दृश्य उपस्थित करता है। स्नातक, परास्नातक में बेरोजगारी प्रतिशत काफी अधिक रहता है।
बेरोजगारी के विभिन्न कारण
भारत में बेरोजगारी के अनेक कारण चिन्हित हुए हैं। विविध अर्थशास्त्री अलग अलग निष्कर्षों पर पहुंचे हैं। 1. इनमें सबसे पहला तो भारत के आर्थिक प्रतिमान का ही है। यह पूंजीवादी मॉडल बेरोजगारी निर्माण करता ही है। क्योंकि इंडस्ट्री का प्रमुख उद्देश्य लाभ कमाना रहता है, रोजगार निर्माण करना नहीं। यह व्यवस्था ही पूंजी निर्माण वादी है। इसके कारण से यूरोप, अमेरिका और चीन जैसे देशों में भी बेरोजगारी है, तो भारत अपवाद कैसे होगा?
अतः भारत को रोजगार परक आर्थिक नीतियों का अवलंबन करना होगा। बहुराष्ट्रीय कंपनियां, बड़ी इंडस्ट्री व तेजी से बढ़ती टेक्नोलॉजी के कारण रोजगार के स्वरूप तेजी से बदलते रहते हैं। विशाल देश का असंगठित क्षेत्र इतनी तेज़ी से नहीं बदल पाता।
भारत की अर्थ व रोजगार की स्थितिः एक सिंहावलोकन
किसी भी व्यक्ति अथवा समाज की प्राथमिक आवश्यकता होती है - उसकी आर्थिक आवश्यकताएं। मनुष्य जीवित रहने के लिए आवश्यक रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा और स्वास्थ्य तो चाहता ही है किंतु इसके अतिरिक्त भी कुछ चाहता है। उसकी इच्छा व आकांक्षा वैभव संपन्न, ऐश्वर्ययुक्त जीवन जीने की होती ही है। उसके लिए वह सब प्रकार के प्रयत्न करता है। वह अपने आर्थिक लक्ष्य तय करता है, फिर उन लक्ष्यों को प्राप्त करने की वह योजनाएं बनाता है। फिर उन योजनाओं को क्रियान्वित करने के लिए सब प्रकार के प्रयत्न करता है।
जो बात व्यक्ति पर लागू होती है, वही बात समाज और राष्ट्र पर भी लागू होती है। समाज व-राष्ट्र की भी इच्छा, आकांक्षाएं रहती हैं। भारत की इच्छा केवल आर्थिक संपन्न राष्ट्र नहीं, अपितु उसके बड़े आध्यात्मिक लक्ष्य भी हैं। किंतु लगभग 1000 वर्ष के स्वातंत्र्य संघर्ष के कारण से भारत अपनी आधारभूत सुविधाएं भी जुटाने में सक्षम नहीं रहा। कभी विश्व की सबसे संपन्न अर्थव्यवस्था रहने के उपरांत भी 1947 में भारत में अत्यंत दुर्बल व निराशाजनक परिदृश्य था। भारत की गरीबी रेखा 72 प्रतिशत तक पहुंची हुई थी, जिसका अर्थ है केवल 28 प्रतिशत लोग ही जीवनयापन करने की आवश्यक सुविधाओं का जुटान कर पा रहे थे। फिर निरक्षरता भी लगभग 75 प्रतिशत तक थी। भोजन की भी स्थिति अत्यंत दयनीय बनी हुई थी। यहां तक कि दो समय के भोजन हेतु अन्न भी देश नहीं उपजा पा रहा था। हमें गेहूं, चावल आयात करना पड़ता था। अमेरिका से उन्हीं की शर्तों पर पीएल-480 जैसे शर्मनाक समझौते करने पड़ रहे थे और 60 के दशक में तो तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी को जनता से अपील करनी पड़ी कि वे सोमवार रात्रि का भोजन त्यागें, ताकि जिनको एक समय पर भी भोजन नहीं मिल रहा, ऐसे लोगों को सहयोग किया जा सके।
इसका एक कारण यह था कि देश ने जो विकास का मॉडल अपनाया वह देश की अपेक्षा, इच्छा और वास्तविकता के अनुरूप नहीं था। यह समाजवादी अर्थव्यवस्था का मॉडल, जिसे महालनोविस मॉडल भी कहते थे, वास्तव में साम्यवाद से प्रेरित था। रूस की अर्थव्यवस्था इसका प्रेरक व आदर्श मॉडल था। किंतु हम सब जानते हैं कि 1989-1990 आते-आते रूस में ही यह मॉडल फेल हो गया, तो भारत में तो होना ही था। स्थिति इतनी गंभीर हुई कि भारत को 1991 में, प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के रहते, अपना लगभग 66 टन सोना अंतरराष्ट्रीय बैंकों में गिरवी रखना पड़ा।
किंतु 1991-92 में जब भारत ने अपनी विषम आर्थिक स्थिति से निकलने का प्रयास किया और अपनी नई आर्थिक नीतियां अपनानी शुरू की, तो वह भी भारत की प्रकृति, इच्छाओं, अपेक्षाओं के अनुकूल न होकर मार्केट इकोनामी का मॉडल था, पूंजीवादी मॉडल था, अमेरिका व यूरोप की अर्थव्यवस्थाओं का प्रतिमान ही जिसके प्रेरणा स्त्रोत थे। तब दत्तोपंत ठेंगड़ी जी ने, जिन्होंने इस देश को भारतीय मजदूर संघ और भारतीय किसान संघ जैसे बड़े संगठन दिए थे, उन्होंने ही इस प्रतिमान को चुनौती देते हुए स्वदेशी जागरण मंच का गठन किया। भारत की अर्थव्यवस्था उसकी प्रकृति व अपेक्षाओं के अनुरूप बने, बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मकड़जाल से सुरक्षित रहे, इसलिए उन्होंने विभिन्न प्रकार के आंदोलन व जनजागरण के कार्यक्रम लिये। आज उसी स्वदेशी जागरण मंच व सहयोगी अर्थ समूह के संगठनों ने रोजगार सृजन हेतु एक व्यापक पहल की है, नाम है-स्वावलंबी भारत अभियान।
विश्व की सबसे प्राचीन व समृद्ध अर्थव्यवस्था रहा है भारत
भारत विश्व का सबसे प्राचीन देश ही नहीं, बल्कि सर्वाधिक आर्थिक संपन्न देश भी रहा है। केवल रामायण और महाभारत काल से ही नहीं अपितु सिकंदर से लेकर सातवीं शताब्दी में प्रारंभ हुए विदेशी आक्रमण और बाद में तुर्क, मुगल, पठानों के बाद डच, पुर्तगाली, फ्रांसीसी व अंततोगत्वा अंग्रेजों के भारत पर आक्रमण करने का भी सबसे प्रमुख कारण भारत की आर्थिक संपन्नता ही रही है। भारत कितना आर्थिक संपन्न रहा है, इसका वर्णन विदेश मंत्री जयशंकर व सांसद शशि थरूर ने किया है। मूलतः अर्थशास्त्री उत्सा पटनायक ने अपने व्यापक शोध के पश्चात यह सिद्ध किया कि अंग्रेज अपने 200 वर्षों के काल में ही भारत से न्यूनतम 45 ट्रिलियन डॉलर मूल्य के सोना-चांदी व अन्य धन दौलत लूटकर ले गए। विश्व बैंक के एक अध्ययन, जिसका नेतृत्व प्रोफेसर एंगस मेडिसन ने किया है, संपूर्ण विश्व में चर्चा का विषय बना हुआ है। उन्होंने अपने प्रसिद्ध शोध ग्रंथ ‘मिलेनियम पर्सपेक्टिव, ए 2000 ईयर इकोनामिक हिस्ट्री ऑफ वर्ल्ड’ में स्पष्ट किया है कि प्रथम शताब्दी से लेकर 1500 सन् तक विश्व में जो भी उत्पादन होता था, उसका लगभग 32 प्रतिशत अकेले भारत से ही होता था।
लगातार विदेशी आक्रमणों व अंग्रेजों के भारत आगमन तथा लूट के कारण से एक सुदृढ़, विकेंद्रित, ग्रामोद्योग आधारित अर्थव्यवस्था लड़खड़ाने लगी, जो 1720 में 18 प्रतिशत और 1820 में 12 प्रतिशत और अंततोगत्वा 1947 में 2 प्रतिशत से नीचे की रह गई थी।
भारत की आर्थिक संपन्नता के साक्ष्य केवल इतिहास में ही नहीं, वर्तमान में भी उपलब्ध हो रहे हैं। जब त्रिवेंद्रम के तिरुअनंतपुरम मंदिर, जिसके सात तहखानों में आकूत संपदा होने का विषय आया, और सर्वोच्च न्यायालय के एक आदेश से उनमें से पांच खोले गए, तो उन पांच तहखानों में ही कोई सवा लाख करोड रुपए के हीरे चांदी मिले। यही नहीं, हमारे वर्तमान के अमृतसर के स्वर्ण मंदिर, दुर्गियाना मंदिर हो या फिर अन्य मंदिर, सब इस तथ्य के साक्षी हैं कि भारत कभी एक अत्यंत संपन्न व वैभवशाली अर्थव्यवस्था रहा है। यही नहीं, ॅवतसक ळवसक ब्वनदबपस की एक स्टडी के अनुसार भारतीय परिवारों में सर्वाधिक सोना उपलब्ध है जो विश्व की किसी भी अर्थव्यवस्था से अधिक है। इस स्टडी के अनुसार वर्ष 2019 में भारत में 24 से 25 हजार टन तक सोना परिवारों में ही उपलब्ध है, जिसकी बाजार कीमत 1.5 ट्रिलियन डालर है, जो भारत की जीडीपी का 45 प्रतिशत से अधिक है।
पूर्ण रोजगारयुक्त ही रहा है भारत
केवल आर्थिक रूप से संपन्न ही नहीं रहा, भारत, बल्कि उसकी यह विशेषता भी रही है कि वह पूर्ण रोजगारयुक्त रहा है। भारत की अर्थव्यवस्था का प्रकार ही ऐसा था कि प्रत्येक युवा स्वतःर्स्फूत और उत्पादन की प्रक्रिया में जाता ही था। इसलिए प्राचीन भारत में बेरोजगारी शब्द तक किसी ने नहीं सुना था। इसका अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है कि भारत की सबसे प्राचीन व समृद्ध भाषा संस्कृत में बेरोजगारी के लिए कोई पर्यायवाची शब्द तक नहीं है। ऐसा क्यों है?, क्योंकि प्राचीन भारत में कोई बेरोजगार हो सकता है, इसकी कल्पना तक भी नहीं थी। प्रत्येक व्यवसाय, उद्योग अथवा कृषि में लोग सहज स्वभाविक रूप से जाते ही थे। युवा अपने परिवार के अथवा समुदाय के व्यवसाय में छोटी आयु से प्रशिक्षण भी प्राप्त करता था व अपनी आजीविका भी अर्जित करने लग जाता था।
भारत पर 712 ईसवी में पहला बड़ा विदेशी आक्रमण मुहम्मद बिन कासिम ने किया, और उसके बाद एक के बाद एक आक्रांता, चाहे वे तुर्क हों, मुगल हों या पठान भारत की अथाह धनसंपदा को लूटने में लगे रहे। भारत लगातार संघर्ष करता रहा। किन्तु किसी अखिल भारतीय ठोस नेतृत्व के अभाव में विदेशियों को पूरी तरह परास्त नहीं कर पाया।
फिर 15वीं-16वीं शताब्दी से जो लगातार विदेशी आक्रांता आये, विशेषकर अंग्रेजों ने न केवल भारत से आर्थिक लूटपाट नृशंस तरीके अपनाकर की, अपितु उन्होंने भारत के अर्थतंत्र को, अर्थव्यवस्था के विभिन्न मार्गों को ही अस्त-व्यस्त व तहस-नहस कर दिया। अपना स्थाई शासन यहां स्थापित करने के लिए उन्होंने अंग्रेजी बोलना और ऐसे लोगों को नौकरी देने की प्रक्रिया को अपनाया व उसे प्रतिष्ठित किया। कृषि को दुर्लक्ष किया। कृषि आधारित उद्योगों को तहस-नहस किया। जिसका परिणाम यह हुआ कि एक अत्यंत संपन्न व पूर्ण रोजगारयुक्त अर्थव्यवस्था-भारत, 1947 में आर्थिक रूप से विपन्न और बेरोजगारी से बुरी तरह पीड़ित, प्रताड़ित देश बनकर रह गया। जहां अनपढ़ता, अव्यवस्था व सब प्रकार की न्यूनताएँ ही शेष रह गईं। हमारे यहां पर कहावत चलती थी, ‘उत्तम खेती, मध्यम व्यापार, निम्न चाकरी’। किंतु अंग्रेजों ने इस प्रक्रिया को ठीक उलट दिया और उत्तम नौकरी, मध्यम व्यापार, निम्न खेती की अवधारणा हमारे युवाओं में और समाज में ऐसे घर कर गई कि आज भी वह मानसिकता भारतीय समाज को लगातार कठिनाई में डाल रही है, आर्थिक परेशानी व बेरोजगारी का कारण बनी हुई है।
स्वतंत्रता के बाद भी स्वावलंबन नहीं
1947 में जब भारत स्वतंत्र हुआ तो भारत ने वाम-विचार प्रेरित रूसी अर्थव्यवस्था के मॉडल को अपनाया। यह मॉडल जिसे भारत में महालनोविस मॉडल भी कहा जाता है वह लगभग 1947 से लेकर 1990 तक चला। किंतु इस सारे कालखंड में सरकार नियंत्रित बड़ी-बड़ी परियोजनाएं व उद्योग ही अर्थव्यवस्था का आधार रहे। भारत जैसे देश में यह विकास का मॉडल बिल्कुल भी उपयुक्त नहीं था और उसका परिणाम यह हुआ कि छोटे रेडियो के लाइसेंस से लेकर रेडियो बनाने तक के लाइसेंस लेने पड़ते थे, जिसे सामान्य भाषा में कोटा परमिट राज भी कहा जाता है। इस सबका परिणाम यह हुआ कि भारत में न किसी प्रकार का कोई विकास हुआ, न अर्थ का सृजन और न ही रोजगार निर्माण। केवल और केवल गरीबी, भुखमरी और बेरोजगारी ही बढ़ती रही। रुपए का अवमूल्यन हुआ। जो रुपया 1917 में 13 डालर के बराबर था व 1947-48 में प्रति डॉलर 3.30 रू. था, वह 1990 आते-आते 18 रू. तक और 1991-92 में तो प्रति डॉलर 34 रू. पर पहुंच गया, जो आज लूढकता हुआ 73-74 रू. प्रति डॉलर पर आया हुआ है। इस युग में भारत की आर्थिक स्थिति का उपहास करते हुए अनेक वैश्विक अर्थशास्त्री इस विकास दर को ‘हिंदू ग्रोथ रेट’ भी कहते रहे। हां! 1991 के पश्चात से जो भारत में ग्लोबलाइजेशन, प्राइवेटाइजेशन व लिबरलाइजेशन सिद्धांत आधारित नई आर्थिक नीतियां बनाई तथा वैश्विक संस्थाओं व अर्थव्यवस्था से अपने को जोड़ा, उसका एक परिणाम यह तो अवश्य हुआ कि भारत आर्थिक मंदी में से बाहर निकल आया। विकास दर (जीडीपी) बढ़ी। सड़कें, रेल, वायुयान बढ़े, भौतिक विकास हुआ।
21वीं शताब्दी में आर्थिक महाशक्ति की ओर भारत
