Sunday, August 7, 2016

गांधी जी और स्वदेशी

१. जन्म २ ऑक्टोबर १८६९, से लेकर ३० जून १९४८ तक, ७८ वर्ष की आयु
२. हिंद स्वराज १९०९, सारांश।
३. यात्राएँ अफ़्रीका में १८९३-१९१४
४. डांडी यात्रा १९३०,
५. भारत छोड़ो आंदोलन १९४२, 
६. स्वयं ka वेश पेंट क़मीज़, और टाई,  कोट छोड़ कर, आधी धोती कुर्ता आदि। 
उद्धरण: स्वदेशी की हमारी कल्पना में धर्म और अर्थ की रक्षा सन्निहित है। अपने ही पड़ोसियों की, अपने भाई बहनों की सेवा न करके, उनके मुंह का कौर छीन कर दूसरो के मुंह में डालना परमार्थ नहीं है। वह तो हमारे द्वारा अपना धर्मक्षेत्र त्याग देने के समान है। हम अपने कातने वाली बहनो को तथा अपने बुनकर भाइयों में प्रोत्साहन देने के लिए बंधे हुए हैं।इससे हम देश में भूख में मरते हुए लोगों के घरों में साठ करोड़ रुपया भेज सकें गे। इससे अर्थ की रक्षा होगी। एक साथ धर्म और अर्थ की रक्षा करने वाला यह स्वदेशी का व्रत है। इसे कठिन नहीं समझना चाहिए।" महात्मा गांधी
14 फरवरी 1916
बहुत सोचने के बाद मैंने स्वदेशी की एक ही परिभाषा निश्चित की है और शायद मेरा अभिप्राय इसके द्वारा सर्वाधिक स्पष्ट हो जाता है। स्वदेशी वह भावना है जो हमें दूर की बजाय अपने आसपास के परिवेश के ही उपयोग एवं सेवा तक सीमित रखती है। उद्धाहरण अपना पूर्वजो का  धर्म का पालन करना, राजनीति में स्थानीय संस्थाओ का उपयोग करना और उनके जानेमाने दोषों का परिमार्जन करना।
७. अच्छे उदाहरण: १९१७ में ५ बुनकर परिवार जो काम छोड़ चुके थे, दुबारा काम करना चाहते थे, उनको आश्रम की और से सूत दिया गया और बिक्री की व्यवस्था की गयी। 
  B. इधर एक दूक़ानदार नरंदास जेरजानि ने स्वदेशी वस्त्र की दूक़ान चलायी और घोषणा की कि वे केवल पाँच प्रतिशत ही मुनाफ़ा लेंगे। गांधी जी ने उनका सम्मान किया और बाक़ी लोगों को भी प्रेरित किया। 
  धीरे धीरे यह ही खादी आश्रम आंदोलन के रूप में परिवर्तित हुआ। 
फ़र्क़ भी पड़ा १९२०-२१ में १०२ करोड़ रुपय बिकने वाला विदेशी कपड़ा अगले वर्ष में ही ५७ करोड़ रुपए रह गया। १२९२ मिल्यन यार्ड्ज़ से ९५५ मिल्यन यार्ड्ज़ राह गया। 
८. ग़रीबी की परिभाषा और नीति बनाते समय क्या ध्यान रखना।
९. कार्यकर्ता कैसे खड़े किए। रचनात्मक काम करते हुए कार्यकर्ता तैयार किया । विनोबा भावे, जैसे लोगों को तैयार किया। 

9. लेखक श्रीभगवान सिंह कहते है कि गांधीवादी चिंतक धर्मपाल ने आधुनिक सभ्यता को ‘मनुष्य केंद्रित सभ्यता’ कहा है। इसमें मुझे जोड़ना यह है कि यह ‘मनुष्य केंद्रित आधुनिक सभ्यता’ मुख्यतया ‘अहिंसक हिंसा की सभ्यता’ है। यह अहिंसक हिंसा है क्या, इसे समझने के लिए गांधीजी की पुस्तक ‘हिंद स्वराज’ से एक उद्धरण काफी होगा: ‘‘हजारों साल पहले जो हल काम में लिया जाता था, उससे हमने काम चलाया। हजारों साल पहले जैसे झोंपड़े थे, उन्हें हमने कायम रखा। हजारों साल पहले जैसी हमारी शिक्षा थी, वही चलती आई। हमने नाशकारक होड़ को समाज में जगह नहीं दी। ऐसा नहीं कि हमें यंत्र वगैरह की खोज करना नहीं आता था। लेकिन हमारे पूर्वजों ने देखा कि लोग अगर यंत्र वगैरह की झंझट में पड़ेंगे, तो गुलाम बनेंगे और अपनी नीति को छोड़ देंगे। उन्होंने सोच-समझ कर कहा कि हमें अपने हाथ-पैरों से जो काम हो सके, वही करना चाहिए। हाथ-पैरों का इस्तेमाल करने में ही सच्चा सुख है, उसी में तंदरुस्ती है।’’