आज भारत में गरीबी रेखा से नीचे रह रहे लोगों का प्रतिशत जो 1947 में 71-72 प्रतिशत तक था, अब लगभग 20.8 रह गया है जो कि अभिनंदनीय है। परमिट कोटा लाइसेंस राज अब नहीं है। इसके कारण से प्रतिस्पर्धा का युग है। फिर भारत की युवा शक्ति व अंतर्निहित प्रतिभा के कारण से भारत ने तेजी से अपने आर्थिक पग, गत 30 वर्षों में भरने शुरू किए और आज परिणाम है कि भारत लगभग 3 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बन चुका है। आज भारत की विकास दर लगभग 9.5 प्रतिशत है जो कि विश्व में सर्वाधिक है।
आज भारत में प्रतिदिन 36 किलोमीटर सड़कें बन रही हैं। देश में एक्सप्रेस-वे और विश्वस्तरीय सड़कें, यह एक उपलब्धि है। यही नहीं भारत ने गैर पेट्रोलियम, बिजली उत्पादन में तब विश्व रिकॉर्ड स्थापित किया, जब नॉन फॉसिल फ्यूल का 40 प्रतिशत उत्पादन, जो 2030 तक करना था, उसे 2021 में ही प्राप्त कर लिया है। भारत का प्रत्येक गांव बिजलीयुक्त हो चुका है। ईंधन मुक्त भोजन बनाने की प्रक्रिया (गैस सिलेंडर) 80 प्रतिशत घरों में पहुंच गई है। शौचालय 85 प्रतिशत घरों में हो गए हैं। गत 7 वर्षों में ही 44 करोड़ बैंक खाते जीरो बैलेंस वाले खोले गए। भारत का कृषि निर्यात 2 लाख करोड़ रूपये पार कर गया है। आज विश्व का 40 प्रतिशत चावल निर्यात अकेले भारत से होता है। गेंहू उत्पादन में भी भारत दूसरे क्रमांक पर है। दुग्ध उत्पादन में तो किसी भी देश से आगे है भारत। भारत को विश्व की फार्मेसी भी कहा जाने लगा है, क्योंकि दवाइयां विशेषकर जेनेरिक औषधियों का 20 प्रतिशत निर्माण भारत में ही हो रहा है। कोरोना संकट से भारत जितनी कुशलता से निपटा है उसकी चर्चा सारे विश्व में हो रही है। विश्व की दो तिहाई वेक्सीन भारत में बनती है। कोरोना की 10 करोड़ वेक्सीन लगाने में अमेरिका ने 38 दिन लिए, चीन ने 42, किन्तु भारत ने 34 दिन। किसी एक दिन का रिकॉर्ड भी भारत के नाम है, जब प्रधानमंत्री जी के जन्मदिन पर 2.65 करोड़ वेक्सीन एक ही दिन में लगाई गईं। इतनी तो विश्व के 110 देशों की आबादी भी नहीं।
इस सारे का आशय यह है कि भारत इस समय अपनी मजबूत स्थिती के साथ आर्थिक शक्ति बनने की और अग्रसर है, किंतु बेरोजगारी का एक यक्ष प्रश्न उसके सामने अभी भी है।
भारत की वर्तमान की सर्वोच्च आवश्यकता है रोजगार
अभी-अभी उत्तर प्रदेश चुनावों के लिए हुए सर्वेक्षण में एबीपी न्यूज़ में एक बड़े सर्वेक्षण के आधार पर यह बताया है कि वहां के लोगों को चुनाव के लिए सबसे पहला आवश्यक मुद्दा लगता है रोजगार का। उससे पूर्व इंडिया टुडे द्वारा कराया गया सर्वे भी यही बता रहा था, यही नहीं किसी भी एजेंसी द्वारा किए गए सर्वेक्षण से यह स्पष्ट है कि भारत के युवाओं की ही नहीं संपूर्ण समाज की अपेक्षा है भारत शीघ्र ही रोजगार युक्त हो। आप कहीं पर भी चले जाइए लोग रोजगार के बारे में बात करते मिल जाएंगे। गांव देहात हो अथवा किसी बड़े नगर का महाविद्यालय या विश्वविद्यालय इस बात को सभी महसूस करते हैं कि यह सबसे बड़ी चुनौती है, जिससे भारत को अब पार पाना ही होगा। कुछ अर्थशास्त्रियों का कहना है कि भारत के अनेक हिस्सों में लेबर मिलती ही नहीं, इंडस्ट्री को। अल्प मात्रा में यह सत्य भी है, देश के कुछ हिस्सों में या इंडस्ट्री समूह (क्लस्टर) में यह बात सत्य हो सकती है, किंतु संपूर्ण देश के नाते से तो बेरोजगारी बड़ी चुनौती है ही।
आज स्नातक, स्नातकोत्तर या इंजीनियरिंग करने के बाद भी मुश्किल से 12-15 हजार तक की नौकरी मिलती है। राजनीतिक दलों के घोषणापत्र हों, एनएसएसओ के सर्वेक्षण हो या सीएमआईई का हर 15 दिन में आता हुआ (डाटा) आंकड़े, भारत में इस समय पर चरम पर पहुंची बेरोजगारी को दर्शा रहे हैं। नये सर्वेक्षण में स्नातक व ऊपर के युवाओं में 19 प्रतिशत तक बेरोजगारी हैं।
कोरोना महामारी से बेरोजगारी और बढ़ गई
कोरोना महामारी के कारण से यह समस्या और भी विकराल हुई है। यद्यपि यह सत्य है कि गत छह-सात महीनों में भारत ने आर्थिक दृष्टि से काफी प्रगति कर ली है और नए रोजगार भी सृजन हुए हैं, किंतु भारत के आकार प्रकार को देखते हुए यह ऊंट के मुंह में जीरा ही है। इसलिए भारत के सामान्य जन से लेकर नीति निर्माताओं को, विद्यार्थियों से लेकर शोध करने वाले प्रबंधकों को, इंडस्ट्री से लेकर किसानों तक को, इस विषय में चिंतन मंथन करना अनिवार्य है कि कैसे इस बेरोजगारी की समस्या से बाहर आया जाए। यद्यपि बेरोजगारी वैश्विक है। यूरोप, अमेरिका और चीन तक में यह अलग-अलग मात्रा में रहती है किंतु भारत में इस समय पर कुल कार्य बल (वर्क फोर्स) का लगभग 7 प्रतिशत का बेरोजगार होना, यह भयावह दृश्य उपस्थित करता है। स्नातक, परास्नातक में बेरोजगारी प्रतिशत काफी अधिक रहता है।
बेरोजगारी के विभिन्न कारण
भारत में बेरोजगारी के अनेक कारण चिन्हित हुए हैं। विविध अर्थशास्त्री अलग अलग निष्कर्षों पर पहुंचे हैं। 1. इनमें सबसे पहला तो भारत के आर्थिक प्रतिमान का ही है। यह पूंजीवादी मॉडल बेरोजगारी निर्माण करता ही है। क्योंकि इंडस्ट्री का प्रमुख उद्देश्य लाभ कमाना रहता है, रोजगार निर्माण करना नहीं। यह व्यवस्था ही पूंजी निर्माण वादी है। इसके कारण से यूरोप, अमेरिका और चीन जैसे देशों में भी बेरोजगारी है, तो भारत अपवाद कैसे होगा?
अतः भारत को रोजगार परक आर्थिक नीतियों का अवलंबन करना होगा। बहुराष्ट्रीय कंपनियां, बड़ी इंडस्ट्री व तेजी से बढ़ती टेक्नोलॉजी के कारण रोजगार के स्वरूप तेजी से बदलते रहते हैं। विशाल देश का असंगठित क्षेत्र इतनी तेज़ी से नहीं बदल पाता।
2. दूसरा प्रमुख कारण है विभिन्न अंतरराष्ट्रीय समझौते, विशेषकर मुक्त व्यापार समझौते। वे लघु एवं मध्यम श्रेणी के उद्योगों व रोजगार को हतोत्साहित करते हैं। अभी तक भारत ने जितने भी प्रमुख मुक्त व्यापार समझौते किए हैं, चाहे दक्षिण पूर्वी देशों से हो, कोरिया से या जापान से, उन सबके कारण से न केवल भारत ने अरबों डालर का घाटा खाया है, बल्कि मैन्युफैक्चरिंग के उस देश में स्थानांतरित होने से भारत में बेरोजगारी भी बड़ी है।
3. इसके अतिरिक्त चीन एक बड़ी चुनौती है। चीन के साथ हमारा व्यापार घाटा 45 बिलियन डालर के आसपास का है। भारत के बाजार चीन से बनी वस्तुओं से भरे रहते हैं। इसके कारण से निर्माण इकाइयां यहां चलती नहीं तो बेरोजगारी होना स्वभाविक है। यहां तक की जापान, साउथ ईस्ट एशियन कंट्रीज कोरिया से हुए मुक्त व्यापार समझौते भी भारत की आर्थिक हानि व बेरोजगारी बढ़ाने वाले ही सिद्ध हो रहे हैं। नवंबर 2019 में रीजनल कंप्रिहेंसिव इकोनामिक पार्टनरशिप समझौते का न होना यह भारत के लिए बहुत बड़ी राहत की बात हुई है। अन्यथा भारत के बाजार चीनी माल से पूरी तरह भर जाते और लघु एवं कुटीर उद्योगों को बहुत बड़ा नुकसान उठाना पड़ता, बेरोजगारी तो बढ़ती ही बढ़ती।
फिर अनेक सरकारों व राजनैतिक दलों द्वारा चुनावों से पूर्व मुफ्त तोहफ़ों की घोषणा करना, पूर्व में अर्जित किए हुए धन को बांटना भी बेरोजगारी बढ़ाता है। पैसे का उपयोग मूलभूत आवश्यकताओं व सुविधाओं का सृजन कर रोजगार के अवसर बढ़ाने हेतु करना चाहिए न कि पैसा लुटा कर तत्कालीन राजनैतिक उपयोग हेतु। राजनीतिज्ञ अपने मत प्राप्त करने के लिए पूंजी निर्माण की जगह पूंजी को बांटने और स्थानांतरित करने में लगे रहते हैं। उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू जी ने भी 29 नवंबर 2021 को हुए अपने उद्बोधन में इस और इंगित किया है। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश भी कुछ ऐसा संकेत कर चुके हैं।
4. बेरोजगारी के कुछ सामाजिक कारण
सरकारों की कुछ गलत आर्थिक नीतियों के अतिरिक्त भारत में कुछ सामाजिक, शैक्षिक व आर्थिक कारण भी हैं जो बेरोजगारी को बढ़ाते हैं। उदाहरण के तौर पर भारत के युवकों की मन-बुद्धि में रोजगार की गलत परिभाषा का बैठा होना। सामान्यतया भारत के युवा-युवती रोजगार के संदर्भ में केवल नौकरी को ही और वह भी सरकारी नौकरी को ही रोजगार मानते हैं या बहुत हुआ तो किसी कंपनी की नौकरी को। वे कृषि को, स्वरोजगार को, लघु-कुटीर उद्योग से होने वाली आय को रोजगार मानते ही नहीं। और यह बात युवाओं ही नहीं बल्कि उनके माता-पिता तक के भी मन मस्तिष्क में बैठी रहती है। इसी के साथ जुड़ी दूसरी बात रहती है कि युवा सोचते हैं कि स्नातक व परास्नातक होने के बाद ही, प्रशिक्षित होने के बाद ही, वह किसी रोजगार के योग्य होंगे। वे 18-19 वर्ष की आयु में कमाई करने का सोचते तक नहीं।
5. फिर हमारे युवाओं में श्रम की महत्ता, कौशल विकास, उद्यमिता इस पर भी ध्यान न रहने के कारण से कठिनाइयां खड़ी हो रही हैं।
फिर अनेक सरकारों व राजनैतिक दलों द्वारा चुनावों से पूर्व मुफ्त तोहफ़ों की घोषणा करना, पूर्व में अर्जित किए हुए धन को बांटना भी बेरोजगारी बढ़ाता है। पैसे का उपयोग मूलभूत आवश्यकताओं व सुविधाओं का सृजन कर रोजगार के अवसर बढ़ाने हेतु करना चाहिए न कि पैसा लुटा कर तत्कालीन राजनैतिक उपयोग हेतु। राजनीतिज्ञ अपने मत प्राप्त करने के लिए पूंजी निर्माण की जगह पूंजी को बांटने और स्थानांतरित करने में लगे रहते हैं। उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू जी ने भी 29 नवंबर 2021 को हुए अपने उद्बोधन में इस और इंगित किया है। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश भी कुछ ऐसा संकेत कर चुके हैं।
4. बेरोजगारी के कुछ सामाजिक कारण
सरकारों की कुछ गलत आर्थिक नीतियों के अतिरिक्त भारत में कुछ सामाजिक, शैक्षिक व आर्थिक कारण भी हैं जो बेरोजगारी को बढ़ाते हैं। उदाहरण के तौर पर भारत के युवकों की मन-बुद्धि में रोजगार की गलत परिभाषा का बैठा होना। सामान्यतया भारत के युवा-युवती रोजगार के संदर्भ में केवल नौकरी को ही और वह भी सरकारी नौकरी को ही रोजगार मानते हैं या बहुत हुआ तो किसी कंपनी की नौकरी को। वे कृषि को, स्वरोजगार को, लघु-कुटीर उद्योग से होने वाली आय को रोजगार मानते ही नहीं। और यह बात युवाओं ही नहीं बल्कि उनके माता-पिता तक के भी मन मस्तिष्क में बैठी रहती है। इसी के साथ जुड़ी दूसरी बात रहती है कि युवा सोचते हैं कि स्नातक व परास्नातक होने के बाद ही, प्रशिक्षित होने के बाद ही, वह किसी रोजगार के योग्य होंगे। वे 18-19 वर्ष की आयु में कमाई करने का सोचते तक नहीं।
5. फिर हमारे युवाओं में श्रम की महत्ता, कौशल विकास, उद्यमिता इस पर भी ध्यान न रहने के कारण से कठिनाइयां खड़ी हो रही हैं।
6. सरकार की ढीली निर्णय प्रक्रिया, लालफीताशाही, लोन इत्यादि मिलने में कठिनाई भी उद्यमिता व रोजगार सृजन की प्रक्रिया में बाधा खड़ी करती हैं।
7. स्वरोजगार पोषक वातावरण का अभाव: भारत में अभी तक स्वरोजगार को, निजी उद्यम खड़ा करने को, कृषि से रोजगार सृजन को बहुत प्रोत्साहन परिवार व समाज द्वारा भी मिलता नहीं, जो कि अनिवार्य तत्व होता है, किसी भी युवा के लिए। यही नहीं अनेक स्थानों पर तो उद्यमिता व स्वरोजगार को हतोत्साहित, परिवार-गांव के लोग या मित्रगण ही करने लगते हैं। जबकि अमेरिका, यूरोप में समाज व सरकार दोनों ही छोटे उद्यमियों को प्रोत्साहित करने में लगे रहते हैं। हार्वर्ड यूनिवर्सिटी, वाशिंगटन इस समय भी 5000 छोटे उद्यमियों को रिसर्च करके व अन्य प्रकार से सहयोग करता रहता है।
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भारत का अभी रोज़गार आता कहाँ से है?
भारत में रोजगार सृजन करने की योजना करने से पूर्व यह अनिवार्य है कि सिंहावलोकन करके निरीक्षण किया जाए कि अभी तक का रोजगार कहां कहां से आ रहा है? भारत में प्रमुख रूप से तो 40 से 42 प्रतिशत लोग कृषि क्षेत्र में ही लगे हैं, यद्यपि वहां से आय का स्तर बहुत कम होता है। उसके अलावा 28 से 30 प्रतिशत तक रोजगार छोटे या बड़े उद्योगों से आता है यानि निर्माण (मैन्यूफेक्चरिंग) से। और लगभग 32-33 प्रतिशत लोग सर्विस सेक्टर में से रोजगार पाते हैं।
भारत की कुल लेबर फोर्स इस समय 51.2 करोड़ है। लेबर फोर्स अर्थात 18 से 65 वर्ष के वे लोग जो रोजगार करना चाहते हैं, योग्य हैं। अब सब प्रकार की सरकारी नौकरियां, चाहे वह राज्य सरकारों की हों अथवा केंद्र सरकार की, अर्ध सरकारी हों या अन्य छोटी बड़ी। चौकीदार से लेकर भारत के राष्ट्रपति तक व उसके अतिरिक्त कार्पोरेट सेक्टर, जिसे उद्योग जगत कहा जाता है ऐसी सब प्रकार की नौकरियां 3.8 करोड़ हैं जो कुल वर्कफोर्स 51.2 करोड़ का लगभग
7.4 प्रतिशत बैठती हैं। केवल सरकारी नौकरियां तो 2.5 प्रतिशत के आसपास हैं। जो ठेके पर दिहाड़ी पर, अनियमित व कच्ची नौकरियां हैं, या न्यूनतम वर्ष भर में 100 दिन का रोजगार है, वह सब मिलाकर भी 20-21 प्रतिशत तक ही रहती हैं। शेष 79-80 प्रतिशत समाज तो कृषि, स्वरोजगार या लघु कुटीर उद्योगों से ही अपना रोज़गार पाता हैं।
रोजगार प्रदात्ता सात बड़े क्षेत्र
1. भारत में संगठित क्षेत्र का योगदान भी देखा जाए तो टेक्सटाइल क्षेत्र में लगभग 4 करोड़ लोगों को रोजगार मिलता है।
भारत का अभी रोज़गार आता कहाँ से है?
भारत में रोजगार सृजन करने की योजना करने से पूर्व यह अनिवार्य है कि सिंहावलोकन करके निरीक्षण किया जाए कि अभी तक का रोजगार कहां कहां से आ रहा है? भारत में प्रमुख रूप से तो 40 से 42 प्रतिशत लोग कृषि क्षेत्र में ही लगे हैं, यद्यपि वहां से आय का स्तर बहुत कम होता है। उसके अलावा 28 से 30 प्रतिशत तक रोजगार छोटे या बड़े उद्योगों से आता है यानि निर्माण (मैन्यूफेक्चरिंग) से। और लगभग 32-33 प्रतिशत लोग सर्विस सेक्टर में से रोजगार पाते हैं।
भारत की कुल लेबर फोर्स इस समय 51.2 करोड़ है। लेबर फोर्स अर्थात 18 से 65 वर्ष के वे लोग जो रोजगार करना चाहते हैं, योग्य हैं। अब सब प्रकार की सरकारी नौकरियां, चाहे वह राज्य सरकारों की हों अथवा केंद्र सरकार की, अर्ध सरकारी हों या अन्य छोटी बड़ी। चौकीदार से लेकर भारत के राष्ट्रपति तक व उसके अतिरिक्त कार्पोरेट सेक्टर, जिसे उद्योग जगत कहा जाता है ऐसी सब प्रकार की नौकरियां 3.8 करोड़ हैं जो कुल वर्कफोर्स 51.2 करोड़ का लगभग
7.4 प्रतिशत बैठती हैं। केवल सरकारी नौकरियां तो 2.5 प्रतिशत के आसपास हैं। जो ठेके पर दिहाड़ी पर, अनियमित व कच्ची नौकरियां हैं, या न्यूनतम वर्ष भर में 100 दिन का रोजगार है, वह सब मिलाकर भी 20-21 प्रतिशत तक ही रहती हैं। शेष 79-80 प्रतिशत समाज तो कृषि, स्वरोजगार या लघु कुटीर उद्योगों से ही अपना रोज़गार पाता हैं।
रोजगार प्रदात्ता सात बड़े क्षेत्र
1. भारत में संगठित क्षेत्र का योगदान भी देखा जाए तो टेक्सटाइल क्षेत्र में लगभग 4 करोड़ लोगों को रोजगार मिलता है।
2. फिर इंफ्रास्ट्रक्चर (कांस्ट्रक्शन) में 3.6 करोड़ लोग हैं। यद्यपि उनका जीडीपी में योगदान 24 प्रतिशत रहता है।
3.रिटेल सेक्टर में लगभग चार करोड़ लोगों को रोजगार मिलता है, जीडीपी में योगदान 10 प्रतिशत है।
4. जनरल मैन्यूफैक्चरिंग जो जीडीपी में तो 17 प्रतिशत का योगदान कर रहा है किंतु वहां रोजगार 3 करोड़ तक ही है।
5. इनफॉरमेशन टेक्नोलॉजी भारत का उभरता हुआ क्षेत्र है, और गत 2 वर्षों में तो उसने बहुत तेजी से नए आयाम पकड़े हैं फिर भी वहां पर 3 करोड़ से कम लोगों को रोजगार है, हां जीडीपी में उनका योगदान 8 प्रतिशत है।
6. बैंकिंग क्षेत्र में तो केवल 20 लाख लोगों को ही रोजगार मिलता है।
7. रियल एस्टेट का जीडीपी में योगदान तो 11 प्रतिशत हैं किंतु उसमें भी केवल 18 लाख लोगों को रोजगार है। यहां पर ध्यान देने वाली बात यह है की लगभग 80 प्रतिशत रोजगार जो कृषि क्षेत्र, लघु उद्यमियों व स्वरोजगार का है,उस पर राज्य व केंद्र सरकारों का बजट लगभग 20 प्रतिशत लगता हैं जबकि नौकरी वाले 20 प्रतिशत क्षेत्र में आवंटन 80 प्रतिशत के लगभग होता है।
1.कृषिः भारत का अत्यंत महत्वपूर्ण रोजगार का क्षेत्र
भारत के पास लगभग 16 करोड़ हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि है जो कि विश्व में किसी भी देश से अधिक है। यद्यपि हमारे देश की कुल भूमि चीन से आधी व अमेरिका की तुलना में एक तिहाई ही होगी, किंतु कृषि योग्य भूमि तो भारत के पास ही सर्वाधिक है। अभी 42-43 प्रतिशत लोग कृषि पर पूरी तरह निर्भर हैं। किंतु उनकी आय का स्तर बहुत कम है।
प्रति किसान, जोत (भूमि) भी बहुत छोटी होती है। भारत के 86.2 प्रतिशत किसान 2 हेक्टेयर से कम की भूमि रखते हैं। वह किसी प्रकार के नए प्रयोग करने से भी डरते हैं, क्षमता भी नहीं होती। इसलिए न केवल कृषि क्षेत्र में कोऑपरेटिव सेक्टर को बढ़ावा देना होगा बल्कि गौ आधारित प्राकृतिक कृषि जैसे प्रयोगों को भी प्रोत्साहन देना होगा। अभी तक चर्चा केवल न्यूनतम समर्थन मूल्य के बारे में ही रहती है, किन्तु यदि मूल्य संवर्धन किया जाए तो कृषि से आय बढ़ भी सकती है।
उदाहरण के लिए इस समय पर गेहूं का एमएसपी 2015 रू. प्रति क्विंटल है किंतु यदि उसे दलिया बनाकर व पैकेट में बेचा जाए तो वही 3500 रू. प्रति क्विंटल भी बिक सकता है। कारगिल का आटा 38 रू. प्रति किलो इसी प्रकार बिकता है। इसके लिए किसानों को और सरकार को आपस में तालमेल से कृषि में परिवर्तन की प्रक्रिया अपनानी होगी।
जैविक कृषि व प्राकृतिक उत्पाद का मूल्य भी घोषित एमएसपी से अधिक मिल जाता है। किसानों के बीच में एक बड़ा जनांदोलन एफपीओ बनाने को लेकर भी करना होगा जिससे किसान कृषि व कृषि उत्पादों की मार्केटिंग व मूल्य संवर्धन कर अपनी आय बढ़ाने के विभिन्न उपाय खोज सकें।
2.रोजगार का बड़ा क्षेत्र है- लघु, कुटीर व घरेलू उद्योग
कृषि के बाद दूसरा बड़ा रोजगार का क्षेत्र है- लघु, कुटीर एवं घरेलू उद्योग। परंतु इन पर विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों व चाइनीज कंपनियों की मार पड़ने के कारण से यह आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं। जब लक्ष्य रोजगार हो ही गया तो हमें वैसे उपायों पर भी विचार करना चाहिए। इनमें सबसे प्रमुख वह है, जो लघु उद्योग भारती व स्वदेशी जागरण मंच हमेशा कहता रहा है कि घरेलू व अन्य सामान्य वस्तुओं में, शून्य तकनीक वाले क्षेत्र में, एफएमसीजी (फास्ट मूविंग कंज्यूमर गूड्स) क्षेत्र में, किसी भी प्रकार की बहुराष्ट्रीय कंपनियों अथवा चाइनीज कंपनियों को नहीं रहने देना चाहिए। यहां तक कि भारत की भी बड़ी कंपनियों से इस क्षेत्र को मुक्त रखना चाहिए। हमें सारे देश में ‘केवल स्थानीय व स्वदेशी’ यह अभियान चलाना चाहिए। ताकि देश के लोग सामान्य उपभोक्ता वस्तुओं के क्षेत्र में, घर परिवार की वस्तुओं में केवल स्वदेशी और वह भी लघु एवं कुटीर उद्योगों की बनी हुई वस्तुओं को खरीदें, प्रयोग करें।
लघु, कुटीर उद्योगों हेतु पुनः आरक्षण उपयोगी
आज से कुछ वर्ष पहले तक देश में 1430 वस्तुएं ऐसी थी जो कि लघु व कुटीर उद्योगों (एसएमई सेक्टर) के लिए सुरक्षित थी, किंतु धीरे-धीरे करके बहुराष्ट्रीय, विदेशी व बड़ी कंपनियों के दबाव में विभिन्न सरकारों द्वारा यह सूची खत्म कर दी गईं और इसके कारण से गांवों, छोटे-कस्बों में घरेलू उत्पाद बनाने वाली ईकाईयां बंद होती गईं। परिणामस्वरूप बेरोजगारी बढ़ती चली गई। केवल बहुराष्ट्रीय व बाहरी कंपनियां ही नहीं बल्कि भारत के बड़े उद्योग समूहों को रिटेल के क्षेत्र में काम करने की खुली छूट दे दी गई। उदाहरण के तौर पर- रिटेल की दुकान भी अब रिलायंस चलाता है, नमक टाटा बनाता है, तेल ऐसे ही कोई बड़ी कंपनी बनाती है। इसी तरीके से हमारे साबुन, तेल, शीतल पेय आदि उद्योगों पर यूनिलीवर, लक्स, पेप्सी-कोकाकोला जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियां का कब्जा है। स्वाभाविक है कि उनका मुकाबला छोटे व कुटीर उद्योग, दुकानदार नहीं कर पाते। जिससे वे शीघ्र ही बंद हो जाते हैं और रोजगार के अवसर और कम हो जाते हैं।
अतः इन 1430 वस्तुओं को या नई सूची तय करके लघु एवं कुटीर उद्योगों के लिए आरक्षित कर देना चाहिए। इसके लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों, अंतर्राष्ट्रीय मानक अथवा विदेशी निवेश का क्या होगा, इससे घबराने की आवश्यकता नहीं।
अमरीका भी करता है अपने लघु उद्योगों व रोजगार का संरक्षण
एक उदाहरण देखें, अमेरिका के अंदर जब 5 वर्ष पूर्व डोनाल्ड ट्रंप राष्ट्रपति बने, वह अमेरिका के युवकों को दिये इसी आश्वासन पर ही बनें कि वह उनके लिए रोजगार जुटाएंगे। मेक्सिको के सामने दीवार खड़ी करेंगे। क्योंकि मेक्सिको से बड़ी मात्रा में बेरोजगार लोग अमरीका में आकर स्थानीय लोगों के रोजगार के अवसर कम कर देते हैं। इसी तरह ट्रंप ने कहा कि चीन की करेंसी षड्यंत्र, (मेनिपुलेशन) को रोकेंगे और चीन से होने वाले 350 बिलियन डालर के वार्षिक घाटे को तेजी से कम करेंगे। यहां तक कि ट्रंप ने यह भी कहा कि भारत के एच1बी वीजा पर रोक लगाएंगे। ट्रम्प के शासनकाल में अमरीका इस दिशा में तेजी से कदम बढ़ा भी रहा था। अभी भी वहां की नई सरकार भी रोजगार के विषय में उसी नक्शे कदम पर है।
फिर अमेरिका में 1933 से ही बाय अमेरिकन एक्ट बना हुआ है, जिसके अंतर्गत अमेरिकी कंपनियों को एक निश्चित मात्रा में अमेरिका में बनी बस्तुएं ही खरीदनी होती हैं। अमेरिका अपने अर्थ एवं रोजगार के संरक्षण के लिए अपने कानून ही नहीं बनाता बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बाध्यता पैदा करता है। अमेरिका ने 2016 में अपने ही द्वारा प्रारंभ टीपीपी (ट्रांस पेसेफिक पेक्ट) की संधि, जिसमें विश्व की 42 प्रतिशत जीडीपी आती थी, निरस्त कर दी।
अमेरिका की सभी सरकारों, दलों का एक ही लक्ष्य रहता है-अमेरिका के लोगों को रोजगार देना, अमेरिका की समृद्धि। अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी, एजेंसियां, बहुराष्ट्रीय कंपनियां क्या कहती हैं, इसकी वे परवाह नहीं करते। यदि वे अपने देश में ऐसा कर सकते हैं तो भारत को क्यों नहीं करना चाहिए। यदि दैनिक जीवन की वस्तुओं की सूची को फिर से आरक्षित कर देने से भारत में लघु एवं कुटीर उद्योग बढ़ता हो और उससे लाखों रोजगार फिर से बढ़ते हो, तो हमें अवश्य ही इस विषय पर न केवल विचार करना चाहिए बल्कि इसके लिए व्यापक जनसमर्थन भी जुटाना चाहिए।
भारत की सबसे बड़ी पूंजी है भारत की युवा शक्ति
विश्व के प्रत्येक देश की प्रगति में उसकी एक अपनी ताकत होती है जिसके आधार पर वह आर्थिक-भौतिक प्रगति करता है। उदाहरण के तौर पर अमेरिका, जो इस समय 23.4 ट्रिलियन डॉलर की इकॉनमी है, उसकी आय का लगभग 40 प्रतिशत हिस्सा बौद्धिक संपदा से आता है (इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स से)। यानि साधारण भाषा में समझना हो तो पेटेंट या कॉपीराइट आदि से। क्योंकि अमेरिका में रिसर्च वर्क बहुत होता है, वहां प्रतिवर्ष कमर्शियल पेटेंट विश्व के 60 प्रतिशत से अधिक होते हैं। इसी प्रकार चीन विश्व की मैन्युफैक्चरिंग का अभी भी 20 प्रतिशत से अधिक करता है। पहले तो 28.7 प्रतिशत तक भी था। चीन लो कॉस्ट मैन्युफैक्चरिंग की ताकत के आधार पर काम करता है। वहां की शासन व्यवस्था, बड़ी आबादी और अन्यान्य कारणों से चीन विश्व में सबसे कम कीमत पर वस्तुओं के निर्माण में सक्षम है और वही उसकी सबसे बड़ी ताकत भी है।