10. यह बात 1909 में कही गई थी, जिसमें गांधी ने भारतीय सभ्यता की हजारों वर्षों से चली आ रही स्थिरता, अविच्छिन्नता का चित्र उकेरा था। मगर हजारों वर्षों से चला आया परिदृश्य आज पूरी तरह बदल चुका है। आज खेतों में न हल-बैल हैं, न झोंपड़े, न प्राचीन शिक्षा। ‘यंत्रों की झंझट’ से मुक्त रहने वाले पूर्वजों के वंशधर आज यंत्रों की गिरफ्त में आते जा रहे हैं, उन्हें खुशी-खुशी गले का हार, जीवन का शृंगार समझ कर अंगीकार करते जा रहे हैं। आज खेतों में ट्रैक्टर, थे्रसर, जेसीबी जैसी मशीनें हैं। शहर तो शहर, गांव-गांव में कंकरीट के जंगल फैलते जा रहे हैं। अंगरेजी ढंग की शिक्षा देने वाले स्कूलों से गांव भी पटते जा रहे हैं। यानी जो चीजें गांधी की दृष्टि में भारतीय सभ्यता की हजारों वर्षों से चली आ रही अक्षुण्णता, स्थिरता का आधार स्तंभ थीं, महज सौ वर्षों के दरम्यान नष्ट हो चुकी हैं।
11. यह परिवर्तन चुपचाप आया : गौरतलब है कि इन सबका विनाश किसी हिंसक युद्ध, रक्तपात या तोप-तलवार के जरिए नहीं, बल्कि यूरोप की औद्योगिक क्रांति की कोख से जन्मी प्रौद्योगिकी की बदौलत हुआ है, जिसने हमें विकास, सुविधा, आराम का नशा चखाते हुए इस कदर मदहोश कर दिया कि हमने मशीनीकरण और शहरीकरण को वरदान समझ लिया, बगैर यह देखे कि इनसे कैसे हमारी मूल्यवान न्यामतों का संहार होता जा रहा है। यही है अहिंसक हिंसा, जो बगैर रक्तपात के दीमक की तरह हमारी सभ्यता को खोखली करती जा रही है। दरअसल, बगैर खून-खराबे के प्रकृति प्रदत और समाजकृत चीजों को उन्मूलित किए जाने का आरंभ औद्योगिक क्रांति की औरस संतान बन कर सामने आया। मशीनीकरण ने सुविधा, आराम, कार्यकुशलता, उत्पादकता-वृद्धि के नाम पर धीरे-धीरे अर्थ, उद्योग, व्यापार, जीवन-मूल्य आदि से संबद्ध अनेकानेक पारंपरिक चीजों को खत्म करना शुरू किया। पंूजी का केंद्रीयकरण होता गया, कृषि-सापेक्ष हस्तशिल्प का संहार होता गया। विडंबना यह है कि इस पूंजीवाद का विरोध करने वाले कार्ल मार्क्स को भी कृषि और कृषकों का बने रहना सर्वहारा क्रांति के मार्ग में अवरोध प्रतीत हुआ।
12. मशीनों की बढ़ती आमद ने मनुष्य को दूसरे प्रकार की गुलामी में जकड़ना शुरू किया और उस मशीनीकरण के फलस्वरूप बढ़ते शहरीकरण ने मिल कर सदियों से प्रकृति के साथ लय बना कर चले आ रहे जीवन को क्षत-विक्षत करना शुरू किया। दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि इस मशीनीकरण के गर्भ में पलने वाले जैविक विनाश के कीटाणुओं को वैज्ञानिकता का दंभ भरने वाला मार्क्सवादी दर्शन नहीं देख सका! देखा तो भाववादी दर्शन के लिए बदनाम गांधी ने, जिन्होंने 1909 में ही ‘हिंद स्वराज’ में यह चेतावनी दे दी कि ‘‘मशीनें यूरोप को उजाड़ने लगी हैं और वहां की हवा अब हिंदुस्तान में चल रही है।… मशीन की यह हवा अगर ज्यादा चली तो हिंदुस्तान की बुरी दशा होगी।’’
ऐसा संकेत करके गांधी ने दरअसल, मशीनों के जरिए होने वाली ‘अहिंसक हिंसा’ की ही विभीषिका को सामने रखा था। हथियारों से लड़े जाने वाले युद्धों में मानव-संहार तो होता था, लेकिन युद्धोपरांत फिर आबादी बढ़ती जाती थी, अर्थ, उद्योग, शिक्षा, सामाजिक जीवन और प्रकृति के साथ लयात्मक योग पूर्ववत चलते रहते थे। 
13. रवीन्द्रनाथ टेगोर क्या कहते है: ‘स्वदेशी समाज’ नामक निबंध में रवींद्रनाथ ठाकुर ने लिखा: ‘‘राजाओं में कितने युद्ध हुए, लेकिन हमारे वेणुकुंजों में, आम और कटहल के बागों में मंदिर बनते रहे, अतिथिशालाएं स्थापित होती रहीं, तालाब खोदे जाते रहे, संस्कृत पाठशालाओं में शास्त्र-शिक्षा चलती रही, चंडी-मंडपों में रामायण-पाठ कभी बंद नहीं हुआ, गांव के आंगन सर्वदा कीर्तन-ध्वनि से मुखरित रहे। समाज ने न तो कभी बाहर से सहायता मांगी और न बाहर के उपद्रव से उसकी अवनति हुई।’’
14. जॉन ज़ेरजों: यह सब इसलिए संभव था कि समाज चक्रीय विकास की गति से चलता रहा था, जिसमें थोड़ी देर के लिए ओझल हो जाती चीजों की वापसी हो जाया करती थी। लेकिन औद्योगिक क्रांति ने चक्रीय विकास को पीछे ठेलते हुए एकरेखीय विकास क्रम को सामने रखा, जिसमें वापसी संभव नहीं होती। निरंतर आगे बढ़ते जाना ही विकास का मानक माने जाने लगा। मार्क्स भी इस एकरेखीय विकास के प्रबल प्रवक्ता थे। आज इस एकरेखीय विकास से मोहाविष्ट होकर मनुष्य जल, जंगल, जमीन को नष्ट करता जा रहा है। जॉन जर्जन जैसे विख्यात अमेरिकी चिंतक, जिन्होंने ‘एलीमेंटस आॅफ रिफ्यूजल’, ‘फ्युचर प्रीमिटिव’, ‘वाई आई हेट स्टार ट्रेक’, ‘द फेल्योर आॅफ सिंबॉलिक थॉट’ जैसी विचारोत्तेजक किताबें लिख कर बौद्धिक जगत में हलचल मचा रखी है, इस एकरेखीय विकास की भयावह परिणति पर उनकी टिप्पणी गौरतलब है: ‘‘चक्रीय सभ्यता तो कम से कम मौसमों की लय से जुड़े होने के कारण प्रकृति से कहीं न कहीं जुड़ती थी। मगर सभ्यता के विकास के साथ चक्रीय समय की जगह एकरेखीय क्रमिक विकास ने ले ली। अगर समय एकरेखीय हो, तो इतिहास है, फिर तरक्की है, फिर भविष्य की मूर्तिपूजा है। अब हम प्रजातियों, संस्कृतियों और शायद पूरी की पूरी प्राकृतिक दुनिया को एक काल्पनिक भविष्य की वेदी पर कुर्बान करने को तैयार हैं।…’’
15.  बहुराष्ट्रीय कंपनियां : अब यह खाई में जाने की विश्वव्यापी दौड़ है। अंतरराष्ट्रीय कंपनियां प्रतियोगिता में हैं कि कौन कामगारों का सबसे अधिक शोषण और पर्यावरण को सबसे अधिक बर्बाद कर सकता है। विकास का अर्थ है पर्यावरण का विनाश और व्यक्ति का अमानवीकरण। इस अमानवीकरण का एक प्रत्यक्ष उदाहरण यही है कि हम मोबाइल फोन की सुविधाओं के पीछे पागल होकर टॉवर पर टॉवर लगाते जा रहे