इसी तरह से मध्य व पूर्वी देश तो कच्चे तेल पर ही अपनी अर्थव्यवस्था चलाते हैं, वह उनके अनुसार उन्हें अल्लाह की देन है। उधर जापान ऑटोमोबाइल और इलेक्ट्रॉनिक्स को अपनी ताकत मानता है, तभी आज भारत में 65 प्रतिशत तो अमेरिका में भी 60 प्रतिशत कारें जापान की है। यही बात इलेक्ट्रॉनिक्स के बारे में भी है। जर्मनी की ताकत उसका उच्चस्तरीय इंजीनियरिंग है। विश्व के उच्च गुणवत्ता वाले इंजीनियरिंग प्रोडक्ट्स में जर्मनी की कंपनियों को महारत है। रूस डिफेंस इक्युपमेंट मैन्युफैक्चरिंग में विश्व का अग्रणी देश बना हुआ है। उसकी बनाई मिसाइल डिफेंस एस.-400 भारत ने ही 38000 करोड़ रुपए में खरीदी और अभी वह एस.-500 पर बात कर रहा है।
तो ऐसे में प्रश्न उठता है कि भारत की ताकत क्या है? कृषि, हां है। फार्मा इंडस्ट्री, हां वह भी है। दुग्ध उत्पादन, हां है। आईटी और सॉफ्टवेयर, हां निश्चित रूप से है। किंतु जो सर्वाधिक बड़ी शक्ति भारत के पास है, वह है-भारत की युवा शक्ति। भारत इस समय विश्व का सबसे बड़ा युवा देश है। 15 से 29 आयु वर्ग के बीच में ही उसके पास 37 करोड़ युवा है। अमेरिका की कुल आबादी ही 34 करोड़ है। जबकि चीन के पास इसी आयु वर्ग में अब केवल 27 करोड़ लोग हैं। भारत की मध्यमान आयु इस समय 29 वर्ष है, अमेरिका की 40 वर्ष, चीन की 37 वर्ष, यूरोप की 46 वर्ष, तो जापान की उम्र 48 वर्ष। और यह बात भी अब आईएमएफ तक ने स्वीकार कर ली है कि किसी भी देश की युवा आबादी का उसके जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) से सीधा संबंध होता है। क्योंकि युवा लोग न केवल उपभोग अधिक करते हैं बल्कि उत्पादन भी अधिक करते हैं, इससे अर्थ चक्र तेजी से चलता है और जीडीपी में वृद्धि होती है।
युवा आबादी से ही बढ़ती है जीडीपी
जापान जब 1964 से 2004 तक युवा था, तो उसकी जीडीपी भी 6 प्रतिशत से भी अधिक बढ़ती थी। अब वह बूढ़ा हुआ है तो जीडीपी भी घटकर 2 प्रतिशत रह गयी है। कुछ यही बात यूरोप और चीन पर भी लागू हो रही है। भारत को अपनी बड़ी ताकत को पहचानना, जिसे सामान्य भाषा मे(Demographic Dividend) कहते हैं, उपयोग करना चाहिए। भारत की यह युवा शक्ति लाभ 2018 से बढ़ना शुरू हुआ है और 2055 तक रहेगा। किंतु भारत के 15 से 34 वर्ष की आयु के लोगों का प्रतिशत 2042 से ही घटने लगेगा। इसलिए हमें तुरंत अपनी युवा शक्ति को, भारत के अर्थ चक्र को तीव्र गति से घुमाने के लिए लगाना होगा। केवल स्वयं का रोजगार खड़ा करें, इतना ही नहीं, बल्कि वे भारत की आर्थिक समृद्धि को उच्चतम स्तर पर ले जाने में व गरीबी को न्यूनतम करने में सहायक बनने चाहिएं। युवाओं को कौशल विकास के साथ-साथ उद्यमिता के महामार्ग पर डालना होगा। उन्हें तेजी से इस तरफ प्रवृत्त करना, यह वर्तमान समय की आवश्यकता है। आज के युवा को उद्यमिता के मार्ग पर ले जाने की बड़ी चुनौती भारत के प्रबुद्ध वर्ग को स्वीकार करनी चाहिए।
अमेरिका और यूरोप आदि में नौकरी विशेषकर सरकारी नौकरी को कोई बहुत प्राथमिकता नहीं दी जाती। अपने छोटे-बड़े बिजनेस खड़ा करना, यही प्रमुख प्रक्रिया चलती है। अपनी कंपनियां, अपने ब्रांड विकसित करना, उपयोगी होता है। आज अमेरिका विश्व का सबसे अधिक स्टार्टअप वाला देश है। सर्वाधिक यूनिकॉर्न कंपनियां अमेरिका में होती हैं। प्रति व्यक्ति आय वहां की सर्वाधिक है। यदि वहां के युवा भी हमारे तरह नौकरी की मानसिकता के होते तो यह कभी संभव नहीं था।
पूर्ण रोजगार का चतुष्पंक्ति मार्ग
1. विकेंद्रीकरणः भारतीय अर्थशास्त्र के महान चिंतक पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी कहा करते थे कि भारत की अर्थव्यवस्था को गति देनी है तो दो ही शब्द पर्याप्त हैं - विकेंद्रीकरण और स्वदेशी। अब यदि उसमें रोजगार सृजन का विषय भी जोड़ना हो तो दो अन्य शब्द जोड़ने होंगे, वह हैं - उद्यमिता और सहकार।
अभी जो भी भारत में योजनाएं बनती हैं, बजट आबंटित होते हैं, उनका निर्णय केंद्र सरकार अथवा राज्य सरकार के स्तर पर किया जाता है। भारत जैसे विशाल देश के लिए यह उपयुक्त नहीं। नीचे आते-आते योजना को क्रियान्वयन करने का किसी प्रकार का उत्साह रहता ही नहीं। फिर ऊपर से नीचे पैसा आने और नीचे से टेक्स इकट्ठा होकर ऊपर जाने में भ्रष्टाचार और लालफीताशाही, यह भी तेजी से बढ़ती है। इसलिए भारत को जिला केंद्रित अर्थव्यवस्था के मॉडल पर विचार करना ही होगा।
विशेषकर रोजगार सृजन तो जिला केंद्रित योजनाओं से ही होगा, जिससे उस जिले की विशेषताओं, उस जिले की युवा शक्ति, उस जिले के उपलब्ध संसाधन का अधिकतम उपयोग उत्तम पद्धति से हो सके, इसके लिए योजना भी करनी होगी। आवश्यक कानून भी बनाने होगें। यद्यपि सन् 1986 में, तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी जी द्वारा पंचायती राज का संविधान संशोधन हुआ व ग्राम स्तर तक का विकेंद्रीकरण का विषय तय हुआ। किन्तु सीधे ग्राम तक का विकेंद्रीकरण अव्यवहारिक है, इसलिए उसके कोई सार्थक परिणाम नहीं निकले।
इसलिये जिला स्तर ही सब प्रकार की रोजगार व अर्थ सृजन की योजनाओं का केंद्र होना चाहिए।
2. स्थानीय, स्वदेशीः स्वदेशी आजकल बड़ा प्रचलित व सर्वस्वीकार्य शब्द बन गया है। भारत के प्रधानमंत्री भी बार-बार ‘बी वोकल-फोर लोकल’ अर्थात् स्थानीय खरीदो, स्वदेशी खरीदो का आह्वान कर रहे हैं। यह बहुत सरल व स्वभाविक बात है कि जितना अधिक लोग स्थानीय व स्वदेशी को खरीदेंगे, उतना अधिक मात्रा में लघु और कुटीर उद्योगों को बढ़ावा मिलेगा और उनके बढ़ने से रोजगार बढ़ना तो निश्चित रूप से होगा ही। अभी भी भारत के रोजगार का सबसे बड़ा हिस्सा कृषि के अलावा लघु एवं कुटीर उद्योगों से ही आता है। इसलिए स्वदेशी भाव जागरण, यह रोजगार सृजन का बड़ा मार्ग है। भारत के निर्यात में भी 48 प्रतिशत योगदान मध्यम, लघु एवं कुटीर उद्योगों का है। भारत जितनी मात्रा में आयात विकल्प (इंपोर्ट सबस्टीटयूट) करके अपनी स्थानीय इंडस्ट्री को खड़ा करेगा, उतनी मात्रा में ही रोजगार बढ़ेंगे।
इस दिशा में गत 2 वर्षों से सरकार ने 10 बड़े सेक्टर में पीएलआई (प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेंटिव) की योजना दी है। कुछ दिन पूर्व भी सेमीकंडक्टर इण्डस्ट्री के लिए 76000 करोड़ रूपये की घोषणा की गई है। यह अलग बात है कि उसका भी एक बड़ा हिस्सा मल्टीनेशनल कंपनियां ले जाने की योजनाएं कर रही हैं, करती रहती हैं। कुल मिलाकर स्वदेशी इंडस्ट्री छोटी हो अथवा बड़ी, अगर भारतीय कंपनियां और भारतीय मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा मिलता है तो निश्चित रूप से रोजगार बढ़ेंगे ही।
3. उद्यमिताः उद्यमिता का विषय पहले भी आया है। 37 करोड़ युवाओं को नौकरियां देना तो किसी भी सरकार अथवा आर्थिक संगठनों या उद्योगों के लिये संभव ही नहीं। अतः एकमात्र मार्ग है, युवा स्वयं के उद्यम से, स्वरोजगार और लघु उद्योग, लघु स्टार्टअप्स आदि में जाएं। वे कृषि में, मूल्य संवर्धन करने के प्रयोग करें, सूचना प्रौद्योगिकी (इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी) का उपयोग करें और भारत ही नहीं विश्व भर में जहां-जहां आवश्यकता है, वहां-वहां जाकर काम करने का विचार करें। और यदि वे ऐसा कर जाते हैं तो रोजगार की अपार संभावनाएं उपलब्ध होंगी।
उसके लिए उनको विभिन्न कौशल विकास की प्रक्रियाओं को अपनाना होगा, निपुण होना होगा। उद्यमिता के लिए यह आवश्यक होता है कि वह अपने आपको प्रशिक्षित करें, उनके अंदर की प्रतिभाएं और उनकी सोच का विकास, उन्हें बड़ी कमाई और अर्थ सृजन में सहायक होगा। साथ ही अपने युवाओं को जॉब सीकर की बजाय जॉब प्रोवाइडर बनाने का एक बड़ा प्रयत्न अब भारत को करना ही होगा।
4. सहकारिताः सहकारिता एक और बड़ा क्षेत्र है, जो भारत जैसे देश की बेरोजगारी की समस्या के समाधान में सहायक हो सकता है। इस विषय में विश्व प्रसिद्ध भारत का मॉडल तो अमूल का है, जिसके कारण से गुजरात के ही 36 लाख किसानों की आय में बहुत अच्छा फर्क पड़ा है। फिर हजारों प्रत्यक्ष नौकरियां भी वहां निकली है। और वह मॉडल सारे देश में लागू हुआ है, विभिन्न नामों से। तो आज भारत न केवल दुग्ध उत्पादन में विश्व में क्रमांक एक पर आ गया है, बल्कि वह लाखों लोगों की आजीविका का कारण भी बना है।
यही बात इफको व अन्य अनेक प्रकार के सहकारी उद्योगों के विषय में भी है। जब पूंजी से मानव शक्ति एकत्र की जाती है, तो उसे पूंजीवादी मॉडल कहते हैं। किंतु जब मानव शक्ति पूंजी एकत्र करके उद्योग चलाती है, तो उसे सहकारिता कहते हैं।
इंडियन कॉफी हाउस, लिज्जत पापड़ जैसे अनेकों सफल उदाहरण हैं, जिनसे गुणवत्ता वाले रोजगार बड़ी मात्रा में सृजन हो रहे हैं। और इस सहकारिता आधारित उद्योगों की विशेषता यह रहती है कि उसमें असमानता नहीं बढ़ती। एक अध्ययन के अनुसार सहकारिता आधारित उद्योगों में प्रति मास की आय का अंतर, 1ः9 तक का (कम अंतर) ही रहता है, अर्थात सबसे कम कमाने वाले व सबसे अधिक वाले का अनुपात। जबकि कैपिटल आधारित उद्योग में यह अंतर 1ः2000 या इससे भी अधिक का हो सकता है।
भारत इस समय पर विश्व में सर्वाधिक असमान आय वर्ग की श्रेणी में आ गया है। जहां भारत के ऊपर के 10 प्रतिशत लोग ही संपूर्ण भारत की 57 प्रतिशत पूंजी रखते हैं। और निचले 50 प्रतिशत लोगों का कुल भारत की पूंजी में हिस्सा मात्र 13 प्रतिशत है। इसलिए भारत को गुणवत्ता वाले रोजगार सृजन करने के लिए सहकारी आंदोलन और सहकार आधारित उद्योगों की बड़ी प्रक्रिया करनी होगी। इस विषय में भारत सरकार ने न केवल मंत्रालय का गठन किया है बल्कि इसके लिए एक अलग से विश्वविद्यालय के निर्माण की प्रक्रिया भी प्रारंभ हो गई है।
गुणवत्ता वाले रोजगार व आय के समान वितरण प्रक्रिया के लिए, भारत में सहकारी आंदोलन निश्चित ही प्रभावी व उपयोगी होगा।
चार मार्ग, विकेंद्रीकरण, स्वदेशी, उद्यमिता व सहकारिता ही भारत की अर्थव्यवस्था में रोजगार का चक्र सर्वाधिक गति से घुमा सकते हैं और भारत को एक वैश्विक महाशक्ति बनाने की स्थिति में ला सकते हैं।
1.कृषिः भारत का अत्यंत महत्वपूर्ण रोजगार का क्षेत्र
भारत के पास लगभग 16 करोड़ हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि है जो कि विश्व में किसी भी देश से अधिक है। यद्यपि हमारे देश की कुल भूमि चीन से आधी व अमेरिका की तुलना में एक तिहाई ही होगी, किंतु कृषि योग्य भूमि तो भारत के पास ही सर्वाधिक है। अभी 42-43 प्रतिशत लोग कृषि पर पूरी तरह निर्भर हैं। किंतु उनकी आय का स्तर बहुत कम है।
प्रति किसान, जोत (भूमि) भी बहुत छोटी होती है। भारत के 86.2 प्रतिशत किसान 2 हेक्टेयर से कम की भूमि रखते हैं। वह किसी प्रकार के नए प्रयोग करने से भी डरते हैं, क्षमता भी नहीं होती। इसलिए न केवल कृषि क्षेत्र में कोऑपरेटिव सेक्टर को बढ़ावा देना होगा बल्कि गौ आधारित प्राकृतिक कृषि जैसे प्रयोगों को भी प्रोत्साहन देना होगा। अभी तक चर्चा केवल न्यूनतम समर्थन मूल्य के बारे में ही रहती है, किन्तु यदि मूल्य संवर्धन किया जाए तो कृषि से आय बढ़ भी सकती है।
उदाहरण के लिए इस समय पर गेहूं का एमएसपी 2015 रू. प्रति क्विंटल है किंतु यदि उसे दलिया बनाकर व पैकेट में बेचा जाए तो वही 3500 रू. प्रति क्विंटल भी बिक सकता है। कारगिल का आटा 38 रू. प्रति किलो इसी प्रकार बिकता है। इसके लिए किसानों को और सरकार को आपस में तालमेल से कृषि में परिवर्तन की प्रक्रिया अपनानी होगी।
जैविक कृषि व प्राकृतिक उत्पाद का मूल्य भी घोषित एमएसपी से अधिक मिल जाता है। किसानों के बीच में एक बड़ा जनांदोलन एफपीओ बनाने को लेकर भी करना होगा जिससे किसान कृषि व कृषि उत्पादों की मार्केटिंग व मूल्य संवर्धन कर अपनी आय बढ़ाने के विभिन्न उपाय खोज सकें।
2.रोजगार का बड़ा क्षेत्र है- लघु, कुटीर व घरेलू उद्योग
कृषि के बाद दूसरा बड़ा रोजगार का क्षेत्र है- लघु, कुटीर एवं घरेलू उद्योग। परंतु इन पर विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों व चाइनीज कंपनियों की मार पड़ने के कारण से यह आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं। जब लक्ष्य रोजगार हो ही गया तो हमें वैसे उपायों पर भी विचार करना चाहिए। इनमें सबसे प्रमुख वह है, जो लघु उद्योग भारती व स्वदेशी जागरण मंच हमेशा कहता रहा है कि घरेलू व अन्य सामान्य वस्तुओं में, शून्य तकनीक वाले क्षेत्र में, एफएमसीजी (फास्ट मूविंग कंज्यूमर गूड्स) क्षेत्र में, किसी भी प्रकार की बहुराष्ट्रीय कंपनियों अथवा चाइनीज कंपनियों को नहीं रहने देना चाहिए। यहां तक कि भारत की भी बड़ी कंपनियों से इस क्षेत्र को मुक्त रखना चाहिए। हमें सारे देश में ‘केवल स्थानीय व स्वदेशी’ यह अभियान चलाना चाहिए। ताकि देश के लोग सामान्य उपभोक्ता वस्तुओं के क्षेत्र में, घर परिवार की वस्तुओं में केवल स्वदेशी और वह भी लघु एवं कुटीर उद्योगों की बनी हुई वस्तुओं को खरीदें, प्रयोग करें।
लघु, कुटीर उद्योगों हेतु पुनः आरक्षण उपयोगी
आज से कुछ वर्ष पहले तक देश में 1430 वस्तुएं ऐसी थी जो कि लघु व कुटीर उद्योगों (एसएमई सेक्टर) के लिए सुरक्षित थी, किंतु धीरे-धीरे करके बहुराष्ट्रीय, विदेशी व बड़ी कंपनियों के दबाव में विभिन्न सरकारों द्वारा यह सूची खत्म कर दी गईं और इसके कारण से गांवों, छोटे-कस्बों में घरेलू उत्पाद बनाने वाली ईकाईयां बंद होती गईं। परिणामस्वरूप बेरोजगारी बढ़ती चली गई। केवल बहुराष्ट्रीय व बाहरी कंपनियां ही नहीं बल्कि भारत के बड़े उद्योग समूहों को रिटेल के क्षेत्र में काम करने की खुली छूट दे दी गई। उदाहरण के तौर पर- रिटेल की दुकान भी अब रिलायंस चलाता है, नमक टाटा बनाता है, तेल ऐसे ही कोई बड़ी कंपनी बनाती है। इसी तरीके से हमारे साबुन, तेल, शीतल पेय आदि उद्योगों पर यूनिलीवर, लक्स, पेप्सी-कोकाकोला जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियां का कब्जा है। स्वाभाविक है कि उनका मुकाबला छोटे व कुटीर उद्योग, दुकानदार नहीं कर पाते। जिससे वे शीघ्र ही बंद हो जाते हैं और रोजगार के अवसर और कम हो जाते हैं।
अतः इन 1430 वस्तुओं को या नई सूची तय करके लघु एवं कुटीर उद्योगों के लिए आरक्षित कर देना चाहिए। इसके लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों, अंतर्राष्ट्रीय मानक अथवा विदेशी निवेश का क्या होगा, इससे घबराने की आवश्यकता नहीं।
अमरीका भी करता है अपने लघु उद्योगों व रोजगार का संरक्षण
एक उदाहरण देखें, अमेरिका के अंदर जब 5 वर्ष पूर्व डोनाल्ड ट्रंप राष्ट्रपति बने, वह अमेरिका के युवकों को दिये इसी आश्वासन पर ही बनें कि वह उनके लिए रोजगार जुटाएंगे। मेक्सिको के सामने दीवार खड़ी करेंगे। क्योंकि मेक्सिको से बड़ी मात्रा में बेरोजगार लोग अमरीका में आकर स्थानीय लोगों के रोजगार के अवसर कम कर देते हैं। इसी तरह ट्रंप ने कहा कि चीन की करेंसी षड्यंत्र, (मेनिपुलेशन) को रोकेंगे और चीन से होने वाले 350 बिलियन डालर के वार्षिक घाटे को तेजी से कम करेंगे। यहां तक कि ट्रंप ने यह भी कहा कि भारत के एच1बी वीजा पर रोक लगाएंगे। ट्रम्प के शासनकाल में अमरीका इस दिशा में तेजी से कदम बढ़ा भी रहा था। अभी भी वहां की नई सरकार भी रोजगार के विषय में उसी नक्शे कदम पर है।
फिर अमेरिका में 1933 से ही बाय अमेरिकन एक्ट बना हुआ है, जिसके अंतर्गत अमेरिकी कंपनियों को एक निश्चित मात्रा में अमेरिका में बनी बस्तुएं ही खरीदनी होती हैं। अमेरिका अपने अर्थ एवं रोजगार के संरक्षण के लिए अपने कानून ही नहीं बनाता बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बाध्यता पैदा करता है। अमेरिका ने 2016 में अपने ही द्वारा प्रारंभ टीपीपी (ट्रांस पेसेफिक पेक्ट) की संधि, जिसमें विश्व की 42 प्रतिशत जीडीपी आती थी, निरस्त कर दी।
अमेरिका की सभी सरकारों, दलों का एक ही लक्ष्य रहता है-अमेरिका के लोगों को रोजगार देना, अमेरिका की समृद्धि। अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी, एजेंसियां, बहुराष्ट्रीय कंपनियां क्या कहती हैं, इसकी वे परवाह नहीं करते। यदि वे अपने देश में ऐसा कर सकते हैं तो भारत को क्यों नहीं करना चाहिए। यदि दैनिक जीवन की वस्तुओं की सूची को फिर से आरक्षित कर देने से भारत में लघु एवं कुटीर उद्योग बढ़ता हो और उससे लाखों रोजगार फिर से बढ़ते हो, तो हमें अवश्य ही इस विषय पर न केवल विचार करना चाहिए बल्कि इसके लिए व्यापक जनसमर्थन भी जुटाना चाहिए।
भारत की सबसे बड़ी पूंजी है भारत की युवा शक्ति
विश्व के प्रत्येक देश की प्रगति में उसकी एक अपनी ताकत होती है जिसके आधार पर वह आर्थिक-भौतिक प्रगति करता है। उदाहरण के तौर पर अमेरिका, जो इस समय 23.4 ट्रिलियन डॉलर की इकॉनमी है, उसकी आय का लगभग 40 प्रतिशत हिस्सा बौद्धिक संपदा से आता है (इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स से)। यानि साधारण भाषा में समझना हो तो पेटेंट या कॉपीराइट आदि से। क्योंकि अमेरिका में रिसर्च वर्क बहुत होता है, वहां प्रतिवर्ष कमर्शियल पेटेंट विश्व के 60 प्रतिशत से अधिक होते हैं। इसी प्रकार चीन विश्व की मैन्युफैक्चरिंग का अभी भी 20 प्रतिशत से अधिक करता है। पहले तो 28.7 प्रतिशत तक भी था। चीन लो कॉस्ट मैन्युफैक्चरिंग की ताकत के आधार पर काम करता है। वहां की शासन व्यवस्था, बड़ी आबादी और अन्यान्य कारणों से चीन विश्व में सबसे कम कीमत पर वस्तुओं के निर्माण में सक्षम है और वही उसकी सबसे बड़ी ताकत भी है।
इसी तरह से मध्य व पूर्वी देश तो कच्चे तेल पर ही अपनी अर्थव्यवस्था चलाते हैं, वह उनके अनुसार उन्हें अल्लाह की देन है। उधर जापान ऑटोमोबाइल और इलेक्ट्रॉनिक्स को अपनी ताकत मानता है, तभी आज भारत में 65 प्रतिशत तो अमेरिका में भी 60 प्रतिशत कारें जापान की है। यही बात इलेक्ट्रॉनिक्स के बारे में भी है। जर्मनी की ताकत उसका उच्चस्तरीय इंजीनियरिंग है। विश्व के उच्च गुणवत्ता वाले इंजीनियरिंग प्रोडक्ट्स में जर्मनी की कंपनियों को महारत है। रूस डिफेंस इक्युपमेंट मैन्युफैक्चरिंग में विश्व का अग्रणी देश बना हुआ है। उसकी बनाई मिसाइल डिफेंस एस.-400 भारत ने ही 38000 करोड़ रुपए में खरीदी और अभी वह एस.-500 पर बात कर रहा है।
तो ऐसे में प्रश्न उठता है कि भारत की ताकत क्या है? कृषि, हां है। फार्मा इंडस्ट्री, हां वह भी है। दुग्ध उत्पादन, हां है। आईटी और सॉफ्टवेयर, हां निश्चित रूप से है। किंतु जो सर्वाधिक बड़ी शक्ति भारत के पास है, वह है-भारत की युवा शक्ति। भारत इस समय विश्व का सबसे बड़ा युवा देश है। 15 से 29 आयु वर्ग के बीच में ही उसके पास 37 करोड़ युवा है। अमेरिका की कुल आबादी ही 34 करोड़ है। जबकि चीन के पास इसी आयु वर्ग में अब केवल 27 करोड़ लोग हैं। भारत की मध्यमान आयु इस समय 29 वर्ष है, अमेरिका की 40 वर्ष, चीन की 37 वर्ष, यूरोप की 46 वर्ष, तो जापान की उम्र 48 वर्ष। और यह बात भी अब आईएमएफ तक ने स्वीकार कर ली है कि किसी भी देश की युवा आबादी का उसके जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) से सीधा संबंध होता है। क्योंकि युवा लोग न केवल उपभोग अधिक करते हैं बल्कि उत्पादन भी अधिक करते हैं, इससे अर्थ चक्र तेजी से चलता है और जीडीपी में वृद्धि होती है।
युवा आबादी से ही बढ़ती है जीडीपी
जापान जब 1964 से 2004 तक युवा था, तो उसकी जीडीपी भी 6 प्रतिशत से भी अधिक बढ़ती थी। अब वह बूढ़ा हुआ है तो जीडीपी भी घटकर 2 प्रतिशत रह गयी है। कुछ यही बात यूरोप और चीन पर भी लागू हो रही है। भारत को अपनी बड़ी ताकत को पहचानना, जिसे सामान्य भाषा मे(Demographic Dividend) कहते हैं, उपयोग करना चाहिए। भारत की यह युवा शक्ति लाभ 2018 से बढ़ना शुरू हुआ है और 2055 तक रहेगा। किंतु भारत के 15 से 34 वर्ष की आयु के लोगों का प्रतिशत 2042 से ही घटने लगेगा। इसलिए हमें तुरंत अपनी युवा शक्ति को, भारत के अर्थ चक्र को तीव्र गति से घुमाने के लिए लगाना होगा। केवल स्वयं का रोजगार खड़ा करें, इतना ही नहीं, बल्कि वे भारत की आर्थिक समृद्धि को उच्चतम स्तर पर ले जाने में व गरीबी को न्यूनतम करने में सहायक बनने चाहिएं। युवाओं को कौशल विकास के साथ-साथ उद्यमिता के महामार्ग पर डालना होगा। उन्हें तेजी से इस तरफ प्रवृत्त करना, यह वर्तमान समय की आवश्यकता है। आज के युवा को उद्यमिता के मार्ग पर ले जाने की बड़ी चुनौती भारत के प्रबुद्ध वर्ग को स्वीकार करनी चाहिए।
अमेरिका और यूरोप आदि में नौकरी विशेषकर सरकारी नौकरी को कोई बहुत प्राथमिकता नहीं दी जाती। अपने छोटे-बड़े बिजनेस खड़ा करना, यही प्रमुख प्रक्रिया चलती है। अपनी कंपनियां, अपने ब्रांड विकसित करना, उपयोगी होता है। आज अमेरिका विश्व का सबसे अधिक स्टार्टअप वाला देश है। सर्वाधिक यूनिकॉर्न कंपनियां अमेरिका में होती हैं। प्रति व्यक्ति आय वहां की सर्वाधिक है। यदि वहां के युवा भी हमारे तरह नौकरी की मानसिकता के होते तो यह कभी संभव नहीं था।
पूर्ण रोजगार का चतुष्पंक्ति मार्ग
1. विकेंद्रीकरणः भारतीय अर्थशास्त्र के महान चिंतक पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी कहा करते थे कि भारत की अर्थव्यवस्था को गति देनी है तो दो ही शब्द पर्याप्त हैं - विकेंद्रीकरण और स्वदेशी। अब यदि उसमें रोजगार सृजन का विषय भी जोड़ना हो तो दो अन्य शब्द जोड़ने होंगे, वह हैं - उद्यमिता और सहकार।
अभी जो भी भारत में योजनाएं बनती हैं, बजट आबंटित होते हैं, उनका निर्णय केंद्र सरकार अथवा राज्य सरकार के स्तर पर किया जाता है। भारत जैसे विशाल देश के लिए यह उपयुक्त नहीं। नीचे आते-आते योजना को क्रियान्वयन करने का किसी प्रकार का उत्साह रहता ही नहीं। फिर ऊपर से नीचे पैसा आने और नीचे से टेक्स इकट्ठा होकर ऊपर जाने में भ्रष्टाचार और लालफीताशाही, यह भी तेजी से बढ़ती है। इसलिए भारत को जिला केंद्रित अर्थव्यवस्था के मॉडल पर विचार करना ही होगा।
विशेषकर रोजगार सृजन तो जिला केंद्रित योजनाओं से ही होगा, जिससे उस जिले की विशेषताओं, उस जिले की युवा शक्ति, उस जिले के उपलब्ध संसाधन का अधिकतम उपयोग उत्तम पद्धति से हो सके, इसके लिए योजना भी करनी होगी। आवश्यक कानून भी बनाने होगें। यद्यपि सन् 1986 में, तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी जी द्वारा पंचायती राज का संविधान संशोधन हुआ व ग्राम स्तर तक का विकेंद्रीकरण का विषय तय हुआ। किन्तु सीधे ग्राम तक का विकेंद्रीकरण अव्यवहारिक है, इसलिए उसके कोई सार्थक परिणाम नहीं निकले।
इसलिये जिला स्तर ही सब प्रकार की रोजगार व अर्थ सृजन की योजनाओं का केंद्र होना चाहिए।
2. स्थानीय, स्वदेशीः स्वदेशी आजकल बड़ा प्रचलित व सर्वस्वीकार्य शब्द बन गया है। भारत के प्रधानमंत्री भी बार-बार ‘बी वोकल-फोर लोकल’ अर्थात् स्थानीय खरीदो, स्वदेशी खरीदो का आह्वान कर रहे हैं। यह बहुत सरल व स्वभाविक बात है कि जितना अधिक लोग स्थानीय व स्वदेशी को खरीदेंगे, उतना अधिक मात्रा में लघु और कुटीर उद्योगों को बढ़ावा मिलेगा और उनके बढ़ने से रोजगार बढ़ना तो निश्चित रूप से होगा ही। अभी भी भारत के रोजगार का सबसे बड़ा हिस्सा कृषि के अलावा लघु एवं कुटीर उद्योगों से ही आता है। इसलिए स्वदेशी भाव जागरण, यह रोजगार सृजन का बड़ा मार्ग है। भारत के निर्यात में भी 48 प्रतिशत योगदान मध्यम, लघु एवं कुटीर उद्योगों का है। भारत जितनी मात्रा में आयात विकल्प (इंपोर्ट सबस्टीटयूट) करके अपनी स्थानीय इंडस्ट्री को खड़ा करेगा, उतनी मात्रा में ही रोजगार बढ़ेंगे।