हैं, बगैर यह देखे कि कैसे इन टॉवरों से आए दिन पक्षी मौत का शिकार हो रहे हैं। एक समय वह था जब एक पक्षी की हत्या ने वाल्मीकि को आदि कवि बना दिया, और आज का समय है कि सैकड़ों पक्षियों की मौत का कोई असर हम पर नहीं होता। जर्जन ने हमारे समय में एकरेखीय विकास की ‘अहिंसक हिंसा’ का जो यथार्थ रखा है, उससे हम इंकार नहीं कर सकते। क्या यह सत्य नहीं है कि बड़ी-बड़ी परियोजनाओं के कारण लाखों-करोड़ों लोगों को पुश्तैनी आवास से विस्थापित होना पड़ा है।
उत्पादकता वृद्धि के नाम पर पारंपरिक जैविक खेती, जल-प्रबंधन, वन संपदा आदि की बलि देते हुए रासायनिक खादों और कीटनाशक दवाओं के बल पर जिस व्यावसायिक खेती और औद्योगीकरण को बढ़ावा दिया गया, उससे पर्यावरण का विनाश होने के साथ-साथ मनुष्य कई बीमारियों का शिकार होता गया है, अनेक पशु-पक्षियों की प्रजातियां समाप्त हो चली हैं। 👌वनों का विकल्प वृक्षारोपण के रूप में पेश किया जा रहा है, पर क्या इन वृक्षों के बीच शेर, बाघ, हाथी, हिरण जैसे वन्यजीव रह सकते हैं? सड़क, भवन, बांध आदि बनाने के लिए ‘भूधर’ कहलाने वाले पहाड़ों को जिस तरह तोड़ा जा रहा है, क्या फिर से पहाड़ खड़े किए जा सकते हैं? स्पष्टत: इस एकरेखीय विकास क्रम में समाप्त होती जा रही इन चीजों की वापसी संभव नहीं है। इस अहिंसक हिंसा ने हमें आज जिस मुकाम पर पहुंचा दिया है वह आदिवासी चिंतक बृजलाल के शब्दों में यों है: 👌‘आसमान फटा जा रहा है और हुक्मरान थिगड़े लगाने की बात कर रहे हैं।’
जाहिर है कि तथाकथित वैज्ञानिक और प्रौद्योगिक प्रगति बगैर किसी खून-खराबे के मनुष्य के सामने सुविधाओं का अंबार लगा कर विनाशकारी सुरंग में उसे धकेले जा रही है। न केवल मनुष्य और मनुष्यता की, बल्कि समस्त जड़-चेतन की बलि हो रही है इस विकास देवी की वेदी पर। ऐसे में विचारणीय है कि क्या रक्तरंजित हिंसा से अधिक संहारक इस ‘अहिंसक हिंसा’ को इसी तरह चलते रहने देना दिया जाए या फिर दुनिया को बचाने के लिए इस पर लगाम लगाई जानी चाहिए। 👌जॉन जर्जन ठीक ही कहते हैं: ‘‘व्यवस्था को पलट देने का आह्वान हास्यास्पद लग सकता है, लेकिन एकमात्र चीज, जो इससे भी अधिक हास्यास्पद है कि इस व्यवस्था को चलते रहने देना चाहिए।’’
16.👌👌👌यहां हमें फिर गांधी की याद आती है, जिन्होंने 5 अक्तूबर 1945 को पं. नेहरू को लिखे पत्र में यह चेतावनी दी थी: ‘‘मुझे कोई डर नहीं है कि दुनिया उल्टी ओर जाती दिखती है। यों तो पतंगा जब अपने नाश की ओर जाता है तब सबसे ज्यादा चक्कर खाता है और चक्कर खाते-खाते जल जाता है।… मेरे कहने का निचोड़ यह है कि मनुष्य जीवन के लिए जितनी जरूरत की चीज है, उस पर निजी काबू रहना ही चाहिए, अगर न रहे तो व्यक्ति बच ही नहीं सकता।’’ यक्ष प्रश्न यही है कि क्या ‘जरूरत की चीज’ और विकास के बीच हम संतुलन स्थापित कर इस अहिंसक हिंसा को रोकेंगे या इस मार्ग पर बढ़ते हुए पतंगे की तरह जल जाएंगे

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