इस दिशा में गत 2 वर्षों से सरकार ने 10 बड़े सेक्टर में पीएलआई (प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेंटिव) की योजना दी है। कुछ दिन पूर्व भी सेमीकंडक्टर इण्डस्ट्री के लिए 76000 करोड़ रूपये की घोषणा की गई है। यह अलग बात है कि उसका भी एक बड़ा हिस्सा मल्टीनेशनल कंपनियां ले जाने की योजनाएं कर रही हैं, करती रहती हैं। कुल मिलाकर स्वदेशी इंडस्ट्री छोटी हो अथवा बड़ी, अगर भारतीय कंपनियां और भारतीय मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा मिलता है तो निश्चित रूप से रोजगार बढ़ेंगे ही।
3. उद्यमिताः उद्यमिता का विषय पहले भी आया है। 37 करोड़ युवाओं को नौकरियां देना तो किसी भी सरकार अथवा आर्थिक संगठनों या उद्योगों के लिये संभव ही नहीं। अतः एकमात्र मार्ग है, युवा स्वयं के उद्यम से, स्वरोजगार और लघु उद्योग, लघु स्टार्टअप्स आदि में जाएं। वे कृषि में, मूल्य संवर्धन करने के प्रयोग करें, सूचना प्रौद्योगिकी (इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी) का उपयोग करें और भारत ही नहीं विश्व भर में जहां-जहां आवश्यकता है, वहां-वहां जाकर काम करने का विचार करें। और यदि वे ऐसा कर जाते हैं तो रोजगार की अपार संभावनाएं उपलब्ध होंगी।
उसके लिए उनको विभिन्न कौशल विकास की प्रक्रियाओं को अपनाना होगा, निपुण होना होगा। उद्यमिता के लिए यह आवश्यक होता है कि वह अपने आपको प्रशिक्षित करें, उनके अंदर की प्रतिभाएं और उनकी सोच का विकास, उन्हें बड़ी कमाई और अर्थ सृजन में सहायक होगा। साथ ही अपने युवाओं को जॉब सीकर की बजाय जॉब प्रोवाइडर बनाने का एक बड़ा प्रयत्न अब भारत को करना ही होगा।
4. सहकारिताः सहकारिता एक और बड़ा क्षेत्र है, जो भारत जैसे देश की बेरोजगारी की समस्या के समाधान में सहायक हो सकता है। इस विषय में विश्व प्रसिद्ध भारत का मॉडल तो अमूल का है, जिसके कारण से गुजरात के ही 36 लाख किसानों की आय में बहुत अच्छा फर्क पड़ा है। फिर हजारों प्रत्यक्ष नौकरियां भी वहां निकली है। और वह मॉडल सारे देश में लागू हुआ है, विभिन्न नामों से। तो आज भारत न केवल दुग्ध उत्पादन में विश्व में क्रमांक एक पर आ गया है, बल्कि वह लाखों लोगों की आजीविका का कारण भी बना है।
यही बात इफको व अन्य अनेक प्रकार के सहकारी उद्योगों के विषय में भी है। जब पूंजी से मानव शक्ति एकत्र की जाती है, तो उसे पूंजीवादी मॉडल कहते हैं। किंतु जब मानव शक्ति पूंजी एकत्र करके उद्योग चलाती है, तो उसे सहकारिता कहते हैं।
इंडियन कॉफी हाउस, लिज्जत पापड़ जैसे अनेकों सफल उदाहरण हैं, जिनसे गुणवत्ता वाले रोजगार बड़ी मात्रा में सृजन हो रहे हैं। और इस सहकारिता आधारित उद्योगों की विशेषता यह रहती है कि उसमें असमानता नहीं बढ़ती। एक अध्ययन के अनुसार सहकारिता आधारित उद्योगों में प्रति मास की आय का अंतर, 1ः9 तक का (कम अंतर) ही रहता है, अर्थात सबसे कम कमाने वाले व सबसे अधिक वाले का अनुपात। जबकि कैपिटल आधारित उद्योग में यह अंतर 1ः2000 या इससे भी अधिक का हो सकता है।
भारत इस समय पर विश्व में सर्वाधिक असमान आय वर्ग की श्रेणी में आ गया है। जहां भारत के ऊपर के 10 प्रतिशत लोग ही संपूर्ण भारत की 57 प्रतिशत पूंजी रखते हैं। और निचले 50 प्रतिशत लोगों का कुल भारत की पूंजी में हिस्सा मात्र 13 प्रतिशत है। इसलिए भारत को गुणवत्ता वाले रोजगार सृजन करने के लिए सहकारी आंदोलन और सहकार आधारित उद्योगों की बड़ी प्रक्रिया करनी होगी। इस विषय में भारत सरकार ने न केवल मंत्रालय का गठन किया है बल्कि इसके लिए एक अलग से विश्वविद्यालय के निर्माण की प्रक्रिया भी प्रारंभ हो गई है।
गुणवत्ता वाले रोजगार व आय के समान वितरण प्रक्रिया के लिए, भारत में सहकारी आंदोलन निश्चित ही प्रभावी व उपयोगी होगा।
चार मार्ग, विकेंद्रीकरण, स्वदेशी, उद्यमिता व सहकारिता ही भारत की अर्थव्यवस्था में रोजगार का चक्र सर्वाधिक गति से घुमा सकते हैं और भारत को एक वैश्विक महाशक्ति बनाने की स्थिति में ला सकते हैं।
त्रिस्तरीय रोजगार सृजन योजना
भारत को पूर्ण रोजगार युक्त करने के लिए त्रिस्तरीय योजना करनी होगी। पहला है, वर्तमान में चल रहे छोटे-छोटे रोजगार सृजन के प्रयोगों को सहयोग, प्रोत्साहन व संवर्धन करना। दूसरा है जिलानुसार रोजगार सृजन केंद्रों की स्थापना करना व तीसरा है अपने 37 करोड़ युवाओं की मानसिकता में परिवर्तन करना और केवल युवाओं में नहीं बल्कि संपूर्ण भारत की मानसिकता में परिवर्तन करना। उसके लिए एक देशव्यापी विशाल जन जागरण की आवश्यकता होगी।
1. स्वरोजगार को प्रोत्साहन, सहयोग
अभी देश भर में 6.25 करोड़ लघु कुटीर उद्योग हैं। इसके अतिरिक्त स्वरोजगारियों की संख्या भी करोड़ों में है। वास्तव में भारत का सर्वाधिक रोजगार तो यहीं से सृजन होता है। इस प्रकार के सब प्रकल्पों को, स्वरोजगारियों को प्रोत्साहन व सम्मान की आश्यकता रहती है, जिसे अभियान में लगे हुए सब कार्यकर्ताओं को पूर्ण करना होगा। उन्हें सहयोग देना होगा। उनकी छोटी-मोटी कठिनाईयों को सुनना व समाधान करने का प्रयत्न करना, एक बड़ा काम है। फिर अनेक स्थानों पर यह सुनने को आता है कि उद्योगों को काम करने वाले नहीं मिल रहे और बेरोजगार लोगों को कहां नौकरी मिल सकती है, यह पता नहीं। कई बार कौशल का भी अभाव रहता है। अतः हमें नौकरी चाहने वालों को, नौकरी देने वाले उद्योगों से मिलवाना होगा। उनके कौशल विकास पर ध्यान देना होगा। कौशल विकास केंद्रों से तालमेल कर यह किया जा सकता है। फिर नाई, धोबी, प्लम्बर, सिलाई, डिजाईन, मेकअप आदि सैकड़ों लघु कामों के प्रशिक्षण व स्वरोजगार की प्रवृत्ति को बढ़ावा देना। ऐसे प्रकल्पों को सर्वदूर प्रोत्साहन व समर्थन देना होगा।
2. तंत्र रचनाः जिला रोजगार सृजन केंद्र
रोजगार सृजन में पांच संकल्पों पर जनजागरण के अतिरिक्त दूसरा बड़ा कार्य है, प्रत्यक्ष युवाओं को रोजगार व उद्यमिता के लिए प्रशिक्षित करना। जिसके लिए भारत में जिला रोजगार सृजन केंद्रों की स्थापना, एक सफल प्रयोग के नाते से विकसित हो रहा है।
जैसे कि हमने पहले भी अध्ययन किया है कि विकेंद्रीकरण व उद्यमिता यह सुदृढ़ अर्थव्यवस्था व रोजगार सृजन के लिए आवश्यक तत्व हैं। इसकी प्रत्यक्ष प्रक्रिया का केंद्र होगा, जिला रोजगार सृजन केंद्र। यह जिला केंद्र, किसी भी विश्वविद्यालय अथवा महाविद्यालय के साथ मिलकर चलाया जा सकता है। इस केंद्र में युवाओं को सब प्रकार की जानकारियां, वहीं पर ही मिलने की सुविधा का प्रबंध हो। उन्हें नए उद्यम स्थापित करने में किस प्रकार की चुनौती आ सकती है और उनका समाधान क्या हो सकता है, इसका प्रशिक्षण होना चाहिए। उन्हें सरकारी नौकरियों व रोज़गार संबंधी सब प्रकार की योजनाओं की सूचनाओं व जानकारियों की व्यवस्था होनी चाहिए। सब प्रकार की देश और विदेश में निकलने वाली नौकरियां व रोजगार की प्रक्रियाओं के बारे में इस एक स्थान पर सूचनाएं मिलने की व्यवस्था हो। उन्हें अर्न व्हाईल लर्न की प्रक्रिया में जाने के लिए प्रेरणा व प्रशिक्षण भी यहीं से मिले। इसका संचालन महाविद्यालय व संगठन के कार्यकर्ता मिलकर कर सकते हैं। एक प्रमुख के साथ 6-7 लोगों की टोली इसका संचालन करे।
जिले की आवश्यकता, संसाधन, युवा शक्ति का स्वभाव,उनके शिक्षा व कौशल विकास की स्थिति, वहां की इंडस्ट्री आदि का सटीक अध्ययन व नियोजन करने में यह केंद्र एक बड़ी भूमिका निभा सकता है। इसलिए प्रत्येक जिले में एक रोजगार सृजन केंद्र की स्थापना करना और वहां से ही सब प्रकार की रोजगार सृजन की योजना करना, यह एक सफल प्रयोग के नाते से उभरकर आ रहा है।
भारत के सभी 739 जिलों पर इस प्रकार के केंद्र बनने व सफलता से चलने के बाद इसे ब्लॉक स्तर पर भी स्थापित करने का विचार किया जा सकता है। कुल मिलाकर एक तंत्र ऐसा अवश्य विकसित हो जो स्थानीय स्तर पर ही रोजगार व अर्थ सृजन की समस्या का समाधान कर सके।
3 युवा करें सोच में परिवर्तन:
युवा करें, उद्यमिता के पांच संकल्प
भारत को पूर्ण रोजगार युक्त देश बनाने के लिये हमारे युवा, पांच संकल्प लें। इनमें पहला होगा “हम पढ़ते हुए ही कमाई शुरू करेंगे, जल्दी कमाई शुरू करेंगे।“ दूसरा रहेगा “हम नौकरी चाहने वाले नहीं, बल्कि नौकरियां देने वाले बनेंगे।“ तीसरा है “हम बड़ा सोचें, नया सोचें, सामान्य से हटकर सोचें।“ जिसे अंग्रेजी में ‘‘थिंक बिग, थिंक न्यू, थिंक आउट आफ बॉक्स“ कहते हैं। चौथा है, उद्यमिता के 5 गुणों को धारण करना “दृढ़ इच्छाशक्ति, परिश्रमी होना, साहसी होना, विश्वसनीय बनना व नई तकनीकों को अपनाना।“ और पाँचवां संकल्प होगा “राष्ट्र को प्राथमिकता, और स्वदेशी आवश्यक“। इन 5 बिंदुओं पर देश भर में एक व्यापक जन जागरण की प्रक्रिया करनी होगी।
देश व्यापी प्रबल जनजागरण से होगा समाधान
देश के युवाओं की मानसिकता परिवर्तन हेतु उक्त पांच संकल्पों पर व्यापक जनजागरण करना होगा। आईये इन पांच संकल्पों का विश्लेषण करें:
1.पहले संकल्प “पढ़ते हुए कमाने“ का भाव : यह है कि हमारे युवा स्नातक व परास्नातक तक की पढ़ाई करते हैं, फिर बीएड या अन्य प्रकार के कुछ कोर्स करते हैं, फिर सोचते हैं कि हमें नौकरी मिलनी चाहिए। 24-25 साल के होने से पूर्व वे कमाई करने की सोचते ही नहीं। जबकि अनेक स्थानों पर हुए प्रयोग यह बता रहे हैं कि जो युवा अर्न व्हाईल लर्न की प्रक्रिया में रहते हैं। 16-17 आयु वर्ग से ही कुछ न कुछ कमाई प्रारंभ करते हैं, वही बड़े होकर सफल उद्यमी व रोजगार प्रदाता बनते हैं। वारेन बफे ने 11 वर्ष की उम्र में ही पहला शेयर खरीदकर कमाई प्रारंभ की। इसी प्रकार से जमशेद टाटा जी ने 14 वर्ष में कामना शुरू कर दिया था तो बिल गेट्स ने 19 वर्ष में। फेसबुक के मार्क जुगर बर्ग ने 18 वर्ष में, और ओयो रूम्स के मालिक रितेश अग्रवाल ने भी 18 वर्ष में कमाई प्रारंभ कर दी थी। इस समय देश व विश्व में ऐसे सैंकड़ों उदाहरण सामने आ रहे हैं जब युवाओं ने छोटी आयु में ही अपना उद्यम या कहिये स्टार्टअप्स शुरू किया, लेकिन आज वे न केवल बड़ी कमाई कर रहे हैं, बल्कि हजारों लोगों को आजीविका दे भी रहे हैं।
हरियाणा सहित अनेक प्रदेशों में अर्न व्हाईल लर्न के सफल प्रयोग हो रहे हैं। वहां बड़ी संख्या में युवा पढ़ाई के साथ अल्पकालीन अर्थ संग्रह (कमाई) भी कर रहे हैं। उससे उनको उद्यमिता का स्वभाविक प्रशिक्षण भी मिल रहा है।
2. Dont Be jobseeker,be Job provider: अतः हमारे युवाओं को नौकरी करने की मानसिकता छोड़ अपने उद्यम शुरू करने की सोच रखना ही श्रेष्ठ मार्ग है। उद्यमिता से वह न केवल अपनी आंतरिक प्रतिभाओं को पूर्णतया उभारता है, बल्कि अनेकों को कार्ययुक्त कर रोजगार की समस्या के समाधान का भी हिस्सा बनता है। नौकरी की या छोटी सोच न रखकर अपने उद्यम व बड़ी सोच रखने के अनेक छोटे-बड़े उदाहरण अपने सामने हैं।
उद्यमिता के दो उदाहरण
दिल्ली के बिट्टू टिक्की वाले (ठज्ॅ) का उदाहरण अनेक बार आया है, कि कैसे वह अयोध्या के निकट छोटे से गांव में स्कूल के बच्चों को पढ़ाने की नौकरी से शुरू हुआ, किन्तु उसके मन में अपना काम व बड़ा बनने की इच्छा के कारण वह दिल्ली आया। यहाँ आलू टिक्की, गोलगप्पे की छोटी दुकान से शुरू किया, और बाद में 500 करोड़ का उद्योग स्थापित करने में सफल हो गया। आज वह सैकड़ों लोगों को नौकरी दे भी रहा है।
यही बात सचिन और बिन्नी बंसल के बारे में भी है। उन्होंने दिल्ली आईआईटी से इंजीनियरिंग करने के बाद अमेजॉन में नौकरी कर ली। किन्तु उनके मन में था कि अपना व्यवसाय करना ही श्रेष्ठ है। इसलिए दो वर्ष से भी कम नौकरी की, फिर उसे छोड़कर फ्लिपकार्ट कंपनी बनाई। प्रारंभिक कठिनाइयों के बाद उन्होंने केवल 9 वर्ष में ही भारत की ई-कॉमर्स क्षेत्र की दिग्गज कंपनी बना डाली और 2018 में जब उसे वालमार्ट को बेचा तो 16.5 अरब डालर में। इससे पहले भारत में ही नहीं विश्व में इतनी बड़ी ई-कामर्स की कोई कंपनी नहीं बिकी। यद्यपि उसे एक विदेशी कंपनी को बेचने का सबको दुःख है, किन्तु यह इस बात का प्रमाण तो है ही कि हमारे युवा चाहें तो कुछ भी कर सकते हैं। भारत में और बाहर भी इस प्रकार के अनेक उदाहरण हमारे सामने हैं।
3. तीसरा विचार ‘‘नया सोचें, बड़ा सोचे, हटकर सोचें“ भी उतना ही प्रभावी विचार है। जिसे वास्तव में हमारे युवाओं को अपनाना ही चाहिए। जिन्होंने भी बड़ा और अधिक कमाया है, उन्होंने कुछ न कुछ नया अवश्य किया है।
इस विषय में बाबा रामदेव का उदाहरण हम सबके सामने है। उनके पास कोई पूंजी नहीं थी, कोई बड़ी डिग्रियां नहीं थी, कोई व्यवसायिक पृष्ठभूमि भी नहीं थी। किंतु उन्होंने अपने ऋषि-मुनियों से मिली हुई ’योग और प्राणायाम विद्या को भी अर्थ एवं रोजगार सृजन का माध्यम बनाया जा सकता है’, यह एक नई सोच रखी। एक नई पहल थी यह और इसके कारण से न केवल भारतीय योग विश्व भर में प्रचारित हुआ, बल्कि लाखों लोगों को रोजगार मिला, करोड़ों का अर्थ सृजन हुआ। आज बाबा रामदेव की पतंजलि कोई 20,000 करोड़ रुपए की कंपनी है, और एक लाख से अधिक लोग उसके कारण प्रत्यक्ष रोजगार पाते हैं।
इसी तरह बिंदेश्वरी दुबे, जिन्होंने सुलभ शौचालय की श्रृंखला स्थापित की, एक प्रेरक उदाहरण है। यद्यपि वह स्वयं एक रूढ़िवादी ब्राम्हण परिवार से संबंध रखते थे, पर जब उनके ध्यान में नगरों में लोगों को शौचालय की कठिनाई ध्यान में आई, तो एक एनजीओ बनाकर शुल्क के आधार पर सुलभ शौचालयों की शृंखला शुरू की। कुछ नया सोचने पर आज देश भर में 6000 से अधिक शौचालय हैं और जिनके कारण से 25,000 से अधिक लोग रोजगार पाते हैं। नई सोच, बड़ी सोच, लीक से हटकर सोच, यह निश्चित रूप से ही समृद्धि व रोज़गार के नए द्वार खोलता ही है।
उद्यमिता पर जन जागरण ही समाधान
4. सफल उद्यमियों के अध्ययन करने पर यह बात सामने आई है, कि उनमें निम्न पांच गुण सामान्यतः होते हैं। अतः हमारे युवकों को इन 5 गुणों को धारण करने का संकल्प अवश्य लेना चाहिए। क्या बिना ’दृढ़ इच्छाशक्ति’ (Resolute, Strong-willed) के कोई व्यक्ति सफल हो सकता है या बिना ’ कठोर परिश्रम’ ( hard working किए कोई अपना काम खड़ा कर सकता है? उद्योग तो छोड़ दीजिए, पढ़ाई या परिवार का काम भी बिना परिश्रम किए सफल नहीं होते। फिर जिन्होंने जीवन में कुछ ’साहसिक’ (risk taking) निर्णय लिए हैं, वही तो सफल हुए हैं। इसके अतिरिक्त हमारे युवकों को यह ध्यान रखना चाहिए कि ’विश्वसनीयता’ (reliability) का आवश्यक गुण सदैव जीवन में प्रगति का आधार बनता है। और उन्हें ’तकनीक निपुण’ (tec savvy) भी होना ही चाहिए।
वर्तमान में तेजी से बदलती टेक्नोलॉजी को अपनाने में वैसे हमारे युवा माहिर हैं, किंतु उन्हें दिमाग से यह निकाल देना चाहिए कि नई टेक्नोलॉजी रोजगार को खत्म करती ही है। हाँ, बहुत बार इससे रोजगार के स्वरूप बदलते हैं, मरते नहीं। युवा इस विषय का अध्ययन करें। यह सुनिश्चित करें कि अपने आपको बदलती हुई टेक्नोलॉजी के साथ परिवर्तित करने व प्रशिक्षित करने पर नई संभावनाओं के द्वार खुलते हैं। विश्व में कहीं पर भी ऐसा अनुभव नहीं है कि आप टेक्नोलॉजी अपनाने में पीछे रहें और फिर भी आप समृद्ध हुए हों।
5. पांचवीं और अंतिम बात तो Nation first, Swadeshi Must : आप राष्ट्र को जब प्रथम रखते हैं, तो यह न केवल आपकी देशभक्ति बढ़ाता है, बल्कि वह आपके चारों तरफ विश्वसनीयता का एक सुरक्षा चक्र भी खड़ा कर देता है। और फिर किसी भी व्यक्ति का उद्देश्य केवल अपने रोजगार पर तो सीमित नहीं रहना चाहिए, उसे समाज और राष्ट्र की उन्नति के लिए लगना ही चाहिए। स्वदेशी आवश्यक है, यह तो पहले ही सिद्ध हो चुका है।
इन पांच संकल्पों को अपनाकर अपने युवा न केवल अपने रोजगार का मार्ग प्रशस्त करेंगे, बल्कि वे भारत देश की रोजगार की समस्या के समाधान में और अर्थ सृजन में बहुत सहायक भी होंगे।
भारत का शून्य गरीबी रेखा का लक्ष्यः एक पुनीत कार्य
हमें न केवल अपने युवाओं के रोजगार सृजन की चिंता, योजना करनी है,बल्कि उसी का एक पक्ष भारत में गरीबी रेखा से नीचे रह रहे लोगों के प्रतिशत जो कि वर्तमान में लगभग 20 प्रतिशत है, को शून्य प्रतिशत पर लाना भी है।
आज जब हम स्वतंत्रता का 75वां वर्ष, अमृत महोत्सव के रूप में मना रहे हैं तो उस समय पर यह विषय किसी भी देशभक्त को चुनौती का एहसास कराता है कि 75 वर्ष पूर्ण होने के पश्चात भी हम 20 प्रतिशत ‘गरीबी रेखा से नीचे’ वाले देश हैं।
भारत में 20 प्रतिशत का अर्थ रहता है लगभग 28 करोड लोग। स्वामी विवेकानंद ने कहा था “जब तक मेरे देश का कुत्ता भी भूखा है, तब तक मुझे चैन की नींद नहीं आनी चाहिए।“ कहां एक तरफ तो हमारे महापुरुषों ने इतना विशाल लक्ष्य हमारे सामने रखा और दूसरी तरफ हम 28 करोड लोगों को अभी भी गरीबी रेखा से बाहर निकाल नहीं पाए।
हमें युवाओं के रोजगार का चिंतन करते हुए अपने कार्य योजनाओं का प्रकार ऐसा रखना ही होगा कि अपने ये बंधु-बहनें भी न्यूनतम गरीबी रेखा से ऊपर आ जाएं। यद्यपि इन 75 वर्षों में इस विषय में बहुत अच्छी प्रगति हुई है, किंतु कोई भी देश अपनी 20 प्रतिशत बीपीएल जनसंख्या के साथ महाशक्ति तो नहीं बन सकता?
समृद्ध भारतः हमारी आकांक्षा
फिर ’आर्थिक चिंतन-2021’ की चर्चा के अनुसार भी 2030 तक भारत को 10 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने का एक बड़ा लक्ष्य सबके सामने है। यद्यपि भारत इस समय पर विश्व में सर्वाधिक तेजी से उभरती हुई अर्थव्यवस्था है, तो भी 10 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंचने के लिए विविध प्रकार के यत्न करने होंगे। अपने कृषि क्षेत्र को पूरी तरह से समृद्ध करने से लेकर भारत की नई उभरती शक्ति डिजिटल उसको भी तेजी से आगे बढ़ाना होगा। भारत के कृषि निर्यात गत वर्ष दो लाख करोड़ पार कर गए हैं तो 2021-22 में भारत ने 175 बिलियन डॉलर के आईटी और सॉफ्टवेयर के निर्यात भी किए हैं, यह राशि सऊदी अरब से निकलने वाले कच्चे तेल से अधिक है, जो कि विश्व का दूसरा सर्वाधिक पेट्रोलियम पदार्थ (कच्चा तेल) निकालने वाला देश है। अर्थात अकेले डिजिटल क्षेत्र में ही भारत का पिछले 20 वर्षों में अर्थ व रोजगार सृजन का एक बड़ा सहायक क्षेत्र उभरा है। उसे वैश्विक स्तर पर ले जाने के लिए व्यापक दृष्टिकोण व योजनाएं आवश्यक हैं। गत 7 वर्षों में भारत विश्व की 11वीं अर्थव्यवस्था के नाते से उभरकर अब 2.8 ट्रिलियन डॉलर के साथ पांचवें स्थान पर आ गया है, उसे शीघ्र ही तीसरे स्थान पर आना ही चाहिए। पहले व दूसरे पर अमेरिका व चीन हैं।
रोजगार पर महा जनजागरण, समय की आवश्यकता
जब हम भारत के रोजगार के संदर्भ में चर्चा करते हैं तो अनेक अर्थशास्त्रियों का मत रहता है कि सरकार को अपनी नीतियों में ऐसा अथवा वैसा परिवर्तन करना चाहिए। वह इस मत के हैं कि सरकारी नीतियों से ही रोजगार की समस्या का समाधान हो सकता है। यह कुछ मात्रा में सही हो सकता है किंतु गत 70 वर्षों का अनुभव इस मत का पूर्ण समर्थन तो नहीं करता। फिर अनेक विद्वानों का मानना है कि निजी क्षेत्र का निवेश (प्राइवेट इन्वेस्टमेंट) जितना बढ़ेगा, उतनी ही मात्रा में रोजगार निकलेंगे और यह पूंजी चाहे देश से आए या विदेश से, इससे उन्हें ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। यह भी कुछ मात्रा में ही ठीक है, क्योंकि गत 30 वर्षों से जीडीपी में अपेक्षित वृद्धि तो हुई है किंतु यह भी सत्य है कि यह बढ़ी हुई जीडीपी भारत की रोजगार की समस्या का समाधान नहीं कर पाई। इसलिए इसे जॉब्लेस ग्रोथ भी कहा गया है।
कुछ अन्यों का कहना है कि शिक्षा ही सब प्रकार के रोजगार की जननी है, इसलिए शिक्षा को ही, उसके पाठ्यक्रम को ही, परिवर्तित किया जाए, रोजगार के अनुकूल किया जाए। यह बिल्कुल ठीक है, किंतु हमें दीर्घकालिक व अल्पकालिक दोनों मार्गों का अवलंबन करना है।
यद्यपि नई शिक्षा नीति इस विषय में काफी समाधानकारक है। किंतु इस नीति की प्रक्रिया को नीचे तक उतरने में लगभग 20 वर्ष लगेंगे। तब तक भारत अपने जनसंख्यकी लाभांश के दौर का काफी हिस्सा पूर्ण कर चुका होगा। इसलिए भारत की सर्वोच्च आवश्यकता तो वर्तमान की है।
अतः उपरोक्त सभी मत ठीक होते हुए भी पूर्ण नहीं है। वास्तव में इसके लिए भारत जैसे विशाल देश में एक महा जनजागरण ही समाधान है, क्योंकि समाज की जागृति का स्तर ही सरकार की नीतियों का निर्णायक तत्व होता है। वही निजी पूंजी निवेश, रोजगार सृजक नीति निर्माण, सामाजिक-आर्थिक संगठनों की भागीदारी के मार्ग भी खोलता है। यह जनजागरण, शिक्षा, कौशल विकास व उद्यमिता को भी पूर्णरूपेण प्राप्त करने के लिए आवश्यक है। समाज में एक व्यापक जन जागरण हो इस दृष्टि से आर्थिक संगठनों ने मिलकर जो पहल की है, उसी का नाम है - स्वावलंबी भारत अभियान। इस अभियान को भारत के प्रत्येक जिला, प्रत्येक खंड और यही नहीं प्रत्येक ग्राम तक ले जाना होगा। भारत के इस महा जनजागरण में से ही शताब्दियों से चल रही इस बेरोजगारी की महामारी का समाधान भी होगा और भारत एक आर्थिक महाशक्ति के रूप में उभरते हुए, परम्वैभव की अपनी यात्रा पर शीघ्रता से पग बढ़ा पायेगा। और यह निष्कर्ष उतना ही निश्चित है, जितना यह सत्य है कि कल भी सूर्योदय होगा।
भारत को पूर्ण रोजगार युक्त देश बनाने के लिये हमारे युवा, पांच संकल्प लें। इनमें पहला होगा “हम पढ़ते हुए ही कमाई शुरू करेंगे, जल्दी कमाई शुरू करेंगे।“ दूसरा रहेगा “हम नौकरी चाहने वाले नहीं, बल्कि नौकरियां देने वाले बनेंगे।“ तीसरा है “हम बड़ा सोचें, नया सोचें, सामान्य से हटकर सोचें।“ जिसे अंग्रेजी में ‘‘थिंक बिग, थिंक न्यू, थिंक आउट आफ बॉक्स“ कहते हैं। चौथा है, उद्यमिता के 5 गुणों को धारण करना “दृढ़ इच्छाशक्ति, परिश्रमी होना, साहसी होना, विश्वसनीय बनना व नई तकनीकों को अपनाना।“ और पाँचवां संकल्प होगा “राष्ट्र को प्राथमिकता, और स्वदेशी आवश्यक“। इन 5 बिंदुओं पर देश भर में एक व्यापक जन जागरण की प्रक्रिया करनी होगी।
देश व्यापी प्रबल जनजागरण से होगा समाधान
देश के युवाओं की मानसिकता परिवर्तन हेतु उक्त पांच संकल्पों पर व्यापक जनजागरण करना होगा। आईये इन पांच संकल्पों का विश्लेषण करें:
1.पहले संकल्प “पढ़ते हुए कमाने“ का भाव : यह है कि हमारे युवा स्नातक व परास्नातक तक की पढ़ाई करते हैं, फिर बीएड या अन्य प्रकार के कुछ कोर्स करते हैं, फिर सोचते हैं कि हमें नौकरी मिलनी चाहिए। 24-25 साल के होने से पूर्व वे कमाई करने की सोचते ही नहीं। जबकि अनेक स्थानों पर हुए प्रयोग यह बता रहे हैं कि जो युवा अर्न व्हाईल लर्न की प्रक्रिया में रहते हैं। 16-17 आयु वर्ग से ही कुछ न कुछ कमाई प्रारंभ करते हैं, वही बड़े होकर सफल उद्यमी व रोजगार प्रदाता बनते हैं। वारेन बफे ने 11 वर्ष की उम्र में ही पहला शेयर खरीदकर कमाई प्रारंभ की। इसी प्रकार से जमशेद टाटा जी ने 14 वर्ष में कामना शुरू कर दिया था तो बिल गेट्स ने 19 वर्ष में। फेसबुक के मार्क जुगर बर्ग ने 18 वर्ष में, और ओयो रूम्स के मालिक रितेश अग्रवाल ने भी 18 वर्ष में कमाई प्रारंभ कर दी थी। इस समय देश व विश्व में ऐसे सैंकड़ों उदाहरण सामने आ रहे हैं जब युवाओं ने छोटी आयु में ही अपना उद्यम या कहिये स्टार्टअप्स शुरू किया, लेकिन आज वे न केवल बड़ी कमाई कर रहे हैं, बल्कि हजारों लोगों को आजीविका दे भी रहे हैं।
हरियाणा सहित अनेक प्रदेशों में अर्न व्हाईल लर्न के सफल प्रयोग हो रहे हैं। वहां बड़ी संख्या में युवा पढ़ाई के साथ अल्पकालीन अर्थ संग्रह (कमाई) भी कर रहे हैं। उससे उनको उद्यमिता का स्वभाविक प्रशिक्षण भी मिल रहा है।
2. Dont Be jobseeker,be Job provider: अतः हमारे युवाओं को नौकरी करने की मानसिकता छोड़ अपने उद्यम शुरू करने की सोच रखना ही श्रेष्ठ मार्ग है। उद्यमिता से वह न केवल अपनी आंतरिक प्रतिभाओं को पूर्णतया उभारता है, बल्कि अनेकों को कार्ययुक्त कर रोजगार की समस्या के समाधान का भी हिस्सा बनता है। नौकरी की या छोटी सोच न रखकर अपने उद्यम व बड़ी सोच रखने के अनेक छोटे-बड़े उदाहरण अपने सामने हैं।
उद्यमिता के दो उदाहरण
दिल्ली के बिट्टू टिक्की वाले (ठज्ॅ) का उदाहरण अनेक बार आया है, कि कैसे वह अयोध्या के निकट छोटे से गांव में स्कूल के बच्चों को पढ़ाने की नौकरी से शुरू हुआ, किन्तु उसके मन में अपना काम व बड़ा बनने की इच्छा के कारण वह दिल्ली आया। यहाँ आलू टिक्की, गोलगप्पे की छोटी दुकान से शुरू किया, और बाद में 500 करोड़ का उद्योग स्थापित करने में सफल हो गया। आज वह सैकड़ों लोगों को नौकरी दे भी रहा है।
यही बात सचिन और बिन्नी बंसल के बारे में भी है। उन्होंने दिल्ली आईआईटी से इंजीनियरिंग करने के बाद अमेजॉन में नौकरी कर ली। किन्तु उनके मन में था कि अपना व्यवसाय करना ही श्रेष्ठ है। इसलिए दो वर्ष से भी कम नौकरी की, फिर उसे छोड़कर फ्लिपकार्ट कंपनी बनाई। प्रारंभिक कठिनाइयों के बाद उन्होंने केवल 9 वर्ष में ही भारत की ई-कॉमर्स क्षेत्र की दिग्गज कंपनी बना डाली और 2018 में जब उसे वालमार्ट को बेचा तो 16.5 अरब डालर में। इससे पहले भारत में ही नहीं विश्व में इतनी बड़ी ई-कामर्स की कोई कंपनी नहीं बिकी। यद्यपि उसे एक विदेशी कंपनी को बेचने का सबको दुःख है, किन्तु यह इस बात का प्रमाण तो है ही कि हमारे युवा चाहें तो कुछ भी कर सकते हैं। भारत में और बाहर भी इस प्रकार के अनेक उदाहरण हमारे सामने हैं।
3. तीसरा विचार ‘‘नया सोचें, बड़ा सोचे, हटकर सोचें“ भी उतना ही प्रभावी विचार है। जिसे वास्तव में हमारे युवाओं को अपनाना ही चाहिए। जिन्होंने भी बड़ा और अधिक कमाया है, उन्होंने कुछ न कुछ नया अवश्य किया है।
इस विषय में बाबा रामदेव का उदाहरण हम सबके सामने है। उनके पास कोई पूंजी नहीं थी, कोई बड़ी डिग्रियां नहीं थी, कोई व्यवसायिक पृष्ठभूमि भी नहीं थी। किंतु उन्होंने अपने ऋषि-मुनियों से मिली हुई ’योग और प्राणायाम विद्या को भी अर्थ एवं रोजगार सृजन का माध्यम बनाया जा सकता है’, यह एक नई सोच रखी। एक नई पहल थी यह और इसके कारण से न केवल भारतीय योग विश्व भर में प्रचारित हुआ, बल्कि लाखों लोगों को रोजगार मिला, करोड़ों का अर्थ सृजन हुआ। आज बाबा रामदेव की पतंजलि कोई 20,000 करोड़ रुपए की कंपनी है, और एक लाख से अधिक लोग उसके कारण प्रत्यक्ष रोजगार पाते हैं।
इसी तरह बिंदेश्वरी दुबे, जिन्होंने सुलभ शौचालय की श्रृंखला स्थापित की, एक प्रेरक उदाहरण है। यद्यपि वह स्वयं एक रूढ़िवादी ब्राम्हण परिवार से संबंध रखते थे, पर जब उनके ध्यान में नगरों में लोगों को शौचालय की कठिनाई ध्यान में आई, तो एक एनजीओ बनाकर शुल्क के आधार पर सुलभ शौचालयों की शृंखला शुरू की। कुछ नया सोचने पर आज देश भर में 6000 से अधिक शौचालय हैं और जिनके कारण से 25,000 से अधिक लोग रोजगार पाते हैं। नई सोच, बड़ी सोच, लीक से हटकर सोच, यह निश्चित रूप से ही समृद्धि व रोज़गार के नए द्वार खोलता ही है।
उद्यमिता पर जन जागरण ही समाधान
4. सफल उद्यमियों के अध्ययन करने पर यह बात सामने आई है, कि उनमें निम्न पांच गुण सामान्यतः होते हैं। अतः हमारे युवकों को इन 5 गुणों को धारण करने का संकल्प अवश्य लेना चाहिए। क्या बिना ’दृढ़ इच्छाशक्ति’ (Resolute, Strong-willed) के कोई व्यक्ति सफल हो सकता है या बिना ’ कठोर परिश्रम’ ( hard working किए कोई अपना काम खड़ा कर सकता है? उद्योग तो छोड़ दीजिए, पढ़ाई या परिवार का काम भी बिना परिश्रम किए सफल नहीं होते। फिर जिन्होंने जीवन में कुछ ’साहसिक’ (risk taking) निर्णय लिए हैं, वही तो सफल हुए हैं। इसके अतिरिक्त हमारे युवकों को यह ध्यान रखना चाहिए कि ’विश्वसनीयता’ (reliability) का आवश्यक गुण सदैव जीवन में प्रगति का आधार बनता है। और उन्हें ’तकनीक निपुण’ (tec savvy) भी होना ही चाहिए।
वर्तमान में तेजी से बदलती टेक्नोलॉजी को अपनाने में वैसे हमारे युवा माहिर हैं, किंतु उन्हें दिमाग से यह निकाल देना चाहिए कि नई टेक्नोलॉजी रोजगार को खत्म करती ही है। हाँ, बहुत बार इससे रोजगार के स्वरूप बदलते हैं, मरते नहीं। युवा इस विषय का अध्ययन करें। यह सुनिश्चित करें कि अपने आपको बदलती हुई टेक्नोलॉजी के साथ परिवर्तित करने व प्रशिक्षित करने पर नई संभावनाओं के द्वार खुलते हैं। विश्व में कहीं पर भी ऐसा अनुभव नहीं है कि आप टेक्नोलॉजी अपनाने में पीछे रहें और फिर भी आप समृद्ध हुए हों।
5. पांचवीं और अंतिम बात तो Nation first, Swadeshi Must : आप राष्ट्र को जब प्रथम रखते हैं, तो यह न केवल आपकी देशभक्ति बढ़ाता है, बल्कि वह आपके चारों तरफ विश्वसनीयता का एक सुरक्षा चक्र भी खड़ा कर देता है। और फिर किसी भी व्यक्ति का उद्देश्य केवल अपने रोजगार पर तो सीमित नहीं रहना चाहिए, उसे समाज और राष्ट्र की उन्नति के लिए लगना ही चाहिए। स्वदेशी आवश्यक है, यह तो पहले ही सिद्ध हो चुका है।
इन पांच संकल्पों को अपनाकर अपने युवा न केवल अपने रोजगार का मार्ग प्रशस्त करेंगे, बल्कि वे भारत देश की रोजगार की समस्या के समाधान में और अर्थ सृजन में बहुत सहायक भी होंगे।
भारत का शून्य गरीबी रेखा का लक्ष्यः एक पुनीत कार्य
हमें न केवल अपने युवाओं के रोजगार सृजन की चिंता, योजना करनी है,बल्कि उसी का एक पक्ष भारत में गरीबी रेखा से नीचे रह रहे लोगों के प्रतिशत जो कि वर्तमान में लगभग 20 प्रतिशत है, को शून्य प्रतिशत पर लाना भी है।
आज जब हम स्वतंत्रता का 75वां वर्ष, अमृत महोत्सव के रूप में मना रहे हैं तो उस समय पर यह विषय किसी भी देशभक्त को चुनौती का एहसास कराता है कि 75 वर्ष पूर्ण होने के पश्चात भी हम 20 प्रतिशत ‘गरीबी रेखा से नीचे’ वाले देश हैं।
भारत में 20 प्रतिशत का अर्थ रहता है लगभग 28 करोड लोग। स्वामी विवेकानंद ने कहा था “जब तक मेरे देश का कुत्ता भी भूखा है, तब तक मुझे चैन की नींद नहीं आनी चाहिए।“ कहां एक तरफ तो हमारे महापुरुषों ने इतना विशाल लक्ष्य हमारे सामने रखा और दूसरी तरफ हम 28 करोड लोगों को अभी भी गरीबी रेखा से बाहर निकाल नहीं पाए।
हमें युवाओं के रोजगार का चिंतन करते हुए अपने कार्य योजनाओं का प्रकार ऐसा रखना ही होगा कि अपने ये बंधु-बहनें भी न्यूनतम गरीबी रेखा से ऊपर आ जाएं। यद्यपि इन 75 वर्षों में इस विषय में बहुत अच्छी प्रगति हुई है, किंतु कोई भी देश अपनी 20 प्रतिशत बीपीएल जनसंख्या के साथ महाशक्ति तो नहीं बन सकता?
समृद्ध भारतः हमारी आकांक्षा
फिर ’आर्थिक चिंतन-2021’ की चर्चा के अनुसार भी 2030 तक भारत को 10 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने का एक बड़ा लक्ष्य सबके सामने है। यद्यपि भारत इस समय पर विश्व में सर्वाधिक तेजी से उभरती हुई अर्थव्यवस्था है, तो भी 10 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंचने के लिए विविध प्रकार के यत्न करने होंगे। अपने कृषि क्षेत्र को पूरी तरह से समृद्ध करने से लेकर भारत की नई उभरती शक्ति डिजिटल उसको भी तेजी से आगे बढ़ाना होगा। भारत के कृषि निर्यात गत वर्ष दो लाख करोड़ पार कर गए हैं तो 2021-22 में भारत ने 175 बिलियन डॉलर के आईटी और सॉफ्टवेयर के निर्यात भी किए हैं, यह राशि सऊदी अरब से निकलने वाले कच्चे तेल से अधिक है, जो कि विश्व का दूसरा सर्वाधिक पेट्रोलियम पदार्थ (कच्चा तेल) निकालने वाला देश है। अर्थात अकेले डिजिटल क्षेत्र में ही भारत का पिछले 20 वर्षों में अर्थ व रोजगार सृजन का एक बड़ा सहायक क्षेत्र उभरा है। उसे वैश्विक स्तर पर ले जाने के लिए व्यापक दृष्टिकोण व योजनाएं आवश्यक हैं। गत 7 वर्षों में भारत विश्व की 11वीं अर्थव्यवस्था के नाते से उभरकर अब 2.8 ट्रिलियन डॉलर के साथ पांचवें स्थान पर आ गया है, उसे शीघ्र ही तीसरे स्थान पर आना ही चाहिए। पहले व दूसरे पर अमेरिका व चीन हैं।
रोजगार पर महा जनजागरण, समय की आवश्यकता
जब हम भारत के रोजगार के संदर्भ में चर्चा करते हैं तो अनेक अर्थशास्त्रियों का मत रहता है कि सरकार को अपनी नीतियों में ऐसा अथवा वैसा परिवर्तन करना चाहिए। वह इस मत के हैं कि सरकारी नीतियों से ही रोजगार की समस्या का समाधान हो सकता है। यह कुछ मात्रा में सही हो सकता है किंतु गत 70 वर्षों का अनुभव इस मत का पूर्ण समर्थन तो नहीं करता। फिर अनेक विद्वानों का मानना है कि निजी क्षेत्र का निवेश (प्राइवेट इन्वेस्टमेंट) जितना बढ़ेगा, उतनी ही मात्रा में रोजगार निकलेंगे और यह पूंजी चाहे देश से आए या विदेश से, इससे उन्हें ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। यह भी कुछ मात्रा में ही ठीक है, क्योंकि गत 30 वर्षों से जीडीपी में अपेक्षित वृद्धि तो हुई है किंतु यह भी सत्य है कि यह बढ़ी हुई जीडीपी भारत की रोजगार की समस्या का समाधान नहीं कर पाई। इसलिए इसे जॉब्लेस ग्रोथ भी कहा गया है।
कुछ अन्यों का कहना है कि शिक्षा ही सब प्रकार के रोजगार की जननी है, इसलिए शिक्षा को ही, उसके पाठ्यक्रम को ही, परिवर्तित किया जाए, रोजगार के अनुकूल किया जाए। यह बिल्कुल ठीक है, किंतु हमें दीर्घकालिक व अल्पकालिक दोनों मार्गों का अवलंबन करना है।
यद्यपि नई शिक्षा नीति इस विषय में काफी समाधानकारक है। किंतु इस नीति की प्रक्रिया को नीचे तक उतरने में लगभग 20 वर्ष लगेंगे। तब तक भारत अपने जनसंख्यकी लाभांश के दौर का काफी हिस्सा पूर्ण कर चुका होगा। इसलिए भारत की सर्वोच्च आवश्यकता तो वर्तमान की है।
अतः उपरोक्त सभी मत ठीक होते हुए भी पूर्ण नहीं है। वास्तव में इसके लिए भारत जैसे विशाल देश में एक महा जनजागरण ही समाधान है, क्योंकि समाज की जागृति का स्तर ही सरकार की नीतियों का निर्णायक तत्व होता है। वही निजी पूंजी निवेश, रोजगार सृजक नीति निर्माण, सामाजिक-आर्थिक संगठनों की भागीदारी के मार्ग भी खोलता है। यह जनजागरण, शिक्षा, कौशल विकास व उद्यमिता को भी पूर्णरूपेण प्राप्त करने के लिए आवश्यक है। समाज में एक व्यापक जन जागरण हो इस दृष्टि से आर्थिक संगठनों ने मिलकर जो पहल की है, उसी का नाम है - स्वावलंबी भारत अभियान। इस अभियान को भारत के प्रत्येक जिला, प्रत्येक खंड और यही नहीं प्रत्येक ग्राम तक ले जाना होगा। भारत के इस महा जनजागरण में से ही शताब्दियों से चल रही इस बेरोजगारी की महामारी का समाधान भी होगा और भारत एक आर्थिक महाशक्ति के रूप में उभरते हुए, परम्वैभव की अपनी यात्रा पर शीघ्रता से पग बढ़ा पायेगा। और यह निष्कर्ष उतना ही निश्चित है, जितना यह सत्य है कि कल भी सूर्योदय होगा।
भारत माता की जय!!
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